शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

९ विशेष लेख

मिट्टी में सभ्यता की सुगन्ध
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल

वसुधान (धन्य-धान) को धारण करने वाली धरती को वसुन्धरा कहते हैं। धरती का ऊपरी उर्वर भाग ही मिट्टी है । मिट्टी अनमोल, रसवंती और गंधवती है । हम माटी की सौगन्ध खाते हैं । मांगलिक अवसरों, पूजा, अनुष्ठान के समय मस्तक पर रोली अक्षत का तिलक लगाते हुए ऋग्वेद के परिशिष्ट श्री सूक्त की इस ऋचा का उच्चरण किया जाता है ।
गंध द्वारां दुराघर्षां नित्य पुष्टां करीषणीम् ।
ईश्वरी सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम ।।
ईश्वरीं पृथ्वी ही अपमान रहिता, सर्वदा पोषण पुष्टिकत्री है । जो सम्पूर्ण सृष्टि को श्री वृद्धि प्रदान करती है । ऐसी ईश्वरीय शक्ति की हम मंगलकामना के साथ सुख समृद्धि हेतु वंदना करते हैं । धरती माता विश्वंभरा और हिरण्यवक्षा है । वह पर्जन्यप्रिया है । वर्षा से तृप्त् जलमयी होकर वह हमारे लिए अपने मटियाले ऑचल में हरियाली को उपजाती
है । इसीलिए हमारी धरती शाकम्भरी मातृ स्वरूपा देवी है ।
विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यव-क्षाजगतो निवेशिनी (ऋग्वेद १२/१/६)
मिट्टी ही हमारी पोषक है । मिट्टी से ही हमारी देहयष्टि का निर्माण होता है और अंत मे मिट्टी में ही हम मिल जाते हैं, सुपुर्देखाक हो जाते हैं । मिट्टी पूज्या है । मिट्टी औषधि है । बल की सत्ता तो माटी के कण कण में प्रतिक्षण विद्यमान है । माटी की उर्वरता ही उसकी चैतन्य शक्ति है ।
मिट्टी में सम्पूर्ण जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है । मिट्टी में विविध गंध और विविध रंग हैं । मिट्टी में आर्द्रता है । सूखा तृण भी मिट्टी की नमी पाकर हरिया जाता है, सुसुप्त् बीज अंकुराता है । मिट्टी में धन-धान्य वैभवछिपा होता है । हमारे पदाघात ही रजकणों की हमारे शीर्ष लाते हैं । मिट्टी हमारे शरीर की पोषक ही नहीं वरन् हमारे मनोभावों की द्योतक भी हैै । संत कवि कबीरदास जी का दोहा बड़ा ही सुन्दर है ।
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रोंधे मोय ।
इक दिन ऐसा आयेगा मैं रोदँूगी तोय ।।
आध्यात्म चिंतन से नीचे उतरकर मिट्टी की अनमोलता को प्रकृति परक वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो मिट्टी का पर्यावरण विज्ञान हमें
और भी श्रेयस चिंतन प्रदान करेगा ।
मनुष्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन मिट ्टी है । शैलों के टूटने, चूरा होने तथा उसमें भौतिक रासायनिक एवं जैविक परिवर्तन होने से मिट्टी बनती है । इस प्रकार मिट्टी का निमाण भूपृष्ठ की मूल चट्टानों के भंगुरण से होता है । चट्टानों की ऊपरी सतह पर मिट्टी बनना जलवायुगत एवं मौसमी प्रभावों तथा कालान्तर पर निर्भर करता है । कुछ सेन्टीमीटर मिट्टी की परत के निर्माण में हजारांे
वर्ष व्यतीत हो जाते हैं । हमारी कृषि मिट्टी पर निर्भर है । मिट्टी की उर्वरता ही उत्पादकता की निर्धारक है । इसीलिए उपजाऊ मिट्टी वाले क्षेत्रों में ही मानवीय सभ्यता का विकास पहले हुआ तथा वहीं जनसंख्या का घनत्व आज भी सर्वाधिक है ।
नदी की घाटियाँ एवं मैदान सबसे अधिक उपजाऊ होते हैं । अत: सभ्यता एवं संस्कृति का विकास भी ऐसे ही स्थलों पर होना आरम्भ हुआ था । मिट्टी बनने की क्रिया मे शनै-शनै तीन संस्तर (हॉरिजॉन) बन जाते हैं । सबसे ऊपरी संस्तर में जीव-जन्तुआें के मृतावशेष तथा सड़ने-गलने वाले पदार्थोंा के सूक्ष्म कण तथा अन्य जैविक पदार्थ होते हैं जिसे ह्यूमस कहते हैं । यही फ्यूमस मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाता है । इस संस्तर के नीचे उपपृष्ठ होता है जिसमें ऊपरी सतह से निक्षालित (लीच्ड)होकर आये हुए अर्थात रिस-रिस कर आये हुए पदार्थ जमा होते हैं । उपपृष्ठ के नीचे के संस्तर में उपक्षयित चट्टानों का चूरा मिलता है ।
तेजी से बहता हुए जल अपने प्रवाह मार्ग में आई हुई चट्टानों को तोड़ डालता है । चट्टानों से विलग हुए प्रस्तर खण्ड जल में प्रवाहमान रहते हुए आपस में ही टकरा-टकरा कर चूरा हो जाते हैं और रेणुका बनाते हैं जो पत्थर मजबूत होते हैं वह गोल होकर यहाँ वहाँ नदी तटों पर जमा हो जाते हैं । जल में ताकत होती है इसी तरह चलायमान हिमनदी में भी शक्ति होती है । यह हिमनदी चादरें अपने आधारी शैलों पर चलती हैं तो बड़ी-बड़ी चट्टाने भी स्थानच्युत होकर क्षण में ही भंगुर हो जाती है । प्रपाती चट्टानें शैलों से टकरा कर छिन्न-भिन्न हो जाती है । वायुवेग भी चट्टानों को विस्थापित करने में भूमिका निभाता है । जलवायुनिक परिवर्तनों के साथ-साथ तुषारापात और तत्पश्चात हिमवर्षण तथा फिर बर्फ पिघलने से भी शैल अवक्षय होता है । शैल कणिकाएं कुछ अपघटन क्रियाआें द्वारा खनिज यौगिकों में परिवर्तन हो जाती है और अंतत: अपक्षीण शैल पदार्थोंा से मिट्टी बनती है । मिट्टी की उर्वरता में कवक तथा जीवाणुआें का भी महत्व पूर्ण योगदान होता हैं क्योंकि यही सूक्ष्म जीव मिट्टी में आये कार्बनिक पदार्थोंा को अपनी अपघटनी क्रियाआंे द्वारा अकार्बनिक तत्वों में बदलते हैं ।
चट्टान रूपान्तरण द्वारा उत्पत्ति तथा प्रािप्त् के आधार पर मिट्टी के दो वर्ग होते हैं। प्रथम वर्ग की मिट्टी स्थानबद्ध या स्थानिक कहलाती है जो अपनी मूल मातृ चट्टान के ऊपर अवशेष रूप में जमा रहती है । दूसरे वर्ग में वाहित अथवा स्थानान्तरित/प्रतिस्थापित मिट्टी आती है । जो किन्हीं प्राकृतिक उपादानों या अपरदनकारी शक्तियों द्वारा मूल स्थान से हटकर अन्यत्र चली जाती है । यदि मूल मिट्टी जल द्वारा बहकर मैदारी भागों में आती है तो सर्वाधिक उर्वरता वाली जलोढ मिट्टी कहलाती है । नदियों के किनारों पर जलोढ़ मिट्टी की अधिकता होती है । हवा द्वारा उड़ाकर लाई हुई मिट्टी वायूढ मिट्टी कहलाती है यह मिट्टी मरूस्थलों के निकट पाई जाती है । हिमनदी के द्वारा जिस मिट्टी का प्रतिस्थापन हो जाता है उसे हिमोढ मिट्टी या हिमानी कहते हैं । भौम्याकार अर्थात् भूमि की आकृति पर भी मिट्टी की परिस्थितिकी निर्भर करती है । पर्यावरण के तत्वों में मिट्टी का स्थान आधारी है क्योंकि मिट्टी ही जीवों की देहयष्टि को साँचा प्रदान करती है ।
यथार्थ मिट्टी अकार्बनिक तथा कार्बनिक घटकों, अपने विलयशील पदार्थोंा सहित हवा, पानी प्रकाश एवं जैविकी को अपनी कणिकाआें के मध्य संभाले रहती है । इसमें उपस्थित सूक्ष्म जीव अपनी अपघटन क्रिया द्वारा उर्वरता में अभिवृद्धि करते हैं तथा विशेष प्रकार के सहजीवी जीवाणु (जैसे राइजोबियम) वायुमण्डलीय स्वतंत्र नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके मिट्टी की उर्वरता को और भी बढ़ाते हैं ं कुछ अन्य प्रकार के जीवाणु नाइट्रोजन के चक्रांतरण में हिस्सा लेकर मृदीय पोषण के स्तर को बनाये रखते हैं । मिट्टी में अनेक अकार्बनिक लवण, कुछ कार्बनिक यौगिक (जिसमेंमुख्य रूप से जैविक विघटन से प्राप्त् प्रोटीन्स होती है) मिट्टी का पोषण करते है ।
मिट्टी की अम्लता (एसिडिटी) तथा क्षारीयता (अलक्टेनिटी) भी सीमाकारी कारक के रूप में प्रभावी होती है ।अर्थात वह मिट्टी की उर्वरता तथा उत्पादकता की निर्धारक होती है । खनिज कणों का आकार, जलवायु तथा अन्य कारकों की स्थिति, सूक्ष्म जीवी की जैविकी (श्वसन एवं अन्य क्रियाएं) सम्मिलित रूप से मिट्टी की रासायनिक प्रकृति की निर्माण करती हैं ।
मिट्टी की छिद्रता (पॉरस्नेस) खनिज कणों के आकार तथा संघटन के अनुपातिक आधार पर मुख्यत: तीन प्रकार की होती है । पहली चिकनी मिट्टी (क्ले सॉयल) ) जिसमें एल्यूमिनियम सिलिकेट के अतिसूक्ष्म कण बहुतायत मेंहोते है ं जिसे कारण यही अत्यधिक चिकनी होती है तथा इस कारण इसकी जलग्रहण क्षमता आवश्यकता से अधिक होती है । दूसरी दोमट मिट्टी (लोअमी सॉयल) होती है । इसमें चिकनी मिट्टी तथा बालू का लगभग सम्मिश्रण होता है । इसी मिट्टी की जलग्रहण क्षमता तथा छिद्रता दोनों ही अच्छी होती हैं अत: उत्पादन की दृष्टि यह मिट्टी सबसे अच्छी मानी जाती है । तीसरी बालुई मिट्टी (सेण्डी सॉयल) होती है इस मिट्टी में बालू के कणोंका प्रतिशत अधिक होता है न्यूनानुपात में एल्युमिनियम सिलिकेट तथा सिल्ट कण भी होते हैं । इस मिट्टी की जल ग्रहण क्षमता अत्यधिक क्षीण होती है क्योंकि बालू में पानी रूक नहीं पाता अत: यह मिट्टी अनुर्वर एवं अनपयुक्त होती है ।
मिट्टी मंे जल की सही मात्रा में उपस्थिति उसकी उत्पादकता हेतु जरूरी है । मृदा जल का मुख्य स्त्रोत वर्षा का पानी है । जिसका अधिकांश भाग तो वाहित ही हो जाता है अर्थात् बह जाता है । बहता हुआ जल अपने साथ में मिट्टी की उर्वरक शक्ति को भी बहा ले जाता है । कुछ पानी गुरूत्व शक्ति के प्रभाव से मिट्टी की कणिकाआें से होकर रिस-रिस कर भूमि के अन्दर चला जाता है और भूमिगत जल कहलाता है । ऐसे भूजल को गुरूत्वीय जल (ग्रेविटेशनल वॉटर) कहते हैं । कुछ जल मृदा कोलॉइडी सम्मिश्रण द्वारा अवशोषित होता है जिसे आर्द्रता जल (हाइग्रोस्कोपिक वाटर) कहते हैं । कुछ जल मृदा कणों की परिधि पर फिल्म के रूप में चिपक कर रहता है जिसे केशिकीय जल (केपिलरी वॉटर) कहते हैं। वस्तुत: यही केपिलरी वाटर जड़ों की मूलरोम कोशिकाआें द्वारा अवशोषित किया जाता है । कुछ जल भाग ताप के प्रभाव से वाष्पित होकर ऊपर उठता है उसे जलवाष्प (वॉटर वेपर्स) कहते हैं। प्रत्येक स्थान की मिट्टी की जलग्रहण क्षमता अलग-अलग होती है ।
मिट्टी में वनस्पतियों के उगने के लिए पर्याप्त् मात्रा में वायु की उपस्थिति भी जरूरी
है । क्योंकि वातित मृदा में ही मूलरोमों की कोशिकाएं मिट्टी की वायु से आक्सीजन लेकर श्वसन क्रिया करती है । अत: यदि मिट्टी में वायु की कमी होगी तो जड़ों की वृद्धि एवं विकास रूक जाता है जिससे पेड़-पौधों की उपापचयी क्रियाआें में व्यवधान आता है । मिट्टी की गर्माहट यानि तापक्रम का प्रभाव भी पेड़-पौधांे तथा फसलों पर पड़ता है । क्योंकि मिट्टी में उपस्थित जीवाणुआें की सक्रियता के साथ-साथ बीजों के अंकुरण तथा पौधों की वृद्धि के लिए उपयुक्त ताप का होना जरूरी होता है । पौधों की उपापचयी सक्रियता तथा जल अवशोषण एवं अन्य जैविक कियाएं साधारण रूप से २००-३०० सेल्सियस के मध्य ताप पर सर्वाधिक अच्छी होती है ।
मिट्टी का निर्माण क्षरण से होता है और मिट्टी का विनाश भी क्षरण से ही होता
है । शैलों के शनै-शनै क्षरण से हजारों लाखों वर्षोंा में निर्मित मिट्टी कुछ वर्षोंा में ही हमारी अज्ञानता के कारण नष्ट हो जाती है । प्रकृति की शक्तियाँ ही मिट्टी का निर्माण करती हैं और प्रकृति ही विक्षोभित होकर क्ष्रण कारक बनती है । जलवायु ताप आदि के जो परिवर्तन निर्माण में सहायक होते हैं वहीं उसके नष्टीकरण का कारण भी बनते हैं । संघात और आघात का समुच्च्य हीतो पद्धति होती है । भूमि क्षरण कारक के रूप में अतिवृष्टि और अनावृष्टि दोनों ही खतरनाक होते हैं । कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार मिट्टी में पौधों के निकास हेतु लगभग १३ रासायनिक तत्व आवश्यक होते हैं जैसे - कार्बन, आक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, सोडियम, पोटेशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम, सिलिकान, गन्धक, फास्फोरस क्लोरीन एवं लोहा । इन तत्वों में किसी की भी कमी अथवा अधिकता हानिकारक होती है ।
आजकल हम रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का प्रयोग अंधाधुंध स्तर पर अपने खेतों में कर रहे हैं । यूरिया, अमोनियम सल्फेट, सुपर फास्फेट आदि को अपने खेतोंमें छिड़क-छिड़क कर हमने मिट्टी की जीवनी शक्ति को मृतप्राय कर दिया है । यदि हम रासायनिक उर्वरकों को प्रयोग बंद करके पुन: अपनी प्राचीन मान्य कम्पोस्ट खाद या वर्मीकम्पोस्ट खाद तथा हरी खाद इस्तेमाल करें तो न केवल मिट्टी की उर्वरता बनी रहे वरन् फसलों का उत्पादन बढ़ जायेगा । भूमि
अपरदन न हो इस बात पर भी ध्यान रहे क्योंकि अपरदन से उर्वरता क्षीण होती है । फसलों में चक्रान्तरण अपनाना चाहिए एक ही फसल के बार-बार उगाने से मिट्टी की जान निकल जाती है ।
यदि रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग यूँ ही जारी रहा तो जमीन कर देगी हमको फसल देने से इंकार क्योंकि बार-बार फसल देकर वह हो गई बेजार । फसल दर फसल, अलग-अलग अनाज का आगाज, किन्तु अब धरती थक चुकी है, निढाल हो गई है । धरती चीख-चीख कर कह रही है कि मत करो विषाक्त कीटनाशकोंका खुला प्रयोग । फसल दर फसल बुआई से धरती की सेहत हो चली है खराब किन्तु अधिक पाने की लालसा में हम अनसुना कर रहे हैं धरती का आर्तनाद और उसकी करूण पुकार इसी का परिणाम है कि कृषि लागत में बढ़ोत्तरी हो रही है तथा उत्पादन में घटोत्तरी हो रही है । कृषि सिकुड़ रही है और कृशमात हो रहे हैं हम तथा हमारे पशु । मिट्टी में जिंक की कमी ने फसलों को रोगी बना दिया है । पहले गेहूँ, फिर धान और फिर खाली खेत में चारा बुआई । जब दलहनी तथा तिलहनी फसलों से हमने हाथ खींचा तो मिट्टी में जान भला कहाँ से रह पायेगी ।
मिट्टी को संरक्षित रखने के लिए भूमि संरक्षण जरूरी है । इसके लिए खेतों में ऊँची मेढ बंदी करती चाहिए ताकि जल प्रवाह से भूमि अपरदन न हो सके । समोच्च् रेखीय जुताई तथा शस्यावर्तन करना चाहिए । मिट्टी के अवयवों को संरक्षित कर वसुन्धरा के हरित आवरण को बनाये रखना चाहिए । मिट्टी के दूर्वा (दूबघास) मिट्टी को बाँधने की शक्ति रखती हैं । मिट्टी ही गणपति रूप है और दूर्वा विघ्नेश्वर श्री गणेशजी को अतिप्रिय है । अनावश्यक रूप से हमें मिट्टी का स्थानान्तरण नहीं करना चाहिए क्योंकि पौधे ही जानते हैं विस्थापन का दर्द । खेतों में पंक्ति वाली फसलें बोनी चाहिए । मिट्टी में जैवांश मिलाते रहना चाहिए क्योंकि एक ही फसल को बार-बार बोने से मिट्टी में किसी विशेष तत्व को कमी होना स्वभाविक है । मिट्टी में केचुआें की संख्या बनी रहे यही प्रयत्न हमारा रहना चाहिए । क्योंकि केचुंए न केवल मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं वरन् मिट्टी की विषाक्तता को भी अवशोषित करते हैं । केंचुए बखूबी जानते हैं धरती का दर्द और मिट्टी का मोल यह दर्द और मोल हमें समझना होगा, तभी जिंदा रह सकेगीहमारी सभ्यता । ***

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