रविवार, 17 अप्रैल 2016


प्रसंगवश
सिंहस्थ में दिव्यत्व से मिलन
प्रत्येक बारह वर्ष के अंतराल मेंउज्जैन में एक माह के सिंहस्थ महापर्व का आयोजन किया जाता है । पौराणिक कथा के अनुसार इसका प्रारंभ देवताआेंऔर दानवों द्वारा समुद्र मंथन से संबंधित है । माना जाता है कि मंथन में सबसे पहले चौदह रत्न और इसके पश्चात धन की देवी लक्ष्मी प्रकट हुई और अंत में अमृत-कलश प्राप्त् हुआ । 
इस अमृत को छीनने के लिये दानव, देवताआेंके पीछे भागे । इस दौरान अमृत की कुछ बूँदें छलक कर हरिद्वार, नासिक, प्रयाग और उज्जयिनी में गिरीं । इसी कारण इन चार स्थानों पर बारह वर्ष के अंतराल मेंकुंभ मेला का आयोजन होता है । 
इस पर्व के दौरान सारे लौकिक भेदभाव समाप्त् हो जाते हैं । गरीब-अमीर, जाति-सम्प्रदाय आदि सारे भेदों की सीमा तोड़ कर वहाँ होते हैं सिर्फ आस्था के रंग मेंरंगे भक्त । भक्ति में डूबे इन भक्तों का अनुशासन भी अद्भुत होता है । वे आते हैं, दर्शन करते हैं, नदी में डुबकी लगाते हैं और विभिन्न मंदिरों में दर्शन कर पूरे अनुशासन के साथ घर लौट जाते हैं । 
सिंहस्थ के दौरान साधु-संतों और विद्वानों द्वारा समाज, राष्ट्र और विश्व के समकालीन विषयों पर विचार-मंथन की भी सदियों पुरानी परम्परा है । मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर इस सिंहस्थ में मूल्य-आधारित जीवन और अन्य उपयोगी विषयों पर वैचारिक मंथन होगा । इस महागोष्ठी में हुए मंथन के सारतत्व पर आधारित एक सिंहस्थ घोषणा-पत्र जारी होगा जो विश्व-शांति और कल्याण का संदेश देगा इसको प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सिंहस्थ के दौरान उज्जैन में जारी करेंगे । 
इस सिहंस्थ में अनेक देशों तथा भारत भर से लगभग ५ करोड़ श्रद्धालुआें तथा पर्यटकों के आने की संभावना है । इनके सुविधापूर्वक रहने तथा सुरक्षा के लिये सभी प्रबंध किये जा रहे हैं । इसमें आने वाले श्रद्धालुआें के लिये यह सचमुच जीवन का अद्भूत, अनूठा और आहलादकारी अनुभव होगा । एक माह के विश्व के सबसे बड़े धार्मिक-आध्यात्मिक समागम में करोड़ों लोग धर्म लाभ लेंगे । 
सम्पादकीय
सिंहस्थ, शिप्रा नदी और मालवा का विकास
आस्था और विश्वास के प्रतीक सिंहस्थ पर्व का आगमन मालवा के लिये हमेशा सुखद रहा है । पिछले अनेक शताब्दियोंसे उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान साधु-सन्त, महात्मा, श्रद्धालुजन, देश-विदेशी पर्यटक और मालवीजनों ने मिलकर एक नए भारत के निर्माण का विचार किया है । 
सिंहस्थ के कार्योंा को लेकर प्रदेश सरकार करोड़ों रूपये खर्च करती है । इस बार भी लगभग ५००० करोड़ रूपये का बजट है जिसमें दीर्घकालीन और अल्पकालीन अवधि के विकास कार्य कराए गए हैं । इस अवसर पर महत्वपूर्ण यह है कि सिंहस्थ कार्योंा के लिये जो स्थायी प्रकृति के हैं उनकी दीर्घकालीन योजनाएँ बनाकर इस प्रकार के निर्माण कार्य हो जिन्हें सिंहस्थ के दौरान बार-बार करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाए । इस प्रकार एक मास्टर प्लान न केवलसिंहस्थ की दृष्टि से अपितु उज्जैन और पूरे मालवा के विकास को लेकर बनाया जाना जरूरी है । क्योंकि सिंहस्थ मालवा क्षैत्र का सबसे बड़ा पर्व है और अगर इस प्रकार पूरे मास्टर प्लान के साथ लगातार काम करने वाले सरकारी प्राधिकरण को इस प्रकार की जिम्मेदारी दी जायेगी तो हर सिंहस्थ में होने वाली विकास कार्योंा में देरी और अन्य शिकायतों से मुक्ति मिल सकेगी । 
आजकल देश मेंनदियों को जोड़ने को लेकर चर्चा चल रही है । ऐसे समय में सिंहस्थ के दौरान ही शिप्रा में जल उपलब्ध हो, यह कोई प्रशंसनीय कार्य नहीं हैं । इसमें जरूरी तो यह है कि समाज नदियों से जुड़े और नदी के जलागम क्षेत्र मेंजलग्रहण विकास कार्य और पौधारोपण जैसे स्थायी प्रकृति के कार्य करके शिप्रा को सदानीरा बनाये जाने के बारे मेंसाधु समाज, शासन और श्रद्धालुजन सभी को मिलजुल कर कोई स्थायी कार्ययोजना बनाकर कार्य प्रारंभ करना चाहिए जिससे शिप्रा में जल का सतत् प्रवाह बना रहेगा तो फिर सिंहस्थ में ही नहीं शिप्रा बारहोंमास प्रवाहमान  रहेगी । 
सिहंस्थ -१ 
जयति जय उज्जयिनी
राजशेखर व्यास
उत्कर्ष के साथ जय करने वाली नगरी-उज्जयिनी, भारत की प्राचीनतम महान नगरियों में एक महाकालेश्वर की उज्जयिनी । इतिहास, धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, योग-वेदांत, आयुर्वेद-ज्योतिष, साधु-संत, पर्व, मंदिर और मस्जिद, चमत्कार, साप्रदायिक सद्भभाव की विलक्षण नगरी । 
भारत के हद्य में स्थित है, मालवा, मालव प्रदेश । इसी मालवा की गौरवशाली राजधानी है, उज्जयिनी । दुनिया के किसी भी नगर में एकसाथ इतनी महानता और महत्व नहीं मिलेंगे जितने इस नगरी में, एक तरफ काल-गणना का केंद्र ज्योतिष की जन्मभूमि, और स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भूतभावन भगवान महाकाल की नगरी है, तो दूसरी और जगदगुरू कृष्ण भी जिस नगरी में विद्याध्ययन करने आए, उन्हीं महर्षि सांदीपनी की नगरी है । 
यहां पर संवत प्रवर्तक सम्राट विक्रम ने अपना शासन चलाया । शकों और हूणों को परास्त कर पराक्रम की पताका फहराई तो यहीं पर महाकवि भास, कालिदास, भवभूति और भर्तृहरि ने कला-साहित्य के अमर ग्रंथों का प्रणयन भी किया और वैराग्य की धूनि भी रमाई, श्रृंगार-नीति और वैराग्य की अलख जगाने वाले तपस्वी योगी पीर मत्स्येन्द्रनाथ की साधना-स्थली भी यही नगरी है । चण्डप्रद्योत, उदयन-वासवदत्ता, चण्डाशोक के न्याय और शासन की केंद्र धुरी रही है उज्जयिनी, नवरत्नों से सजी-धजी कैसीहोगी ये उज्जयिनी, जब ज्योतिष जगत के सूर्य वराहमिहिर, चिकित्सा के चरक, धन्वंतरि और शंकु-घटखर्पर-वररूचि जैसे महारथियोंसे अलंकृत रहती होगी ? 
यूं तो वेद, पुराण, उपनिषद, कथा-सरित्सागर, बाणभट्ट की कादम्बरी, शुद्रक के मृच्छकटिकम और आयुर्वेद, योग, वैदिक-वांगमय, योग-वेदांत, काव्य, नाटक से लेकर कालिदास के मेघदूत तक इस नगरी के गौरवगान से भरे पड़े हैं । पाली, प्राकृत-जैन, बौद्ध और संस्कृत-साहित्य के असंख्य ग्रंथोंमें इस नगरी के वैभव का विस्तार से वर्णन हुआ है । परिमल कवि ने इसे स्वर्ग का टुकड़ा कहा है तो सट्टक कर्पूर मंजरी एवं काव्य मीमांसा के कवि राजशेखर ने इसे स्वर्ग से ही सुंदर नगरी निरूपित किया है । उज्जयिनी का सर्वाधिक विषद् विवरण ब्रहमपुराण, स्कंदपुराण के अवंतिखंड में हुआ है । कनकश्रृंगा, कुशस्थली, अवंतिका, उज्जयिनी, पद्मावती, कुमुदवती,अमरावती, विशाली, प्रतिकल्पा, भोगवती, हिरण्यवती अनेक नामों से इस नगरी को सुशोभित किया गया है । 
सिहस्थ -२ 
महाकाल की नगरी : धर्म, संस्कृतिऔर संस्कार
आनंद शंकर व्यास 

भारत के इतिहास में उज्जयिनी का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है । रामायण, महाभारत, विविध पुराणों तथा काव्य ग्रंथों में इसका आदरपूर्वक  उल्लेख हुआ है । धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इसका अद्वितीय स्थान है । इसी पावन नगरी के दक्षिण-पश्चिम भू-भाग में पुण्य-सलिला क्षिप्रा के पूर्वी तट से कुछ ही अन्तर पर भगवान महाकालेश्वर का विशाल मन्दिर स्थित है । महाकाल की गणना द्वादश ज्योतिर्लिगों में की गयी है, जो शिव-पुराण में दिये गये द्वादश ज्योतिर्लिगों माहात्मय से स्पष्ट है :- 
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्री शैले मल्लिकार्जुनम ।
उज्जयिन्यां महाकालमोंडकारे परमेश्वरम् ।।
केदारे हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम् ।
वाराणस्यां च विश्वेशं त्रयम्बंक गौमतीतटे ।।
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारूकावने । 
सेतुबन्धे च रामेशं घृष्णेशं च शिवालये ।।
एतानि ज्योतिर्लिगानि प्रातरूत्थाय य: पठेत् । 
जन्मान्तरकृतं पापं स्मरणेन विनश्यत ।।
उक्त द्वादश ज्योतिर्लिगों में महाकालेश्वर का प्रमुख स्थान है । पुराणों के अनुसार महाकाल को ज्योतिर्लिग के साथ-साथ समस्त मृत्युलोक के स्वामी के रूप में भी स्वीकार किया गया है :- 
आकाशे तारकं लिगं पाताले हाटकेश्वरम् ।
मृत्युलोके महाकालं लिंगत्रयं नमोस्तुते ।।
इस प्रकार तीनोंलोकों (आकाश, पाताल एवं मृत्यु लोक) के अलग-अलग अधिपतियों में समस्त मृत्यु लोक के अधिपति के रूप में महाकाल को नमन किया गया है । महाकाल शब्द से ही काल (समय) का संकेत मिलता है । 
कालचक्र प्रवर्त्तकों महाकाल: प्रतापन: कहकर कालगणना के प्रवर्त्तक रूप में महाकाल को स्वीकार किया गया   है । महाकाल को ही काल-गणना का केन्द्र बिन्दु मानने के अन्य कारण भी है । अवंतिका को भारत का मध्य-स्थान (नाभि क्षेत्र) माना गया है और उसमें भी महाकाल की स्थिति मणिपूर चक्र (नाभि) पर मानी गयी है । 
आज्ञाचक्रं स्मृता काशी या बाला श्रुतिमूर्धानि ।
स्वाधिष्ठानं स्मृता कांची मणिपूरमवंतिका ।।
नाभिदेश महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हर: ।
(मणिपुर चक्र) योगियों के लिये कुंडलिनी हैं, कुंडलिनी जागृत करने की क्रिया योग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मानी जाती है, अत: मणिपुर चक्र पर स्थित भगवान महाकाल योगियों के लिये भी सिद्धस्थल है । 
इसी प्रकार भूमध्यरेखा भौगोलिक कर्क रेखा को उज्जयिनी में ही काटते है, इसलिए भी समय गणना की सुगमता इस स्थान को प्राप्त् है । कर्क रेखा तो स्पष्ट है ही, भूमध्य रेखा के लिए भी ज्योतिष के विभिन्न सिद्धांत ग्रंथों में प्रमाण उपलब्ध है :- 
राक्षसालयदेवैक: शैलयोर्मध्यसूत्रगा: । 
रोहीतकमन्वती च यथा सन्निहितं सर: ।।
भास्कराचार्य पृथ्वी की मध्य रेखा का वर्णन इस प्रकार करते है :-
यल्लंकोज्जयिनीपुरोपरि कुरूक्षेत्रादिदेशान् स्पृशन् ।
सूत्रं मेरूगतं बुधैर्निगदिता सा मध्यरेखा भुव: ।।
जो रेखा लंका और उज्जयिनी में होकर कुरूक्षेत्र आदि देशों को स्पर्श करती हुई मेरू में जाकर मिलती है, उसे भूमि की मध्य रेखा कहते है । इस प्रकार भूमध्य रेखा लंका से सुमेरू के मध्य उज्जयिनी सहित अन्यान्य नगरों का स्पर्श करती जाती हैं, किन्तु वह कर्क रेखा को एक ही स्थान उज्जयिनी में, मध्य स्थल पर नाभि (मणिपूर चक्र) स्थान पर काटती है, जहॉ स्वयंभू महाकाल विराजमान हैं । इसीलिये ज्योतिर्विज्ञान के सिद्धांतकार भारत के किसी भी क्षेत्र में जन्मे हो अथवा उनका कार्य या रचना क्षेत्र कहीं भी रहा हो, सभी ने एकमत से कालचक्र प्रवर्तक महाकाल की नगरी उज्जयिनी को ही काल-गणना का केन्द्र स्वीकार किया था । आज भी भारतीय पंचांगकर्त्ता उज्जयिनी मध्यमोदय लेकर ही पंचाग की गणना करते    हैं । इस प्रकार अदृश्य रूप से काल गणना के प्रवर्तक तथा प्रेरक महाकाल है । 
दृश्य रूप में श्वास-निश्वास से लेकर दिन, मास, ऋतु, अयन एवं वर्ष की गणना का संबंध सूर्य से है । एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक एक दिन (दिन के सूक्ष्म विभाग घटी, पल, विपल आदि) और दिनों से मास, ऋतु, वर्ष, युग-महायुग और कल्प आदि की गणना चलती रहती है । ऐसे अनेक कल्पों के संयोग (जो वाचनिक संख्याआेंसे परे हो) को ही महाकाल कहते हैं । सूर्य प्रतिदिन (२४ घंटे में) एक उदय से दूसरे उदय पर्यन्त ३६० अंश २१,६०० कलाऍ चलता है, यही स्वस्थ मनुष्य की २४ घंटे में श्वासों की संख्या भी है । अर्थात् सूर्य की प्रत्येक कला के साथ मनुष्य के श्वास-निश्वास की क्रिया जुड़ी हुई है और सभी में आत्म-रूप स वह विद्यमान है । 
कहने का तात्पर्य यह कि काल-गणना में दृष्ट (सूर्य) अदृष्ट (महाकाल) में सामंजस्य है । महाकाल ज्योतिर्लिंग हैं और ज्योतिर्लिग की दिव्य ज्योति के दर्शन  चर्मचक्षु से नहीं होते, तप से प्राप्त् दिव्य चक्षु से ही हो सकते है । सूर्य स्वत: अग्नितत्व, ज्योति के पुंज, तेज और प्रकाश के कारण हैं । अत: महाकाल ज्योतिर्लिग हैं और सूर्य स्वत: ज्योति के पुंज हैं, महाकाल ही सूर्य हैं और सूर्य ही महाकाल हैं ।   इस प्रकार समस्त भूलोक के स्वामी और स्वत: प्रणवस्वरूप होने से ही महाकाल प्रमुख ज्योतिर्लिग हैं ।
सिंहस्थ - ३ (कविता)
उज्जैन का सिहंस्थ 
डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन 












बारह वर्षो में
दिन फिरते घूरे के भी
फिर यह तो तीर्थ है
शको-हूणों-आभीरों
आर्यो-अनार्यो की पवन
संगमस्थली
त्रिपुर पर विजय की
अभूतपूर्व गाथा से
उत्कर्षित उज्जयिनी
कृष्ण और सुदामा के 
संस्कार की जननी ।
यहींसे चलाया था 
साका कभी विक्रम ने
आर्यो के शौर्य का ।
सिंह पर बृहस्पति जब आता है 
मनाता है सारा राष्ट्र सिंहस्थ 

शक्ति और ज्ञान के समन्वय
की अर्चना, वंदना 
महाकाल की उमड़ती 
अपार भीड़ भक्तों की 
क्षिप्रा में स्नान-ध्यान
हर हर बम
हर हर बम 
जाग्रत अवन्तिका में
द्वार-द्वार अनुष्ठान 
शिवता मे शक्ति 
सदा रहती है अन्तर्धान 
उसकी ही सतत शोध
करते सब आँखे मूँद
अपना-अपना विधान
झंडों पर झंडे

अखाड़ों पर अखाड़े
नागा, उदासी, रामनुजी
बल्लभ, कबीरदासजी, हरदासी
उतर पडते दंगल में
ले ले अपने मलंग
प्रश्न है प्रतिष्ठा का
निर्णायक है चिमटे,
डंडे, भाले, तलवारें
अभिषेकित हो अनन्य
पहले किसका निशान
पूर्णिमा से पूर्णिमा तक
दिखती अपूर्णता ही
अमावस्या अकुलाती 
अक्षय तृतीया सब
पुण्य-पाप बँटवाती
कहीं रामनामी जप
तपते तपी पंचाग्नि
कहीं भजन, कीर्तन
कहीं कीलों पर पद्मासन
निर्वसन सिद्धासन 
उर्ध्वबाहु वेदव्यास
कहीं खड़े दिखते हैं,
बहुत बड़ा माहत्म्य
होता इन मेलों का
दिखता है देश एक
अपनी अनेकता में । 
साँसों में भर जाता
पूत गंध यज्ञ धूम
लिपी पुती वेदियों में
जातवेत ज्योतिर्मय

सब समाप्त् होते ही 
कौन करेगा हिसाब ?
गंगा-स्नानों का
संकल्पों, दानों का,
इतने सिंहस्थों ने
कितने बनाए सिंह
जिनकी अयाले हैं 
हाथ में बृहस्पति के
चारों ओर गीदड़ों के 
गोल बहुत दिखते हैं
ब्रम्हा आचारों के 
विपुल प्रवाह में 
किसके पैर टिकते हैं ?
सिहंस्थ -४
सिंहस्थ एक आध्यात्मिक अनुभव
डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित 

भारतीय आध्यात्मिक जीवन में जल का बड़ा महत्व है । प्रत्येक उत्सव, धार्मिक कृत्य और पर्व के समय स्नान एक आवश्यक कार्य   है । यह स्नान घर अथवा कुंए आदि की अपेक्षा समीपवर्ती सरोवर, कुंड, नदी या समुद्र में करना अधिक पुण्यदायक माना जाता है । दैनिक संध्या पूजा में भी जल का होना आवश्यक है । आचमन, मार्जन, तर्पण, देवार्चन सबके लिए जल अपेक्षित है । 
विशेष पर्वो पर और उनमें भी विशेष स्थानों पर स्नान करना अधिक महत्वपूर्ण है । संवत्सर के आरंभ, चन्द्र-सूर्य ग्रहण, मकर एवं मेष की संक्राति, माद्य, वैशाख और कार्तिक की पूर्णिमा, रामनवमी, कृष्णा जन्माष्टमी, गंगा-दशहरा आदि के अवसर पर लाखों नर-नारी तीर्थ स्थानों में एकत्र होकर स्नान करते हैं । ग्रहों की विशेष स्थिति पर कुंभ और सिंहस्थ के स्नान की प्रथा इसी परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है । 
केवल जल से किया गया स्नान ही स्नान नहीं है । मनु स्मृति में चार प्रकार के स्नान का उल्लेख है :- 
आग्नेयं भस्मना स्नानं, सलिलेन तु वारूणम् ।
आपोहिष्ठेति च ब्राह्मम् वायव्यं गोरजं स्मृतम् ।।
अर्थात् भस्म द्वारा स्नान आग्नेय, जल द्वारा स्ना वारूण, आपेहिष्ठा इत्यादि मंत्र से स्नान ब्राह्ा और गोधूलि से किया गया स्नान वायव्य कहलाता है । 
अग्नि पुराण के अनुसार जल स्नान के नित्य नैमित्तिक, काम्य, क्रियांग, मलापकर्ष और क्रिया छ: प्रकार हैं । महाभारत में कहा गया है कि स्नान करने वाले को बल, रूप, स्वर और वर्ण की शुद्धि स्पर्श और गंध की शुद्धता, ऐश्वर्य, कोमलता तथा सुन्दर स्त्री प्राप्त् होती है । 
वैदिक काल से ही जल के देवता वरूण की पूजा चली आ रही है । वास्तव में पवित्र नदियों में स्नान से पापों का नाश होने की यह भावना वरूणदेव के प्रत्यक्ष रूप के दर्शन की भावना से जुडी हुई है । विविध स्थानोंमें स्नान का महत्व उसकी ऐतिहासिकता, पवित्रता तथा परम्परा पर आधारित होता है । कंुभ का पर्व प्रयाग, हरिद्वार, नासिक तथा उज्जैन इन चार स्थान क्रमश: मनाया जाता है । निर्धारित विशेष समय तथा निर्दिष्ट पवित्र स्थान के कारण पर्व का महत्व बढ़ जाता है । 
इन पर्वो का महत्व इतना अधिक माना गया है कि पुराणों के अनुसार देवतागण भी स्नान के लिए धरती पर उतरे आते हैं । 
सेन्द्रासुरगणा: सर्वे सेन्द्रादित्या मरूदगणा: । 
स्त्रातुमायान्ति गौतम्यां सिंहस्थे च बृहस्पतौ ।।
पुराणों में सिंहस्थ संबंधी अनेक संदर्भ हैं । विशेष योग उस्थित होने पर स्नान की महत्ता का स्कन्द पुराण में स्पष्ट उल्लेख है :
सिंह राशिं गते जीवे मेषस्थे च दिवाकरे ।
तुला राशिं गते चन्द्रे स्वातिनक्षत्र संयुते ।।
सिद्धियोगे समायाते पंचात्मा योगकारक: ।
एवं योगे समायाते स्नानदानादिका क्रिया ।।
द्वादशाब्दे तु भो भद्रे ! शंकरेण कृतं स्वयम् ।
देवाताआें और दानवों द्वारा समुद्र मंथन से १४ रत्न प्राप्त् हुए जिनमें अंतिम था अमृत से भरा हुआ कुंभ या कलश । देवताआें ने सोचा कि यदि दानवों को अमृत मिला तो अमर हो जायेंगे । इस स्थिति को बचाने के लिए देवताआें के परामर्श से इन्द्र का पुत्र जयंत उस कलश को लेकर भागा दानव उसके पीछे चल पड़े । दानवों ने बलपूर्वक कलश छीनना चाहा । इस प्रयत्न में कलश से छलक कर अमृत की बूंदें हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में गिरी । अत: इन स्थानों पर स्नान करना और वह भी अमृत गिरने के समय में मोक्षदायक माना जाता है । कलश से अमृत गिरने के कारण ही इस पर्व का नाम कुंभ पड़ा । सिंह राशि में बृहस्पति के स्थित होने के कारण उज्जैन में होने वाले कुंभ पर्व को सिहंस्थ के नाम से पुकारा जाता है । स्कन्द पुराण में कहा गया है - 
पृथिव्यां कुम्भपर्वस्य चतुर्था भेद उच्यते ।
चतु:स्थले नियतनात् सुधाकुम्भस्यं भूतले ।।
विष्णु पुराण में ऊज्जैन और हरिद्वार के संबंध में कहा गया है :- 
मेषराशिंगते सूर्य सिहंराश्यां बृहस्पतौ ।
अवन्तिकायां भवेत्कुंभ: सदामुक्ति प्रदायक: ।।
पद्यिनीनायके मेषे कुम्भराशिगते गुरौ ।
गंगा द्वारे भवेद् योग: कुम्भनामा तदोत्तमम । 
उज्जैन के स्नान का महत्व अधिक इसलिए भी है कि इसमें सिंहस्थ तथा कुंभ दोनों पर्व मिलते   हैं । उज्जैन के कुंभ पर्व में ये दस योग मुख्य होते है :- १. वैशाख मास, २. शुक्ल पक्ष, ३. पूर्णिमा, ४. मेष राशि पर सूर्य का होना, ५. सिंह राशि पर बृहस्पति का होना, ६ चन्द्र का तुला राशि पर होना, ७. स्वाति नक्षत्र, ८. व्यतिपात योग, ९. सोमवार, १०. स्थान उज्जैन । 
माधवे धवले पक्षे सिंहे जीवे त्वजे रवौ ।
तुलाराशौ क्षपानाथे स्वातिभे पूर्णिमातिथौ ।।
व्यतिपाते तु सम्प्राते चन्द्रवासरसंयुते ।
एते दश महायोगा: स्नानान्मुक्तिफलप्रदा: ।।
स्कन्द पुराण में उज्जैन तथा क्षिप्रा की प्रशस्ति मुक्तकंठ से की गई है । क्षिप्रा नदी के संबंध में निम्नलिखित विवरण दिया गया     है :- 
उज्जैन में अग्नि नामक एक ऋषि ने तीन हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की । तपस्या के इन तीन हजार वर्षो में उन्होनें एक हाथ को ऊपर ही उठाये रखा । तपस्या के  पश्चात् जब उन्होनें अपने नेत्र खोले तब देखा कि उनके शरीर से दो स्त्रोत प्रवाहित हो रहे हैं - एक आकाश की ओर चला गया, जो बाद में चन्द्र बन गया और दूसरा धरती की ओर, जिसने बाद मे क्षिप्रा नदी का रूप धारण किया । 
सर्वत्र च दुर्लभा क्षिप्रा सोमस्सोम ग्रहस्तथा । 
सोमेश्वर: सोमवार: सकारा: पंचदुर्लभा: ।।
क्षिप्रा स्नान का महत्व अवंतिका खण्ड में इस प्रकार वर्णित है :- 
कार्तिक चैव वैशाखे उच्च्े नीचे दिवाकरे । 
क्षिप्रास्नानं प्रकुर्वीत क्लेशदु: खनिवारणम् ।।
सिहंस्थ कुंभ के उपरोक्त वर्णित दस महायोगों के अवसर पर यदि क्षिप्रा में स्नान किया जाये तो मुक्ति प्राप्त् होती है । इससे यह प्रमाणित होता है कि उज्जैन के सिंहस्थ कंुभ स्नान को कितना पवित्र माना गया है । 
पुराणों तथा धार्मिक परम्परा के अनुसार उज्जैन और सिहंस्थ कुंभ का अविनाभाव संबंध रहा है । भारतीय कला भवन, हिन्दू विश्वविघालय वाराणसी के आचार्य सुप्रसिद्ध कलाविद् डॉ. आनंदकृष्णजी के पास मालवा कलम का एक मुगलकालीन चित्र है जिसमें दिखाया गया है कि क्षिप्रा तट पर साधुआें के दो दलों में युद्ध हो रहा है जिसे अकबर निरपेक्ष भाव से देख रहा है । मानों धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता इसलिए वह मूक दर्शक है । 
इस सिहंस्थ कुंभ की राजकीय व्यवस्था का विधिवत् संदर्भ मराठा काल से प्राप्त् होता है । विक्रम स्मृति-ग्रंथ (पृ.५५५-६) में श्री भास्कर रामचन्द्र भालेराव ने इसका विवरण देते हुए उस व्यवस्था का संकेत किया है । महाराज राणोजी शिन्दे के राज्य काल में सिहंस्थ मेले की प्रतिष्ठा और राजकीय व्यवस्था का आरंभ हुआ । 
गुरू ग्रह मेषादि बारह राशियों में से प्रत्येक राशि पर हर बारहवें वर्ष आता है और बारह मास तक उसी राशि पर रहता है । सिंह राशि पर गुरू होने पर वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को क्षिप्रा नदी में स्नान करना पुण्य-मय माना जाता है । तदनुसार प्रति बारहवें वर्ष सिहंस्थ के मेले पर बैरागी, गुंसाई, उदासी, नाथ सम्प्रदायोंऔर  अघोरी पंथ तथा उन पंथों के अन्तर्गत सभी शाखा-उप शाखाआें के अनुयायियों का समूह उज्जैन में आता है । अनुयायियों और अखाड़ों का दृश्य देखते ही बनता    है । 
एक प्राचीन प्रमाण से तो वृश्चिक राशि पर गुरू होने पर उज्जैन मे मेला होने का उल्लेख पाया जाता है किन्तु अनन्तर सिहंस्थ गुरू में नासिक तीर्थ में एकत्रित साधु पड़ौस में ही पवित्र पर्व वैशाखा शुक्ल पूर्णिमा का उज्जैन ही आने लगे । महाराज राणोजी के समय से ही राजकीय सहायता से सिहंस्थ समारोहपूर्वक होने लगा । अतएव बहुत संभव है कि महाराष्ट्रस्थ नासिक में एकत्रित साधुआें को उज्जैन में खासतौर पर आमंत्रित कर सिंहस्थ गुरू के योग पर होने की प्रथा प्रचलित की गयी हो । एक प्राचीन कथा के अनुसार उज्जैन में कुंभ तब होता है जब सूर्य तुला में और बृहस्पति वृश्चिक में होता है । 
डॉक्टर काणे के धर्मशास्त्र का इतिहास के अनुसार जब बृहस्पति सिंह राशि में रहता है तो शत्रु पर आक्रमण, विवाह, उपनयन, गृह-प्रवेश, देवप्रतिमा-स्थापना आदि शुभकर्म नहीं होते । ऐसा विश्वास है कि सिंहस्थ बृहस्पति में सभी तीर्थ स्थान गोदावरी में आ जाते हैं अत: उस समय उसमें स्नान करना  चाहिए । सिहंस्थ गुरू में विवाह एवं उपनयन के संपादन के विषय में कई मत है । कुछ लोगों का कथन है कि विवाह एवं अन्य शुभ कर्म मघा नक्षत्र वाले बृहस्पति में वर्जित है । अन्य लोगों का कथन है कि गंगा एवं गोदावरी के मध्य के प्रदेशोंमें विवाह एवं उपनयन सिंहस्थ गुरू के सभी दिनों में वर्जित है किन्तु अन्य कृत्य मघा नक्षत्र में स्थित गुरू के अतिरिक्त कभी भी किये जा सकते   हैं । 
अन्य लोग ऐसा कहते हैं जब सूर्य मेष राशि में हो तो सिंहस्थ गुरू का कोई अवरोध नहीं है । ऐसा विश्वास किया जाता है कि अमृत का कुंभ जो समुद्र से प्रकट हुआ, सर्वप्रथम देवों द्वारा हरिद्वार में रखा गया, तब प्रयाग में और तब उज्जैन में और अंत में नासिक के पास त्रयंबकेश्वर में । 
उज्जैन पर मराठों के आधिपत्य के बाद सिहंस्थ पर्व के व्यवस्था में एक नया अध्याय प्रारंभ हुआ । उज्जैन में सिहंस्थ पर्व पर आने वाले स्नानार्थियों की सुविधा के लिए विशेष व्यवस्था की गई । यह व्यवस्था आज भी कायम है और इस अवसर पर शासन द्वारा यात्रियों को यथासंभव सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती है । 
सिहंस्थ -५ 
उज्जैन : अतीत का इतिहास 
(कार्यालय संवाददाता द्वारा)

पुण्य-सलिला क्षिप्रा तट पर स्थित भारत की महाभागा अनादि नगरी उज्जयिनी को भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक काया का मणिपूर चक्र माना गया है । इसे भारत की मोक्षदायिका सप्त् प्राचीन पुरियों में एक माना गया है । प्राचीन विश्व की याम्योत्तार:, शून्य देशान्तरद्ध रेखा यहीं से गुजरती थी । विभिन्न नामों से इसकी महिमा गाई गयी है । महाकवि कालिदास द्वारा वर्णित श्री विशाला-विशाला नगरी तथा भाणों में उल्लिखित सार्वभौम नगरी यही रही है । इस नगरी में ऋषि सांदीपनि, महाकात्यायन, भास, भर्तृहरि, कालिदास, वराहमिहिर- अमरसिंहादि नवरत्न, परमार्थ, शूद्रक, बाणभट्ट, मयूर, राजशेखर, पुष्पदन्त, हरिषेण, शंकराचार्य वल्लभाचार्य, जगदगुरू आदि संस्कृति चेता महापुरूषों का घनीभूत संबंध रहा है । वृष्णि-वीर कृष्ण बलराम, चण्डप्रद्योत, वत्सराज उदयन, मौर्य राज्यपाल अशोक सम्राट सम्प्रति, राजा विक्रमादित्य, महाक्षत्रम चष्टन व रूद्रदामन, परमार नरेश वाक्पति मंजुराज, भोजदेव व उदयादित्य, आमेर नरेश सवाई जयसिंह, महादजी शिन्दे जैसे महान् शासकोंका राजैनतिक संस्पर्श इस नगरी को प्राप्त् हुआ है । 
मुगल सम्राट अकबर, जहॉगीर व शाहजहॉ की भी यह चहेती विश्राम-स्थली रही है । पुण्य-सलिला क्षिप्रा तट पर बसी अवन्तिका अनेक तीर्थो की नगरी है । इन तीर्थो पर स्नान, दान, तर्पण, श्रद्धा आदि का नियमित क्रम चलता रहता है । ये तीर्थ सप्त्सागरों, तड़ागों, कुण्डों, वापियों एवं शिप्रा की अनेक सहायक नदियों पर स्थित रहे हैं । शिप्रा के मनोरम तट पर अनेक दर्शनीय व विशाल घाट इन तीर्थस्थलों पर विद्यमान है जिनमें त्रिवेणी-संगम, गोतीर्थ, नृसिंह तीर्थ, पिशाचमोचन तीर्थ, हरिहर तीर्थ, केदारतीर्थ, प्रयाग तीर्थ, ओखर तीर्थ, भैरव तीर्थ, गंगा तीर्थ, मंदाकिनी तीर्थ, सिद्ध तीर्थ आदि विशेष उल्लेखनीय है । प्रत्येक बारह वर्षो में यहां के सिंहस्थ मेले के अवसर पर लाखोंसाधु व करोड़ों यात्री स्नान करते हैं । 
सम्पूर्ण भारत ही एक पावन क्षेत्र है । उसके मध्य में अवन्तिका का पावन स्थान है । इसके उत्तर में बदरी-केदार, पूर्व में पुरी, दक्षिण में रामेश्वर तथा पश्चिम में द्वारका है जिनके प्रमुख देवता क्रमश: केदारेश्वर, जगन्नाथ, रामेश्वर तथा भगवान श्रीकृष्ण है । अविन्तका भारत का केन्द्रीय क्षेत्र होने पर भी अपने आप में एक पूर्ण क्षेत्र है, जिसके उत्तर में दर्दुरेश्वर, पूर्व में पिंगलेश्वर, दक्षिण में कायावरोहणेश्वर तथा पश्चिम में विल्लेश्वर महादेव विराजमान है । इस क्षेत्र का केन्द्र स्थल महाकालेश्वर का मन्दिर है । भगवान महाकाल क्षेत्राधिपति माने गये है । इस प्रकार भगवान महाकाल न केवल उज्जयिनी क्षेत्र अपितु सम्पूर्ण भारत भूमि के ही क्षेत्राधिपति है । प्राचीन काल में उज्जयिनी एक सुविस्तृत महाकाल वन में स्थित रही थी । यह वन प्राचीन विश्व में विश्रुत अवन्ती क्षेत्र की शोभा बढ़ाता था । 
स्कन्द पुराण के अवन्तिखण्ड के अनुसार इस महावन मेंअति प्राचीन काल में ऋषि, देव, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि की अपनी-अपनी तपस्या स्थली रही है । अत: वही पर महाकाल वन में भगवान शिव ने देवोचित शक्तियों से अनेक चमत्कारिक कार्य सम्पादित कर अपना महादेव नाम सार्थक किया । सहस्त्रों शिवलिंग इस वन में विद्यमान  थे । इस कुशस्थली में उन्होनें ब्रह्मा का मस्तक काटकर प्रायश्चित्त किया था तथा अपने ही हाथों से उनके कपाल का मोचन किया था । महाकाल वन एवं अवन्तिका भगवान शिव को अत्यधिक प्रिय रहे हैं, इस कारण वे इस क्षेत्र को कभी नहीं त्यागते । अन्य तीर्थो की अपेक्षा इस तीर्थ को अधिक श्रेष्ठत्व मिलने का भी यह एक कारण है । 
इसी महाकाल वन में ब्रह्मा द्वारा निवेदित भगवान विष्णु ने उनके द्वारा प्रदत्त कुशों सहित जगत कल्याणार्थ निवास किया था । उज्जैन का कुशस्थली नाम इसी कारण से पडा । इस कारण यह नगरी ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश इन तीनोंदेवों का पुण्य-निवास रही है । 
उज्जयिनी नामकरण के पीछे भी एक प्रकार की पौराणिक गाथा जुड़ी है । ब्रह्मा द्वारा अभय प्राप्त् कर त्रिपुर नामक दानव ने अपने आंतक एवं अत्याचारों से दवों एवं देव-गण समर्पित जनता को त्रस्त कर दिया । आखिरकार समस्त देवता भगवान शिव की शरण में आये । भगवान शंकर ने रक्तदन्तिका चण्डिका देवी की आराधना कर उनसे महापाशुपतास्त्र प्राप्त् किया, जिसकी सहायता से वे त्रिपुर का वध कर  पाये । उनकी इसी विजय के परिणाम स्वरूप इस नगरी का नाम उज्जयिनी पड़ा । इसी प्रकार अंधक नामक दानव को भी इसी महाकाल वन में भगवान शिव से मात खान पड़ी, ऐसा मत्स्य पुराण में उल्लेख है । 
परम भक्त प्रहलाद ने भी भगवान विष्णु एवं शिव से इसी स्थान पर अभय प्राप्त् किया था । भगवान शिव की महान विजय के उपलक्ष्य में इस नगरी को स्वर्ग खचित तोरणों एवं यहां के गगनचुम्बी प्रासादों को स्वर्ग-शिखरों से सजाया गया था । अवन्तिका को इसी कारण कनकशंृगा कहा गया । कालान्तर में इस वन का क्षेत्र उज्जैन नगर के तेजी से विकास एवं प्रसार के कारण घटता गया । कालिदास के  साहित्य से ज्ञात होता है कि उनके समय में महाकाल मन्दिर के आसपास केवल एक उपवन था, जिससे गंधवती नदी का पवन झुलाता रहता था । समय की विडम्बना ! आज अवन्तिका उस उपवन से भी वंचित है । गरूड़ पुराण के अनुसार पृथ्वी पर सात मोक्षदायीनी पूरिया है उनमें अविन्तकापुरी सर्वश्रेष्ठ है । उज्जैन का महत्व समस्त पुरियों में एक तिल अधिक है । 
अयोध्या मथुरा, माया, काशी कांची अवन्तिका ।
यह नगर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक, सप्त्पूरियों में से एक मोक्षदायिनी पुरी, द्वादश व चौरासी दोनों शक्तिपीठों से सम्पन्न एवं पवित्र कुम्भ मेले लगने वाले चार शहरों में से एक नगर उज्जैन है । राजा भर्तहरि की गुफा भी यही पर है । ऐसी मान्यता है कि उज्जैनी भगवान विष्णु का पद कमल है ।
इस शहर की महिमा अपार है, त्रेता युग में भगवान श्रीराम  स्वयं अपने पिताश्री का श्राद्ध करने उज्जैन आये थे और जहां श्राद्ध कर्म किया था वही घाट राम घाट कहलाने   लगा । इसी राम घाट पर सिंहस्थ महापर्व का शाही स्नान होता है । धार्मिक तथा ऐतिहासिक दोनों दृष्टि से उज्जैन का महत्व उल्लेखनीय है ।
उज्जैन के अनेक नाम प्रचलित रहे है - उज्जैनी, प्रतिकल्पा, पदमावती, अवन्तिका, भोगवती, अमरावती, कुमुदती, विषाला, कनकश्रंृगा, कुशस्थली  आदि । यह कभी अंवति जनपद का प्रमुख नगर एवं राजधानी भी रहा था अत: यह नगरी अवन्तिकापुरी कहलाई । 
उज्जैनी शब्द का अर्थ विजयनी होता है जिसका पाली रूपांतर उज्जैन है । वैसे उज्जैयिनी संस्कृत शब्द है इसका अर्थ है उत् + जयिनी अर्थात उत्कर्ष के साथ विजय देने वाली इसीलिए कहा गया है कि उज्जैन एक आकाश की तरह है जिसकी गुणों का कभी बखान नहीं किया जा सकता । 
उज्जैन की ऐतिहासिकता का प्रमाण ई.सन ६०० वर्ष पूर्व मिलता   है । तत्कालीन समय में भारत में जो सोलह जनपद थे उनमें अवंति जनपद भी एक था । अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी । उस समय चंद्रप्रद्योत नामक सम्राट सिंहासनारूत्रढे थे । प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व था ।
मौर्य साम्राज्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त् मौर्य यहां आया था, उसका पुत्र अशोक यहाँ का राज्यपाल रहा  था  । उसकी एक भार्या वेदिसा देवी से उसे महेन्द्र और संघमित्रा दो संतान प्राप्त् हुई जिसने कालांतर में श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था, मौर्य साम्राज्य के अभुदय होने पर मगध सम्राट बिन्दुसार की मृत्योपरान्त अशोक ने उज्जयिनी के शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्हाली और उज्जयिनी का सर्वागीण विकास किया । सम्राट अशोक के पश्चात् उज्जयिनी ने दीर्घ काल तक अनेक सम्राटों का उतार चढ़ाव   देखा । 
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उज्जैन शको और सातवाहनों की प्रतिस्पर्धा का केन्द्र बन गया । शकों के पहले आक्रमण को उज्जैन के वीर विक्रमादित्य के नेतृत्व में यहाँ की जनता ने प्रथम सदी ईसा पूर्व विफल कर दिया था । कालांतर में विदेशी पश्चिमी शासकों ने उज्जैन हस्त गत कर लिया । चस्टान व रूद्रदमन इस वंश के प्रतापी व लोकप्रिय महाक्षत्रप सिद्ध हुए । गुप्त् साम्राज्य चौथी शताब्दी ई. मे गुप्तें और औलिकरों ने मालवा से इन शको की सत्ता समाप्त् कर दी । शकों और गुप्तें के काल में इस क्षेत्र का अद्वितीय आर्थिक एवं औद्यगिक विकास हुआ । 
छठी से दसवी सदी तक उज्जैन कालचुरियों, मैत्रकों, उत्तरगुप्तें, पुष्यभूतियों, चालुक्यों, राष्ट्रकूटों व प्रतिहारों की राजनैतिक व सैनिक स्पर्धा का दृश्य देखता रहा । 
उज्जयिनी में आज भी अनेक धार्मिक पौराणिक एवं ऐतिहासिक स्थान है जिनमें भगवान महाकालेश्वर मन्दिर, गोपाल मन्दिर, चौबीस ख्ंाभा देवी, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिद्धी, गढ़कालिका, काल भैरव, विक्रांत भैरव, मंगलनाथ, सिद्धवट, बोहरों का रोजा, बिना नीवं की मस्जिद, गज लक्ष्मी मन्दिर, बृहस्पति मन्दिर, नवगृह मन्दिर, भूखी माता, भर्तृहरि गुफा, पीरमछन्दर नाथ समाधि, कालिया देह पैलेस, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर महल, चिंतामन गणेश आदि प्रमुख है । 
आज का उज्जैन वर्तमान उज्जैन नगर विध्यपर्वतमाला के समीप और पवित्र तथा ऐतिहासिक क्षिप्रा नदी के किनारे समुद्र तल से १६७८ फीट की ऊंचाई पर २३ डिग्री ५० उत्तर देशांश और ७५ डिग्री ५० डिग्री अक्षांश पर स्थित है । नगर का तापमान और वातावरण समशीतोष्ण है । यहां की भूमि उपजाऊ है । कालजयी कवि कालिदास और महान रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की खूबसूरती को जादुई निरूपति किया है । कालिदास ने लिखा है कि दुनिया के सारे रत्न उज्जैन मे है और समुद्रों के पास सिर्फ उनका जल बचा है । 
उज्जैन नगर और अंचल की प्रमुख बोली मोठी मालवी है । हिन्दी भी प्रयोग में है । उज्जैन इतिहास के अनेक परिवर्तनों का साक्षी है । 
उज्जैन की प्रतिष्ठा प्रमुख रूप से श्री महाकालेश्वर के कारण है । यह देशों के बारह ज्योतिर्लिंगों में शामिल है । ज्योतिर्लिंग की विशेषता है कि इसमें शक्ति, प्राण या ज्योति अंतनिर्हित  है । 
सिहंस्थ -६
विश्व का नाभिस्थल है उज्जयिनी
शैलेन्द्र पाराशर
भारत की ह्दयस्थली उज्जयिनी की भौगोलिक स्थिति अनूठी है । खगोलशास्त्रिों की मान्यता है कि यह नगरी पृथ्वी और आकाश के मध्य में स्थित है । भूतभावन महाकाल को कालजयी मानकर ही उन्हें काल का देवता माना जाता है । 
कालगणना के लिये मध्यवर्ती स्थान होने के कारण इस नगरी का प्राकृतिक, वैज्ञानिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी बढ़ जाता है । इन्हीं सब कारणों से यह नगरी सदैव कालगणना और कालगणना शास्त्रों  के लिए उपयोगीर रही है । इसीलिये इसे ग्रीनवीच के नाम से भी जाना जाता है । भारत की यह प्राचीन ग्रीनवीच उज्जयिनी देश के मानचित्र में २३.९ अंश उत्तर अक्षांस एवं ७४.७५ अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र सतह से लगभग १६५८ फीट ऊंचाई पर बसी है । इसीलिये इसे कालगणना का केन्द्र बिन्दु कहा जाता है और यही कारण है कि प्राचीनकाल से यह नगरी ज्योतिष का प्रमुख केन्द्र रही है । जिसके प्रमाण में राजा जयसिंह द्वारा स्थापित वैधशाला आज भी इसी नगरी को कालगणना के क्षैत्र में अग्रणी सिद्ध करती है । 

कालगणना प्रवृत्तियों की केन्द्र उज्जियिनी का केनवास सदैव विशाल रहा है । कालगणना के साथ-साथ ऐसा प्रतीत होता है कि इस नगरी में मानो काल और ईश्वर समाहित होकर एकाकार स्वरूप में महाकालेश्वर हो गये हों । स्कंदपुराण के अनुसार कालचक्रो प्रवर्तकों महाकाल: प्रतायन: भूतभावन महाकालेश्वर को समय गणना का प्रवर्तक माना गया है । 
श्रीमद् भगवत गीता में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा अहमेवाक्षय: कालोधाताहं विश्चतोमुख: । उज्जयिनी नगरी को भारत के मध्य नाभिदेश में स्थापित होने के कारण इस नगरी को नाभिप्रदेश अथवा मणिपुरचक्र माना गया है । 
आज्ञाचक्रं स्मृता काशी या बाला श्रुतिमूर्धनि । 
स्वाधिष्ठानं स्मृता कांची मणिपुरम् अवंतिका ।।
विश्वभर का केन्द्र बिन्दु उज्जयिनी है, यह खगोलशास्त्रियों की मान्यता है । इसीलिये इसी नगरी से काल का निर्धारण, निरूपण तथा नियंत्रण किया जाता रहा है । भौगोलिक गणना के अनुसार प्राचीन आचार्यो ने उज्जैन को ९ रेखांश पर माना है, कर्क रेखा भी यहीं से जाती है । इस प्रकार कर्क रेखा और भूमध्य रेखा एक दूसरे को उज्जयिनी में ही काटती है । 
यह भी माना जाता है कि संभवत: धार्मिक दृष्टि से महाकालेश्वर का स्थान ही भूमध्य रेखा और कर्क रेखा के मिलन स्थल पर हो, वहीं नाभिस्थल होने से पृथ्वी के मध्य में स्थित है । इन्हीं विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के कारण कालगणना, पंचाग निर्माण और साधना की सिद्धी के लिये इस नगरी को महत्वपूर्ण माना गया है । यहीं से मध्यमोदयपर सम्पूर्ण भारत के पंचाग का निर्माण होता है । ज्योतिष के सूर्य सिद्धांत ग्रंथ में भूमध्य रेखा के बारे में वर्णन आया है :-
राक्षसालयदेवौक: शैलयो-र्मध्यसूत्रगा । 
रोहितकमवन्ती च यथा सन्निहितं सर: ।।
रोहतक, अवन्ती और कुरूक्षेत्र ऐसे स्थल हैं, जो इस रेखा में आते हैं । इस प्रकार भूमध्य रेखा लंका से सुमेरू तक जाते हुए उज्जयिनी सहित अनेक नगरों को स्पर्श करती हुई जाती है । चित्रा दृश्य पक्ष के जनक श्री केतकर और रैवतपक्ष के बालगंगाधर तिलक ने भी क्रमश: अपने चित्रा एवं रैवत पक्षों में उज्जयिनी के मध्यमोदय कोही स्वीकारा था । गणित और ज्योतिष के विद्वान वराहमिहिर का जन्म उज्जैन जिले के कायथा ग्राम में लगभग शक ४२७ में हुआ था । वे एकमात्र ऐसे विद्वान थे, जिन्होने ज्योतिष की समस्त विधाआें पर लेखन कर ग्रंथ की रचना की थी । उनके ग्रंथ में पंचसिद्धांतिका, बृहत्संहिता, बृहज्जातक विवाह पटल, यात्रा एवं लघुजातक आदि प्रसिद्ध हैं । कालगणना और ज्योतिष की परम्पराएँ एक दूसरे से सम्बद्ध रही हैं ।
इस नगरी के केन्द्र बिन्दु से कालगणना का अध्ययन जिस पूर्णता के साथ किया जाना संभव है, वह अन्यत्र कहीं से संभव नहीं है, क्योंकि लिंगपुराण के अनुसार सृष्टि का प्रारंभ यहाँ से ही हुआ है । प्राचीन भारतीय गणित के विद्वान आचार्य भास्कराचार्य ने लिखा है - 
थल्लकोज्जयिनी पुरोपरि कुरूक्षेत्रादि देशानस्मृशत् ।
     सूत्रं सुमेरूगतं बुधेर्निगदता सामध्यरेखा भव: ।।
प्राचीन भारत की समय गणना का केन्द्र बिन्दु होने के कारण ही काल के आराध्य महाकाल हैं, जो भारत के द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक हैं । प्राचीन भारतीय मान्यता के अनुसार जब उत्तर ध्रुव की स्थिति पर २१ मार्च से प्राय: ६ मास का दिन होने लगता है, तब ६ मास के तीन माह व्यतीत होने पर सूर्य दक्षिण क्षितिज से बहुत दूर हो जाता है, उस समय सूर्य ठीक उज्जैन के मस्तक पर रहता है । उज्जैन का अक्षांश का सूर्य की परम क्रांति दोनों ही २४ अक्षांश पर मानी गयी है । सूर्य के ठीक नीचे की स्थिति उज्जयिनी के अलावा संसार के किसी नगर की नहीं है । 
वराह पुराण में उज्जैन नगरी को शरीर का नामिदेश (मणिपुर चक्र) और महाकालेश्वर को इसका अधिष्ठाता कहा गया है । महाकाल की यह कालजयी नगरी विश्व की नाभिस्थली है । जिस प्रकार माँ की कोख में नाभि से जुड़ा बच्च जीवन के तत्वो का पोषण करता है, काल, ज्योतिष, धर्म और अध्यात्म के मूल्यों का पोषण भी इसी नाभिस्थली से होता रहता है । यह नगर भारत के प्राचीनतम शिक्षास्थली का केन्द्र रहा है । भारतीय मूल्यों की रक्षा, उनका संवर्धन एवं उसको अक्षुण्ण बनाये रखने का कार्य यहीं पर हुआ है । सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग में इस नगरी का महत्व प्राचीन शास्त्रों में गाया जाता है । 
इस नगरी से काल की सही गणना और ज्ञान प्राप्त् किया जाता   है । इस नगरी में महाकाल की स्थापना का रहस्य यही है तथा कालगणना का सही मध्य बिन्दु है । मंगल ग्रह की उत्पत्ति का स्थान भी उज्जयिनी को ही माना जाता है । यहाँ पर ऐतिहासिक नवग्रह मन्दिर और वैधशाला की स्थापना से कालगणना का मध्य बिन्दु होने के प्रमाण मिलते है । इस संदर्भ यदि इस नगरी में लगातार अनुसंधान, प्रयोग और सर्वेक्षण किये जाये तो ब्रह्माण्ड के अनेक अनछुये पक्षों को जाना जा सकता है । इस अर्थ में सृष्टि और प्रलय के अनुत्तरित प्रश्नों के हल को भी ढॅूंढा जा सकता है । 
सिहंस्थ परिक्रमा
योग में समाया है सिंहस्थ का सार
भारतीय ज्योतिष शस्त्र तथा नक्षत्र मेखला की गणनानुसार देखा जाए तो लगभग १२ वर्ष बाद सिहंस्थ महाकुंभ का आयोजन होता है । सिहंस्थ की दृष्टि से देखें तो सिंह राशि के बृहस्पति तथा मेष राशि के सूर्य की साक्षी में सिहंस्थ महापर्व का आयोजन होता है । 
गणना तथा तिथि सिद्धांत के अनुसार देखा जाए, तो बृहस्पति का एक राशि में परिभ्रमण की स्थिति ३६१ दिन की होती है, इस अनुसार सिंहस्थ महापर्व १२ वर्ष में अपनी परिक्रमा का बृहस्पति का अनुक्रम समाप्त् होता है । 
ज्योतिषाचार्य पं. अमर डिब्बावाला ने बताया कि पंचाग के अनुसार सिहंस्थ में वार, तिथि, योग, नक्षत्र, करण इन पांच अंगों का विशेष महत्व है । सिंहस्थ महापर्व पर सभी दिव्य संयोग पंचाग के पांच अंगों से आगे बढ़ते है । जैसे चैत्र मास की पूर्णिमा से लेकर वैशाख पूर्णिमा तक सिंहस्थ का आयोजन एक माह का माना गया है, किन्तु इसमें भी विशेष तिथि तथा योग एवं नक्षत्र पर बल दिया जाता है । 
उज्जैन की भूमि देवी-देवताआें से परिपूर्ण है । यहां उत्तर वाहिनी क्षिप्रा, दक्षिणेश्वर ज्योतिर्लिग श्री महाकाल, दक्षिणेश्वरी महाकाली हरसिद्धि, दक्षिणी तंत्र प्रधान अष्ट महाभैरव, अष्ट विनायक गणेश सहित नवनाथ, तंत्र सिद्ध स्थली, ओखरेश्वर, महाशक्तिभेद श्मशान तीर्थ, चक्रतीर्थ, चौरासी महादेव, नव नारायण आदि विशेष देव तथा देवियों से परिपूर्ण यह उज्जयिनी । 
यहां दो प्रकार के मत हैं । पहला क्षिप्रा के तट पर बसी उज्जयिनी, जो मोक्षदायिनी क्षिप्रा के नाम से जानी जाती है । दूसरा महाकालेश्वर ज्योतिर्लिग, जिसका शिव महापुराण में उल्लेख है । महाकालेश्वर ने अघौर पंथ के तीन बिन्दुआें का समयोजन उज्जयिनी के जीरो रेखांश से संबंधित बताया है । 
ज्योतिर्विद पं. आनंदशंकर व्यास ने बताया कि सिंह राशि के बृहस्पति की प्रािप्त् वैशाख शुक्ल पूनम में हो, तब उज्जैन में सिंहस्थ महापर्व होता है । इसके लिए १० योग बताए जाते हैं, लेकिन हर बार ये योग नहीं मिलते हैं । इस बार २०१६ में सिंहस्थ के दौरान कुल छह योग बन रहे है । 

पर्यावरण सन्तुलन के लिए सिंहस्थ में३४ दिनी यज्ञ
महायोगी पायलट बाबा के शिष्य महामंडलेश्वर अवधूत बाबा अरूण गिरि के शिविर में सिंहस्थ के दौरान पर्यावरण संतुलन के लिए ३४ दिवसीय यज्ञ होगा । २० अप्रेल से २४ मई तक चलने वाल यज्ञ में नामचीन हस्तियों सहित देश-विदेश के हजारों भक्त शामिल होंगे । यज्ञ के दौरान हेलिकॉप्टर से पुष्प वर्षा भी की जाएगी । 
अवधूत बाबा का शिविर सिंहस्थ बायपास रोड़ पर स्थित है । शिविर में तेजी के साथ यज्ञ की तैयारी चल रही है । विश्व पर्यावरण यज्ञ से लोगों को लाभ मिलेगा । यज्ञ से पर्यावरण पूरी तरह से संतुलित होगा, साथ ही अच्छी बारिश होगी । अवधूत बाबा ने कहा कि यज्ञ में फिल्म अभिनेत्री सुष्मिता सेन समेत फिल्मी दुनिया के कुछ लोगों के आने की संभावना है । यज्ञ की तैयारी महामंडलेश्वर शिवागीनंद गिरि की देखरेख में चल रही है । 
मंगलनाथ क्षेत्र में नेपाली बाबा के कैंप में ११ मंजिला यज्ञशाला का निर्माण पूर्णता की ओर है । अब जल्द ही १७ मंजिली यज्ञशाला का निर्माण प्रारंभ होगा । श्रीरामनाम जप कल्याण समिति अध्यक्ष लोकेन्द्र मेहता के अनुसार जल्द ही यज्ञशाला का निर्माण कार्य पूर्ण हो जाएगा । 
इसके बाद १७ मंजिली यज्ञशाला का निर्माण पूजा-अर्चना के साथ प्रारंभ किया जाएगा । यज्ञशाला सिहंस्थ के दौरान आकर्षण का केन्द्र  रहेगी । सिंहस्थ में नेपाली बाबा की सबसे बड़ी और ७० फीट ऊंची यज्ञशाला बन रही है । 
इसके निर्माण में सवा सौ कारीगर लगे है । निर्माण में १ लाख बांस, १० बजार बल्लियां, १ लाख घास के पुले और १० क्विंटल नरेटी रस्सी का उपयोग होगा । यज्ञशाला में नर्मदा से लाए गए १००८ शिवलिंग की स्थापना होगी । 
सम्राट विक्रमादित्य के नौ रत्न 
सम्राट विक्रमादित्य के नौ रत्न थे । इन नौ रत्नों को लेकर अनेक जनश्रुतियां है । वहीं प्राचीन साहित्य में श्लोक के माध्यम से इनकी महत्ता भी प्रतिपोदित है - 
धन्वन्तरिक्षणकामरसिंह शंकुवेतालभट्टघंटकर्पर कालिदासा: । 
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते: 
सभायां रत्नानि वे 
वररूचिर्नव विक्रमस्य ।।
इन नवरत्नों के नाम पर उज्जैन के नये शहर के विभिन्न मार्गो का नामकरण है । साधारणत: ये नाम बोलने और पढ़ने में कठिन है लेकिन इनकी महत्ता के बारे में नई पीढ़ी को जानना चाहिए । 
धन्वन्तरि : ये एक श्रेष्ठ चिकित्सक थे । धन्वन्तरि के नाम से सृजित कई ग्रंथ है । उज्जैन की महिदपुर तहसील में वैजनाथ का मन्दिर है । इस मन्दिर का संबंध धन्वन्तरि से बताया जाता है । 
क्षपणक : जैन साधुआें को क्षपणक कहा जाता है । विक्रम के दरबार में जैन साधु सिद्धसेन दिवाकर थे, जो महान विद्वान एवं अनेक ग्रंथों के रचियता थे । 
अमरसिंह : ये विक्रमादित्य के कोषाकार थे । उन्होनें संस्कृत भाषा मेंअमर कोष नामक ग्रंथ की रचना की थी । उनके इस इस ग्रंथ पर अनेक टिकाएं लिखी जा चुकी   है । 
शंकु : इनके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त् नहीं होती है । यह कहा जाता है कि शंकु एक वैश्य थे और ज्योतिष के साथ रसायन शास्त्र के ज्ञाता थे । 
बेतालभट्ट : बेताल पंचविशातिका नामक साहित्य में बेतालभट्ट को सम्राट विक्रमादित्य का सहयोगी बताया गया है । यह माना जाता है कि वे कोई कापालिक या तांत्रिक थे । उनके पास अपूर्व दैवीय शिक्क्तयां थी । 
घटकर्पर : ये विद्धान होने के साथ-साथ कवि भी थे । इनका लिखा एक ग्रंथ आज भी संरक्षित    है । इन्हें घट खर्पर भी कहा जाता है। खर्पर से आशय वैज्ञानिक से रहा होगा । वे अच्छे वैज्ञानिक थे । 
कालिदास : महाकवि कालिदास अन्तर्राष्ट्रीय स्तर ख्याति प्राप्त् है । इन्होंने अनेक अमर रचनाएं दी । उज्जैन में गढ़कालिका देवी के भक्त कालिदासी की रचना मेघदूत में महाकालेश्वर मन्दिर की भव्यता का उल्लेख है । उन्होनें इस नगरी का स्वर्ग का एक भाग बताया था - दिव: कान्तिम् खण्डमेकम् । 
वराहमिहिर : उज्जैन के समीप कायथा नामक ग्राम के निवासी वराहमिहिर महान वैज्ञानिक हुए । उन्होनें वृहत् संहिता नामक ग्रंथ लिखा । गणितज्ञ, जोहरी होने के साथ ही वे शस्त्र परीक्षक भी थे । भूगोल, खगोल ज्योतिष का भी ज्ञान था । 
वररूचि : सम्राट विक्रमादित्य की शासन पटि्टका तथा पाणिनी पर वार्तिकाए लिखने वाले महान साहित्यकार वररूचि सम्राट विक्रमादित्य की पुत्री के गुरू थे । 

सिंहपुरी की होली देती है पर्यावरण संरक्षण का संदेश
उज्जैन शहर में सिंहपुरी में विश्व की सबसे प्राचीन होली पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का भी संदेश देती है । वनों को बचाने के लिए यहां लकड़ी से नहीं बल्कि गाय के गोबर से बने कंडो की पारंपरिक होलिका का दहन किया जाता है । जिसकी खासियत है कि यह पर्यावरण को नुकसान नहींपहुंचाती । 
श्री महाकालेश्वर भर्तृहरि विक्रम ध्वज चल समारोह समिति सिंहपुरी की ओर से यह होली बनाई जाती है । इस समिति का संचालन गुर्जर गौड़ ब्रह्माण समाज सिंहपुरी की ओर से किया जाता है । समिति अध्यक्ष पं. विनोद व्यास और उपाध्यक्ष पं. रविशंकर शुक्ल के अनुसार गाय के गोबर से बने कण्डो की होली बनाई जाती है । इसमें कभी भी लकड़ियां का प्रयोग नहीं होता । ताकि पेड़ों को संरक्षित किया जा  सके और वन बचे रहें । पारंपरिक तरीके अनादि काल से ही यहां कंडो की होली बनाई जाती है । इसमें   पांच हजार कंडो से होली बनाई जाती है । 
पं. यशवंत व्यास और धर्माधिकारी पं. गौरव उपाध्याय ने बताया कि सिंहपुरी की होली विश्व में सबसे प्राचीन और बड़ी है । पीढ़ी दर पीढ़ी इसकी कथाएं सिंहपुरी के रहवासियों को जानने को मिली है । राजा भर्तृहरि भी यहां होलिका दहन पर आते थे । पांच हजार कंडो से ५० फीट से भी ऊंची होलिका तैयार की जाती है । होलिका के ऊपर लाल रंग की एक ध्वजा भी भक्त प्रहलाद के स्वरूप में लगाई जाती है । यह ध्वजा जलती नहीं है । जिस दिेशा में यह ध्वजा गिरती है, उसके आधार पर ज्योतिषी मौसम, राजनीति और देश के भविष्य की गणना करते हैं । धर्माधिकारी पं. उपाध्याय ने होलिका दहन करने वाले अन्य संगठनों व समितियों के पदाधिकारियों से भी पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन के लिए पेड़ों की लकड़ियों का प्रयोग नहीं करने की पहल शुरू की है । 
लकड़ियों का प्रयोग नहीं किया जाता, जिससे पेड़ व वन संरक्षित होते है । चकमक पत्थर से होलिका को चैतन्य किया जाता है, जिससे तुरन्त की दहन होती ही आग की लपटें शुरू हो जाती है और धुंआ नहीं निकलता । कंडों से निकलने वाली वायु प्राकृतिक होती है । ऊर्जा कारक होने के साथ यह पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाती और वातावरण में वायु विशेष से मुक्त करती है । 
सिंहस्थ में संतो को देंगे ५ हजार तुलसी के पौधे
उज्जैन में सिंहस्थ की तैयारियों के मद्देनजर छोटी से छोटी चीजों पर ध्यान दिया जा रहा है । साधु-संत भोग लगाने के लिए तुलसी का उपयोग करते है । तुलसी के पौधे उपलब्ध कराने का जिम्मा वन विभाग को सौंपा गया है । पांच हजार तुलसी के पौधे विभाग की ओर से साधु संतो को वितरित किए जाएंगे । 
वन विभाग के मुताबिक साधु-सन्तों की आवश्यकताआें को ध्यान में रख तुलसी के पौधे लगाए गए हैं । विशेष देखरेख में इन इन पौधों को तैयार किया जा रहा है । जल्द ही पौधों का वितरण कर दिया जाएगा । अन्य पौधों के वितरण के दौरान तुलसी के पौधों का मसला प्रकाश मंें आया था । साधु-सन्तों द्वारा भोग लगाने में तुलसी का उपयोग किया जाता है । मान्यता है कि इससे भोजन की शुद्धि भी होती है जिसके बाद तुलसी के पांच हजार पौधे वितरण करने का निर्णय लिया गया । अखाड़ों के साथ ही मेला क्षेत्र मेंलगे साधु-सन्तों के कैंप में तुलसी के पौधे बांटे जाएंगे । पौधों के साथ ही विभाग को सिंहस्थ के लिए जलाऊ लकड़ी भी उपलब्ध करानी है । इसके लिए विभाग की ओर से समस्त जोन में दुकानें लगाई है । साधु संत वहां से रियायती दरों पर लकड़ी खरीद सकते है । 
सिहंस्थ के कारण पहली बार शहर में इतनी बड़ी संख्या में पौधारण हुआ है । ग्रीन सिंहस्थ की थीम के चलते वृहद स्तर पर पौधे लगाए गए है । विभाग के अनुसार करीब तीस हजार से अधिक पौधे लगाए गए हैं जिसमें सभी किस्म के पौधे शामिल है । 
विभाग के वरिष्ठ अधिकारी पी.एस. दुबे के अनुसार सिहंस्थ के लिए विभाग को जो जिम्मेदारी मिली है उसे लेकर सारी तैयारियां पूरी हो चुकी है । पर्याप्त् मात्रा में जलाऊ लकड़ी का स्टॉक कर लिया गया    है । साथ ही साधु सन्तों के पूजा पाठ के लिए लगने वाले तुलसी के पौधों के लिए भी विभाग तैयार है । 
हमारा भूमण्डल
पांच अरब के बराबर पांच दर्जन
मार्टिन खोर

दुनिया के महज ६२ लोग ५० प्रतिशत वैश्विक संपत्ति के मालिक बन बैठे हैं । हम पुरातन काल में प्रचलित ``राजशाही`` को इसीलिए धिक्कारते हैं कि उस दौरान भयानक असमानता व्याप्त थी । आधुनिक ``लोकतंत्र`` तो उस कुलक प्रणाली से हजारों प्रकाश वर्ष आगे बढ़कर सारी दुनिया की आधी संपत्ति महज पांच दर्जन (६२) लोगों के  हाथ सौंप रहा है। यदि पूंजी का जमावड़ा इसी तरह सिकुड़ता रहा तो आगामी २५ वर्षों में महज पांच लोगों के पास दुनिया की आधी संपत्ति होगी । 

हाल के समय में आमदनी और संपत्ति में बढ़ती असमानता महज अकादमिक विषयों तक सीमित न रह कर वैश्विक एजेंडा बन चुकी है। दुर्भाग्यवश यह मुद्दा अभी नीतिगत विमर्श में फसा हुआ है जबकि इस दिशा में तुरंत निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है। धरातल पर देखें तो नजर आता है कि अमीर-गरीब के बीच की खाई, अमीरों द्वारा की गई अतियां और मध्य या निम्न वर्ग की स्थिर या बद्तर होती स्थिति के मद्देनजर विशेषत: पश्चिमी देशों में बहुत से विवाद एवं विरोध प्रदर्शन हुए हैं और राजनीतिक सोच में भी परिवर्तन आया है । पिछले दिनों दावोस में संपन्न हुए विश्व आर्थिक फोरम में आक्सफेम की असमानता पर जारी रिपोर्ट को फोरम के समागृहों में वैश्विक श्रेष्ठी वर्ग द्वारा व्यक्त किए जा रहे विचारों से ज्यादा मीडिया प्रमुखता मिली । आक्सफेम के अनुसार विश्व के समृद्धतम ६२  अरबपतियों के पास विश्व के निर्धनतम आधी जनसंख्या के बराबर की संपत्ति है। गौरतलब है सन् २०१० में विश्व के ३५८ समृद्धतम व्यक्तियों के पास  निर्धनतम ५० प्रतिशत जितनी संपत्ति थी । सन् २०१४ में यह संख्या घटकर ८० और सन् २०१५ में महज ६२ पर आ गई है। इतना ही सन् २०१०-१५ के दौरान निर्धनतम लोगों की संपत्ति में ४१ प्रतिशत की कमी आई है जबकि ६२ समृद्धतम व्यक्तियों की संपत्ति ५०० अरब डॉलर से बढ़कर १.७६ खरब डॉलर (तकरीबन तीन गुना) हो गई है ।
अनेक देशों में बढ़ते सामाजिक असंतोष के चलते राजनीतिज्ञों, धार्मिक नेताओं, अर्थशास्त्रियों एवं पत्रकारों का ध्यान इस स्तंभित कर देनेवाली असमानता की ओर गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने असमानता को ``हमारे समय को परिभाषित करने वाली चुनौती`` की संज्ञा दी है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया में डेमोक्रेटिक पार्टी के एक प्रमुख प्रत्याशी बेरनी सांड्रेस ने उजागर किया है कि अमेरिका के सर्वोच्च् ०.१ प्रतिशत लोगों के पास वहां के निम्नतम पायदान पर रह रहे ९० प्रतिशत व्यक्तियों जितनी संपदा है और उन्होंने कहा है कि वे ``कारपोरेट अमेरिका और वालस्ट्रीट के लालच से टकराएंगे तथा मध्यवर्ग के संरक्षण हेतु संघर्ष करेंगे । ``पोप फ्रांसिस का कहना है`` असमानता सामाजिक बुराई की जड़ है ``और उन्होंने उन्मुक्त बाजार और छन कर (ट्रिकल डाउन) नीचे आने वाले सिद्धांतों`` की निंदा की है। जोसेफ स्टिग्लिट्ज और थामस पिकैटी जैसे उल्लेखनीय अर्थशास्त्रियों ने हाल ही में असमानता पर प्रकाश डाला है और दोनों ने इस विषय पर प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी हैं ।
एक अन्य अर्थशास्त्री रॉबर्ट शिलर ने सन् २०१३ का नोबल पुरस्कार लेने के बाद चेतावनी दी थी कि, ``आज की सबसे बड़ी समस्या अमेरिका और विश्व में बढ़ती असमानता है।`` इसके अतिरिक्त उन्होंने कहा कि असमानता न सिर्फ अन्यायपूर्ण है बल्कि यह लोकतंत्र एवं सामाजिक स्थायित्व को एक गंभीर खतरा है। वाशिंगटन स्थित विचार समूह दि सेंटर फॉर अमेरिकन प्रोग्रेस ने बताया है कि सन १९८३ से २०१० के दरम्यान अमेरिका के सर्वोच्च् २० प्रतिशत परिवारों की औसत संपदा में १२० प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि २० प्रतिशत मध्यवर्ग की आय में १३ प्रतिशत की वृद्धि तथा निचले पायदान पर रह रहे २० प्रतिशत परिवारों की संपत्ति के बजाय ऋण में वृद्धि हुई और शुद्ध संपदा में कमी आई । 
एक सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि निम्नतम ५ प्रतिशत भवन स्वामी सन् २००७ एवं २०१० के मध्य अपनी ९४ प्रतिशत संपदा गंवा बैठे । प्रमुख पत्रकार मार्टिन वोल्फ ने हाल ही में फाइनेंशियल टाइम्स में ``आर्थिक नुकसान उठाने वालों का श्रेष्ठी वर्ग के प्रति विद्रोह`` शीर्षक से एक लेख में बताया कि जिन लोगों को वैश्वीकरण से लाभ नहीं पहुंचा वह स्वयं को बहिष्कृत पाते हैं और श्रेष्ठी वर्ग से नाराज हैं। इसी के परिणामस्वरूप फ्रांस और अमेरिका में दक्षिणपंथी राजनीति को लोकप्रियता मिल रही है जो कि शरणार्थी विरोधी लहर पर सवार है । वोल्फ ने चेतावनी दी है कि मनोमालिन्य की इस प्रवृति को रोकने में हम पहले ही देरी कर चुके हैं । दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञों के उदय को लेकर चिंतातुर वोल्फ अपनी जगह ठीक हैं लेकिन इसके विपरीत धारा भी प्रचलन में है । ग्रीस, स्पेन और तमाम अन्य स्थानों पर सरकारों द्वारा लिए गए मितव्ययता संबंधी निर्णयों से जनता का मोहभंग हुआ है।  फलस्वरूप विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और वामपंथी मितव्ययत विरोधी आंदोलनों एवं राजनीकि दलों का उदय हो रहा है।
अमेरिका में इस बात को लेकर नाराजगी है कि किस तरह रुढ़िवादी राजनीतिक श्रेष्ठीवर्ग ने हाल के दशकों में अमीरों और कारपोरेट के करों को कम करने हेतु उपाय किए एवं निम्न आयवर्ग को लाभ पहुंचाने वाले कल्याणकारी कार्यक्रमों में कमी की । अधिकांश पश्चिमी विश्व इस वक्त द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उठाए गए कदमों को लेकर एकमत था । इसके अनुसार बाजार को रोजगार एवं संपदा उत्सर्जित करना चाहिए । साथ ही सरकार की इस मायने में महत्वपूर्ण भूमिका है कि संपन्नों पर कर लगाए और इस आमदनी का पुनर्वितरण यह सुनिश्चित करने हेतु किया कि गरीबों का ध्यान बेरोजगारी एवं सामाजिक लाभों के माध्यम से रखा जाएगा । सरकार भी निम्न वृद्धि दर एवं मंदी के दौरान इस दुष्चक्र  से निकलने हेतु हस्तक्षेप करे एवं अपने खर्चों में वृद्धि कर मांग एवं रोजगार में बढ़ोत्तरी लाए । रीगन-थैचर क्रांति ने इस सहमति को छिन्न-भिन्न कर दिया । उनकी इस नई ``परम्परा निष्ठा`` के हिसाब से अमीरों और कारपोरेटस पर कर कम किए जाएं जिससे कि निवेश पैदा कर सकें । कल्याणकारी लाभों में या तो कमी लाई जाए या इन्हें रद्द कर दिया जाए जिससे कि गरीब इनका दुरुपयोग न कर पाएं सरकार का वित्तीय भार कम हो । और सरकार अर्थव्यवस्था में भागीदारी न करंे और बाजार को कार्य करने के लिए छुट्टा व अकेला छोड़ दे । इस नई पंरपरानिष्ठा को व्यापक तौर पर प्रभावशील बनाया गया और इसमें वे विकासशील देश भी शामिल हैं जो कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक की ढंाचागत समायोजन नीतियों का अनुपालन करने की वजह से ऋण संकट में उलझ गए थे ।
बहरहाल सन् २००७-११ के वैश्विक वित्तीय संकट एवं आगामी आर्थिक मंदी की आशंका के चलते सरकारी हस्तक्षेप वाली कीन्स की नीतियां पुन: लोकप्रिय हो गई । अनेक अर्थशास्त्रियों एवं संस्थानों का विश्वास है कि आर्थिक विकास में कमी या मंदी का कारण व्यापक मांग में कमी आना है। इसका एक कारण बढ़ती असमानता है । मांग में वृद्धि के लिए आवश्यक है कि समानता को प्रोत्सहित किया जाए । जब आमदनी का प्रवाह गरीबों की ओर होगा तो मांग में वृद्धि होेगी क्योंकि गरीब बजाए अमीर के अपनी आय का ज्यादा हिस्सा खर्च करता   है । 
सन् २०१२ में ओबामा की आर्थिक सलाहकार परिषद की पीठ  के सदस्य एलन क्रुईगर ने रिपोर्ट के निष्कर्ष में कहा था असमानता का एक विकृत प्रभाव यह है कि इसकी वजह से आमदनी अमीरों की ओर हस्तांतरित हो जाती है, जो कि प्रत्येकअतिरिक्त डॉलर में से कम खर्च करते हैं। जिसकी वजह से उपभोेग पर प्रभाव पड़ता है । अतएव असमानता में कमी और समानता में इजाफा एक महत्वपूर्ण न्यायसंगत आर्थिक तर्क  है । वैश्विक आर्थिक मंदी की धारा को पलटने हेतु यह एक महत्वपूर्ण आयाम भी है ।   
ज्ञान-विज्ञान
मधुमक्खियों के पेचीदा चेतावनी संदेश
यह तो पहले से पता रहा है कि मधुमक्खियां अन्य मधुमक्खियांें को भोजन पाने के स्थान का अता-पता बताने के लिए विशिष्ट किस्म के नृत्य की भाषा का उपयोग करती    है । नृत्य का संयोजन इस प्रकार किया जाता है कि उसके जरिए भोजन प्राप्त् स्थल की दिशा और दूरी की जानकारी मिलती  है । और तो और नृत्य की गति से उपलब्ध भोजन की मात्रा का भी अंदाज मिलता है । मगर अब शोधकर्ताआें ने एक नए ढंग के संदेश का खुलासा किया है । 

मधुमक्खियांे की एक प्रजाति एपिस सेराना में देखा गया था कि जब कोई मधुमक्खी किसी ऐसे फूलका रस चूसकर लौटती है जिस पर मकड़ी बैठी हो तो छत्ते पर आकर वह अन्य मधुमक्खियांे को संकेतों में इस बता की सूचना देती है । इसके बाद अन्य मक्खियां उधर के फूलों पर नहीं जाती । शोधकर्ता इस संदेश की बारीकियों का समझना चाहते थे - जैस क्या इसमें यह भी बताया जाताह ै कि खतरा कितना बड़ा है । 
इसके लिए एशियाई मधुमक्खी (एपिस मेलिफेरा) का अध्ययन किया गया । एशियाई मधुमक्खी को इसलिए चुना गया क्योंकि एशियाई जलवायु में मधुमक्खियांे को तरह-तरह के खतरों का सामना करना पड़ता है । इनमें बड़ी-बड़ी ततैया भी शामिल है । 
प्लॉस बायोलॉजी में ऑनलाईन प्रकाशित यह प्रयोग वैज्ञानिकों ने चीन में किया है । प्रयोग में व्यवस्था यह की गई थी कि भोजन की तलाश में जाती मधुमक्खियांे का पीछा कोई छोटी या बड़ी ततैया करती थी । जब मधुमक्खियां छत्ते पर लौटती थी तो वे रूको का संकेत प्रदर्शित करती थी और इसकी आवृत्ति ततैया के आकार के अनुसार घटती-बढ़ती थी । 
इसी प्रकार से जब वही ततैया छत्ते के मुहाने पर मिल जाती तो वे रक्षक मधुमक्खियों और भोजन की तलाश से लौटती मधुमक्खियां कॉफी अलग तरह का संकेत पैदा करती थी । इससे पता चल जाता था कि खतरा ऐन दहलीज पर है । और यदि हमलावर ततैया बड़ी हुई तो संदेश में तीव्रता होती है । इसके जवाब में भोजन तलाश करने वाली मक्खियां तो पूरी तरह थम गई मगर छत्ते के रक्षकों ने ततैया के आसपास इकट्ठी होकर एक गेंद से बना ली और कोशिश की कि अपनी सामूहिक गर्मी से उसे मार डाले । 

मानव निर्मित सूक्ष्मजीव जीवित है 

संश्लेषण जीव विज्ञान के प्रणेता क्रेग वेंटर की टीम ने प्रयोगशाला में एक सूक्ष्मजीव का निर्माण किया है जो काम कर रहा   है । इस सूक्ष्मजीव की एक विशेषता है कि वर्तमान में जीवित किसी भी जीव के मुकाबले इसमेंसबसे कम जीन्स हैं । 
दरअसल, के्रग वेंटर कॉफी वर्षो से यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि किसी जीव को जीवित रहने के लिए कम से कम कितने जीन्स की जरूरत होगी । उनका और अन्य संश्लेषण जीव वैज्ञानिकों का मत है कि एक बार हम न्यूनतम जीन्स वाला जीव बना लें, तो फिर उसमें एक-एक जीन जोड़कर उस जीन की भूमिका का अध्ययन बहुत आसानी से किया जा सकेगा । 
फिलहाल हम जितना जानते हैं उसके मुताबिक सबसे कम डीएनए वाला जीव (जिसें वेंटर लाइटवेट चेपियन कहते हैं ) मायकोप्लाज्मा जेनिटेलियम नामक एक बैक्टीरिया है । इसके डीएनए में कुल ६ लाख क्षार हैं । प्रसंगवश यह भी जानना रोचक है कि सबसे बड़ी डीएनए वाला जीव एक जापानी फूलधारी पौधा है - पैरिस जेपोनिका । इसमें मनुष्य के मुकाबले ५० गुना अधिक डीएनए   है । 
क्रेग वेंटर की टीम ने जो नया संश्लेषित जीव बनाया है उसे नाम दिया गया है डूि ३.० । इसका मतलब है कि यह संश्लेषित जीव का संस्कारण ३ है । इसे बनाने के लिए जो तरीका अपनाया गया, उसकी शुरूआत २०१० में हुई थी । वेंटर की टीम ने तब रिपोर्ट किया था कि उन्होनें एक बैक्टीरिया मायकोप्लाज्मा मायकोइड्स में पाए जाने वाले एकमात्र गुणसूत्र को प्रयोगशाला में बनाकर उसे एक अन्य डीएनए-रहित बैक्टीरिया (मायकोप्लाज्मा केप्रिकोलम) की कोशिका में डालकर एक जीवित बैक्टीरिया प्राप्त् किया था जो मायकोप्लाज्मा मायकोइडस के समान था । यह डूि १.० था मगर इसमें काफी सारा डीएन था जो फालूत था । 
इसके बाद उन्होनें डूि १.० में से एक-एक करके गैर जरूरी जीन्स हटाना शुरू किया । इसके लिए उन्होनें १.० के जीनोम को खंडों में बांट लिया और खंडों को एक-एक करके बदलकर देखा । जब एक कामकाजी न्यूनतम डीएनए मिल गया तो इसे उन्होनें पुन: व्यवस्थित किया और फिर मायकोप्लाज्मा केप्रिकोलम की कोशिका में पहुंचा दिया । इस तरह डूि ३.० मिला उसके डीएनए में जीन्स की संख्या सबसे छोटे जीव (मायकोप्लाज्मा जेनिटेलियम) से कम है । डूि ३.० के डीएनए मेंक्षारों की संख्या ५,३१,००० है । इसके चलते फिलहाल यह सबसे लाइटवेट जीव   है । 
जब कोशिकाएं सफर पर निकलती हैं 
हमारे शरीर में कई कोशिकाएं, खास तौर से प्रतिरक्षा कोशिकाएं अपनी जगह स्थिर नहीं रहती बल्कि घूमती-फिरती रहती हैं ।  अपने इस सफर के दौरान उन्हें कई संकरी दरारों में से गुजरना पड़ता है, कई बार अन्य कोशिकाआें के बीच की जगह में से निकलना पड़ता है । ये दरारें प्राय: स्वयं कोशिका की साईज से भी संकरी होती है । तब कोशिकाआें को अपनी आकृति को तोड़-मरोड़कर जगह बनानी पड़ती   है । मगर इस प्रक्रिया का एक खतरनाक पक्ष भी होता है । 
जन्तु कोशिकाएं तो काफी लचीली होती है । वे अपना आकार बदलकर निकल जाती है । मगर कोशिकाआें के अंदर पाए जाने वाले केन्द्रक की झिल्ली थोड़ी सख्त होती है । लिहाजा इस धक्का-मुक्की में कई बार केन्द्रक की झिल्ली फट सकती है । हाल ही में यह पहली बार देखा गया है कि केन्द्रक की झिल्ली वाकई फट जाती है । 
दरअसल, केन्द्रक को शेष कोशिका द्रव्य से अलग रखने का काम यह केन्द्रक झिल्ली करता है । यदि केन्द्रक झिल्ली क्षतिग्रस्त हो जाए तो कोशिका द्रव्य में मौजूद एंजाइम केन्द्रक में उपस्थित डीएनए (यानी आनुवंशिक पदार्थ) तक पहुंच     जाएंगे । इनमे से कई एंजाइम का तो काम ही डीएनए को नष्ट करना है । इसलिए वैज्ञानिकों का मत था कि केन्द्रक झिल्ली को बचाने का कोई उपाय तो कोशिकाआें में होगा । मगर अब पेरिस के क्यूरी इंस्टीट्यूट के मैथ्यु पिएल और कॉर्नेल विश्वविघालय के यान लैमरडिंग ने अपने अनुसंधान में यह देखा है कि जब कोशिकाएं संकरे दरों में से गुजरती है तो उनकी केन्द्रक झिल्लियां वास्तव में क्षतिग्रस्त होती  है । 
दोनों ही दलों ने कुछ सामान्य व कुछ कैंसर कोशिकाएं ली और उन्हें इस तरह तैयार किया कि उनके केन्द्रक में कुछ चमकने वाले रंजक बनने लगे । अब इन कोशिकाआें को भ्रमण करने दिया गया । देखा गया कि भ्रमण करते हुए केन्द्रक में उपस्थित रंजक लीक होकर कोशिका द्रव्य में पहुंच गया  था । यानी केन्द्रक झिल्ली क्षतिग्रस्त हुई थी और रिसाव हुआ था । 
दोनों दलों ने यह भी देखा कि इन काशिकाआें के डीएनए में भी क्षति हुई थी । यह क्षति ऐसी थी कि जो कोशिका को मार सकती है या उसे कैंसर-कोशिका बना सकती है । यह भी पता चला कि इन कोशिकाआें में मरम्मत का काम भी काफी तेजी से किया गया । केन्द्रक की मरम्मत का काम क्षति के २ मिनट बाद शुरू हो गया और १०-३० मिनट में मरम्मत पूरी हो चुकी थी । दोनों दलों ने मरम्मत का काम करने वाले अणु की पहचान भी कर ली है । यह स्पष्ट है कि यदि मरम्मत का काम न हो, तो कोशिका मर जाएगी । 
वातावरण
शहर कैसेबन जाते हैं गर्मी के टापू
डॉ. महेश परिमल
वैज्ञानिक कहते हैं कि मौसम बदल रहा है । पर सच तो यह है कि इंसान उससे तेजी से बदल रहा है । मायानगरी मुम्बई का मौसम पहले हमेशा एक जैसा हुआ करता था । वहां के लोगों ने कभी स्वेटर नहीं देखा  था । न ही वहां रहकर पहना । पर अब मुम्बई बदल रही है । ठंड भी लगने लगी है । लोग स्वेटर पहनने लगे है । उधर गर्मी में लू भी चलने लगी है । अब कोई मकान भट्टी की तरह तपने भी लगे है । 
इसका सीधा सा कारण है कि अब वहां भी मकान कांक्रीट के बनने लगे हैं । हम विदेशों क तरह अपने मकानों में सीमेंट का उपयोग करते है । वास्तव में यह उनके लिए उपयोगी है, जहां हमेशा ठंड होती    है । वहां के हिसाब से सीमेंट के मकान बनाना अच्छा है, पर हमारे देश के लिए यह उचित नहीं है । लेकिन अंधानुकरण के कारण हमने यह सोचना ही छोड़ दिया है कि कहीं यह हमारे लिए प्राणघातक तो नहीं ?
मौसम विज्ञानियों की नजर में किसी भी शहर के कुछ भाग ऐसे होते है, जो दूसरे भागों से अपेक्षाकृत अधिक गर्म होते हैं । इन दोनों स्थानों के तापमान में इतना अंतर होता है कि इसके कारण गर्म स्थान को हीट पाकेट कहते हैं । 
मुम्बई की कोलाबा वैधशाला की ओर से शहर के किस भाग में गर्मी अधिक है, इसका हिसाब लगाया जाता रहा है । इसका अध्ययन होता रहा है । सन १९७६ में गर्मी वाले क्षेत्र का सर्वेक्षण किया गया था, तब उन्हें एक भी हीट पॉकेट नहीं मिला था । अब मुम्बई के कई इलाके हीट पॉकेट हो गए है । 
आज देश की आबादी के साथ-साथ मकानों का निर्माण इस तरह से होने लगा है कि वहां ऑक्सीजन खोजनी पड़ती है । कार्बन डाईऑक्साइड का प्रभाव दिनों-दिन बढ़ने लगा है । जहरीली वायु अपना प्रभाव दिखाने लगी है । आज निर्माण कार्यो में जिस तरह से सीमेंट-कांक्रीट का विवेकहीन उपयोग हो रहा है, उससे पर्यावरण के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है । सीमेंट-कांक्रीट से मकान बनाने की पद्धति मूल रूप से यूरोप-अमेरिका में अपनाई जाती    है । ये ठंडे देश है । सीमेंट कांक्रीट के मकान इन्हें गर्मी पहुंचाते है । भारत जैसे गर्म देश के लिए यह पद्धति बिल्कुल भी ठीक नहीं है । इसीलिए आज हमें कई प्रदेशों में गर्मी के टापू देखने को मिल रहे  हैं । 
अधिक नहीं, आज से करीब ३० साल पहले सभी प्रांतों में स्थानीय मौसम के अनुसार मकानों का निर्माण होता था । मालाबार में अधिक बारिश होने के कारण वहां नारियल के पत्तों से ढलवां छत वाले मकान बनाए जाते थे । उधर सौराष्ट्र और कच्छ जैसे गर्म इलाकों में मिट्टी के खपरैल एवं लकड़ी वाले मकान बनाए जाते थे । खपरैल वाले मकान गर्मी से ठंडक पहुंचाते थे । ठंड में यही मकान हमें गर्मी देते थे । इन मकानों में मिट्टी का प्रयोग होता, जो दोनों ही स्थितियों में हमारी रक्षा करते थे । गर्मी से इन मकानों में पंखे की आवश्यकता ही नहीं होती थी । 
आज कच्छ में इस तरह के मकान पर्यटकों को लुभाने लगे हैं, जिन्हें स्थानीय बोली में भूगा कहते  हैं । ये चिकनी मिट्टी के ऐसे मकान होते हैं, जो गर्मी में ठंड और ठंड में गर्मी का अहसास कराते हैं । आजकल ५ सितारा होटलों में भी इस तरह के भूगा बनाए जाने लगे हैं । २० लोग मिलकर एक भूंगा एक महीने में बना लेते हैं, एक भूंगे पर एक लाख रूपए खर्च आता है । कच्छ के अनपढ़ लोगों में यह समझ अच्छी तरह से है कि उनके लिए किस तरह के मकान में रहना ठीक है । इनकी जैसी समझ शहरों में रहकर पढ़ाई करने वाले आर्किटेक्टों में भी नहीं है । यदि मकानों में वेंलीटेशन की ही उचित व्यवस्था कर दी जाए, तो लाखों की बिजली बचाई जा सकती है । आजकल के मकानों में हवा के आने और जाने की कोई वैज्ञानिक पद्धति दिखाई नहीं देती । 
भूंगा को बनाने में पारंपरिक पद्धति का इस्तेमाल किया जाता है । हमारे आसपास प्रचुर मात्रा में मिलने वाली चीजों का इस्तेमाल किया जाता है । मिट्टी, गारे, लकड़ी, चूना, गुड़, पत्थर, खपरैल आदि का बुद्धिमत्तापूर्वक इस्तेमाल किया जाए, तो हमारे मकान भी हमारी अनुकूल बन सकते है । हमारी पुरानी स्थापत्य कला को हम भूलते जा रहे हैं । अगर हम उसी का अनुकरण करें, तो एक-एक मकान से ६० से ८० प्रतिशत ऊर्जा की बचत कर सकते है। 
हमारे देश में आधुनिक मकानों के निर्माण कार्य में ऊर्जा की बचत का विचार किया ही नहीं  जाता । जिन देशों में हमारे देश जैसा ऊर्जा का संकट नहीं है, उन देशों की तुलना में हमारे देश के मकानों के निर्माण में चार से पांच गुना अधिक खर्च होता है । हमारे देश में आधुनिक मकानों में एक बरामदे का क्षेत्रफल सामान्यत: ९-१० वर्ग मीटर होता है । यदि मकान सीमेंट-कांक्रीट से बनाया जाता है, तो इतने क्षेत्र को ठंडा करने में एक टन क्षमता वाले एयरकंडीशनर की आवश्यकता होती है । मकान यदि लकड़ी का बनाया जाए, दीवारों पर मिट्टी, गारे का प्लास्टर करवाया जाए और छत पर खपरैल या कवेलू रखे जाएं, तो ऐसे मकान को ठंडा रखने के लिए ०.३ टन की क्षमता वाले एयरकंडीशनर की आवश्यकता होगी । 
आधुनिक पद्धति में मकान की ऊर्जा बचत करने में प्रांरभिक खर्च अधिक आता है । पर उससे लंबे समय बाद लाभ होता है । अहमदाबाद में टॉरेंट फार्मास्यूटिकल्स रिसर्च लेबोरेटरी के मकान १२ एकड़ जमीन पर फैले हुए हैं । मकानों में एयरकंडीशनर के उपयोग को सीमित करने के लिए पेसिव डाउनड्राफ्ट इवेपोरेटिव कूलिग के रूम मेंपहचानी जाने वाली पद्धति का उपयोग किया गया है । मकानों के ऊपर ठंडी हवा को पकड़ने के लिए ऊ ंची-ऊंची चिमनियां लगाई जाती  है । ऐसी चिमनियों के अंदर की हवा को ठंडा करने के लिए उसे ठंडे मटके के ऊपर से लाया जाता है । इसका अंतिम सिरा मकानों के अंदर पहुंचता है । 
जीवन शैली
अब तो जहर भी मिलावटी
राजकुमार कुम्भज
भारत में खाद्य पदार्थों में मिलावट दिनों दिन गंभीर समस्या बनती जा रही है। ढीले-ढाले नियमों और कानूनों और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार स्थितियांे को और भी अधिक जोखिम भरा बनाता जा रहा  है ।
देेश के आज उपभोक्ता महंगाई और मुनाफाखोरी से  परेशान हैं साथ ही सार्वजनिक खाद्य सुरक्षा प्रयोगशालाओं में जांच किए गए खाद्य पदार्थों का हर पांच मंे से एक नमूना मिलावटी और गलत मार्क अर्थात मिथ्याछाप (मिस ब्रांडेड) पाया गया हैं । भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफ एस एस ए आई) द्वारा जारी प्रयोगशालाआंेे की परीक्षण रिपोर्ट से इस तथ्य का खुलासा हुआ है । परीक्षण रिपोर्ट तो यह भी बता रही है कि वर्ष २०१५ में तकरीबन पंद्रह सौ मामलों में आरोपियों को दोषी पाया गया और उनसे करीब ग्यारह करोड़ की राशि बतौर जुर्माना वसूल की गई । एक चौंकाने वाली सूचना यह रही कि मिलावट के सर्वाधिक मामलों में उत्तरप्रदेश अगर प्रथम स्थान पर रहा तो पंजाब व मध्यप्रदेश, क्रमश: दूसरे और तीसरे क्रम पर रहे । जून २०१५ में एफ एस ए आई द्वारा ``मैगी`` पर प्रतिबंध कुछ अधिक ही चर्चा में आ गया था ।
उद्योग संगठन एसोचैम ने भी दावा किया है कि देश में बिक रहे ६० से ७० फीसदी फिटनेेस अथवा फूड सप्लीमेंट नकली हैं । हमारे देश में इनका वर्तमान बाजार तकरीबन दो अरब डॉलर का है। विटामिन और खनिजों के पूरक आहार के ग्राहकों की संख्या में तेजी से हो रहे इजाफे को देखते हुए उद्योग संगठन ऐसोचैम ने कहा है कि देश में बेचे जा रहे ६० से ७० फीसदी फिटनेस फूड गैर मान्यता प्राप्त हैं । साथ ही इन नकली उत्पादों की पहचान कर पाना भी बेहद मुश्किल है। ये पूरक आहार किसी भी सरकारी संस्थान से मान्यता लिए बिना ही बाजार में बेचे जा रहे हैं। क्या बिना किसी मिलीभगत के नकली पूरक आहार इतनी बड़ी तादाद में बिक सकते हैं ?
पूरक आहार के निरंतर बढते जा रहे उपभोक्ताओं में सबसे बड़ा योगदान मध्य वर्ग का है। बढ़ती क्रय शक्ति के चलते मध्य वर्ग अपने स्वास्थ्य को लेकर कुछ अधिक ही सजगता दिखा रहा हैंऔर भारी मात्रा में पूरक आहारों का इस्तेमाल करने को आतुर है । ज्ञातव्य है ये तमाम पूरक आहार बाजार में गोली, कैप्सूल जेल, जैल-कैप, द्रव्य अथवा चूर्ण आदि के आकार में सर्वसुलभ हैं। एसोचैम की सर्वेक्षण रिपोर्ट चौकाने वाली हो सकती हैं किन्तु यही सच है। भारत के लगभग सभी बड़े शहरों में तकरीबन अस्सी फीसदी किशोर जाने-आनजाने ही पूरक आहारों का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं । ये अपनी आधी-अधूरी जानकारी और अल्पज्ञान की वजह से अपना शरीर सौष्ठव बनाने, बीमारियों से लड़ने की क्षमता तथा अपनी ऊर्जा का स्तर बढ़ाने के निमित्त इन पूरक आहारों का सेवन करते हैं। चिकित्सको के मुताबिक यह सब न सिर्फ गलत व हानिकारक है, बल्कि खतरनाक भी है।
उपभोक्ताओं को नकली पूरक आहारों के चंगुल से बचाने की गरज से प्रखंड स्तर पर छोटी-छोटी समितियां स्थापित करने की सिफारिश की गई है। इनकी बड़ी जिम्मेदारी नकली पूरक आहारों की मौजूदगी पर निगरानी रखने की होगी ही साथ ही वे नकली उत्पादों की बिक्री रुकवाने में भी जरुरी कदम उठा सकेंगी ताकि उपभोक्ताओं को नक्कालों की जानलेवा करतूतों से सावधान करते हुए बचाया जा सके । हमारे देश में जमाखोरी और मिलावटखोरी रोकने के लिए कानून तो हैं लेकिन वे इतने प्रभावशाली नहीं हैंकि उनसे लोगोंे में डर पैदा किया जा सके, मिलावटखोर किलोग्राम से मिलावाट करते है और मिलीग्राम में जुर्माना भरकर पतली गली से निकल लेते हैं।
खाद्य पदार्थो की प्रामाणिकता का मुद्दा नए सिरे से वर्ष २०१५ जून में उठा और खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण अर्थात एफ एस एस ए आई ने ``मैगी`` की बिक्री पर उसकी अमानकता की वजह से प्रतिबंध लगाया था । तब बम्बई उच्च्न्यायालय ने प्राधिकरण द्वारा जारी किए गए प्रतिबंध को हटा दिया था । यहां तक कि खाद्य सुरक्षा प्राधिकारी की सिफारिश को सर्वोच्च् न्यायालय तक ने भी अमान्य कर दिया था । इस सबसे मिलावाटखोरी को कोई नसीहत मिलने से तो रही बल्कि उनकी हिम्मत ही बढ़ती दिखाई देती है ।
गौरतलब है खाद्य सुरक्षा प्राधिकारी अर्थात एफ एस एस ए आई के पास देश की सवा सौ करोड़ की आबादी के खाने की जांच-पड़ताल के लिए सिर्फ ३६२१ कर्मचारी ही हंै। अर्थात एक कर्मचारी पर तकरीबन साढ़े तीन लाख लोगों की खाद्यसुरक्षा की जिम्मेदारी थोप दी गई है । देशभर में कुल जमा सिर्फ  बारह जांच प्रयोग शालाएं हैंजहां किसी भी राज्य से आने वाले अथवा भेजे जाने वाले विवादित खाद्य नमूनों की प्रामाणिक परीक्षक के लिए कुल जमा १६० प्रयोग शालाआंे को मान्यता है । जबकि तीन बरस में सत्रह की मान्यता रद्द हुई हैंऔर ७० से अधिक ने अपनी मान्यता लौटा दी है। ये एक अजीब किस्म का घालमेल है जिसकी वजह से मिलावाटी खाद्यप्रदार्थ बेचने वाली चार में से तीन कंपनियां सजा पाने से बच निकलती हैं। देश में तकरीबन ५२ फीसदी बीमारियां मिलावाटी खाद्य पदार्थोंेके कारण ही होती हैंपिछले पांच बरस में प्रदूषित खाद्य प्रदार्थों से होने बीमारियों के तकरीबन छ: करोड़ मरीजों की शिनाख्त की गई है जिनमें से लगभग साढ़े तीन लाख लोग मर गए ।  
मिलावाटखोरों पर सख्त कार्रवाई के अभाव में न सिर्फ आम खाद्य पदार्थोबल्कि आम आदमी के आम उपभोग की प्रत्येक खाद्य वस्तु में धड़ल्ले से मिलावाटखोरी जारी है। कहा जा सकता है कि उपभोक्ताओं में जागरुकता की कमी और सख्त सजा का अभाव होने से मिलावाट-खोरों के हौसले बुलंद हैं।