शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

विशेष लेख
पर्यावरण और विकास पर नयी दृष्टि
एस.जनकराजन/के.के.जॉय

      प्रतिष्ठित अध्येता, सामाजिक कार्यकर्ता और नीतिकार, भारत सरकार के भूूतपूर्व सचिव और उसके बाद नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में मानद प्राध्यापक रामास्वामी आर. अय्यर का निधन पिछले दिनों हो गया । उन्होंने अपने काम से पानी, इकॉलॉजी और पर्यावरण सम्बंधी हमारी समझ को समृद्ध किया । 
जून १९८५ में जब मुझे जल संसाधन सचिव नियुक्त किया गया था, उस समय मैंने काफी रूढ़िवादी मानसिकता के साथ इस काम को संभाला था, मगर पहले दिन से ही सीखने लगा । दो महीनों के अंदर मैं इतना जान गया था कि मुझे महसूस होने लगा कि परिवर्तन की जरूरत है और इसका पहला कदम होगा एक राष्ट्रीय जल नीति । सरकारी नौकरी से सेवा निवृत्ति के समय तक मेरी सोच काफी बदल चुकी थी, मगर सीखने की प्रक्रिया जारी रही जो आज भी जारी है .... । 
श्री अय्यर ने यह बात नवंबर २०१३ में नई दिल्ली में उनके सम्मान में आयोजित एक सम्मेलन में कही थी । यह एक पानी-नौकरशाह से लेकर एक जन-उन्मुखी और पर्यावरण केंद्रित पानी कार्यकर्ता-सह-शोधकर्ता बनने की यात्रा का सटीक बयान है । 
इकॉनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली और दी हिंदू के पन्ने इस बात के गवाह हैं, जिन्हें उन्होंने पानी और विकास, इकॉलॉजी, पर्यावरण व जीविका सम्बंधी विविध मुद्दों पर अपनी समझ साझा करने का माध्यम बनाया था । वे सचमुच एक जन-उन्मुखी कार्यकर्ता-बुद्धिजीवी थे । देश के नीति विश्लेषकों और अकादमिक व्यक्तियों के बीच वे एकदम अलग थे क्योंकि वे कभी अपना मत प्रकट करने से कतराते नहीं थे, चाहे बात सरदार सरोवर परियोजना की हो, कावेरी जल विवाद की हो, या मुल्लपेरियार बांध के विवाद की हो या नदियों को जोड़ने की योजना   की । हालांकि सरकार जब भी किसी अंतरप्रांतीय जल विवाद के भंवर में उलझती तो श्री अय्यर को याद करती थी मगर देश के पानी-प्रतिष्ठान ने उनके योगदान को कभी गंभीरता से नहीं लिया और न ही उसे मान्यता दी । इसलिए जव २०१४ में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित करने के निर्णय का समाचार मिला तो वे सुखद आश्चर्य से भर गए थे । 
ऐसा नहीं हैं कि वे पानी और पर्यावरण के मुद्दों को लेकर सेवानिवृत्ति के बाद संवेदनशील हुए हों । दरअसल भारत सरकार के जल संसाधन सचिव के रूप मेंउनका योगदान नई जमीन तोड़ने वाला   रहा । वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने देश में पहली बार १९८७ में राष्ट्रीय जल नीति को साकार किया । इस नीति ने समाज के सभी तबकों में व्यापक सार्वजनिक बहस, आलोचनात्मक सोच और जागरूकता को जन्म  दिया । 
सेवा निवृत्ति के बाद उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा गठित पानी व पर्यावरण सम्बंधी विभिन्न समितियों की अध्यक्षता की या उनके सदस्य रहे । इनमें योजना आयोग द्वारा गठित सिंचाई के पानी के मूल्य निर्धारण की समिति (जिसकी रिपोर्ट १९९२ में प्रस्तुत की गई), योजना आयोग द्वारा नौवीं पंचवर्षीय योजना के लिए गठित सहभागी सिंचाई प्रबंधन कार्य समूह (१९९६-९७), विवादास्पद सरदार सरोवर परियोजना के अध्ययन के लिए जल संसाधन मंत्रालय द्वारा गठित पांच सदस्यीय समूह (१९९३), टिहरी बांध के पर्यावरणीय व पुनर्वास सम्बंधी मुद्दोंकी समीक्षा हेतु उच्च्स्तरीय विशेषज्ञ समिति (१९९६-९७), केंद्र-राज्य सम्बंध आयोग द्वारा गठित प्राकृतिक संसाधन, पर्यावरण, भूमि, पानी और कृषि सम्बंधी टास्क फोर्स (२००८-०९) आदि इनमें प्रमुख हैं । 
वर्ष २०१०-११ के आसपास तत्कालीन प्रधान मंत्री के निवेदन पर उन्होंने सिंधु जल संधि के कामकाज के बारे मेंएक श्वेत पत्र तैयार किया और इसका मसौदा सरकार को प्रस्तुत किया मगर उसी समय राजनैतिक परिस्थितियां बदलीं और इस श्वेत पत्र के प्रकाशन में भारत सरकार की रूचि न रही । यह किसी सरकारी दफ्तर की किसी फाइल में पड़ा होगा । 
सरदार सरोवर और टिहरी बांध सम्बंधी समितियों में अपनी भागीदारी को व अपनी समझ में विकास और परिवर्तन का एक प्रमुख पड़ाव मानते थे । दरअसल, उन्होंने बड़े बांधों पर  संतुलित रवैये  को छोड़कर  बड़े बांध नहीं तक  लाने का श्रेय इन्हीं अनुभवों को दिया है (गौरतलब है कि उन्होंने कभी  कोई बांध  नहीं मत का समर्थन नहीं किया ।) जैसा कि खुद श्री अय्यर ने २०१३ में वॉटर आल्टर्नेटिव में अपने एक लेख  दी स्टोरी ऑफ ए ट्रब्ल्ड रिलेशनशिप  में स्पष्ट किया है, उनके रवैये में यह परिवर्तन  काफी हद तक बड़ी परियोजनाआें के प्रतिकूल प्रभावों के खिलाफ चले दो बड़े आंदोलनों की वजह से हुआ है - एक सरदार सरोवर परियोजना के खिलाफ और दूसरा टिहरी पनबिजली परियोजना के खिलाफ । 
अपने जीवन के अंतिम तीन दशकों में उन्होंने दुनिया भर की यात्राएं की और सैकड़ों सम्मेलनों और कार्यशालाआें में शिरकत की, उनकी कई पुस्तकें और लेख प्रकाशित    हुए  । 
कई गैर-सरकारी संगठनों, जन आंदोलनों और कार्यकर्ताआें के साथ वे एक मित्र, सलाहकार और हमदर्द के रूप में नजदीकी से जुड़े रहे । इनमें नर्मदा बचाओ आंदोलन विज्ञान व पर्यावरण केंद्र रिसर्च फॉउण्डेशन फॉर साहन्स, टेक्नॉलॉजी एंड इकॉलॉजी, नवदान्या, तरूण भारत संघ, विकसत, फॉउण्डेशन फॉर इकॉलॉजिकल सिक्योरिटी, फोरम फॉर पॉलिसी, डायलॉग ऑन वॉटर कॉन्फ्िल्क्ट्स इन इंडिया, अर्घ्यम ट्रस्ट वगैरह शामिल हैं । वे लगभग २५ वर्षोंा तक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से भी जुड़े रहे । 
पानी, पर्यावरण और विकास पर रामास्वामी अय्यर का लेखन एक व्यापक धरातल को समेटता है । उन्होंने जल नीति, अंतर्प्रांतीय जल विवाद, और नेपाल, पाकिस्तान, बांगलादेश व चीन वगैरह पड़ोसियों के साथ भारत की सीमापार जल संधियों जैसे विषयों पर काफी लेखन किया । पानी फ्रेमवर्क कानून, वैकल्पिक जल नीति, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन विधेयक संशोधन और पर्यावरण कानूनों की समीक्षा हेतु उच्च् स्तरीय समिति सम्बंधी उनके हालिया लेखन ने इन विषयों के विमर्श को गहराई प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । 
स्वस्थ और जीवित नदियां श्री अय्यर के दिल के करीब का विषय था । इसी के चलते उन्होंने एक व्याख्यान माला का नेतृत्व किया जिसे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ने आयोजित किया था । आगे चलकर ये व्याख्यान ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस द्वारा एक पुस्तक के रूप में संकलित भी किए गए - लिविंग रिवर्स, डाइंग रिवर्स । वे लिखते हैं, नदियों के साथ ऐसे सलूक किया जाता है जैसे वे पाइपलाइनें हों, जिन्हें काटा जा सकता है, मोड़ा जा सकता है, जोड़ा जा सकता है, उन पर इतना कूड़ा, प्रदूषक और गंदगी बरसाए जाते हैं जो उनकी निपटने की क्षमता से कहीं ज्यादा हैं, नदियों के बाढ़ क्षेत्र में बस्तियां बसी हैं और बाढ़ को समाने के लिए जगह नहीं बची है, नदियों में से रेत का खनन किया जा रहा है, नदियों के पेंदे में बोर वेल खोदे जा रहे हैं जो उनका पानी उलीच लेते हैं और नदी के न्यूनतम प्रवाह में कमी ला देते हैं । 
कुछ इंजीनियर हैं जो नदियों को नियंत्रित करना और उन्हें तोड़ना-मरोड़ना चाहते हैं, कुछ अर्थशास्त्री नदियों को और सामान्यत: पानी को एक संसाधन मानते है जिसका पूरा दोहन मात्र मानव उपयोग के लिए और खरीद-फरोख्त की एक वस्तु के रूप में किया जाना चाहिए । इनमें से कोई भी नजरिया ऐसी कोई गुंजाइश नही छोड़ता कि नदियों को एक जीवित वस्तु, एक इकॉलॉजिकल तंत्र माना जाए, जिसकी भूमिकाएं मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों में उपयोगी होने से कहीं आगे जाती है और नदियों का अस्तित्व मात्र एक साधन के रूप में नहीं है । 
उनके कुछ हालिया लेखों में नई सरकार की कुछ पहलकदमियों की आलोचनात्मक समीक्षा की गई है जिनके बारे में कुछ लोग मानते हैं कि ये कदम घड़ी को उल्टी घुमाने के प्रयास हैं । दरअसल, अपनी सारगर्भित टिप्पणी में अय्यर ने कहा कि पर्यावरणीय मंजूरियों में नाटकीय तेज गति अच्छी नहीं, बुरी खबर है । यह नई सरकार द्वारा विभिन्न इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाआें को पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रियाको त्वरित बनाने के कदम पर अय्यर का नजरिया स्पष्ट कर देती है । 
वास्तव में अय्यर का कार्य पानी क्षेत्र की वैकल्पिक विश्व दृष्टि का प्रतीक बन गया है । उनका लेखन मुख्य धारा की पानी संबंधी नीतियों और परिप्रेक्ष्य के विरूद्ध एक मतभेद का स्वर रहा है । जो वैकल्पिक जल नीति उन्होनें लिखी थी (राष्ट्रीय जल नीति : विचार-विमर्श के लिए एक वैकल्पिक मसौदा) उसने ऐसे सारे विचारों को एक मंच पर लाने का काम किया । वे २०१२-१३ में योजना आयोग के पानी संबंधी फ्रेमवर्क कानून कार्यसमूह के अध्यक्ष थे । इसके माध्यम से उन्होंने वैकल्पिक जल नीति को एक कानूनी ढांचा प्रदान करने का प्रयास भी किया था । जैसी कि अपेक्षा थी, पानी प्रतिष्ठान ने इसे गंभीरता से नहीं लिया - वैकल्पिक राष्ट्रीय जल नीति के विचारों को २०१२ की सरकारी राष्ट्रीय जल नीति में कोई स्थान नहीं मिला । जल संसाधन मंत्रालय ने इसके लिए नई समिति का गठन कर दिया । 
कावेरी विवाद को लेकर रामास्वामी अय्यर के दृढ़ विचार    थे । वे आश्वस्त थे कि हालांकि इस विवाद के बारे मेंअंतिम फैसला २००७ में आ चुका है और सरकार ने इसे अधिसूचित भी कर दिया है मगर इसे कार्यरूप देने के लिए जरूरी होगा कि कर्नाटक में ऐतिहासिक अन्याय की जो भावना पैदा हुई है उसे संबोधित किया जाए । अय्यर ने स्वैच्छिक, परस्पर सहमति से समायोजन का प्रस्ताव दिया था जिसमें निम्नलिखित चीजें होगी :-
१. तमिलनाडु द्वारा कर्नाटक को २० से ३० हजार मिलियन घन फुट अतिरिक्त पान देने की पेशकश ।
२. कर्नाटक पानी छोड़ने के मासिक कार्यक्रम का पालन करे ।
३. संकट के सालों में पानी के बंटवारे का फॉमूॅला जिसे कावेरी परिवार द्वारा विकसित किया जाएगा या यदि वह संभव नहीं है तो कावेरी प्रबंधन बोर्ड द्वारा तय किया जाएगा । 
मगर इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बिन्दु यह था कि अंतर्प्रातीय जल विवाद न्यायधिकरणों को मात्र फैसले देने वाली संस्था से आगे जाकर सहमति बनाने वाली संस्थाएेंहोना चाहिए जो बातचीत के आधार पर बंदोबस्त करें । अय्यर के मुताबिक, इसके लिए न्यायाधिकरण के संघटन को बदलना होगा और एक न्यायाधीश की अध्यक्षता में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों को शामिल करना होगा । 
बहुत कम लोग जानते हैं कि रामास्वामी अय्यर जितने पानी के लिए जजबाती थे उतने ही संगीत के प्रति भी थे । वे भारतीय शास्त्रीय संगीत - उत्तर भारतीय व दक्षिण भारतीय दोनों - के अच्छे टीकाकार थे । हालांकि वे दिल्ली के स्थायी निवासी थे, मगर चैत्रै के दिसम्बर संगीत समारोह में बिना चूके उपस्थित रहते थे - एक श्रोता के रूप में और एक लेखक के रूप में । दिसम्बर में चेत्रै समारोह में उनकी उपस्थिति में कोई बाधा नहीं बनी । जब हमने उनसे संपर्क किया कि हम दिसम्बर २०१३ में उनके लिए एक सम्मान रखना चाहते हैं, तो दो टूक जवाब मिला कि दिसम्बर का तो सवाल ही नहीं उठता क्योंकि वह तो चेत्रै के लिए आरक्षित है । वे श्रुति नामक संगीत पत्रिका के नियमित लेखक भी थे और इसमें वे उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय संगीत पर तुलनात्मक लेख लिखा करते   थे । अविश्वसनीय सा लगता है कि १९८३ से २०१० के दरम्यांन उन्होंने संगीत पर २४ लेख प्रकाशित  करवाए । 
हालांकि पिछले तीन दशकों में भारत के पानी क्षेत्र के विमर्श मेंउनका योगदान बेजोड़ था मगर यह देश के पानी प्रतिष्ठान को रास नहीं आया, शायद इसलिए कि उनके मत स्पष्ट थे और तथ्यों पर आधारित थे और सत्ता की लकीर पर नहीं चलते थे । इसी पृष्ठभूमि में हमने पानी क्षेत्र में रामास्वामी अय्यर के योगदान को सम्मान देने मान्यता देने और अभिनंदन करने के लिए एक सम्मान सम्मेलन पर विचार किया । जब हमने उनसे इस बारे में संपर्क किया तो जवाब देने में उन्होनें वक्त लिया । अंतत: उन्होनें एक लंबी सी ईमेल के जरिए हमें बताया कि क्यों वे हां कह रहे हैं । 
नवम्बर २०१३ के सम्मेलन में देश भर के पानी क्षेत्र से जुड़े विद्वान और कार्यकर्ता शामिल हुए   थे । सम्मेलन को मिला जबर्दस्त प्रत्युत्तर इस बात का प्रमाण है कि पानी पर्यावरण और विकास के क्षेत्र में रामास्वामी अय्यर के प्रति कितना सम्मान और स्नेह है । 

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