शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

ज्ञान-विज्ञान
प्रोटीन : बुढ़ापे में याददाश्त हर लेता है 
उम्र के साथ छोटी-मोटी रोजमर्रा की बातें भूल जाना एक आम बात है । हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र का दावा है कि यह सब एक प्रोटीन उम्र के साथ आपके खून मेंबढ़ता रहता है । शोधकर्ताआें का तो मानना है कि इस प्रोटीन को थामकर हम बुढ़ापे में होने वाली संज्ञान सम्बंधी समस्याआें की रोकथाम कर सकते हैं । 
वैसे तो पहले भी कई वैज्ञानिक दर्शा चुके है कि बूढ़े चूहों का रक्त देने पर युवा चूहे सुस्त, कमजोर और भुलक्कड़ हो जाते है । इसी प्रकार से युवा खून मिलने पर बूढ़े चूहों की याददाश्त और चुस्ती लौटाई जा सकतह है । इसी सिलसिले में सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तंत्रिका वैज्ञानिक सौल विलेडा ने खून में वह कारक ढूंढ निकाला है जो इस तरह के प्रभावोंमें योगदान देता है । यह प्रतिरक्षा तंत्र से जुड़ा एक प्रोटीन है जिसका नाम बीटा-२ माइक्रोग्लोबुलिन (इ२च) है । पहले यह देखा जा चुका था कि अल्जाइमर व अन्य संज्ञान सम्बंधी दिक्कतों से पीड़ित व्यक्तियों के रक्त में इ२च का स्तर अधिक होता है । विलेडा और उनके साथियों ने विभिन्न उम्र के चूहों और मनुष्यों में इ२च का स्तर   नापा । देखा गया कि यह स्तर उम्र के साथ बढ़ता है । अब जब शोधकर्ताआें ने ३ माह उम्र के चूहों को इ२च का इंजेक्शन दिया तो अचानक उनकी याददाश्त में दिक्कतें पैदा हो गई । जिस भूल-भुलैया को पहले वे आसानी से पार कर जाते थे, इ२च इंजेक्शन के बाद वे उससे जूझ पाने में असमर्थ हो  गए । यह भी देखा गया कि इ२च इंजेक्शन मिलने के बाद उनके मस्तिष्क मेंनई तंत्रिकाएं भी कम बन रही थीं । 
इसके बाद यह देखने की कोशिश की गई कि क्या इ२च का स्तर घटाने से बूढ़े चूहों में याददाश्त की क्षति की रोकथाम की जा सकती है । विलेडा की टीम ने कुछ चूहों में जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए यह स्थिति पैदा कर दी कि उनमें इ२च प्रोटीन बनना बंद हो गया । सामान्य चूहों की अपेक्षा ये इ२च रहित बूढ़े चूहे सीखने व याददाश्त के मामले मेंबेहतर साबित हुए, लगभग युवा चूहों के बराबर । 
अध्ययन के परिणाम उत्साहजनक है क्योंकि इनसे पता चलता है कि बुढ़ापे की संज्ञान सम्बंधी दिक्कतों की रोकथाम के लिए मस्तिष्क की बजाय रक्त के स्तर पर हस्तक्षेप करे तो अच्छे परिणाम मिल सकते हैं । मगर इस विचार की वास्तविक परख तो तब होगी जब चूहों से आगे बढ़कर मनुष्यों पर प्रयोग किए जाएंगे । 

स्मार्ट गोलियां और जीवन का अर्थ 
ऐसा कहते है कि बढ़िया कॉफी पीकर आप कई श्रमसाध्य काम ज्यादा जोश से करने लगते है। ऐसा लगता है कि काफी पीने से शरीर में दो रसायनों - एड्रीनेलीन और डोपामीन का सतर बढ़ता है और इसी का असर बढ़ता है और इसी का असर होता है कि आप किसी निरर्थक व उबाऊ काम को दुगने उत्साह से करने को प्रेरित होते हैं । 
 डेनमार्क से  आर्हुस विश्वविघालय के टोर्बेन केसेगार्ड ने अपने ताजा शोध पत्र में इसी सवाल को उन दवाइयों के संदर्भ में उठाया है जिनके बारे में मान्यता है कि वे आपकी संज्ञान क्षमता को बढ़ा देती है और आपके प्रदर्शन में सुधार करती है । एडेराल और मोडाफिनिल जैसी ये दवाईयां बच्चे में एकाग्रता के अभाव और अति सक्रियता तथा अनिद्रा जैसी गड़बड़ियों के लिए दी जाती है । मगर इनका उपयोग सामान्य लोग भी यह मानकर करते है कि इनके सेवन से उनकी संज्ञान क्षमता, याद रखने की क्षमता, एकाग्रता की क्षमता वगैरह बढ़ेगे । यह बात इन दवाइयों के लेबल पर नहीं लिखी होती मगर इनका उपयोग ऐसे परिणामों के लिए किया जाता है । केसेगार्ड यही समझना चाहते थे कि आखिर ये स्मार्ट दवाइयां करती क्या है । 
वैसे तो अभी तक जितने अध्ययन हुए है उनमें इन दवाइयों के संज्ञान क्षमता पर असर के प्रमाण संदिग्ध ही है । मगर केसेगार्ड को चिंता इस बात की है कि यदि कोई दवाई आपको वैसे निरर्थक लगने वाले काम में रूचि लेने को प्रेरित करती है, तो यह एक समस्या है जिस पर विचार करने की जरूरत है । उन्होंने पाया कि इन दो दवाइयों पर किए गए अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि इनके सेवन के बाद व्यक्ति को किसी उबाऊ काम मेंमन लगाने में मदद मिलती है । अर्थात यदि व्यक्ति यह दवा न ले तो वास्तव में जान पाएगा कि उसे किसी काम में रूचि नहीं है और शायद किसी अन्य विकल्प का चुनाव करने को प्रेरित होगा । 
मगर कुछ लोगों का कहना है कि शायद इन दवाइयों का यह उपयोग ठीक ही है । जब आपके सामने रोजी-रोटी कमाने के विकल्प सीमित हो, तो बेहतर यही होगा कि आप किसी प्रकार से अरूचिकर विकल्प पर काम काम करते रहे क्योंकि अन्यथा (अन्य विकल्पों के अभाव में) आपका जीना मुश्किल हो जाएगा । 
केसेगार्ड का मत है कि यदि समस्या विकल्पों के अभाव की है तो इसका समाधान दवाइयों में नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था में है और व्यक्ति को इस को दबाने की बजाय खुलकर इसका सामना करना  चाहिए । अन्यथा विकल्पों के अभाव की स्थिति में इन दवाइयों का उपयोग एक राजनैतिक हथियार की तरह हो सकता है जिसकी मदद से आप लोगों को वही काम बड़ी रूचि से करने को तैयार कर सकते है जिसे वे नहीं करना चाहते । आज दुनिया में लोगों के सामने संकट बढ़ते जा रहे है तब यह नया विचार कारगर साबित होगा । 

धूम्रपान के खतरे का तीसरा अध्याय

धूम्रपान के हानिकारक परिणामोंपर इतना शोधकार्य हो  चुका है कि अब इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि धूम्रपान न केवल फेफड़ों और श्वसन तंत्र के लिए हानिकारक है, बल्कि इससे शरीर के लगभग सारे तंत्र प्रभावित होते हैं। अभी तक जिन दो प्रकार के धूम्रपान की चर्चा होती थी वे हैंफर्स्टहैंड स्मोकिंग यानी बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, पाइप वगैरह के   जरिए तंबाकू के धुंए को शरीर में लेना ।
     दूसरा प्रकार है सेकण्ड हैंड स्मोकिंग जिसमें खुद धूम्रपान नहीं करते हैं बल्कि धूम्रपान करने वालों के करीब रहने पर सांस के साथ तंबाकू का धुंआ शरीर में जाता है । धूम्रपान न करने वालों के लिए सेकंडहैंड स्मोकिंग काफी खतरनाक होता है । किन्तु पिछले दिनों हुए शोधकार्य से धूम्रपान का तीसरा और अधिक खतरनाक प्रकार यानी थर्डहैंड स्मोकिंग सामने आया है । इसका विवरण अमेरिकन नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस की पत्रिका में प्रकाशित हुआ है । 
बात यह है कि तंबाकू के धुएं में ६०० प्रकार के हानिकारक रसायन होते हैंजिनमें सबसे खतरनाक रसायनों में एक है टोबेको-स्पेसिफिक नाइट्रोसामिन जिसका संक्षिप्त् नाम टीएनएसए है । जब हम किसी धूम्रपान करने वाले के पास जाते हैं या उसके घर जाते हैं तो हम पाते हैं कि उसके कपड़ों, घर की दीवारों, कार की सीट, आदि से तंबाकू के धुएं की गंध आ रही है । तंबाकू के धुंए में मौजूद निकोटिन कपड़ों, दिवारों, आदि पर चिपक जाती है । जब यह निकोटिन हवा में उपस्थित नाइट्रस ऑक्साइड के संपर्क में आती है तब एक रासायनिक अभिक्रिया होती है और टीएनएसए बन जाता    है । 
एलपीजी, पेट्रोल, डीजल आदि के जलने से नाइट्रस ऑक्साइड बनती है और इसलिए यह वातावरण में काफी मात्रा में पाई जाती है । इस प्रकार बना हुआ टीएनएसए बहुत हानिकारक होता है, विशेष रूप से बच्चें के लिए । चूंकि निकोटिन लम्बे समय तक किसी भी सतह से चिपकी रहती है, इसलिए थर्डहैंड धूम्रपान सेकन्डहैंड धूम्रपान की अपेक्षा अधिक खतरनाक होता है । 

कोई टिप्पणी नहीं: