रविवार, 17 अप्रैल 2016

सिंहस्थ - ३ (कविता)
उज्जैन का सिहंस्थ 
डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन 












बारह वर्षो में
दिन फिरते घूरे के भी
फिर यह तो तीर्थ है
शको-हूणों-आभीरों
आर्यो-अनार्यो की पवन
संगमस्थली
त्रिपुर पर विजय की
अभूतपूर्व गाथा से
उत्कर्षित उज्जयिनी
कृष्ण और सुदामा के 
संस्कार की जननी ।
यहींसे चलाया था 
साका कभी विक्रम ने
आर्यो के शौर्य का ।
सिंह पर बृहस्पति जब आता है 
मनाता है सारा राष्ट्र सिंहस्थ 

शक्ति और ज्ञान के समन्वय
की अर्चना, वंदना 
महाकाल की उमड़ती 
अपार भीड़ भक्तों की 
क्षिप्रा में स्नान-ध्यान
हर हर बम
हर हर बम 
जाग्रत अवन्तिका में
द्वार-द्वार अनुष्ठान 
शिवता मे शक्ति 
सदा रहती है अन्तर्धान 
उसकी ही सतत शोध
करते सब आँखे मूँद
अपना-अपना विधान
झंडों पर झंडे

अखाड़ों पर अखाड़े
नागा, उदासी, रामनुजी
बल्लभ, कबीरदासजी, हरदासी
उतर पडते दंगल में
ले ले अपने मलंग
प्रश्न है प्रतिष्ठा का
निर्णायक है चिमटे,
डंडे, भाले, तलवारें
अभिषेकित हो अनन्य
पहले किसका निशान
पूर्णिमा से पूर्णिमा तक
दिखती अपूर्णता ही
अमावस्या अकुलाती 
अक्षय तृतीया सब
पुण्य-पाप बँटवाती
कहीं रामनामी जप
तपते तपी पंचाग्नि
कहीं भजन, कीर्तन
कहीं कीलों पर पद्मासन
निर्वसन सिद्धासन 
उर्ध्वबाहु वेदव्यास
कहीं खड़े दिखते हैं,
बहुत बड़ा माहत्म्य
होता इन मेलों का
दिखता है देश एक
अपनी अनेकता में । 
साँसों में भर जाता
पूत गंध यज्ञ धूम
लिपी पुती वेदियों में
जातवेत ज्योतिर्मय

सब समाप्त् होते ही 
कौन करेगा हिसाब ?
गंगा-स्नानों का
संकल्पों, दानों का,
इतने सिंहस्थों ने
कितने बनाए सिंह
जिनकी अयाले हैं 
हाथ में बृहस्पति के
चारों ओर गीदड़ों के 
गोल बहुत दिखते हैं
ब्रम्हा आचारों के 
विपुल प्रवाह में 
किसके पैर टिकते हैं ?

कोई टिप्पणी नहीं: