शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

१ सामयिक

आधुनिक या समावेशी विकास
डॉ.बनवारीलाल शर्मा


आजादी के बाद विकास का जो मॉडल हमने चुना है वह सभी को अपने में समाहित करने वाला नहीं था । यह समाज की ऊपरी परत को लगातार लाभ दिलवाता रहा और उसके परिणाम आज हमारे सामने हैं । देश की तीन-चौथाई आबादी के पास दो जून रोटी तक का आसरा नहीं है और दूसरी ओर एक उद्योगपति अपने परिवार के रहने के लिए २७०० करोड़ रूपये का घर बना रहा है ।
अब यह सिद्ध हो गया है कि १५ अगस्त १९४७ को औपनिवेशिक शासन से मुक्त होते समय हमने विकास का जो रास्ता अपनाया, वह गलत था । हालाँकि महात्मा गांधी उस समय जीवित थे, मगर उनकी अनसुनी करने का दुस्साहस नए देश के नए नेताआें में आ चुका था । हमारे नीति निर्माता गाँवों को पीछे छोड़ कर औद्योगीकरण की राह पर चल पड़े आर्थिक विषमता की खाई गहरानी शुरू हो गई । इस विषमता से असंतोष फैलना स्वाभाविक था, इसीलिए सन् १९७५ में भारत की जनता को इस इमर्जेंासी और उसके तहत लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन झेलना
पड़ा । इस दौर में गरीबी हटाओ का नारा भी सुनाई दिया और संविधान मेंं संशोधन कर भारत को समाजवादी गणतंत्र घोषित कर दिया गया, लेकिन वह सब जन साधारण की आँखों में धुल झोंकने के लिये था । नब्बे के दशक में हमारी सरकारों ने पूरी तरह वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण का रास्ता अपना लिया । इसके परिणामस्वरूप अब सर्वनाश एकदम सामने आ खड़ा हुआ है ।
आज एक बहुत ही खतरनाक परिदृश्य हमें दिखाई देता है । एक ओर देश की आबादी के ०.०१३ प्रतिशत, यानी सिर्फ १२ लाख लोगों के पास देश की एक तिहाई सम्पत्ति है । इन लोगों की समझ में नहीं आता कि इस ऐश्वर्य का क्या उपयोग करें । इतने धन को कैसेखर्च करें ? अत: विलास का नंगा नाच
है । दूसरी ओर मुख्यत: सरकारी, अर्द्ध सरकारी और सेवा क्षेत्र के कर्मचारियों से बना मध्यवर्ग है, जिसे संगठित होने के कारण अपनी माँगे मनवा ले जाने की सुविधा है । अत: उसका आर्थिक आधार सुरक्षित है । उदारीकरण के दौर में कॉरपोरेट जगत के लिए आबादी यह हिस्सा अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जिसके लिये तमाम तरह की उपभोक्ता सामग्री से देश के बाजार और विज्ञापनों से समाचापत्र पटे रहते हैं । सबसे अन्त में देश के तीन चौथाई से भी अधिक ७७ प्रतिशत यानी ८४ करोड़ लोग हैं जो २० रू. या उससे भी कम प्रति दिन की आमदनी पर अपनी जिन्दगी चला रहे हैं ।
देश का हर दूसरा बच्च कुपोषित
है । चारों तरफ भूखमरी की हालत है । आश्चर्य नहीं कि इस व्यवस्था को लेकर असंतोष निरन्तर गहरा रहा है और यत्र-तत्र सर्वत्र जनता के स्वत:स्फूर्त आन्दोलन खड़े हो रहे हैं । लेकिन हमारी सरकारों में अपनी गलतियों को स्वीकार करने की सदाशयता नहीं है और उसमें सहिष्णुता की कमी भी है । वह निर्मम होकर जनान्दोलनों का क्रूर दमन करती है । शान्तिपूर्ण ढंग से किये जा रहे आन्दोलनों की इसी अनदेखी के कारण सरकारी हिंसा के विरोध में अब नक्सलवाद और माओवाद के रूप में हिंसक आन्दोलन भी अपनी जड़ें मजबूत कर रहे हैं । क्या इन खतरनाक परिस्थितियों में अनन्त काल तक हमारा देश एकजुट और अखण्ड रह पायेगा ?
समय आ गया है कि भावी सर्वनाश से बचने के लिये समाज के जागरूक व्यक्ति तत्काल पहल करेंऔर एक नयी राजनीति और विकास का एक वैकल्पिक ढाँचा तैयार करने के लिये के लिये एकजुट हो जाएं ।
सवाल उठता है कैसा होना चाहिए हमारे विकास का मॉडल ? विकास को मात्र सकल आर्थिक वृद्धि (जीडीपी) से नहीं नापा जा सकता । हालाँकि देश में अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी है और मध्यवर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से को भी सम्पन्नता का स्वाद चखने का मौका मिला है, मगर ऊपर के तबके की इस सम्पन्नता से कुछ छन-छन कर नीचे आयेगा और उससे गरीबी खत्म हो जायेगी यह सोचना हास्यास्पद है । समाज का सबसे आखिरी आदमी कितना खुशहाल ओर सन्तुष्ट है यही विकास का वास्तविक पैमाना हो सकता है । शोषण और असमानता पर आधारित यह विकास जो प्रकृति का विनाश कर रहा है । कदापि खुशहाली नहीं ला सकता है । यह विकास सिर्फ संविधान और कानून की दुहाई देते हुए हिंसा पैदा कर सकता है या फिर जातिभेद, लिंगभेद और साम्प्रदायिकता के नाम पर मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन बना सकता है ।
साम्राज्य, पूँजीवाद और उपभोक्तावाद से अपनी जड़ें सींचने वाले इस विकास को हमें एक समतामूलक विकास से बदलना होगा जहाँ बाजार और मुनाफा मनुष्य की नियति तय न करें । बेलगाम उदारीकरण सार्वजनिक सम्पत्ति का निजीकरण, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, कॉरपोरेट खेती आदि से बचते हुए हमें ऐसा विकास माडल तैयार करना पड़ेगा जहाँ जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की बुनियादी जरूरतें पूरी करने की क्षमता तो हो लेकिन किसी भी व्यक्ति को असीम उपभोग की छूट न हो ।
पश्चिम की तर्ज पर किया जाने वाला विकास हमारे दशे की परिस्थितियों के कतईअनुकूल नहीं हैं । बड़े बाँध, परमाणु ऊर्जा, नदी जोड़ों परियोजना, विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) आदि की हमें जरूरत नहीं है । विशालकाय उद्योगों भारी पूँजी और प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन की बुनियाद पर खड़े विकास के स्थान पर हमारा विकास कृषि केन्द्रित होना चाहिए, जिसमें किसान को मजबूत आर्थिक आधार भी मिले और सम्मानपूर्ण जीवन भी । किसान आज की तरह अकुशल श्रमिक न कहा जाए । विकास ऐसा हो, जिसमें व्यक्ति की जरूरतों ओर प्रकृति के बीच एक सन्तुलन हो, श्रम प्रधान तकनीकी का इस्तेमाल हो व ग्रामीण, लघु व कुटीर उद्योगों की प्राथमिकता रहे । आधुनिक तकनीकी के साथ हम समयसिद्ध पारम्परिक लोक ज्ञान का उपयोग विकास के लिये करना चाहते हैं । प्राकृ तिक संसाधनों पर राज्य के स्वामित्व के सार्वभौम सत्ता के सिद्धांत को हम खारिज करते हैं और जल, जंगल, जमीन के अधिकार वापस जनता को देना चाहते हैं ।
गांधी की ग्राम गणराज्य की अवधारणा इस सर्व जन सुखाय विकास का आधार बन सकती है । ७३ वें एवं ७४ वें संविधान संशोधन अधिनियमों के रूप में हमारे पास ऐसा एक जरिया भी है । लेकिन भले ही यह कानून संसद में पारित हो गया हो, न केन्द्र सरकार ने इन कानूनों को लागू करने में विशेष रूचि ली और न अधिकांश राज्य सरकारों ने, क्योंकि ये कानून ठीक उसी वक्त शुरू किये जा रहे आर्थिक उदारीकरण के रास्ते में आड़े आ रहे थे । इन कानूनों में कुछ छिटपुट कमियाँ
हैं । उदाहरणार्थ ग्रामसभा जिसमें गाँव के सभी वयस्क शामिल होते हैं, को सर्वोच्च्ता नहीं दी गई है । यदि राजस्व ग्राम के बदले तोक गाँव या पुरवा तथा शहरों में मोहल्ले को इकाई माना जाये जिला नियोजन समिति को सचिवालय के पूरे अधिकार दे दिये जायें और केन्द्र से किसी राज्य को मिलने वाला आधे से अधिक धन ७४वें संविधान संशोघन में उल्लिखित राज्य वित्त आयोग के माध्यम से सीधे पंचायतों को दे दिया जाये तो विकास के वैकल्पिक ढाँचे की शुरूआत हो सकती
है ।
प्राकृतिक संसाधनों से यदि उत्पादन के लिये परियोजनाएं बनाने की जरूरत है तो यह कार्य उत्पादक कम्पनी बना कर किया जा सकता है । यदि ग्रामसभा किसी परियोजना से सहमत हो उससे स्थानीय समुदाय का पर्यावरण न बिगड़ता हो और न विस्थापन होता हो तो यह परियोजना स्थानीय लोग उत्पादक कम्पनी बनाकर कर सकते हैं और बाहरी पूँजी का दखल रोक सकते हैं । किसी भी तरह के विकास मेंें विस्थापन अन्तिम विकल्प होना चाहिये और उसे समाज की आम सहमति से किया जाना चाहिये । स्वावलम्बन के लिए बिजली उत्पादन में आत्मनिर्भर होना जरूरी है । अत: उत्पादक कम्पनियाँ बना कर देश में उपलब्ध बायोमास सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा व पानी की ऊर्जा से बिजली बना कर ग्राम समाज को आत्मनिर्भर बनाना वैकल्पिक विकास की प्राथमिकता में होगा । ताकि गाँव - गाँव में छोटे उद्योगों का जाल बिछ जाए और कॉरपोरेट ताकतों को बाहर किया जा सके ।
मगर विकास के इस वैकल्पिक मॉडल को जमीन पर उतारने के लिये एक वैकल्पिक राजनीति तैयार करना सबसे पहले जरूरी है । ***

२ हमारा भूमण्डल

एच.आई.वी. और चेचक का अंतर्संबंध
सुश्री सुस्मिता डे

वैज्ञानिकों का एक वर्ग चेचक के वायरस में एक हद तक समानता खोज पाने में सफल हुआ है तथा वह इस खोज का एच.आई.वी. एड्स के इलाज में महत्वपूर्ण उपलब्धि मान रहा है । वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिकों का दूसरा वर्ग इसे महज कपोल कल्पना की संज्ञा दे रहा है । यह तो आने वाला समय ही बता पाएगा कि सच्चई क्या है ?
भाारत में सन् १९७५ में चेचक के खिलाफ ऑपरेशन चेचक रहित भारत का स्माल जीरो के प्रारंभ होते ही संयुक्त राष्ट्रसंघ के एक अधिकारी ने कहा कि यदि भारत से चेचक को समाप्त् कर दिया गया तो वे जीप का टायर खा लेंगे । कहते हैं चेचक की समािप्त् के पश्चात् इस कार्यक्रम के निदेशक डी.ए.हेण्डरसन ने उन्हें जीप का एक टायर भेजा था । ९ दिसम्बर १९७९ को यह प्रमाणित कर दिया गया था कि विश्वभर में चेचक का समूल नाश हो गया है । परंतु आधुनिक औषधि विज्ञान द्वारा प्रदत्त यह पहली राहत बहुत कम समय दिलासा दे पाई । टीकाकरण अभियान के विशेषज्ञों को इस बात का भान नहीं था कि अफ्रीका के जंगलों में एक अन्य वायरस चेचक के जाने का इंतजार कर रहा है । जल्दी ही इस वायरस का तेजी से संक्रमण फैलाने का लंबा इंतजार समाप्त् हुआ और १९८० के दशक में एचआईवी के रूप में सामने आया और अभी तक लोगों को अपना शिकार बना रहा
है ।
जार्ज मेसन विश्वविद्यालय के बायो सुरक्षा कार्यक्रम के रेमण्ड वेनस्टेन का सवाल है कि कल्पना कीजिए कि १९३० के दशक में पश्चिमी अफ्रीका के छोटे से क्षेत्र में पहली बार एड्स का वायरस उत्पन्न हुआ । यह भी सोचिए की १५ वर्ष की अल्प अवधि में यौन संबंधों से फैलने वाली एक बीमारी, वायु के माध्यम से फैलने वाली के मुकाबले इतनी तीव्रता से कैसे फैल सकती है ? विचारणीय है कि १९७० के दशक के बाद एकाएक ऐसा क्या हो गया ?
चेचक के नाश और इसके एड्स कीटाणुआें से मिलकर तेजी से फैलने के समयकाल पर वेनस्टेन का ध्यान अवश्य आकृष्ट हुआ । यह भी सच है कि अनेक सामाजिक-आर्थिक पहलू जैसे असुरक्षित यौन संबंध एवं नशीली दवाएं इसके लिए जिम्मेदार हैं । लेकिन वेस्टन की टीम सीसीआर नामक उस प्रोटीन की अनदेखी नहीं कर पाई जो कि दोनों वायरस में अनिवार्य रूप से पाया जाता है ।
इस विषय पर अध्ययन कर रहे दल के सदस्य एवं केलिफोर्निया विश्वविद्यालय में आनुवांशिकी विभाग के माइकल वेनस्टेन का कहना है कि सीसीआर-५ एवं सीएक्ससी
आर-४ कोशिका की सतह पर विद्यमान दो ग्राही हैं, जो कि प्रतिरोधी कोशिकाआें को संक्रमित स्थान पर ले जाने के एक भाग के रूप मेंइनका इस्तेमाल कोशिकाआें पर आक्रमण करने हेतु करता है । एक अन्य अध्ययन में साझीदार एवं अमेरिका के जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के सूक्ष्म जीवविज्ञान, प्र्रतिरक्षक तंत्र शास्त्र एवं लाक्षणिक औषधि विज्ञान, विभाग के उपाध्यक्ष माइकल बकरिंसी का कहना है कि कुछ यूरोपीय व्यक्तियों ने सीसीआर-५ कोशिकाआें में परिवर्तन किया जिससे वे एचआईवी प्रतिरोधी बन गई ।
पूर्व में किए गए शोध में भी यह दर्शाया गया था कि चेचक वायरस भी संक्रमण फैलाने के लिए उसी मार्ग का इस्तेमाल करते हैं जिसका कि एचआईवी वायरस । यदि चेचक किसी व्यक्ति की असंक्राम्य कोशिकाआें को व्यस्त रख सकता है, तो वह व्यक्ति एचआईवी प्रतिरोधी भी बना रह सकता/सकती है । इस सिद्धांत के प्रतिपादन हेतु नौसेना में कार्यरत १९ से ४१ वर्ष मध्य के २० युवकों का चयन किया गया । उन २० में १० को चेचक का टीका लगाया गया था । उनकी सफेद रक्त कोशिकाआें के नमूने लिए गए और उन्हें एचआईवी से संक्रमित किया गया था । जिन कोशिकाआें में चेचक टीके को ग्रहण किया था उनमें रोगवाहक संक्रमण मे काफी आई । बीएमसी इम्युनलाजी के १८ मई के संस्करण में लिखा है कि जब इनमें अतिरिक्त सीरम डाला गया तो इसके परिणामस्वरूप केवल बिना टीकाकरण वाले जीवाणु समूह में ही एचआईवी में वृद्धि हुई ।
इस प्रश्न के जवाब में कि अध्ययन उन एचआईवी संक्रमित व्यक्तियों के संबंध में क्या स्पष्टीकरण देता है, उन्हें चेचक का टीका लगाया गया था ? इस पर बकरिंसी का कहना है टीकाकरण के बाद इसमें अंशत: गिरावट आई है । हमारे मामले में टीके द्वारा स्वाभाविक रूप में दी गई प्रतिरक्षा से बचाव तो हुआ परंतु कम समय के लिए । परंतु एक वर्ष पश्चात
इससे प्राप्त् होने वाला बचाव रोमांचित कर सकता है । अमेरिका के नेशनल इंस्टिटयूट ऑफ एलर्जी एवं इन्फेक्टिशयस डिसीज की गीता बंसल का कहना है एचआईवी के प्रतिरोधक के रूप में विभिन्न रोगवाहकों का इस्तेमाल ध्यान देने योग्य है ।
वैसे विषाक्त विज्ञानी टी.जेकब जान की सोच है कि शोध ने जो संबंध स्थापित ध्यान किए है वह महज अटकलबाजी है । वहीं क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के चिकित्सकों
का कहना है कि कल्पना कीजिए की चेचक का टीका १९८० के दशक एवं उसके बाद भी प्रयोग में आता रहता तो कुछ मामलों में इसके साइड इफेक्ट जीवन के लिए खतरनाक सिद्ध होते । हम खुशकिस्मत हैंकि एचआईवी संक्रमण चेचक के समाप्त् हो जाने के बाद प्रकाश में आया । हंडरसन इससे सहमति जताते हुए कहते हैं कि मेरे विचार से यह रोचक आंकलन है । लेकिन अभी इसमें इतना दम नहीं है कि इसे प्रयोग में लाया जा सके ।
***

३ खतरे में है

पशु-पक्षियों का जीवन
नरेन्द्र देवांगन

कहा जाता है कि हम जीवों की महालिपुिप्त् के दौर से गुजर रहें हैं । वैज्ञानिकों का अनुमान है हर साल पशु-पक्षियों, कीड़े-मकाड़ों और पेड़-पौधों की कम से कम सौ प्रजातियां हमेशा के लिए हमसे बिछुड़ जाया करेंगी । साथ ही वे चेतावनी देते हैं कि जिन कारणों से तेजी से जीवों की विलुिप्त् हो रही है, वही कारण धीरे-धीरे पृथ्वी को मानव जाति के आवास लायक नहीं रहने देंगी ।
वैज्ञानिकों या मानना है कि अगर हम आर्थिक विकास का अंधाधुंध प्रकृति का विनाश तथा पर्यावरण की रक्षा के बीच एक सही फैसला लेने में देर कर देते हैं, तो मानव जाति की इस नियति को शायद टाला नहीं जा सकेगा।
संसार भर के राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र की कई महारथी वैज्ञानिकों की इस चेतावनी को खास महत्व नहीं देते हैं कुछ का कहना है कि विश्व के भविष्य की यह भयावह तस्वीर सिर्फ आंकड़ों और सिद्धांतों की उपज है, वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है । कई लोग यह तर्क देते हैं कि विलुिप्त् से हमे घबराना नहीं चाहिए । जीवों की विलुिप्त् तो प्रकृति के विकास का नियम है । मानव के धरती पर आने से पहले भी ढेर सारे जीव खत्म हुए हैं । डायनासौर भी आखिर एक झटके मेंसंसार भर से मिट गए थे । फिर भी धरती बनी रही और जीवन फलता-फूलता रहा ।
यही सही है कि धरती पर जीवन लगभग चार अरब सालोंके इतिहास में कई बार जीवों पर अस्तित्व के गंभीर संकट के दौरान डायनासौर खत्म हुए । पर उन प्राकृतिक विलुप्त्यिों और आज के पर्यावरण के संकट के बीच कई बुनियादी भिन्नताएं हैं । प्रकृति में जीवों का विकास तभी होता है जब किसी प्राकृतिक उथल-पुथल या मौसम में भारी बदलाव के दौरान कुछ अयोग्य प्रजातियां नई परिस्थिति में खत्म हो जाती हैं । तब अन्य प्रजातियां उनके द्वारा खाली किए गए स्थान को भरती हैं । उल्का पिंडों की चोट का मौसम मंे आए बदलाव के कारण डायनासौर जब खत्म हुए तो उनसे रिक्त हुए हर स्थान को स्तनपायी वर्ग के विभिन्न प्राणियों ने भर दिया । कहा जाता है कि सभी डायनासौर एकाएक खत्म हुए थे, पर आज की विलुप्त्यिों के मुकाबले में देखा जाए तो उनका खात्मा एक लंबे समय के दौरान हुआ । जीवाश्मों के अध्ययन से पता चलता है कि डायनासौर की विलुिप्त् की औसत दर एक हजार वर्ष में एक प्रजाति से अधिक नहीं रही थी ।
प्रकृति में नई प्रजातियों का विकास काफी लंबे समय में होता है । पिछले एक हजार वर्षोंा के दौरान जीवन की एक हजार से अधिक प्रजातियां विलुप्त् हुई हैं । इस दौर की विलुप्त्यिों में खास बात यह है कि इन सभी जीवों का खात्मा सिर्फ एक प्राणी मानव की तथाकथित सफलता के एवज में हुआ । हालांकि पिछले तीन सौ सालों के दौरान औजारांे और टेक्नॉलॉजी के अभूतपूर्व विकास के कारण इंसान ने धरती के लगभग हर हिस्से को अपनी आर्थिक गतिविधियों की चपेट में ले लिया है और इस दौरान पर्यावरण के विनाश और जीवों की विलुिप्त् की दर में तेजी से वृद्धि हुई है । पर हाल के अध्ययन बताते हैं कि प्रागैतिहासिक काल से ही जहां-तहां मानव के कदम पड़े वहां प्रकृति और प्रजातियों का विनाश शुरू हो गया ।
लगभग तीस-चालीस हजार साल पहले मानव तकनीकी रूप से इतना विकसित हो चुका था कि वह अफ्रिका और एशिया के कुछ चुने हुए क्षेत्रोंसे बाहर निकलकर दूर नए इलाकों में बसने लगा । दक्षिणी फ्रांस और स्पेन मे मिले क्रो-मैग्नन मानव द्वारा बनाए गए गुफा चित्रों से पता चलता है कि २५ हजार वर्ष पहले यूरोप में इंसान और विशाल शेर, प्रागैतिहासिक बायसन, चीता भालू, शुतुरमुर्ग, जेबरा, कई तरह के जंगली घोड़े, रोंएदार गैंडा और महादंत हाथी (मैमथ) सभी एक साथ रहते थे । आधुनिक मानव ने यूरोप में उन्हें कभी नहीं देखा । आज से लगभग दस-पंद्रह हजार वर्ष पहले हिमयुग के खात्मे के साथ-साथ उनका भी खात्मा हो गया । अब तक मौसम का बदलाव ही उनकी विलुिप्त् का कारण समझा जाता था । पर पच्चीस लाख वर्ष के हिमयुग के दौरान धरती कम से कम बीस बार गर्म हुई । तब ये जीव खत्म क्यों नहीं हुए ?
नवीन पुरातात्विक खोंजे मौसम के बदलाव के साथ-साथ मानव की आर्थिक गतिविधियों को भी उन पशुआें की विलुिप्त् के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं । आदमी के पहुंचने के पहले जब भी मौसम गर्म हुआ, ये जीव उत्तर में ठंडे प्रदेशों की ओर चले गए । पर जब लोगों ने टुंड्रा प्रदेशों तक अपना डेरा जमा लिया और वहां की प्रकृति को बदलना शुरू कर दिया तब इन पशुआें को दक्षिण के सीमित इलाके मंे ही रहकर मौसम की मार सहनी पड़ी । औजारों का विकास और जनसंख्या की वृद्धि के कारण अब अधिक पशु शिकार में भी मारे जाने लगे और वे धीरे-धीरे खत्म हो गए ।
इसी तरह उत्तरी दक्षिणी अमेरिका में भी आदमी के पहुंचने के बाद ही जीवों की विलुिप्त् का एक अभूतपूर्व सिलसिला शुरू हो गया । हिमयुग के दौरान समुद्र का काफी सारा पानी बर्फ के रूप में जमे रहने के कारण समुद्र का तल आज से काफी नीचा था । उस समय अलास्का (उत्तरी अमेरिका) और साइबेरिया के बीच समुद्र नहीं था । दोनों क्षेत्र एक जमीनी पुल द्वारा जुड़े हुए थे । सुदूर पूर्व के लोग सबसे पहले इसी पुल से होकर अमेरिका पहुंचे, जो बाद में इंडियन कहलाये । पशु-पक्षियों के मामलों में उस समय के अमेरिका की तुलना मध्य अफ्रीका के जंगल और सवाना से की जा सकती है । चीता, शेर, बड़े-बड़े रीछ, ज़ेबरा, याक, तापिर, लंबे दातोंवाला बाघ, तरह-तरह के छोटे-बड़े हाथी, ऊंट और जंगली घोड़ा, ये सभी पिछले दस-पंद्रह हजार साल पहले अमेरिकी महादेशों से खत्म हो गए । इस दौरान उत्तरी अमेरिका में बड़े पशुआें के कुल ३३ वंश और दक्षिणी अमेरिका में ४६ वंश विलुप्त् हो गए ।
संसार भर में कहीं भी इतने कम समय में इतनी सारी प्रजातियां एक साथ खत्म नहीं हुई । हालांकि इन विलुप्त्यिों में इन्सान की भूमिका कितनी थी और मौसम के बदलाव की कितनी, यह स्पष्ट रूप से कहना संभव
नहीं है । पर जीवाश्मों के अध्ययन और हाल में खोजे गए पुरावशेषों से यह पता चलता है कि अमेरिका महादेशों में जैसे-जैसे इन्सान उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ता गया वैसे-वैसे उन इलाकों में विलुिप्त् की दर तेज होती गई ।
ये तो रही महाद्वीपों की बात । समुद्र के बीच में अलग-अलग में मानव द्वारा पशु-पक्षियों की विलुिप्त् की कहानी और भी रोंगटे खड़े कर देने वाली है । प्रशांत महासागर तथा समुद्रों के बीच ऐसे अनेक छोटे-बड़े द्वीप हैं जिनका निर्माणज्वालामुखियों के फटने से हुआ और जो कभी भी किसी महाद्वीप का हिस्सा नहीं थे । इन द्वीपों में प्रकृतिका ताना-बाना बहुत ही नाजुक है जिसमें थोड़ा भी उलटफेर विनाश का कारण बन सकता है । साथ ही हरेक द्वीप की इकॉलॉजी अपने आप में अनूठी है । इन द्वीपों में प्रकृति पर जीव तैरकर, उड़कर या समुद्र में तैरते मलबे के साथ बहकर वहां पहुंचे । इसलिए इन द्वीपों पर बड़े चौपाए लगभग नहीं मिलते और पक्षी तथा सरीसृप अधिक संख्या में पाए जाते हैं । द्वीपों पर पहुंचने के बाद उन जीवों में भिन्नताएं विकसित हुई और वहां के विशिष्ट वातावरण पर वे निर्भर होते चले गए ।
स्तनधारियों के अभाव में सरीसृपों ने उनकी खाली जगह को भरते हुए विशाल आकार धारण कर लिया । जैसे गैलापेगोस का विशाल कछुआ और इंडोनेशिया के कोमोडो द्वीप का ड्रेगन । इसी तरह मॉरिशस के डोडो के समान कई पक्षियों ने उड़ना छोड़ दिया । इन द्वीपों पर मनुष्य का सबसे ज्यादा कुप्रभाव पक्षियों पर ही पड़ा । हालांकि पक्षियों की हडि्डयां नरम होने के कारण उनके अवशेष बहुत कम बचे रह जाते हैं, फिर भी उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि पिछले एक हज़ार वर्षोंा के दौरान प्रशांत महासागर के द्वीपोंमें पक्षियों की कम से कम दो हज़ार प्रजातियां मनुष्य द्वारा खत्म कर दी गई । आज संसार भर में पक्षियों की करीब दस हजार प्रजातियां बची हुई हैं, जो वनों के विकास और प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । जिस गति से उनका और उनके पर्यावरण का विनाश होता रहा है उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि अगली सदी के मध्य तक दुनिया भर में कितने पक्षी बच पाएंगे ।
इस आशंका को गंभीरता से न लेने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में उत्तरी अमेरिका में अरबों की संख्या में पाए जाने वाले पक्षी सफरी कपोत (पैसेंजर पीजन) का इंसान द्वारा पूरी तरह से सफाया कर दिया था । इसी प्रकार संसार भर में सबसे अधिक संख्या में पाए जाने वाले चौपाए अमेरिकी बायसन को कुछ ही वर्षोंा के अंदर खत्म कर दिया गया ।
समुद्री द्वीपोंमें पशु-पक्षियों की विलुिप्त् में शिकार और जंगल में आग लगाकर खेती के अलावा मनुष्य द्वारा मुख्य भूमि से वहां लाए कुत्ते, बिल्ली, चूहा, सूअर, खरगोश और नेवला जैसे पशुआें ने भी अहम भूमिका निभाई । आदिम पॉलिनेशियाई लोगों द्वारा आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, हवाई और अन्य द्वीपों पर लाए गए इन पशुआें के स्थानीय पर्यावरण पर पड़े भयावह परिणामों को जानने के बाद भी आधुनिक काल तक यह सिलसिला जारी रहा । ऑस्ट्रेलिया में बाहर से लाए गए डिंगो कुत्ते ने वहां के कई अद्भुत मार्सुपियल्स को खत्म कर दिया । क्यूबा और हाइथी द्वीपों में मनुष्य के साथ सबसे पहले पहुंचा चुहा । इन चूहों ने पक्षियों के अंडों और चूजों पर दांत साफ किए । जब चूहों का प्रकोप बहुत बढ़ गया तो उनका दमन के लिए नेवलों को लाया गया । पर नेवले उनकी तरफ ध्यान न देकर कई स्थानीय पशु-पक्षियों को चट करने में जुट
गए ।
निश्चित तौर पर मनुष्य का अपने जन्म काल से प्रकृति के साथ अंतर्विरोध रहा है । दरअसल मानव दूसरे जीवों से इसी मामले में अलग है कि वह अन्य पशुआें की तरफ सिर्फ प्रकृति के अनुरूप अपने को नहीं ढालता है । खुद की जरूरत के मुताबिक वह प्रकृति को बदलता है, उसमेंतोड़-मरोड़ करता है ।
हाल के दिनों में विकास के साथ- साथ यह प्रवृत्ति अपनी चरम पर पहुंच चुकी
है । पर मुसीबत यह है कि जिस प्रकृति से लड़कर और उसे वश में करके हम पशु से इन्सान बने और आज सर्वशक्तिमान होने का दावा कर रहे हैं, उसी प्रकृति का हम एक अभिन्न हिस्सा भी हैं। उसे बरबाद कर मानव खुद जिंदा नहीं रह सकता है । एक और मामले में हम पशुआें से भिन्न हैं कि अपनी प्रवृत्ति के खिलाफ भी मानव सचेतन प्रयास कर सकता है । शायद प्रकृति के साथ हमारे अन्याय का घड़ा अभी पूरी तरह से भरा नहीं है । अगर पक्का इरादा हो तो उसे फूटने से अभी भी हम बचा सकते हैं।
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४ जनस्वास्थ्य

चावल की गुणवत्ता पर टकराहट
सुश्री ज्योतिका सूद

पंजाब में चावल की नई किस्म में पड़े काले धब्बों के कारण उसकी खरीद पर रोक लगा दी गई थी । सरकारी कृषि शोध संस्थाएं जहां इन धब्बों को लौह अधिकता का परिणाम बता रही हैं वहीं दूसरी ओर मानव स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य कर रही सरकारी शोध संस्था आईसीएमआर ने इस बात को सिरे से नकारते हुए इस खाने योग्य अवश्य ठहरा दिया है । सवाल उठता है कि इतने दिनोंेतक इस विवाद को तूल देने के पीछे कहीं विदेशी बीज कंपनियोंकी साजिश तो नहीं थी ?
भारतीय चिकित्सा शोध परिषद (आईसीएमआर) ने चावल की विवादास्पद किस्म पीएयू - २०१ को मानव उपभोग हेतु स्वीकृति प्रदान कर दी है । ४००० करोड़ रूपये मूल्य के ४ लाख टन चावल का भाग्य पिछले एक वर्ष से अधिक से अधर में लटका था । पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के नाम पर विकसित पीएयू-२०१ चावल पर भारतीय खाद्य निगम, केन्द्रीय खरीद करने वाली एजेंसियों एवं पंजाब सरकार किसी समझौते पर नहीं पहुंच पा रहे थे । भारतीय खाद्य निगम का कहना था कि चावल के दाने पर काले दाग हैं और कुछ मामलों में इसमें स्वीकृत पैमाने से अधिक नुकसान हुआ है तथा चावल के दाने भी टूटे हुए हैं । उनका कहना था कि इस सबके चलते यह चावल खाने के लिए अनुपयुक्त हैं । वहीं कृषि विश्वविद्यालय का दावा था कि ये धब्बे चावल में निहित आयरन के कारण हैं ।
सितम्बर के आखिरी सप्तह में इस संबंध में भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए आईसीएमआर ने कहा है कि इसके अंतर्गत मिलने वाली विशिष्ट किस्म की विषैली खुमी भी स्वीकृत स्तर के अंदर ही है । इसमेंकिसी भी तरह की फफूंद की बात को नकारा गया है परंतु इसी के साथ कृषि विश्वविद्यालय के उस दावे को भी खारिज कर दिया है कि चावल पर पड़े धब्बे अधिक मात्रा में आयरन की वजह से हैं ।
मेडिकल काउंसिल के उपनिदेशक जनरल जी.एस.टुटेजा की अध्यक्षता वाली इस समिति ने पंजाब के ६ जिलों की ३५ धान जिलों से २१ अगस्त से २३ अगस्त २०१० के मध्य धान के ३५ नमूने उठाए थे । इन नमूनों का विश्लेषण हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान, एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन एजेंसी, कोच्ची एवं विमता लेब, हैदराबाद द्वारा किया गया था ।
किसानों द्वारा इस चावल के चयन के पीछे निम्न चार प्रमुख कारण थे - ज्यादा अन्न उत्पादन, अधिक प्रतिरोध क्षमता, जल्दी पकना (अन्य फसलों से १५ दिन पहले) और १० से १५ दिन पहले) और १० से १५ प्रतिशत कम पानी की आवश्यकता । जारी होने के तीन वर्षोंा में ही पंजाब के धान उत्पादन के कुल २.६ करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में से ३५ प्रतिशत में इस किस्म को उगाया जाने लगा था । ३१ अगस्त को लोकसभा में शिरोमणी अकाली दल के सदस्यों ने इस मामले को हंगामेदार ढंग से उठाया था । उनका कहना था इस चावल का बाजार मूल्य करीब ४००० करोड़ रूपये है और सरकार इसकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है जबकि अब तो विशेषज्ञों ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि यह उपभोग के लिए उपयुक्त है ।
गुरदासपुर के सांसद प्रतापसिंह ने बताया कि अगर चावल पर आए धब्बों से कुछ परेशानी है तो इसे गरीबों को कम कीमत में बांटा जा सकता है । वैसे चावल की किस्म को लेकर पिछले वर्ष विवाद तब शुरू हुआ था जब एक समाचार पत्र ने इसके बारे में लिखा था कि यह जहरीला है । राज्य के चावल मिल मालिक भी उसी सुर में सुर मिलाकर कहने लगे कि मिलिंग (सफाई) के दौरान इसका दाना टूटता है । दिसम्बर २००९ में भारतीय खाद्य निगम एवं खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग ने घोषणा की कि पीएयू-२०१ किस्म में स्वीकृत १.७५ प्रतिशत से अधिक दाना टूटता है । इसके बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने लुधियाना स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हारवेस्ट इंजीनियरिंग एवं टेक्नोलॉजी के निदेशक आर.टी.पाटिल की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर उससे पांच दिन के भीतर रिपोर्ट देने को कहा था ।
रिपोर्ट में कहा गया था कि यह किस्म मानव उपभोग के लिए उपयुक्त है । पर्यावरण पत्रिका डाउन टू अर्थ से बातचीत करते हुए पाटिल ने कहा कि हमने पाया कि धब्बेदार चावल में सामान्य चावल से अधिक मात्रा में आयरन या लौह तत्व हैं तथा कुल मिलाकर पीएयू-२०१ मे पारम्परिक चावल से लौह तत्व की मात्रा अधिक है । उनका यह भी कहना है कि इससे १९८२ में आंध्रप्रदेश में विकसित फाल्गुन किस्म के चावल के नतीजों को भी सही साबित कर दिया है । एतएव चावल के काले होने के पीछे लौह तत्व की अधिकता हो सकती है । परंतु इसकी पूर्ण विश्वसनीयता विस्तृत अध्ययन के बाद ही सिद्ध हो पाएगी । अतएव अब इस मामले को चावल शोध संचालनालय को सौंप दिया गया है ।
वहीं पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के शोध निदेशक एस.एस.गोयल का कहना है कि चावल पर काले एवं भूरे धब्बे पौधे के जैविक चरित्र की वजह से भी हो सकते हैं। साथ ही फेनोलिक्स नामक एंटी-ऑक्सिडेंट की मौजूदगी भी इसका कारण हो सकती है । परंतु यह विचारणीय है कि सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हारवेस्ट इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नोलॉजी की जिस रिपोर्ट के आधार पर इस चावल को अत्यधिक लौह तत्वों से समृद्ध बताया जा रहा था उसे आरसीएमआर ने रद्द कर दिया
है । ***

५ प्रदेश चर्चा

म.प्र. : जंगल बचाने का नया खेल
अशोक मालवीय

मध्यप्रदेश सरकार जंगल बचाने के नाम पर प्रेशर कुकर और कंबल बॉटकर जंगल कटने के वास्तविक कारणों पर पर्दा डालना चाहती है । अनादिकाल से वनवासी इन गैर इमारती लघु वनोपज पर निर्भर रहे हैं और इससे भी जंगलों को नुकसान नहीं पहुंचा है ।
जंगलों का दिनों-दिन बढ़ता दोहन चिन्ता का एक बड़ा मसला रहा है । जंगल के नष्ट होने से सही कारणों की तह में जाए बगैर किए गए उपाय का ही फल है कि आज तक जंगल का दोहन नहीं रूक पाया है । वैसे सही मायने में इसे रोकने की कोशिश ही नहीं की गई है ।
मध्यप्रदेश के वन मंत्री भी जंगल के घटते रकबे से परेशान हैं । इतनी बड़ी चिन्ता के साथ वे चुक कैसे बैठते, तो अब वे एक नायाब टोटके के सहारे जंगलों को बचाने चल पड़े हैं । मंत्रीजी ने जिस जुगत को अस्त्र बनाया है तो यह है कि जंगल में रहने वाले प्रत्येक परिवार को प्रेशर कुकर व कम्बल दिये जायेंगे । उनके अनुसार जंगलों में रहने वाले लोग खाना पकाने के लिये लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं । इस जलाऊ लकड़ी से जंगल में बर्बादी हो रही है । हंडी (तपेली) की अपेक्षा प्रेशर कुकर में जल्दी खाना पकेगा। खाना पकाने के समय की बचत से ऊर्जा के संसाधनों की बचत
होगी । मंत्रीजी का सोचना है, कि सर्दी के दिनों में आदिवासियों व ग्रामीणों के पास गर्म कपड़े नहीं होते हैं, इस कारण वनों से जलाऊ लकड़ी लाकर रात में जलाते हैं । वे जलाऊ लकड़ी के लिये पेड़ काटते हैं, जिससे जंगल खत्म हो
रहे । क्या नए खोजे गये इस फार्मूले से प्रदेश के जंगल बच जायेंगे ?
होशंगाबाद जिले केसला ब्लाक के साधुपुरा गांव में आयोजित एक कार्यक्रम में वन समितियों से जुड़े २००० परिवारों को प्रेशर कुकर बांटे जा चुके हैं। प्रदेश में १५ हजार २८८ संयुक्त वन ग्राम समितियां हैं, जिससे ४६ लाख परिवार जुड़े हैं । इन सभी परिवारों को प्रेशर कुकर व कम्बल बांटने और जंगल बचाने का अभियान छिड़ गया है । जरा सोचें की इस तरह के हास्यप्रद टोटके से क्या जंगल बचेंगे ? अगर वास्तव में जंगल को बचाना है तो जंगल के नष्ट होने वाले तमाम कारणों को गंभीरता से जानना-समझना होगा ।
यह फार्मूला प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से आदिवासियों के सिर पर इल्जाम मढ़ने के अलावा और कुछ भी नहीं है । जबकि इतिहास गवाह है कि आदिकाल से जंगल में निवास करने वाले लोगोंे ने ही वन का संरक्षण व संवर्धन किया है । उन्होंने जंगल को सहेजते-संभालते हुए अपनी जिन्दगी को जंगल का एक हिस्सा ही माना है । पर्यावरण कानून व वन अधिकार कानून भी इस बात को स्पष्ट रूप से कहते हैं, कि वनों से सिर गट्ठा एवं जलाऊ लकड़ी का उपयोग जंगल में निवास करने वाले लोग कर सकते हैं । इन सूखी लकड़ियों व झड़ियों की कटाई से जंगल को कोई नुकसान नहीं होगा ।
प्रदेश के आदिवासी अंचलों में लगभग १५-२० वर्ष पहले भी सौर ऊर्जा को प्रोत्साहन देने के लिये कुछ इस तरह की ही तरकीब अजमाई गई थी । इन आदिवासियों को सोलर कुकर थमाने व सौर ऊर्जा से जंगली क्षेत्र को रोशन (सौर बिजली) करने का एक कार्यक्रम चलाया गया था । इस कार्यक्रम की शुरूआत भी होशंगाबाद जिले के केसला आदिवासी ब्लाक से ही की गई थी । सोलर कुकर थमाने के कार्यक्रम का हश्र यह हुआ कि महज दो-तीन साल बाद ही ये सोलर कुकर कबाडियों की दुकान पर पहुंच गए या डब्बों के रूप में लोग इसका इस्तेमाल करने लगे । इस कार्यक्रम का उद्देश्य पूरा हुआ भी की नहीं यह विश्लेषण करने की कभी कोशिश क्यों नहीं की गई ? होशंगाबाद जिले का केसला ब्लाक ही वही क्षेत्र है, यहां गोबर गैस की भी शुरूआत हुई थी । बाद में जमीनी स्तर जाकर किसी ने देखा कि कितने गोबर गैस संयंत्र बचे हैं ? अथवा नहीं । इस तरह के झमेले से वन में निवास करने वाले निवासियों को फायदा हो ना हो और जंगल बचें या ना बचें परंतु लाखों की तादात में प्रेशर कुकर व कम्बल का धंध जरूर हो जायेगा ।
वन मंत्री ने गृह जिले होशंगाबाद से यह प्रेशर कुकर सौंपने का कार्यक्रम चालू किया है । यहीं सतपुड़ा टाईगर रिजर्व के डोबझिरना और घोघरीखेड़ा के आदिवासी को अतिक्रमणकारी बताकर भगा दिया गया था । इनकी जगह धाई गांव को लाकर बसाया गया था । इसके लिये पांच सौ एकड़ जमीन समतल की गई थी । जिसके लिये ३० से ४० हजार पेड़ काटे गये थे । दूसरी ओर जब कोई आदिवासी पेड़ की एक डाल भी काट लेता है, तो वन विभाग के कर्मचारी पकड़कर उसकी पिटाई कर केस लाद देते हैंऔर रिश्वत लेते
हैं । या उन्हें बन्धुआ बना कर रखते हैं । जैसे कि उसने कोई बहुत बड़ा जुर्म कर दिया हो । जबकि सिर्फ एक गांव (घांई) को बसाने/उजाड़ने के लिये इतनी बड़ी तादात में जंगल काट डाले गए ।
होशंगाबाद जिला तो कई परियोजनाआें के लिये आदिवासियों को उजाड़ने व जंगलों को बर्बाद करने के लिये देश में अच्छा-खासा एक उदाहरण है । यहां पर तवा बांध, गोला बारूद की टेस्टिंग एरिया (पू्रफ रेंज) नेशनल पार्क, अभ्यारण, रेल मार्ग, सड़क, छोटे-मोटे कल - कारखाने आदि के लिये जंगल का सफाया कर दिया गया है । नर्मदा घाटी पर बने नर्मदा सागर बांध को बनाने के लिये ४५ हजार हेक्टेयर क्षेत्र के जंगलों का बलिदान दे दिया गया । अत: सच्च्े झूठे तर्क देने वालों को यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं आनी चाहिये कि मध्यप्रदेश के जंगलोंको बर्बाद करने वाले जंगल में रहने वाले लोग नहीं हैं, बल्कि बांध फेक्ट्री, भवन, सड़क, आलीशान फर्नीचर, ठेकेदार आदि हैं । इस तरह के विकास की खातिर आदिवासी व जंगल दोनों को उखाड़ कर फेंका जा रहा है । प्रदेश में आज भी ऐसे सत्ताधारी लोग हैं जो लकड़ी के ठेकेदार हैं तथा इनके लकड़ी के कारोबार के फलने-फूलने से भी जंगलों को सफाया हुआ है । ***

६ विज्ञान जगत

कितना प्राकृतिक है जैव प्लास्टिक
मेनुअल मक्यूडा

जैव प्लास्टिक के विकास के साथ हमें यह सावधानी बरतनी होगी कि यह एक बेहतर विकल्प साबित हो । अभी तक किए गए शोध के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैविक प्लास्टिक भी पर्यावरण के लिए काफी खतरनाक है और समय रहते इस उत्पाद को वास्तविक जैविक प्लास्टिक बनने से पहले गंभीर परीक्षणोंसे गुजरना पड़ेगा ।
प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है, जिसे धरती हजम नहीं कर पाती है । उत्पादित प्लास्टिक का प्रत्येक टुकड़ा जो अभी भी अस्तित्व में है वह आगामी सैकड़ों वर्षोंा तक हमारे साथ ही रहेगा । वातावरण में आने के बाद प्लास्टिक छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटकर जहरीले पदार्थोंा को अपनी ओर आकर्षित करता है और धरती पर हमारे वन्यजीव और समुद्र तक में घुसकर हमारी भोजन श्रंृखला को दूषित कर देता है । हमारे समुद्र और जलमार्ग इन छोटे पदार्थोंा से पटे पड़े हैं और प्रवाह के जरिए ये विश्व के समुद्रों के बीच में स्थित अभिसरण क्षेत्र जिन्हें गीरेस कहा जाता है, में इकट्ठा हो जाते हैं । इनमें सबसे उल्लेखनीय है, दि ग्रेट पेसेफिक गारबेज पाथ अर्थात् प्रशांत महासागर विशाल कूड़ा क्षेत्र । जहां एक ओर समुद्र के बीच में स्थित इस विशाल कुड़ाघर के विचार से बहुत से लोग सहमत नहीं हैं परंतु यह एक सच्चई है । इसके अलावा संपूर्ण जलक्षेत्र में फैल गए प्लास्टिक को नष्ट करने की कोई उम्मीद ही नजर नहीं आ रही है ।
हालांकि प्लास्टिक न तो स्वयं हमारे पर्यावरण को नष्ट कर रहा है और नही हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है । यह तो हमारा इसे इस्तेमाल करने का तरीका है, जो कि विप्लव जैसे हालात पैदा कर रहा है । एक ऐसा पदार्थ, जो कि वातावरण में सैकड़ों वर्षोंा तक बना रहेगा, का इस्तेमाल महज सैकंड मिनट, घंटे या दिनों तक के हिसाब से नहीं किया जाना चाहिए । जरूरत इस बात की है कि एक ऐसा जटिल पदार्थ जिसका बनाए जाने वाले फार्मूले में कोई पारदर्शिता नहीं है और जिसमें जहरीले रसायनों का प्रयोग होता है, को हमारे भोजन और पेय के सम्पर्क में ही नहीं आना चाहिए । प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण की समस्या इसके गलत तरीके से फेंकने पर से पैदा नहीं होती । बल्कि यह समस्या इसकी लापरवाही पूर्ण बनावट और गैर जिम्मेदारी पूर्ण तरीके सेइसे फेंकने से बढ़ती जाती है । इसके उत्पादकों द्वारा जिम्मेदारी का ठीक से वहन न करना और इस उत्पाद के जहरीलेपन को लेकर सुरक्षा संबंधी लापरवाही पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य के खिलाफ तूफान खड़े कर रही है । जहां एक ओर इसके प्रयोग की व्यापकता और मानवीय स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव को लेकर एक समझ तैयार हो रही है वहीं दूसरी ओर ऐसे प्लास्टिक की बात भी जोर पकड़ रही है, जो जैव आधारित हो या जिसे नष्ट किया जा सके । परंतु वास्तिविकता इतनी सहज नहीं है ।
प्लास्टिक जैव आधारित हो या कोई अन्य प्रकार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हम इसका उपयोग कैसे करते हैं । अभी यह तय नहीं है कि नष्ट हो जाने वाला प्लास्टिक सर्वोत्तम विकल्प है या नहीं । लेकिन हमें सर्वप्रथम यह तय करना होगा कि इस विकल्प का प्रयोग हम किस तरह करेंगे अभी भी कई तरह के नष्ट हो जाने वाले प्लास्टिक मौजूद
हैं । इन्हें पुन: इस्तेमाल भी किया जा सकता
है । ये है - लम्बी अवधि तक चलने वाले बैग, बोतलें, कटलरी का सामाना आदि एवं कई इसके वैकल्पिक पदार्थ जैसे धातु, शीशा या कागज भी उपलब्ध हैं ।
वर्तमान में निर्माता अपने उत्पादों के नष्ट होने तक के लिए जिम्मेदार नहीं होते । जैसे ही कोई वस्तु कारखाने से बाहर आती है वह कंपनी की समस्या नहीं रह जाती है । अतएव हमारे पास ऐसी कोई पद्धति नहीं है कि हम इस नए नष्ट हो सकने वाले पदार्थ का व्यवस्थापन किस प्रकार से करेंगे । इसके जहरीलेपन के संबंध में कहा जा सकता है कि त्रुटिपूर्ण और अप्रभावकारी नियामक प्रक्रिया के चलते यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है कि यह नया बायो प्लास्टिक भी पारम्परिक प्लास्टिक की तरह जहरीला नहीं होगा और इससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं खड़ी नहीं
होंगी । एक बार प्रचलन में आ जाने के बाद इसे प्रतिबंधित करना भी टेढ़ी खीर ही साबित होगा ।
पारिभाषिक तौर पर बायो प्लास्टिक शब्द को इस्तेमाल करने में अत्यधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता
है । यह एक मानसिक छलावा ही है । बायो प्लास्टिक भी साधारण प्लास्टिक की तरह ही कृत्रिम या सिंथेटिक प्लास्टिक ही है । इसे बनाने हेतु आवश्यक कार्बन और हाइड्रोजन तेल के पौधों से प्राप्त् किया जाता है । बायो प्लास्टिक नष्ट हो भी सकता है और नष्ट नहीं भी हो सकता है । साथ ही यह जहरीला भी हो सकता है और नहीं भी । उदाहरण के लिए अत्यधिक घनत्व वाला एचडीपीई १०० प्रतिशत जैव आधारित हो सकता है लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह जैविक रूप से नष्ट भी हो जाता हो । जबकि जनता का विचार है कि जैव आधारित प्लास्टिक को जैविक तरीके से नष्ट किया जा सकता है । परंतु सभी मामलों में ऐसा नहीं है । उदाहरण के लिए डासम और कोक की पौधों की बोतल इस झूठ का ज्वलंत उदाहरण हैं ।
वैसे कुछ जैव प्लास्टिक वास्तव में नष्ट हो जाने वाले भी हैं । परंतु समस्या यह है कि इस उत्पाद के संबंध में कोई स्पष्टता नहीं है । अतएव प्रत्येक उत्पाद के ऊपर लिखी शर्तोंा को ध्यान से पढ़ना अनिवार्य है । इसका दूसरा दुखद पहलु यह है कि अधिकांश बायो प्लास्टिक को रिसायकल भी नहीं किया जा सकता है ।
इसके निर्माण को लेकर पर्यावरणीय पहलुआें पर भी विचार करना आवश्यक है । जैव (बायो) प्लास्टिक बनाने के लिए भी हमें भूमि, पानी, ऊर्जा और कीटनाशक एवं जैव संवर्धित (जी.एम.) फसलों की आवश्यकता पड़ती है । प्लास्टिक की हमारी आवश्यकता के चलते हम सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि हमें उपरोक्त सभी संसाधनों की किस मात्रा में आवश्यकता पड़ सकती है । साथ ही हमें अनुमान लगाना होगा कि इससे हमारे भोजन और अन्य संसाधनों पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ।
इसकी तुलना में कागज, शीशा या धातु का उपयोग करना सरल है । हम इसके अवयव जानते हैं । साथ ही हम यह भी जानते हैं कि इन सभी पदार्थोंा को वास्तव में रिसायकल किया जा सकता है । जिन वस्तुआें को रिसायकल किया जा सकता है वे वास्तव में बेहतर ही होती हैं । जैविक तरीके से नष्ट हो जाने वाले प्लास्टिक का प्रचार जरूरी है, परंतु इसे प्राकृतिक ठहराने (ग्रीन लेबल) से पहले ठोक बजाकर इसकी सत्यता जांच लेना
चाहिए । अन्यथा हम पुन: एक नई समस्या मेंफंस जाएंगे ।
***

७ पर्यावरण परिक्रमा

भारत छोटे परमाणु संयंत्र निर्यात करेगा

भारत अब परमाणु संयंत्र की निर्माण स्थिति में पहुँच गया है । कजाकिस्तान से इस बारे में सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हो चुके हैं और थाईलैंड, कम्बोडिया तथा वियतनाम से बात चल रही है । भारत अब केवल निर्यात के लिए छोटे परमाणु संयंत्र बनाएगा, जिनकी बिजली उत्पादन क्षमता सिर्फ २२० मेगावाट होती है ।
परमाणु संयंत्र निर्यात करने की इस क्षमता के साथ भारत की एशिया में रणनीतिक स्थिति और मजबूत हो जाएगी । चीन के साथ अब भारत भी इस क्षेत्र में अपनी दावेदारी तेज करने की दिशा में बढ़ रहा है । छोटे देशों में ऐसे रिएक्टरों की माँग बढ़ी है । बड़ी कंपनियाँ बड़े संयंत्र बनाती है, इसलिए भारत छोटे संयंत्रों के बाजार को ध्यान में रख इनके निर्यात की तैयारी में है ।
योरपीय तथा अमेरिकी परमाणु संयंत्र कंपनियाँ इस समय ७०० से १००० मेगावाट से कम क्षमता वाले रिएक्टर नहीं बना रही हैं । ये रिएक्टर बेहद महँगे पड़ते हैं इसलिए छोटे देशों की माँग छोटे रिएक्टरों की है । चीन इस बाजार में तेजी से उभर रहा है । भारत को भी उम्मीद है कि वह इस क्षेत्र में अच्छा बाजार हथिया सकता है क्योंकि उसके रिएक्टरों की गुणवत्ता ज्यादा विश्वसनीय मानी जाती है । भारत इस दिशा में गंभीरता से आगे बढ़ने जा रहा है ।

धरती पर जीवन की शुरूआत के नये प्रमाण

विंध्य नदी घाटी के जीवाश्मोंके एक नए अध्ययन के मुताबिक धरती पर जीवन की शुरूआत पहले के अनुमान से ४० करोड़ साल पहले हुई है और धरती पर जीवन का आरंभ भारत के विंध्य क्षेत्र में हुआ है ।
कर्टिन तकनीकी विश्वविद्यालय ऑस्ट्रेलिया के ब्रिगर रासमुसेन की अगुवाई में अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताआें के एक दल ने विंध्यांचल पर्वत और घाटी के कुछ नमूने का अध्ययन किया और पाया कि यहाँके जीवाश्म १.६ अरब साल पुराने हैं । वहीं धरती के किसी भी हिस्से मे पाए जीवाश्मों से ये ४० से ६०
करोड़ साल पुराने हैं । अवधेश प्रताप सिंह विवि रीवा के प्राचीन इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ.महेश श्रीवास्तव बताते हैंकि विवि के संग्रहालय में एकत्रित जीवाश्मों में मानव की प्राचीन सभ्यता का इतिहास छिपा
है । यहाँ संग्रहीत जीवाश्म इस बात के प्रमाण हैं कि जीवन का आरंभ धरती पर इसी क्षेत्र से हुआ है । पहले यहाँ समुद्र लहराता था । यहाँ लाखों साले पुराने कछुए का जीवाश्म भी संग्रहीत है, जो इसी क्षेत्र में पाया गया था । अभी भी तमाम जीवाश्मों का अध्ययन होना बाकी है, जिससे कई और रहस्य उजागर हो सकती हैं ।
शोध के नतीजों की रिपोर्ट में कहा गया है शोधकर्ताआें ने इस काम के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन तकनीक का इस्तेमाल किया था । जीवाश्म के आयु निर्धारण के लिए उसमेंमौजुद पास्पोरेट का लेड डेटिंग किया
गया । करोड़ों साल पहले जीवाश्मीकरण की प्रक्रिया मेंसमुद्र तल पर पास्पोरेट कार्बनिक पदार्थ पर जमा होने लगे थे ।
महाविद्यालय रीवा के डॉ.श्रीनिवास मिश्र के पास नारियल का जीवाश्म संग्रहीत है,
जो अपने देश का सबसे पुराना जीवाश्म माना गया है । हाल ही में वन विभाग के अनुसंधान केन्द्र में एक ऐसा जीव पाया गया है, जो समुद्री प्रजाति का है ।
शासकीय महाविद्यालय के भू गर्भ वैज्ञानिक डॉ. आरएन तिवारी एवं डीपी दुबे ने पिछले महीने नागपुर में हुए एक राष्ट्रीय सेमिनार मे अपना शोध पत्र पढ़ा था जिसे स्वीकार भी किया गया । विंध्य पर्वत की चर्चा भारतीय पौराणिक कथाआें में भी मिलती है । पुराकथाआें में इस क्षेत्र में बहने वाली गंगा, कर्मनाशा आदि नदियों की भी चर्चा है । शायद ये तथ्य भी इस भू-भाग में जीवन की प्राचीनता और निरंतरता की ओर ही संकेत करते हैं । विंध्य का पठार, मालवा पठार के उत्तर में तथा बुंदेलखंड पठार के दक्षिण में विंध्य का पठारी प्रदेश स्थित है । इस प्रदेश के अंतर्गत प्राकृतिक रूप से रीवा, सतना, पन्ना, दमोह, सागर जिले के कुछ हिस्से शामिल हैं। इसका कुल क्षेत्रफल ३१,९५४ किमी है । विंध्य शैल समूह के मध्य आर्कियन युग की विंध्यांचल मप्र की महत्त्वपूर्ण पर्वत माला है । विंध्यांचल पर्वत का इतिहास हिमालय से भी पुराना है ।

मध्यप्रदेश की हवा में बढ़ता जहर

मध्यप्रदेश के ३१५ उद्योग प्रदेश की आबोहवा को लगातार जहरीला बना रहे हैं। मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इन उद्योगों की लगाम कसने में नाकाम रहा है । बोर्ड की वर्ष २००९-१० की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार २४४ उद्योगों में विश्लेषित जल प्रचालक तथा ७१ उद्योगों में विश्लेषित वायु प्रचालक निर्धारित मानक सीमा से अधिक पाए गए हैं ।
हाल ही में राजधानी स्थिर गैर सरकारी संगठन प्रयत्न ने सूचना के अधिकार के तहत जो जल व वायु प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की मॉनीटरिंग परिणाम की सूची हासिल की है । उसके अनुसार उज्जैन, भोपाल व इंदौर के उद्योग जल व वायु प्रचालक निर्धारित मानकों से अधिक जहर उगल रहे
हैं । भोपाल प्रयोगशाला के तहत आने वाले उद्योगों में ४३ उद्योग ऐसे हैं । जो जल प्रदूषण तथा ५ उद्योग वायु प्रदूषण फैलाने के लिए जिम्मेदार पए गए हैं। इनमें सर्वाधिक १९ मण्डीदीप के हैं। इसके अलावा भोपाल के १०, विदिशा ४, बैतूल ३, सारणी व इटारसी २-२, सेहतगंज व होशंगाबाद के १-१ तथा दो अन्य शामिल हैं। इस मामले में उज्जैन की स्थित काफी खराब है । यहाँ के ५१ उद्योग विश्लेषित जल व २० उद्योग विश्लेषित वायु प्रचालक निर्धारित मानकों से अधिक जहर उगल रहे हैं ।
उल्लेखनीय हैं कि जल अधिनियम २१ व वायु अधिनियम २६ के तहत मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जल व वायु प्रदूषण की मॉनीटरिंग करता है । सूचना के अधिकार में जो जानकारी सामने आई है उससे साफ जाहिर है कि मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर अंकुश लगाने में नाकाम रहा है । हालाँकि मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि मॉनीटरिंग के दौरान जिन उद्योगों में विश्लेषित जल व वायु प्रचालक निर्धारित मानक सीमा से अधिक पाए गए हैं उन्हें नोटिस जारी कर प्रचालक निर्धारित मानक सीमा से कम करने को कहा गया है । वहीं प्रयत्न संस्थान के अजय दुबे के अनुसार इस मामले में बोर्ड पूरी तरह नाकाम रहा है । गौरतलब है कि केंन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने सर्वे रिपोर्ट में इंदौर व सिंगरौली को देश के चालीस सर्वाधिक प्रदूषित शहरोंमें रखा है । यहाँ तक की इंदौर में दिसंबर २०१० तक नए उद्योग पर प्रतिबंध लगाया हुआ है ।

संतुलित आहार की कमी से बढ़ रहा है मोटापा

राजस्थान में मोटापे के कारण जयपुर के १७ फीसदी बच्च्े डायबिटीज की गिरफ्त में हैं । यह खुलासा नेशनल डायबिटीज ओबेसिटी एंड कोलेस्ट्रोल फाउंडेशन (एनडीओसीएफ) के सात शहरों में किए गए सर्वे में हुआ है । यह खुलासा नेशनल डायबिटीज ओबेसिटी एंड कोलेस्ट्रोल फाउंडेशन (एनडीओसीएफ) के सात शहरों में किए गए सर्वे में हुआ है । इसमें जयपुर, बेंगलुर, मुंबई, देहरादून, आगरा, लखनऊ व दिल्ली के ४७ हजार बच्च्े शामिल थे । इनमें जयपुर के १०,३०८ बच्च्े थे । शोधकर्ता डॉ. अनूप मिश्रा के अनुसार संतुलित आहार की कमी, व्यायाम नहीं करने से शहरी लोगों में मोटापा बढ़ रहा है । सर्वे में पाया गया कि बच्च्े चिप्स, बर्गर, पिज्जा, पेटीज, पेस्ट्री, क्रीमरोल, समोसे आदि का सेवन करके ८०० अतिरिक्त कैलोरी ले रहे हैंजिसके कारण ट्रांसफैट्टी एसिड (टीएफए) तीन गुना बढ़ गया । टीएफए से ही हार्ट की खून की नलियों मे मे कोलेस्ट्रॉल (एक तरह की वसा) जमा हो जाता है, जो हार्ट अटैक का कारण बनता है । प्रिजरेवेटिव वाले फुड के जरिए बच्च्े ५४० एमएलजी अतिरिक्त कारबोहाइड्रेट ले रहे हैं, जिसे ग्लूकोज का सबसे बेहतर स्त्रोत माना जता है ।
डायबिटीज के कारण दिल के बाद गुर्देभी खराब होने का खतरा होता है । इस बीमारी से हार्ट अटैक की आशंका ५०प्रतिशत, हाई ब्लड प्रेशर ४० प्रतिशत, तनाव ३५ प्रतिशत और किडनी खराब होने की आशंका ४५ प्रतिशत रहती है । इसके अलावा विकलांगता भी आ सकती है ।
एसएमएस अस्पताल के एंडोक्राइनोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ.संदीप माथुर ने बताया कि जिन बच्चेंके माता-पिता को डायबिटीज होती है, उनके बच्चेंको कम उम्र में ही यह बीमारी होने की अधिक संभावना होती है । यानी यह रोग आनुवांशिक (जेनेटिक) भी होता है । आजकल २० साल से कम उम्र में भी टाइप-टू, डायबिटीज देखने को मिल रही है ।
जेके लोन अस्पताल के डॉ.अशोक गुप्त के अनुसार यह मेटाबॉलिक डिसऑर्डर हैं, जिसमें भोजन शरीर मे पहुंचकर ग्लूकोज में बदल जाता है । यह ग्लूकोज रक्त के जरिए कोशिकाआें में जाकर ऊर्जा के रूप में इस्तेमाल होता है । लीवर के दाहिने हिस्से में मौजूद ग्रंथि (पेंक्रियाज) खून में इंसुलिन का स्त्राव व नियंत्रण करने का काम करता है । ***

८ ग्रामीण जगत

बढ़ता जल प्रदूषण और ग्राम्य जीवन
एस.के.तिवारी

जल जीवन की आधारभूत आवश्यकता है । भोजन के अभाव में मानव कुछ सप्तह जीवित रह सकता है लेकिन जल के अभाव में शायद एक सप्तह भी जिंदा नहीं रह सकता । मानव शरीर में जल के अस्तित्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है, हमारे सौर मण्डल में पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है, जिसमें जीवन हर रंग और रूप में मौजुद हैं ।
पेयजल पर जीवन की निर्भरता के लिए यदि कहा जाए कि जल ही जीवन है तो असंगत नहीं होगा । जल की आवश्यकता केवल मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि उन सबको भी है, जिनमें प्राण हैं । चाहे वह पशु-पक्षी हों या फिर पेड-पौधे । पुरातन समय से ही जल की महत्ता को मानव ने जाना और समझा है । ऋग्वेद की रचनाआें में जल की स्तुति की गई है । इतिहास गवाह है कि विश्व के सभी देश विभिन्न नदियों एवं घाटियों की गोद में फले-फूले और विकसित हुए हैं । आज उद्योग, कृषि तथा अन्य विभिन्न क्षेत्रों में जल की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है । पेयजल और स्वच्छता का चोली-दामन का साथ है । जल न केवलजीवन की मूलभूत आवश्यकता है बल्कि वह सभी के लिए स्वास्थ्य सम्बन्धी लक्ष्य प्रािप्त् के लिए महत्वपूर्ण भी है ।
गांवों को छवि प्रदान करने वाली झील और तालाब कहाँ हैं ? जो हैं, उनमें अधिकांश सूख गए हैं । झील तथा तालाब की संस्कृति तथा प्रथा से हम दूर हो गए हैं । उन्हें हमने कूड़ा करकट, विषाक्त मल-जल और गंदगी का आगार बना दिया है । शौचालयों के अभाव में गाँववासी इन्हीं तालाबों और झीलों के किनारे खुले में मल-मूत्र त्याग करते हैं और उसी पानी में मल-मूत्र की सफाई करते हैं । इतना ही नहीं वह इनमें स्वयं को नहाते ही हैं साथ ही पशुआें को भी स्नान कराते हैं । रसोई के बर्तन धुलते हैं और कपड़े साफ करते हैं । इससे इन ताल तलैयों का पानी इतना गंदला तथा प्रदूषित हो जाता है कि जल का रंग तक हरा हो गया है, जिसे पीते ही लोगों का जी मिचलाने लगता है ।
गावों में तीव्र गति से बढ़ती हुई
जनसंख्या के कारण जल की मांग में काफी वृद्धि हुई । बढ़ती जनसंख्या के कारण प्रत्येक वर्ष लगभग ६४ अरब घन मीटर स्वच्छ जल की मांग बढ़ रही है । भारत वर्ष में भी जहां विश्व की कुल आबादी के १६ प्रतिशत लोग रहते हैं, वहां विश्व के कुल भू-भाग का केवल २.४५ प्रतिशत और जल संसाधनोंका केवल ४ प्रतिशत भाग ही हमारे पास है । फलत: जल की गुणवत्ता में कमी आई है । वैसे तो जल में स्वयं शुद्धीकरण का सामर्थ्य होता है । लेकिन जब मानवजन्य प्रदूषकों का जल में इतना अधिक एकत्रीकरण हो जाता है कि वह जल की स्वयं की शुद्धीकरण की सामर्थ्य से बाहर हो जाता है तो जल प्रदूषित हो जाता है ।
गांवों में मानव कृषि में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशी ओर रोगनाशी कृत्रिम रसायनों, खरपतवार तथा पौधों के अपशिष्ट पदार्थोंा अधजले मानव शवों तथा अधजली लकड़ियों, औद्योगिक मल-जल तथा अपशिष्टों को बिना उपचार के ही अधिकांशत: नदियों, झीलों, तालाबों आदि में बहता चला आ रहा है । इस प्रकार वह अनेक बीमारियों को न्योता दे रहा है । केन्द्रीय जल स्वास्थ्य इंजीनियरिंग अनुसन्धान संस्थान के अनुसार ग्रामीणों में होने वाली टाइफाइड, पीलिया, हैजा और पेचिस जैसी बीमारियां अशुद्ध जल से ही होती है ।
केन्द्र सरकार ने जल प्रदूषण की समस्या के समाधान हेतु १९७४ में जल प्रदूषण और निवारण अधिनियम बनाया जिसका उद्देश्य मानव उपयोग के लिए जल की गुणवत्ता को बनाए रखना था । पुन: पेयजल की गुणवत्ता में विशेष सुधार लाने के उद्देश्य से सन् १९८६ में राष्ट्रीय पेयजल मिशन बनाया गया ताकि अशोधित जल से होने वाली बीमारियों के बढ़ते स्तर को रोका जा सके । १९९१ मंे इस मिशन का नाम राजीव गांधी पेयजल मिशन रखा गया । इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में गिरती जल की गुणवत्ता में सुधार के लिए उचित प्रयास किए जा रहे हैं ।
परन्तु अब तक जो भी प्रयास हुए हैं, वे पर्याप्त् नहीं हैं । आज भी लगभग सवा लाख गांव ऐसे हैं जिनमें स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था नहीं हैं । देश की लगभग सात हजार बस्तियों का पानी फ्लोरोसिस रोग पैदा करता है । यही नहीं जहाँ पेयजल की आपूर्ति ठीक है वहां भी यह दायित्व बनता है कि जल की गुणवत्ता बनाए रखने में सहयोग दें, जल-
प्रबंधन हेतु बनाए गए अधिनियम के परिपालन पर निगरानी रखें अन्यथा जन सहभागिता के अभाव में मानव जीवन को आधार प्रदान करने वाले प्राकृतिक जल के अस्तित्व को बचाने में हम सब समर्थ रहेंगे ।
अनेक सरकारी ताम-झाम के बावजूद स्वच्छ जल के अभाव में आज ग्राम्य जीवन संकट में हैं तथा समस्या सुधरने के बजाय गहराती जा रही हैं । इसके साथ-साथ गांवों में अबाध गति से बढ़ते हुए जल प्रदूषण की रोकथाम हेतु हर नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह सरकारी प्रयासों के साथ हाथ से हाथ मिलाकर चले ताकि इस समस्या से छुटकारा मिल सके और सभी प्राणियों का जीवन सुखमय रहे ।
जल की गुणवत्ता को बनाए रखने तथा जल प्रदूषण को नियंत्रित करने के उद्देश्य से केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा समय-समय पर बनाए गए कानूनों का कड़ाई से पालन कराया जाना चाहिए । अपने विकास के लिए ऐसा रास्ता तलाशना होगा जिससे धरती पर उपलब्ध जल का प्राकृतिक रूप में अस्तित्व बना रहे तथा सभी प्राणियों को पीने योग्य स्वच्छ पानी मिलता रहे । लेकिन यह तभी संभव है जब मनुष्य जल के महत्व को समझे और उसे प्रदूषित होने से बचाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहें ।
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९ विशेष लेख

मिट्टी में सभ्यता की सुगन्ध
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल

वसुधान (धन्य-धान) को धारण करने वाली धरती को वसुन्धरा कहते हैं। धरती का ऊपरी उर्वर भाग ही मिट्टी है । मिट्टी अनमोल, रसवंती और गंधवती है । हम माटी की सौगन्ध खाते हैं । मांगलिक अवसरों, पूजा, अनुष्ठान के समय मस्तक पर रोली अक्षत का तिलक लगाते हुए ऋग्वेद के परिशिष्ट श्री सूक्त की इस ऋचा का उच्चरण किया जाता है ।
गंध द्वारां दुराघर्षां नित्य पुष्टां करीषणीम् ।
ईश्वरी सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम ।।
ईश्वरीं पृथ्वी ही अपमान रहिता, सर्वदा पोषण पुष्टिकत्री है । जो सम्पूर्ण सृष्टि को श्री वृद्धि प्रदान करती है । ऐसी ईश्वरीय शक्ति की हम मंगलकामना के साथ सुख समृद्धि हेतु वंदना करते हैं । धरती माता विश्वंभरा और हिरण्यवक्षा है । वह पर्जन्यप्रिया है । वर्षा से तृप्त् जलमयी होकर वह हमारे लिए अपने मटियाले ऑचल में हरियाली को उपजाती
है । इसीलिए हमारी धरती शाकम्भरी मातृ स्वरूपा देवी है ।
विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यव-क्षाजगतो निवेशिनी (ऋग्वेद १२/१/६)
मिट्टी ही हमारी पोषक है । मिट्टी से ही हमारी देहयष्टि का निर्माण होता है और अंत मे मिट्टी में ही हम मिल जाते हैं, सुपुर्देखाक हो जाते हैं । मिट्टी पूज्या है । मिट्टी औषधि है । बल की सत्ता तो माटी के कण कण में प्रतिक्षण विद्यमान है । माटी की उर्वरता ही उसकी चैतन्य शक्ति है ।
मिट्टी में सम्पूर्ण जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है । मिट्टी में विविध गंध और विविध रंग हैं । मिट्टी में आर्द्रता है । सूखा तृण भी मिट्टी की नमी पाकर हरिया जाता है, सुसुप्त् बीज अंकुराता है । मिट्टी में धन-धान्य वैभवछिपा होता है । हमारे पदाघात ही रजकणों की हमारे शीर्ष लाते हैं । मिट्टी हमारे शरीर की पोषक ही नहीं वरन् हमारे मनोभावों की द्योतक भी हैै । संत कवि कबीरदास जी का दोहा बड़ा ही सुन्दर है ।
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रोंधे मोय ।
इक दिन ऐसा आयेगा मैं रोदँूगी तोय ।।
आध्यात्म चिंतन से नीचे उतरकर मिट्टी की अनमोलता को प्रकृति परक वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो मिट्टी का पर्यावरण विज्ञान हमें
और भी श्रेयस चिंतन प्रदान करेगा ।
मनुष्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन मिट ्टी है । शैलों के टूटने, चूरा होने तथा उसमें भौतिक रासायनिक एवं जैविक परिवर्तन होने से मिट्टी बनती है । इस प्रकार मिट्टी का निमाण भूपृष्ठ की मूल चट्टानों के भंगुरण से होता है । चट्टानों की ऊपरी सतह पर मिट्टी बनना जलवायुगत एवं मौसमी प्रभावों तथा कालान्तर पर निर्भर करता है । कुछ सेन्टीमीटर मिट्टी की परत के निर्माण में हजारांे
वर्ष व्यतीत हो जाते हैं । हमारी कृषि मिट्टी पर निर्भर है । मिट्टी की उर्वरता ही उत्पादकता की निर्धारक है । इसीलिए उपजाऊ मिट्टी वाले क्षेत्रों में ही मानवीय सभ्यता का विकास पहले हुआ तथा वहीं जनसंख्या का घनत्व आज भी सर्वाधिक है ।
नदी की घाटियाँ एवं मैदान सबसे अधिक उपजाऊ होते हैं । अत: सभ्यता एवं संस्कृति का विकास भी ऐसे ही स्थलों पर होना आरम्भ हुआ था । मिट्टी बनने की क्रिया मे शनै-शनै तीन संस्तर (हॉरिजॉन) बन जाते हैं । सबसे ऊपरी संस्तर में जीव-जन्तुआें के मृतावशेष तथा सड़ने-गलने वाले पदार्थोंा के सूक्ष्म कण तथा अन्य जैविक पदार्थ होते हैं जिसे ह्यूमस कहते हैं । यही फ्यूमस मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाता है । इस संस्तर के नीचे उपपृष्ठ होता है जिसमें ऊपरी सतह से निक्षालित (लीच्ड)होकर आये हुए अर्थात रिस-रिस कर आये हुए पदार्थ जमा होते हैं । उपपृष्ठ के नीचे के संस्तर में उपक्षयित चट्टानों का चूरा मिलता है ।
तेजी से बहता हुए जल अपने प्रवाह मार्ग में आई हुई चट्टानों को तोड़ डालता है । चट्टानों से विलग हुए प्रस्तर खण्ड जल में प्रवाहमान रहते हुए आपस में ही टकरा-टकरा कर चूरा हो जाते हैं और रेणुका बनाते हैं जो पत्थर मजबूत होते हैं वह गोल होकर यहाँ वहाँ नदी तटों पर जमा हो जाते हैं । जल में ताकत होती है इसी तरह चलायमान हिमनदी में भी शक्ति होती है । यह हिमनदी चादरें अपने आधारी शैलों पर चलती हैं तो बड़ी-बड़ी चट्टाने भी स्थानच्युत होकर क्षण में ही भंगुर हो जाती है । प्रपाती चट्टानें शैलों से टकरा कर छिन्न-भिन्न हो जाती है । वायुवेग भी चट्टानों को विस्थापित करने में भूमिका निभाता है । जलवायुनिक परिवर्तनों के साथ-साथ तुषारापात और तत्पश्चात हिमवर्षण तथा फिर बर्फ पिघलने से भी शैल अवक्षय होता है । शैल कणिकाएं कुछ अपघटन क्रियाआें द्वारा खनिज यौगिकों में परिवर्तन हो जाती है और अंतत: अपक्षीण शैल पदार्थोंा से मिट्टी बनती है । मिट्टी की उर्वरता में कवक तथा जीवाणुआें का भी महत्व पूर्ण योगदान होता हैं क्योंकि यही सूक्ष्म जीव मिट्टी में आये कार्बनिक पदार्थोंा को अपनी अपघटनी क्रियाआंे द्वारा अकार्बनिक तत्वों में बदलते हैं ।
चट्टान रूपान्तरण द्वारा उत्पत्ति तथा प्रािप्त् के आधार पर मिट्टी के दो वर्ग होते हैं। प्रथम वर्ग की मिट्टी स्थानबद्ध या स्थानिक कहलाती है जो अपनी मूल मातृ चट्टान के ऊपर अवशेष रूप में जमा रहती है । दूसरे वर्ग में वाहित अथवा स्थानान्तरित/प्रतिस्थापित मिट्टी आती है । जो किन्हीं प्राकृतिक उपादानों या अपरदनकारी शक्तियों द्वारा मूल स्थान से हटकर अन्यत्र चली जाती है । यदि मूल मिट्टी जल द्वारा बहकर मैदारी भागों में आती है तो सर्वाधिक उर्वरता वाली जलोढ मिट्टी कहलाती है । नदियों के किनारों पर जलोढ़ मिट्टी की अधिकता होती है । हवा द्वारा उड़ाकर लाई हुई मिट्टी वायूढ मिट्टी कहलाती है यह मिट्टी मरूस्थलों के निकट पाई जाती है । हिमनदी के द्वारा जिस मिट्टी का प्रतिस्थापन हो जाता है उसे हिमोढ मिट्टी या हिमानी कहते हैं । भौम्याकार अर्थात् भूमि की आकृति पर भी मिट्टी की परिस्थितिकी निर्भर करती है । पर्यावरण के तत्वों में मिट्टी का स्थान आधारी है क्योंकि मिट्टी ही जीवों की देहयष्टि को साँचा प्रदान करती है ।
यथार्थ मिट्टी अकार्बनिक तथा कार्बनिक घटकों, अपने विलयशील पदार्थोंा सहित हवा, पानी प्रकाश एवं जैविकी को अपनी कणिकाआें के मध्य संभाले रहती है । इसमें उपस्थित सूक्ष्म जीव अपनी अपघटन क्रिया द्वारा उर्वरता में अभिवृद्धि करते हैं तथा विशेष प्रकार के सहजीवी जीवाणु (जैसे राइजोबियम) वायुमण्डलीय स्वतंत्र नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके मिट्टी की उर्वरता को और भी बढ़ाते हैं ं कुछ अन्य प्रकार के जीवाणु नाइट्रोजन के चक्रांतरण में हिस्सा लेकर मृदीय पोषण के स्तर को बनाये रखते हैं । मिट्टी में अनेक अकार्बनिक लवण, कुछ कार्बनिक यौगिक (जिसमेंमुख्य रूप से जैविक विघटन से प्राप्त् प्रोटीन्स होती है) मिट्टी का पोषण करते है ।
मिट्टी की अम्लता (एसिडिटी) तथा क्षारीयता (अलक्टेनिटी) भी सीमाकारी कारक के रूप में प्रभावी होती है ।अर्थात वह मिट्टी की उर्वरता तथा उत्पादकता की निर्धारक होती है । खनिज कणों का आकार, जलवायु तथा अन्य कारकों की स्थिति, सूक्ष्म जीवी की जैविकी (श्वसन एवं अन्य क्रियाएं) सम्मिलित रूप से मिट्टी की रासायनिक प्रकृति की निर्माण करती हैं ।
मिट्टी की छिद्रता (पॉरस्नेस) खनिज कणों के आकार तथा संघटन के अनुपातिक आधार पर मुख्यत: तीन प्रकार की होती है । पहली चिकनी मिट्टी (क्ले सॉयल) ) जिसमें एल्यूमिनियम सिलिकेट के अतिसूक्ष्म कण बहुतायत मेंहोते है ं जिसे कारण यही अत्यधिक चिकनी होती है तथा इस कारण इसकी जलग्रहण क्षमता आवश्यकता से अधिक होती है । दूसरी दोमट मिट्टी (लोअमी सॉयल) होती है । इसमें चिकनी मिट्टी तथा बालू का लगभग सम्मिश्रण होता है । इसी मिट्टी की जलग्रहण क्षमता तथा छिद्रता दोनों ही अच्छी होती हैं अत: उत्पादन की दृष्टि यह मिट्टी सबसे अच्छी मानी जाती है । तीसरी बालुई मिट्टी (सेण्डी सॉयल) होती है इस मिट्टी में बालू के कणोंका प्रतिशत अधिक होता है न्यूनानुपात में एल्युमिनियम सिलिकेट तथा सिल्ट कण भी होते हैं । इस मिट्टी की जल ग्रहण क्षमता अत्यधिक क्षीण होती है क्योंकि बालू में पानी रूक नहीं पाता अत: यह मिट्टी अनुर्वर एवं अनपयुक्त होती है ।
मिट्टी मंे जल की सही मात्रा में उपस्थिति उसकी उत्पादकता हेतु जरूरी है । मृदा जल का मुख्य स्त्रोत वर्षा का पानी है । जिसका अधिकांश भाग तो वाहित ही हो जाता है अर्थात् बह जाता है । बहता हुआ जल अपने साथ में मिट्टी की उर्वरक शक्ति को भी बहा ले जाता है । कुछ पानी गुरूत्व शक्ति के प्रभाव से मिट्टी की कणिकाआें से होकर रिस-रिस कर भूमि के अन्दर चला जाता है और भूमिगत जल कहलाता है । ऐसे भूजल को गुरूत्वीय जल (ग्रेविटेशनल वॉटर) कहते हैं । कुछ जल मृदा कोलॉइडी सम्मिश्रण द्वारा अवशोषित होता है जिसे आर्द्रता जल (हाइग्रोस्कोपिक वाटर) कहते हैं । कुछ जल मृदा कणों की परिधि पर फिल्म के रूप में चिपक कर रहता है जिसे केशिकीय जल (केपिलरी वॉटर) कहते हैं। वस्तुत: यही केपिलरी वाटर जड़ों की मूलरोम कोशिकाआें द्वारा अवशोषित किया जाता है । कुछ जल भाग ताप के प्रभाव से वाष्पित होकर ऊपर उठता है उसे जलवाष्प (वॉटर वेपर्स) कहते हैं। प्रत्येक स्थान की मिट्टी की जलग्रहण क्षमता अलग-अलग होती है ।
मिट्टी में वनस्पतियों के उगने के लिए पर्याप्त् मात्रा में वायु की उपस्थिति भी जरूरी
है । क्योंकि वातित मृदा में ही मूलरोमों की कोशिकाएं मिट्टी की वायु से आक्सीजन लेकर श्वसन क्रिया करती है । अत: यदि मिट्टी में वायु की कमी होगी तो जड़ों की वृद्धि एवं विकास रूक जाता है जिससे पेड़-पौधों की उपापचयी क्रियाआें में व्यवधान आता है । मिट्टी की गर्माहट यानि तापक्रम का प्रभाव भी पेड़-पौधांे तथा फसलों पर पड़ता है । क्योंकि मिट्टी में उपस्थित जीवाणुआें की सक्रियता के साथ-साथ बीजों के अंकुरण तथा पौधों की वृद्धि के लिए उपयुक्त ताप का होना जरूरी होता है । पौधों की उपापचयी सक्रियता तथा जल अवशोषण एवं अन्य जैविक कियाएं साधारण रूप से २००-३०० सेल्सियस के मध्य ताप पर सर्वाधिक अच्छी होती है ।
मिट्टी का निर्माण क्षरण से होता है और मिट्टी का विनाश भी क्षरण से ही होता
है । शैलों के शनै-शनै क्षरण से हजारों लाखों वर्षोंा में निर्मित मिट्टी कुछ वर्षोंा में ही हमारी अज्ञानता के कारण नष्ट हो जाती है । प्रकृति की शक्तियाँ ही मिट्टी का निर्माण करती हैं और प्रकृति ही विक्षोभित होकर क्ष्रण कारक बनती है । जलवायु ताप आदि के जो परिवर्तन निर्माण में सहायक होते हैं वहीं उसके नष्टीकरण का कारण भी बनते हैं । संघात और आघात का समुच्च्य हीतो पद्धति होती है । भूमि क्षरण कारक के रूप में अतिवृष्टि और अनावृष्टि दोनों ही खतरनाक होते हैं । कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार मिट्टी में पौधों के निकास हेतु लगभग १३ रासायनिक तत्व आवश्यक होते हैं जैसे - कार्बन, आक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, सोडियम, पोटेशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम, सिलिकान, गन्धक, फास्फोरस क्लोरीन एवं लोहा । इन तत्वों में किसी की भी कमी अथवा अधिकता हानिकारक होती है ।
आजकल हम रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का प्रयोग अंधाधुंध स्तर पर अपने खेतों में कर रहे हैं । यूरिया, अमोनियम सल्फेट, सुपर फास्फेट आदि को अपने खेतोंमें छिड़क-छिड़क कर हमने मिट्टी की जीवनी शक्ति को मृतप्राय कर दिया है । यदि हम रासायनिक उर्वरकों को प्रयोग बंद करके पुन: अपनी प्राचीन मान्य कम्पोस्ट खाद या वर्मीकम्पोस्ट खाद तथा हरी खाद इस्तेमाल करें तो न केवल मिट्टी की उर्वरता बनी रहे वरन् फसलों का उत्पादन बढ़ जायेगा । भूमि
अपरदन न हो इस बात पर भी ध्यान रहे क्योंकि अपरदन से उर्वरता क्षीण होती है । फसलों में चक्रान्तरण अपनाना चाहिए एक ही फसल के बार-बार उगाने से मिट्टी की जान निकल जाती है ।
यदि रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग यूँ ही जारी रहा तो जमीन कर देगी हमको फसल देने से इंकार क्योंकि बार-बार फसल देकर वह हो गई बेजार । फसल दर फसल, अलग-अलग अनाज का आगाज, किन्तु अब धरती थक चुकी है, निढाल हो गई है । धरती चीख-चीख कर कह रही है कि मत करो विषाक्त कीटनाशकोंका खुला प्रयोग । फसल दर फसल बुआई से धरती की सेहत हो चली है खराब किन्तु अधिक पाने की लालसा में हम अनसुना कर रहे हैं धरती का आर्तनाद और उसकी करूण पुकार इसी का परिणाम है कि कृषि लागत में बढ़ोत्तरी हो रही है तथा उत्पादन में घटोत्तरी हो रही है । कृषि सिकुड़ रही है और कृशमात हो रहे हैं हम तथा हमारे पशु । मिट्टी में जिंक की कमी ने फसलों को रोगी बना दिया है । पहले गेहूँ, फिर धान और फिर खाली खेत में चारा बुआई । जब दलहनी तथा तिलहनी फसलों से हमने हाथ खींचा तो मिट्टी में जान भला कहाँ से रह पायेगी ।
मिट्टी को संरक्षित रखने के लिए भूमि संरक्षण जरूरी है । इसके लिए खेतों में ऊँची मेढ बंदी करती चाहिए ताकि जल प्रवाह से भूमि अपरदन न हो सके । समोच्च् रेखीय जुताई तथा शस्यावर्तन करना चाहिए । मिट्टी के अवयवों को संरक्षित कर वसुन्धरा के हरित आवरण को बनाये रखना चाहिए । मिट्टी के दूर्वा (दूबघास) मिट्टी को बाँधने की शक्ति रखती हैं । मिट्टी ही गणपति रूप है और दूर्वा विघ्नेश्वर श्री गणेशजी को अतिप्रिय है । अनावश्यक रूप से हमें मिट्टी का स्थानान्तरण नहीं करना चाहिए क्योंकि पौधे ही जानते हैं विस्थापन का दर्द । खेतों में पंक्ति वाली फसलें बोनी चाहिए । मिट्टी में जैवांश मिलाते रहना चाहिए क्योंकि एक ही फसल को बार-बार बोने से मिट्टी में किसी विशेष तत्व को कमी होना स्वभाविक है । मिट्टी में केचुआें की संख्या बनी रहे यही प्रयत्न हमारा रहना चाहिए । क्योंकि केचुंए न केवल मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं वरन् मिट्टी की विषाक्तता को भी अवशोषित करते हैं । केंचुए बखूबी जानते हैं धरती का दर्द और मिट्टी का मोल यह दर्द और मोल हमें समझना होगा, तभी जिंदा रह सकेगीहमारी सभ्यता । ***

१० खास खबर

देश में एड्स के विरूद्ध लड़ाई में तेजी
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)

संयुक्तराष्ट्र की संस्था यूएन-एड्स ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि जानलेवा बीमारी एड्स के खिलाफ लड़ाई में भारत ने पिछले एक दशक में काफी सफलता हांसिल की है । पिछले दिनों जिनेवा में जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में एड्स के शिकार होने वाले लोगोंमें पिछले दस सालों में ५० प्रतिशत की कमी आई है ।
यूएन-एड्स के कार्यकारी निदेशक माइकल सिडिबे ने कहा कि भारत ने सस्ती दवा बनाकर अफ्रीका मेंभी इसके खिलाफ लड़ाई मे काफी मदद की है । एक अनुमान के मुताबिक भारत में पिछले साल तक २४ लाख लोग एचआईवी वायरस से संक्रमित थे । जबकि २००१ में ये संख्या २५ लाख थी । भारत में इस समय एड्स वायरस से पीड़ित छ: लाख ऐसे लोग हैं, जिनका इलाज नहीं हो पा रहा है ।
रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर मेंएचआईवी संक्रमण के शिकार होने वाले और एड्स से मरने वाले लोगों की संख्या में कमी आई है । ऐसे साफ संकेत मिल रहे हैं कि इस बीमारी में कमी आ रही है ।
अभी भी इससे पीड़ित लोगों के प्रति भेदभाव बरते जाने और समाज में इस बीमारी के शिकार लोगों की दिक्कतें कम नहीं हो
रही । इस वक्त दुनियाभर में तीन करोड़ ३० लाख लोग एचआईवी एड्स के शिकार हैं पिछले साल २६ लाख लोग इस संक्रमण के शिकार हुए थे ।
सन् १९९९ के मुकाबले मेंजब ये बीमारी अपने चरम सीमा पर थीं, इसमें २० प्रतिशत की कमी आई है । साल २००९ में एड्स से जुड़ी बीमारियों के कारण १८ लाख लोगों की मौत हुुई थी । जबकि साल २००४ में २१ लाख लोग एड्स की वजह से मौत के आगोश में चले गए थे ।
उपचार के लिए एंटीरेट्रोवायरल दवाआें का इस्तेमाल बढ़ा है । सन् २००४ में जहाँ सात लाख लोग इसका प्रयोग करते थे, २००९ में पाँच लाख लोगों ने एंटीरेट्रोवायरल दवाआें का इस्तेमाल किया । यूएन-एड्स ने चेतावनी दी है कि अफ्रीका अभी भी इस बीमारी से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला क्षेत्र बना हुआ है । इस संक्रमण के शिकार होने वाले नए लोगों में लगभग ७०प्रतिशत लोग अफ्रीकी देशों से आते हैं । लेकिन दक्षिण अफ्रीका, जाम्बिया, जिम्बाब्वे और यूथोपिया में संक्रमण की दर घट रही है ।
दुनिया के दूसरे भागोंमें भी इसी तरह की मिली जुली खबरें आ रही हैं । पूर्वी योरप और मध्य एशिया में एड्स तेजी से फै ल रहा है और इनसे मरने वालोंकी संख्या में इजाफा हो रहा है । दक्षिण एशिया में एड्स के शिकार होने वाले बच्चें और इससे मरने वालों की तादाद में कमी आ रही है । एशिया में कई देशों में अलग-अलग कारणों से ये बीमारी फैल रही है ।
वैश्विक आर्थिक संकट के कारण पिछले दो साल मेंएड्स की रोकथाम के लिए किए जा रहे खर्च में कमी आई है । योरप के अमीर देशों ने एड्स के लिए दी जाने वाली सहायता राशि में लगभग ६० करोड़ डॉलर की कमी कर दी है जिसके कारण छोटे और गरीब देशों को खुद ही पैसे का इंतजाम करना पड़ा है । भारत ने एड्स की रोकथाम के लिए पिछले साल कुल एक अरब ४० करोड़ डॉलर खर्च किए । जबकि, २००८ में उसने एक अरब ५० करोड़ डॉलर खर्च किए थे । एशिया में एड्स मे ज्यादातर देशों में समलैंगिकता और वैश्यावृति एक अपराध है और नशीली दवा लेने वालों के लिए कानून बहुत सख्त है जिस कारण उन लोगों तक पहुँचना बहुत मुश्किल हो जाता है ।
अनुमान है कि एड्स की रोकथाम के लिए जितना खर्च किया जा रहा है उसके बेतहर नतीजे मिल रहे हैं। लेकिन चुनौती इस बात की है कि इसमें और अधिक और अधिक सफलता पाने के लिए हम सभी लोग एक साथ मिलकर कैसे काम करें, जो समाज के लिये स्थायी फलदायी हो ।
***

११ कविता

वृक्ष देव
प्रेम वल्लभ पुरोहित प्रेम

बरसों पुराना
बुजुर्गोंा का पाला-पौसा
घनी छांव से लद-लद
बटरोही
घसियारी दीदी
और - परिंदों का
अपनेपन का रिश्ता
वह, विशालकाय वृक्ष देव
उन लोगों ने
निर्ममता से काट डाला
जो - केवल आदमी जैसे हैं ।
हाँ, तभी से
पेड़ों की घनेरी छाया
दुपहरी में धूप लगती
और फल कषैले
घर में सांस
रूकी-रूकी सी लगती है
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१२ ज्ञान-विज्ञान

ब्रह्मांड में बृहस्पति जैसा नया ग्रह मिला

खगोलशास्त्रियों ने एक ऐसा ग्रह खोजने का दावा किया है जो हमारे तारा समूह या गैलेक्सी से बाहर का है । बृहस्पति जैसा यह ग्रह एक ऐसे सौरमंडल से है जो कभी एक बौने तारा समूह का हिस्सा था ।
सांइस पत्रिका में छपे इस शोध के अनुसार इस बौने तारा समूह को हमारे तारा समूह यानि आकाश गंगा ने निगल लिया था । जिस तारे के चारों ओर यह ग्रह चक्कर लगा रहा है उसे एचआईपी १३०४४ का नाम दिया गया है और ये अपने जीवनकाल के अंतिम पड़ाव पर है । यह तारा पृथ्वी से २००० प्रकाश वर्ष की दूरी पर है । शोधकर्ताआें का कहना है कि ये पहला सबूत है कि ग्रह हमारे तारा समूह में नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड के अन्य हिस्सों में भी फैले हुए हैं ।
यह खोज इसलिए अलग है क्योंकि यह ग्रह एक ऐसे सूर्य का चक्कर लगा रहा है
जो हेल्मी स्ट्रीम नामक एक तारा समूह का हिस्सा है । इस तारा समूह को आकाशगंगा ने छह से नौ अरब वर्ष पहले निगल लिया था ।
यह खोज चिली में स्थित एक दूरबीन के माध्यम से की गई है । नक्षत्रों की खोज में जुटे वैज्ञानिकों ने अलग-अलग तकनीकों से अब तक हमारे सौरमंडल के बाहर ५०० ग्रहों की खोज की है । शोधकर्ताआें का कहना है कि ये सभी हमारे अपने तारा समूह या आकाशगंगा के ही हिस्सा थे ।
नया ग्रह बृहस्पति से १.२५ गुना भारी है । वैज्ञानिकों ने इसे एक अद्भुत खोज कहा है । वैज्ञानिकों का कहना है कि इस खोज से अंदाजा मिल सकता है कि हमारा सौरमंडल अपने आखिरी दिनों में किस अवस्था में
होगा । यह ग्रह ब्रह्मांड में अन्य ग्रहों की उपस्थिति की भी जानकारी दे सकता है ।

विलुिप्त् की ओर बढ़ता हमारा राष्ट्रीय प्रतीक

जिस गुणात्मक संख्या में आबादी बढ़ रही है । उसके परिणामस्वरूप अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं । मशीनीकरण एवं मानवीय कृत्य के चलते प्रकृति से विभिन्न जीवों की तकरीबन चार सौ और वनस्पतियों की हजारों प्रजातियाँ विलुप्त् होने के कगार पर पहुँच गई हैं और कुछ प्रजातियाँ तो महज नाम भर की रह गई
हैं ।
बढ़ती आबादी के लिए अभ्यारण्यों को चीरकर राजमार्ग बनाया जाना, अवैध शिकार, अतिक्रमण संरक्षित क्षेत्र में आवाजाही, अनियंत्रित पर्यटन, मवेशियों का जंगलांे में चरना और स्थानीय आबादी का जंगलों में लगातार अतिक्रमण से बाघों का पर्यावास बिगड़ा है । बाघों की घटती संख्या पर प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने चिंता व्यक्त करते हुए बाघों को देश की ऐतिहासिक विरासत करार दिया है । प्रधानमंत्री ने देश में वन्य जीवों के संरक्षण के लिए अनेक कार्य बिंदु और प्राथमिक परियोजनाआें के साथ राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना २००२-२०१६ शुरू की
है । इन बाघ संरक्षण केन्द्रों से जो रिपोर्ट सामने आई है। वह सबको हतप्रभ करने वाली है ं बाघों के लिए सरकार द्वारा जो सामग्री मुहैया होती है, वह बाघों तक न पहुँचकर केन्द्र के कर्मचारियोंएवं पर्यवेक्षकों द्वारा ही हजम कर लिया जाता है । सरिस्का ँवं अन्य बाघ संरक्षण केन्द्रों पर घटती बाघों की संख्या का यही मुख्य कारण सामने आया है । देश में पिछले २० वर्षोंा तक बाघों की संख्या ४३३४ तक थी, जो लगातार घटती हुई अब महज २००० ही रह गई है । संरक्षित क्षेत्रों में चार वर्षोंा में एक बार बाघों की संख्या का आंकलन किया जाता
है । गणना के लिए अनेक विधियाँ हैं परन्तु सटीक संख्या बताने की कोई वैज्ञानिक विधि नहीं है । पंजे के निशान के आधार पर ही गणना की जाती है । आधुनिकता की दौड़ में आदमी स्वार्थी, विवेकहीन और नृशंस हो गया है ।
मनुष्य आज बाघों का अवैध शिकार करने पर उतारू रहता है । अंतराष्ट्रीय बाजार में बाघ के लगभग हर अंग खाल, मांस, रक्त,
पंजे, बाल, दाँत, नाखून, खोपड़ी, हडि्डयाँ आदि का मुँह माँगा दाम मिलता है । अवैध शिकार रोकने के लिए भी सरकार ने कई योजनाएँ क्रियान्वित की हैं । बाघ हमारा राष्ट्रीय प्रतीक है । बाघ और पर्यावरण में गहरा संबंध
है । बाघ की उपस्थिति आदर्श पर्यावरणीय परिस्थिति में ही संभव है । अगर बाघ किसी जंगल को छोड़ने लगे तो इसका मतलब है उस जंगल का पर्यावरण असंतुलित हो चुका है । बाघ पर्यावरण का बैरोमीटर होता है ।

मच्छरों का डीएनए बदलेगा, डेंगू से होगा बचाव !

ब्रिटिश वैज्ञानिकों का कहना है कि डेंगू बुखार से निजात पाने के लिए उन्होेंने आनुवांशिक रूप से परिवर्तित मच्छरों के साथ प्रयोग किया
है । प्रयोगशाला के बाहर किए गए इस परीक्षण में वैज्ञानिकों ने कैरेबिया के एक छोटे से द्वीप पर करीब ३० लाख नर मच्छरों को छोड़ा । जंगलों में रहने वाली मादा मच्छरों और इन नर मच्छरों के बीच हुए प्रजनन के बाद पैदा हुए अंडे लार्वा के जन्म से पहले ही नष्ट हो गए ।
इस प्रयोग के लिए मच्छरों की डीएनए में परिवर्तन किया गया, ताकि जंगलों में रहने वाली मादा मच्छरों के साथ उनके प्रजनन का प्रभावव देखा जा सके । डेंगू एक
जानलेवा रोग है जो मच्छरों के काटने से फैलता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनियाभर में हर साल डेंगू के पाँच करोड़ से ज्यादा मामले सामने आते हैं । ऑक्सिटेक नामक कंपनी इस प्रयोग के जरिए मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों जैसे मलेरिया और डेंगू को जड़ से खत्म करने की कोशिश में जुटी है ।
ऑक्सिटेक के मुताबिक इस प्रयोग के बाद कुछ महीने के अंदर ही इस इलाके में मच्छरों की संख्या में ८० प्रतिशत तक की कमी देखी गई । वैज्ञानिकों का कहना है कि डेंगू के संक्रमण में कमी के लिए यह काफी था ।
इस प्रयोग से जुड़े लोगों का कहना है कि मच्छरों की अनुवांशिकी में ये बदलाव पर्यावरण के लिए घातक हो सकते हैं । आलोचकों का कहना है कि आनुवांशिक रूप
से परिवर्तित मच्छरों को जंगलों में छोड़ने से पर्यावरण पर विनाशकारी असर पड़ेगा ।
दुनियाभर की ४० प्रतिशत आबादी पर डेंगू रोग की चपेट में आने का खतरा है । इस समय इस रोग से लड़ने के लिए कोई टीका उपलब्ध नहीं है । मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का उपयोग भी ज्यादा कारगर नहीं दिखता । क्योंकि, जो मच्छर डेंगू रोग फैलाते हैं, वे दिन के समय भी काटते हैं । कीट-पतंगों की अनुवांशिकी में बदलाव के जरिए बीमारियों को खत्म करने की इस तकनीक की शुरूआत १९५० में हुई थी ।

पृथ्वी पर था विशाल कीड़ों का साम्राज्य

जीवाश्मों और पुराने अवशेषों का अध्ययन कर वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि डायनासोर के पृथ्वी पर सफाए के बाद पृथ्वी पर मौजूद अन्य छोटे जीव अपने आकार में विशाल होते गए और उनकी जगह ले ली ।
वैज्ञानिकों के अनुसार करीब साढ़े छह करोड़ साल पहले डायनासोर का अंत
हुआ । इसके बाद लगभग ढाई करोड़ साल तक पृथ्वी पर उन स्तनधारी कीड़ों और जीवों का साम्राज्य रहा, जो एक किलो से बढ़कर टनों के वजनी दैत्य में परिवर्तित हो गए । विशालकाय घोड़ों और हाथियों के से आकार वाले ये जीव मूल रूप से कीड़े-मकोड़े थे,
लेकिन अपने बढ़ते आकार की बदौलत इस ग्रह पर राज करने लगे । इन जीवों को इंडीकोथीरियम और डायनोथीरियम का नाम दिया गया ।
हालांकि कुछ समय बाद कीड़ों का ये विकास यही रूक गया । इसकी कई वजह थीं । वैज्ञानिकों के अनुसार कि स्तनधारियों के लिए जरूरी है कि वे अपने शरीर का तापमान स्थिर रखें ओर ये जीव बहुत ज्यादा गर्म हो जाते थे । दूसरी वजह यह रही कि इनके बढ़ते आकार और बढ़ती भूख की वजह से धरती पर भोजन की किल्लत हो गई थी ।
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१३ जनजीवन

खेती को निगलता खनन
कुमार कृष्णन

आधुनिक औद्योगिक उत्पादन अत्यधिक ऊर्जा उपभोग आधारित है । ऊर्जा उत्पादन भी अत्यधिक प्राकृतिक संसाधनों की मांग करता है । आज भारत में कृषि और कृषक हाशिये पर चले गए हैंऔर उनके स्थान पर उद्योगों को अनावश्यक प्राथमिकता दी जा रही है । आवश्यकता इस बात की है कि दोनों के मध्य संतुलन बैठाया जाए ।
पर्यावरण में असंतुलन से आज वर्तमान उत्पादन पद्धति से उपजी चुनौती के रूप में पर्यावरण असंतुलन उभरा है और यह हमारी जीवन-पद्धति के हर हिस्से को प्रभावित कर रहा है ।
पर्यावरण असंतुलन का प्रभाव सभी पर पड़ता है । देश के विभिन्न हिस्सों और खासकर झारखंड की खेती बारिश पर निर्भर
है । पर्यावरण के दुष्प्रभावों के कारण मौसम चक्र पूरी तरह से बदल चुका है या बदलने के कगार पर है । यह बारिश शुरू होने का समय होता है, तब बेतहाशा गर्मी पड़ती है और आकाश में बादल का नामों निशान नहीं रहता है ।
एक रिपोर्ट के अनुसार हिमालय की बर्फ के पिघलने से भारत समेत एशियाई देशों मे बाढ़ अधिक आएगी । साथ ही पूर्वी और पूर्वोत्तर के इलाके में पानी के संकट स्पष्ट तौर से सामने आएंगे । इसके अलावा एशिया के अधिकांश देशो में कृषि की उत्पादकता में ३० फीसदी की गिरावट आएगी । समुद्रों के जलस्तर में बढ़ोतरी होगी, जिससे समुद्रतटीय इलाकांे में खारे जल की मात्रा बढ़ेगी और वह वहाँ भी फसलों को चौपट करेगा । शहर हो या औद्योगिक नगर सभी इसकी गिरफ्त में हैं ।
कई शहरांे और गांवों में फैल रही सिलिकोसिस और अन्य सांस की बीमारियों से इसके खतरों को समझा जा सकता है । इन बीमारियोंें का कोई इलाज नहीं है । यह इसलिए होता है कि हवा में मौजूद सिलिका के कण हमारे फेफड़ों में परत जमा जाते हैं । ये सिलिका के कण पहले हवा में मौजूद नहीं थे इन्हें औद्योगिक विकास की भूख ने पैदा किया है । इसके अलावा औद्योगिक कचरा जलीय पर्यावरण को दूषित कर रहा है तथा इसी पानी को देश के करोड़ों लोगों को पिलाकर जबरन मौत के मुंह में धकेला जा रहा है ।
पर्यावरण असंतुलन और उससे उपजे पारिस्थितिकीय संकट के कारण एक से बढ़कर एक प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। सरसरी तौर पर देखने में तो वे प्राकृतिक आपदाएं महसूस होती हैं, परंतु उनका मूल कारण है पर्यावरण असंतुलन । इतना ही नहीं जैव-विविधता जो सजीव प्राणियों के निरंतर विकास की प्रक्रिया है, उसे भी पर्यावरण असंतुलन द्वारा बाधित किया जा रहा है । पर्यावरण का असंतुलन सिर्फ किसानों के लिए नहीं, पूरी मानव सभ्यता के लिए एक चुनौती है ।
झारखंड राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है । आंकड़ों के मुताबिक राज्य में ३८ लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है और महज २२ लाख हेक्टेयर में ही खेती होती है । पिछले वित्तिय वर्ष में कृषि क्षेत्र का वृद्धि दर चार फीसदी रही है । इसके बावजूद सरकार उन योजनाआें पर जोर दे रही है, जो पर्यावरण को असंतुलित करने के प्रति जवाबदेह रही
है ।
क्योटो प्रोटोकॉल के मुताबिक पर्यावरण में असंतुलन और उसमें कार्बन की मात्रा को बढ़ने में लौह उद्योग की हिस्सेदारी पचास फीसदी रही है । बावजूद इसके पश्चिमी सिंहभूम में लौह अयस्क के भंडार क्षेत्र के लिए सरकार ने धड़ाधड़ एम.ओ.यू.किए । इसी तरह उत्तरी कर्णपुरा क्षेत्र, जिसने कृषि क्षेत्र के रूप में अपनी पहचान बनाए रखी है, में भी पर्यावरण को नष्ट करने वाली कोयला उत्सर्जन परियोजना के लिए २२ एम.ओ.यू. हो चुके हैं। झारखंड की मुख्य नदी दामोदर दुनिया की चौथी प्रदूषित नदी के रूप में घोषित हो चुकी है । यह नदी पहले किसानों के लिए वरदान थी, लेनिक यह अब औद्योगिक कचरा को बहाने वाले नाले के रूप में तब्दील हो चुकी है ।
कोयला निकालने की भूख शांत नहीं हुई है । यही हाल स्वर्ण रेखा और कोयलकारांे का हो चुका है । जलीय पर्यावरण असंतुलन के कारण उसके किनारे पर बसने वाले लाखों लोगांे के जीवन और आजीविका पर चोट पहुची है । अलग झारखण्ड राज्य के संघर्ष में पर्यावरण एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा था । आज पुरे झारखंड में उद्योगों के कारण न केवल टिकाऊ संसाधनों और आम आदमी के बीच फासला बढ़ा है वरन उसका पहले से भी ज्यादा विस्थापन हुआ है ।
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