गुरुवार, 14 नवंबर 2013



प्रसंगवश 
जल संरक्षण, आज की आवश्यकता नंदलाल मिश्रा, दि.वि.वि., नई दिल्ली    
भारत सरकार ने साल २०१३ को जल संरक्षण वर्ष घोषित किया है । वैश्विक स्तर पर जल संसाधनों के बढ़ते अनियमित दोहन, प्रदूषण, घटती मात्रा, गुणवत्ता, ग्लोबल वार्मिग और सुखाड़ की आशंका के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र प्रतिवर्ष बाईस मार्च को अंतरराष्ट्रीय जल दिवस के रूप में मनाया जाता है । लेकिन कुछ वैश्विक सम्मेलनों और समझौतों के अतिरिक्त कोई अन्य क्रांतिकारी परिणाम सामने नहींआया है ।
    ज्ञात ब्रह्मांड में पृथ्वी ही जीवन से सम्पन्न एकमात्र ग्रह है क्योंकि यहां जल है । धरती के कुल पानी का केवल २.७ फीसद मानव के लिए उपयोगी है, उसका भी दो तिहाई हिस्सा हिमानी और धु्रवीय बर्फ के रूप में जमा है । विश्व में स्वच्छ पानी की मात्रा लगातार गिर रही है, और जैसे-जैसे विश्व जनसंख्या में अभूतपूर्व दर से वृद्धि हो रही है, निकट भविष्य में इस असंतुलन का अनुभव बढ़ने की उम्मीद है ।
    प्राचीन यूनान के आयोनियन शहर के निवासी, उस समय के दार्शनिक एवं वैज्ञानिक मिलेटस केथेलीज (६३६-५४६ इपू) ने कहा था - यह पानी ही है, जो विभिन्न रूपों में धरती, आकाश, नदियों, पर्वत, देवता और मनुष्य, पशु और पक्षी, घास-पात, पेड़-पौधों और जीव-जन्तुआें से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक में मौजूद है । इसलिए पानी पर चिंतन करो । लेकिन हम सिर्फ इसका दोहन करते रहे । हम यह भूल गए कि हमने ये संसाधन अपने पूर्वजों से विरासत की बजाय अपनी भावी पीढ़ियों से ऋण में लिए हैं । नतीजतन, आज पारिस्थितीकीय जलचक्र का संतुलन बिगड़ चुका है । गौरतलब है कि भारत में विश्व का मात्र चार फीसद जल है जबकि संसार की अठारह फीसद आबादी यह बसती है । देश की कई नदियां अब सदानीरा नहीं रही, गंगा जैसी नदियों का पानी भी प्रदूषित हो चुका है । उत्तरी मैदानी इलाके में भी अब मई के अंत तक ताल-तलैये  और नलकूप सुख जाते हैं स्वच्छ पेयजल अब नदारद है । भारत, जिसकी अर्थव्यवस्था आज भी कृषि प्रधान है, में मानसून भी अनियमित हो चला है ।
    देश में ऐसी महत्वाकांक्षी योजनाएं शुरू करनी होगी जिनसे जल संरक्षण को बढ़ावा मिले । मसलन, शहरीकरण और औद्योगीकरण से होने वाले जल प्रदूषण पर नियंत्रण पाना, नदियों का संरक्षण, वनों की कटाई पर रोक लगाकर वृक्षारापेण को बढ़ावा देना, समुद्री जल के उपयोग के लिए वैज्ञानिक शोधों और तकनीक को बढ़ावा देना, जल की बर्बादी रोकने के लिए जन जागरूकता फैलाना आदि । इसके लिए देश के प्रत्येक नागरिक को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी ।                      
संपादकीय    
अब खुलेगा विदेशी कालेधन का राज
    पिछले दिनों टैक्स चोरों पर लगाम कसने और काले धन के खिलाफ लड़ाई में भारत समेत कई देशों को बड़ी कामयाबी मिली है । स्विट्जरलैंड ने अपनी बैंकिंग के रहस्यों पर पड़ा ताला तोड़ दिया है और वह टैक्स से जुड़े मामलों की जानकारी देने व इन मामलों में प्रशासकीय सहयोग के लिए राजी हो गया  है । कहा जाता है कि दुनिया के सभी प्रमुख देशोंके तानाशाहों, उद्योगपतियों और राजनेताआें ने स्विस बैंकों में बड़ी मात्रा में कालाधन जमा कर रखा है, लेकिन स्विस सरकार की गोपनीयता की नीति की वजह से उनके खिलाफ कोई कार्र्रवाही नहीं की जा सकती थी ।
    टैक्स चोरों के खिलाफ चल रही अंतरराष्ट्रीय मुहिम के तहत हुए समझौते पर दस्तखत होने के साथ ही टैक्स चोरों को स्विस बैंको की गोपनीयता का फायदा नहीं मिल सकेगा । गौरतलब है कि भारत समेत दुनिया की साठ देशों की सरकारें लम्बे समय से स्विस बैंकों में जमा काले धन की जानकारी हासिल करने के प्रयास कर रही थी । बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण स्विट्जरलैंड ने ऑर्गनाइजेशन फॉर इकनॉमिक कॉपरेशन एण्ड डिवेलपमेंट (ओईसीडी) की पहल पर ६० देशों के साथ समझौता कर लिया है । इस समझौते के तहत् स्विट्जरलैंड  इन देशों द्वारा मांगे जाने पर फौरन सूचनाएं उपलब्ध कराएगा । ओईसीडी ने कई विकसित देशों के निर्देश पर टैक्स चोरी और काले धन के खिलाफ मुहिम शुरू की थी । माना जाता है कि दुनिया भर के टैक्स चोर स्विस बैंकों में ही अपना काल धन रखते हैं । भारत समेत दुनिया के तमाम देश भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्यवाही में स्विस बैंकों की गोपनीयता की वजह से परेशानी आ रही थी ।
    अनुमान है कि स्विस बैंकों में ९००० करोड़ रूप से भी अधिक कालाधन जमा है । इस समझौते के बाद विभिन्न देशों की सरकारें अपने देशों के नागरिकों के स्विस खातों की जानकारी हासिल कर सकेगी, जिसकी कि वह लम्बे समय से मांग कर रही थी । स्विस बैंक में जमा कालेधन को देश में वापस लाने की मांग को इससे काफी सहायता मिलेगी । 
सामयिक
अर्थव्यवस्था पर छाया अंधकार
देविन्दर शर्मा

    भारतीय अर्थव्यवस्था के रसातल मेंजाने की वजह आर्थिक उदारीकरण का अंधानुकरण ही है । उदारीकरण के दो दशकोंने इस नई अर्थव्यवस्था का चरम और पतन दोनों ही देख लिए हैं । खाद्यान्न पर सब्सिडी की मुखालफत करने वाला धनी वर्ग सोने पर दी जा रही छूट को अपना अधिकार समझता है ।
    सितंबर २०११ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि, कुछ वर्ष पूर्व विश्व, वैश्वीकरण एवं वैश्विक पारस्परिक निर्भरता के लाभों को लकर निश्चिंत हो गया था । लेकिन आज हमें उस उन्माद के नकारात्मक प्रभावों से भी तारतम्य बैठाना पड़ेगा । सन् २००८ के आर्थिक संकट के बाद से स्थिति की बहाली की जो उम्मीद जगी थी, उसका पूरा होना अभी बाकी है । अतएव प्रधानमंत्री से यह सवाल पूछने की आवश्यकता है कि यदि उन्हें इस बात का भान था कि क्या कुछ घटित होने वाला है तो उन्होनें भारत को उसी स्वविघ्वंस के रास्ते पर क्यों धकेला ? क्योंकि आज रूपया आैंधे मुंह गिर पड़ा है । चालू खाते का घाटा और आयात और निर्यात के बीच का अंतर सन् १९९१ के पहले के स्तर पर पहुंच चुका है और वित्तीय घाटे में कमी की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है । 
    वैसे प्रधानमंत्री को यह सब ज्यादा अच्छे से मालूम होगा । सन् २००५ एवं २००९ के दौरान जब आर्थिक वृद्धि की दर ८ से ९ प्रतिशत थी और संभवत: अपने चरम पर थी तब भी इस उच्च् आर्थिक वृद्धि की वजह से रोजगार का सृजन नहीं हो रहा था । योजना आयोग के अध्ययन के अनुसार इसी अवधि में १.४ करोड़ लोग कृषि से बाहर हुए और ५३ लाख लोगों को निर्माण क्षेत्र से रोजगार से हाथ धोना पड़ा । यदि वृद्धि अतिरिक्त रोजगार में परिवर्तित नहीं होती और इसके बजाए इससे बेरोजगारी बढ़ती है, तो समझ लेना चाहिए कहीं पर कुछ गलत हो रहा  है ।
    पिछले ९ वर्षो से जब से मनमोहन सिंह ने देश की बागडोर संभाली, तब से भारत में सस्ते आयातित उत्पादों की बाढ़ सी आ गई है और आयात की सीमा ५० अरब डॉलर (३ लाख करोड़ रूपये) तक पहुंच गई है । इसका करीब ५४ प्रतिशत आयात सिर्फ चीन से ही होता है । आयात होने वाले इन अधिकांश उपभोक्ता उत्पादों को देश में ही निर्मित किया जा सकता है । लेकिन इतना ही काफी नहीं था भारत अब चीन के साथ मुक्त व्यापार अनुबंध पर हस्ताक्षर करना चाहता  है । वैसे भारत अन्य ३४ देशों के साथ भी द्विपक्षीय व्यापार समझौते करने की जल्दबाजी कर रहा है । इसका परिणाम यह हो रहा है कि भारत में निर्यात के मुकाबले आयात बढ़ता रहा है, जिसका सीधा सा अर्थ है ये व्यापार समझौते देश के लिए लाभदायक नहीं है । प्रधानमंत्री इसका दोष किसी और पर नहीं मढ़ सकते, क्योंकि यह जानते हुए कि आयात आसमान छूते जा रहा हैैं, प्रधानमंत्री स्वयं द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को बढ़ावा दे रहे हैं ।
    भारत एवं यूरोपियन यूनियन व्यापार के लंबित समझौते के मामलों को लें । यूरोपियन यूनियन इस बात का जोर डाल रहा है कि भारत शराब एवं स्प्रिट पर आयात शुल्क कमीं करके इसका बाजार खोले और दूध के आयात पर शुल्क में भारी कम करें और इसे वर्तमान स्तर ६० प्रतिशत से कम करके १० प्रतिशत पर ले आए । इससे आयातित दूध की बाढ़ आ जाएगी । जबकि त्रासदी यह है कि भारत विश्व में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश है । सस्ते एवं अत्यन्त अधिक सब्सिडी प्राप्त् कृषि उत्पादों के साथ ही साथ निर्मित सामग्री के आयात का अर्थ है बेरोजगारी का आयात । उदाहरणार्थ खाद्य तेलों के आयात शुल्क को ३०० प्रतिशत से घटाकर शून्य प्रतिशत पर लाने से देश अब प्रतिवर्ष ६०००० करोड़ रूपये का खाद्य तेल आयात कर रहा है ।
    अर्थशास्त्री खाद्य सुरक्षा अधिनियम हेतु १.२५ लाख करोड़ रूपये के प्रावधान को लेकर हाय तौबा मचा रहे हैं । उनका कहना है इतना सार्वजनिक खर्च वित्तीय घाटे में और बढोत्तरी करेगा । लेकिन वे इस तथ्य से आंख मूंद लेते है कि सन् २००५-०६ से अब तक उद्योग को कर छूट के रूप में ३० लाख करोड़ रूपये दिए जा चुके हैं । मई २०१३ से निर्यात ऋणात्मक १.६ प्रतिशत तक सिकुड़ गया है और निर्माण क्षेत्र तो कमोवेश नष्ट हो चुका है । तो क्या यह सिद्ध नहीं हो जाता कि दी गई कर छूट एक बेफालतू का खर्च था ? यदि इसकी वसूली हो जाती है तो देश का सारा वित्तीय घाटा अपने आप समाप्त् हो जाएगा ।
    भारतीय उद्योगपतियों को मिली व्यापक कर छूट जिसे राजस्व माफी (रेवेन्यु फारगॉन) की श्रेणी में डाल दिया गया, का यदि देश के भीतर ही निवेश किया गया होता, तो इससे लाखों-लाख रोजगार निर्मित हो सकते थे । एक और औघोगिक उत्पादन में गिरावट जारी है, लेकिन इसी के साथ चौकांने वाली बात यह है कि निजी क्षेत्र नकदी के भंडार पर बैठा हुआ है । मार्च २०१२ में भारतीय उद्योगपति समूह १० लाख करोड़ के नकद भंडार पर बैठा है । अतएव भारत को घुटने पर बैठकर प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करने की जरूरत नहीं है, जबकि उसके अपने कारपोरेट नकदी के पहाड़ पर विराजमान है । इसे बाहर निकालने से निवेशकों के विश्वास एवं व्यापार के माहौल होने में ऊर्जा का संचार होगा ।
    इस सबसे ऊपर क्रेडिट स्विस की रिपोर्ट बता रही है कि भारत के दस सबसे बड़े निगमों (कारपोरेट्स) ने बाहरी व्यावसायिक ऋण लेने में ६ गुना वृद्धि की है और यह आंकड़ा भयभीत कर देने वाली संख्या ६,३०,००० करोड़ रूपये के स्तर पर पहुंच गया है । परन्तु इस विशाल ऋण से ठीक-ठाक आमदनी न होने से बाहरी ऋण बढ़ते ही जा रहे हैं । अत: इस बात की जांच की जाना आवश्यक है, अत्यधिक बाहरी ऋण और नकद भण्डारण के रहते किस वजह से सरकार साल दर साल करों में छूट देती जा रही है ? पिछले दो वर्षो में ही सरकार ११ लाख करोड़ खैरात में बांट चुकी हैं ।
    दु:खद यह है कि प्रधानमंत्री ने यह सब जानते हुए इस बात की अनुमति दी है कि मुक्त बाजार नीतियां एवं विनियमन ही इस आर्थिक संकट के पीछे हैं । लेकिन यथोचित सुधारवादी कदम उठाने के उन्होनें भारतीय अर्थव्यवस्था को डगमगाने और नीचे गिरने की अनुमति दी, यहीं उनसे चूक हो    गई । वास्तविकता यह है कि बीमार अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाने का प्रस्तावित रास्ता भी वही है, जिससे अर्थव्यवस्था में गिरावट की बीमारी आई थी । इतना ही नहीं, यह समस्या को और बढ़ाएगा ।
हमारा भूमण्डल
विकास को निगलता नव उपनिवेशवाद
मेनुअल मोंटेस

    बीसवीं शताब्दी के मध्य में यह माना जाने लगा था कि अब विश्व से उपनिवेशवाद का अंत हो गया है । लेकिन वास्तव में यह छल ही था । शताब्दी विकास लक्ष्यों को लेकर किसी तरह की मतभिन्नता नहीं है, लेकिन इसे पूरा करने में ``सामाजिक कल्याण`` बनाम ``विकास`` की यह बहस शुरू होना दिखा रहा है कि विकास का वैश्विक मॉडल ही है, जिसे हम समाप्त हुआ समझ रहे थे । 
     शताब्दी विकास लक्ष्यों को लेकर सबसे आकर्षक बात यह थी कि इन  आठ लक्ष्यों में से सात पर  कमोवेश सभी की सहमति थी । गरीबी, भूख, लैंगिक असमानता कुपोषण एवं बीमारी को कम करने हेतु राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तर पर संसाधनों और राजनीति का भरपूर एकत्रीकरण हुआ। जबसे इन्हें घोषित किया गया है तभी से इन शताब्दी विकास लक्ष्यों ने विकासात्मक सोच के संपूर्ण कलेवर को अपने आसपास समेट लिया है । इस दौरान राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने इसके संबंध में होने वाले विमर्शों से यह मूलभूत विचार ग्रहण किया है कि विकास का अर्थ है, आर्थिक  रूपांतरण ।
    इन लक्ष्यों को लेकर चल रहे विमर्शों ने यह भुला दिया है कि वैसे तो विकास गरीबी और वंचना को कम कर सकता है लेकिन यह अनिवार्य नहीं है कि विकास नीतियां इस तरह निर्देशित हो कि वे लोगों को स्थायी रूप से कम उत्पादक रोजगार से अधिक उत्पादक रोजगार की ओर भेज सकें । गरीबी में कमी और आर्थिक रूपांतरण एक ही चीज नहीं है । आर्थिक रूपांतरण के लिए एक नए वैश्विक समझौते के लिए आवश्यक है कि राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्था के रूपांतरण हेतु नीतियों को नए सिरे से तैयार करें । यही विकासात्मक वैश्वीकरण की मांग भी है ।
    अब स्वास्थ्य के लक्ष्यों को ही लें । इसे लेकर यह बहस प्रारंभ हो गई है कि क्या सभी के लिए स्वास्थ्य उपलब्धता एक लक्ष्य    होगा ? सबसे पहले हम अमेरिका जैसे कुछ विकसित देशों को ही लेत हैं । वहां पर स्वयं सभी के लिए स्वास्थ्य उपलब्धता श्रेणी में लाने का लक्ष्य निर्धारित नहीं है । वैश्विक अर्थव्यवस्था के अन्य कई पक्षों की तरह इस तरह के लक्ष्य विकासशील देशों पर तो लागू होते हैं, अतएव इसी तरह की बाध्यता से अमीर देशों को छूट नहीं दी जा सकती । दूसरा सभी को स्वास्थ्य सेवा के दायरे में लाना भले ही मूल मानवाधिकार की श्रेणी में आता हो, लेकिन यह सुनिश्चित नहीं करता कि अंतत: स्वास्थ्य सेवाओं में किन-किन बातों का निर्धारण  होगा । उदाहरणार्थ क्या इसमें वहन कर सकने वाले मूल्य पर दवाईयों तक पहुंच एवं प्रभावशाली घरेलू स्वास्थ्य सेवा प्रणाली भी शामिल    हैं ?
    दवाइयों की उपलब्धता और लागत दोनों ही बड़े अनुपात में विकसित देशों से ही आती हैं और यह व्यवस्था लंबे समय से विकासशील देशों के लिए नासूर बनी हुई है । इतना ही नहीं शोध एवं चिकित्सकीय उत्पादन का बीमारियों एवं उपचार के संबंध में अत्यधिक मात्रा में (पीड़ित जनसंख्या के अनुपात में) झुकाव विकसित देशों की ओर है । क्या वैश्विक लक्ष्यों का निर्धारण ``ठ ीक`` प्रकार की औषधियों और उनके वहन कर पाने वाले मूल्यों के हिसाब से होगा ? कौन सा पक्ष इन लक्ष्यों को अपनी बाध्यता समझकर स्वीकार करेगा ?
    विकासशील देशों में औषधि निर्माण हेतु क्षमता निर्माण के वास्ते वास्तविक रूपांतरण यानि श्रम के कम उत्पादक से अधिक उत्पादक रोजगार की ओर प्रवृत्त होने की आवश्यकता है । लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि विकसित देश वहन कर पाने वाली दर पर विकासशील देशों को न सिर्फ तकनीक उपलब्ध कराएं, बल्कि आवश्यकता इस बात की भी है कि वे उस तकनीक पर लागू एकाधिकारी अधिकारों को भी नरम करें जो कि अभी सिर्फ उसके अविष्कारकर्ता को दे दिए जाते हैं ।
    प्रभावशाली घरेलू आंतरिक स्वास्थ्य प्रणाली निर्मित करने के लिए आवश्यक है कि भवन निर्माण, नियमन एवं स्वास्थ्य क्षेत्र के वित्तीय प्रबंधन हेतु स्थानीय मानव संसाधनों एवं सरकारी क्षमताओं में वृद्धि की जाए । ऐतिहासिक रूप से इन नई क्षमताओं में ही आर्थिक रूपांतरण के  सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष सम्मिलित हैं । अन्यथा ये स्वास्थ्य प्रणालियां हमेशा ही विदेशी दानदाताओं एवं निजी फाउंडेशनों की दया पर निर्भर बनी रहेगी । अब ऐसा समय आ गया है कि एक वास्तविक विकासात्मक सोच को स्थापित किया जाए और विश्व समुदाय के लिए यह आवश्यक है कि वह इस अवसर को हाथ से जाने न दे ।
    सच तो यह है कि औपनि-वेशिक काल से ही यह विचार प्रचलित है कि विकसित देश अन्य देशों की गरीबी और कल्याण के बारे में तो चिंतित रहते हैं, लेकिन उनके विकास की लगातार अनदेखी करते हैं । सौभाग्यवश सन् १९३० के दशक में १९ वीं शताब्दी में जिस तरह से उपनिवेशों को लेकर छीना-झपटी हो रही थी उस पर विराम लग गया । औपनिवेशिक शक्तियां इस बाहरी नियंत्रण को न्यायोचित बताने के लिए अपनी जिम्मेदारी को ``मूल निवासियों के कल्याण`` जैसे नए विशेषणों से सुशोभित करने लगीं   थीं । जिसे सन् १९८७ में अर्थशास्त्री एंड्रेट ने आर्थिक उन्नति या विकास से बहुत अलग चीज निरूपित किया   था । उदाहरणार्थ सन् १९३९ में ब्रिटिश सरकार ने उपनिवेश विकास एवं कल्याण अधिनियम लागू करते हुए अपने कब्जे वाले इलाकों एवं न्यासी (ट्रस्टीशिप) वाले क्षेत्रों में पोषण स्वास्थ्य एवं शिक्षा हेतु न्यूनतम अर्हताएं तय कर दी थीं ।
    अपने इसी विश्लेषण में एंड्र्ंट ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन द्वारा जमैका की योजना की आलोचना करने वाले डब्ल्यू आर्थर लेविस को उद्धृत करते हुए कहा है कि यह योजना उपनिवेश में जीवनस्तर को ऊपर उठाने हेतु ``सामाजिक कल्याण`` एवं ``आर्थिक विकास`` के मध्य अंतर कर पाने में असफल रही थी ।
    यदि सन् २०१५ के बाद तयशुदा वैश्विक लक्ष्यों को वास्तव में विकासात्मक होना है तो शताब्दी विकास लक्ष्यों का औपनिवेशवाद मुक्त होना अनिवार्य है । विकास संचालित इस वैश्वीकरण में अफ्रीका एक मात्र ऐसा महाद्वीप नहीं है जहां अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ध्यान केेंद्रित करने की आवश्यकता है । इस कतार में और भी देश हैं और आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें स्वयं के विकास के लिए अपने मानव व प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल की पूरी छूट हो । विविधता आंचलिक सहयोग के द्वार खोलती है । वस्तुओं (कच्च्े माल) के निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था काफी अस्थिर होती है । इसलिए आवश्यक है कि उत्पादक रोजगार सृजन हेतु घरेलू उद्योग स्थापित किए जाएं । 
 दीपावली पर विशेष
पर्यावरण सरंक्षण में सहायक घटक
डॉ. कैलाशचन्द्र सैनी

    प्रकृति हमेंवह सब कुछ प्रदान करती है, जिसकी हमेंआमतौर पर आवश्यकता होती है । मनुष्य के मन में प्रारंभ से ही प्रकृति पर विजय प्राप्त् करने की आकांक्षाएँ हिलोरे लेती रही है । आधुनिक विज्ञान मनुष्य की इन आकांक्षाआें को पूरी करने में सहायक सिद्ध हो रहा है । मानव के स्वार्थ और लालसा ने ही हमें विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है । मानवता को बचाने के लिए जरूरी है हम अपने इस गर्व को त्यागकर प्रकृति की नैसर्गिकता को अक्षुण्ण रखने का प्रयास करें । 
     प्रकृति सदा ही मनुष्य को सीखने के लिए प्रेरित करती रही है । प्रकृति की गोद मेंपले जीव-जन्तुआें की नकल से ही नये-नये आविष्कार हुए हैं । वास्तुशिल्पी हो या वैज्ञानिक सभी ने प्रकृति की प्रेरणा से नई दिशा में सोचने और कुछ नया करने का निश्चय किया है । हमें अधिकांश उपलब्धियाँ प्रकृतिकी प्रेरणा से ही हासिल हुई है । प्रकृतिका प्रत्येक घटक मनुष्य को प्रेरणा देने में समर्थ है । पशु-पक्षियों की प्राकृतिक दिनचर्या से प्रेरणा पाकर मनुष्य अपने नीरस जीवन में प्रसन्नता और प्रफुल्लता का संचार कर सकता है ।
    पर्यावरण का स्वस्थ और संतुलित बनाये रखने के लिए सबसे जरूरी है कि लोग प्रकृति को अपनी सहचरी समझेंऔर उसके साहचर्य में सहअस्तित्व की शिक्षा ग्रहण करें । लोगों को यह समझ में आये कि किस तरह वनस्पतियां और जीव जन्तु पर्यावरण के संरक्षण और मनुष्य के अस्तित्व के लिए जरूरी हैं ।
    यदि प्रकृतिकी स्वाभाविक प्रक्रिया मेंबाधा न डाली जाये तो यह पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काफी हद तक सहायक हो सकती है । पानी, पशु-पक्षी और पेड़ प्रकृतिके प्रमुख घटक हैं जो पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । प्रकृतिकिसी एक की सम्पत्ति नहीं है, वरन् समूची मानव जाति की धरोहर है । गांधीजी द्वारा वर्षो पहले कही हुई यह बात आज जनजीवन के हर क्षेत्र में सही साबित हो रही है कि पृथ्वी प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूरा कर सकती है लेकिन वह किसी भी एक व्यक्ति के लोभ को संतुष्ट नहीं कर सकती ।
    भारतीय संस्कृतिमें जल को जीवन को आधार माना गया है और इसी दृष्टिकोण से जल को हमेशा सहेजने की परम्परा रही है । सदियों से प्रकृतिका संचालन जल के द्वारा ही होता आया है । अल्प वर्षा से ग्रस्त रहने के कारण ही मरू प्रदेश राजस्थान के लोग जल को अमृत समान समझते रहे हैं । प्रदेश के विभिन्न अंचलोंमें एक शताब्दी के दौरान पड़े अकाल की गाथा को यहां एक लोकोक्ति के रूप मेंबड़े ही मार्मिक ढंग से इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है जिसका आशय है कि सात बार अकाल, तेईस बार अच्छी वर्षा और सड़सठ बार ठीक-ठीक वर्षा लेकिन तीन ऐसे दुर्भिक्ष कि माँ और बेटा वापस मिल ही नहीं पाये । पारम्परिक जल स्त्रोत के रूप में कुएं जैसे जल स्त्रोत तो विश्व में सभी जगह हैं लेकिन कुई, बावड़ी, नाड़ी जैसे स्त्रोत अधिकांशत: राजस्थान में ही हैं ।
    भारतीय संस्कृतिमें प्रारंभ से ही पर्यावरण की शुद्धता का विशेष महत्व रहा है । हमारे यहां पंच भौतिकतत्वों पर काफी कुछ लिखा गया है, उन्हें पवित्र एवं मूल तत्वों के रूप में माना गया है । वेदों और उपनिषदों में पंच तत्वों, वनस्पति तथा पर्यावरण संरक्षण पर विशद् चर्चा की गई है । प्रकृतिमें वायु, जल, मिट्टी, पेड-पौधों, जीव-जन्तुआें एवं मानव का एक संतुलन विद्यमान है जो हमारे अस्तित्व का आधार है । जीवधारी अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति पर निर्भर हैंऔर आधुनिक मानव सभ्यता को प्रकृति द्वारा प्रदान की गई सबसे मूल्यावन निधि पर्यावरण है जिसका संरक्षण हम सभी का दायित्व है ।
    आज हमने प्राकृतिक विरासत रूपी नदियोंको दिव्य देन के रूप में देखने समझने के बजाय तरह-तरह के स्वार्थ, प्रदूषण और विवादोंमें परिवर्तित कर दिया है । यह प्रकृति के प्रति हमारे बदलते दृष्टिकोण का ही परिणाम है जिसके कारण मानव ऐसा दानव बन गया है जो समस्त सृष्टि को अपने नियंत्रण में करके उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाना चाहता है । लेकिन अब इस इच्छा के दुष्परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं ।
    भारत में हर साल चार-पांच महीनों में करीब ४००० अरब घन लीटर वर्षा होती है लेकिन इसमें से हम सिर्फ १२ प्रतिशत का ही उपयोग कर पाते हैं । बांध बनाने में काफी समय लगता है फिर भी यहां के बांध भारत की सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने में नाकाम रहे हैं । सिंचाई के लिए लगभग ८० प्रतिशत भूजल का प्रयोग होता है और इसी के कारण भूजल का स्तर तेजी से घट रहा है जो एक चिन्ता की बात है । यदि यही स्थिति लम्बे समय तक रही तो जल्दी ही यह पानी भी खत्म हो जाएगा क्योंकि जिस अनुपात में भूजल का दोहन हो रहा है उस अनुपात से जल संरक्षण का काम नहीं हो पा रहा है ।
    जीवन रक्षा के लिए स्वच्छ प्राणदायक तत्व वायु के बाद इंसान के लिए पानी ही सबसे महत्वपूर्ण पदार्थ है, जिसे प्रकृति ने हर जगह उपलब्ध करवाने की पहल की है । मानव शरीर को जटिल जल प्रणाली का संवाहक कहें तो गलत नहीं  होगा । भिन्न-भिन्न तरह के तरल पदार्थ छोटी बड़ी नलियों के जरिये ही पूरे शरीर में दौड़ते रहते हैं । हमारे लिए पानी का रासायनिक महत्व भी कम नहीं है । इसलिए हमें पानी की सुरक्षा के लिए भी सदैव तत्पर रहना   चाहिए । हमें प्रकृति की इस अनुपम देन का दुरूपयोग नहीं होने देना चाहिए ।
    हमें पानी के पारम्परिक स्त्रोतों पर भी ध्यान देना होगा जैसे कि नदियों और तालाबों में काफी समय से जमा गाद को निकाल जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि उनमें एकत्र पानी साफ रहे । औद्योगिक कचरा उनमें न जा पाये । भारत में पानी की कमी नहीं है, यहां काफी पानी है, आवश्यकता है इसके उचित प्रबंधन की । यह काम युद्ध स्तर पर किया जाना चाहिए । स्थानीय स्तर पर जल संरक्षण का काम होना चाहिए, हर गाँव को अपने जल के संरक्षण के लिए सतत् प्रयास करना होगा । इससे गाँवों के उन कुआेंमें तो पानी वापस भर ही जाएगा जो सूख रहे थे, उन स्त्रोतों में भी पानी लौटेगा जो खत्म हो रहे थे । वर्षा जल के अधिकाधिक संग्रहण और उसके उचित उपयोग से ही हम जीवनदायी जल को बच सकेंगे ।
    पक्षियों को हमारे पर्यावरण का थर्मामीटर कहा गया है । उनकी सेहत एवं उनकी प्रफुल्लता से यह परिलक्षित होता है कि हम जिस वातावरण में रह रहे हैं, वह कैसाहै ? प्रदूषित हवा से होनेवाली अम्लीय वर्षा का असर हमारी जिन्दगी में देर से होता है, लेकिन इसके प्रतिकूल प्रभाव से चिड़ियों के अंडे पतले पड़ने लगते हैं और उनकी आबादी घटने लगती  है । मोबाइल फोन से निकलने वाली तरंगों का इंसान पर कितना हानिकारक प्रभाव पड़ता है, इस पर तो अभी शोध ही चल रहा है लेकिन गौरेया, श्यामा और अबाबील जैसी छोटी चिड़ियों को इनसे होने वाले नुकसान के बारे में वैज्ञानिक अपना निष्कर्ष बता चुके हैं ।
    किसानों के जीवन में पक्षियों का विशेष महत्व है । घर से थोड़ा दूर रहने वाले मोर, कठफोड़वा, बुलबुल, नीलकंठ व बया आदि पक्षियों का गुजारा खेतों और पेड़ों पर होता है जबकि वनमुर्गी, बतख, बगुला और किंगफिशर का गुजर-बसर ताल-तलैया और पोखरों पर निर्भर करता है । टिहरी रहती तो पोखरों के करीब है लेकिन अंडे सूखी जमीन पर ही देती है । अब आँगन में बेखौफ चहकती गौरेया, घरों मे बने उसके घोसलों में चीं-चीं करते चूजे और घर के आसपास पेड़-पौधों पर उड़ती रंग-बिरंगी तितलियों के संग खेलने के दिन लद गए हैं । अब तो कौआ, तोता, मैना जैसी चिड़ियों के साथ-साथ गिद्धों के सामने भी अस्तित्व का संकट गहराने लगा है और यह सब हुआ है मनुष्य की नासमझी के कारण ।
    पर्यावरण विशेषज्ञोंके अनुसार पक्षियों का प्राकृतिक आवासों में होना मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है । ये मानव जीवन के लिए खतरनाक कीट-पतंगोंको अपना भोजन बनाकर हमारी रक्षा करते हैं । पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से पक्षियों का मानव जीवन में बहुत बड़ा महत्व है । आकाश में उड़ते ये पंखवाले परोपकारी जीव पर्यावरण की सफाई के बहुत बड़ा योगदान करते है । गिद्ध, कौआ, चील ऐसे पक्षी है जो मृत जानवरों के अवशिष्ट का सफाया करके धरती को साफ-सथुरा रखने में मदद करते हैं । दु:ख की बात है कि विलुप्त् होते परिन्दों को बचाने के लिए पर्याप्त् प्रयास नहीं हुए है, परिणामस्वरूप रंग-बिरंगे विभिन्न किस्म के पक्षियों के अलावा हर घर में चहकने वाली गोरैया भी अब दुर्लभ पक्षियों की श्रेणी में आ चुकी है ।
    पर्यावरण संरक्षण के लिए यह जरूरी हो गया है कि हम पक्षियों को बचाने की दिशा में जागरूक हो  जायें । पक्षियों की संख्या यदि इसी तरह कम होती गई तो पर्यावरण में जो असंतुलन पैदा होगा उसका खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ियों को भोगना होगा । हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए धन-दौलत, सम्पन्नता और सुविधाएँ विरासत के रूप में छोड़कर इस दुनिया से प्रयाण कर जाएंगे, किन्तु जब पर्यावरण असंतुलन होगा तब हमारी आने वाली पीढ़ी जिस कठिनाई में जीवन व्यतीत करेगी उसका अंदाजा लगाना आज संभव नहीं हैं । हमें हर हाल में पक्षियों के जीने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना होगा ।
    हमारे घर के आसपास और बाग-बगीचोंमें चहकते फुदकते परिन्दे अब यहां से भी पलायन कर चुके हैं । अत्यधिक शोर-शराबा व घनी आबादी के बीच पक्षी अपने आपको असहज महसूस करते हैं, इसी कारण ये अब ग्रामीण क्षेत्रों में ही विचारण करते नजर आते हैं जहां आबादी एवं शोर-शराबा कम है । बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण पक्षियों ने शहरों से पलायन करके यह संकेत दे दिया है कि छोटे शहर अब बड़े महानगरों के रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं ।
    एक समय था जब चिड़ियाँ हमारे सामाजिक जीवन का अंग हुआ करती थी, लेकिन आज वे हमसे काफी दूर चली गई हैं । उनसे दोबारा रिश्ता कायम करना हमारी पर्यावरण चेतना का अहम हिस्सा होना   चाहिए । पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि चिड़ियों को दूर से ही देख लेना और आनंद का अनुभव करना काफी नहीं है । अगर हम उन्हें पहचानें, उनको उनके नाम को जाने  और चहचहाहट सुनकर पहचान सकें, तो हमारा आनंद और बढ़ जायेगा ।
    पेड़-पौधे पर्यावरण को संतुलित रखने में विशेष भूमिका निभाते हैं । संसार में सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण करके भोजन के निर्माण का कार्य केवल हरे पौधे ही कर सकते हैं । इसलिए पौधों को उत्पादक कहा जाता है । पौधों द्वारा उत्पन्न किए गए भोजन को ग्रहण करने वाले जन्तु शाकाहारी होते हैं और उन्हें प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता कहते हैं । जैसे - गाय, भैंस, बकरी, भेड़, हाथी, ऊँट, खरगोश, बंदर ये सभी प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते है । प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताआें को भोजन के रूप में खाने वाले जन्तु मांसाहारी होते हैं और वे द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं । इसी प्रकार द्वितीय श्रेणी के  उपभोक्ताआें को खाने वाले जन्तु तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं ।
    इस तरह हम देखते हैं कि ऊर्जा का प्रवाह सूर्य से हरे पौधों में, हरे पौधों से प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताआें में और प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताआें  से द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताआें में और फिर उनसे तृतीय श्रेणी के उपभोक्ताआें की ओर होता  है । सभी पौधे और जन्तु वे चाहे किसी भी श्रेणी के हो, मरते अवश्य हैं । मरे हुए पौधों व जन्तुआें को सड़ा-गलाकर नष्ट करने का कार्य जीवाणु और कवक करते हैं । ऊर्जा के प्रवाह को जब हम एक पंक्ति के क्रम में रखते हैं तो खाद्य श्रृंखला बन जाती है । जैसे हरे पौधे-कीड़े-मकोड़े-सर्प-मोर । इसी प्रकार की बहुत सी खाद्य श्रृंखलाएं विभिन्न परितंत्रों में पायी जाती है ।
    प्रकृति के सारे कार्य एक सुनिश्चित व्यवस्था के अन्तर्गत होते रहते हैं । यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों का अनुसरण करता रहे तो उसके लिए पृथ्वी पर जीवनयापन की मूलभूत आवश्यकताआें में कोई कमी नहीं आयेगी । यह मनुष्य का दुश्चिंतन ही है जिसके चलते वह प्रकृति का अति शोषण करता है परिणामस्वरूप प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ा जाता है ।
    यदि किसी खाद्य श्रृंखला को तोड़ दिया जाए, तो उसका नुकसान अन्तत: मनुष्य को ही उठाना पड़ता है । उदाहरण के लिए एक वन में शेर भी रहते हैं और हिरण भी । खाद्य श्रृंखला के अनुसार  हिरण प्रथम श्रेणी का उपभोक्ता है और शेर द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता । शेर हिरण को खाता रहता है । यदि शेरों का शिकार कर दिया जाए तो हिरण वन में बहुत अधिक संख्या में हो जायेंगे और उनके लिए वन की घास कम पड़ेगी और वे फसलों को हानि पहुंचाकर पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ देंगे ।
    बहुत से जीव-जन्तु हमें बिल्कुल अनुपयोगी और हानिकारक प्रतीत होते हैं, लेकिन वे खाद्य श्रृंखला की प्रमुख कड़ी होते हैं और उनका पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान होता है । जेसे कीड़े-मकोड़े पौधों के तनों और पत्तियों को खाकर फसलों को बहुत हानि पहुँचाते हैं । ये पक्षियों का भोजन बनकर पक्षियों से फसल को सुरक्षित रखते हैं और पक्षी इन कीडों को खाकर कीड़ों से फसल  की रक्षा करते हैं । इन कीड़ों के अभाव में पक्षी फसलों को अपेक्षाकृत अधिक हानि पहुँचा सकते हैं ।
    इसी प्रकार साँप मनुष्य को बड़ा हानिकारक और खतरनाक दिखाई देता है, लेकिन यह खाद्य श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण अंग होने के कारण मानव जाति के लिए बड़ा उपयोगी है, किसानों का मित्र भी    है । चूहा किसानों का शत्रु है, जो बहुत बड़ी मात्रा में अन्न को खाकर बर्बाद कर देता है । साँप चूहों को खाकर उनकी संख्या को नियंत्रित रखता है । यदि खेतों में साँप न हो तो चूहों की संख्या इतनी अधिक हो जायेगी कि ये सारी फसल को चट कर जायेंगे । घास के मैदान मेंफुदकने वाला मेढ़क व्यर्थ का जन्तु प्रतीत होता है, लेकिन मक्खी-मच्छरों को खाकर पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देता है । इस प्रकार खाद्य श्रृंखला को तोड़ने पर पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता है ।
    जीव जीवस्य भोजनम् के अनुसार कोई जीव किसी का भक्षण करता है तो कोई दूसरा जीव उसका भक्षण कर जाता है । सभी समुचित संख्या में पृथ्वी पर उत्पन्न होकर जीवनयापन करते रहें, ताकि खाद्य श्रृंखलाएं सुचारू रूप से चलती रहे, इसके लिए समस्त जीवों का संरक्षण करना मनुष्य का कर्त्तव्य है लेकिन मनुष्य स्वार्थवा पृथ्वी पर उपलब्ध जल, अनाज, पशु-पक्षी, पेड पौधे तथा ऊर्जा के स्त्रोतों का असंतुलित ढंग से उपयोग कर रहा है । पृथ्वी में जीवन को बनाए रखने की अपार क्षमता है लेकिन यह तब तक ही है जब तक पर्यावरणीय सम्पदा का समुचित संरक्षण किया जाये ।
    पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने मे वृक्ष अहम योगदान देते हैं । शोधकर्ताआें ने बताया कि वृक्ष पहले किये गये शोध से निकले परिणाम से तीन गुना अधिक पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखते हैं । वृक्ष वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों को अवशोषित कर उन्हें वायुमण्डल में जाने से रोकते  हैं । शहरों में सामान्य और खतरनाक वायु प्रदूषक अवयवों को वृक्ष आसानी से अवशोषित कर लेते हैं । इसलिए पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए आज अधिक से अधिक वृक्ष लगाने की जरूरत है ।
    पर्यावरण सम्पदा का संरक्षण आज के समय की मांग है । हमें वन्य जीवन संरक्षण तथा राष्ट्र की स्वच्छता एवं हरित क्षेत्र को बढ़ाने के लिए प्रयास करना चाहिए । राजस्थान में इस दिशा में हरित राजस्थान कार्यक्रम के रूप में जो पहल की गयी है उसके तहत आम आदमी पेड़ों की हमारी पुरानी संस्कृति से जुड़ा  है । आज स्थिति यह हो गयी है कि सरकारी और निजी नर्सरियों से पेड़ ले जाने वाले लोगों की भीड़ दिखाई देने लगी है । आने वाले वर्षो मेें ये पेड़ बड़े वृक्षों के रूप में लहलहाते हुए शुद्ध हवा देने के साथ-साथ पर्यावरण को स्वच्छ  रखेंगे ।
    प्राकृतिक संतुलन में अनावश्यक व्यवधान डालना स्वयं को विनाश की ओर ले जाना है । वृक्ष हमें फूल व छाया दोनों देते है । इन छोटे वृक्षों में भी पक्षी अपना घोंसला बना सकते हैं । अत: वृक्ष ऐसे लगाए जाने चाहिए, जिनमें पक्षी अपना घोंसला बना सकें । बागवानी का अर्थ केवल रंग-बिरंगे फूलों वाले सुन्दर पौधों से बाग को सजाना ही नहीं है, बल्कि अपने वातावरण व पर्यावरण के प्रति सजग रहना भी  है । पेड़ लगाना ही पर्याप्त् नहीं है बल्कि उसका पोषण भी किया जाना चाहिए । जिस प्रकार हम संतान की सुरक्षा करते है वैसे ही पेड़-पौधों का भी संरक्षण करना चाहिए ।
    आजकल आश्रय खत्म होने के कारण ही पक्षियों का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है । जामुन के पेड़ों पर ही पक्षियों का संरक्षण सबसे ज्यादा सुरक्षित है । ये पेड़ लम्बी उम्र के होने के साथ-साथ छायादार भी होते हैं । इनसे पक्षियों को छाया, आश्रय और खाने के लिए फल मिल जाते है । इस तरह की जरूरतें पूरी होने पर पक्षी इसे स्थायी ठिकाना बनाकर रहते हैं । वन विभाग को जामुन के पौधों के सहारे पक्षियों का अस्तित्व बनाए रखने की पहल करनी चाहिए । वन विभाग का यह प्रयास लोगों को साथ जोड़ने का भी काम करेगा, क्योंकि इनसे मिलने वाले लाभ के कारण लोग खुद इनकी देखभाल में भी रूचि लेंगे ।
    हमने अपने संकीर्ण स्वार्थो के लिए प्रकृति का अतिदोहन किया है जिसके कारण प्रकृति का संतुलन डगमगाया है ।
जीवन शैली
मूर्ति विसर्जन से प्रदूषित होते जल स्त्रोत
नरेन्द्र देवांगन

    आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन अब पर्यावरण पर भारी पड़ रहा है । हर साल हमारे देश में कई स्थानों पर जोर-शोर से गणेशोत्सव मनाया जाता है और उसके बाद जगह-जगह दुर्गा पूजा का आयोजन होता है । एक अनुमान के मुताबिक हर साल लगभग दस लाख मूर्तियां नदी, तालाबों और झीलों के पानी के हवाले की जाती हैंऔर झीलों के पानी के हवाले की जाती हैंऔर उन पर लगे वस्त्र, आभूषण भी पानी में चले जाते हैं । ज्यादातर मूर्तियां पानी में अघुलनशील प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी होती हैं और उन्हें विषैले एवं अघुलनशील नॉन बॉयोडिग्रेडेबल रंगों से रंगा जाता है । इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की जैविक ऑक्सीजन मांग तेजी से बढ़ जाती है जो जलचर जीवों के लिए कहर बनता है । चंद साल पहले मुम्बई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था कि मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद जुहू तट पर लाखों की तादाद में मरी मछलियां पाई गई थी । 
     केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा दिल्ली में यमुना नदी का अध्ययन इस संबंध में आंखेंे खोलने वाला रहा है कि किस तरह नदी का पानी प्रदूषित हो रहा है । बोर्ड के मुताबिक नदी के पानी में पारा, निकल, जस्ता, लोहा, आर्सेनिक जैसी भारी धातुआें का अनुपात दिनोंदिन बढ़ रहा है । दिल्ली के जिन-जिन इलाकों में मूर्तियां बहाई जाती हैं वहां के पानी के सैंपल्स के अध्ययन में बोर्ड ने पाया कि मूर्तियां बहाने से पानी की चालकता, ठोस पदार्थो की मौजूदगी और जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग बढ़ जाती है और घुलित ऑक्सीजन कम हो जाती है । पांच साल पहले बोर्ड ने अनुमान लगाया था कि हर साल लगभग १८०० बड़ी मूर्तियां दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में बहाई जाती हैं और उसका निष्कर्ष था कि इस कर्मकाण्ड से नदी को अपूरणीय नुकसान हो रहा है और प्रदूषण फैल रहा है ।
    सबसे ज्यादा जल प्रदूषण प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियों के विसजर्न से होता है । इन मूर्तियों में प्रयुक्त हुए रासायनिक रंगों से भी जल प्रदूषण होता है । पूजा के दौरान उत्पन्न ऐसा कचरा, जिसकी रिसाइक्लिंग नहीं की जा सकती है, उससे भी जल प्रदूषण होता है ।
    पिछले कई सालों से यह बात प्रकाश में आई है कि जल प्रदूषण सबसे ज्यादा प्लास्टर ऑफ  पेरिस की मूर्तियों के विसर्जन से होता है । ये सभी मूर्तियां झीलों, नदियों एवं समुद्रों में बहाई जाती है, जिससे जलीय वातावरण में समस्या सामने आती है । प्लास्टर ऑफ पेरिस ऐसा पदार्थ है जो नष्ट नहीं होता है । इससे वातावरण में प्रदूषण की मात्रा के बढ़ने की संभावना बहुत अधिक है । प्लास्टर ऑफ पेरिस  दरअसल कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है । दूसरी ओर, ईको फ्रेडली मूर्तियां चिकनी मिट्टी से बनती हैं, जिन्हें विसर्जित करने पर वे आसानी से पानी में घुल जाती हैं । लेकिन जब इन्हीं मूर्तियों को रासायनिक रंगों से रंगा जाता है तो ये रंग जल प्रदूषण को बढ़ाते हैं ।
    केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस संबंध में मार्गदर्शिका तैयार की है । जिसके अनुसार मूर्तियों का निर्माण प्राकृतिक पदार्थोसे किया जाना चाहिए । इनमें पा्रकृतिक मिट्टी के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए । मूर्तियों पर विषैले एवं जैविक रूप से नष्ट न होने वाले रंगों एवं पेंटों का उपयोग प्रतिबंधित है । प्राकृतिक, अविषैले एवं जल में घुलनशील रंगों का उपयोग किया जाना चाहिए । प्रतिमाआें को सुशोभित करने वाले गहने, फूल,वस्त्र एवं अन्य सजावटी वस्तुआें का विसर्जन के पूर्व  हटा लेना चाहिए । इनमेंसे फूल आदि जैविक रूप से नष्ट होने वाले पदार्थो की कंपोस्टिंग की जानी चाहिए एवं अन्य सामग्री जैसे प्लास्टिक, थमोकोल आदि का पुनर्चक्रण किया जाना चाहिए । फल, नारियल, वस्त्र आदि को गरीबों में बांट दिया जाना चाहिए जबकि अनुपयोगी सामग्री को लैंडफिल के रूप में उपयोग किया जा सकता है । इस संबंध में व्यापक जन जागरूकता की आवश्यकता है, ताकि लोग पवित्र जल स्त्रोतों को प्रदूषण से बचा सकें ।
    जिन स्त्रोतों पर प्रतिमा विसर्जन किया जा रहा है वहां विसर्जन के पूर्व संश्लेषित शीट्स बिछाकर, विसर्जन के पश्चात् शेष बचे हुए पदार्थो को किनारों पर ला कर उनका आवश्यकतानुसार उपयोग या निपटान किया जाना चाहिए ।
    स्थानीय निकायों और जिला प्रशासन के सहयोग से नदियों एवं अन्य जल स्त्रोतों में विसर्जन बिन्दुआें को चिन्हांकित किया जाना चाहिए तथा वहां अनावश्यक भीड़ जमा न हो, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए । इन स्त्रोतों के किनारे विसर्जन के दौरान उत्पन्न ठोस अपशिष्ट को जलाने पर प्रतिबंध होना चाहिए । विसर्जन के ४८ घंटे के भीतर समस्त सामग्री, मलबे आदि को किनारे लाकर उसका उचित निष्पादन किया जाए ।
    नदियों, तालाबों या झीलों में प्रतिमा विसर्जन के पूर्व इनके किनारे अस्थाई सीमांकित पोखर बनाए जाएं जिनमें संश्लेषित लाइनिंग बिछाई जाए एवं इनमें प्रतिमाआें का विसर्जन करवाया जाए । इन अस्थाई पोखरों के ऊपरी पानी को आंशिक रूप से उपचारित करने के लिए चूना मिलाया जा सकता है ताकि पानी मेंउपस्थित गंदगी को अवक्षेपित किया जा सके एंव उसकी उदासीनता बनाए रखी जा सके । इस आंशिक उपचार के उपरांत ऊपरी जल को जल स्त्रोतों में बहने दिया जा सकता है तथा मलबे एवं गंदगी को पृथक कर संपूर्ण जल स्त्रोत को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है । इस संबंध में मूर्ति निर्माण से लेकर विसर्जन तक की गतिविधियों में संलग्न लोगों को जागरूक करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना है ताकि हम वांछित लक्ष्य को प्राप्त् कर सकें ।
    प्रतिमाआें निर्माण एवं विसर्जन के समय थोड़ी सी सावधानी रखकर अपने पवित्र जल स्त्रोतों को, जो वास्तव में हमारे जीवन का आधार भी है, प्रदूषित होने से बचा सकते   हैं । रीति-रिवाजों, मान्याताआें का पालन करें, शास्त्र सम्मत विधि से प्रतिमाआें की स्थापना और पूजा अर्चना करें तथा साथ ही पर्यावरण के प्रति सजगता के साथ समस्त विधान सम्पन्न करें ताकि ये खुबसूरत धरती और इसके संसाधन चिरकाल तक हमें प्राकृतिक और स्वच्छ रूप में उपलब्ध होते रहें । जल अमृत है इसे किसी भी प्रकार से प्रदूषित न होने दें ।
स्वास्थ्य
जीवन रक्षक दवाइयों से वंचित हैं मरीज
भारत डोगरा

    सरकारी अस्पतालों व स्वास्थ्य केन्द्रों में जरूरी दवाइयां नि:शुल्क उपलब्ध करवाने का केन्द्र सरकार का वायदा देश के अधिकांश क्षेत्रों में महज वायदा ही बन कर रह गया है । वैसे कुछ राज्यों, जैसे तमिलनाडु और केरल, ने इस क्षेत्र में पहले भी अपने स्तर पर अच्छा कार्य किया था और अब राजस्थान में भी सराहनीय कार्य हुआ है । पर देश के बड़े हिस्से में अभी सरकार की योजना किसी असरदार रूप से नजर नहीं आ रही है । इसकी एक मुख्य वजह यह है कि केन्द्र सरकार ने इस योजना को आगे ले जाने के लिए बजट प्रावधान न के बराबर किया है । 
     दवाइयों के निशुल्क वितरण के लिए यह जरूरी है कि पहले सस्ती जेनेरिक दवाइयों की केन्द्रीय खरीद की एक बड़ी व्यवस्था स्थापित की जाए । पिछले अनुभव से स्पष्ट हो गया है कि इस तरह अधिकांश जीवन रक्षक दवाइयां बाजार भाव की अपेक्षा बहुत सस्ती कीमत पर खरीदी जा सकती हैं । उसके बाद इन दवाइयों को सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों में निशुल्क उपलब्ध करवाना अपेक्षाकृत कम बजट में संभव   होगा ।
    केन्द्र सरकार इस पहल में जो देरी कर रही है वह उन करोड़ों मरीजों के लिए बहुत महंगा साबित हो रहा है जो जरूरी दवाइयों से वंचित है या महंगी दवाइयों के लिए ब्याज पर कर्ज लेने को मजबूर हैं ।
    चारू गर्ग व अनुप करन के एक अध्ययन के अनुसार मात्र एक वर्ष में ३ करोड़ २० लाख व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाआें के अधिक खर्च के कारण गरीबी की रेखा के नीचे धकेले गए । इससे कुछ पहले वान डोरस्लेअर, ओडोनेल व रैनन-एलिया व अन्य के एक अध्ययन ने ऐसे लोगों की संख्या ३ करोड़ ७० लाख आंकी थी ।
    विभिन्न अध्ययनों के अनुसार वैसे तो सरकारी व गैर सरकारी दोनों तरह के अस्पतालों में इलाज पहले से महंगा हुआ है, पर कुल मिलाकर निजी क्षेत्र के अस्पतालों में इलाज सरकारी अस्पतालों से कहीं अधिक महंगा है । अस्पतालों व डॉक्टरों की फीस के अतिरिक्त दवाइयों की कीमत बहुत अधिक बढ़ी है । विभिन्न तरह के इलाज के खर्च में सबसे बड़ा हिस्सा दवाइयों का ही है । पेंटेट कानूनों में बदलाव के बाद कीमतें तेजी से बढ़ रही है । साथ ही साथ दवा कीमतों पर नियंत्रण भी ढीला हो रहा है व बड़ी कंपनियों की मनमानी बढ़ रही है ।
    दवा उद्योग अपनी तरह का एक अलग ही उद्योग है जिसमें उपभोक्ता, मरीज व उसके परिवार के सदस्य के हितों की रक्षा करना बहुत जरूरी है । इसके लिए उद्योग का उचित व न्यायसंगत नियमन करना बहुत जरूरी है । अनेक धनी, विकसित देशोंमें कुछ हद तक मरीजों की दवा की व्यवस्था सरकार की ओर से, सामाजिक बीमा आदि के माध्यम से की जाती है । पर हमारे देश में स्थिति इससे बहुत भिन्न है ।
    हमारे देश में स्वास्थ्य, मुख्य रूप से इलाज पर होने वाला ८३ प्रतिशत खर्च मरीजों के परिवार व सगे-संबंधी करते हैं व स्वास्थ्य पर मात्र १७ प्रतिशत खर्च सरकार करती है । मरीजों का लगभग  ७० प्रतिशत खर्च दवाइयों पर होता है । देश में व्यापक स्तर पर गरीबी है और लोगों की क्रय शक्ति बहुत कम है । दुनिया में सबसे अधिक संख्या में जरूरी दवाइयों से वंचित लोग भारत में है और विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार ऐसे लोगों की संख्या ६४ करोड़ है ।
    कड़वी सच्चई तो यह है कि हमारे देश का दवा उद्योग ठीक से नियमित नहीं हो रहा है । इसका मूल आधार मरीजों की जरूरत नहीं है अपितु मोटा मुनाफा है । इसके अतिरिक्त इसमें लापरवाही भी बहुत  है ।
    सबसे सस्ती दवाइयां जेनेरिक रूप में उपलब्ध होती है जो प्राय: नहीं लिखी जाती है । इसकी एक मुख्य वजह यह है कि दवा कंपनियां डॉक्टरों को महंगी दवा लिखने के लिए कई प्रलोभन देती हैं । डॉक्टर प्राय: कंपनियों के प्रतिनिधियों की बात को उनकी दवा की कीमत व गुणवत्ता की पर्याप्त् जांच-पड़ताल के बिना ही स्वीकार कर लेते हैं ।
    दवा की कीमत का उसके उत्पादन की लागत से कोई रिश्ता नहीं रह गया है । मनमानी कीमत वसूली जा रही है । यदि यह देखा जाए कि थोक बिक्री के वक्त या बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद के समय किसी दवा की कितनी कीमत तय की जाती है (इसमेंभी कुछ मुनाफा तो शामिल होता ही है) और इसकी तुलना बाजार में मरीज से वसूली गई कीमत से की जाए तो कई गुना का फर्क नजर आता है ।
    वर्ष २०१२ में जो राष्ट्रीय दवा मूल्य निर्धारण नीति अपनाई गई है, उससे कोई उम्मीद नहीं बंधती है । इससे कुछ दवाइयों की कीमतें जरूर कम हुई है, पर भविष्य में कीमत बढ़ने की संभावना बनी हुई है व साथ ही बहुत सी कॉम्बीनेशन (मिश्रित) दवाइयों को तो इस नियंत्रण के दायरे से बाहर रखा गया है । दवा मूल्य निर्धारण का जो नया तरीका सूझाया गया है उसका कोई तर्कसंगत आधार नहीं है । इस तरह बुनियादी समस्याएं तो बरकरार हैं ।
    मौजूदा अव्यवस्था का एक पक्ष यह है कि कई ऐसी खतरनाक दवाइयां भी बाजार में धड़ल्ले से बिक रही हैं जिनके बारे में कई चेतावनियां दी जा चुकी हैं कि ये सुरक्षित नहीं  हैं । मसलन, एनाल्जिन को हाल ही में भारतीय दवा नियंत्रक ने प्रतिबंधित भी किया, पर कुछ ही दिनों बाद यह प्रतिबंध वापस ले लिया गया । हैरानी की बात है कि यह दवा कुछ दिन पहले खतरनाक पाई गई थी तो अब इसका खतरा दूर कैसे हो गया ? यह सवाल उठा कि कही एनाल्जिन पर प्रतिबंध इस कारण तो नहीं हटा कि इसकी वार्षिक बिक्री १०० करोड़ रूपए है और दवा उद्योग का दबाव था कि बिक्री जारी रहे ।
    यदि इसके दुष्परिणाम गंभीर है तो क्या दवा लेने वाले मरीजों के लिए गंभीर खतरा नहींउत्पन्न होता   है । अनेक देश इस दवा को इस आधार पर प्रतिबंधित कर चुके हैं कि इसके सेवन से जीवन को खतरे में डालने वाली ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जिसमें शरीर की रक्षा करने वाली कोशिकाएं कम होने लगती    हैं ।
    इस तरह आज बाजार में बहुत सी खतरनाक दवाइयां बिक रही हैं । विशेषकर, कॉम्बीनेशन के रूप में इनकी बिक्री अधिक है । दूसरी ओर, जवीन रक्षक दवाइयां करोड़ों मरीजों को महंगाई व गरीबी के कारण नहीं मिल रही है ।
    दवा उद्योग के महत्व को देखते हुए उसके उचित नियमन के प्रयास और मजबूत होने चाहिए । साथ मेंजरूरी दवाइयों के उत्पादन व उपलब्धि में सार्वजनिक क्षेत्र को स्वयं भी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी  चाहिए ।
प्रदेश चर्चा
उत्तराखंड : निर्माण के मापदण्डों का निर्धारण
रमेश पहाड़ी
    हिमालय की भौगोलिक संरचना के अध्ययन से पता चलता है कि, यह अत्यंत विविधता भरा क्षेत्र है । नदियों के किनारे कहीं पर बहुत ठ ोस चट्टानों वाले हैं तो कहीं २०० मीटर दूर भी भुरभुरे पहाड़ हैं । ऐसे में न्यूनतम २०० मीटर दूरी पर निर्माण कार्य की स्वमेव अनुमति देना भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है । आवश्यकता है नदियों के तटों का विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन कर नई भवन निर्माण स्वीकृति प्रणाली विकसित की जाए । 
     उत्तराखंड उच्च् न्यायालय ने हाल ही में राज्य में नदी तटों के दोनों ओर २०० मीटर तक की सीमा में किसी भी प्रकार के निर्माण कार्यों को  प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया है । इससे पहले मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी ऐसा ही आदेश कर चुके हैं । लेकिन इसका नियमन कैसे होगा, यह स्पष्ट नहीं किया गया है । उच्च्  न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर यह आदेश जारी किया है कि जिसमें शिकायत की गई थी कि सरकार द्वा़रा जारी आदेश में मठ -मंदिरों का निर्माण प्रतिबंधित नहीं किया गया है, जबकि अन्य निजी निर्माण कार्यों पर रोक लगाई गई है ।
    उत्तराखंड में पर्वतीय क्षेत्रों में जो भौगोलिक स्थिति और स्थलाकृति है, उसमें  इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है । यहां दर्जनों नदियां बहती हैं । ये नदियां कठ ोर चट्टानों के बीच अपना रास्ता बना कर लाखों वर्षों से बह रही हैं । इन नदियों के   पाट कहीं बहुत चौड़े हैं तो कई स्थानों पर, जहां चट्टानें अधिक कठ ोर हैं, वे अपने लिए चौड़ा रास्ता नहीं बना पाई  है और संकरी गहरी घाटियों में बहती   हैं । इन तटीय चट्टानों के  ऊपर जहां कहीं भी थोड़ी समतल भूमि रही, लोगों ने उन पर बस्तियां बसा लीं और ये बस्तियां   हजारों वर्षों से सुरक्षित रूप से टिकीं हुई हैं ।        
    मुख्यमंत्री बहुगुणा के कथन और उसके बाद उच्च् न्यायालय के आदेश में २०० मीटर की दूरी का पैमाना किन विशेषज्ञों के अध्ययनों अथवा संस्तुतियों पर आधारित है, यह वे ही बेहतर समझते हैं । लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों के लिए यह आदेश बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं है । इसलिए इस पर अध्ययन के पश्चात इसके नियमन के नियम-कानून बनाने होंगे । इसके लिए   स्थानीय नागरिकों के अनुभवजनित  ज्ञान का आधार भी लिया जाना जरूरी होगा ।
    अपने लंबे अनुभवों और लोक परंपराओं के आधार पर लोग कई वर्षों से मांग करते आ रहे हैं कि कमजोर  और संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए और उन पर किसी भी प्रकार के निर्माण कार्यो की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए । प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की ६ मांगों में से एक यह भी थी कि संवेदनशील वन क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए और उन पर स्थित वृक्षों का कटान नहीं किया जाना    चाहिए क्योंकि इससे वन क्षेत्रों में भूस्खलन, भूक्षरण, भूधंसाव और भू कटाव अधिक बढ़ेगा ।
    चिपको आंदोलन की मातृ संस्था दशोली ग्राम स्वराज मंडल और उसके प्रणेता चंडीप्रसाद भट्ट ने ३-४ दशक पहले इन तथ्यों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उत्तराखंड केनेता हेमवती नंदन बहुगुणा का ध्यान आकर्षित किया था । बाद के वर्षों में पहाड़ों में भूस्खलन, बाढ़ और भूकंप से होने वाले विनाश की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए अनेक विचार-विमर्श और पत्राचार किए गए, लेकिन उन पर  केन्द्र सरकार ने कोई सार्थक कार्यवाही की और न ही राज्य सरकार ने ।
    महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हमारे पास हिमालय की बहुत कम जानकारी है इसलिए जिसके दिलोदिमाग में जो आ रहा है, वह वैसी ही बात कह देता है । लेकिन  विज्ञान के साथ लोकज्ञान को जोड़ते हुए अपनी समझ बढ़ाने तथा लोकोन्मुखी व्यावहारिक कार्यक्रम बनाने की दिशा में अपेक्षित प्रयास नहीं हो पा रहे हैं । सबसे पहले इसी कमी को दूर करने की जरूरत है ।
    नदी तट और नदी तल के संबंध में भी कुछ बुनियादी तथ्यों को ध्यान में रखना होगा । पहला यह कि पहाड़ों और मैदानों तथा कोर  चट्टानों और मलबे व मिट्टी वाले तटों में स्पष्ट अंतर करते हुए उसके लिए अलग मानक बनाने होंगे । पर्वतीय क्षेत्रों में नदियों की बाढ़ ने इस बार जो उच्च्तम सीमा रेखा तय की है, उससे दस मीटर ऊपर के भूक्षेत्रों को चिन्हित कर, उससे नीचे स्थायी निर्माण कार्यों को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए । यह सीमा रेखा केवल पक्के  चट्टानी क्षेत्रों के लिए हो ।
    नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों का सर्वेक्षण कर संवेदनशील तथा असुरक्षित भू क्षेत्रों की जानकारी संबंधित ग्राम पंचायतों, नगर निकायों, पटवारियों-लेखापालों तथा प्रशासन को उपलब्ध करानी होगी और उन पर स्थायी प्रकृृति के निर्माण कार्यों  को सख्ती से प्रतिबंधित  करना होगा, भले ही वे भू क्षेत्र किसी के भूमिधरी अधिकारों में ही शामिल क्यों न हों ।  हर बरसात में नदी में  रेत व कंकड़ पत्थर आते रहते  हैं । पर्वतीय क्षेत्रों में सामान्यत: उसका टिपान (एकत्र) स्थानीय लोग और ठेकेदार बिना किसी नियम के करते हैं, लेकिन इसका कोई पैमाना नहीं है । इसका नियमन और मानक निर्धारित करने की जरूरत है । लेकिन यह व्यापक अध्ययन करने  तथा उसका नफा-नुकसान तोलने के बाद ही होना चाहिए ।
    हिमालय पर्वत श्रंृखला के बारे में व्यापक वैज्ञानिक जानकारी का अभाव है । इस कारण इस पूरी पर्वत-श्रंृखला में बसाहटों, विकास व निर्माण कार्यों का नीति-नियमन नहीं है । इससे प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी का क्रम लगातार जारी है जिसका त्रास न केवल स्थानीय स्तर पर भोगना पड़ रहा है, बल्कि मैदानी क्षेत्रों की बहुत बड़ी जनसंख्या इसके दुष्प्रभावनों से पीड़ित हो रही हैं । इसलिए इसका वैधानिक अध्ययन कर अति संवेदनशील क्षेत्रों का चिन्हांकन और मानचित्रण करते हुए एक विस्तृत विवरणि का तैयार की जानी चाहिए ।
    बसाहटों, निर्माण-कार्यों और भूमि सहित समस्त प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लिए दिशा-निर्देश तैयार कर उन्हें व्यापक  प्रचार -प्रसार के साथ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए  ताकि लोक व्यवहार उसके अनुरूप लोक व्यवहार हो ।
कविता
मरूस्थल और नदी
डॉ. शिवमगलसिंह सुमन
















 

मैं मरूथल हॅू इसलिए नदी का आकर्षण,
मैं सहज मुक्त माँगता तरलता का बंधन ।
मुझमें उभरे है ढूह, बबूलों की छाया,
तेरी छवि का संकोच दुकूलों ने पाया ।
मेरे कण-कण को प्यास सदा सहलाती है,
मुझमें उड़ती है धूल कि तू लहराती है ।
आँधियों बगूलों की मनुहार लपेटे हॅंू,
तुझको भर लूँ इतना विस्तार समेटे हॅूं ।
मुझमें अंकित बेडौल पगों की कर्मठता,
मुझमें शंकित मन की शफरी-सी चंचलता ।
हर झोंके में उड़ती रहती मन की  पर्तेंा,
मैंने ही गरि को दी थी सागर की शर्ते ।
मेरे सूखे अधरों में एक कहानी है,
मैं रीझ गया इसलिए कि तुझमें पानी है ।
तू बहती रहती है इसलिए जवानी है,
तेरे अन्तर की लहर-लहर लासानी है ।
जो कुछ प्रवाह में सुलझ गया वह तेरा है,
जो कुछ बाहों में उलझ गया वह मेरा है ।
जो कुछ अन्तर में भटक गया वह तेरा है,
जो कुछ अधरों में अटक गया वह मेरा है ।
मैं गीला हो जाता हॅूं भीग नहीं पाता,
इसलिए युगों से है मेरा-तेरा नाता ।
जिस दिन मेरी तापित तृष्णा बुझ जाएगी,
मनुहारों की आधार-शिला ढह जाएगी ।
गिरि-सागर की दूरी कितनी बढ़ जाएगी,
अपनी धड़कन का अर्थ न तू पढ़ पाएगी ।
तेरी साँसों का सूनापन बढ़ जाएगा,
बीती बातों का मोल बहुत चढ़ जाएगा ।
तेरे-मेरे सपनों को कौन सजाएगा ?
अंबर धरती से नाहक सिर टकराएगा ।
पर्यावरण परिक्रमा
आपके खाने में क्या-क्या मिला है ?
    बात भारत की नहींबल्कि अमीर देश अमरीका की है । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अमरीका में जो तैयारशुदा भोजन मिलता है, उसके बारे में बताया नहीं जा सकता कि उसमें जो कुछ मिलाया गया है, वह सेहत के लिए सुरक्षित है या नहीं ?
    एक अनुमान के मुताबिक तैयारशुदा व्यंजनों में लगभग १०,००० अलग-अलग रासायनिक पदार्थो का उपयोग होता है । इनमें से ४३ प्रतिशत को आम तौर पर सुरक्षित की श्रेणी में रखा गया है । इन्हें किसी भोज्य पदार्थ में मिलाने से पहले खाद्य व औषधि प्रशासन की अनुमति जरूरी नहीं होती । दिक्कत यह है कि आम तौर पर सुरक्षित किस पदार्थ को माना जाए, इसे लेकर कोई स्पष्ट मापदण्ड नहीं है । खुद निर्माता को ही तय करना पड़ता है कि किसी पदार्थ को आम तौर पर सुरक्षित की श्रेणी में रखे या नहीं । एक बार जब निर्माता यह फैसला कर लेता है, तो उसे इस बात की सूचना खाद्य व औषधि प्रशासन को देनी चाहिए, हालांकि कोई बाध्यता नहीं  है । दिक्कत यहीं से शुरू होती है ।
    जब २०१० में खाद्य व औषधि प्रशासन ने कैफीनयुक्त अल्कोहल आधारित पेय पदार्थो की जांच की, तो पता चला कि चार में से एक भी निर्माता ने जरूरी जांचे नहीं की थी और बगैर उपयुक्त जांचों के ही कई रसायनों को आम तौर पर सुरक्षित की श्रेणी में डाल दिया था ।
    एक और चिंता का मुद्दा यह सामने आया है कि जहां जांच की भी जाती हैं, वहां इन परीक्षणों की गुणवत्ता का कोई ध्यान नहीं रखा जाता । मसलन, वॉशिंगटन के प्यू चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा किए गए एक आंकलन में पता चला है कि आम तौर पर सुरक्षित के ३८ प्रतिशत मामलों में जो जांच की गई वह खाद्य व औषधि प्रशासन की सिफारिशों के मुताबिक नहींथी । जैसे एक शर्त यह है कि ऐसी जांच का काम स्वयं निर्माता नहीं बल्कि कोई स्वतंत्र एजेंसी करें । मगर २२ प्रतिशत मामलों में जांच का काम निर्माता के किसी कर्मचारी द्वारा ही किया गया था ।
    यह हाल अमरीका का है । हमारे यहां पता नहीं क्या व्यवस्थाएं हैं जबकि हमारे देश में तैयारशुदा खाद्य पदार्थो का चलन लगातार बढ़ रहा है । अमरीका के खाद्य व औषधि प्रशासन में अब इस बात को लेकर जागरूकता बढ़ी है और जल्दी ही आम तौर पर सुरक्षित श्रेणी के संदर्भ में कुछ दिशा निर्देश जारी होने की उम्मीद है ।

याददाश्त सुधारने वाला पोषक तत्व
    हालांकि अभी ये प्रयोग ड्रॉसोफिला नामक मक्खी पर हुए हैं मगर वैज्ञानिकों को लगता है कि इनके परिणाम मनुष्यों में याददाश्त की रक्षा करने में मददगार होंगे । यह बात शायद कम ही लोग जानते होगें कि हमारी तरह ड्रॉसोफिला भी उम्र के साथ स्मृति-भ्रंश का शिकार होती है । ड्रॉसोफिला वह सूक्ष्म मक्खी है जो सड़ते हुए फल-सब्जियों पर मंडराती रहती है ।
    ड्रॉसोफिला पर किए गए इन प्रयोगों का ब्यौरा नेचर न्युरोसांइस के पिछले अंक में दिया गया है । ये प्रयोग बर्लिन मुक्त विश्वविघालय के स्टीफन सिग्रिस्ट ने किए हैं । प्रयोगों के दौरान पाया गया कि पोलीअमीन्स समूह के कुछ रसायन ड्रॉसोफिला को उम्रजनित स्मृति-भ्रंश से बचाने में कारगर होते हैं ।
    इससे पहले भी वैज्ञानिक यह दर्शा चुके हंै कि ड्रॉसोफिला अथवा कुछ कृमियों को पोलीअमीन्स की खुराक मिले तो उनकी आयु बढ़ती है । ऐसा माना जाता है कि हमारी कोशिकाएं अपने मलबे को साफ करने के लिए ऑटोफेजी नामक क्रिया का सहारा लेती हैं । उम्र के साथ यह क्रिया धीमी पड़ने लगती  है । इसकी वजह से मलबा इकट्ठा होता रहता है और कई दिक्कतें पैदा होती हैं । वैज्ञानिकों को लगता है कि पोलीअमीन्स ऑटोफेजी को बढ़ावा देते हैं ।
    पोलीअमीन्स की भूमिका को समझने के लिए सिग्रिस्ट और उनके साथियों ने पहले तो कुछ ड्रॉसोफिला मक्खियों को प्रशिक्षण दिया कि वे एक खास गंध का संबंध बिजली के झटके से जोड़ लें । देखा गया कि युवा मक्खियां इस बात को जल्दी सीख लेती हैं और देर तक याद रखती हैंे । इसके विपरीत बूढ़ी मक्खियां धीमी गति से सीखती हैं और जल्दी ही भूल भी जाती हैं ।
    प्रयोग के अलग चरण में बूढ़ी मक्खियों को पोलीअमीन्स की अच्छी खुराक पर रखा गया । इसके बाद देखा गया कि उनमें और युवा मक्खियों के सीखने व याद रखने में कोई अंतर न रहा । इस प्रयोग के परिणामों की पुष्टि के लिए इसे कई बार किया गया और अलग-अलग शोधकर्ताआें से करवाया गया । वैज्ञानिकों ने इसी प्रयोग के एक संस्करण में कुछ बूढ़ी मक्खियों को पोलीअमीन्स खिलाने की बजाय उनके शरीर में ऐसे एंजाइम्स को सक्रिय किया जो पोलीअमीन्स का उत्पादन करने में सहायक होते हैं । इस प्रयोग में वही देखने को मिला - इन बूढ़ी मक्खियों की याददाश्त पहले से काफी बेहतर रही ।
    वैसे कई वैज्ञानिक पहले से कहते आए हैं कि पोलीअमीन्स स्वास्थ्य के लिए अच्छे होते हैं । गेहूं के अंकुर वाले हिस्से में या अंकुरित सोयाबीन में इनकी पर्याप्त् मात्रा पाई जाती है और कई वैज्ञानिक ऐसे खाद्य पदार्थो की अनुशंसा करते आए हैं । अब सिग्रिस्ट पोलीअमीन्स का असर इंसानों में देखने को उत्सुक हैं । शाद जल्दी ही हमारे सामने एक और उत्पादन होगा जो याददाश्त बढ़ाने का वायदा करेगा और हर बच्च्े की जरूरत बन कर विज्ञापनों में छा जाएगा ।
 भूखे पेट सोने वालों में एक चौथाई भारतीय
    दुनिया को भूख मुक्त बनाने में तमाम अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के बावजूद विश्व में ८४ करोड़ से ज्यादा लोग भूखे पेट सोने को मजबूर है जिनमें से एक चौथाई अकेले भारत में हैं । विश्व खाद्य दिवस की पूर्व संध्या पर ब्लोबल हंगर इंडेक्स की कुल यहां जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २०११-१३ के दौरान भूखे लोगों की संख्या ८४ करोड़ २० लाख है जिनमें से २१ करोड़ भारतवासी है । हालांकि २०१०-१२ के ८७ करोड़ की तुलना में भूखे लोगों की संख्या अपेक्षाकृत कम हो गई है । लेकिन रिपोर्ट का दावा है कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन ने कुपोषण को मापने के पैमाने में बदलाव कर दिया है ।
    संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान कीमून ने विश्व खाद्य दिवस पर अपने संदेश में रोज ८४ करोड़ लोगों के भूखे सोने पर गंभीर चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि लोगों को बेहतर पोषण उपलब्ध कराना विश्व समुदाय के समक्ष बड़ी चुनौती है । उन्होने कहा कि इसके लिए कारगर नीति बनानी होगी जिसमें व्यक्तियों पर्यावरण संस्थाआें को शामिल किए जाने के साथ ही कृषि पैदावर और प्रसंस्करण बढ़ाकर इसकी उपभोक्ताआें तक आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी । श्री मून ने इस बात पर भी चिंता जाहिर की कि विश्व के दो अरब लोग कुपोषण का अभिशाप झेलने को मजबूर है । उन्होनें बताया कि खराब पोषण के कारण १.४ अरब लोगों का वजन सामान्य से ज्यादा है तथा इनमें से एक चौथाई मोटापे की समस्या से पीड़ित है जिनके दिल की बीमारी, मधुमेह और अन्य बीमारियों से ग्रसित होने का खतरा है ।
    इंडेक्स के अनुसार भूख के मामले में भारत इथोपिया, सूडान, कांगो, चाड़, नाइजर और अन्य अप्रीकी देशों के साथ खतरनाक २० देशों की श्रेणी में शामिल है । ये अप्रीकी देश युद्ध और अत्यन्त निर्धनता से त्रस्त है । हालांकि भारत में कुपोषित लोगों का प्रतिशत २१ से कम होकर १७.५ पर आ गया । कम वजन वाले बच्चें की तादाद भी ४३.५ प्रतिशत से मामूली घटकर ४० प्रतिशत हो गई और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चें की मृत्यु दर ७.५ के मुकाबले छह प्रतिशत पर आ गई । इस तरह से भूख के मामले में भारत की स्थिति में सुधार आया है ।     भूखे देशों की सूची में भारत वर्ष २००३-०७ के मुकाबले २००८-१२ में २४ वें स्थान से २१ वें पर आ गया है ।
मच्छरों से बचाव करेगा हरी चाय का पौधा
    काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के द्रव्य गुण विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. के.एन. द्विवेदी ने मच्छरों से बचाव के लिए हरी चाय के पौधे के रूप में हर्बल और बेहद सस्ता उपाय खोज निकाला है । हरि चाय का पौधा जानलेवा मच्छरों का दुश्मन है । इस पौधो की खुशबू से मच्छर दूर भाग जाएंगे । प्रो. द्विवेदी ने बताया कि इस पौधे का अस्तित्व सदियों से है और ये गांवों में बड़ी ही आसानी से पाए जाते है, लेकिन लोगों को इसके गुण और प्रयोग करने का तरीका पता हीं नहीं है । यह एक ऐसा कारगर पौधा है, जो आपके घर से मच्छरों को भगा देगा । इस पौधे को आयुर्वेद की भाषा में कृत्रण कहते हैं और इसका वैज्ञानिक नाम सिम्बोपोगां स्कुलथाश है । हरी चाय के पौधे की खुशबू बिल्कुल नीबू की तरह होती है । ये पौधे मच्छर और मक्खियों के दुश्मन है । हरी चाय हर्बल होने के साथ ही मच्छरों को मारने के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली तमाम दवाइयों से बहुत ही सस्ती है ।
 विज्ञान, हमारे आसपास
सहारा रेगिस्तान में कभी नदियां बहती थीं
संध्या रायचौधरी

    सहारा रेगिस्तान का नाम जेहन में आते ही ख्याल आता है कि रेत के टीलों और एक ऐसी जगह का जहां एक बूंद पानी तक के लिए कोई तरस जाए । सहारा रेगिस्तान ५१०० किलोमीटर लंबी व २२०० किलोमीटर चौड़ी एक रेतीली पट्टी के रूप में उत्तरी अफ्रीका में फैला है । अपने मेंअफ्रीकी महाद्वीप का करीब सवा करोड़ वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल समेटे यह करीब-करीब पूरे युरोप के बराबर है । उत्तर में एटलस पर्वत श्रृंखला से लेकर दक्षिण में सूडान व पश्चिम में अटलांटिक महासागर से लगकर नील की पहाड़ी तक एक नन्हीं सी नदी तक यहां नजर नहीं आती । 
     प्राचीन इतिहासकारों ने भी अपने लेखों व यात्रा वृतांतों में इस रेगिस्तान का वर्णन किया है । इन लेखों को पढ़कर पता चलता है कि आज से ३००० साल पहले भी यह रेगिस्तान ऊंची, पथरीली चट्टानों, बालू के टीलों व नमक की पहाड़ियों से भरा था । आज के सहारा का करीब ४० प्रतिशत तो सूखी रेत से ही पटा है । बाकी हिस्से से ऊंची चट्टानें है जिनकी ऊंचाई १०००० फुट से भी अधिक है । मजे की बात है कि कई बार सर्दी के मौसम में इन पर बर्फ भी जम जाती है । सहारा का काफी बड़ा भाग समुद्र में १५०० फुट नीचे स्थित है । इसके तटीय क्षेत्रों में, जहां बारिश होती रहती है, छोटे मरूस्थलीय पौधे, झाड़ व खजूर के पेड़ भी दिख जाते हैं । यही वह स्थान है जहां कुछ लोगों का अत्यधिक कठिन परिस्थितियों में रहते देखा जा सकता है ।
    सोचकर आश्चर्य होता है कि आज बूंद-बूंद पानी को तरसते सहारा रेगिस्तान में कभी पेड़-पौधे व जीव-जन्तु भरे पड़े थे । ऐसे कई प्रमाण मिले हैं जो यह दर्शाते है कि यह क्षेत्र हरियाली से भरा था और यहां तमाम अफ्रीकी लोग रहते थे । इस बात के प्रमाण तब इकट्ठा होने शुरू हुए जब उन्नसवीं शताब्दी के प्रारंभ में फ्रांस निवासी रैन फैली ने १८२८ में इस रेगिस्तान को अकेले पैदल पार   किया । वे टिम्बकटू से लेकर मोरक्को तक गए थे । इस फ्रांसीसी की इस अद्भुत यात्रा के बारे में जब युरोप के लोगों को पता चला तो तमाम लोग इस रेगिस्तान की खोजबीन करने के लिए तैयार हो गए । यहां पर हफ कलैप्टर्न, वाल्टर आदि ने आकर पत्थरों पर खुदे चित्रों में तमाम ऐसे जानवार खोजे जो अब वहां पाए ही नहीं जाते । इन लोगों ने ही यह निष्कर्ष निकाला कि ये चित्र यहां बसी आबादी के ही कुछ लोगों ने बनाए होंगे ।
    सहारा के अतीत को जानने में प्रमुख मोड़ १८५५ में आया जब जर्मनी निवासी हेनरिच बार्थ ने पांच साल में कई महत्वपूर्ण स्थानों जैसे कडआर, फैज्जान, चाड़, टिम्बकटू आदि का भ्रमण करने के बाद सहारा का पूरा मानचित्र बनाया । उन्होनें पता लगाया कि यहां पर कहीं भी ऊंट का चित्र नहीं मिलता है । यानी एक समय यहां पर ऊंट का अस्तित्व था ही नहीं । हेनरिच ने सहारा के पूरे इतिहास को दो भागों में बांटा - १. ऊंट पूर्व काल और २. ऊंट काल ।
    सहारा में मिलने वाली गुफाआें का अध्ययन का जब फ्रांस  के पुराविद मोनोड ने किया तो उन्होनें उन चित्रों में ऐसे जानवर भी खोजे जो पानी में ही रहते हैं । यहां दरियाई घोड़ों के चित्र भी मिले । उन्होनें पाया कि इनके ऊपर ही घोड़े के चित्र भी बने हैं जो कई हजार साल बाद बनाए गए होंगे । उस समय तक दरियाई घोड़े खत्म हो गए थे । ऊंट काल की शुरूआत आज से करीब सवा दो हजार साल पहले हुई थी । इसके बाद जैसे-जैसे सहारा रेगिस्तान रेगिस्तान बढ़ता गया, वैसे-वैसे ऊंट पूरे रेगिस्तान में फैलने लगे । इन चित्रों में युद्ध, जानवरों के शिकार, दैनिक क्रियाकलाप आदि के साथ पेड़-पौधों के चित्र थे ।
    यही नहीं, यहां की चट्टानों पर भी बहते पानी के तमाम निशान मिले हैं । यानी कभी यहां पर काफी पानी बहा करता था । यह हरा-भरा क्षेत्र मरूस्थल में इसलिए बदल गया क्योंकि धु्रवीय क्षेत्रों में आने वाली ठंडी हवाएं यहां नहीं पहुंचने लगीं । यहीं वे हवाएं थी जिनकी वजह से यहां पर जमकर बारिश होती थी । वैज्ञानिकों के अनुसार, आज से करीब १०-११ हजार साल पहले उत्तरी युरोप पर छाई रहने वाली बर्फ की चादर सिकुडने लगी । बर्फ के सिकुड़ते ही वायुमंडलीय दाब में भी परिवर्तन शुरू हो गए और इसी दाब ने बादलों पर भी प्रभाव डाला ।
    नतीजतन, ठंडी हवाआें की जगह सहारा के ऊपर गर्म हवाएं बहने लगीं । धीरे-धीरे यहां पानी की कमी होने लगी और पानी के भीतर रहने वाले जीव कम होते गए । जमीन पर रहने वाले जीव अन्य जगहों पर चले गए और इंसान भी दूसरे आश्रय की खोज में निकल पड़े ।
    यह प्रक्रिया काफी धीमी गति से मगर कई हजार साल तक चलती रही । आज से करीब ३००० साल पहले सभी पेड़ पौधे लुप्त् हो गए और सहारा रेगिस्तान बन गया । दिन का तापमान ४९ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता और रात बर्फीली ठंडी   होती । ताप के इतने उतार-चढ़ाव से ही चट्टानों की ऊपरी सतह में फैलाव  और सिकुड़न होने लगी जिससे चट्टानें टूटने लगीं । इन टूटी चट्टानों से हवाएं टकराती व चट्टानों घिसती रहती और बालू व बजरी से क्षेत्र भरते    रहते ।
    रेत के इधर-उधर बिखरने से नदियों के बहाव पर भी प्रभाव पड़ा और उनका बहाव कम होता गया । कई दशकों तक बारिश न होने की वजह से नदियों दलदल में बदल    गई । इसी के साथ यहां तेजी से बहने वाली हवाआें ने रेत को चारों और फैला दिया और कमी हरियाली से भरा सहारा सूखे रेगिस्तान में बदल गया ।

ज्ञान विज्ञान
आल्प्स के ग्लेशियर और औघोगिक क्रांति
    मौसम वैज्ञानिकों और ग्लेशियर (हिमनद) वैज्ञानिकों के सामने एक पहेली रही है - आलप्स पर्वत के ग्लेशियर उन्नीसवींसदी के मध्य (करीब १८५०) में क्यों तेजी से पिघलना शुरू हो गए थें ? इस उलझन की वजह यह है कि यह वह समय था जब धरती का तापमान कम था और ५०० साल तक चला लघु हिमयुग अभी समाप्त् नहीं हुआ  था । इसका मतलब है कि १८५० में आलप्स ग्लेशियर्स के पिघलने में तेजी आना तापमान में आम वृद्धि की वजह से नहीं हुआ होगा । वैसे अन्य स्थानों पर भी ऐसा ही हुआ होगा, मगर रिकॉड्र्स आल्प्स के बारे में ही मिलते हैं ।
 
     इस उलझन को सुलझाने के लिए ग्लेशियर वैज्ञानिक यह मानते हुए आए हैं कि किसी वजह से उस इलाके में बर्फबारी में गिरावट आई थी और ग्लेशियर्स सिकुड़ने लगे थे । मगर अब ऑस्ट्रिया के इन्सब्रुक विश्वविघालय के ग्लेशियर विशेषज्ञ जॉर्ज कैसर ने अपने ताजा अध्ययन के आधार पर बताया है कि आल्प्स के ग्लेशियर्स पिघलने का प्रमुख कारण वह कालिख थी जो औघोगिक क्रांति के चलते कारखानों और भाप के इंजिनों सै पैदा होती थी ।
    कैसर के मुताबिक यह कालिख (सूट) दरअसल कार्बन के बहुत बारीक करणों से बनी होती है जो हवा में तैरते रहते हैं और धीरे-धीरे किसी भी सतह पर बैठते है । जब कार्बन के ये कण बर्फ पर जमा हो जाते हैं तो बर्फ की सतह ज्यादा मात्रा मेंगर्मी सोखने लगती है । ज्यादा गर्मी मिलेगी तो जाहिर है, बर्फ ज्यादा तेजी से पिघलेगी । प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज मेंप्रकाशित शोध पत्र में उन्होनें अपने अध्ययन का विस्तृत ब्यौरा दिया है ।
    कैसर ने थॉमस पेंटर के साथ मिलकर आल्प्स के दो ग्लेशियर्स मेंसे बर्फ के नमूने प्राप्त् किए । इन नमूनों के विश्लेषण से पता चला कि १८६० के बाद बनी बर्फ में कालिख की मात्रा तेजी से बढ़ने लगी थी । कैसर व पेंटर ने कालिख की इस मात्रा और गर्मी सोखने की बर्फ की क्षमता का आकलन करने के लिए एक कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया । इस प्रोग्राम में आल्प्स से प्राप्त् वास्तविक आंकड़े डालने पर साफ हो गया कि दोषी कौन है ।
    कैसर का मत है कि आल्प्स के ग्लेशियर्स के पिघलने की व्याख्या करने के लिए कालिख की यह मात्रा पर्याप्त् है, किसी और कारक की जरूरत नहीं है । यदि यह कालिख न होती तो ग्लेशियर्स का पिघलना तब शुरू होता जब बीसवीं सदी में धरती का औसत तापमान बढ़ने लगा था । (जो मूलत: औघोगिक क्रांति की ही देन है) । 
पक्षी स्पीड लिमिट का ख्याल रखते हैं
    पक्षी सड़क पर लगे गति सीमा के बोर्ड पढ़ तो नहीं सकते मगर ऐसा लगता है कि वे इस बात को पहचानते हैं कि किसी रास्ते पर गति सीमा कितनी निर्धारित की गई है । 
      क्यूबेक विश्वविघालय के पियरे लेगानो और मॉन्ट्रियाल के मैकगिल विश्वविघालय के सिमोन डुकाटेज ने प्रयोगशाला से घर जाते हुए पक्षियों का एक अजीब अध्ययन शुरू किया था । उन्होंने पाया कि जिस सड़क पर गति सीमा ५० किलोमीटर प्रति घंटा होती है, वहां सड़क पर बैठे पक्षी तब उड़ते हैं जब कार उनसे मात्र १५ मीटर दूर रह जाती है । दूसरी ओर, यदि उस सड़क पर गति सीमा ११० किलोमीटर प्रति घंटा है, तो वे कार के ७५ मीटर दूर रहते ही उड़ जाते हैं । और तो और, अवलोकनों से यह भी समझ में आया कि ये पक्षी कार की गति को देखकर तय नहीं करते कि उन्हें कब उड़ना  हैं । यदि धीमी गति सीमा वाली सड़क पर कोई कार तेजी से आ रही हो, तब भी वे १५ मीटर की दूरी का ही ख्याल रखते हैं । इसी प्रकार से यदि तेज सड़क पर धीमी कार हो तो भी वे ७५ मीटर का फासला रह जाने पर उड़ जाते हैं । यानी पक्षी आती हुई कार की गति का नहीं बल्कि उस सड़क पर निर्धारित गति सीमा के अनुसार व्यवहार करते हैं । आखिर कैसे ?
    उपरोक्त शोधकर्ताआें का विचार है कि पक्षी इन कारों को शिकारी समझते हैं और यह समझ लेते हैं कि कुछ पर्यावरणों में शिकारी अपनी तेज गति के कारण ज्यादा खतरनाक होते हैं । शोधकर्ताआें ने यह भी देखा कि मौसम का असर भी इस बात पर पड़ता है  कि पक्षी कार के कितने पास आने पर उड़ जाएंगे । आम तौर वसंत के मौसम में वे कार को ज्यादा नजदीक आने देते हैं जबकि शरद ऋतु में वे ज्यादा सावधानी बरतते हैं ।
    शोधकर्ताआें के मुताबिक इसके दो कारण हो सकते हैं । पहला तो यह हो सकता है कि वसंत ऋतु में पक्षी वैसे ही अधिक फुर्तीले होते हैं और कार के पास आने तक बैठकर इन्तजार कर सकते  हैं । दूसरा यह भी हो सकता है कि वसंत में सड़कों पर बैठे ज्यादातर पक्षी हाल ही में उड़ना सीखे शिशु होते हैं, जो सड़क के नियम सीख ही रहे  हैं । जैसे भी हो मगर एक बात स्पष्ट है पक्षी अपने पर्यावरण में खतरे का स्तर भांपकर अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालने में सक्षम होते हैं ।

क्यों ठंडी हुई थी धरती १२ हजार साल पहले
    यह तो सभी मानते हैं कि लगभग १२००० साल पहले धरती एकदम ठंडी हो गई थी  मगर इस बात को लेकर तल्ख विवाद है कि ऐसा क्यों हुआ था । अब कुछ नए प्रमाण मिलने के साथ बहस फिर छिड़ गई है ।
    लगभग ११६०० से १२९०० साल पहले पृथ्वी की जलवायु में अचानक परिवर्तन आया था । उत्तरी इलाकों का तापमान तो इस एक सदी के दौरान कई डिग्री कम हो गया था । इस अचानक आए जाड़े को यंगर ड्रायस नाम दिया गया है । इस संदर्भ में एक परिकल्पना यह है कि उत्तरी अमरीका के खिसकते ग्लेशियर्स  (हिमनदों) के कारण पिघलता बर्फ पानी बनकर आक्र्टिक महासागर मेंपहुंचा । इसकी वजह से समुद्र में पानी की धाराएं धीमी पड़ गई थी और उत्तरी गोलार्ध ठंड से ठिठुरने लगा था । 
     दूसरी परिकल्पना यह है कि उत्तरी अमरीका पर कोई उल्का या धूमकेत गिरा या ठीक ऊपर आकर फट गया । इसके चलते भयानक आग लगी । इस आग के चलते खूब धुंआ और धूल वातावरण में फैले और हिमनद का बंटाढार हो गया । बाद में इस धूल भरे वातावरण के कारण पृथ्वी ठंडी हुई ।
    अब इन दोनों में से कौन सी परिकल्पना सही है ? अब तक उल्का के गिरने या फटने का कोई सबूत नहीं था । इसलिए ग्लेशियर खिसकने के सिद्धांत को ही स्वीकार किया जाता था । मगर अब ऐसे विस्फोट या टक्कर के कुछ प्रमाण मिले हैं । जैसे १२,००० साल पहले अस्तित्व में रही मानव बसाहटों के अवशेषों के अध्ययन से लगता है कि कोई चीज टकराई तो थी । मगर यदि ऐसा हुआ होता तो इस घटना का असर उत्तरी अमरीका के बड़े भूभाग पर होना चाहिए, जिसके प्रमाण नहीं मिलते । हाल ही में ५० शोधकर्ताआें ने खोज की है कि यंगर ड्रायस के समय के ग्रीनलैण्ड के बर्फ में उल्काजनित प्लेटिनम मिलता है ।
    दरअसल, यीवोन मेलिनो-व्स्की ने इस प्रागैतिहासिक जाड़े के बारे में एक वृत्तचित्र देखा और पेनसिल्वेनिया की अपनी जमीन से पत्थर के कुछ टुकड़े शोधकर्ताआें को भेजे । इन पत्थरों के विश्लेषण से पता चला है कि ये क्यूबेक (कनाड़ा) से आए    हैं । हेनोवर के डार्टमाउथ कॉलेज के भूवैज्ञानिक मुकुल शर्मा का मत है कि ये चट्टाने जरूर किसी चीज के पृथ्वी के टकरा जाने के कारण उछली होगी और यहां-वहां बिखरी होगी । मगर आलोचकों के मुताबिक सिर्फ कुछ पत्थरों का पाया जाना उल्का-टक्कर का सबूत नहीं माना जा सकता ।  बहरहाल मुकुल शर्मा का यह शोध पत्र प्रकाशित होने जा रहा है क्योंकि शोध पत्रिका का कहना है कि मामला इतना विवादास्पद और खुला है कि हर विचार को सामने आने का मौका मिलना चाहिए ।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

सामाजिक पर्यावरण
समुदाय आधारित समाज का बिखराव
कश्मीर उप्पल

    भारतीय समाज आपसी रिश्तों  की अनलिखी दास्तान रहा है । बुंदेलखंड के, गांवों के किसी घर से यदि शाम को धुआं निकलते नहीं दिखता था तो पूरा गांव चिंतित हो उसकी कुशलक्षेम पूछता था और उसकी समस्या का निवारण करता था । मगर नई विकास नीतियां इस स्वनिर्भर समाज को परजीवी बना रही है ।
    जब हम विकास को बढ़ाने की बात करते हैं तो हमारा मतलब वस्तुओं का विकास है अथवा मनुष्यों का ? और अगर हम मनुष्यों के विकास की बात कहते हैं तो कौन से मनुष्य ? वे कहां   हैं? उन्हें मदद की जरूरत क्यों है ? मनुष्य में दिलचस्पी लेने से एसे असंख्य प्रश्न उठेगे ।  ई.एफ. शुमाकर अपनी पुुस्तक  `स्माल इज ब्युटीफूल` में स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य में दिलचस्पी लेने से असंख्य प्रश्न उठते हैं । शायद इसीलिए हमारे अर्थशास्त्री और नेता राष्ट्रीय उत्पादन, राष्ट्रीय आय, बचत विनियोग, विदेशी मुद्रा भंडार, शेयर सूचकांक और आर्थिक विकास की दर जैसी अमूर्तन शब्दावली में देश को संबोधित करते हैं ।
      लेकिन सरकारी प्रचार से संस्थानों और बुद्धिजीवियों के विचार और तथ्य अनदेखे रह जाते हैं । वैसे सरकारें खुद अपने द्वारा बनवाए गए तथ्यों को ही अपना अंतिम सत्य मान बैठती है । सरकारों के कामकाज के मूल्यांकन के कई आधार होेते हैं । इन आधारों में से किसान आत्महत्या और शिशु मृत्यु दर सबसे सवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। दुनिया के पिछड़े, विकासशील और विकसित देश अपनी भौगोलिक स्थिति से नहीं वरन् अपने नागरिकों के जीवनस्तर से जाने जाते हैं ।
    भारत सरकार की जनगणना रपट २०११ के अनुसार भारत के कई राज्यों में कृषिगत समस्याओं के कारण खेती करने वाले किसानों की संख्या घट रही है । मध्यप्रदेश में ही खेती करने वालों की संख्या ११ प्रतिशत घटकर ९८ लाख केआसपास रह गई है । २००१ की जनगणना तक एक करोड़ १० लाख लोग खेती से जुड़े थे । अब इनमें से कई किसान कृषि मजदूरी करने में लगे हैं । `मालिक से मजदूर बन जाना` कोई सरल वाक्य नहीं है ।
    चेन्नई स्थित पत्रकारिता के एशियन कॉलेज के अर्थशास्त्री प्रोफेसर नागराज द्वारा २००८ में किसान-आत्महत्याओं पर किए गए नवीन अध्ययन के अनुसार भारत में २००१ की जनगणना की तुलना में २०११ की जनगणना में किसान आत्महत्याओं में अधिक वृद्धि हुई है ।
    देश के मध्य में स्थित पांच बड़े राज्य आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में देश में हुई कुल किसान आत्महत्याओं की दो-तिहाई आत्महत्याएं हुई हैं । राज्य सरकारें और पुलिस किसानों के नाम जमीन की रजिस्ट्री होने पर ही किसान आत्महत्या का प्रकरण दर्ज करते हैं । भारत के संयुक्त   परिवारों में परिवार के मुखिया या एक बड़े सदस्य के नाम पर ही जमीन दर्ज होने की परम्परा है । ऐसे में किसान आत्महत्याओं की संख्या न जाने कितनी और अधिक हो सकती है । प्रोफेसर नागराज के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य ने २०११ वर्ष को `जीरो किसान आत्महत्या वर्ष` घोषित किया था, जबकि सच्चई यह है कि २०११ के पूर्व के तीन वर्षों में छत्तीसगढ़ में देश में हुई कुल किसान आत्महत्याओं से ३५० गुना अधिक आत्महत्याएं हुई हैं । इस दौरान यहां ४७०० किसानों की आत्महत्या दर्ज हैं ।
    इसके पहले पंजाब और हरियाणा जैसे विकसित राज्य भी `महिला-किसान आत्महत्या शून्य वर्ष` मना चुके हैं । सच्चई यह है कि अत्यंत कम महिलाओं के नाम किसानी जमीन दर्ज है । जनगणना वर्ष २००१ से वर्ष २०११ में अधिक किसान आत्महत्या होने वाले १० राज्यों में पंजाब और हरियाणा भी शामिल हैं । राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो रिकार्ड के अनुसार १९९५ से २०११ तक २,७०,९४० किसानों ने आत्महत्या की है । इस प्रकार औसतन ४६ किसान प्रतिदिन आत्महत्या करते हैं । इन बड़े पांच राज्यों में महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य किसानों की संख्या में जनगणना २०११ में कमी दर्ज हुई है ।
    किसान आत्महत्याओं की पृष्ठभूमि में ही शिशु मृत्यु दर के आंकड़ों को समझना जरूरी है । किसानों की नई कृषि और ग्रामीण व्यवस्था में हिम्मत टूट रही है तो गर्भवती स्त्रियों और नवजात शिशुओं के पांव  परती-भूमि पर कैसे टिक सकते हैं । इस वर्ष `सेव द चिल्ड्रन` की रपट हमारे देश की व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्न खड़ा करती है । इसका इस वर्ष का विषय `विश्व की माताओं की स्थिति` पर केन्द्रित है । इस रपट के अनुसार प्रथम दिवस शिशु मृत्यु में इस बार भी भारत `प्रथम` स्थान पर ही रहा है । भारत में जन्म के पहले दिन ही ३,०९,३०० नवजात शिशुओं की मृत्यु हो जाती है । यह पूरे विश्व की प्रथम-दिवस शिशु मृत्यु का २९ प्रतिशत है ।
    विश्व में तंजानिया, अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, बांग्ला-देश, इथोपियो, कांगो, चीन, पाकिस्तान और नाईजीरिया में यह मृत्यु दर ९ प्रतिशत से भी कम है । चीन को छोड़कर शेष देशों की जनसंख्या भारत से कम है, परन्तु अन्य दूसरे देश आतंकवाद, गृहयुद्ध और अकाल से पीड़ित भी हैं । इन देशों में प्रशासकीय अव्यवस्था के बीच कम से कम एकसामाजिक व्यवस्था तो बनी हुई है ।
    `सेव द चिल्ड्रन` की रपट का दूसरा भाग और भी अधिक भयावह तथ्यों को उजागर करने वाला है । भारत के चयनित राज्यों में प्रति १००० जीवित जन्म देने वाले बच्चें में से जन्म के ७ दिनों के अंदर मर जाने वाले बच्चें की मृत्यु दर विशेषकर `बीमारु` राज्यों में सार्वाधिक है । इस रपट के अनुसार इस श्रेणी के बच्चें की संख्या में मध्यप्रदेश का प्रथम स्थान है । मध्यप्रदेश में प्रति एक हजार जीवित जन्में बच्चें में से ३२ की मृत्यु हो जाती है । इसके बाद क्रमश: उत्तरप्रदेश ३०, ओडिसा ३०, राजस्थान २९, जम्मू और कश्मीर २६ और झारखंड, बिहार, असम और छत्तीसगढ़ में २५ बच्चे आते हैं ।
    हमारे देश के ही एक राज्य केरल में यह मृत्युदर सबसे कम ०५ है । इसके कम होने को स्वास्थ्य के साथ केरल की शिक्षा से भी जोड़कर देखना जरूरी है । इस समय गुजरात राज्य के विकास मॉडल की अधिक चर्चा है । गुजरात में एक हजार जीवित जन्में बच्चें में से ७ दिन के अंदर मर जाने वाले बच्चें की संख्या २२ है । किसान आत्महत्या और शिशु मृत्यु दर का सहसंबंध सरकार और समाज की अराजकता का प्रतीक है । केन्द्र सरकार का एक विज्ञापन कहता है कि कुपाोषण भारत छोड़ो पर यह नहीं बताता आखिर यह कुपोषण आता कहां से है ? कुपोषण केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की नीतियों में ही कहीं छुपा रहता है ।
    कार्ल मार्क्स ने अपने ग्रंथ `पूंजी` में लिखा है कि `एशिया के राज्य लगातार बिगड़ते और बनते तथा हुकुमत करने वाले राजवंश लगातार बदलते रहते हैं। लेकिन उसके विपरीत, ये ग्रामीण समाज सदा ज्यों के त्यों बने रहते हैं । `न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून` में `हिंदुस्तान में ब्रिटिश शासन` नामक आलेख में मार्क्स लिखते हैं कि हिंदुस्तानियों की पुरानी दुनिया का इस तरह बिछुड़ जाना और नई का कहीं पता न लगने से हिंदुस्तानियों के  वर्तमान दु:खों पर एक विशेष प्रकार की उदासी की परत चढ़ जाती है ।
    इससे हमें गांधीजी के  चंपारण में नील की खेती के विरुद्ध उनके प्रथम भारतीय किसान आंदोलन की याद आती है । आज भारत के सभी गांव चंपारण की त्रासदी भोग रहे हैं और शेष चंपारण बनने के भय में हैं, लेकिन हमने तो अंग्रेजी बाघ सभ्यता को ही अपना लिया है । इसके फलस्वरूप समाज आधारित समाज से हम सरकार-आधारित समाज बन गए हैं । अब सरकारों के विभिन्न विभाग समाज को बताते हैं कि कब,  कहां और कैसे क्या-क्या करना है ।
    कोई भी सरकार इतनी बड़ी जनसंख्या का `राशनवाला` नहीं बन सकती है । समाज आधारित समाज के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है ।
पर्यावरण समाचार
वन विहार में दिखेंगे पचमढ़ी और अमरकंटक
    मध्यप्रदेश की नैसर्गिक वन संपदा, वन्यप्राणी और आसमान छूती पर्वत श्रृंखलाआें को देखकर लोग अभिभूत हो जाते हैं । इस प्राकृतिक  खजाने को निहारने के लिए पर्यटकों को आने वाले सालों में दुर्गम रास्तो ंपर, जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी । वन विभाग वन विहार नेशनल पार्क मेंप्रदेश के प्रसिद्ध वन स्थलों के हुबहू मॉडल स्थापित करने जा रहा  है । इसमें पचमढ़ी का धूपगढ़ भी दिखेगा और अमरकंटक की गुफांए भी नुमाया होगी ।
    सेंट्रल फॉर इन्वायरमेंट एजुकेशनअहमदाबाद (सीईई) की सलाह से पार्क में स्थापित होने वाला यह मॉडल करीब डेढ़ एकड़ में फैला होगा । इसके लिए विहार वीथिका के भवन को हटाया जाएगा । विभाग इस पर करीब ५ करोड़ रूपए खर्च करेगा । इसके बनने के बाद न सिर्फ पार्क की आमदनी बढ़ जाएगी, बल्कि प्रदेश के पर्यटकों को दुर्लभ वनस्पति, पक्षी, जानवर और उनसे जुड़ा साहित्य एक जगह देखने-पढ़ने को मिलेगा । मॉडल को मनमोहक बनाने के लिए ध्वनि और प्रकाश का सामंजस्य बैठाया जाएगा ।
    यह मॉडल विश्व स्तर का होगा और इसका नाम स्टेट ऑफ आर्ट रखा जा रहा है । मॉडल में सतपुड़ा विध्याचल की पर्वत श्रृंखलाआें के अलावा, वहां की नदियां, तालाब, झरने, गगन चूमती चोटियां, जानवर, पक्षी और अन्य विशेषताएं प्रदर्शित की जाएंगी । विभाग यह भी बताएगा कि किस जंगल के किस हिस्से में क्या विशेष मिलता है ।
 अगले ३४ सालों में दिखेगा क्लाइमेट चेंज
    ग्लोबल वार्मिग के नतीजे पृथ्वी पर आए दिन की प्राकृतिक आपदाआें और मौसम में परिवर्तन के रूप में नजर आने ही लगे हैं । लेकिन अगले सिर्फ ३४ सालों में पर्यावरण में इतने भीषण बदलाव देखने को मिलेंगे जिनकी अभी कल्पना करना भी मुश्किल है ।  इस वक्त में प्राकृतिक आपदाआें का स्वरूप अधिक भीषण और विकराल होने वाला है । प्राकृतिक आपदाआें का विकट रूप सबसे अधिक कटिबंधीय क्षेत्रों में सबसे अधिक दिखेगा । विषवत रेखा के दोनों तरफ आने वाले क्षेत्रों में इलाके सबसे अधिक प्रभावित होगें ।