मंगलवार, 18 नवंबर 2014

प्रसंगवश   
प्रजातियों का अनदेखा विलोप
    इलिनॉय विश्वविघालय के पुराजीव वैज्ञानिक रॉय प्लॉटनिक एक अजीब विचार पर काम कर रहे हैं । आज हम जीवाश्म रिकॉर्ड के आधार पर जान पाते हैंकि कौन-सी प्रजातियां अतीत में पृथ्वी पर विचरती थी और कभी विलुप्त् हो गई । श्री प्लॉटनिक सोचने में लगे हैं कि आज जितनी प्रजातियां विलुप्त् हो रही है, उनमें से कितनी भविष्य में जीवाश्म रिकॉर्ड में नजर आएंगी ।
    जब कोई जीव मरता है तो कभी-कभी परिस्थितियां ऐसी होती है कि उसका शरीर सड़-गलकर पूरी तरह खत्म नहीं होता बल्कि अपनी कुछ छाप जोड़ जाता है । इस छाप को जीवाश्म कहते है । यह छाप कई रूपों में हो सकती है । विज्ञान इसी के आधार पर शोध को आगे बढ़ाता  है ।
    श्री प्लॉटनिक के मुताबिक हम इस वक्त प्रजातियों के छठे विलोप के युग में जी रहे हैं । यानी इससे पहले पांच बार प्रजातियों का महा-विलोप हो चुका है । श्री प्लॉटनिक ने अपना अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृतिसंरक्षण संघ की रेड लिस्ट के आधार पर किया है । यह रेड लिस्ट बताती है कि इस वक्त किन  प्रजातियों के विलुप्त् होने का खतरा साफ नजर आ रहा है । इस लिस्ट में से भी उन्होनें सिर्फ स्तनधारियों पर ध्यान केन्द्रित किया । सूची में ७१५ स्तनधारी शामिल है ।
    श्री प्लॉटनिक ने पाया कि इन ७१५ प्रजातियों में से मात्र ९० यानी १३ प्रतिशत ही जीवाश्म रिकॉर्ड में नजर आती है । इसका मतलब है कि शेष प्रजातियां बगैर कोई निशान छोड़े दुनिया से विदा हो रही है ।
    जब उनसे पूछा गया कि वे जीवाश्म रिकॉर्ड की इतनी चिंता क्यों कर रहे हैं, जबकि आजकल हम सारी प्रजातियों का इतना अच्छा रिकार्ड रखते हैं  तो उनका कहना था कि इंसानों द्वारा रखे जाने वाले रिकार्ड बहुत विश्वसनीय नहीं हैं । उदाहरण के लिए उन्होनेंं पूछा आज फ्लॉपी डिस्क को कितने लोग पढ़ सकते हैं । उनके विचार में चट्टानों में बनी छाप कहीं अधिक मजबूत और भरोसेमंद होती है जिसे अनेक वर्षो बाद भी अध्ययन का आधार बनाया जा सकता है ।
सम्पादकीय -   
समुदाय तय करता है पौधे का लिंग

    वनस्पति जगत में फर्न पौधों की एक किस्म होती है । इनमें पौधों का लिंग जन्म के साथ तय नहीं होता । हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र के मुताबिक जापानी लता फर्म लायगोडियम जेपोनिकम में नए फर्न पौधों का लिंग उसके समुदाय के लिंग अनुपात के आधार पर तय होता है ।
    फर्न वे पौधे होते हैं जिनमें प्रजनन के लिए बीज नहीं बल्कि बीजांड बनते हैं । इन बीजांड से पूरा पौधा विकसित होता है और यह पौधा नर हो सकता है, मादा हो सकता है या द्विलिंगी भी हो सकता है । इनमें से वह पौधा कौन सा रूप अख्तियार करेगा यह इस बात से तय होता है कि पिछली पीढ़ी में नर और मादा का अनुपात क्या था ।
    एक स्थिति यह होती है जब आसपास दूर-दूर तक उस प्रजाति का कोई अन्य पौधा नहीं है । इस स्थिति में नया पौधा द्विलिंगी बनेगा । इसका फायदा यह होता है कि नर व मादा अंग एक ही पौधे पर पाए जाते है और प्रजनन की क्रिया आगे बढ़ सकती है । हालांकि इसमें नुकसान यह होता है कि अगली पीढ़ी में बहुत अधिक विविधता नहीं बचती ।
    नगोया विश्वविघालय के माकोतो मात्सुओका ने पाया कि लायगोडियम जेपोनिका के मामले में होता यह है कि पुराने पौधे नए पौधों का लिंग तय करते है । यह प्रक्रिया एक हारमाने जिबरेलिन के माध्यम से चलती है ।
    प्रौढ़ फर्न मादा पौधों में से जिबरेलिन उत्सर्जन किया जाता है । विशेषता यह होती है कि इस जिबरेलिन में एक अतिरिक्त एस्टर समूह जुड़ा होता है । जिबरेलिन एस्टर जंगल की मिट्टी में फैलता है । एस्टर समूह जुड़ा होने का फायदा यह होता है कि नए पौधे इसका अवशोषण कर लेते हैं ।
    जिबरेलिन -एस्टर के अवशोषण की वजह से नए पौधों में जिबरेलिन  बनने लगता है और इसके प्रभाव से पौधा नर बन जाता है । यानी अगर पहली पीढ़ी में मादा पौधे ज्यादा हुए तो जिबरेलिन -एस्टर ज्यादा छोड़ा जाएगा और नए वाले ज्यादा पौधे नर पौधे बनेगे । लिंग अनुपात में नियंत्रण रखने का नायाब तरीका है यह
सामयिक
मधुमक्खियों पर मंडराते खतरे
डॉ. ओ.पी. जोशी

    फूल वाले पौधों में परागण एक जरूरी क्रियाहै । परागण क्रिया हवा, पानी, पक्षियों एवं कीट-पतंगों द्वारा की जाती है । इसमें मधुमक्खियों प्रमुख भूमिका निभाती हैं । दुनिया की लगभग १०० फसलों में मधुमक्खियों द्वारा ही परागण होता है । हमारे देश में पांच करोड़ हैक्टर फसलों का परागण मधुमक्खियों पर निर्भर है । दुनिया भर में मधुमक्खी परागित फसलों का मूल्य लगभग एक हजार अरब रूपए है ।
    दुर्भाग्यपूर्ण है कि कृषि के लिहाज से महत्वपूर्ण मधुमक्खियों पर कई प्रकार के खतरे मंडरा रहे   हैं । मधुमक्खियों की संख्या घटने के साथ-साथ उनके छत्तों की संख्या भी कम हो रही है । पिछले ६-७ वर्षोंा में दुनिया भर में लगभग एक करोड़ से ज्यादा छत्ते नष्ट हुए हैं । युरोप के कई देशों में छत्तों के नष्ट होने की दर ३० प्रतिशत आंकी गई है । 
     संख्या में लगातार आ रही कमी के कई भौतिक, रासायनिक व जैविक कारण हैं । कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग इनकी संख्या पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है । नियोनिकोटिनइड युक्त कीटनाशी संख्या घटाने में ज्यादा असरकारी साबित हुए हैं । यह रसायन प्रजनन को प्रभावित करता है और मधुमक्खियां भ्रमित होकर अपना रास्ता भूल जाती है । कीटनाशियों के प्रतिकूल प्रभाव का मामला यू.उस. की अदालत में मार्च २०१३ में चार मधुमक्खी पालकों ने दायर किया  है ।
    डिस्पोजेबल कप का उपयोग भी मधुमक्खियों की संख्या में कमी का एक कारण बन गया है । मदुरैकामराज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकां ने मई २०१० से एक वर्ष तक पांच कॉॅफी हाऊस में अध्ययन किया । इन कॉफी हाऊस में रोजाना १२०० से ज्यादा डिसपोजेबल कप फेंके जाते थे । शकरयुक्त पेय पदार्थोंा की थोड़ी मात्रा इनमें शेष रह जाती  थी । इससे मधुमक्खियां आकर्षित होकर उनका सेवन करती थी । सेवन के बाद या तो वे फूलों पर जाना भूल जाती थीं या वहीं चिपककर मर जाती थीं । चाय एवं कॉफी में उपस्थित कैफीन इन्हें भ्रमित भी करता हैै ।
    औद्योगिक कार्योंा, खनन एवं पेट्रोलियम शोधन के कामों में उपयोगी सेलेनियम के कारण भी इन पर विपरित प्रभाव हो रहा है । लार्वा अवस्था सेलेनियम के प्रति ज्यादा संवेदनशील देखी गई है । सेलेनियम के प्रभाव से लार्वा की परिवर्धन क्रिया धीमी हो जाती है एवं मोत भी संभावित है । सेलेनियम मधुमक्खियों में परागकण एवं मकरंद द्वारा पहंुचता है । छत्तों में भी सेलेनियम की उपस्थिति का आकलन किया गया है । एक अध्ययन के मुताबिक मोबाइल टॉवर्स एवं सेलफोन से पैदा विकिरण के प्रभाव से भी मधुमक्खियोंकी संख्या में गिरावट आई है । विकिरण के प्रभाव से मजदूर मक्खियों के छत्तों पर नहीं पहुंचने से वहां पनप रही अवयस्क मक्खियों की देखभाल नहीं हो पाती है जिस कारण वे मर जाती हैं ।
    कीटनाशियों के नियंत्रित उपयोग एवं विकिरण की रोकथाम के साथ-साथ बरगद एवं पीपल जेसे वृक्षों को बचाना भी जरूरी है जिन पर छत्तें बहुतायात में पाए जाते हैं । फरवरी २०१३ में बेंगलोर में आयोजित चौथी अंतर्राष्ट्रीय कीट विज्ञान कांग्रेस में ३५ देशों के वैज्ञानिकों ने एक पस्ताव पारित किया थ कि बैगलोर के आसपास के कुछ गावोें मे लगे बरगद एवं पीपल के उन वृक्षों को बचाया जाए जिन पर सैकडो़ छत्ते लगे है ।
हमारा भूमण्डल
गिद्ध कोषों के पंजोंमें निरीह राष्ट्र
मार्टिन खोर

    पूंजी का सर्वाधिक घृणास्पद रूप आज पूरे विश्व में `गिद्ध कोष` या वल्चर फंड के नाम से पहचाना जा रहा है । साथ ही इसके माध्यम से यह भी सामने आ गया कि पूंजी के सामने राष्ट्रों की सार्वभौमिकता का कोई अर्थ नहीं है ।
    यह खेल अब भारत में भी अन्य स्वरूप लेकर प्रारंभ हो गया है । अनेक रियल इस्टेट कंपनियां बैंकों से `बीमार ऋण` औने पौने दामों में खरीद रही है । ऐसी ही एक सुगबुगाहट मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी पर बांध बनाने वाली कंपनी के  बीमार ऋण को एक विदेशी कंपनी द्वारा संबंधित बैंक से खरीदने के मामले में उठी है।  
     विदेशी ऋण पुन: अपना घिनौना सिर उठा रहे हैं । अनेक विकासशील देशों के सामने निर्यात से घटती आमदनी और कम होते विदेशी कोष की समस्याएं सामने आ रही हैं, इसके बावजूद भुगतान अदायगी में चूक से बचने के लिए कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद नहींे लेना चाहता । इससे बरसों बरस तक मितव्ययता और अति बेरोजगारी का सामना करना पड़ेगा और संभावना है कि अंत में ऋण कीस्थिति और भी बद्तर हो जाए । साथ ही निम्न वृद्धि, मंदी, सामाजिक एवं राजनीतिक अशांति की प्रबल संभावनाएं हैं । अनेक अफ्रीकी और दक्षिण अमेरिकी देश विगत में यह भुगत चुके हैं और अनेक यूरोपीय देश वर्तमान में इसे भुगत रहे हैं ।
    जब कोई समाधान सामने नहीं आया तो कुछ देशों ने अपने ऋणों का पुननिर्धारण किया । ऋण से निपटने की कोई अंतरराष्ट्रीय पद्धति प्रचलन में न होने से राष्ट्रों को अपनी ओर से पहल करनी पड़ी। इसके परिणाम सामान्यतया बहुत ही अस्त-व्यस्त थे क्योंकि इससे उन्हें बाजार में प्रतिष्ठा की हानि और लेनदारों के गुस्से का सामना करना पड़ा । लेकिन देशों ने अपने यहां खलबली मचाने के बजाए इस कड़वी गोली को निगल लिया ।
    इस तरह का अनुभव अर्जेंटीना को हुआ । सन् २००२ में उसका सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का १६६ प्रतिशत हो गया था । अनेक वर्षों की गिरावट और राजनीतिक अस्थिरता के बाद सन् २००१ में अर्जेंटीना चूककर्ता (ऋण की अदायगी में असमर्थ) हो गया था । अर्जेंटीना ने दो बार सन् २००५ एवं २०१० में अपने ऋण परिवर्तित करने का प्रयास किया । इसमें उसने करीब ९३ प्रतिशत ऋणदाताओं के ऋणों का पुनर्निधारण किया जो कि अपने मूल ऋण से महज एक तिहाई लेने को राजी हो गए थे । लेकिन ७ प्रतिशत लेनदार जो कि `होल्ड आउट` (डटे रहने वाले) कहलाते हैं । इस पुनर्निधारण हेतु तैयार नहीं हुए। कुछ प्रभावशाली हेज फण्ड धारक (जो कि कुल लेनदारों का महज १ प्रतिशत ही थे) जिन्होंने द्वितीयक बाजार (सेकेण्डरी मार्केट) से कुछ ऋण बहुत सस्ते में खरीद लिया था ने न्यूयार्क (जहां पर मूल ऋण को लेकर अनुबंध हुआ था) में न्यायालय से यह आदेश चाहा कि उन्हें पूरा भुगतान किया  जाए ।
    इस तरह के अनेक कोष जिन्हें अब `वल्चर फंड` (गिद्ध कोष) कहकर पुकारा जाता है कि विशेषज्ञता इस बात में है कि वे संकटग्रस्त ऋणों को बहुत कम कीमत (मूल लागत का १० प्रतिशत) पर खरीद लेते हैं  और न्यायालय के माध्यम से ब्याज सहित पूरे ऋण की अदायगी का दबाव बनाते हैं । यह गिद्ध की तरह ऊपर चक्कर लगाते रहते हैं और मृत या मृत पाए शरीरों पर झपट्टा मारकर अपना भोजन नोंच लेते हैं । इस मामले में मृत देह के रूप में देश हैं और उनसे कहा जा रहा है कि वे इन गिद्ध कोषों को भुगतान करने के लिए अपनी पहले से ही कुम्हलाई  अर्थव्यवस्था को और निचोड़ें ।  यह कुछ-कुछ पत्थर से खून निकालने जैसा है ।
    अमेरिकी न्यायपालिका की लंबी प्रक्रिया जो कि सर्वोच्च् न्यायालय तक पहुंची थी, ने कुछ महीनों पहले तय किया कि इस मुकदमे को चलाने वाले होल्ड आऊट हेज फंड धारकों को ब्याज सहित पूरा भुगतान किया    जाए । इतना ही नहीं अपने निर्णय में न्यायालय ने उन ९३ प्रतिशत लेनदारों को जो काफी छूट देने को तैयार हो गए थे, को भी भुगतान करने पर रोक लगा दी । क्योंकि उनके हिसाब से `गिद्ध कोषों` को उसी समय पूरा भुगतान किया जाना अनिवार्य है । न्यूयार्क के न्यायाधीश ने निर्णय पर पहुंचने के लिए पारी-पासू सिद्धांत (कि सभी लेनदारों को एक जैसा माना जाए) को आधार बनाया । ये गिद्ध कोष तो अपना हिस्सा चाहते हैं ।  इसमें से मुख्य कोष एनएमएल, केपिटल अनुमानत: १८०० प्रतिशत लाभ कमाएगा ।
    अर्जेंटीना की राष्ट्रपति क्रिस्टीना किर्चनेर ने इन कोषों के सामने झुकने से इंकार कर दिया । अगर वह झुकतीं तो देश को लेनदारों को पूरी रकम का भुगतान करना पड़ता और वह करीब १२० अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर होता । वैसे भी इतना भुगतान कर पाना असंभव था । घटनाक्रम के इस अविश्वसनीय परिवर्तन  को अनेक सार्वजनिक हित समूहों ने घृणास्पद करार दिया है और विकासशील देशों की सरकारें गुस्से से भर गई हैं ।
    बोलीविया में इस वर्ष में जी-७७ के दक्षिण सम्मेलन ने इन गिद्ध कोषों की निंदा की गई थी और एक व्यवस्थित वैश्विक ऋण पुनर्निर्धारण प्रणाली की मांग की है । विकसित देशों के वित्तमंत्री भी इसे लेकर चिंतित हैं क्योंकि वे भी इसके प्रभाव में आएंगे ।   कुछ वर्ष पूर्व ग्रीस भी ऋण पुनर्निर्धारण से गुजरा है जिसके अंतर्गत निजी लेनदार हानि उठाने को तैयार हुए थे ।
    न्यायालय के निर्णय को एक नई नजीर मानने से देशों के लिए अपने ऋणोंका पुनर्निर्धारण असंभव हो जाएगा, क्योंकि अब यह निर्लज्ज गिद्ध कोष इसे अपने चंगुल में लेकर रोक देंगे । फाइनेंशियल टाइम्स के प्रभावशाली प्रवक्ता मार्टिन वोल्फ ने गिद्ध कोषों से हो रही इस लड़ाई में अर्जेंटीना का समर्थन किया है । वोल्फ ने तो इस हद तक कहा कि वास्तविक गिद्धों को होल्ड आउट का नाम देना भी अनुचित है चूंकि वास्तविक गिद्ध कम से कम एक महत्वपूर्ण कार्य तो कर ही रहे हैं । पिछले दिनों स्विट्जरलैंण्ड इंटरनेशनल केपिटल मार्केट एसोसिएशन, जो कि बैंकरों और निवेशकर्ताओं का समूह है ने कुछ नए मानक तय किए हैं जिनका लक्ष्य है ऋण पुनर्निर्धारण में होल्ड आऊट निवेशकों की क्षमता को कम किया जा सके ।
    पिछले दिनों जी-७७ समूह जो कि विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व करता है ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्तावा को बढ़ाने में सफलता है । जिसके अंतर्गत प्रावधान है कि संकटग्रस्त ऋणों का राज्य द्वारा पुनर्निर्धारण किए जाने में हेज कोष अपने लाभ कमाने हेतु रुकावट न डाल पाएं । साधारण सभा के इस प्रस्ताव के पक्ष में १२४, विरोध में ११ मत पड़े और ४१ देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया । इसके अलावा यह भी तय हुआ है कि सन् २०१४ के अंत तक सार्वभौमिक ऋण पुनर्निर्धारण हेतु एक ऐसा बहुस्तरीय कानूनी ढांचा तैयार किया जाएगा जिससे की अंतरराष्ट्रीय विंत्तीय प्रणाली को स्थिरता प्राप्त हो सके ।
    अंतरराष्ट्रीय ऋण पुनर्निर्धारण प्रणाली एक व्यवस्थित हल भी है । इसके माध्यम से देश किसी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय या प्रणाली द्वारा ऋण समस्या से समाधान पा सकेंगे और उन्हें स्वयं ऋण पुनर्निर्धारण की उथल-पुथल से मुक्ति  मिलेगी । वैसे इस प्रस्ताव का क्रियान्वयन भी टेढ़ी खीर है, क्योंकि इस पर आपत्ति उठाने वाले प्रमुख देश अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन हैंजो कि वैश्विक वित्त के बड़े खिलाड़ी हैं । 
    अर्जेंटीना की पहल पर एक और प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद् विचार कर रही है ।  इसका लक्ष्य है गिद्ध कोषों को रोकने के लिए एक कानूनी ढांचा तैयार करना और सार्वभौमिक ऋण पुननिर्धारण । एक और अच्छी बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ जो कि एक वैश्विक इकाई है और इसके अंतर्गत निर्णय प्रक्रिया में विकासशील देशों की भी सुनवाई होती है, के केन्द्र में अब ऋण संबंधी विमर्श के केन्द्र में हैं । भविष्य के समझौते अत्यंत कठोर तो होंगे लेकिन वह बहुमूल्य भी साबित होंगे, क्योंकि ऋण संकट को रोकना और उसका प्रबंधन अधिक से अधिक देशों की प्राथमिकता बनती जा रही   है ।
दीपावली पर विशेष
तमसो मा ज्योतिर्गमय
आचार्य डॉ. संजय देव   (दिव्ययुग)

    दीपावाली ज्योति पर्व है । यह अन्धेरे से प्रकाश की ओर चलने का पवित्र संकल्प है । बुराइयों की कालिमा को चीरकर अच्छाइयों का उजास फैलाने  का प्रतीक हैं । काल के भाल पर जीवन ज्योति जलाने का शाश्वत अनुष्ठान है ।
    निर्धनता और दरिद्रता के कोहरे को छांट कर श्री समृद्धि का वरण है और है निराशा व नाउम्मीदी के घटाटोप में आशा और चारों से ओर विश्वास की  किरण । सचमुच दीपावली का छटा अनूठी और निराली है । यों तो हर पर्व व्यक्ति और समाज को नई ऊर्जा से भरता है, लेकिन दीपावली की बात ही कुछ और है । इसके आंचल में तो हर ओर सल्मा-सितारे जड़े हैं । इसकी चमक-दमक के आगे सब फीके पड़ जाते हैं । होली ओर दीवाली भारत के दो ऐसे पर्व हैं जिनकी तुलना दुनिया के किसी भी महान उत्सव से नहीं की जा सकती है ।
    यदि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर श्रेष्ठ पर्वो की कोई सूची बनाइ जाए तो दीवाली और होली का नाम नि:सन्देह काफी ऊपर होगा । इसलिए अपने देश की इस अनमोल धरोहर को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझें और उसकी न सिर्फ रक्षा करें बल्कि उसमें नए संदर्भ, नए अर्थ, नए मूल्य और नए लक्ष्य भी भरें । 
     सबसे पहले दीपावली के पौराणिक और ऐतिहासिक स्वरूप पर नजर डालें । कहते हैं भगवान श्रीराम ने अपने चौदह वर्ष के वनवास के दौरान विजयादशमी के दिन अन्याय और अनाचार के दानव रावण का वध किया । फिर लंका विभीषण को सौंप  कर वे अनुज लक्ष्मण और धर्मपत्नी सीता सहित अयोध्या को वापस लौटे । इस खुशी के मौके पर अयोध्यावासियों ने घर-घर दीप जलाकर अपने राजा राम का स्वागत किया । तभी से परम्परा चली आ रही है । अमावस की स्याह रात में पूरे उत्साह और आवेग से धरती सितारों से सज जाती है । हर ओर चिराग ही चिराग, हर ओर रोशनी ही रोशनी ।   ऐतिहासिक संदर्भ यही है कि दीपावली मनाने का औचित्य तभी है जब अन्याय, अनर्थ, दुराचार और दमन का प्रतिकार करते हुए उस पर विजय प्राप्त् कर लें । राम ने वनवास लिया ही इसलिए था कि रावण का अन्त किया जा सके । इसलिए दीपावली हमें इस बात की याद दिलाती है कि अपने समय के रावण का हम पहले अन्त करें ।
    आज के युग के रावण कौन हैं ? आज सबसे प्रबल राक्षसी प्रवृत्तियाँ क्या हैं ? राष्ट्रीय जीवन पर नजर डालें तो भ्रष्टाचार सबसे बड़ा दानव बनकर सामने आता हैं । आज इस बात की जरूरत है कि आम जनता इस राक्षसी प्रवृत्ति के खिलाफ शंखनाद करे और उसे जड़मूल से उखाड़ फेंके । यानि भ्रष्टाचार की कब्र पर जब हम सदाचार के दीप जलाएंगे, तभी दीपावली सही मायनों में राष्ट्रीय पर्व होगा । इसी तरह सामाजिक स्तर पर गौर करें तो साम्प्रदायिकता, जातिवाद, दहेज-हत्या और बलात्कार जैसी घोर दानवी प्रवृत्ति नजर आती हैं । घर-घर में दीप तभी जलेगा जब इन घोर दानवीय प्रवृत्तियों की आग से घर बचे रहें । तभी सामाजिक जीवन में सहयोग और भाई-चारे का दीप जलेगा । इसी तरह जिस दीप को जलाकर हम ज्योति, अग्नि और रोशनी को नमन करे हैं, क्या उसकी आग में बहुआें को होम कर देना दीपावली का अपमान नहीं है ? इसकी कालिमा से अपने समाज को बचाएं । बलात्कार तो और भी बड़ा दानव है । भगवान श्रीराम ने उस रावण का अन्त किया जिसने पवित्रता की मूर्ति सीता का अपहरण कर लिया था । आज हमारे समाज में सीताआें का अपहरण और बलात्कार करने वालों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ रही है । तो आइए ! इन रावणों के अन्त का भी हम संकल्प लें ।
    ऐतिहासिक रूप से दीपावली बिछुड़ें हुए अपनों के पुनर्मिलन का सुखद उच्छवास है । वनवास की अवधि पूरी हुई तो कौशल्या को राम मिले, सुमित्रा को लक्ष्मण मिले, विरहणी पत्नी उर्मिला को पति मिले, अयोध्यावासियों को राजा राम मिले और भरत को अपने आराध्य राम मिले ।
    यह इस बात का प्रतीक है कि हम पूरी लगन और पूरे धैर्य से कर्त्तव्य पथ पर डटे रहें और उम्मीद की डोर पकड़े रहे तो हर्षोल्लास का दीप जलाने का सुनहरा मौका आता ही है ।  आज के जीवन में विभिन्न कारणों से पति - पत्नी में विच्छेद, पिता-पुत्र में वैमनस्य, भाई-भाई में विरोध, मां-बेटे में विच्छेद बढ़ता ही जा रहा है । हजारों बच्च्े व हजारों नर-नारी अपने घरों को छोड़े जा रहे हैं, कहीं वनवास काट रहे हैं । पुनर्मिलन का यह पर्व दीपावली हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम गिले-शिकवों को भूलकर, दूर कर फिर से अपने नीड़ में लौट    जाएं । अपनों के गले से लिपट जाएं । यह एक सामाजिक मुहिम होगी । स्वार्थ को अपनाकर अपनों को बिछुड़ने न दें, बिछुड़े हुए अपनों का स्वागत करें, जीवन-दीप में स्नेह भरें।
    अब देखें कि हम सब आज दीपावली किस तरह मनाते हैं । मौटे तौर पर यह रंग-बिरंगे बल्बों की लड़ियाँ सजा लेने, कानफाडू पटाखे छोड़ लेने, एक-दूसरे के घर मिठाइयों और उपहारों की खेप पहुंचा देने और जुआ खेल लेने का पर्व बन कर रह गया है । पारम्पारिक रूप से दीपावली के साथ स्वच्छता, सफाई, सौभ्यता और आस्था का जो भाव होता था, वह आज तिरोहित हो गया है । गांवों में अब भी दीपावली का पारम्परिक स्वरूप काफी हद तक बरकरार है । विजयादशमी से लेकर दीपावली तक पूरे गांव की सफाई का अभियान सा चलता है । घर-घर, गली-गली गन्दगी दूर करने की मुहिम चलती  है । लक्ष्मी के स्वागत का पवित्र भाव होता है । आज शहरों में देखें तो हमें गन्दगी के साम्राज्य के बीच कभी मलेरिया का भय और कभी डेंग के भूत मण्डराते नजर आते हैं ।
    दीवाली तो पर्व ही इस बात का है कि अपने घर-नगर, वातावरण पर्यावरण को साफ-सुथरा रखें । तो दीपावली का यह महान सन्देश है कि हम सफाई और स्वच्छता को एक राष्ट्रीय और सामाजिक अभियान बनाएं । दीवाली में पारम्परिक रूप से घी और तेल के दीये जलाए जाते    थे । गावों में दीवाली का अब भी यही ढंग प्रचलित है । तेल और घी के जलने से जो एक पवित्र खुशबू फैलती है उसमें आस्था और धार्मिकता के भाव सहज ही प्रस्फुरित होते हैं । गांवों में दीवाली पर दीये की कतारों को देखें तो उसकी महीन रोशनी में एक अलग ही रहस्यात्मक, आशावादी अनुभूति होती है । यह बात चकाचौंध करनी वाली लाइट में नहीं होती । फिर एक रात में जिस तरह से लाखों करोड़ों रूपये के पटाखे छोड़ दिए जाते हैं और जिनकी धमक से सारा क्षेत्र दहलता रहता है, वह एक विकृति से ज्यादा कुछ नहीं ।
    हर साल अग्नि-शमन कर्मचारी दीवाली को रात भर आग बुझाने और जान-माल बचाने में लगे रहते हैं । कितने ही घर उस दिन जल जाते हैं, कितने ही लोगों की जानें चली जाती हैं, कितनी ही आंखों की ज्योति चली जाती है और कितने ही ह्वदय-रोगी मौत के मुंह में चले जाते है । आखिर दीवाली मनाने का यह ताण्डव स्वरूप क्यों हो गया है ? सरकार चाहे तो इस पटाखा उद्योग को काफी हद तक नियंत्रित कर सकती है । घातक और शोर करने वाले पटाखे बनाने और बेचने वालों पर पाबन्दी लगे और उल्लघंन करने वालों को सजा मिले । दीपावली में एक खास किस्म की सौम्यता और मधुरता होनी चाहिए । उसे इस तेज धूम-धड़ाके और शोर में डुबो देने से भला क्या लाभ ? इसी तरह दीपावली के साथ जुआ अभिन्न रूप से जुड़ गया है जो कभी जुआ नहीं खेलता वह भी दिवाली की रात अपने हाथ आजमा लेता है ।
    कुछ लोगों के लिए तो दीपावली का मतलब ही सिर्फ जुआ है । दीवाली के कोई महीना भर पहले से ही कौड़ियों और ताश के पत्ते के जरिए नुक्कड़ों, घरों और क्लबों में जुए का दौर शुरू हो जाता है । एक अन्ध विश्वास है कि दीवाली की रात जुंए में जो जीत गया, वह सालों भर मालोमाल रहेगा । जुए के खेल में कितने घर तबाह हो जाते हैं, इसका अन्दाजा लगाना बड़ा मुश्किल है । इसी जुए के आधुनिक रूप विभिन्न व्यावसायिक लाटरियों और शेयर्स के रूप में चल रहे है ।
जनजीवन
कचड़े को सोना न बनने दें
चिन्मय मिश्र

    केन्द्र की नई सरकार ने आते ही सारे देश को झकझोरना शुरू  कर दिया । जो कथित फैसले दशकों से नहीं हो पा रहे थे वह उन्होंने क्षणों में ले लिए । वैसे नदी में कूद जाने के बाद सोचना कि तैरना आता है या नहीं अतिपराक्रमी और स्वयं ही मर मिटने वाले समुदाय की ही खुशफहमी हो सकती है ।
    राष्ट्रीय स्तर की किसी भी योजना की घोषणा के समानांतर उसके क्रियान्वयन का ढांचा भी तय हो जाना चाहिए । आधुनिक भाषा में संक्षिप्त में इसे डीपीआर और विस्तार में विस्तृत परियोजना रिपोर्ट कहा जाता है। लेकिन गंगा शुद्धिकरण अभियान/परियोजना की खुमारी उतरी भी नही थी कि जन-धन योजना आसमान से उतर आई । यह अभी  ठीक से बैठ भी नहीं पाई थी कि मेड और मेक इन इंडिया का सिंह अपने कल पुर्जों को कड़कड़ाता हुआ हमारे घर में घुस आया । इसके रहने के लिए जल, जंगल, जमीन और पानी की व्यवस्था नहीं कर पाए थे कि झाड़ू लेकर राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान ने हमारा गिरेबान पकड़ लिया और कहा कि इस देश की सारी गंदगी के लिए प्रत्येक आम आदमी जिम्मेदार है और जो व्यापक औद्योगिक प्रदूषण हो रहा है उसकी जिम्मेदारी भी आम आदमी पर ही है क्योंकि अडानी, अंबानी, टाटा, बिल गेट्स, वालमार्ट, बोइंग आदि अंतत: इसी आम आदमी के  लिए तो उद्योग लगाते हैं । इसलिए  अब उसे हर हफ्ते कम से कम २ घंटे अपने अहाते के बाहर की सफाई करना है । 
     वैसे भी किसी समस्या का समाधान सिर्फ नारों या वायदों और इससे भी आगे जाएं तो महज अच्छे इरादों से नहीं हो सकता । गंगा की सफाई में आ रही समस्याओं को स्वीकार कर उसकी दिशा में प्रयत्नशील होने के बजाए शहरों, कस्बों और गावों की सफाई की ओर ध्यान बटाना राजनीतिक तौर पर कुछ समय के  लिए फायदेमंद हो सकता है, लेकिन दीर्घावधि में इसके प्रतिकूल परिणाम ही सामने आएंगे । नई सरकार ने पदग्रहण के बाद मनन, चिंतन और योजना निर्माण की ओर ध्यान न देकर पिछली सरकारों की तरह सिर्फ नारों और वायदों से उस राजनीतिक शून्य को भरने की असफल चेष्टा की है, जो कि पिछले तीस बरसों से इस देश में विद्यमान    है ।
    अब नवीनतम राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान की बात करें । भारत में आबादी वाले क्षेत्रों में दो प्रकार के समुदाय गंदगी की सफाई करते हैं । पारंपरिक रूप से सफाई करने वाले समुदाय को सामान्यतौर पर वाल्मीकि समाज कहा जाता है । इसका काम गंदगी को बुहारना    और उसे एक निश्चित स्थान पर डाल देना है। इसी के साथ इस समुदाय के  तकरीबन ३ लाख लोग तमाम   कानून बन जाने के बावजूूद आज भी मानव मल को अपने हाथों से साफ करने का अमानवीय कार्य कर रहे   हैं ।  हमारे अनेक नेताओं ने स्वच्छता अभियान के अंतर्गत इन्हीं वाल्मीकि बस्तियों में सफाई कर इस समुदाय को आईना दिखाने का `अविस्मरणीय` कार्य किया है ।
    इसी के समानांतर एक और समुदाय है जिसे हम कचड़ा बीनने वाला या `रेग या वेस्ट पिकर्स` के नाम से पहचानते हैं ।  देश की सफाई का बोझ अपने कंधों पर डाले यह समुदाय सुबह से रात तक घूमता रहता है । कहीं इससे चोरों की तरह व्यवहार किया जाता है तो कहीं यह कचड़े के ढेर में अपने प्रतिद्वंदियों, कुत्तों और सुअरों के आक्रमण का शिकार होता है । इस समुदाय की दूसरी विशेषता यह है कि यह वाल्मीकि समुदाय की तरह न तो हमसे यानि व्यक्तिगत रूप से किसी से या पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम, राज्य सरकार या केन्द्र सरकार से किसी भी प्रकार का कोई मानदेय प्राप्त नहीं करता है । सड़क पर अपनी आजीविका चलाने वाला यह समुदाय अपने काम से इस देश की हजारों करोड़ रु. की बचत करता है या सरकारी खजाने में योगदान देता है । परंतु इस पूरे स्वच्छता अभियान ने इस समुदाय   का उल्लेख करना भी गवारा नहीं किया । 
    गौरतलब है कि यह एक अत्यंत गरीब, अशिक्षित और मुख्यत: ग्रामीण पलायनकर्ताओं का समुदाय है । इस काम की वजह से इनकी सेहत काफी खराब हो जाती है, इनमें बड़े पैमाने पर कुपोषण व्याप्त है । इस समुदाय के बच्च्े नशाखोरी के शिकार हैं, लड़कियां व महिलाएं यौन शोषण की शिकार हैं और इनमें अब बड़ी संख्या में एड्स पीड़ित भी हो गए हैं । इसकी वजह नशाखोरी और यौन शोषण दोनों ही हैं । स्वच्छता अभियान के प्रवर्तकों को यह गलतफहमी है कि यह अभियान सिर्फ कचड़ा फैलाने वालों को कथित रूप से जागरूक कर देने से सफल हो जाएगा । कचड़ा बीनने वाला समुदाय ही राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान का तारणहार हो सकता है ।
    एक मोटे अनुमान के अनुसार अकेले दिल्ली में एक लाख से ज्यादा लोग कचड़ा बीनने का काम करते हैं । दूसरा अनुमान कहता है कि दिल्ली और मुंबई में संयुक्त रूप से तीन लाख से ज्यादा `रेग पिकर्स` हैं और इनमें से एक लाख २० हजार बच्च्े हैं,  जिनकी उम्र १४ वर्ष से कम है । दूसरी ओर जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि देशभर में कुल १ करोड़ ७० लाख बाल श्रमिक हैं और इनमें से करीब १२ प्रतिशत यानि १८ लाख बच्च्े कचड़ा बीनने का काम करते हैं । इस संख्या को ध्यान में रखकर अनुमान लगाएं तो हमें पता लगता है कि ८० लाख से लेकर १ करोड़ की जनसंख्या हमारे यहां कचड़ा बीनकर अपनी जीविका चलाती है । यानि वह     हमारे फेके हुए पर जिंदा है । इन बच्चें के बारे में अनुमान है कि वह १२ रु. से ५० रु. रोज कमाते हैंऔर यदि वयस्कों की बात करें तो वह      २००-२५० रु. तक कमा लेते      होंगे ।
    मगर ये एक करोड़ `आत्मनिर्भर` लोग हमारे नीति-निर्माताओं के `राडार` पर नहीं हैं,  क्योंकि संभवत: वे उन मायनों में उपभोक्ता नहीं हैं, जिन मायनों में आधुनिक विकास उपभोक्ता को देखता है । वरना कोई और वजह नहीं है कि इस समुदाय के बारे में राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान मौन रहे । इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि यह समुदाय `कचड़े से सोना बनाने` वाले समूह की आंख की किरकिरी बना हुआ है । सोना बनाने वाले समूह ने शायद जान परकिन्स द्वारा लिखी पुस्तक `कफेशन्स ऑफ एन इकॉनामिक हिट मेन` का अत्यंत ध्यानपूर्वक  अध्ययन किया है, कि किस तरह अमेरिका ने सत्तर के दशक में सऊदी अरब में सफाई कंंपनियों को भेजकर कूड़े के प्रबंधन के माध्यम से उस देश की पूरी अर्थव्यवस्था को कमोवेश अमेरिका के आधीन ला दिया ।
    शायद अब हमारे यहां भी इनकी लॉटरी लग जाए ? इसलिए इंदौर जैसे शहर कचड़ा कंपनियों की लापरवाही के बावजूद उस पर कार्यवाही नहीं करते । पुणे नगर निगम की तारीफ की जाती है कि वह कचड़ा बीनने वालों के प्रति `संवेदनशील` है । लेकिन वह भी अब यह पूरा कार्य निजी कंपनी को दे देना चाहता है । इसके खिलाफ वहां की संस्था `स्वच्छ` महाराष्ट्र उच्च् न्यायालय गई । न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि `दीर्घकालीन अनुबंध हेतु कचड़ा बीनने वालों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।`
    हम सब जानते हैंकि आधुनिक कचड़े का दो तिहाई वही होता है जो कि किसी वस्तु या खाद्य सामग्री की पैकिंग के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। इसलिए महात्मा गांधी के आदर्शों की दुहाई देकर शुरू  की योजना के विचारकों को गांधी के इस विचार पर ध्यान देना चाहिए, `सुनहरा नियम तो यह है कि जो चीज लाखों लोगों को नहीं मिल सकती, उसे लेने से हम भी दृढ़तापूर्वक इंकार कर दें । त्याग की यह शक्ति हमें एकाएक नहीं मिल जाएगी । पहले तो हमेंे ऐसी मनोवृत्ति विकसित करनी चाहिए कि हमें उन सुख-सुविधाओं का उपयोग नहीं करना है जिनसे लाखों लोग वंचित हैं और उसके बाद तुरंत ही, अपनी मनोवृत्ति के अनुसार हमें शीघ्रतापूर्वक अपना जीवन बदलने में लग जाना चाहिए ।` इसका सीधा सा अर्थ है कि आवश्यकता कचड़े का उत्पादन कम करने यानि व्यक्तिगत उपभोग कम करने की है ।
प्रदेश चर्चा
पंजाब : युवाआें में बढ़ती नशाखोरी
भारत डोगरा
    पंजाब में बढ़ती नशाखोरी दांवानल की तरह फैल रही है । इसके परिणामस्वरूप दहेज और कन्या भ्रूणहत्या की समस्या पुन: सिर उठाने लगी हैं । राजनीति का बढ़ता अपराधीकरण इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार हैं । इन परिस्थितियों के  निपटने के लिए सामाजिक जागरूकता की आवश्यकता है । इन समस्याओं की अन्य राज्यों में भी फैलने की आशंका व्यक्त  की जा रही है ।
    पंजाब को देश के सबसे समृद्ध राज्यों में गिना जाता है । खेती का खर्च बहुत बढ़ जाने के कारण व अनुचित तकनीकों के प्रसार के कारण छोटे किसानों के कर्ज व आर्थिक तनाव बहुत बढ़ गए हैं । इन बढ़ते आर्थिक तनावों के बीच कुछ सामाजिक समस्याएं भी इतनी तेजी से बढ़ी हैं  कि अनेक परिवारों के लिए स्थिति असहनीय हो गई है । इनमें तरह-तरह के नशे का प्रसार सबसे गंभीर समस्या है ।
     अमृतसर में गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के एक अध्ययन से सामने आया है कि पंजाब के ७० प्रतिशत युवक शराब या नशीली दवाओं का सेवन करते हैं । इस आंकड़े पर थोड़ी-बहुत बहस हो सकती है । भिन्न-भिन्न स्थानों की स्थिति कुछ अलग हो सकती है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि हाल के समय में तरह-तरह के नशे की समस्या तेजी से बढ़ी है, फिर चाहे वह शराब का नशा हो या विभिन्न तरह की नशीली दवाओं का । प्रति व्यक्ति शराब की खपत पंजाब में सबसे अधिक बताई जाती है । वर्ष २००९-१० में पंजाब में २९ करोड़ बोतल शराब की खपत हुई । अवैध शराब व बाहर से मंगाई गई शराब इससे अलग है ।
    समय-समय पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली व्यक्ति व अधिकारी भी नशे के विभिन्न कारोबारों से बहुत आर्थिक लाभ प्राप्त करते रहे हैं । शराब के व्यापार में यह खुलेआम होता है तो नशीली दवाओं के अवैध कारोबार में यह चोरी-छिपे होता है । यह राजनीति के  अपराधीकरण का केवल एक पक्ष है । राजनीति के अपराधीकरण होने से अपराधियों के हौसले बहुत बढ़ गए   हैं। राजनीति से जुड़े प्रभावशाली व्यक्ति कई स्तरों पर हिंसा व अपराधों को बढ़ावा देते हैं या ऐसे हिंसक तत्वों को अपना समर्थन देते हैं जिनकी गतिविधियों   से समाज बहुत असुरक्षित हो गया    है ।
    समाज व राजनीति का बढ़ता अपराधीकरण पंजाब में इस कारण और खतरनाक हो जाता है । यह राज्य कुछ वर्षों पूर्व आतंकवाद के ऐसे खतरनाक दौर से गुजर चुका है जिसे सीमा पार से भी बहुत समर्थन प्राप्त था । ऐसी स्थिति में समाज और राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण को समय रहते नियंत्रित करना और भी जरूरी हो गया है ।
    नशे के तेज प्रसार के साथ महिलाओं के विरुद्ध कई तरह की हिंसा और यौन अपराध भी बढ़े हैं । इसके अतिरिक्त नशे पर अधिक खर्च के कारण अनेक महिलाओं को परिवार के लिए जरूरी खर्च उपलब्ध नहीं हो रहा है । बच्चें को प्राथमिकता देते     हुए महिलाएं अपने पोषण व    स्वास्थ्य के खर्च में पहले कटौती करती हैं । 
    परंपरागत तौर पर पंजाबी समाज में बेटी के जन्म को अच्छा नहीं समझा जाता था । कुछ स्थानों पर कन्या शिशु की हत्या भी की जाती थी । धीरे-धीरे इस स्थिति में सुधार आया था, परंतु नई तकनीकों ने समस्या को और बिगाड़ दिया व यहां कन्या भ्रूण हत्या बड़े पैमाने पर होने लगी । इस पर कानूनी प्रतिबंध लगने से कुछ राहत मिली, पर कानून का उल्लंघन आज भी होता है । पंजाब में लिंग अनुपात वर्ष २०११ की जनगणना में भी बहुत प्रतिकूल पाया गया (८९३) । हालांकि २००१ के  बाद स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ । नवांशहर जैसे स्थानों पर कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध चले अभियान का अच्छा असर देखा गया ।
    दहेज की समस्या भी यहां पर परंपरागत तौर पर भी मौजूद थी । उपभोक्तावाद के प्रसार के दौर में दहेज समस्या पहले से कहीं विकट हो गई है । निर्धन परिवार को भी यदि दहेज व विवाह के अन्य खर्च पर तीन-चार लाख रुपए खर्च करने पड़े तो यह निर्धन परिवारों के कर्ज का एक बड़ा कारण बन जाता है ।       इस कारण बेटी के जन्म के विरुद्ध जो पंरपरागत मान्यता थी वह और भी दृढ़ होती जाती है । रंजना पाधी के हाल के अध्ययन में जिन कर्जग्रस्त परिवारों से बातचीत की गई, उनमें से लगभग आधे परिवारों ने ऋण से प्राप्त धन को विवाह पर खर्च किया । इनमें औसत कर्ज २ लाख से कुछ अधिक ही रहा । गांवों में किसानों व खेत-मजदूरों  दोनों में दहेज व विवाह के लिए कर्ज लेने की मजबूरी देखी गई ।
    अधिक दहेज देने के बावजूद विवाह के बाद दहेज के लिए सताया जाना भी पंजाब की एक बड़ी समस्या है । वर्ष २०१३ में महिलाओं के  विरुद्ध हिंसा की दर्ज शिकायतों के तिमाही आकलन से पता चला कि पुलिस हेल्पलाइन की नई सेवा के अंतर्गत तीन महीनों में दहेज प्रताड़ना के २०५ मामले दर्ज हुए जबकि अन्य घरेलू हिंसा के ६२४ मामले दर्ज हुए । इसी दौरान बलात्कार के ७६ मामले दर्ज हुए । इन तीन महीनों में हेल्पलाइन में पंजाब में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के ३३३९ मामले दर्ज हुए ।
    आत्महत्याओं की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण अनेक परिवारों की जिम्मेदारी महिलाओं पर आ गई है जबकि बहुत कम आय के साथ कर्ज का बोझ पहले से था । इन महिलाओं के लिए कठिनाईयां संभवत: सबसे अधिक हैंजबकि उन तक बहुत कम सहायता पहुंची है । तेज मशीनीकरण के दौर में महिला खेत मजदूरोंके  लिए खेती से रोजगार के अवसर पहले से और कम हो गए हैं ।  अनेक गांवों में पेयजल बुरी तरह प्रदूषित हो गया है और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां तेजी से फैल रही हैं । इस तरह अनेक तरह की विकट समस्याओं को एक साथ संभालने में अनेक महिलाओं की समस्याएं असहनीय हद तक बढ़ गई हैं । 
    पंजाब के महिला संगठनों व यहां के समाज-सुधार आंदोलनों के सामने बहुपक्षीय चुनौतियां हैं। सामाजिक बदलाव को ऐसी सार्थक दिशा देना जरूरी है जिसने महिलाओं और लड़कियों से होने वाला भेदभाव अन्याय और विभिन्न तरह की हिंसा दूर हो । ऐसी हिंसा के विरुद्ध समाज में व्यापक मान्यता बनेे और इसे रोकने के लिए गांव व मोहल्ले स्तर पर समाज सक्रिय हो । इसके साथ नशे जैसी अन्य समस्याओं के विरुद्ध महत्वपूर्ण कदम उठाना जरूरी है जिनके कारण महिलाओं की समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं ।
    अनेक क्षेत्रांे में पनप रहे नए सामाजिक तनावों जैसे दलित व गैर-दलित तबकांे में बढ़ते अलगाव को भी समय रहते सुलझाना जरूरी है, और यह समाधान न्याय आधारित होना चाहिए । दलित समुदाय में ही  भूमिहीन मजदूर सबसे अधिक हैं जो ग्रामीण समाज का सबसे वंचित तबका रहे   हैं । नई तकनीक आने के बाद उनके रोजगार के अवसर और कम हुए हैं  जबकि उन्हें व प्रवासी मजदूरों दोनों को नई तकनीकों व विशेषकर कीटनाशक दवाओं व मशीनरी से जुड़े खतरों को अधिक सहना पड़ा है । ग्रामीण क्षेत्रों के अनेक विकास कार्यो में सबसे मेहनतकश दलित समुदाय की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है । अत: अलगाव को दूर कर विभिन्न समुदायों के सहयोग के अवसर न्याय व समता आधारित समाधानों से प्राप्त करने चाहिए ।
    इस तरह आपसी सहयोग व एकता का माहौल बनेगा तो हर तरह की सांप्रदायिकता और भेदभाव को दूर रखना संभव होगा । इस तरह के आपसी एकता के माहौल में ही नशे जैसी सामाजिक बुराईयों के विरुद्ध ग्रामीण समाज मिलकर आपसी एकता व मजबूती से जरूरी कदम उठा सकेंगे ।
कृषि जगत
मानव मूत्र : एक प्रभावी कृषि उर्वरक
डॉ. दीपक शिन्दे

    इन दिनों, विशेष कर शहरी क्षेत्रों में,  रासायनिक उर्वरकों से होने वाले हानिकारक प्रभावों के प्रति जागरूकता के चलते लोगों में ऑर्गेनिक फूड की तरफ रूझान बढ़ रहा है । ये ऐसे खाद्य-पदार्थ होते हैं जिनमें विषैले रासायनिक तत्व नहीं पाए जाते तथा जिनके उत्पादन  में प्राणी तथा वनस्पति से प्राप्त् प्राकृतिक खाद का उपयोग किया जाता है ।
    ऑर्गेनिक फूड का बाजार १९९० से तेजी से बढ़ा है । इसकी मांग के अनुपात में ऑर्गेनिक खेतों के क्षेत्रफल में २००१ से २०११ के मध्य ८.९ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है । दुनिया भर में २०११ तक लगभग ३ करोड़ ७० लाख हैक्टर भूमि पर ऑर्गेनिक खेती की जा रही थी जो कुल कृषि भूमि का केवल ०.९ प्रतिशत ही है । 
     जीवों तथा भूमि की उर्वरता पर आधुनिक संश्लेषित रासायनिक उर्वरकों के कुप्रभाव अब सामने आने लगे हैं । भूमि में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पौटेशियम जैसे पोषक तत्वों की कमी को पूरा कर अधिक उत्पादन के लालच में इन उर्वरकों का बेतहाशा उपयोग किया जा रहा है । किन्तु यह एक कटु सत्य है कि इन तत्वों के स्त्रोत सीमित हैं जिनका नवीनीकरण नहीं किया जा सकता । उदाहरण के लिए नाइट्रोजन को ही  लें । इसे प्राप्त् करने के लिए प्रयुक्त विधि में प्राकृतिक गैस की आवश्यकता होती है जिसके स्त्रोत सीमित है ।
    फॉस्फोरस तथा पोटेशियम के स्त्रोत भी सीमित हैं । भविष्य में हमें जल्द ही उर्वरकों के इन महत्वपूर्ण घटकों की कमी का सामना करना पड़ेगा । इस समस्या के दो ही समाधान दिखाई देते हैं : इनके उपयोग में जबरदस्त कटौती या अन्य विकल्पों की खोज । अगर ऐसा न किया गया तो भविष्य में हमें भुखमरी से जूझने के लिए तैयार रहना होगा ।
    वर्तमान में मानव मूत्र रासायनिक उर्वरकों का एक बेहतरीन विकल्प दिखाई देता है जो पूरे वर्ष आसानी से उपलब्ध निशुल्क स्त्रोत   हैं । पर्यावरण पत्रिका इकॉलॉजिस्ट के अनुसार यह एक उत्कृष्ट जैव उर्वरक है । भले ही आज हमें उर्वरक के रूप में मानव मूत्र के उपयोग की धारणा थोड़ी बेतुकी लगे किन्तु प्राचीन काल में जब रासायनिक उर्वरक उपलब्ध नहीं थे तब मानव मूत्र का उपयोग उर्वरक के रूप में होता रहा है । नए शोध यह बता रहे है कि इस प्राचीन पद्धति की ओर लौटने में ही बुद्धिमानी है । इनके अनुसार मानव मूत्र न सिर्फ पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देता है बल्कि मूत्र रहित मलजल के उपचार में खर्च       होने वाली ऊर्जा में भी बचत होती   है ।
    हालांकि हमारे देश में इस विषय पर कुछ खास काम नहीं हुआ है परन्तु फिनलैण्ड स्थित कूपियो विश्वविघालय के पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक प्रयोग से इस धारणा को काफी बल मिलता है । इस प्रयोग में चुकंदर के पौधों के चार समूहों को अलग-अलग तरीकों से उगाया गया । पहले समूह हेतु परम्परागत रासायनिक खाद, दूसरे के लिए मानव मूत्र एवं तीसरे के     लिए मानव मूत्र तथा लकड़ी की  राख के मिश्रण का उपयोग किया गया ।
    कंट्रोल ग्रुप के रूप में एक और चौथे समूह में किसी भी उर्वरक का उपयोग नहीं किया गया । इन सभी पौधों के लिए सूक्ष्म-जैविक तथा रासायनिक परिस्थितियां भी समान ही रखी गई । प्रयोग के अंत में परम्परागत रासायनिक उर्वरकों द्वारा पोषित पौधों से उत्पन्न चुकंदरों की अपेक्षा मानव मूत्र द्वारा उत्पन्न चुकंदर आकार में लगभग दस प्रतिशत और मानव मूत्र तथा लकड़ी की राख के मिश्रण द्वारा उत्पन्न चुकंदर २७ प्रतिशत बड़े थे । इन चुकंदरों में पाए जाने वाले पोषक तत्व एवं स्वाद सामान्य चुकंदरों की तरह थे । इससे वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि मानव मूत्र एक बेहतरीन उर्वरक है । बाद में पत्तागोभी, खीरे तथा टमाटर की कृषि में भी मानव मूत्र         का सफलतापूर्वक उपयोग किया  गया ।
    मूत्र के पुनर्चक्रण से प्राप्त् खाद ने केवल खाद्य उत्पादन में वृद्धि करती है बल्कि तरल अपशिष्ट के उपचार को भी सुगम बनाती है । साथ ही यह विकासशील देशों में स्वच्छ परिस्थितियों  के निर्माण में भी सहायक है । मानव मूत्र में सामान्य रासायनिक उर्वरकों में पाए जाने वाले प्रमुख घटक (नाइट्रोजन, पोटेशियम तथा फॉस्फोरस) भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं ।
    वैज्ञानिकों के अनुसार मूत्र में पाए जाने वाले पोषक पदार्थ ठीक उसी रूप में होते हैं जिस रूप में वे पौधों द्वारा ग्रहण किए जाते हैं । हमारा भोजन हमें नाइट्रोजन जैसे पोषक तत्व जटिल कार्बनिक अणुआें के  रूप में प्रदान करता है किन्तु हमारा पाचन तंत्र इन्हें ऐसे सरल रूप में विघटित कर देता है जो पौधों द्वारा ग्रहण किए जा सकें । अर्थात    आधा कार्य तो हम ही कर चुके होते हैं ।
    युरोप में कुछ बागवानों ने तो अपने घरों पर पौधों को मूत्र से उर्वरित करना प्रारंभ कर दिया है । कुछ शोधकर्ताआें द्वारा छोटे-छोटे खेतों में स्थानीय स्तर पर एकत्रित मानव मूत्र को रिसायकल करने संबंधी पायलट प्रोजेक्ट भी चलाए जा रहे हैं । बड़े पैमाने पर की जाने वाली कृषि में मानव मूत्र के उपयोग के मार्ग में एक बड़ी समस्या यह है कि तरल अपशिष्ट को एकत्र करना होगा एवं उसके परिवहन के तरीकों को बदल कर सीवेज सिस्टम को पूर्ण रूप से परिवर्तित करना होगा । इसके अलावा, सामान्य फ्लश टॉयलेट्स में परिवर्तन कर मूत्र और मल की निकासी के लिए अलग-अलग प्रावधान करना होगा । इस प्रकार की व्यवस्था इस कार्य में एक बड़ी बाधा है क्योंकि लोग आसानी से इस तरह के टॉयलेट्स को स्वीकार नहीं   करेंगे ।
    मूत्र रिसाइक्लिंग से हमें दोहरा लाभ मिलता है । एक ओर जहां हमें प्रभावी उर्वरक प्राप्त् होता है वहीं दूसरी ओर बड़ी मात्रा में पानी की बचत के साथ मूत्र रहित सीवेज के उपचार में भी अपेक्षाकृत कम ऊर्जा की आवश्यकता होगी । एक व्यक्ति औसतन छह में से पांच बार केवल मूत्र त्यागने के लिए टॉयलेट का उपयोग करता है तथा इसे स्वच्छ करने के लिए प्रत्येक बार लगभग ८ लीटर की दर से कुल ४० लीटर पानी बहाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि टॉयलेट स्वच्छ करने हेतु आवश्यक कुल स्वच्छ जल का लगभग अस्सी प्रतिशत या प्रति व्यक्ति लगभग १.५ लाख लीटर प्रति वर्ष केवल मूत्र से निजात पाने हेतु उपयोग किया जाता है । यानी मूत्र को ठिकाने लगाने के लिए इतना साफ पानी प्रदूषित होता   है । यदि इस पानी की बचत की जाए तो इसका उपयोग कृषि में किया जा सकता है ।
    संयुक्त राज्य अमेरिका में रिच अर्थ इंस्टीट्यूट एक्सपेंरिमेंट सामाजिक स्तर पर कानूनी तौर से अधिकृत पहला प्रोजेक्ट है किन्तु युरोप, अफ्रीका एवं एशिया के देशों में मूत्र उर्वरक से संबंधित परीक्षण अभी जारी है ।
    साइन्टिफिक अमेरिकन में प्रकाशित पर्चे में बताया गया है कि एक व्यक्ति द्वारा प्रतिदिन उत्सर्जित मूत्र से लगभग एक वर्ग मीटर भूमि की उर्वरता बढ़ाई जा सकती है । इसी प्रकार एक मनुष्य ५०० लीटर प्रतिवर्ष की दर से मूत्र त्यागता है जिसमें लगभग ३.६ किलोग्राम नाइट्रोजन और करीब ०.५ किलोग्राम फॉस्फोरस होता है । ऐसे कृषक जो अपनी फसलों के लिए प्राकृतिक उर्वरक खोज रहे हैं उनके लिए मानव मूत्र से बेहतर विकल्प न तो वर्तमान में और न ही आने वाले समय में होगा क्योंकि परम्परागत उर्वरकों की तरह इसमें भी पर्याप्त् मात्रा में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटेशियम पाए जाते हैं । युगान्डा के कवान्डा विश्वविघालय के कृषि अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक पैट्रिक मखोसी के अनुसार मानव मूत्र एक प्रभावी उर्वरक है तथा सप्तह में केवल एक बार इसके प्रयोग से सब्जियों की पैदावार को दुगाना किया जा सकता है ।
    यदि आप भी अपने बगीचे को मूत्र से उर्वरित करना चाहते हैं तो मूत्र के एक भाग में १० से १५ भाग पानी मिलाकर पतला करने के उपरान्त ही प्रयुक्त करना होगा । गमलों के पौधों के लिए  मूत्र को ३० से ५० भाग पानी से पतला करना उचित होगा । हॉ, वृक्षों, झाड़ियों एवं लॉन के लिए मूत्र को बिना पतला किए सीधे ही इनकी जड़ों पर डाला जा सकता है । अपने मूत्र को किसी बोतल या बाल्टी में एकत्रित करें अथवा मूत्र को मल से पृथक करने वाले टायलेट्स के निर्माण में निवेश करें । आप अपने मूत्र का उपयोग सीधे तौर पर कम्पोस्ट खाद के ढेर पर करके इसके पोषक तत्वों में इजाफा भी कर सकते हैं । मानव मूत्र को उर्वरक के रूप में उपयोग करने हेतु लोगों को प्रोत्साहित किया   जाना चाहिए ।
    अलबत्ता, मूत्र उर्वरक को मुख्य धारा में शामिल करने मेंं कुछ समस्याएं है जिनका निराकरण आवश्यक है । मूत्र में उपस्थित यूरिया के अमोनिया में परिवर्तित हो जाने से विशिष्ट दुर्गन्ध आने लगती है । मूत्र में एंटीबायोटिक्स, औषधियां तथा हॉर्मोन्स भी उपस्थित होते हैं । वैसे तो इनकी अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा का प्रभाव फसलों पर नगण्य होता है और वास्तव में ऐसे मूत्र संदूषकों को जल मार्ग में बहाने की अपेक्षा भूमि पर फैलाना ज्यादा लाभकारी हो सकता  है । फिर भी संयुक्त राज्य अमेरिका का रिच अर्थ इन्स्टीट्यूट यह जानने का प्रयास कर रहा है कि मूत्र   उर्वरक से इस प्रकार के संदूषकों का मिट्टी      में किस प्रकार अवशोषण होता     है ।
    जब हम ऐसे फ्लश टॉयलेट्स का इस्तेमाल करते है जो सीधे नालों से जुड़े होते हैं तब ये अवशिष्ट औषधियां तथा हॉर्मोन्स चौबीस घंटे के भीतर जल उपचार संयंत्रों से होकर बिना किसी परिवर्तन के सीधे नदियों, तालाबों, झीलों या समुद्र में पहुंचकर न केवल जलीय जीवन को हानि पहुंचाते है वरन पीने योग्य पानी को भी प्रभावित करते हैं । इसके स्थान पर यदि हम मूत्र को कृषि भूमि पर फैला दें तो संभव है कि विशालकाय मृदा तंत्र इन पदार्थो को अपघटित करके खत्म या एकदम कम कर दें ।
    दूसरी समस्या यह है कि इस काम में तरल अपशिष्ट को ठोस में अलग करने के लिए सीवेज सिस्टम की बनावट में मौलिक परिवर्तन करना पड़ेगें । इसके लिए मल को मूत्र से पृथक करने वाले टॉयलेट्स का उपयोग करना होगा जहां से मूत्र को किसी स्टोरेज टैंक में एकत्रित किया जा सकता है ।
पर्यावरण परिक्रमा
गाय के लिए भी कृत्रिम पैर
    कृत्रिम पैर के लिए मशहूर जयपुर में गौवंश के भी कृत्रिम पैर लगाए जाते है । जयपुर के एक डॉक्टर ने यह काम शुरू किया है और वे अब तक १२ गोवंश को कृत्रिम पैर लगा चुका हैं । उनके बाद यही काम जयपुर फुट बनाने वाली संस्था महावीर विकलांग समिति भी कर रही है ।
    गायों के लिए कृत्रिम पैर कृष्णा बनाने वाले डॉक्टर तपेश माथुर एक सरकारी गौशाला में कार्यरत हैं । वे बताते हैं कि जब वे सरकारी पशु चिकित्सालय में थे तो दुर्घटना के शिकार कई जानवर उनके पास आते थे । इनमें गायों की संख्या ज्यादा होती थी, क्योंकि गाय  बहुत तेजी से भागकर अपने को बचा नहीं पाती । इन दुर्घटनाग्रस्त पुशआें के पैर काटने के अलावा हमारे पास कोई इलाज नहीं था और पैर कटने के बाद अक्सर इनकी मौत हो जाती थी ।
    इसी को देखते हुए उन्हें इनके कृत्रिम पैर बनाने पर विचार आया । इस तकनीक पर काम किया और करीब साल भर पहले गौशाला में दुर्घटनाग्रस्त होकर आए एक बछड़े कृष्णा को उन्होनें यह कृत्रिम पैर लगाया । लगभग १५ दिन तक रोज दो घंटे तक इसकी फिजियोथैरेपी की ओर अब कृष्णा बिल्कुल सामान्य बछड़े की तरह चलता है । इस सफलता के बाद ही कृत्रिम पैर का नाम कृष्णा  रखा ।
  
होगा सफाई अभियान पर हाइटेक सेंसर रखेंगे नजर

    मोदी सरकार ने गंगा की सफाई के लिए हाईटेक संेंसरों के जरिए इस योजना पर काम करने की तैयारियां की है । इसके तहत् आने वाले ६ महीनों में गंगा समेत ७०० प्वाइंट्स पर सेंसर लगाए जाएंगे । २५१० किलोमीटर लंबी गंगा को साफ करने में जुटी सरकार का इस दिशा में यह पहला चरण होगा  । ये सेंंसर कारखानों के कचरे और प्रदूषकों को अपने आप नापेगा और गंगा में पहंुचने वाले प्रदूषकों के बारे में रियल टाइम डेटा अपडेट करेगा । ये रियल टाइम आंकड़े एक सर्वर पर पहुंचेगे और इन आंकड़ों का एक तय पैमाने से अधिक होने पर खुद-ब-खुद अलर्ट जारी हो जाएगा ।
    गंगा भारत की सबसे लंबी नदी है और हिन्दुआें की आस्था मानी जाती है । इसके अलावा गंगा से प्रभावित और आश्रित रहने वाली जनसंख्या का आंकड़ा भी बहुत अधिक है । लेकिन फिलहाल स्थिति यह है कि लगभग १८१ कस्बों से निकलने वाला सीवेज में से केवल ११ बिलियन लीटर यानी सिर्फ ४५ प्रतिशत कचरे को ही साफ किया जा सका है । इस मामले मेंकानपुर शहर पर भी ध्यान दिया गया । क्योंकि कानपुर वह हिस्सा है जो उत्तरी गंगा को सबसे अधिक प्रदूषित करता है । यहां लगभग ३७ से ज्यादा तो सिर्फ चमड़ा साफ करने वाले कारखाने ही है ।

अब बिना जमीन के उगेगा हरा चारा
    खेती के लिए जमीन घटती जा रही है । ऐसे में पशुआें के लिए हरा चारा कहा से आए । इस समस्या का हल तलाश किया है आयुर्वेद रिसर्च फाउडेंशन ने । उन्होनें बिना जमीन के चारा उगाने की तकनीक विकसित की है ।
    आयुर्वेद रिसर्च फाउंडेशन की शोधकर्ता डॉ. दीिप्त् राय के अनुसार इससे कई फायदे हैं । इस तकनीक के परीक्षण कालेज ऑफ वेटरनरी साइंसेज उदयपुर और बीकानेर, आनंद स्थित अमूल समेत कई जगह चल रहे हैं । उन्होनें बताया कि इस मशीन की लागत अभी १८ लाख रूपये के  करीब है । मगर सहकारी समितियों के जरिये किसानों को उपलब्ध कराने में वे बेहद कम कीमत पर चारा पैदा कर सकते है ।
    रेगिस्तानी इलाकों में हरे चारे की समस्या दूर होगी । गर्मियों में हरा चारा मिल सकेगा । चारे के लिए कृषि भूमि क्का इस्तेमाल नहीं करना   पडेगा । इसे ज्यादा पोषक बनाना भी संभव है ।
    इस तकनीक में एक वाहननुमा मशीनी ढांचे में पांच परतों में ट्रे में चारा उगाया जाता है । जिस हिस्से में चारा उगाया जाता है, उसका तापमान मशीन से नियंत्रित होता है । लंबी ट्रे में पानी भरा जाता है जिसमें उर्वरक डाले जाते हैं ।

हमारे देश में मरते हैं सबसे ज्यादा नवजात
    दुनिया में सबसे ज्यादा नवजात बच्चें की मौत भारत में होती है । केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश में हर साल सात लाख ६० हजार बच्च्ें २८ दिन की उम्र से पहले ही दम तोड़ देते हैं ।
    यह संख्या दुनिया भर में नवजात बच्चें की होने वाली मौत का २७ प्रतिशत है । पिछले २४ साल के दौरान  नवजात बच्चें की मौत का आकड़ा लगभग आधा करने के बावजूद अभी इस दिशा में काफी कुछ किया जाना बाकी है । वर्ष १९९० में जहां देश भर में १३ लाख नवजात बच्चें की मौत हो जाती थी वहीं वर्ष २०१२ में यह संख्या घटकर सात लाख ६० हजार पर आ गई । इसके बावजूद यह संख्या दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है ।
    इनके अलावा उत्तरप्रदेश (३७), राजस्थान (३५), छत्तीसगढ़ (३१) और जम्मू-कश्मीर (३०) ऐसे राज्य है जहां नवजात मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है । वहीं केरल के अलावा तमिलनाडु (१५), दिल्ली (१६), पंजाब (१७) और महाराष्ट्र १८ ऐसे राज्य हैं जहां यह दर २० से कम है ।
    शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भी नवजात मृत्यु दर में बड़ा अंतर देखने को मिला है ।
    शहरी क्षेत्रों में यह दर १६ प्रति हजार है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह ३३ प्रति हजार है । संख्या के आधार पर सात लाख ६० हजार नवजात मौतों में उत्तरप्रदेश में २७ प्रतिशत, मध्यप्रदेश और बिहार में १०-१० प्रतिशत, राजस्थान में आठ प्रतिशत और आंध्रप्रदेश तथा गुजरात में पांच-पांच प्रतिशत मौंते होती हैं ।
    जन्म के पहले चार सप्तह के दौरान मरने वाले सात लाख ६० हजार बच्चें में ७२.९ प्रतिशत तो जन्म के पहले सप्तह में ही दम तोड़ देते हैं जबकि १३.५ प्रतिशत दूसरे सप्तह में और शेष १३.५ प्रतिशत तीसरे तथा चौथे सप्तह में काल के शिकार हो जाते है । देश में बाल मृत्यु (पांच साल तक के बच्चें की मौत) की दर ५२ प्रति हजार है । इसमें ५६ प्रतिशत (या २९ प्रति हजार) बच्च्े २८ दिन की उम्र से पहले ही दम तोड़ देते हैं ।
    आंकड़ों के मुताबिक देश के अलग-अलग राज्यों में नवजात मृत्युदर में काफी भिन्नता है । सबसे अच्छी स्थिति केरलमें है ।  जहां यह दर सात प्रति हजार है ।
दुनिया की सबसे बड़ी दूरबीन का निर्माण शुरू
    हवाई द्वीप में १.४७ अरब डॉलर में बनने वाली दुनिया की सबसे बड़ी दूरबीन का निर्माण शुरू हो गया है ।  मालूम हो इस अति महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय परियोजना का हिस्सा भारत भी है । परियोजना में अमेरिका, चीन, जापान और कनाड़ा अपना सहयोग दे रहे है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अमेरिकी दौरे दौरान विज्ञान के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए किए गए करारों में यह प्रोजेक्ट पहला क्रियान्वयन है । इसके बाद भारत को भी इसमें शामिल कर लिया गया    था । थर्टी मीटर टेलिस्कोप (टीएमटी) कोसोटियम प्रोेजेक्ट नामक इस योजना के ७ अक्टूबर को हवाई के मौना में हुए समारोह में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल ने अमेरिका, चीन, कनाड़ा, जापान के १०० खगोलविद व अन्य अधिकारियों के साथ शिरकत की थी ।
    भारतीय छोर पर इस प्राजेक्ट पर विज्ञान एवं प्रौघोगिक विभाग, परमाणु ऊर्जा विभाग संयुक्त रूप से काम करेगा । इसके साथ ही बैगलुरू की इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स नैनिताल की आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ओबसरवेशनल साइंसेस, पूणे स्थित इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स भी अपना सहयोग टीएमटी प्रोजेक्ट में देंगे ।
    इस परियोजन से वैज्ञानिक पृथ्वी से कोसो दूर बसी छोटी वस्तुआें का अध्ययन कर ब्रह्माण के विकास के प्रारंभिक दौरे की जानकारी जुटाने में सफल होंगे । विश्व स्तरीय, अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के इस समूह के महत्व को स्वीकारते हुए भारतीय कैबिनेट ने इस प्रोजेक्ट में २०१२ से २०२३ तक २१२ मीलियन डॉलर की भारतीय सहयोग को मंजूरी दी ।
    प्रोजेक्ट का संस्थापक सदस्य होने के नाते भारत का हिस्सा १० प्रतिशत रहेगा जबकि भारत के सहयोग का ७० प्रतिशत हिस्सा दुनिया की भलाई में इस्तेमाल होगा । टीएमटी पर भारतीय वैज्ञानिक हर साल २०-३० रातों का अवलोकन कर सकेंगे ।
गंगा में प्रदूषण के कारणों को खोजेंगे 
    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने की महात्वाकांक्षी योजना को साकार करने के लिए सरकार २५ विशेष टीमों का गठन करेगी । यह विशेष टीम गंगा में प्रदूषण के स्त्रोतों का पता लगाएगी और उसके बाद अपेक्षित कार्यवाही के साथ ही उन पर अंकुश लगाने का काम करेगी । जल संसाधन मंत्रालय विश्ेाष टीम का खाका तैयार कर रहा है । यह दल प्रदूषण की पहचान करेगा और उसे रोकने के उपाय सुझाएगा ।
वनस्पति जगत
फ्लोरीजेन : फूल खिलाने का संदेश
डॉ. किशोर पंवार

    पौधों में फूल खिलना कवियों के लिए सुन्दरता का प्रतीक है, वहीं वनस्पति वैज्ञानिकों के लिए कौतूहल का विषय है । कैसे पता चलता है कि किसी पौधे को कि अब फूल खिलाना है ? प्लांट सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित यान ए.डी. जीवार्ट के गहन आलेख से आभास होता है कि पिछली लगभग पूरी सदी में कई वैज्ञानिकों द्वारा किए गए प्रयोगों ने अब शायद इस सवाल का तसल्लीबख्श जवाब दे दिया है और कई नए सवाल भी खड़े कर दिए    हैं ।
    पौधों में फूल खिलना हमेशा से ही एक रहस्य और रोमांच भरी घटना रही है । जिन पत्तियों की कोख से कुछ दिन पूर्व तक नई शाखाएं निकल रही थी । वहीं से अचानक कलियां बनने लगती है । रंग-बिरंगे फूल खिलने लगते हैं और उन पर तितलियां, भंवरे, पक्षी मंडराने लगते हैं । 
     इन फूलोंकी सुन्दरता एवं इनके अचानक प्रकट होने में वैज्ञानिकों की हमेशा से ही रूचि रही है । फूलों को लेकर जुलियस सेक्स (१८६५) को इस विचार का जनक माना जा सकता है कि पौधों में एक हारमोन होता है जो उनमें फूल खिलाता है । आंशिक रूप से अंधेरे में रखे गए ट्रोपीओलम मेजस और आयपोमिया परपूरिया के पौधों पर प्रयोग कर उन्होनें निष्कर्ष निकाला था कि धूप में रखे गए पौधों की पत्तियां फूल बनाने वाले पदार्थ बनाती है । ये पदार्थ बहुत ही सूक्ष्म मात्रा में बनते हैं और अंधेरे में रखी गई शाखाआें तक पहुंचकर फूल बनाने का संकेत देते हैं ।
    हालांकि फूल बनाने वाले पदार्थ के बारे में ज्यादा दमदार प्रमाण फोटो पीरियॉडिज्म (यानी प्रकाश के साथ आवर्ती परिवर्तन) की खोज के बाद ही संभव हो पाया । फोटो-पीरियॉडिज्म की खोज गार्नर और एलार्ड ने १९२० में की । उन्होनें बताया कि पौधों को फूलने के लिए तैयार होने में दिन और रात की एक सापेक्ष लम्बाई जरूरी होती है । फोटो पीरियॉडिज्म दर्शाने वाले पौधों के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह पता चली है कि उनमें दिन और रात की अवधि का लेखा-जोखा तो पत्तियों द्वारा रखा जाता है जबकि फूल शाखाआें के सिरों पर बनते हैं । अर्थात पत्ती से तने के शीर्ष तक एक संदेश पहुंचता है । लिहाजा इस संकेत को पुष्पन-हारमोन कहा जा सकता है क्योंकि हारमोन भी एक स्थान पर बनते हैं और दूसरे सथान पर जाकर कार्य करते हैं । इस बात को कलम लगाने के प्रयोगों से भी बल मिला जिसमें एक फूल रहे पौधे की कलम एक ऐसे पौधे में लगाई गई जिसमें फूल नहीं आ रहे थे, तो वह भी फूलने लगा । इससे स्पष्ट है कि कोई एक ऐसा पदार्थ है जो फूलने वाले पौधे से दूसरे पौधे में जाता है और उसे फूलने का संदेश देता है । चेलाख्यान नामक वैज्ञानिक ने पहली बार इस पदार्थ के लिए फ्लोरीजेन शब्द का उपयोग किया था और बताया था कि इसकी भूमिका नियमन की है ।
    मिलती-जुलती मगर अलग-अलग फोटोपीरियॉडिक चक्र वाली प्रजातियों पर किए गए ग्राफ्िटंग प्रयोगों से पता चलता है कि एक ही पदार्थ जो विभिन्न प्रजातियों में पुष्पन का नियमन कर सकता है । जैसे क्रेसुलेसी कुल में पुष्पन के लिए छोटे दिन की दरकार वाले पौधे (शॉर्ट डे प्लांट-डऊझ), लम्बे दिन चाहने वाले पौधे (लॉन्ग डे प्लांट - ङऊझ) और ऐसे पौधे भी हैं जिन्हें फूलनेके लिए शुरूआत में लम्बे दिन और बाद में छोटे दिन (ङडऊझ) की जरूरत होती है । इन सबकी आपस में कलम लगती है और एक पौधे का पुष्प उद्दीपन दूसरे से काम कर सकता    है ।
    इन प्रयोगों से यह पता चलता है कि फ्लोरीजेन सार्वभौमिक है । कम से कम एक ही प्रकार, कुल या वंश के पौधों में जिनकी फोटोपीरियड जरूरतें भले ही अलग-अलग हो । जैसे एक लांग डे प्लांट को पूरी प्रकाश अवधि मिलने पर वह फूलना शुरू कर देता है । ऐसे पौधे की टहनी काट कर एक शॉर्ट डे प्लांट पर लगा देते हैं तो वह भी फूलना शुरू कर देता है ।
    तमाम कोशिशों के बाद भी फ्लोरीजने को रासायनिक रूप से प्राप्त् करने की कोशिशें नाकाम रही हैं । अत: अब तक फ्लोरीजेन परिकल्पना कमजोर पड़ गई । इसके विरोधी मानने लगे कि पौधों में पुष्पन कुछ ज्ञात हारमोन और कुछ अन्य पदार्थो के विशिष्ट अनुपात के कारण होता है ।
    जब पौधों में पुष्पन की प्रक्रियाको समझने के कार्यिकी एवं जैव रासायनिक तरीकों की सीमा सी आ गई थी तब आणविक आनुवांशिकी का पदार्पण हुआ जिसने समस्या के समाधान की एक नई राह दिखाई । इसमें उत्परिवर्तित एरोबिडॉप्सिस पौधों का उपयोग होता है और बात जीन्स के स्तर पर होती है ।
    प्रकाश अवधि में जुड़े दो जीन्स इस संदर्भ में सामने आए हैं । एरेबिडॉप्सिस एक लॉन्ग डे प्लांट    है । इसके उत्परिवर्तित रूप जल्दी या देर से फूल देते हैं विभिन्न पौधों की तुलना के आधार पर पुष्पन को नियंत्रित करने वाले चार रास्ते खोजे गए हैं - प्रकाश अवधि, तापमान नियंत्रण, स्वायत्त और जिबरेलिन आधारित । एरोबिडॉप्सिस में दो जीन्स पुष्पन क्रिया के लिए जिम्मेदार पाए गए हैं - उज एवं  ऋढ । इनसे से उज नामक जीन एक प्रोटीन का निर्माण करता है । उज द्वारा बनाया गया प्रोटीन ऋढ को प्रेरित करता है कि वह आरएएफ-काइनेज नामक एजाइम की क्रिया को बाधित करने वाला प्रोटीन बनाए।
    इनमें से कोई भी जीन तने के शीर्ष पर अभिव्यक्त नहीं होता । तने के शीर्ष पर विभाजित होती कोशिकाआें (मेरिस्टेम) में उज उत्प्रेरक की अभिव्यक्ति से फूल नहीं खिलते । परन्तु यदि शॉर्ट डे प्लांट के मेरिस्टेम में ऋढ ज्यादा अभिव्यक्त हो जाए तो वह फूलने की क्रिया को जल्दी शुरू कर देता है । पौधों की फ्लोएम कोशिकाआें में उज की अभिव्यक्ति एक चलित संदेश पैदा करने के लिए पर्याप्त् पाई गई है । यह चलित संदेश या तो ऋढ द्वारा बनाया गया प्रोटीन स्वयं है या फिर ऋढ उस पदार्थ के संश्लेषण का नियंत्रित करता है जो फूलने का संदेश देता है।
    पौधों में फूल खिलने की प्रभावित करने वाला दूसरा कारक है तापक्रम । कुछ पौधे ऐसे हैं जिनको जब तक बहुत कम तापमान नहीं मिलता वे नहीं फूलते । सेब और चेरी ऐसे ही पौधे हैं । यदि फूलने के लिए कोई हारमोन है तो वह सभी पौधों में होना चाहिए चाहे वे प्रकाश अवधि से प्रभावित होते हो या फिर कम तापक्रम से । ऐसे पौधों में ऋङउ नामक जीन ज्यादा अभिव्यक्त होता है और उसके द्वारा बनाया गया प्रोटीन ऋढ जीन की अभिव्यक्ति को रोक देता है । लम्बे समय तक कम तापमान ऋङउ जीन को दबा देता है और इस तरह ऋढ जीन की अभिव्यक्ति पुन: शुरू हो जाती है जो फूल खिलने के लिए उद्दीपन का काम करता है ।
    यह उम्मीद की जाती थी कि कार्यिकी जैव रसायन और आणविक आनुवांशिकी मिल-जुलकर फूल खिलाने की क्रिया का एक एकीकृत सिद्धांत प्रस्तुत करेंगे । और ऐसा हुआ भी । फ्लोरिजेन के पक्ष में पहली बात तो यही रही कि उज द्वारा निर्मित प्रोटीन ऋढ की क्रिया शुरू करवाता है तो एक चलित संदेशवाहक रसायन पैदा करता है । हुआंग और साथियों ने चलित संदेश के रूप में ऋढ द्वारा निर्मित आरएनए (ऋढाठछअ) की भूमिका की संभावना पर प्रयोग किए हैं । यह पत्ती में बनता है और वहां से तने के शीर्ष पर पहुंचता है और उसकी आमद फूल बनने की शुरूआत से मेल खाती है । इस तरह ऋढाठछअ फ्लोरीजन  की परिभाषा पर फिट बैठता है । यह भी संभव है कि ऋढाठछअ और उससे बना ऋढ प्रोटीन दोनोंपत्ती      से तने के शीर्ष तक पहुंचकर फूल खिलाने का उद्दीपन बनते हों ।
    कुछ पौधों में फ्लोरीजने का उत्पादन प्रेरक प्रकाश अवधि हटा लिए जाने के बाद तक चलता रहता है । ऐसा लाल पेरिला में देखा गया है जो एक शॉर्ट डे प्लांट है ।  ये पौधे प्रकाश अवधि को छोटे दिन से बदलकर लम्बे दिन की करने के तीन महीने बाद तक प्रभावी बने रहते हैं ।अर्थात् उनकी कलम लम्बे दिन वाले पौधों पर लगा दी जाए तो वे फूलने लगते है । गोखरू तथा एक प्रकार के पत्थर चट्टा में देखा गया है कि इन पर कलम लगाने के बाद इनके तने के शीर्ष खुद अन्य पौधों में पुष्पन प्रेरित करने में सक्षम हो जाते है । इसे परोक्ष प्रेरण कहते हैं । इससे पता चलता है कि फ्लोरीजेन एक बार बन जाए तो खुद को बार-बार बना सकता है ।
    फ्लोरीजने फ्लोएम में अन्य पदार्थो के साथ गति करता है । एरोबिडॉप्सिस में ऋढाठछअ की गति १.२ से ३.५ मि.मी. प्रति घंटा नापी गई है । यह एक पौधे फार्विटिस में नापी गई फ्लोरिजेन की गति के लगभग बराबर है । तुलना के लिए देखे कि शर्करा की गति ५०-१०० सेंटीमीटर प्रति घंटा है ।
    ऋढाठछअ और संबंधित प्रोटीन का फ्लोएम के माध्यम से आवागमन अब एक स्थापित सत्य   है । ऋढाठछअ पत्तियोंमें फ्लोएम की सखी कोशिकाआें में बतना है और फिर वहां से चालनी कोशिकाआें से होता हुआ तने के शीर्ष पर पहुंचकर पुष्पन का प्रेरण करता है । एक बार बनने के बाद ऋढाठछअस्वयं नियंत्रित तरीके से बार-बार बनता रहता है और उसकी मात्रा बढ़ती रहती है ।
    फ्लोरीजेन परिकल्पना का मूल भाव यह है कि यह पुष्पन हारमोन सभी पौधों के लिए एक ही है, चाहे वे लम्बे दिन, छोटे दिन या दिन निरपेक्ष हो । कलम लगाने के प्रयोगों से तो यही पता चलता है । यहां तक कि कलम दूसरी प्रजाति के पौधों पर लगाएं तो उनमें भी फूल आने लगते हैं । इससे तो लगता है कि शॉर्ट डे प्लांट्स और लॉन्ग डे प्लांट्स में मुख्य अंतर उद्दीपक पदार्थ का नहीं बल्कि यह है कि इस उद्दीपन का जवाब देने वाले जीन्स कौन से हैं और कैसे कार्य करते हैं ।
    अभी तक यह माना जाता रहा है कि फ्लोरीजेन एक ख्याली हारमोन है । परन्तु हाल के कुछ वर्षो में हुए शोध से यह स्पष्ट हो गया है कि यह ख्याली पुलाव नहीं, एक ठोस वास्तविकता है ।
    २००७ में प्रो. शिमाटो ने पाया कि फ्लोरीजने एक प्रोटीन है जिसे कव३र के नाम से जाना जाता  है । शिमाटो एवं अन्य वैज्ञानिकों में देखा कि फ्लोरीजेन कव३र एक प्रोटीन से जुड़ता है और यह प्रोटीन बहुत से पौधों में खोजा जा चुका है । यह ऋढ से जुड़कर फ्लोरीजेन एक्टीवेशन काम्पलेक्स बनाता है । तो चेलाख्यान ने जो सपना १९३६ में देखा था वह २०११ में शिमोटो ने पूरा किया ।
विशेष लेख
भूमि हड़पकर खाघान्न सुरक्षा
विनीता विश्वनाथन

    विश्व के कई रईस देशोंके लिए खाघ सुरक्षा एक बड़ी समस्या है जो आने वाले सालों में चुनौती बनी रहेगी । कुछ अन्य देश भयंकर आर्थिक और खाद्य संकट से गुजर रहे हैं । इन परिस्थितियों में एक प्रवृत्ति उभरती नजर आ रही है । दूसरे देशों की तुलना में रईस और साथ में खाद्य असुरक्षित देशों की सरकार व निजी कम्पनियों द्वारा गरीब देशों में बड़े पैमाने पर कृषि जमीन को खरीदना या पट्टा लेना । यह इतना प्रचलित हो गया है कि इसके लिए एक नाम गढ़ा गया है - लैंड ग्रैब ।
    लैंड ग्रैब का मतलब है कि जहां ज्यादातर छोटी जमीन पर किसान खाद्य फसल उंगा रहे थे, वहां अब बड़ी-बड़ी कम्पनियां और समूह पैठ जमाने लगे हैं और सीमित खाद्य संसाधन उनके हाथों में जा रहा है । इसके कुछ फायदे भी हैं और कुछ खतरे भी । लेकिन इस बहस में उतरने के लिए यह जानना जरूरी है कि आखिर लैंड ग्रैब वाली जमीन पर खेती करके खाद्य सुरक्षा का हल निकल सकता है या नहीं । 
     ऐसा एक विश्लेषण इटली का मारिया क्रिस्टीना रूली और अमेरिका के पाओलो ड-ओरिको ने मिलकर किया है जो हाल ही में एन्वायमेंटल रिसर्च लेटर्स पत्रिका में छपा है ।
    इन दोनों ने हिसाब लगाया है कि सन २००० से लगभग ३.१ करोड़ हेक्टर कृषि जमीन विश्व भर में विदेशी निवेशकों ने खरीदी है । ज्यादातर सौदे २००८ के बाद ही हुए हैं और अफ्रीका और एशिया के जिन देशों में ये जमीनें प्राप्त् की गई हैं, वे विश्व के सबसे गरीब, भूखे और कुपोषित देश हैं ।
    जिस जमीन की यहां बात हो रही है वह २०० हैक्टर से ज्यादा क्षेत्रफल वाली जमीनें है । इनके बारे में खरीददारों का कहना है कि वे इसका इस्तेमाल खेती-बाडी के लिए ही करेंगे । अलग-अलग देशों में हुए और हो रहे सौदे मेजबान सरकारों की सहमति से, और कहींं-कहीं उनकी मदद से हो रहे है ।
    और यह सब कृषि में बेहतर निवेश के नाम पर हो रहा है । ये लैंड ग्रैब डील्स किसके निरीक्षण में हो रही है, क्या कमिटमेंट है खरीददारों के कि वही फसलें उगाएंगे जो पहले उस जमीन पर थीं, क्या गारंटी है कि ज्यादा मुनाफे के लिए गैर-खाद्य फसल नहीं उगाएंगे ? इन सवालों के जवाब मुश्किल हो मगर आगे बढ़ने से पहले जरूरी हैं ।
    शोधकर्ताआें को यह डॉटा लैंड-मेट्रिक्स वेबसाइट से मिला है जो अंतर्राष्ट्रीय और देशी जमीन के सौदों की सूचना रखता है । इस वेबसाइट पर मीडिया में प्रकाशित सौदे शामिल हैं और अन्य स्त्रोतों से भी डाटा लिया गया है । साथ में कोई भी, कहीं भी हो रहे सौदों के बारे में सूचना भेज सकता है और वेबसाइट के शोधकर्ताआें उसकी छानबीन करते   हैं । हो सकता है कि उनके पास सारे सौदों की सूची न हो - उनका डाटा अधूरा हो सकता है । रूली और ड-ओरिको ने अपने विश्लेषण में सिर्फ उन सौदों को शामिल किया है जो पूरे हो चुके हैं और जिनकी जमीन के क्षेत्रफल की जानकारी पक्की है । फिर उन्होनें अनुमान लगाया कि अब तक लैंड-ग्रैब द्वारा खरीदी हुई जमीन पर लगभग १९ से ५५ करोड़ लोगों के लिए खाद्य पदार्थ उगाया जा सकता  है । अगर जमीन पर उच्च्तम फसल हो तो ५५ करोड़ लोगों के लिए खाघान्न पैदा हो सकता है और अगर सन् २००० के स्तर उपर उपज हो तो १९ करोड़ लोगों के पोषण का इन्तजाम हो सकता है । १९ या ५५ करोड़, यह तो बढ़िया खबर है कि विश्व की खाद्य असुरक्षा का काफी हद तक हल हो सकता है ।
    यह तो स्पष्ट है कि जिन देशों में ऐसे बड़े सौदे हो रहे हैं वहां कृषि और सशक्त बनाई जा सकती है। छोटे खेतों में फसल उगाने वाले गरीब किसान पैसों की कमी के कारण उपज बढ़ाने के तरीकों को नहीं अपना पाते हैं । नतीजा यह हैं  कि उनके खेतों में फसल उच्च्तम उपज से काफी कम होती है - वर्तमान में यथेष्ट से कम उपज एशिया और अफ्रीका के देशों में होती है । यानी उपज बढ़ाने की संभावना तो है । लेकिन यह उपज स्थानीय लोगों के पास पहुंचेगी, यह कहना मुश्किल है ।
    निवेशक अपने मुनाफे का ही सोचते है और फसल वहां बेचते हैं जहां मुनाफा सबसे अधिक हो । इसमें कोई बुरी बात न होती अगर स्थानीय लोगों का नुकसान न    होता ।  दिक्कत यह है कि जिन देशों में, जिन इलाकों में ऐसे लैंड-ग्रैब  हुए हैं, वहां के लोग गरीबी और भूख से त्रस्त है । जमीन बेचकर उनका अल्पकालिक फायदा तो हुआ होगा लेकिन उनकी दीर्घकालीन खाद्य असुरक्षा तो और भी गंभीर हो गई है।
    मसलन कतर देश की सिर्फ १ प्रतिशत जमीन उपजाऊ है । तो कतर की सरकार ने अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए केन्या, सूडान, वियतनाम और कम्बोडिया में ४० हजार हेक्टर जमीन तेल, गेहूं, धान और मक्का उगाने के लिए खरीदी है । जाहिर है कतर के निवासियों के लिए इन्तजाम हो गया है, लेकिन सुडान वगैरह के निवासियों का क्या    होगा ? कतर द्वारा सूडान में पैदा फसल के स्थानीय लोगों तक पहुंचने की संभावना कम ही है ।
    फिर जमीन अक्सर हजारों छोटे व निर्वाह स्तर की खेती करने वाले किसानों से खरीदी गई हैं । अगर यही हाल रहा तो छोटे किसानों के लिए भविष्य में कम जगह    होगी । तो समस्या सिर्फ जमीन या उपज के भविष्य की नहीं है, किसानों के भविष्य की भी है ।
    इससे जुड़ा एक और मसला है न्यायपूर्ण सौदे का । कुछ देशों में देशी सरकारें ऐसे सौदे करवाने में विदेशियों की मदद इस तरह से कर रही हैं कि किसानों से जमीन छुड़वाई जा रही है, बल प्रयोग हो रहा है ताकि कम दामों पर किसान जमीन बेचने पर विवश हो जाएं । कई बार किसानों को पुनर्स्थापन में मदद भी नहीं मिलती ।
    इन सब समस्याआें को देखते हुए देशी सरकारों और विदेशी खरीददारों की नीयत पर शंका होती है । अगर लोगों के पास पूरी जानकारी होती, ऐसे सौदों के निहितार्थो की समझ होती तो क्या पता, जमीन बेचने का निर्णय लेते ही नहीं । या जहां पर लोगों की पूरी सहमति है, वहां भी सरकार का तो दूरदर्शी होना चाहिए - आखिर उपनिवेश काल के बुरे प्रभावों के बारे में इतिहास से तो हम सीख ही सकते हैं । उदाहरण के लिए पाकिस्तान में १० लाख हैक्टर कृषि जमीन को विदेशी निवेशकों के हवाले कर दिया गया है । पाकिस्तान की आधी आबादी खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही है । ऐसे में, पाकिस्तान की आधी आबादी खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही है । ऐसे में, पाकिस्तान सरकार का निवेश आकर्षित करने के लिए यह निर्णय उनके लोगोंके लिए नुकसानदेह हो सकता है । मगर पाकिस्तान सरकार आगे भी ऐसा करने की सोच रही है।
    तो भारत की क्या भूमिका  है ? लैंड मेट्रिक्स वेबसाइट पर दिए गए डाटा के मुताबिक विदेशी निवेशकोंका हमारे देश में दखल अभी तक कम है । लेकिन गौरतलब है कि भारतीय कंपनियां दूसरे देशों में कृषि जमीन खरीद रही हैं, लैंड-ग्रैब  कर रही हैं । उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक हमारी कंपनियों ने मोजाम्बिक, मैडागास्कर, मलेशिया, इंडोनेशिया, इथियोपिया और सूडान समेत  १७ देशों में ९ लाख हैक्टर से ज्यादा जमीन  खरीदी है । इसमें से ९ देशों में भारतीय कंपनियों  ने खाद्य फसल के लिए २.८८ लाख हैक्टर जमीन खरीदी है । इथियोपिया में तो भारतीय कंपनियों ने १ लाख हैक्टर से ज्यादा खाद्य फसल की जमीन खरीदी है । अन्य किस्म की जमीन को जोड़ दें तो कुल मिलाकर इन कंपनियों ने ४ लाख हैक्टर से भी ज्यादा जमीन खरीदी है या फिर लम्बे समय के लिए पट्टा लिया है । तो लैंड-ग्रैब के मामले में हम सिर्फ पीड़ित नहीं है, हम समस्या का हिस्सा भी हैं ।
    कुल मिलाकर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि अगर हम खाद्य सुरक्षा के लिए उपज बढ़ाना चाहते हैं तो कृषि में अधिक निवेश की जरूरत है । लेकिन निवेश का क्या सिर्फ यही तरीका है लैंड-ग्रैब ? क्या लैंड-ग्रैब के नियम सिर्फ खरीददारों और अल्पकालीन आर्थिक फायदों की बजाय स्थानीय लोगों के दीर्घकालीन हितों के अनुरूप बनाए जा सकते हैं ?
कविता
व्न्ृक्ष हमारे हिय के
श्रीमती रजनी सिंह

ऊँची एेंड़ औ रचना प्रभ लगते बहुत अनूठे ।
तने खड़े सैनिक बन घर के ये दो वृक्ष पाम के । ।
कभी न लगते फूल न देते फल खट्टे या मीठे ।
पर हैं ये दो वृक्ष शान-सम्मान हमारे घर के ।।
हर कोई का ध्यान खींचते  खींच न चुप रह जाते ।
शब्दों के सुरभित पुष्पों से सींचे औ सराहे जाते ।।
रेगिस्तानी उपज वंश वंशज इनके कम जल पीते ।
इसीलिए ये अमर ज्योति बन जन-जन मन जीत ।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर सुनावत ।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर कहावत ।।
असरहीन हो गई देख छटा पाम की न्यारी ।
चार पंाच पत्ती कलात्मक तना लगे सन्यासी भारी ।।
त्याग-तपस्या है अजोड़ इंद्रिय वशीमंत्र चाबी थामी ।
सागर की गहराई नापें अंतरिक्ष सीमा व्यापी ।।
तने खड़े सैनिक बन गृह के ये दो वृक्ष पाम के ।
ये दो वृक्ष शान-सम्मान-मान हमारे गृह के ।।
ज्ञान विज्ञान
बुखार और बीमारी
    वैसे तो किसी मरीज का शरीर गर्म महसूस होना चिन्ता का विषय रहता है मगर तापमान नापकर उसका रिकॉर्ड रखना और उसका संबंध विशिष्ट रोगों से देख पाना उन्नीसवीं सदी में ही शुरू हुआ है ।
    बताते हैं कि गैलीलियो ने पहला तापमापी १५९२ में बनाया था मगर इसमें तापमान का कोई पैमाना नहीं था और इसमें वायुमण्डलीय दाब का बहुत असर पड़ता था । पहला पैमाने वाला तापमापी सेंटोरियो नामक इतालवी वैज्ञानिक ने १६२५ में बनाया था मगर यह काफी बड़ा सा उपकरण था और इसका उपयोग करना आसान काम नहीं था । फिर भी इसकी मदद से मरीज का तापमान लिया जा सकता था । अलबत्ता, बात तब बनी जब फैरनहाइट ने तापमापी में पारे का उपयोग किया । इसके चलते एक तो इस तापमापी की साइज ठीक-ठाक हो गई और तापमान नापने में समय भी कम लगने लगा । 
     मगर इतना सब हो जाने के बाद भी चिकित्सकों ने तापमापी को आसानी से अपनाया नहीं । इसे एक आम डॉक्टरी औजार बनाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े थे । जैसे हर्मैन बोरहावे ने अपने छात्रों के साथ मिलकर सत्रहवीं सदी के अंतिम वर्षो में तापमापी का न सिर्फ उपयोग करना शुरू किया बल्कि इसकी मदद से उन्होनें एक सामान्य व्यक्ति के शरीर के तापमान में दैनिक उतार-चढ़ाव का रिकॉर्ड रखा और यह भी दर्शाया कि जब कंपकंपी छूटती है तो तापमान भी बढ़ता है । इसके अलावा वे यह भी देख पाए थे कि तापमान बढ़ने पर नब्ज की गति भी बढ़ जाती है । उनका कहना था कि तापमान रोग की निगरानी का अच्छा तरीका है मगर बाकी लोग नहीं माने ।
    इस संदर्भ में जर्मन चिकित्सक कार्ल वुंडरलिश की पुस्तक का निर्णायक महत्व रहा । उन्होनें १८६८ में २५००० मरीजों के कोई १० लाख तापमान रिकॉर्डिग के आधार पर यह दर्शाया कि एक सामान्य व्यक्ति का तापमान ३६.३ से ३७.५ डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है । इससे कम या ज्यादा तापमान बीमारी का संकेत है । उन्होनें ये सारे तापमान जिस तापमापी से रिकॉर्ड किए थे वह करीब १ फुट का था और उस बगल में रखकर तापमान नापने में १० मिनट से ज्यादा लगते थे । वुंडरलिश ने अपनी पुस्तक ऑन दी टेम्परेचर इन डिसीज में शरीर के तापमान  और बीमारियों के संबंध पर काफी विस्तार से लिखा था । लगभग इसी समय १८६६ में थॉमस एल्बट ने तापमापी को काट-छाटकर ६ इंच का बना दिया । इसके बाद तो थर्मोमीटर लोकप्रिय हुआ और अब तो इसका उपयोग विश्वव्यापी है ।

गेहूं के जीनोम का खुलासा और उपज वृद्धि
    गेहूं एक महत्वपूर्ण फसल   हैं । यह दुनिया की ३० प्रतिशत आबादी का पेट भरती है और मनुष्यों को कुल कैलोरी खपत में से २० प्रतिशत प्रदान करती है । बढ़ती आबादी के मद्देनजर गेहूं की उपज बढ़ाना जरूरी है । इसके अलावा, बदलती जलवायु के अन्तर्गत इसकी साज-संभाल पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है । गेहूं का जीनोम (यानी गेहूं में उपस्थित समस्त जीन्स का समूह) का खुलासा होने से इन दोनों उद्देश्यों में मदद मिलेगी ।
    गेहूं का जीनोम पता करने में कई दिक्कतें रही हैं । सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वर्तमान गेहूं की फसल कई बार कई प्रजातियों के संकरण से बनी है । परिणाम यह है कि आज गेहूं का जीनोम तीन स्पष्ट: अलग-अलग उप-जीनोम से मिलकर बना है । प्रत्येक उप-जीनोम में ७-७ जोड़ी गुणसूत्र हैं । यानी गेहूं का जीनोम में कुल ४२ गुणसूत्र हैं । जब विश्लेषण किया जाता है तो बताना मुश्किल होता है कि कौन से जीन्स किस उप-जीनोम के हिस्से   हैं । कई बार अलग-अलग उप-जीनोम में एक-से-जीन्स होते हैं । 
      एक और दिक्कत यह है कि उपरोक्त ४२ गुणसूत्रों में डीएनए की लम्बी-लम्बी श्रृंखलाआें की पुनरावृत्ति होती है । इस वजह से डीएनए के अलग-अलग टुकड़ों को जोड़कर डीएनए के क्रम का चित्र बनाना मुश्किल होता है ।
    वैसे भी पहले-पहल किसी पौधे का जीनोम सन २००० में पता किया गया था । यह पौधा था एरेबिडोप्सिस थेलियाना । मगर गेहूं का जीनोम में इसके मुकाबले कहीं ज्यादा जीन्स हैं । एक अनुमान के मुताबिक गेहूं का जीनोम में १७ अरब क्षार जोड़ियां हैं और करीब १,२४,००० जीन्स हैं ।
    अब इंटरनेशनल व्हीट जीनोम सीक्वेंसिंग कंसॉर्शियम ने गेहूं के २१ जोड़ी गुणसूत्रों में से एक गुणसूत्र (३बी) का क्षार क्रम प्रकाशित किया है । अभी भी २० जोड़ियों का विवरण बाकी है ।
    मगर इस बात पर सभी सहमत हैं कि गेहूं का जीनोम हाथ में आ जाए, तो इसके संवर्धन में बहुत मदद मिलेगी । इसके आधार पर ऐसे जेनेटिक चिन्हों की पहचान हो सकेगी जो विभिन्न गुणों का निर्धारण करते हैं । जैसे बीमारियों के खिलाफ प्रतिरोध या दाने की गुणवत्ता वगैरह गुणों को चुना जा सकेगा । इसके अलावा उन जीन्स को भी पहचाना जा सकेगा जो पौधे की वृद्धि के विभिन्न पहलुआें का नियमन करते हैं ।
    एक बात यह भी देखी गई है कि एक-से जीन्स अलग-अलग गुणसूत्रों पर हो तो वे अलग-अलग ढंग से कार्य करते हैं । यह सूचना भी काफी उपयोगी साबित होगी ।

भुखमरी का पीढ़ियों पर असर
    मां को मिलने वाले भोजन का असर उसकी संतानों पर होता  है । एक प्रयोग में देखा गया था कि जिन चुहियाआें को गर्भावस्था के दौरान भूखा रखा जाता है उनके बच्चें में डायबिटीज होने की संभावना ज्यादा होती है । और तो और, इन बच्चें के बच्चें को भी बीमारी का जोखिम ज्यादा रहता है । अब एक और अध्ययन में इस निष्कर्ष की पुष्टि की है और बताया कि ऐसा क्यों होता है ।
    पीढ़ी दर पीढ़ी आनुवंशिकता के दावे सदा से विवादों में रहे हैं । कई वैज्ञानिकों का दावा है कि भोजन, फफूंदनाशी रसायन और यहां तक कि डर का असर भी अगली पीढ़ी में जाता है । इसके लिए वे जिस चीज को जिम्मेदार ठहराते हैं उसे एपिजेनेटिक बदलाव  कहा जाता है । 
       एपिजेनेटिक बदलाव का मतलब यह होता है कि आपके डीएनए की श्रृंखला के क्रम में तो कोई परिवर्तन नहीं होता मगर उस पर जगह-जगह कुछ रसायन जुड़ जाते हैं जिसकी वजह से कई जीन्स की अभिव्यक्ति प्रभावित होती है । कई वैज्ञानिक मानते हैं कि किसी व्यक्ति के जीवनकाल में होने वाले ये एपिजेनेटिक बदलाव उसी के साथ खत्म हो जाते हैं, अगली पीढ़ी तक नहीं पहुंचते । मगर साइन्स पत्रिका में एनी फर्ग्यूसन स्मिथ और उनके साथियों के शोध पत्र में बताया गया है कि ऐसे एपिजेनेटिक बदलाव अगली पीढ़ियों में पहुंचते है ।
    फर्ग्यूसन-स्मिथ के दल ने चूहों की ऐसी किस्म ली जो गर्भावस्था के अंतिम दौर मेंे सामान्य से ५० प्रतिशत कम कैलोरी मिलने पर भी जीवित रहते हैं । इन चुहियाआें ने जिन बच्चें को जन्म दिया है वे कम वजन के थे मगर आगे चलकर इनमें डायबिटीज जैसे लक्षण पैदा हो गए, जैसे ग्लूकोज असहनशी-लता । यह भी देखा कि इस दूसरी पीढ़ी के नर चूहों के बच्च्े हुए तो उनमें भी डायबिटीज के लक्षण नजर आए जबकि इन चूहों को सामान्य भोजन मिला था ।
    फर्ग्यूसन-स्मिथ ने भुखमरी से पीड़ित मांआें की नर संतानों के शुक्राणुआें की तुलना कुछ सामान्य नर चूहों के शुक्राणुआें से की । वे यह देखना चाहती थी कि क्या इन दो समूहों में डीएनए में एपिजेनेटिक परिवर्तन अलग-अलग स्थानों पर हुआ है । गौरतलब है कि नर भू्रण में शुक्राणुआें का निर्माण करने वाली जर्म कोशिकाएं उसी अवधि में बनती हैं जब इनकी मां को भूखा रखा गया था ।
सामाजिक पर्यावरण
भ्रष्टाचार में फंसे शौचालय
अमिताभ पाण्डेय

    मध्यप्रदेश में स्वच्छता के लिए चलाये गये अभियान को भ्रष्टाचार की बुरी नजर लग गई  है । इसका परिणाम यह हुआ है कि स्वच्छता के लिए स्वीकृत की गई राशि भ्रष्ट कर्मचारी हजम कर रहे  हंै । निर्मल भारत अभियान से लेकर स्वच्छता अभियान तक के नाम पर बड़ी रकम केन्द्र और राज्य शासन की ओर से स्वीकृत की गई थी । परन्तु गॉव शहर के गली मुहल्लों से लेकर पाठ शाला तक हर तरफ आज भी पर्याप्त साफ सफाई नजर नहीं आ रही है ।
 

    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का स्वच्छता अभियान २ अक्टूबर के दिन देश भर में खूब चर्चित हुआ लेकिन अगले ही दिन से गंदगी व कचरा पहले ही तरह देखा जा रहा है । साफ सफाई को लेकर जो सक्रियता उस दिन को देखी गई वह अगले ही दिन से गायब सी हो गई । राज्य के  अनेक विद्यालयों में यह भी देखने में आया है कि साफ सफाई बनाये रखने एवं शौचालय निर्माण के लिए जो पैसा सरकार की ओर से स्वीकृत किया गया, उसे शिक्षक, इंजीनियर और अन्य जिम्मेदार कर्मचारी अधिकारी मिल बांटकर खा गये ।
    शौचालय का निर्माण या तो हुआ ही नहीं अथवा हुआ तो ऐसा जिसका उपयोग करना ही विद्यार्थियों के लिए असंभव हो रहा है । मध्यप्रदेश में स्वच्छता अभियान के  लिए बड़ी रकम समग्र स्वच्छता अभियान के अन्तर्गत स्वीकृत की गई । सभी विद्यालयों में बालक बालिकाओं के लिए अलग अलग शौचालय बनाने के लिए प्रत्येक शाला को बजट आवंटित कर दिया गया । इसके बाद भी राज्य के २३ प्रतिशत से ज्यादा स्कूलों में अभी शौचालय की समस्या बनी हुई है ।
    स्वच्छता के नाम पर स्वीकृत राशि में होेने वाली गड़बड़ का खुलासा हाल ही में एकपाठशाला के प्रधानाध्यापक ने किया है । उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों के सामने खुलेआम यह स्वीकार किया कि विद्यालय में शौचालय बनाने के लिए ५६ हजार रुपये की राशि स्वीकृत हुई थी । इसमें से विकासखंड शिक्षा अधिकारी को १५ हजार एवं इंजीनियर को ५ हजार रुपये दिये । लगभग १० हजार रुपये लगाकर तीन तीन फीट की दो दीवारें शौचालय के नाम बना दी गई। इसके बाद जो रकम बची उसे प्रधानाध्यापक ने खुद रख लेने की बात स्वीकार की  है ।
    स्वच्छता के नाम पर शौचालय निर्माण में होने वाले भ्रष्टाचार का यह उदाहरण मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले के बैराड नामक कस्बे के निकट स्थित बरोद गॉव के शासकीय प्राथमिक विद्यालय में देखने को मिला । गांव के विद्यालय का निरीक्षण करने पहुंचे सर्व शिक्षा अभियान के जिला परियोजना समन्वयक शिरोमणि दुबे ने जब शौचालय के नाम पर बनी तीन-तीन फीट की दो दीवारें देखी तो वे खुद आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने प्रधानाध्यापक विष्णु वर्मा से सवाल किया कि शौचालय के लिए स्वीकृत ५६ हजार रुपयों की लागत से, शौचालय के नाम पर यह क्या बना दिया गया है ? तो श्री वर्मा ने बताया कि स्वीकृत बजट में से लगभग १० हजार से अधिक राशि शौचालय के  लिए निर्माण पर खर्च की गई है। इसका का निरीक्षण करने के लिए आये विकासखंड शिक्षा अधिकारी ने १५ हजार रुपये मांगे जो उनको मैनंें दे दिये । कुछ दिनों बाद कार्यपूर्णता प्रमाणपत्र देने से पहले मूल्याकंन के लिए आये ग्रामीण यांत्रिकी सेवा के सब इंजीनियर ने ५ हजार रुपये मांगे । इसके बाद ही उन्होेंने मूल्याकंन प्रमाणपत्र दिया। एक पुराने निर्माण की रिकवरी की रकम भी शौचालय निर्माण के लिए स्वीकृत राशि में से ही जमा कराई गई । यह सब करने के बाद जो ११ हजार बचे वो मैने रख लिये । अब यदि शौचालय  ठीक से नहीं बना तो इसमें मेेरा क्या दोष है ?
पर्यावरण समाचार
भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार की मौत

    अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड के प्रमुख रहे और भोपाल गैस त्रासदी मामले में भगोड़ा करार दिए जा चुके वारेन एडरसन की मौत हो चुकी है । एडरसन की मौत २९ सितम्बर को ही हो गई थी । लेकिन खबर अब सामने आई है । १९८४ में २-३ दिसम्बर की दरमयानी रात में भोपाल में यूनियन कार्बाइड के प्लांट से गैस रिसने से हजारों लोगों की मौत हुई थी और लाखों लोग प्रभावित हुए थे । इनके परिजनों को आज भी इंसाफ का इंतजार है । लेकिन एंडरसन की मौत के साथ ही इंसाफ की उम्मीद भी खत्म हो    गई । भोपाल गैस कांड में हजारों की मौत का कारण बनी यूनियन कार्बाइड कंपनी के मुखिया वॉरेन एम एंडरसन की अमेरिका में मौत हो गई है । वह ९२ साल के थे । न्यूयॉर्क टाइस की खबर के मुताबिक, एंडरसन की मौत २९ सितम्बर को लोरिडा के वीरो बीच स्थित घर में हुई है । तब घरवालों ने इस घोषणा नहीं की थी ।
    ०२ दिसम्बर १९८४ को घटित भोपाल गैस त्रासदी भारत के इतिहास में वह काला अध्याय है जिसे शायद ही कभी भुलाया जा सकेगा । भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड प्लांट में २ दिसम्बर को आधी रात में मिथाइल आइसोनेट (एमआईसी) के रिसाव के कारण हजारों की तादाद में लोगों की मृत्यु हो गई । सरकारी आकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीस हजार लोग मारे गए थे । लेकिन हमेशा की तरह यह सिर्फ सरकारी आंकड़ा था और मरने वाले की संख्या और भी ज्यादा थी ।
    घोर लापरवाही के कारण गैस कार्बाइड कारखाने में मिथाइल आइसोसायनाइड गैस का रिसाव हुआ था । मिथाइल आइसोसायनाइड के सिराव ने न सिर्फ फैक्ट्री के आसपास की आबादी को अपने चपेट में लिया था, बल्कि हवा के झोको तक अपना कहर फैलाया था । गैस रिसाव से सुरक्षा का इंतजाम तक नहीं था । दो दिन तक फैक्ट्री से जहरीली गैसों का रिसाव होता रहा । फैक्ट्री के अधिकारी गैस रिसाव को रोकने के इंतजाम करने की जगह खुद भाग खड़े हुए थे ।
    एक अनुमान के अनुसार गैस की चपेट में आने से करीब १५ हजार लोगों की मौत एवं पांच लाख् से अधिक लोग घायल हुए थे । जहरीली गैस के चपेट में आने से सैकड़ों लोगों की बाद में मौत हो गई, यही नहीं आज भी हजारों पीड़ित इसके प्रभाव से मुक्त नहीं है ।