शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015



आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ का लोकार्पण 
अरविन्द कुमार सिंह, राज्यसभा टीवी, नई दिल्ली 
पिछले दिनों नई दिल्ली के प्रवासी भवन में ऐतिहासिक द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ के लोकार्पण के मौके पर साहित्यिक हस्तियों और पत्रकारों के साथ राजधानी में साहित्यप्रेमियों का समागम हुआ । आधुनिक हिन्दी भाषा और साहित्य के निर्माता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्मान में १९३३ में प्रकाशित हिन्दी का पहला अभिनंदन ग्रंथ दुर्लभ दशा को प्राप्त्    था । ८३ सालों के बाद इस ग्रंथ को हुबहू पुर्नप्रकाशित करने का काम नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया ने किया है । ग्रंथ के लोकार्पण और विमर्श के मौके पर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और विख्यात लेखक डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग निर्माता थे । 
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन मेंप्रो. मैनेजर पांडे ने इस ग्रंथ की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि, यह भारतीय साहित्य का विश्वकोश है। उन्होंने आचार्यजी की अर्थशास्त्र में रूचि व संपत्ति शास्त्र के लेखन, उनकी महिला विमर्श और किसानों की समस्या पर लेखन की विस्तृत चर्चा की। इस ग्रंथ में प्रकाशित दुर्लभ चित्रों को अपनी चर्चा का विषय बनाते हुए गांधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र ने इन चित्रों में निहित सामाजिक पक्ष पर प्रकाश डाला, उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया और कहा कि सकारात्मक कार्य करने वाले जो भी केन्द्र हैं उनका विकेन्द्रीकरण जरूरी है । नीदरलैड से पधारी प्रो. पुष्पिता अवस्थी ने कहा कि हिन्दी सही मायने में उन घरों में ताकतवर है जहॉ पर भारतीय संस्कृतिबसती है । नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया की निदेशक डॉ. रीटा चौधरी ने कहा कि यह ग्रंथ हिन्दी का ही नहीं, बल्कि भारतीयता का ग्रंथ है और उस काल का भारत-दर्शन है । चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रख्यात पत्रकार रामबहादुर राय ने इस ग्रंथ की प्रासंगिकता व इसके साहित्यिक महत्व को उल्लेखित करते हुए कहा कि यह ग्रंथ अपने आप में एक विश्व हिन्दी सम्मेलन है । 
कार्यक्रम के प्रारंभ में पत्रकार गौरव अवस्थी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी से जुड़ी स्मृतियों को पावर प्वाइंट के माध्यम से प्रस्तुत किया । इस प्रेजेंटेशन से यह बात उभर कर सामने आयी कि किस तरह से रायबरेली का आम आदमी, मजदूर व किसान भी आचार्य द्विवेदी के प्रति स्नेह रखता हैै।
कार्बन उत्सर्जन में कमी लाएगा भारत 
सम्पादकीय भारत ने विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र को भरोसा दिलाया है कि वह वर्ष २०३० तक कार्बन उत्सर्जन में ३३ से ३५ फीसदी तक कटौती लाएगा और अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता ४० फीसदी तक बढ़ाएगा । भारत ने यह लक्ष्य पेरिस में संभावित विश्व पर्यावरण संधि के लिए यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क क्रन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के समक्ष रखा है । 
आगामी ३० नवम्बर से ११ दिसम्बर तक में पेरिस में होने वाले विश्व जलवायु सम्मेलन के पूर्व सभी देशों को उत्सर्जन में कमी के अपने-अपने लक्ष्य पेश करना है । इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए ऐतिहासिक संधि होने के आसार है । 
भारत ने इस संधि के लिए अपनी वचनबद्धता को लेकर अपने राष्ट्रीय लक्ष्य यूएनए के समक्ष रखे । इसे इंटेडेट नेशनली डिटरमाइंड कांट्रिब्यूशन (आईएनडीसी) नाम दिया गया है । इसमें कहा गया है कि भारत २०३० तक अपनी गैर जीवाश्म इंर्धन आधारित बिजली उत्पादन ४० फीसदी करने का लक्ष्य रखा है । इस दस्तावेज में भारत ने कहा है कि हम कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता वर्ष २००५ के मुकाबले २०३० तक जीडीपी के ३३ से ३५ फीसदी तक लाएंगे । इसके लिए नेशनल एडाप्सन फंड भी बनाया गया है । ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन भी कोपनहेगन संधि के मुताबिक २०२० तक २० से २५ फीसदी तक किया जाएगा । दस्तावेज में कहा गया है कि भारत आर्थिक विकास और पर्यावरण में संतुलन कायम रखेगा । इसके लिए नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन बढ़ाने और कार्बन उत्सर्जन कम करते हुए विकास के पथ पर आगे बढ़ने पर जोर दिया जा रहा है । भारत का मौजूदा उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य २०२० तक २० से २५ फीसदी तक लाने का था । इस तरह ताजा लक्ष्य में ७५ फीसदी की वृद्धि की गई है । 
कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए जो कदम उठाए जाएंगे उनमें सबसे अहम वनीकरण होगा । इसके अलावा अक्षय ऊर्जा का उपयोग बढ़ाया जाएगा । वर्ष २०३० तक २.५ से ३ अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड (सीओ-२) सोखने की क्षमता विकसित की जाएगी । 
सामयिक
एवरेस्ट की चढ़ाई का व्यापार
संध्या रायचौधरी
दुनिया के सर्वोच्च् शिखर एवरेस्ट पर पहुंचना रोमांचक और साहसिक है लेकिन बाजारवाद ने इस यात्रा के मायने ही बदल दिए हैं। आज यह शिखर कुछ लोगोंके लिए सैर-सपाटे का केन्द्र बन गया है । इसके चलते यहां इतना कचरा जमा हो गया है जो यहां के पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचा रहा है । लगातार पिघलते ग्लेशियर और भूंकप के झटकों से इस पर्वत पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं । 
पं. नेहरू ने हिमालय के बारे में कहा था - किसी बेहद सुन्दर स्त्री की तरह हिमालय भी सुंदर है । वासना और कामना से परे इसकी नदियां, घाटियां, झीलें और पेड़ों का सौंदर्य स्त्री सुलभ है तो इसका दूसरा पहलु पुरूषोचित है । मजबूत, निर्मम और जबर्दस्त । कभी मुस्कुराते हैं तो कभी दुख से कराहते हैं । इन दृश्यों को निहारता हँू तो मुझे लगता है यह एक सपना है । 
एवरेस्ट ऊपर से तो वार झेल ही रहा है, जड़ों से भी इसे खोखला करने की तैयारी चल रही है । चीन की योजना इसके नीचे नेपाल तक सुरंग बनाने की है । सब कुछ ठीक ठाक रहा तो अगले साल सुरंग बनाने का काम शुरू कर दिया जाएगा । यह दुनिया की सबसे बड़ी सुरंग होगी । चीन का कहना है कि २०२० तक इसे पूरा कर लिया जाएगा । 
नेपाल में आए भूकंप ने तबाहो ही नहीं मचाई बल्कि पूरे हिमालय का भूगोल बदलकर रख दिया । वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि माउंट एवरेस्ट की चोटी भी कांपने से बची नहीं रह पाई । यहां तक कि इसकी ऊंचाई घट गई है । दो सेंटीमीटर वार्षिक रफ्तार से ऊंचा उठ रहे माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई भूकंप के बाद ढाई सेंटीमीटर तक कम हो गई । 
वर्ष २०१४ मे १८ अप्रैल को एवरेस्ट की राह में पड़ने वाले खुंबु हिमप्रताप के नजदीक हिमस्खलन से १६ शेरपा मारे गए थे । बहुत से घायल भी हुए । इसके बाद शेरपाआें ने हड़ताल कर दी । नेपाल सरकार को प्रतिदिन लाखों का नुकसान  हुआ । कई अभियान रद्द करने पड़े । कुल मिलाकर स्थिति ऐसी बन गई है कि २०१४ को हिमालय का काला वर्ष कहा गया । अब २०१५ की जो हालत है, उसे भी कम बुरा नहीं कहा जा सकता । एक तरफ एवरेस्ट चढ़ाई के अभियान थम से गए हैं । दूसरी ओर हिमालय के इस इलाके मेंउथल-पुथल का अंदेशा बरकरार है ।
उपग्रह डाटा विश्लेषण से यह साफ हुआ है कि काठमांडू की घाटी का इलाका ऊपर उठा है । भूवैज्ञानिक क्रिश्चियन मिनेट ने सेटेलाइट आंकड़ों का अध्ययन कर बताया है कि घाटी की ऊंचाई में ८० से.मी. तक का इजाफा हुआ है । ऐसा भारतीय टेक्टोनिक प्लेट के तिब्बती प्लेट की ओर बढ़ने के कारण    हुआ । मिनेट ने बताया कि भूकंप के पहले और बाद में काठमांडू और आसपास की तस्वीरों के संकलन से पता चला है कि यह क्षेत्र अब सेटेलाइट के नजदीक है जिसका मतलब है कि इसकी ऊंचाई बढ़ गई है । जीपीआरएस सर्वे से पता चला कि काठमांडू घाटी की ऊंचाई भूकंप से पहले १३३८ मीटर थी जो थोड़ी और ऊंची हो गई है । लीड्स युनिवर्सिटी के भूगर्भ वैज्ञानिक टिम राइट के मुताबिक भूकंप के बाद १२० कि.मी. लंबा और ५० कि.मी. चौड़ा इलाका तकरीबन तीन फीट ऊपर  उठा । 
नेपाल में आई प्राकृतिक विपदा के बाद इसकी ऊंचाई कितनी कम हो गई, इसके बारे में वैज्ञानिकों की राय है - करीब एक इंच । यह निष्कर्ष युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के एक भू-उपग्रह सेंटीनल १ए से मिली जानकारी के आधार पर निकाला  गया । २९ अप्रैल को यह उपग्रह एवरेस्ट के  ऊपर से गुजरा था । हालांकि पर्यावरण रक्षा विशेषज्ञ प्रोफेसर रोजर विलहैम का कहना है कि एवरेस्ट की ऊंचाई मेंकेवल १-२ मिलीमीटर का अंतर आया है जबकि अन्नपूर्णा पर्वतमाला की ऊंचाई २० सेंटीमीटर बढ़ गई है । हाल ही में एवरेस्ट और पास के नेशनल पार्क मेंकिए गए सर्वे से पता चला है कि एवरेसट का पूरा इलाका धीरे-धीरे गर्म हो रहा है । 
पिछले पांच दशक से ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला जारी है । अब तक कई छोटे ग्लेशियरों का वजूद मिट चुका है । शोध से पता चला है कि एवरेस्ट की हिमेरखा १८० सेंटीमीटर तक ऊपर खिसक गई है । चिंतनीय पहलू यह है कि बर्फ के रंग में भी बदलाव हो रहा है । स्नो एंड एवलांश स्टडी एस्टेब्लिशमेंट का अध्ययन बताता है कि कहीं बर्फ बैंगनी दिख रही है तो कहीं हरी । इसका कारण ग्लोबल वार्मिग और प्रदूषण दोनों है । 
अब कम ही लोग बचे हैं जो एवरेस्ट की चढ़ाई समर्पण और खेल भावना से करते हैं । एवरेस्ट अब रोमांच तलाश करने वालों की भी जमीन बन गई है । पर्वतारोही अपना पूरा कंफर्ट जोन साथ लेकर चलते हैं और ऐसा लगता है एवरेस्ट तफरीह करने आए हजार से अधिक लोग एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचे हैं । इससे वहां अब इतना कचरा फैल चुका है कि पर्यावरणविद उसे खतरनाक करार दे रहे हैं । 
इसलिए पर्वतारोहियों और शेरपाआें का संंबंध भी बिगड़ा है । पहले यह संबंध आत्मीय था लेकिन अब विशुद्ध व्यावसायिक है । एडमंड हिलेरी अपने साथ एवरेस्ट पहुंचे तेनजिंग शेरपा का बेहद सम्मान करते थे, लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं है । पिछले साल साढ़े सात हजार फीट की ऊंचाई पर पर्वतारोहियों और शेरपाआें में हाथापाई की नौबत तक आ गई थी । शेरपा अपने साथ नौकर की तरह व्यवहार करने और हिमालय पर बेहद कचरा फैलाए जाने से नाराज थे । कचरे में वैसी कई चीजें थी जिसे एवरेस्ट पर लाए जाने की जरूरत नहीं थी । इस बार जब भूकंप आया, एवरेस्ट के निचले आधार शिविर में कई ऐसे लोग भी मौजूद थे जो वहां हनीमून मनाने पहुंचे थे । ब्रिटेन की एलेक्स चैप्पेटे और उनके पति सैम स्नाइडर ने भूकंप के दौरान का आंखों  देखा हाल अपने ब्लॉग पर भी लिखा । 
दुनिया के सर्वोच्च् शिखर पर जाना और उसे जीना हर कोई चाहता है, लेकिन बाजार ने यहां पहुंचने के मायने ही बदल दिए हैं । एवरेस्ट इतना आम हो गया है कि उस पर पहुंचने का असली रोमांच और आनंद ही खत्म हो गया है । हर साल संख्या के नए रिकार्ड बन रहे हैं, साहस के नहीं । होना यह चाहिए कि जिसमें साहस, जोश और जोखिम उठाने का दमखम हो वही एवरेस्ट पर पहुंचे । 
संतोष यादव दो बार एवरेस्ट चढ़ चुकी है । वे कहती है कि एवरेस्ट विजेता बनने की चाहत रखने वाला युवक-युवतियों को नेपाल की कंपनियां लूट रही हैं । कंपनियां मोटी रकम वसूलती हैं और शॉर्टकट रास्ते से एवरेस्ट पर पहुंचा देती है । संतोष कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि पिछले १०-१२ सालों में सारे एवरेस्ट विजेता चढ़ाई के मापदण्डों पर खरा नहीं उतरे लेकिन ज्यादातर के साथ नेपाली कंपनियों ने धोखा किया । वे कहती है कि चढ़ाई के लिए पहले बकायदा तीन महीने का प्रशिक्षण दिया जाता था । अब इसकी जगह टीम के साथ अलग से एक टीम भेजी जाती है जो रास्ता खोलने के साथ-साथ ऑक्सीजन से लेकर सभी खाने-पीने के सामान का भार उठाती है । 
कमाई मेंज्यादा बड़ा रोल तो ट्रेवल एजेंसियों का होता है लेकिन इसके पीछे नेपाल की सरकार भी    है । गौरतलब है कि नेपाल ही नहीं, कई देशों की सरकारें अपने युवाआें को बेवकूफ बना मोटी कमाई कर रही हैं । २०१३ में तो हद हो गई । नेपाल सरकार ने ३० दलों के ३३५ सदस्यों को एवरेस्ट पर चढ़ने की अनुमति दी । सिर्फ इन्हें परमिट देने के नाम पर नेपाल सरकार को २५ करोड़ ४० लाख रूपये मिले । एक पर्वतारोही को आज चढ़ाई के लिए ७५ से ८० लाख खर्च करने होते    है । इस खेल को लेकर अब हमारा खेल मंत्रालय काफी जागरूक हो गया है । इंडियन माउंटेन फाउडेशन अब आवेदनों को गहराई से जांचता है । मंत्रालय ने तय किया है कि एवरेस्ट के नाम पर कोई अवार्ड नहीं  मिलेगा । 
कभी अजेय मानी जाने वाली एवरेस्ट की चोटी आज कुचली हुई नजर आती है । कारण, यहां आने वाले लोगों की बढ़ती तादाद भी है । 
हमारा भूमण्डल 
उपभोक्तावाद से पनपता विध्वंस
रिचर्ड मेक्सवेल
अत्यधिक परिष्कृृत तकनीक व यंत्र के बढ़ते इस्तेमाल ने हमारी पृथ्वी के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है । इन यंत्रांे के प्रति हमारे बढ़ते मोह और निर्भरता ने पृथ्वी को अत्यन्त जहरीला बना दिया है । इनकी वजह से ऊर्जा के प्रयोग में भी असाधारण तेजी आई है । सुखद बात यह है कि एक वर्ग अब इन पर अपनी निर्भरता कम कर रहा है ।
एप्पल की पहने जाने वाली घड़ी जैसी ''स्मार्ट'' तकनीक इस वर्ष की एक ''अनिवार्य'' वस्तु बन चुकी है और इसके निर्माता इस पर बहुत कुछ दांव पर लगा चुके हैैं । संभवत: आज यह सभी के लिए एक मानक बन चुकी है । हमेशा की तरह इस बार भी उच्च् तकनीक वाले व्यावसायिक घड़ीसाज केवल अपना उत्पादन नहीं बेच रहे हैैं बल्कि वे मशीन के प्रति वफादरी और मशीन के जादू के प्रति निष्ठा फैला रहे हैैं । 
यह एक ऐसी जुगत (यंत्र) है जिसने वशीकरण की तरह हमें अपने बस में कर लिया है । त्रासदायी बात यह है कि इलेक्ट्रानिक उपभोक्तावाद ने हमसे धरती के प्रति हमारी परिपूर्णता की धारणा का ही हरण कर लिया   है । अब हम इस जीवंत ग्रह के निवासी के बजाए अपने द्वारा अविष्कृत यंत्रों के अविष्कार (साधन) बन कर रह गए हैैं । हमारे उच्च् तकनीकी विकास ने बहुत तेजी से पर्यावरण सुस्थिरता की सीमा रेखा को पार कर लिया है । इसने संतुलन के उन दोनों मायनों का भी विध्वंस कर दिया है जो कि पृथ्वी मानवीय गतिविधियों को प्रदान कर सकती है और पृथ्वी किस हद तक इन गतिविधियों को पुन: अपने में समेट सकती है ।
गौर करिए हम विश्वभर में उपभोक्ता इलेक्ट्रानिक्स पर प्रतिवर्ष करीब १ खरब अमेरिकी डॉलर खर्च करते हैैं । अंतराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार आज नेटवर्क से संबधित १४ अरब यंत्र प्रचलन में हैैं जो कि घरेलू बिजली का १५ प्रतिशत इस्तेमाल करते हैैं । अगर यही प्रवृत्ति जारी रही तो हमारे डिजिटल यंत्र सन् २०२२ तक घरेलू वैश्विक बिजली का ३० प्रतिशत और सन् २०३० तक ४५ प्रतिशत इस्तेमाल करने लगेंगे । इस सबके अलावा, प्रत्येक बार जब हम आंकडे तैयार करते हैं या प्राप्त करते हैं तब भी बिजली का प्रयोग उन डाटा केन्द्रों और संचार नेटवर्कोंा को जो कि मोबाइल नेटवर्क से उसे जोड़ते हैं,  को भी करना पड़ता है । 
जब हम अपनी उच्च् तकनीक जीवनशैली और विद्युत ग्रिड के बीच के बिंदुओं को जोड़ते हैं तो हमारे सामने विमानन उद्योेग जितना बड़ा कार्बन फूटप्रिंट आता है । यदि हम अपने मोबाइल यंत्रों और डिजिटल उपभोग के लिए बढ़ती ऊर्जा खपत हेतु जीवाश्म ईंधन का कोई हरित विकल्प नहीं ढूंढंेगे तो हम प्रत्यक्षत: पर्यावरण को बहुत अधिक नुकसान पहुंचा रहे हांेगे । 
  उच्च् क्षमता वाली वस्तुओें के प्रति हमारा मोह ही इलेक्ट्रानिक एवं विद्युत अपशिष्ट (ई-कचड़ा) का बड़ा कारण बन गया है । हम लोग विश्व भर में ५ करोड़ टन प्रतिवर्ष की दर से ई-कचड़े का उत्पादन कर रहे हैैं । पिछले दशक में ई-कचड़ा हमारे द्वारा फेंके जाने वाली सभी वस्तुओं में सर्वाधिक योेगदान करने लगा है । इसमें जहरीले पदार्थो की भी भरमार होती है । यदि इसे ठीक प्रकार से नहीं हटाया गया इसका दोबारा इस्तेमाल नहीं किया गया या इसका पुर्नचक्रण (रिसायकलिंग) नहीं किया गया तो यह हमारी भूमि, वायु एवं जल के साथ ही साथ उन कर्मचारियों के  शरीर के लिए हानिकारक सिद्ध होगा जो इसके रसायनांे के प्रभाव में आएंगे । 
वैसे इलेक्ट्रानिक यंत्र के पूरे जीवनकाल में ही कचड़े को लेकर समस्या बनी रहती है । इसका जरुरत से ज्यादा उपयोग एवं निर्माण के दौरान निस्तारित पानी में साल्वेंट आदि की मौजूदगी से ही इन अत्याधुनिक यंत्रों की असलियत सामने आने लगती है । कारपोरेट की तयशुदा अप्रचलित करने या लुप्त कर देने की विनाशकारी व्यापारिक रणनीति ही प्रभुत्व बनाए रखती है । इसके बावजूद ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हम वास्तव में तब तक परवाह भी नहीं करते जब तक कि हमारे उपभोेेग के आस पास वशीकरण का धुंधलका छाया रहता है । पर जो लोेग विश्व भर में इन ई-कचड़ा स्थलों पर काम करते हैं उनके लिए यह विध्वंसता एक कोर सच्चई है । 
उच्च् तकनीक से लैस अमीर देश अपने ई-कचड़े का ८०-८५ प्रतिशत लेटिन (दक्षिण) अमेरिका, पूर्वी यूरोप, अफ्रीका और एशिया में फेंकते हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ के नवीनतम अनुमान बताते हंै कि केवल चीन में कुल वैश्विक ई-कचड़े का ७० प्रतिशत पहंुचता है । निम्न तकनीक वाले इन कचड़ा शुद्धीकरण अहातों में अर्धकुशल मजदूर भारी धातुओं जैसे सीसा, केडमियम, क्रोमियम एवं पारा, जले हुए प्लास्टिक और जहरीले धुएं के संपर्क में आते हैं । इससे उन्हें स्नायु तंत्र, जी मिचलाना, जन्म से विकलांगता के अलावा दिमाग में नुकसान, हड्डियों, पेट, फेफड़ों और अन्य महत्वपूर्ण अंगों में बीमारी आदि के जोखिम से गुजरना पड़ता है । चीन के गुआंगडांेग प्रांत के गुइयु की बात करें तो वहां के ८० प्रतिशत स्थानीय परिवार अब ई-कचड़े के रिसायकिलिंग क्षेत्र में कार्य करते   हैं। 
एक समय गुइयु कृषि आधारित नगर था लेकिन रिसायकलिंग की वजह से हो रहे प्रदूषण ने वहां की मानव खाद्य श्रृृंखला को बाधित कर दिया है। भूमि एवं जल में निरंतर जैविक प्रदूषण के प्रवाह से प्रभावित कृषि भूमि को अब ऐसी स्थिति में ला दिया है कि भविष्य की पीढ़ियां उसका सुरक्षित उपयोग ही नही कर पाएंगी । इसके बावजूद यदि मिश्रित अर्थव्यवस्था पर लौटने का प्रयास भी करेंगे तो इस मिट्टी से पैदा होने वाली फसल भी जहरीली ही होेगी ।
यह सब कुछ हमारी इलेक्ट्रानिक जीवनशैली के क्षितिज के परे जड़ें जमाता दिखाई पड़ रहा   है । लेकिन अब लोग वह सब कुछ समझने लगे हैं जो हमारे श्रम एवं पर्यावरण कार्यकर्ता तथा विद्वान कार्यकर्ता लम्बे समय से जानते हैं ।  अधिक से अधिक उपभोक्ता अब मशीन के प्रति अपने लगाव का पुर्नआंकलन कर रहे हैंऔर उन्होंने नए गैजेट खरीदना कम कर दिए    हैं । इतना ही नहीं पर्यावरणीय नागरिकता के प्रति अपना कर्तव्य निभाते हुए वे अपने पुराने इलेक्ट्रानिक उत्पादों की रिसायकलिंग कर रहे हैं । कार्यस्थलों विद्यालयों, रहवासी भवनों और पास पड़ौस में हरितिमा अब नया मानक बन रही  है । अनेक राज्यों, नगरपालिकाओं राष्ट्रीय सरकारों एवं आंचलिक प्रभागों ने ऐसे कानून पारित किए हैं जो कि ई-कचड़े का सुरक्षित निपटान सुनिश्चित करते हैं । 
नए संगठन अब अपने निर्माण स्थल पर डिजिटल यंत्रों से इकोसिस्टम के जहरीले होने को रोकने हेतु ई-कचड़े के निपटान हेतु व्यापक प्रबंधन पर अधिक जोर दे रहे हैं जिससे कि पृथ्वी के निवासियों के जैव भौतिक अधिकार संरक्षित हो सकें । हमें एक ऐसी सामाजिक स्थिति निर्मित करना होगी जो कि हम सबको उन वाईब्रेशन (कम्पन) एवं रिंगटोन से बचा सके जिन्हांेने हमारे शरीर की ऊर्जा को गहरी निद्रा में सुला दिया है। हमें जलवायु परिवर्तन, समुद्र के अम्लीकरण एवं एक ऐसा ग्रह जो कि नाईट्रोजन की अधिकता से ग्रस्त है, की चुनौतियों से भी जूझना होगा । हम पारंपरिक प्रदूषण के विशाल स्तरों को कम करना जानते हैं । हम ''छठे महान विप्लव'' को तो शायद न पलट पाएं, लेकिन हम अपने रहवासों को संरक्षित कर सकते हैं और अपनी जैवविविधता की तीव्र हानि को भी रोक सकते हैं । हम सब अपनी शिक्षा सक्रियता और शोध से ऐसी संस्कृति विकसित कर सकते हैं जो कि उपभोक्तावाद के ऊपर काबू पा सके। 
हमें अत्यन्त गंभीरता के साथ सुस्थिरता का ऐसा विचार विकसित करना ही होगा जो समझ सके कि पृथ्वी के पास मानव गतिविधियों के लिए सीमित संसाधन ही हैं । एप्पल घड़ी और उसके तमाम भाई बंद  हमारे बीच यहां मौजूद    हैं । परंतु हमारी आज की वास्तविक आवश्यकता भौतिकवादी पारिस्थि-तिकीय राजनीति और नैतिकता विकसित करने की है जो हमें पर्यावरणीय संकट से बाहर ले जाने में मददगार सिद्ध हो सके । 
गांधी जयंती पर विशेष
गांधीजी का पर्यावरण मंत्र
अरूण तिवारी
कचरा, पर्यावरण का दुश्मन है और स्वच्छता, पर्यावरण की   दोस्त । कचरे से बीमारी और बदहाली आती है और स्वच्छता से सेहत और समृद्धि । 
ये बात महात्मा गांधी भी बखूबी जानते थे और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी । इसीलिए गांधीजी ने स्वच्छता को स्वतंत्रता से भी ज्यादा जरूरी बताया । मैला साफ करने को खुद अपना काम बनाया । गांवों में सफाई पर विशेष लिखा और किया । कुंभ मेले में शौच से लेकर सुरती की पीक भरी पिचकारी से हुई गंदगी से चिंतित हुए । स्वच्छता को प्राथमिकता पर रखते हुए स्वयं झाडू लगाकर अपने प्रधानमंत्रित्व काल के पहले ही वर्ष २०१४ में गांधी जयंती का स्वच्छ भारत मिशन की शुरूआत की । वर्ष २०१९ में गांधी जंयती के १५० साल पूरे होने तक ५००० गांवों में दो लाख शोचालय तथा एक हजार शहरों में सफाई का लक्ष्य भी रखा । स्वच्छता सप्तह के रूप में बाल दिवस से स्कूलों में विशेष स्वच्छता अभियान भी चलाया, किन्तु यदि मुझसे पूछे कि पर्यावरणीय अनुकूलता की दृष्टि से गांधी और मोदी के स्वच्छता विचार में फर्क क्या है ? तो मेरा जवाब यूं होगा  - मोदी का स्वच्छता विचार, कचरा बटोरना तो जानता है, किन्तु उसका प्रकृति अनुकूल उचित निष्पादन करना नहीं जानता । गांधी, दोनो जानते थे । गांधी जानते थे कि यदि कचरे का निष्पादन उचित तरीके से न हो, तो ऐसा निष्पादन पर्यावरण का दोस्त होने की बजाय, दुश्मन साबित   होगा । 
मोदीजी ने खुले शौच से होने वाली गंदगी से निजात का उपाय सेप्टिक टैंक अथवा सीवेज पाड़पों में कैद कर मल को बहा देने में   सोचा । संप्रग सरकार की निर्मल गा्रम योजना में भी बस गांव-गांव शौचालय ही बनाये गये थे । किन्तु कम से कम गांवों के मामले में गांधी, सिद्धांतत: इसके खिलाफ थे । 
शहरो के मामले में गांधी की राय अवश्य थी कि शहरों की सफाई का शास्त्र हमें पश्चिम से सीखना चाहिए किन्तु वह गांवों में खुले शौच का विकल्प शौचालय की बजाय, शौच को एक फुट गहरे ग े में मिट्टी से ढक देना मानते थे । मेरे सपनों के भारत पुस्तक में वह सफाई और खाद पर चर्चा करते हुए लिखते हैं - इस भंयकर गंदगी से बचने के लिए कोई बड़ा साधन नहीं चाहिए, मात्र मामूली फावडे का उपयोग करने की जरूरत हैं । दरअसल, गांधीजी शौच और कचरे को सीधे-सीधे सोन खाद में बदलने के पक्षधर थे । वह जानते थे कि मल को संपत्ति में बदला जा सकता है । 
श्री मोदी को भी यह जानना चाहिए । गांधी कहते थे कि इससे अनाज की कमी पूरी की जा सकती है । इस सत्य को गांव के लोग आपको आज भी इस उदाहरण के तौर पर बता सकते है कि बसाहट की बगल के खेत की पैदावार अन्य खेतों की तुलना में ज्यादा क्यों होती है । आधुनिक भारत का सपना लेकर चलने वाले नेहरू से लेकर हरित क्रांति के योजनाकारों ने इसे नहीं समझा । वे विकल्प में रासायनिक उर्वरक और रासायनिक कीटनाशक ले आये । जिसका खामियाजा प्राकृतिक, जैव विविधता की हत्या, मिट्टी की दीर्घकालिक उपजाऊ क्षमता में कमी और सेहत के सत्यनाश के रूप में हम आज तक झेल रहे हैं । मोदीजी, ऐसा न होनें दे । 
इस बात को वैज्ञानिक तौर पर यूं समझना चाहिए । गांधीजी लिखते हैं - मल चाहे सूखा हो या तरल, उसे ज्यादा से ज्यादा एक फुट गहरे ग ा खोदकर जमीन में गाड़ दिया जाय । जमीन की  ऊपरी सतह सूक्ष्म जीवों से परिपूर्ण होती है और हवा एवम् रोशनी की सहायता से जो कि आसानी से वहां पहुंच जाती है, वहां जीव मल-मूत्र को एक हफ्ते के अन्दर एक अच्छी, मुलायम और सुगन्धित मिट्टी में बदल देते हैं । 
सोपान जोशी की पुस्तक जल मल थल इस बारे में और खुलासा करती हैं । वह बताती है कि एक मानव शरीर एक वर्ष में ४.५४६ किलो नाइट्रोजन ०.५५ किलो फॉसफोरस और १.२८ किलो पोटाशियम उत्सर्जन करता है । १२५ करोड़ की भारतीय आबादी के गुणांक में यह मात्रा करीब ८० लाख टन होती है । मानव मल-मूत्र को शौचालय में कैद करने से क्या हम हर वर्ष प्राकृतिक खाद की इतनी बड़ी मात्रा खो नहीं देगे ?
त्रिकुण्डीय प्रणाली वाले सेप्टिक टैंक तथा मल-मूत्र को दो अलग-अलग खांचों में भरकर हम इकोसन के रूप में इस मात्रा कुछ बचा जरूर सकते हैं, लेकिन यह हम कैसेभूल सकते हैं कि खुले में पड़े शौच के कंपोस्ट मेंबदलने की अवधि दिनों में है और सीवेज टैंक व पाइप लाइनों में पहुंचे शौच की कंपोस्ट में बदलने की अवधि महीनों में, क्योंकि इनमें कैद मल का संबंध मिट्टी, हवा व प्रकाश से टूट जाता है । इन्हीं से संपर्क में बने रहने के कारण खेतों में पड़ा मानव मल आज भी हमारी बीमारी का उतना बड़ा कारण नहीं है, जितना बड़ा कि शोधन संयंत्रों के बाद हमारे नदियों में पहुंचा मानव मल । 
गांवों में मानव मल निष्पादन का गांधी तरीका, कचरा निष्पादन के सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत के पूरी तरह अनुकूल है । सिद्धांत है कि कचरे को उसके स्त्रोत पर निष्पादित किया जाये । कचरा चाहे मल हो या मलवा, कचरे को ढोकर ले जाना वैज्ञानिक पाप    है । अनुभव बताता है कि शौचालय कभी कहीं अकेले नहीं जाता । शौचालय के पीछे-पीछे जाती है मोटर-टंकी और बिजली पानी की बढ़ी हुई खपत । एक दिन जलापूर्ति की पाइप लाइनें उस इलाके की जरूरत बन जाती है । राजस्व के लालच में सीवर की पाइप लाइनें सरकार पहुंचा देती है । इससे कचरा और सेहत के खतरे बिना न्योते ही चले आते हैं । दुनिया में हर जगह यही हुआ है । हमारे यहां यह ज्यादा तेजी से आयेगा क्योंकि हमारे पास न मल शोधन पर लगाने का प्रयास धन है और न इसे खर्च करने की  ईमानदारी । हकीकत यही है । अभी शहरों के मल का बोझ हमारे नगर निगम व पालिकाआें से संभाले नहीं संभल रहा है । जो गांव पूरी तरह शौचालयों से जुड़ गये हैं, उनका तालाब से नाता टूट गया है । गंदा पानी तालाबों में जमा होकर उन्हें बर्बाद कर रहा है । जरा सोचिए । अगर हर गांव हर घर में शौचालय हो गया, तो हमारी निर्मलता और सुनहली खाद कितनी बचेगी ?
समझने की बात है कि एकल होते परिवारों के कारण मवेशियों की घटती संख्या, परिणामस्वरूप घटने गोबर की मात्रा के कारण जैविक खेती पहले ही कठिन हो गई है । कचरे से कपोस्ट का चलन अभी घर-घर अपनाया नहीं जा सका है । अत: गांधी जयंती पर स्वच्छता, सेहत, पर्यावरण, गो, गंगा और ग्राम रक्षा से लेकर आर्थिक की रक्षा के चाहने वालों को पहला संदेश यही है कि गांवों में घर-घर शौचालय की बजाय, घर-घर कंपोस्ट के लक्ष्य पर काम करें । इसके लिए गांधीजी ने कचरे को तीन वर्ग में छंटाई का मंत्र बहुत पहले बताया और अपनाया था, पहले वर्ग में वह कूड़ा, जिससे खाद बनाई जा सकती हो । दूसरे वर्ग में वह कूड़ा जिसका पुर्नोपयोग संभव हो, जैसे हड्डी, लोहा, प्लास्टिक, कागज, कपड़े आदि । तीसरे वर्ग में उस कूडे को छांटकर अलग करने को कहा, जिसे जमीन में गाड़कर नष्ट कर देना चाहिए । कचरे के कारण, जलाशयों और नदियों की लज्जाजनक दुर्दशा और पैदा होने वाली बीमारियों को लेकर भी गांधीजी ने कम चिंता नहीं जताई थी । 
गौरक्षा और सेवा के महत्व बताते हुए भी गांधीजी ने गोवंश के जरिए, खेती और ग्रामवासियों के स्वावलंबन का ही दर्शन सामने   रखा । वह इसे कितना महत्वपूर्ण मानते थे, आप इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैंकि उन्होंने गोवंश रक्षा सूत्रों को बार-बार समाज के समक्ष दोहराया ही नहीं, बल्कि जमनालालजी जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को गो-पालन कार्य को आगे बढ़ाने का दायित्व सौंपा । वह जानते थे कि जो खेती की रक्षा के लिए सच हैं, वहीं गोवंश की रक्षा के लिए भी सच है । व्यापक संदर्भ में गांधीजी बार-बार कहते थे कि हमारे जानवर, हिन्दुस्तान और दुनिया के गौरव बन सकते हैं । पर्यावरणीय गौरव इसमें निहित है ही । 
गांधी साहित्य, पर्यावरण के दूसरे पहलुआें पर सीधे-सीधे भले ही बहुत बात न करता हो, लेकिन संयम, सादगी, स्वावलंबन और सच पर आधारित उनका सही मायने में सभ्य और सांस्कारिक जीवन दर्शन, पर्यावरण की वर्तमान सभी समस्याआें के समाधान प्रस्तुत कर देता हैं । एकादश व्रत में भी एक तरह से मानव और पर्यावरण के संरक्षण और समृद्धि का ही व्रत हैं । प्रकृति हरेक की जरूरत पूरी कर सकती है, लेकिन लालच एक व्यक्ति का भी  नहीं । जब गांधी यह कहते हैं तो इसी से साथ आधुनिकता और तथाकथित विकास के दो पगलाये घोड़ों के हम सवारों को लगाम खींचने का निर्देश स्वत: दे देते हैं । 
गंदगी, अच्छाई या बुराई इस दुनिया में जो कुछ भी भी घटता है, वह हकीकत में घटने से पहले किसी ने किसी के दिमाग में घट चुका होता है । यह बात पश्चिम ने भी समझी । गौर कीजिए कि उसने हमें पहली या दूसरी दुनिया न कहकर, तीसरी दुनिया कहा । इस शब्द से उसने हमें मुख्यधारा से पिछड़े, गंवार, दकियानूसी, अलग-थलग और अज्ञानी होने का एहसास कराने का शब्दजाल रचा । हमारे प्रकृति अनुकूल, समय-सिद्ध व स्वयं-सिद्ध ज्ञान पर से हमारे ही विश्वास को तोड़ा, फिर अपनी हर चीज, विधान व संस्कार को आधुनिक बताकर हमें उसका उपभोक्ता बना दिया । संयम, सादगी और सदुपयोग की जगह, सभ्यता के नाम पर अतिभोग तथा उपयोग करे और फेक दो का असभ्य सिद्धांत थमा दिया । 
सब संस्कार बदल गये । परमार्थ, फालतू काम है, स्वार्थ से ही सिद्धि है । ग्लोबल वार्मिग, दुनिया के लिए होगी, तुम्हारे लिए तो ए.सी.     है । अपना कमरा, अपनी गाड़ी के भीतर ठंडक की तरफ देखों, दुनिया जाये भाड़ में । घर का कचरा बाहर और अतिभोग का सुविधा सामान अंदर । इसके लिए अब सिर्फ पेट नहीं, तिजोरी भरो । इसीलिए खेती बाड़ी निकृट बता दी गई और दलाली, चाकरी से भी उत्तम । कहा कि गांव हटाओ, शहर भगाओ । कर्ज लो, घी पीयो । नदियां मारने के लिए कर्ज   लो । नदियों को जिलाने के लिए कर्ज लो । कुदरती जंगल काटो, खेत बनाओ या इमारते लगाओ । जानते हुए भी कि यह धरती का पेट खाली कर पानी की कंगाली का रास्ता है, हमने नदी-तालाब से सिंचाई की बजाय, नहर और धरती का सीना चाक करने वाले ट्यूबवेल, बोरवैल, समर्सिबल, जेटपंप को अपना लिया । सेप्टिक टैकों से भी आगे बढ़कर सीवेज पाइपों वाले आधुनिक हो   गये । हमें युकेलिप्टस याद रहा, पंचवटी भूल गये । 
इन सब उलटवांसियो के बीच रास्ते बनाते हुए आज एक बार आया फिर दुबला-पतला बूढ़ा, सेवाग्राम संचालको से कहना चाहता है - खजूरी, गरीबों का वृक्ष हैं । उसके उपयोग तुम्हें क्या बताऊं । अगर सब खजूरी कट जाये, तो सेवाग्राम का जीवन बदल जायेगा । खजूरी हमारे जीवन में ओतप्रोत है ।  खजूरी के उपयोग का हिसाब करो । जिस महात्मा गांधी को खजूरी जैसे सहज उपलब्ध दरख्त और छोटी से छोटी पेंसिल को सहेजने और उसका हिसाब रखने जैसी बड़ी-बड़ी आदते थी, पर्यावरण और स्वच्छता के उनके सिद्धांतों को लिखकर या पढ़कर नहीं, बल्कि आदत बनाकर ही जिंदा रखा जा सकता है । आइये, इनको हम अपने जीवन का अनुभव   बनायें ।
विशेष लेख
पर्यावरण और विकास पर नयी दृष्टि
एस.जनकराजन/के.के.जॉय

      प्रतिष्ठित अध्येता, सामाजिक कार्यकर्ता और नीतिकार, भारत सरकार के भूूतपूर्व सचिव और उसके बाद नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में मानद प्राध्यापक रामास्वामी आर. अय्यर का निधन पिछले दिनों हो गया । उन्होंने अपने काम से पानी, इकॉलॉजी और पर्यावरण सम्बंधी हमारी समझ को समृद्ध किया । 
जून १९८५ में जब मुझे जल संसाधन सचिव नियुक्त किया गया था, उस समय मैंने काफी रूढ़िवादी मानसिकता के साथ इस काम को संभाला था, मगर पहले दिन से ही सीखने लगा । दो महीनों के अंदर मैं इतना जान गया था कि मुझे महसूस होने लगा कि परिवर्तन की जरूरत है और इसका पहला कदम होगा एक राष्ट्रीय जल नीति । सरकारी नौकरी से सेवा निवृत्ति के समय तक मेरी सोच काफी बदल चुकी थी, मगर सीखने की प्रक्रिया जारी रही जो आज भी जारी है .... । 
श्री अय्यर ने यह बात नवंबर २०१३ में नई दिल्ली में उनके सम्मान में आयोजित एक सम्मेलन में कही थी । यह एक पानी-नौकरशाह से लेकर एक जन-उन्मुखी और पर्यावरण केंद्रित पानी कार्यकर्ता-सह-शोधकर्ता बनने की यात्रा का सटीक बयान है । 
इकॉनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली और दी हिंदू के पन्ने इस बात के गवाह हैं, जिन्हें उन्होंने पानी और विकास, इकॉलॉजी, पर्यावरण व जीविका सम्बंधी विविध मुद्दों पर अपनी समझ साझा करने का माध्यम बनाया था । वे सचमुच एक जन-उन्मुखी कार्यकर्ता-बुद्धिजीवी थे । देश के नीति विश्लेषकों और अकादमिक व्यक्तियों के बीच वे एकदम अलग थे क्योंकि वे कभी अपना मत प्रकट करने से कतराते नहीं थे, चाहे बात सरदार सरोवर परियोजना की हो, कावेरी जल विवाद की हो, या मुल्लपेरियार बांध के विवाद की हो या नदियों को जोड़ने की योजना   की । हालांकि सरकार जब भी किसी अंतरप्रांतीय जल विवाद के भंवर में उलझती तो श्री अय्यर को याद करती थी मगर देश के पानी-प्रतिष्ठान ने उनके योगदान को कभी गंभीरता से नहीं लिया और न ही उसे मान्यता दी । इसलिए जव २०१४ में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित करने के निर्णय का समाचार मिला तो वे सुखद आश्चर्य से भर गए थे । 
ऐसा नहीं हैं कि वे पानी और पर्यावरण के मुद्दों को लेकर सेवानिवृत्ति के बाद संवेदनशील हुए हों । दरअसल भारत सरकार के जल संसाधन सचिव के रूप मेंउनका योगदान नई जमीन तोड़ने वाला   रहा । वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने देश में पहली बार १९८७ में राष्ट्रीय जल नीति को साकार किया । इस नीति ने समाज के सभी तबकों में व्यापक सार्वजनिक बहस, आलोचनात्मक सोच और जागरूकता को जन्म  दिया । 
सेवा निवृत्ति के बाद उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा गठित पानी व पर्यावरण सम्बंधी विभिन्न समितियों की अध्यक्षता की या उनके सदस्य रहे । इनमें योजना आयोग द्वारा गठित सिंचाई के पानी के मूल्य निर्धारण की समिति (जिसकी रिपोर्ट १९९२ में प्रस्तुत की गई), योजना आयोग द्वारा नौवीं पंचवर्षीय योजना के लिए गठित सहभागी सिंचाई प्रबंधन कार्य समूह (१९९६-९७), विवादास्पद सरदार सरोवर परियोजना के अध्ययन के लिए जल संसाधन मंत्रालय द्वारा गठित पांच सदस्यीय समूह (१९९३), टिहरी बांध के पर्यावरणीय व पुनर्वास सम्बंधी मुद्दोंकी समीक्षा हेतु उच्च्स्तरीय विशेषज्ञ समिति (१९९६-९७), केंद्र-राज्य सम्बंध आयोग द्वारा गठित प्राकृतिक संसाधन, पर्यावरण, भूमि, पानी और कृषि सम्बंधी टास्क फोर्स (२००८-०९) आदि इनमें प्रमुख हैं । 
वर्ष २०१०-११ के आसपास तत्कालीन प्रधान मंत्री के निवेदन पर उन्होंने सिंधु जल संधि के कामकाज के बारे मेंएक श्वेत पत्र तैयार किया और इसका मसौदा सरकार को प्रस्तुत किया मगर उसी समय राजनैतिक परिस्थितियां बदलीं और इस श्वेत पत्र के प्रकाशन में भारत सरकार की रूचि न रही । यह किसी सरकारी दफ्तर की किसी फाइल में पड़ा होगा । 
सरदार सरोवर और टिहरी बांध सम्बंधी समितियों में अपनी भागीदारी को व अपनी समझ में विकास और परिवर्तन का एक प्रमुख पड़ाव मानते थे । दरअसल, उन्होंने बड़े बांधों पर  संतुलित रवैये  को छोड़कर  बड़े बांध नहीं तक  लाने का श्रेय इन्हीं अनुभवों को दिया है (गौरतलब है कि उन्होंने कभी  कोई बांध  नहीं मत का समर्थन नहीं किया ।) जैसा कि खुद श्री अय्यर ने २०१३ में वॉटर आल्टर्नेटिव में अपने एक लेख  दी स्टोरी ऑफ ए ट्रब्ल्ड रिलेशनशिप  में स्पष्ट किया है, उनके रवैये में यह परिवर्तन  काफी हद तक बड़ी परियोजनाआें के प्रतिकूल प्रभावों के खिलाफ चले दो बड़े आंदोलनों की वजह से हुआ है - एक सरदार सरोवर परियोजना के खिलाफ और दूसरा टिहरी पनबिजली परियोजना के खिलाफ । 
अपने जीवन के अंतिम तीन दशकों में उन्होंने दुनिया भर की यात्राएं की और सैकड़ों सम्मेलनों और कार्यशालाआें में शिरकत की, उनकी कई पुस्तकें और लेख प्रकाशित    हुए  । 
कई गैर-सरकारी संगठनों, जन आंदोलनों और कार्यकर्ताआें के साथ वे एक मित्र, सलाहकार और हमदर्द के रूप में नजदीकी से जुड़े रहे । इनमें नर्मदा बचाओ आंदोलन विज्ञान व पर्यावरण केंद्र रिसर्च फॉउण्डेशन फॉर साहन्स, टेक्नॉलॉजी एंड इकॉलॉजी, नवदान्या, तरूण भारत संघ, विकसत, फॉउण्डेशन फॉर इकॉलॉजिकल सिक्योरिटी, फोरम फॉर पॉलिसी, डायलॉग ऑन वॉटर कॉन्फ्िल्क्ट्स इन इंडिया, अर्घ्यम ट्रस्ट वगैरह शामिल हैं । वे लगभग २५ वर्षोंा तक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से भी जुड़े रहे । 
पानी, पर्यावरण और विकास पर रामास्वामी अय्यर का लेखन एक व्यापक धरातल को समेटता है । उन्होंने जल नीति, अंतर्प्रांतीय जल विवाद, और नेपाल, पाकिस्तान, बांगलादेश व चीन वगैरह पड़ोसियों के साथ भारत की सीमापार जल संधियों जैसे विषयों पर काफी लेखन किया । पानी फ्रेमवर्क कानून, वैकल्पिक जल नीति, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन विधेयक संशोधन और पर्यावरण कानूनों की समीक्षा हेतु उच्च् स्तरीय समिति सम्बंधी उनके हालिया लेखन ने इन विषयों के विमर्श को गहराई प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । 
स्वस्थ और जीवित नदियां श्री अय्यर के दिल के करीब का विषय था । इसी के चलते उन्होंने एक व्याख्यान माला का नेतृत्व किया जिसे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ने आयोजित किया था । आगे चलकर ये व्याख्यान ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस द्वारा एक पुस्तक के रूप में संकलित भी किए गए - लिविंग रिवर्स, डाइंग रिवर्स । वे लिखते हैं, नदियों के साथ ऐसे सलूक किया जाता है जैसे वे पाइपलाइनें हों, जिन्हें काटा जा सकता है, मोड़ा जा सकता है, जोड़ा जा सकता है, उन पर इतना कूड़ा, प्रदूषक और गंदगी बरसाए जाते हैं जो उनकी निपटने की क्षमता से कहीं ज्यादा हैं, नदियों के बाढ़ क्षेत्र में बस्तियां बसी हैं और बाढ़ को समाने के लिए जगह नहीं बची है, नदियों में से रेत का खनन किया जा रहा है, नदियों के पेंदे में बोर वेल खोदे जा रहे हैं जो उनका पानी उलीच लेते हैं और नदी के न्यूनतम प्रवाह में कमी ला देते हैं । 
कुछ इंजीनियर हैं जो नदियों को नियंत्रित करना और उन्हें तोड़ना-मरोड़ना चाहते हैं, कुछ अर्थशास्त्री नदियों को और सामान्यत: पानी को एक संसाधन मानते है जिसका पूरा दोहन मात्र मानव उपयोग के लिए और खरीद-फरोख्त की एक वस्तु के रूप में किया जाना चाहिए । इनमें से कोई भी नजरिया ऐसी कोई गुंजाइश नही छोड़ता कि नदियों को एक जीवित वस्तु, एक इकॉलॉजिकल तंत्र माना जाए, जिसकी भूमिकाएं मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों में उपयोगी होने से कहीं आगे जाती है और नदियों का अस्तित्व मात्र एक साधन के रूप में नहीं है । 
उनके कुछ हालिया लेखों में नई सरकार की कुछ पहलकदमियों की आलोचनात्मक समीक्षा की गई है जिनके बारे में कुछ लोग मानते हैं कि ये कदम घड़ी को उल्टी घुमाने के प्रयास हैं । दरअसल, अपनी सारगर्भित टिप्पणी में अय्यर ने कहा कि पर्यावरणीय मंजूरियों में नाटकीय तेज गति अच्छी नहीं, बुरी खबर है । यह नई सरकार द्वारा विभिन्न इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाआें को पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रियाको त्वरित बनाने के कदम पर अय्यर का नजरिया स्पष्ट कर देती है । 
वास्तव में अय्यर का कार्य पानी क्षेत्र की वैकल्पिक विश्व दृष्टि का प्रतीक बन गया है । उनका लेखन मुख्य धारा की पानी संबंधी नीतियों और परिप्रेक्ष्य के विरूद्ध एक मतभेद का स्वर रहा है । जो वैकल्पिक जल नीति उन्होनें लिखी थी (राष्ट्रीय जल नीति : विचार-विमर्श के लिए एक वैकल्पिक मसौदा) उसने ऐसे सारे विचारों को एक मंच पर लाने का काम किया । वे २०१२-१३ में योजना आयोग के पानी संबंधी फ्रेमवर्क कानून कार्यसमूह के अध्यक्ष थे । इसके माध्यम से उन्होंने वैकल्पिक जल नीति को एक कानूनी ढांचा प्रदान करने का प्रयास भी किया था । जैसी कि अपेक्षा थी, पानी प्रतिष्ठान ने इसे गंभीरता से नहीं लिया - वैकल्पिक राष्ट्रीय जल नीति के विचारों को २०१२ की सरकारी राष्ट्रीय जल नीति में कोई स्थान नहीं मिला । जल संसाधन मंत्रालय ने इसके लिए नई समिति का गठन कर दिया । 
कावेरी विवाद को लेकर रामास्वामी अय्यर के दृढ़ विचार    थे । वे आश्वस्त थे कि हालांकि इस विवाद के बारे मेंअंतिम फैसला २००७ में आ चुका है और सरकार ने इसे अधिसूचित भी कर दिया है मगर इसे कार्यरूप देने के लिए जरूरी होगा कि कर्नाटक में ऐतिहासिक अन्याय की जो भावना पैदा हुई है उसे संबोधित किया जाए । अय्यर ने स्वैच्छिक, परस्पर सहमति से समायोजन का प्रस्ताव दिया था जिसमें निम्नलिखित चीजें होगी :-
१. तमिलनाडु द्वारा कर्नाटक को २० से ३० हजार मिलियन घन फुट अतिरिक्त पान देने की पेशकश ।
२. कर्नाटक पानी छोड़ने के मासिक कार्यक्रम का पालन करे ।
३. संकट के सालों में पानी के बंटवारे का फॉमूॅला जिसे कावेरी परिवार द्वारा विकसित किया जाएगा या यदि वह संभव नहीं है तो कावेरी प्रबंधन बोर्ड द्वारा तय किया जाएगा । 
मगर इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बिन्दु यह था कि अंतर्प्रातीय जल विवाद न्यायधिकरणों को मात्र फैसले देने वाली संस्था से आगे जाकर सहमति बनाने वाली संस्थाएेंहोना चाहिए जो बातचीत के आधार पर बंदोबस्त करें । अय्यर के मुताबिक, इसके लिए न्यायाधिकरण के संघटन को बदलना होगा और एक न्यायाधीश की अध्यक्षता में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों को शामिल करना होगा । 
बहुत कम लोग जानते हैं कि रामास्वामी अय्यर जितने पानी के लिए जजबाती थे उतने ही संगीत के प्रति भी थे । वे भारतीय शास्त्रीय संगीत - उत्तर भारतीय व दक्षिण भारतीय दोनों - के अच्छे टीकाकार थे । हालांकि वे दिल्ली के स्थायी निवासी थे, मगर चैत्रै के दिसम्बर संगीत समारोह में बिना चूके उपस्थित रहते थे - एक श्रोता के रूप में और एक लेखक के रूप में । दिसम्बर में चेत्रै समारोह में उनकी उपस्थिति में कोई बाधा नहीं बनी । जब हमने उनसे संपर्क किया कि हम दिसम्बर २०१३ में उनके लिए एक सम्मान रखना चाहते हैं, तो दो टूक जवाब मिला कि दिसम्बर का तो सवाल ही नहीं उठता क्योंकि वह तो चेत्रै के लिए आरक्षित है । वे श्रुति नामक संगीत पत्रिका के नियमित लेखक भी थे और इसमें वे उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय संगीत पर तुलनात्मक लेख लिखा करते   थे । अविश्वसनीय सा लगता है कि १९८३ से २०१० के दरम्यांन उन्होंने संगीत पर २४ लेख प्रकाशित  करवाए । 
हालांकि पिछले तीन दशकों में भारत के पानी क्षेत्र के विमर्श मेंउनका योगदान बेजोड़ था मगर यह देश के पानी प्रतिष्ठान को रास नहीं आया, शायद इसलिए कि उनके मत स्पष्ट थे और तथ्यों पर आधारित थे और सत्ता की लकीर पर नहीं चलते थे । इसी पृष्ठभूमि में हमने पानी क्षेत्र में रामास्वामी अय्यर के योगदान को सम्मान देने मान्यता देने और अभिनंदन करने के लिए एक सम्मान सम्मेलन पर विचार किया । जब हमने उनसे इस बारे में संपर्क किया तो जवाब देने में उन्होनें वक्त लिया । अंतत: उन्होनें एक लंबी सी ईमेल के जरिए हमें बताया कि क्यों वे हां कह रहे हैं । 
नवम्बर २०१३ के सम्मेलन में देश भर के पानी क्षेत्र से जुड़े विद्वान और कार्यकर्ता शामिल हुए   थे । सम्मेलन को मिला जबर्दस्त प्रत्युत्तर इस बात का प्रमाण है कि पानी पर्यावरण और विकास के क्षेत्र में रामास्वामी अय्यर के प्रति कितना सम्मान और स्नेह है । 
जनजीवन
पर्यावरण और स्वच्छ भारत अभियान
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

स्वच्छ रहना मनुष्य ही नहीं अपितु प्राणी मात्र का स्वभावहै । इसलिए पशु पक्षी भी अपने रहने-बैठने के स्थान पर स्वच्छता बनाये रखने का प्रयास करते है । 
स्वच्छता अभियान मात्र एक अभियान नहीं हैं, यह कई अभियानों का जोड़ है । इसमें शामिल है घर-अहाते की सफाई से लेकर शौचालय बनाना, सड़कों एवं घरों में कचरे से लेकर ई-कचरे का निपटान करना, इसमें पनघटों एवं जल मार्गो की सफाई जैसे अनेक कार्य शामिल है । मानव निर्मित उत्पादनों एवं प्रकृति प्रदत्त उत्पादनों में बुनियादी अंतर यही है कि प्राकृतिक उत्पाद अपनी उपयोगिता पूर्ण होने पर पुर्नचक्रित होकर पुन: प्रकृति का हिस्सा बन जाते है, जबकि मानव निर्मित वस्तुएें अनुपयोगी होने पर कचरे का निर्माण करती है । 
एक स्वच्छ राष्ट्र के निर्माण मेंस्वच्छता की अहम भूमिका होती  है । यह निश्चित है कि हमारे आसपास का वातावरण अगर अस्वच्छ रहा तो रोग फैलाने वाली परिस्थितियोंका निर्माण होगा । रोगों के उपचार पर धन खर्च करने एवं कष्ट सहन करने के स्थान पर स्वच्छता पर जोर देकर अपने परिसर को साफ-सफाई पर ध्यान देना  होगा । 
आज कल जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि, बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिकरण के साथ ही भोगवादी सभ्यता के विकास ने कचरे की समस्या को बहुआयामी विस्तार दिया है । वर्तमान में यह दुनिया की प्रमुख समस्याआें में से एक है । दुनिया में जो देश और समाज जितना अधिक उपभोक्तावादी है, वह उतना ही अधिक कचरा उत्पादक भी है । हमारे देश में भी आदिवासी क्षेत्र और सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां उपभोक्तावाद का प्रभाव कम है, कचरे की समस्या इतनी विकराल स्थिति में नहीं है । 
कचरे की श्रेणी में वे सभी पदार्थ आते है जिनके अनियोजित एकत्रीकरण से किसी न किसी रूप में प्रदूषण होता है और परिणाम स्वरूप मानव एवं अन्य जीवों के जीवन और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग शोध संस्थान (नीरी) द्वारा देश के ४३ शहरों से एकत्रित जानकारी से पता चलता है कि शहरी कचरे में ४०-५० प्रतिशत तक ठोस जैव विघटनशील पदार्थ होते है । ठोस कचरे का आमतौर पर भूमि भराव में उपयोग होता है । इस प्रक्रिया से भूजल का प्रदूषण होता है क्योंकि इन स्थलों से कई विषैले पदार्थ धीरे-धीरे भूजल में रिसते रहते है । 
भारतीय शहरों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत ४१४ ग्राम कचरा निकलता है । इसका ठीक से उपचार हो तो पूरा देश स्वच्छ हो सकता है । देश में ५१०० नगरीय निकाय है, इनमें हर साल ६० लाख टन कचरा निकलता है, इसमें यदि औद्योगिक कचरे को भी शामिल कर लें तो इस कचरे से १०,००० मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है । हमारे देश में प्रतिवर्ष करीब १५ लाख टन ई-कचरा पैदा होता है । देश में चिकित्सीय कचरा व न सिर्फ साफ सफाई अपितु स्वास्थ्य की दृष्टि से भी चिंता का विषय बनता जा रहा है । 
सौंदर्य के प्रति सहज आकर्षण ने मनुष्य में सफाई के प्रति संवेदनशीलता पैदा की है । यही कारण है कि साफ सफाई की दिशा में कचरे से निपटने के प्रयास पिछले ५००० वर्षो से निरन्तर जारी है । करीब ५००० वर्ष पूर्व ग्रीस में पहली बार कचरे का उपयोग भूमि भराव में किया गया था । आज भी सारी दुनिया में कचरे को ठिकाने लगाने के विकल्पों में भूमि भराव प्रमुख है। 
सफाई प्रकृतिकी मौलिक विशेषता है । प्रकृति के पांच मूल तत्वों - धरती, पानी, हवा, आकाश और प्रकाश में अपने आप को साफ रखने का स्वाभाविक गुण होता है । प्रकृति के कार्यो में अनावश्यक हस्तक्षेप से गंदगी और प्रदूषण की समस्या पैदा हो रही है । सामान्यतया सफाई करने का अर्थ कूड़े-करकट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटा देना समझा जाता है लेकिन यह सफाई नहीं अपितु गंदगी का स्थानान्तरण मात्र है । 
सफाई का वास्तविक अर्थ है, किसी वस्तु को उसके उपयोगी स्थान पर प्रतिष्ठित करना याने कचरे को संपति में परिणित करना । गांधीजी के विचार से सफाई की परिभाषा करें तो सफाई याने सब चीजों का फायदेमंद इस्तेमाल । इस प्रकार सफाई का सरल शब्दो में अर्थ होगा अपने स्थान से हटी हुई चीजों को उचित स्थान पर फिर से प्रतिष्ठित करना । सफाई आर्थिक दृष्टि से ही नहीं सामाजिक दृष्टि से भी एक क्रांतिकारी काम है । 
हमारे देश में कचरा प्रबंधन का दायित्व स्थानीय शासन संस्थाआें पर है । कमजोर आर्थिक स्थिति और संसाधनों की कमी के कारण अधिकांश संस्थाएें इस कार्य में सफल नहीं हो पा रही है । देश में ठोस अपशिष्ट विसर्जन में कचरे से पदार्थो की पुन: प्रािप्त् और पुर्नचक्रण में कचरा बीननेवालों की भूमिका मुख्य होती है । अभी तक इनकी समस्याआें पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है। 
स्वच्छ भारत अभियान की सफलता और इसके दुरगामी स्थायी परिणाम प्राप्त् करने के लिए सफाई के साथ ही उससे जुड़े पर्यावरण संरक्षण के मुख्य पक्षों पर विचार करना जरूरी है । 
हमारे देश में अन्य विकासशील देशो के समान कागज, प्लास्टिक और अन्य धातुआें के पृथक्करण के लिए सीमित संसाधन उपलब्ध है । विकसित देशों में नगरीय ठोस अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पादन होता है या कार्बनिक खाद बनाई जाती    है । हमारे यहां कचरे से बिजली बनाने की दिशा में १९८७ से प्रयास चल रहे है, लेकिन समुचित सफलता अभी भी नहीं मिल पायी है । हमारे देश में मिश्रित कचरे में कम कैलोरीमान तथा नगर निकायों में आर्थिक और तकनीकी क्षमता की कमी से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है । 
देश में १ करोड़ वयस्क और १८ लाख बच्च्े कचरा बीनकर अपनी जीविका चला रहे है । देश में करीब ७ करोड़ लोग गंदी बस्तियों में रह रहे है । कचरा संग्रहण स्थलों के समीप रहने वाले लोगों का जहरीले कचरे की वजह से स्वास्थ्य खराब हो रहा है । नगरीय कचरे में सीसे और क्रोमियम का स्तर सामान्य से बहुत अधिक है । इससे अनेक बीमारियों के साथ ही विकलांगता बढ़ रही है । शहरों, महानगरों और कस्बों में दुकानों, घरों के बाहर नालिया अतिक्रमण का शिकार हो रही है । इस कारण सफाई कर्मचारियों द्वारा सफाई करने के बाद भी इन नालियोंएवं गटरों में गंदा पानी रूका रहता है जो अस्वास्थ्यकर स्थिति का निर्माण करता है । 
देश में करीब ६६ करोड़ लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है, इसके साथ ही करीब ३ लाख लोग अभी भी मानव मल साफ करने के कार्य से मुक्त नहीं हो पाए है । देश में चिकित्सकीय कचरे में से आधे का ही सुरक्षित निपटान हो पा रहा है, शेष कचरा स्वयं ही रोग संक्रमण का साधन बन रहा है । पैकेजिंग जैसे कार्यो में इस्तेमाल की जाने वाली नष्ट न होने वाली सामग्री भी प्रदूषण का प्रमुख कारण है । इसका उपयोग धीरे-धीरे कम करने और इसके स्थान पर वैकल्पिक साधनों को बढ़ावा देना होगा, इससे भी हमारे पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को शक्ति मिलेगी। 
स्वच्छता अभी भले ही अभियान हो परन्तु यह हमारा स्वभाव बनाना चाहिये । समाज के प्रत्येक स्तर पर यह अभियान स्वयं प्रेरणा से होने वाले रोज का कार्यक्रम बनना चाहिये । स्वच्छता को समाज परिवर्तन का माध्यम बनाया जा सकता है । मन स्वच्छ होने वाले पर ही स्वच्छ भारत की संकल्पना सफल हो सकेगी । इस सत्य को ध्यान में रखना होगा । 
हमारे देश में धार्मिक आयोजनों और पूजा परम्पराओ में भी कचरे का सुरक्षित निपटान नहीं होने से पर्यावरणीय समस्यायें पैदा हो रही है । अभी पिछले दिनों सम्पन्न गणेशोत्सव के विसर्जन समारोह की चर्चा अप्रांसगिक नहीं होगी । मिट्टी से बनी प्रतिमाआें में जलाशयों में आसानी से विसर्जित हो जाती है लेकिन प्लास्टर आफ पेरिस (पीओपी) से बनी प्रतिमाआें के विसर्जन से समस्या पैदा होती है । पीओपी में जिप्सम, सल्फर, फासफोरस और मैग्नीशियम जैसे तत्व होने से यह पानी में घुलने में कई महीने लगते है और इस दौरान जलाशयों का पानी विषैला बना रहता है । इन प्रतिमाआें में लगाये जाने वाले रंगो में मरकरी, लेड, कैडमियम आदि होने से जल अम्लीय हो जाता है । प्रतिमाआें के साथ ही पूजा सामग्री में थर्माकोल, प्लास्टिक - पॉलीथिन, फूल एवं अन्य पूजा सामग्री जल स्त्रोतों को निरन्तर प्रदूषित कर रहे    है । इससे जलाशय में रहने वाले जलीय जीवों और निकटवर्ती पेड़ पौधों को भी नुकसान पहुंच रहा है । इसके समाधान हेतु जनसहयोग से नवीन योजनाएें बनाकर ठोस पहल करने की आवश्यकता है । 
पाश्चात्य संस्कृति में जहां भोग के अतिरेक को मान्यता है, वहीं भारतीय संस्कृति मेंत्याग के साथ भोग में आनंद में आस्था है । पाश्चात्य संस्कृति प्रकृति के पूर्ण दोहन, शोषण और नियंत्रण पर बल देती है, वहीं भारतीय संस्कृति पृथ्वी और प्रकृति को माता रूप में पूज्या मानकर उससे उतना ही लेने में विश्वास करती है, जितना आवश्यक हो । 
हमारे यहां सभी धर्मो में स्वच्छता पर जोर है, इस कारण व्यक्तिगत जीवन में शुचिता का प्रमुख  स्थान है लेकिन सामुदायिक स्वच्छता के प्रति ज्यादातर लोग उदासीन रहते है । अपने घर का कचरा दूसरे के घर के सामने या सड़क पर डालने में शायद ही कोई संकोच करता है । हम सार्वजनिक स्थान और खासकर सड़क पर कचरा डालना हम अपना अधिकार समझते है । लेकिन इन स्थानों की सफाई को अपना कर्तव्य मानने को बहुत कम लोग तैयार होते है । इस मान्यता को बदले जाने की जरूरत है, इसके बिना स्वच्छता अभियान की सफलता संभव नहीं होगी । हर नागरिक की अपनी जिम्मेदारी है यह मानकर हर व्यक्ति को अपने हिस्से का काम करना होगा । स्वच्छता अभियान की सफलता के लिये सरकार और समाज दोनों को साफ मन और निर्मल ह्वदय से प्रयास करने होगे । पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छ भारत अभियान को जन आंदोलन बनाने मंे नागरिकों की सहभागिता महत्वपूर्ण होगी । 
स्वच्छता, सौंदर्य और संस्कृति एक दूसरे के पर्याय माने जा सकते है, मानव सभ्यता और संस्कृति का आधार मूलत: स्वच्छता है । हमारे चारों और गंदगी बिखरी हो तो ऐसे में सात्विक विचारों को उद्भव कैसे हो सकता है । 
 प्रदर्श चर्चा
उ.प्र. : दवा के नाम पर धीमा जहर
कृष्ण प्रताप सिंह
उत्तरप्रदेश की समाजवादी सरकार द्वारा प्रस्तावित विधेयक दलित कृषकों को यह अधिकार दे देगा कि वे अपनी भूमि अब गैरदलितों को भी बेच सकेंगे । साथ ही साथ न्यूनतम कृषि भूमि की शर्त भी विलोपित की जा रही है । दलितों के पक्ष में दिखाई देने वाला यह निर्णय अंतत: उनके  लिए धीमा जहर ही साबित होगा ।
मोदी सरकार को जिस 'किसान विरोधी` भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर अपने पैर अंतत: पीछे खींचने पड़े हैं, उससे सबक न लेते हुए उत्तरप्रदेश में 'किसानों की शुभचिंतक` अखिलेश सरकार ने प्रदेश की भूमि व्यवस्था में बदलाव का लगभग वैसा ही दलित विरोधी विधेयकपारित करा डाला है । मजे की बात यह कि पक्ष विपक्ष के विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस विधेयकपर नजरिया तय करने में न सिर्फ अपने अंतर्विरोधों को बेपरदा किया है बल्कि कृषि भूमि व किसानों की बाबत अपने पुराने तर्को को ताक पर रख दिया है। यकीनन यह दलितद्रोह की समाजवादी शैली है । 
इस बात की पूरी संभावना है कि लघु दलित भू-स्वामी की 'मुक्ति` के नाम पर लाये गये इस विधेयक की गूंज न सिर्फ उत्तरप्रदेश में बल्कि देश की दलित व किसान राजनीति में लम्बे वक्त तक सुनाई पड़ती रहेगी । कौन जाने, प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों में मुलायम व मायावती की निजी खुन्नस के चलते दलित विरोध में सानी न रखने वाली सत्तारूढ़ समाजवादी और खुद को दलितों की एकमात्र हमदर्द करार देने वाली विपक्षी बहुजन समाज पार्टी के बीच वोटों की रस्साकशी का भी यह सबसे बड़ा मुद्दा बन जाये । 
इस विधेयक को उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमिव्यवस्था संशोधन विधेयक, २०१५ नाम दिया गया है । यदि इसे राज्यपाल राम नाइक की स्वीकृति मिल गयी और यह कानून में परिवर्तित होकर लागू हो गया तो प्रदेश के दलितों को अपने स्वामित्व की सारी की सारी कृषि भूमि किसी को भी बेचकर फिर से भूमिहीन या खेतिहर मजदूर बनने की पूरी 'आजादी` हासिल हो   जायेगी । 
अभी तक जो प्रावधान हैं, उनके अनुसार बहुत जरूरी होने पर भी वे अपनी कृषि भूमि किसी दलित को ही बेच सकते हैं, किसी गैरदलित को कतई नहीं । दलित खरीददार को भी ऐसी बिक्री तभी संभव है, जब उस बिक्री के बाद भी दलित के पास कम से कम १.२६ हेक्टेयर कृषि भूमि बच रही हो । इस बिक्री के लिए संबंधित जिले के जिलाधिकारी की अनुमति की जरूरत भी पड़ती है । 
चूंकि आम दलितों के पास इतनी कृषि भूमि है ही नहीं कि उसके किसी टुकड़ें की बिक्री के बाद भी १.२६ हेक्टेयर बच जाये, इसलिए इन प्रावधानों को उनकी कृषि भूमि की खरीद-बिक्री पर अघोषित प्रतिबंध के तौर पर देखा जाता है। जमींदारी उन्मूलन के वक्त इसकी व्यवस्था इस उद्देश्य से की गयी थी कि समाज के समृद्ध तबकों को दलितों की भूमि खरीदने की किंचित भी सहूलियत हासिल हो गयी तो वे दलितों को भूमि आबंटित करके भूमिधर बनाने के सारे सरकारी प्रयत्नों को निष्फल कर डालेंगे । एक ओर दलितों को भूमि आबंटित की जायेगी और दूसरी ओर लोभ, लालच, भयादोहन या धोखे की बिना पर उन्हें भूमिहीन बना दिया    जायेगा । 
अखिलेश सरकार सत्ता में आने के बाद से ही इन प्रावधानों को खत्म करने की ताक में थी । अब उसका तर्क है कि भूमि आबंटन के नाम पर दलितों को दिये गये भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों से उनका जीवन स्तर सुधारने में कोई मदद नहीं मिली है । उलटे 'अलाभकर जोतों` के चक्कर में फंसकर वे न घर के रह गये हैंऔर न घाट के । कई दलितों के पास एक बीघे से भी कम कृषि भूमि है । सो भी पड़ती, बंजर या ऊसर ! वे उस पर खेती की सारी सुविधाएं व संसाधन जुटाने चलते हैंतो भी हलाकान होकर रह जाते हैं यानी नुकसान में रहते हैं । उससे छुटकारा पाकर कुछ और करना चाहते हैं तो कानूनी बाधा उन्हें ऐसा करने से रोक देती है । सांप छदूंदर वाली इस स्थिति से उनकी मुक्ति के लिए जरूरी है कि उन्हें इजाजत दी जाये कि वे अपनी कृषि भूमि जिसे भी चाहें, बेच    सकें । इससे उन्हें उसकी अपेक्षाकृत बेहतर कीमत मिल सकेगी ।   
   गौरतलब है कि अखिलेश सरकार और शासक दल मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण विधेयक के संदर्भ में दलितेतर जातियों के अलाभकर जोतों के स्वामी किसानों के भूमि से मुक्ति पाने के तर्क को स्वीकार नहीं   करती । लेकिन दलितों के मामले में प्रतिबंध की मूलभावना को ही खारिज कर यह कहने तक चली गई कि अपनी भूमि बेचने की आजादी के बगैर उनकी भू-स्वामी यानी स्वामित्व अपूर्ण, अपमानजनक और भेदभावपूर्ण है । 
दलितों को इस भेदभाव से निजात दिलाने की उन्हें इतनी जल्दी है कि राजस्व मंत्री शिवपाल यादव ने सारे विपक्षी दलों के एकजुट विरोध को दरकिनार कर विधानसभा में उक्त विधेयक पेश कर दिया । उन्होंने तर्क दिए कि किसान दलित हो या गैरदलित, अपनी कृषि भूमि बहुत विपत्तिग्रस्त या मजबूर होने पर ही बेचता है । विपत्ति में भी उसे इसकी इजाजत न देना उस पर अत्याचार करने जैसा है । लेकिन उन्होंने इस बाबत कुछ नहीं कहा कि दलितों को ऐसी मजबूरी से उबारने के कौन-कौन से प्रयत्न किये जा रहे हैं । सवाल उठता है कृषि भूमि बेचने के बाद उनकी मजबूरी और बढ़ेगी या घटेगी ? वे यह बताने में भी असफल रहे कि क्या दलितों के किसी संगठन की ओर से कभी सरकार से ऐसी कोई मांग की गयी थी ?
लेकिन विधेयक को लेकर सपा अकेला दल नहीं है जिसने अपने तर्क नहीं उलटे-पलटे । मोदी के भूमि अध्यादेश के संदर्भ से किसानों की अलाभकर जोतों से मुक्ति की समर्थक भाजपा यहां दलित किसानों की वैसी ही मुक्ति के खिलाफ खड़ी नजर आयी । बसपा व कांगे्रस के साथ उसने भी विधेयक को प्रवर समिति को सौंपने की मांग की और इसके लिए हंगामा व नारेबाजी की । इसे लेकर राजनीतिक हलकों में उस पर फब्तियां भी कसी गयी ।
  दूसरी ओर बसपा ने कहा कि विधेयक के पीछे दलितों को फिर से भूमिहीन बनाने और किसान से खेत मजदूर में बदलने की साजिश है । सपा सरकार अपने राजनीतिक आराध्य डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों का गला घोटकर भू-माफियाओं को उपकृत करना चाहती है । यह भूस्वामित्व पूर्ण करने के नाम पर दलितों से किया जा रहा ऐसा धोखा है जिसे सहन नहीं किया जा सकता । उसके नेताओं ने सरकार से पूछा कि वह प्रदेश में कैसा समाजवाद लाना चाहती है और उसका समाजवाद सच्च है तो वह 'एक व्यक्ति एक पेशा` के सिद्धांत पर अमल के लिए आगे क्यों नहीं   आती ? साथ ही, उद्यमियों, सरकारी सेवकों व आयकरदाताओं के शिकंजे में फंसी कृषि भूमि निकालकर दलितों को आबंटित क्यों नहीं करती ? 
बसपा के तेवर से लगता है कि वह विधानसभा चुनावों में दलितों को अपने पक्ष में एकजुट करने के लिए इस मुद्दे का इस्तेमाल अवश्य ही करेगी । राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि अखिलेश सरकार ने बैठे-ठाले उसको अपने उस वोट बैंक को नये सिरे से एकजुट करने व सहेजने का हथियार उपलब्ध करा दिया है, जो लोकसभा चुनाव में बिखर गया था । इसी के कारण बसपा का खाता तक नहीं खुला था । लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि तब उक्त बिखराव से शानदार जीत हासिल करने वाली भाजपा अब क्या करेगी ?   
पर्यावरण परिक्रमा
गिर में शेरों की सुरक्षा महिलाआें के हाथों में 
आप इन्हें गुजरात की शेरनी कहें तो गलत नहीं होगा । इनका काम ही ऐसा है । गुजरात में गिर के जंगलों में ये बेखौफ घूमती हैं । वही जंगल, जो करीब सवा पांच सौ एशियाई शेरों का घर है । जहां और न जाने कितने तेंदुए, मगरमच्छ और इनके जैसे ही खूंखार जानवर भी रहते हैं । उन्हीं के बीच काम करने वाली तीन शेरनियां हैं - रसीला वाढेर, किरण पीठिया और दर्शना कागड़ा ।
वर्ष २००७ में जब ये तीनों वनकर्मी की परीक्षा में चयनित हुई थी तब इन्हें ऑफिस के कामकाज में लगाया गया था । बाद में उन्हीं के कहने पर जंगल में वे फील्ड पर उतरीं । डीएफओ डॉ. संदीप कुमार का कहना है कि जब वे ऑफिस का काम करती थीं, और फील्ड में जाना चाहती थी तब उन्हें बता दिया गया था कि यह काम चुनौती भरा है । अगर सफल होंगी तो उनके लिए बहुत से अवसर सामने आ जाएंगे । सो, उन्होंने डटकर काम किया । आज वह वक्त आ गया । तीनों फील्ड में पूरी निर्भीकता के साथ काम कर रही    हैं । इन्होंने अब तक ८०० से ज्यादा रेस्क्यू ऑपरेशन कर कई सिंहो के अलावा जंगली जानवरों को नई जिंदगी दी है । हमें इन महिला साथियों के कार्यो पर गर्व है । 

भारत २०२५ में सबसे बड़ा जल संकट वाला देश  
एक दशक बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा जल संकट वाला देश बन जाएगा । यह टिप्पणी केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा गठित एक उच्च्स्तरीय समिति ने अपने प्रारंभिक आंकलन में कही है । यह समिति देश में इस बार मानसून की धीमी रफ्तार के मद्देनजर गठित की गई है । समिति ने अपने प्रारंभिक आंकलन में कहा है कि पूरे देश में शुरूआती समय में मौसम विज्ञानियों ने कहा था कि इस बार बारिश में १२ फीसदी कमी आएगी लेकिन अब अल नीनो के कारण यह कमी १६ फीसदी जा पहुंची है । समिति ने अपने आंकलन में कहा है कि मानसून सही नहीं होने के कारण छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में जल संकट सबसे अधिक होने का अनुमान है । 
समिति ने कहा है कि देश में कृषि की बढ़ती जरूरतों और जल प्रबंधन के धीरे क्रियान्वयन से स्वच्छ जल पर दबाव तेजी से बढ़ रहा है । देश में केवल १५ फीसदी ही वर्षा जल का उपयोग होता है । शेष ऐसे ही बहकर समुद्र में चला जाता है । वर्षा जल को जमीन के अंदर जितना अधिक डालेंेगे, उतना ही तेजी से  जल संकट से छुटकारा पाया जा सकेगा ।
समिति ने कहा है कि १९४७ में प्रतिव्यक्ति मीठा जल ६००० घन लीटर उपलब्ध था । यह वर्ष २००० में घटकर २३०० घन लीटर रह गया है । जल की बढ़ती जरूरतों को ध्यान में रखते हुए आगामी २०२५ तक यह कमी १६०० घन लीटर हो जाएगी । यही नहीं अगले दो दशकों में पानी की मांग ५० प्रतिशत और बढ़ेगी । 
जल संकट पर समिति ने एक आंकडे का हवाला देते हुए कहा कि यदि देश में जमीनी क्षेत्रफल के पांच फीसदी क्षेत्र में होने वाली वर्षा को संग्रहण करे तो एक अरब लोगों को प्रतिदिन १०० लीटर पानी उपलब्ध हो सकेगा । समिति ने कहा कि प्रत्येक बारिश के मौसम मेंसौ वर्ग मीटर आकार की छत पर ६५ हजार लीटर वर्षा जल का संग्रहण किया जा सकता है । इस पानी से चार सदस्यों वाले एक परिवार की पेयजल और उसकी अन्य जरूरतों को आसानी से पूरा किया जा सकता है । 
बंदर के पास है सेल्फी का अधिकार 
कुछ समय पहले चर्चा में रहे बंदर के सेल्फी पर कॉपीराइट का विवाद एक बार फिर सामने आ गया है । जानवरोंके अधिकारोंके लिए काम करने वाली संस्था पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा) ने सैन फ्रांसिस्को में फोटोग्राफर डेविड जे. स्लेटर और उनकी कंपनी के खिलाफ इस मामले में केस दायर किया है । स्लेटर और उनकी कंपनी ने इस सेल्फी पर अपना अधिकार जताया  है । पेटा का कहना है कि बंदर के पास ही उस सेल्फी का अधिकार है । अगर पेटा जीत जाती है तो यह पहला मामला होगा जब किसी जानवर को सेल्फी का अधिकार मिलेगा । 
तब से लेकर अब तक बंदर का यह सेल्फी बिना किसी कॉपीराइट के दुनियाभर में वायरल हो रहा है । सैन फ्रांसिस्को में स्लेटर की तस्वीरें प्रकाशित करने वाली कंपनी ने नारूतो के दो सेल्फी भी प्रकाशित कर दिए । 
इस मामले मेंविकिपीडिया भी कूद पड़ा था । विकीपीडिया का कहना है कि कॉपीराइट उस बंदर के पास ही रहेगा क्योंकि उस फोटो को उसी ने खींचा था । वेबसाइट पर एक संदेश में वीकिपीडिया ने लिखा है कि यह फाइल पब्लिक डोमेन में ही रहेगी, क्योंकि यह किसी मनुष्य की कृतिनहीं है और इस पर किसी का अधिकार नहीं है । 
पेटा के इस बयान से निराश स्लेटर का कहना है कि बंदर ने सेल्फी नहीं लिया । उसने केवलट्रायपॉड पर रखे कैमरे का बटन दबाया था और फोटो लिया था । 
दरअसल, २०११ में इंडोनेशिया यात्रा पर गए स्लेटर द्वीप पर बंदरो की फोटो खींच रहे थे, तभी ब्लैक मकॉक प्रजाति के एक बंदर नारूतो ने ट्रायपॉड पर लगे कैमरे से हजारो फोटो खींच ली । इनमें से कुछ गजब की तस्वीरें थी खासकर उसकी अपनी । इस सेल्फी ने काफी धूम मचाई और दुनिया भर में वायरल हो गई । 
नहाने योग्य नहीं है शिप्रा का जल 
आगामी वर्ष सिंहस्थ के दौरान प्रशासन शिप्रा में करोडों लोगों को स्नान करवाने की तैयारी कर रहा है, लेकिन शिप्रा का पानी नहाने योग्य है ही नहीं । प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है । रिपोर्ट में लिखा है कि शिप्रा में मिल रहे शहर के ११ गंदे नालों के कारण पानी में कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा सेन्ट्रल प्रदूषण बोर्ड के मानकों से बहुत ज्यादा है । 
शिप्रा जल में १०० एमपीएन (मोस्ट प्रॉबेबल नंबर) १६०० मिलियन है । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानक अनुसार १०० एमपीएन में इसकी मात्रा ५०० या इससे कम होनी चाहिए । सिंहस्थ के लिए करोड़ों रूपये खर्च कर रही सरकार का इस ओर ध्यान नहीं है । रिपोर्ट के अनुसार सिंहस्थ में भी शिप्रा का पानी नहाने योग्य नहीं रहेगा । हालांकि प्रशासन का दावा है कि नर्मदा-क्षिप्रा लिंक होने के बाद शिप्रा प्रवाहमान रहेगी । इससे पानी साफ रहेगा । 
कोलीफॉर्म बैक्टीरिया के कारण पैथोजनिक, डायरिया, एपेडेमी डायरिया, इन्फेटाइल डायरिया, यूरीनरी इन्फेक्शन आदि समस्याएं पैदा होती है । यह बैक्टीरिया गॉल ब्लेडर मेंप्रवेश कर किडनी में भी इन्फेक्शन पैदा कर देता है । घाव में बहुत जल्दी पनपता है । रक्त प्रवाह में मिल जाए, तो शरीफ के लिए घातक साबित होता है । 
शिप्रा को नालों से मुक्ति दिलाने के लिए नगर निगम ने ४ करोड़ ४६ लाख की लागत से ११८० मीटर की पाइप लाइन की योजना बनाई, जो करीब १३ महीने में पूरी तो हुई, लेकिन शिप्रा में आज       भी नालों से १ लाख गैलन पानी में १ किलो कोलीफॉर्म रोज मिल रहा   है । 
देश में ३० फीसदी घरों में है मैट्रिक पास महिला
भारत के ७० फीसदी घरों में एक भी मैट्रिक पास महिला नहीं है । मैट्रिक पास पुरूषों को लें तो ६० फीसदी घरों में ये नहीं मिलेगे । देश में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ताजा हालात बयान करने वाले ये आंकड़े भारत के महापंजीयक ने जारी किए है । 
जनगणना के २०११ के इन आंकड़ों के अनुसार देशभर में केवल ५० फीसदी घरोंमें महिला या पुरूष में से कोई एक मैट्रिक पास है । जबकि २००१ की जनगणना में लगभग ४० फीसदी घरों में ही एक मैट्रिक पास थे । २०११ में देश में कुल २४ करोड़ ८३ लाख घरों की पहचान हुई थी, जिनमें लगभग आधे यानी १२ करोड़ २७ लाख घर ही ऐसे थे, जहां कोई न कोई मैट्रिक पास   था । वहीं स्नातक पास सदस्य वाले घरों की संख्या तीन करोड़ ३२ लाख (१३.४ फासदी) ही थी । इनमें भी महिला स्नातक वाले घर की संख्या महज दो करोड़ १९ लाख (८.८ फीसदी) ही थी । 
२००१ से तुलना में हालात बेहतर जरूर नजर आती है, लेकिन आंकड़े अब भी स्थिति की गंभीरता बयान कर रहे है । केवल चार करोड़ १४ लाख घर (१६.७ फीसदी) ऐसे हैं, जिनमें कोई न कोई स्नातक पास    है । २००१ में महज ३९ फीसदी घर ऐसे थे, जिनमें कोई न कोई मैट्रिक पास था । इसी तरह स्नातक पास घरों की संख्या दो करोड़ ३६ लाख (१२.२  फीसदी) ही थी । 
पक्षी जगत
नीलगगन में उड़ते पंछी
माधव गाडगिल 

आकाश मे उडऩे वाले पक्षी ध्रुव तारे को तो पहचानते ही है, जैव विकास के दौरान उनके मस्तिष्क मेें एक दिशासूचक यंत्र भी फिट कर दिया गया है । 
पक्षियों की खासियत है उनका घुमंतू जीवन । हमारे परिचित तोता और मैना एक दिन में तीस-चालीस किलोमीटर का सफर आसानी से कर लेते हैं, वहीं अल्बेट्रॉस नामक बड़े पंखों वाले समुद्री पक्षी हजार-हजार किलोमीटर तक की दूरी तय कर लेते हैैं । टिटहरी का एक छोटा रिश्तेदार (बार-हेडेड गॉडविट) अलास्का में प्रजनन करने के बाद वहीं अपने बच्चें का पालन-पोषण करता है और फिर न्यूजीलैण्ड तक की ग्यारह हजार किलोमीटर की दूरी बिना कहीं रूके तय कर लेता है । किंतु इस यायावरी के लिए जरूरी है कि शरीर में पर्याप्त् ताकत हो, जोशीला गरम खून हो । 
आज की तारीख में केवल पक्षियों और स्तनधारियों का खून ही लगातर एक ही तापमान पर बना रहता है । लगभग तीस-बत्तीस करोड़ वर्ष पहले सायनॉप्सिड पूर्वजों से डायनासोर के साथ-साथ पक्षी भी विकसित हुए । इससे यह इनुमान लगाया गया है कि डायनासोरो का खून भी गरम रहा होगा । गरम खून के कारण शरीर का जोश बढ़ने के कई फायदे हैं, किंतु इसके कई नुकसान भी हैं ।  
साढ़े छह करोड़ वर्ष पहले भारत के दक्षिणी भाग में ज्वालामुखी का भयानक विस्फोट हुआ था और उसी समय एक विशाल उल्कापिंड पृथ्वी से टकराया था । इसके फलस्वरूप इतनी धूल और धुंआ उड़ा कि सारा संसार लम्बे समय तक अंधेरे में डूबा रहा और पृथ्वी पर हिमयुग आ गया । इसके चलते गरम खून वाले जीवधारियोंपर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा । सभी डायनासोर नष्ट हो गए, किंतु पक्षी और स्तनधारी किसी तरह बचे रहे । हजारोंवर्षोंा की बर्फीली रात समाप्त् होने पर पक्षियों और स्तनधारियों की पौबारह हो   गई । उनसे स्पर्धा करने वाले और उनका शिकार करने वाले डायनासौर तो नष्ट हो गए थे और उन्हें नए-नए आहार व निवास स्थान उपलब्ध हो गए थे । आहार और निवास स्थानों की विविधता के चलते पक्षियों और स्तनधारियों की विविधता भी बहुत फली-फूली । 
अपनी तेज गति के कारण पक्षी कई बिखरे हुए संसाधनों का उपयोग कर सकते है जो केवल कुछ विशिष्ट ऋतुआें में ही उपलब्ध होते  हैं । धीमी गति से चलने वाले जंतुआें के लिए इनके सहारे जीवित रहना असंभव होता है । समुद्र पर उड़ने वाले अल्बेट्रॉस पक्षी समुद्र में दूर-दूर तक बिखरी मछलियों और झींगों को खोजते रहते हैं । इसके लिए उन्हें एक दिन में सैकड़ों किलोमीटर तक का सफर करना पड़ता है । इस उड़ान के लिए वे हवा की धाराआें का उपयोग बखूबी कर लेते हैं । 
रेगिस्तान में रहने वाले भटतीतर घांस के बिलकुल सूखे बीज खा कर अपना पेट भरते हैं । इसके फलस्वरूप उन्हें बहुत तेज प्यास लगती है । चूंकि रेगिस्तान में पानी के स्त्रोत बहुत सीमित होते हैं, ये पक्षी हजारों की संख्या में सुबह-शाम साठ किलोमीटर तक की दूरी तय करके पानी के स्त्रोत तक पंहुचते हैं, और फिर उतनी ही दूरी तय करते हूए भोजन और रैनबसेरा खोजने लगते हैं । हवा में उड़ने वाले कीटों का शिकर करने वाले बतासी (स्विफ्ट) जब सुबह उड़ना शुरू करते हैं तो रात में अपने बसेरे पर लौट कर ही विश्राम करते है । चपके नाम पक्षी (नाईटजार) रात में उड़ने वाले कीड़ों का शिकार करते हैं । 
पक्षियों की अन्य प्रजातियों मौसम के अनुसार भटकती रहती   हैं । बगुले, चमचा बाजा (स्पूनबिल), ढोक (स्टोर्क) आदि जलीय पक्षी यह ढूंढते रहते हैं कि किस तालाब, नाले या नदी में पानी है । इसके विपरीत, पीली चोंच वाली टिटहरी (जर्दी) और नुकरी (इंडियन कोर्सन) सूखे स्थान खोजते रहते हैं । पहाड़ी धनेष और बड़ा अबलख धनेष (हॉर्नबिल) इस तलाश में रहते हैं कि जंगल में किस जगह फल पक गए हैं । हिमालय में रहने वाले कोए, बसंता, तीतर आदि ठंड के मौसम में तलहटी की ओर उतर आते हैं और गर्मियों में वापस पहाड़ों की ऊंचाइयों की ओर लौट जाते हैं । 
किंतुअसली दूर के राही तो वे पक्षी हैं जो गर्मियों में ठंडे इलाकों में पहुंच कर बच्चें को जन्म देते हैं, और उनका लालन-पालन करने के बाद ठंडा मौसम आने पर फिर गर्म क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं । पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध का काफी बड़ा भाग जमीन के रूप में है तो दक्षिणी गोलार्ध का बड़ा हिस्सा पानी के नीचे है । इसलिए हजारोंपक्षी प्रजातियां मार्च-अप्रैल से सितम्बर की अवधि में एशिया, युरोप और उत्तरी अमेरिका महाद्वीपों के उत्तरी भागों में या फिर हिमालय जैसी पर्वत श्रृंखलाआें के ऊंचे और ठंडे स्थानों में बच्चें की परवरिश करती हैं और शेष महीनों में इन महाद्वीपों के दक्षिणी इलाकों या अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका,  ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों में बिताती हैं । ध्रुवीय इलाकों के निवासी आक्र्टिक टर्न नामक पक्षी गर्मी के मौसम    में अमेरिका, युरोप और एशिया महाद्वीपों के उत्तरी ध्रुव के आसपास के इलाकों में बच्चें का पालन-पोषण करते हैं । 
ठंड का मौसम आते ही वे बीस हजार किलोमीटर दूर स्थित अन्टार्कटिका महाद्वीप की ओर चल पड़ते हैं । सीधी रेखा में सफर न करते हुए ये पक्षी हवा की धाराआें का फायदा उठाते हुए वास्तव में तीस-चालीस हजार किलोमीटर की दूरी तय करते हैं । दक्षिणी गोलार्ध की गर्मियों में वहां के समुद्री जीवों की दावत खा कर फिर उत्तरी ध्रुव की ओर उड़ चलते हैं । अन्य किसी भी जंतु से अधिक समय सूर्य के प्रकाश में बिताने वाले ये पक्षी औसतन बीस वर्ष के अपने जीवनकाल में पच्चीस लाख किलोमीटर की यात्रा कर लेते हैं । 
प्रवासी पक्षियों को पकड़ कर उनके पैरों में बहुत हल्के छल्लेपहना कर छोड़ दिया जाता है । इन छल्लों पर उस स्थान का नाम जहां वे पकड़े गए थे, छल्ला पहनाने वाली संस्था का नाम और पता, और छल्ला पहनाने की तारीख लिखे होते हैं । जब ये पक्षी किसी दूरस्थ स्थान पर दोबारा पकड़े जाते हैं तब उस स्थान के वैज्ञानिक छल्ला पहनाने वाली संस्था को इसकी सूचना देते हैं । इस तरीके से सैकड़ों प्रवासी पक्षी  प्रजातियों के गरम ओर ठंडे इलाकों के ठिकानों के बारे मेंपता चला     है ।  
ये पक्षी इतनी लम्बी यात्राएं सटीक ढंग से कैसे कर पाते हैं ? उन्हें दिशा का ज्ञान कैसेहोता है ? वे किसी शहर के एक घर के बगीचे में प्रति वर्ष अचूक ढंग से कैसे पहुंच सकते हैं ? पक्षियों की देखने की क्षमता हमसे कई गुना अधिक होती है । इसके अलावा उन्हें प्रकाश की तंरगों की आवृत्ति और ध्रुवित (पोलेराइज्ड) प्रकाश की समझ होती है । यदि सूर्य बादलों से पूरी तरह ढंका हो, या अस्त हो चूका हो, तो भी उसकी दिशा ध्रुवित प्रकाश से पहचानी जा सकती है । रात में उड़ते समय उत्तर दिशा पहचानने के लिए पक्षी ध्रुव तारे की मदद लेते हैं जिसे वे जन्म से ही पहचानते हैं । 
कमाल की बात यह है कि पक्षी चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा व उसकी तीव्रता को भी पहचानते हैं, जैसे किसी दिक्सूचक यंत्र में होता है । पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा स्थान-स्थान पर बदलती रहती है । पूरे संसार की चट्टानों में उस समय के चुम्बकीय क्षेत्र के निशान होते हैं जब उनका निर्माण हुआ था । ज्वालामुखी के विस्फोट से भारत के दक्षिणी पठार पर स्थित काली चट्टानें जब बनी थीं उस समय भारत दक्षिणी गोलार्ध में था । उसका चुम्बकीय क्षेत्र और उसकी तीव्रता उस समय की परिस्थिति के अनुसार निर्धारित हुई थी और यह भारत की दूसरी चट्टानों से भिन्न है । इसके अलावा, चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता में स्थानीय चट्टानों और रासायनिक घटकों के कारण सूक्ष्म अंतर होते हैं । 
यही कारण है कि पूरे संसार की चट्टानों के चुम्बकीय क्षेत्र व उसकी दिशा अलग-अलग होते हैं । इन्हें भांपते हुए पक्षी हजारों किलोमीटर की यात्रा करके हर वर्ष उसी स्थान पर पहंुच जाते हैं ।     यही  है जैव विकास की अजीब जादूगरी । 
ज्ञान-विज्ञान
प्रोटीन : बुढ़ापे में याददाश्त हर लेता है 
उम्र के साथ छोटी-मोटी रोजमर्रा की बातें भूल जाना एक आम बात है । हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र का दावा है कि यह सब एक प्रोटीन उम्र के साथ आपके खून मेंबढ़ता रहता है । शोधकर्ताआें का तो मानना है कि इस प्रोटीन को थामकर हम बुढ़ापे में होने वाली संज्ञान सम्बंधी समस्याआें की रोकथाम कर सकते हैं । 
वैसे तो पहले भी कई वैज्ञानिक दर्शा चुके है कि बूढ़े चूहों का रक्त देने पर युवा चूहे सुस्त, कमजोर और भुलक्कड़ हो जाते है । इसी प्रकार से युवा खून मिलने पर बूढ़े चूहों की याददाश्त और चुस्ती लौटाई जा सकतह है । इसी सिलसिले में सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तंत्रिका वैज्ञानिक सौल विलेडा ने खून में वह कारक ढूंढ निकाला है जो इस तरह के प्रभावोंमें योगदान देता है । यह प्रतिरक्षा तंत्र से जुड़ा एक प्रोटीन है जिसका नाम बीटा-२ माइक्रोग्लोबुलिन (इ२च) है । पहले यह देखा जा चुका था कि अल्जाइमर व अन्य संज्ञान सम्बंधी दिक्कतों से पीड़ित व्यक्तियों के रक्त में इ२च का स्तर अधिक होता है । विलेडा और उनके साथियों ने विभिन्न उम्र के चूहों और मनुष्यों में इ२च का स्तर   नापा । देखा गया कि यह स्तर उम्र के साथ बढ़ता है । अब जब शोधकर्ताआें ने ३ माह उम्र के चूहों को इ२च का इंजेक्शन दिया तो अचानक उनकी याददाश्त में दिक्कतें पैदा हो गई । जिस भूल-भुलैया को पहले वे आसानी से पार कर जाते थे, इ२च इंजेक्शन के बाद वे उससे जूझ पाने में असमर्थ हो  गए । यह भी देखा गया कि इ२च इंजेक्शन मिलने के बाद उनके मस्तिष्क मेंनई तंत्रिकाएं भी कम बन रही थीं । 
इसके बाद यह देखने की कोशिश की गई कि क्या इ२च का स्तर घटाने से बूढ़े चूहों में याददाश्त की क्षति की रोकथाम की जा सकती है । विलेडा की टीम ने कुछ चूहों में जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए यह स्थिति पैदा कर दी कि उनमें इ२च प्रोटीन बनना बंद हो गया । सामान्य चूहों की अपेक्षा ये इ२च रहित बूढ़े चूहे सीखने व याददाश्त के मामले मेंबेहतर साबित हुए, लगभग युवा चूहों के बराबर । 
अध्ययन के परिणाम उत्साहजनक है क्योंकि इनसे पता चलता है कि बुढ़ापे की संज्ञान सम्बंधी दिक्कतों की रोकथाम के लिए मस्तिष्क की बजाय रक्त के स्तर पर हस्तक्षेप करे तो अच्छे परिणाम मिल सकते हैं । मगर इस विचार की वास्तविक परख तो तब होगी जब चूहों से आगे बढ़कर मनुष्यों पर प्रयोग किए जाएंगे । 

स्मार्ट गोलियां और जीवन का अर्थ 
ऐसा कहते है कि बढ़िया कॉफी पीकर आप कई श्रमसाध्य काम ज्यादा जोश से करने लगते है। ऐसा लगता है कि काफी पीने से शरीर में दो रसायनों - एड्रीनेलीन और डोपामीन का सतर बढ़ता है और इसी का असर बढ़ता है और इसी का असर होता है कि आप किसी निरर्थक व उबाऊ काम को दुगने उत्साह से करने को प्रेरित होते हैं । 
 डेनमार्क से  आर्हुस विश्वविघालय के टोर्बेन केसेगार्ड ने अपने ताजा शोध पत्र में इसी सवाल को उन दवाइयों के संदर्भ में उठाया है जिनके बारे में मान्यता है कि वे आपकी संज्ञान क्षमता को बढ़ा देती है और आपके प्रदर्शन में सुधार करती है । एडेराल और मोडाफिनिल जैसी ये दवाईयां बच्चे में एकाग्रता के अभाव और अति सक्रियता तथा अनिद्रा जैसी गड़बड़ियों के लिए दी जाती है । मगर इनका उपयोग सामान्य लोग भी यह मानकर करते है कि इनके सेवन से उनकी संज्ञान क्षमता, याद रखने की क्षमता, एकाग्रता की क्षमता वगैरह बढ़ेगे । यह बात इन दवाइयों के लेबल पर नहीं लिखी होती मगर इनका उपयोग ऐसे परिणामों के लिए किया जाता है । केसेगार्ड यही समझना चाहते थे कि आखिर ये स्मार्ट दवाइयां करती क्या है । 
वैसे तो अभी तक जितने अध्ययन हुए है उनमें इन दवाइयों के संज्ञान क्षमता पर असर के प्रमाण संदिग्ध ही है । मगर केसेगार्ड को चिंता इस बात की है कि यदि कोई दवाई आपको वैसे निरर्थक लगने वाले काम में रूचि लेने को प्रेरित करती है, तो यह एक समस्या है जिस पर विचार करने की जरूरत है । उन्होंने पाया कि इन दो दवाइयों पर किए गए अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि इनके सेवन के बाद व्यक्ति को किसी उबाऊ काम मेंमन लगाने में मदद मिलती है । अर्थात यदि व्यक्ति यह दवा न ले तो वास्तव में जान पाएगा कि उसे किसी काम में रूचि नहीं है और शायद किसी अन्य विकल्प का चुनाव करने को प्रेरित होगा । 
मगर कुछ लोगों का कहना है कि शायद इन दवाइयों का यह उपयोग ठीक ही है । जब आपके सामने रोजी-रोटी कमाने के विकल्प सीमित हो, तो बेहतर यही होगा कि आप किसी प्रकार से अरूचिकर विकल्प पर काम काम करते रहे क्योंकि अन्यथा (अन्य विकल्पों के अभाव में) आपका जीना मुश्किल हो जाएगा । 
केसेगार्ड का मत है कि यदि समस्या विकल्पों के अभाव की है तो इसका समाधान दवाइयों में नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था में है और व्यक्ति को इस को दबाने की बजाय खुलकर इसका सामना करना  चाहिए । अन्यथा विकल्पों के अभाव की स्थिति में इन दवाइयों का उपयोग एक राजनैतिक हथियार की तरह हो सकता है जिसकी मदद से आप लोगों को वही काम बड़ी रूचि से करने को तैयार कर सकते है जिसे वे नहीं करना चाहते । आज दुनिया में लोगों के सामने संकट बढ़ते जा रहे है तब यह नया विचार कारगर साबित होगा । 

धूम्रपान के खतरे का तीसरा अध्याय

धूम्रपान के हानिकारक परिणामोंपर इतना शोधकार्य हो  चुका है कि अब इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि धूम्रपान न केवल फेफड़ों और श्वसन तंत्र के लिए हानिकारक है, बल्कि इससे शरीर के लगभग सारे तंत्र प्रभावित होते हैं। अभी तक जिन दो प्रकार के धूम्रपान की चर्चा होती थी वे हैंफर्स्टहैंड स्मोकिंग यानी बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, पाइप वगैरह के   जरिए तंबाकू के धुंए को शरीर में लेना ।
     दूसरा प्रकार है सेकण्ड हैंड स्मोकिंग जिसमें खुद धूम्रपान नहीं करते हैं बल्कि धूम्रपान करने वालों के करीब रहने पर सांस के साथ तंबाकू का धुंआ शरीर में जाता है । धूम्रपान न करने वालों के लिए सेकंडहैंड स्मोकिंग काफी खतरनाक होता है । किन्तु पिछले दिनों हुए शोधकार्य से धूम्रपान का तीसरा और अधिक खतरनाक प्रकार यानी थर्डहैंड स्मोकिंग सामने आया है । इसका विवरण अमेरिकन नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस की पत्रिका में प्रकाशित हुआ है । 
बात यह है कि तंबाकू के धुएं में ६०० प्रकार के हानिकारक रसायन होते हैंजिनमें सबसे खतरनाक रसायनों में एक है टोबेको-स्पेसिफिक नाइट्रोसामिन जिसका संक्षिप्त् नाम टीएनएसए है । जब हम किसी धूम्रपान करने वाले के पास जाते हैं या उसके घर जाते हैं तो हम पाते हैं कि उसके कपड़ों, घर की दीवारों, कार की सीट, आदि से तंबाकू के धुएं की गंध आ रही है । तंबाकू के धुंए में मौजूद निकोटिन कपड़ों, दिवारों, आदि पर चिपक जाती है । जब यह निकोटिन हवा में उपस्थित नाइट्रस ऑक्साइड के संपर्क में आती है तब एक रासायनिक अभिक्रिया होती है और टीएनएसए बन जाता    है । 
एलपीजी, पेट्रोल, डीजल आदि के जलने से नाइट्रस ऑक्साइड बनती है और इसलिए यह वातावरण में काफी मात्रा में पाई जाती है । इस प्रकार बना हुआ टीएनएसए बहुत हानिकारक होता है, विशेष रूप से बच्चें के लिए । चूंकि निकोटिन लम्बे समय तक किसी भी सतह से चिपकी रहती है, इसलिए थर्डहैंड धूम्रपान सेकन्डहैंड धूम्रपान की अपेक्षा अधिक खतरनाक होता है । 
कविता
धरती मां का धानी चीर
डॉ. गार्गीशरण मिश्र  मराल 
हरे भरे जंगल ही तो है धरती मां का धानी चीर ।
पवन चले तो लहराता यह धरती मां का धानी चीर ।
धरती मां ने पाला हमको
हमने उसका चीर हरा,
बेरहमी से जंगल काटे
वन-जीवन में दर्द भरा,
सोचा नहीं बढ़ेगी इससे जग के हर प्राणी की पीर ।
धरती बंजर हो जायेगी नहींगिरेगा नभ से नीर ।
गर्म हवाआें की लपटों से, 
झुलसेगा सारा संसार,
बढ़ जायेगा और अधिक जो
धरती माँ को चढ़ा बुखार,
प्यासी धरती, प्यासे प्राणी खो देंगे सब अपना धीर ।
तड़प उठेंगे जन, पशु पक्षी खाकर सब अकाल का तीर ।
हिम शिखरों की बर्फ गलेगी,
जल बनकर पहुँचेगी सागर,
सगार तट के घर डूबेंगे 
उफनेगी सागर की गागर,
मौत करेगी ताण्डव सब की लुट जायेगी धन-जागीर ।
वृक्ष लगाकर, वन सरसाकर, चलो सँवारो जग-तकदीर ।