गुरुवार, 14 नवंबर 2013

प्रदेश चर्चा
उत्तराखंड : निर्माण के मापदण्डों का निर्धारण
रमेश पहाड़ी
    हिमालय की भौगोलिक संरचना के अध्ययन से पता चलता है कि, यह अत्यंत विविधता भरा क्षेत्र है । नदियों के किनारे कहीं पर बहुत ठ ोस चट्टानों वाले हैं तो कहीं २०० मीटर दूर भी भुरभुरे पहाड़ हैं । ऐसे में न्यूनतम २०० मीटर दूरी पर निर्माण कार्य की स्वमेव अनुमति देना भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है । आवश्यकता है नदियों के तटों का विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन कर नई भवन निर्माण स्वीकृति प्रणाली विकसित की जाए । 
     उत्तराखंड उच्च् न्यायालय ने हाल ही में राज्य में नदी तटों के दोनों ओर २०० मीटर तक की सीमा में किसी भी प्रकार के निर्माण कार्यों को  प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया है । इससे पहले मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी ऐसा ही आदेश कर चुके हैं । लेकिन इसका नियमन कैसे होगा, यह स्पष्ट नहीं किया गया है । उच्च्  न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर यह आदेश जारी किया है कि जिसमें शिकायत की गई थी कि सरकार द्वा़रा जारी आदेश में मठ -मंदिरों का निर्माण प्रतिबंधित नहीं किया गया है, जबकि अन्य निजी निर्माण कार्यों पर रोक लगाई गई है ।
    उत्तराखंड में पर्वतीय क्षेत्रों में जो भौगोलिक स्थिति और स्थलाकृति है, उसमें  इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है । यहां दर्जनों नदियां बहती हैं । ये नदियां कठ ोर चट्टानों के बीच अपना रास्ता बना कर लाखों वर्षों से बह रही हैं । इन नदियों के   पाट कहीं बहुत चौड़े हैं तो कई स्थानों पर, जहां चट्टानें अधिक कठ ोर हैं, वे अपने लिए चौड़ा रास्ता नहीं बना पाई  है और संकरी गहरी घाटियों में बहती   हैं । इन तटीय चट्टानों के  ऊपर जहां कहीं भी थोड़ी समतल भूमि रही, लोगों ने उन पर बस्तियां बसा लीं और ये बस्तियां   हजारों वर्षों से सुरक्षित रूप से टिकीं हुई हैं ।        
    मुख्यमंत्री बहुगुणा के कथन और उसके बाद उच्च् न्यायालय के आदेश में २०० मीटर की दूरी का पैमाना किन विशेषज्ञों के अध्ययनों अथवा संस्तुतियों पर आधारित है, यह वे ही बेहतर समझते हैं । लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों के लिए यह आदेश बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं है । इसलिए इस पर अध्ययन के पश्चात इसके नियमन के नियम-कानून बनाने होंगे । इसके लिए   स्थानीय नागरिकों के अनुभवजनित  ज्ञान का आधार भी लिया जाना जरूरी होगा ।
    अपने लंबे अनुभवों और लोक परंपराओं के आधार पर लोग कई वर्षों से मांग करते आ रहे हैं कि कमजोर  और संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए और उन पर किसी भी प्रकार के निर्माण कार्यो की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए । प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की ६ मांगों में से एक यह भी थी कि संवेदनशील वन क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए और उन पर स्थित वृक्षों का कटान नहीं किया जाना    चाहिए क्योंकि इससे वन क्षेत्रों में भूस्खलन, भूक्षरण, भूधंसाव और भू कटाव अधिक बढ़ेगा ।
    चिपको आंदोलन की मातृ संस्था दशोली ग्राम स्वराज मंडल और उसके प्रणेता चंडीप्रसाद भट्ट ने ३-४ दशक पहले इन तथ्यों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उत्तराखंड केनेता हेमवती नंदन बहुगुणा का ध्यान आकर्षित किया था । बाद के वर्षों में पहाड़ों में भूस्खलन, बाढ़ और भूकंप से होने वाले विनाश की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए अनेक विचार-विमर्श और पत्राचार किए गए, लेकिन उन पर  केन्द्र सरकार ने कोई सार्थक कार्यवाही की और न ही राज्य सरकार ने ।
    महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हमारे पास हिमालय की बहुत कम जानकारी है इसलिए जिसके दिलोदिमाग में जो आ रहा है, वह वैसी ही बात कह देता है । लेकिन  विज्ञान के साथ लोकज्ञान को जोड़ते हुए अपनी समझ बढ़ाने तथा लोकोन्मुखी व्यावहारिक कार्यक्रम बनाने की दिशा में अपेक्षित प्रयास नहीं हो पा रहे हैं । सबसे पहले इसी कमी को दूर करने की जरूरत है ।
    नदी तट और नदी तल के संबंध में भी कुछ बुनियादी तथ्यों को ध्यान में रखना होगा । पहला यह कि पहाड़ों और मैदानों तथा कोर  चट्टानों और मलबे व मिट्टी वाले तटों में स्पष्ट अंतर करते हुए उसके लिए अलग मानक बनाने होंगे । पर्वतीय क्षेत्रों में नदियों की बाढ़ ने इस बार जो उच्च्तम सीमा रेखा तय की है, उससे दस मीटर ऊपर के भूक्षेत्रों को चिन्हित कर, उससे नीचे स्थायी निर्माण कार्यों को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए । यह सीमा रेखा केवल पक्के  चट्टानी क्षेत्रों के लिए हो ।
    नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों का सर्वेक्षण कर संवेदनशील तथा असुरक्षित भू क्षेत्रों की जानकारी संबंधित ग्राम पंचायतों, नगर निकायों, पटवारियों-लेखापालों तथा प्रशासन को उपलब्ध करानी होगी और उन पर स्थायी प्रकृृति के निर्माण कार्यों  को सख्ती से प्रतिबंधित  करना होगा, भले ही वे भू क्षेत्र किसी के भूमिधरी अधिकारों में ही शामिल क्यों न हों ।  हर बरसात में नदी में  रेत व कंकड़ पत्थर आते रहते  हैं । पर्वतीय क्षेत्रों में सामान्यत: उसका टिपान (एकत्र) स्थानीय लोग और ठेकेदार बिना किसी नियम के करते हैं, लेकिन इसका कोई पैमाना नहीं है । इसका नियमन और मानक निर्धारित करने की जरूरत है । लेकिन यह व्यापक अध्ययन करने  तथा उसका नफा-नुकसान तोलने के बाद ही होना चाहिए ।
    हिमालय पर्वत श्रंृखला के बारे में व्यापक वैज्ञानिक जानकारी का अभाव है । इस कारण इस पूरी पर्वत-श्रंृखला में बसाहटों, विकास व निर्माण कार्यों का नीति-नियमन नहीं है । इससे प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी का क्रम लगातार जारी है जिसका त्रास न केवल स्थानीय स्तर पर भोगना पड़ रहा है, बल्कि मैदानी क्षेत्रों की बहुत बड़ी जनसंख्या इसके दुष्प्रभावनों से पीड़ित हो रही हैं । इसलिए इसका वैधानिक अध्ययन कर अति संवेदनशील क्षेत्रों का चिन्हांकन और मानचित्रण करते हुए एक विस्तृत विवरणि का तैयार की जानी चाहिए ।
    बसाहटों, निर्माण-कार्यों और भूमि सहित समस्त प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लिए दिशा-निर्देश तैयार कर उन्हें व्यापक  प्रचार -प्रसार के साथ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए  ताकि लोक व्यवहार उसके अनुरूप लोक व्यवहार हो ।

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