मंगलवार, 16 जनवरी 2018


प्रसंगवश
बाघों की गणना में उपयोगी तकनीकें
भारत विश्व के उन १३ देशोंमें शामिल है जहां बाघ पाएं जाते है । भारत में बाघों की सख्या विश्व के किसी भी देश से अधिक है । बाघ हमारा राष्ट्रीय पशु है जिस अग्रेंजी में टाईगर और संस्कृत में व्याघ्र कहतें है ।
बाघ वन्य आहार श्रंृखला की महत्वपूर्ण कड़ी होने के साथ ही परिस्थितिकीय तंत्र के स्वास्थ्य का भी प्रतीक है । बाघो की उपस्थिति किसी भी जंगल के संरक्षण की निशानी होती है । बाघ वैज्ञानिक , आर्थिक, सौंदर्य और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व का जीव है । इसलिए इसका संरक्षण आवश्यक है ।
संरक्षण की दृष्टि से बाघों की सही संख्या का पता होना अति आवश्यक है । इसलिए हमारे देश में समय-समय पर बाघों को गिना जाता है । इंसानों की जनगणना की बात करें तो उसमें घर-घर जाकर आंकड़े जुटाए जाते है । लेकिन जंगली जानवरों की गणना के लिए उनके पास जाने का जोखिम नही उठाया जाता । इसके लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी का सहारा लिया जाता है ।
बाघों की गणना करने की कई विधियां है । इनमें से एक विधि है केमरा ट्रैप सर्वेक्षण विधि । इस विधि में जंगल में बाघों द्वारा उपयोग कि ये जा रहे रास्तों पर सेकड़ों संवेदनशील केमरेंलगा दिये जाते है । जब कोई बाघ केमरें की रेंज में आता है तो सेंसर आधारित ये केमरेंउसकी तस्वीरें खींच लेते है । हालांकि कभी-कभार ऐसा भी होता है कि किसी क्षैत्र में बाघ का फोटो खींचे जाने के बाद वह अन्य क्षेत्र में चला जाता है और वहां भी उसकी तस्वीर खींच ली जाती है । ऐसे में दोहराव की संभावना रहती है । इससे बचने के लिए बाघ की धारियों के पेटर्न की सहायता ली जाती है । हर बाघ की धारियां हमारे फिंगर प्रिंट के समान अलग अलग होती है । इससे बाघ की पहचान की जा सकती है । इस प्रकार धारियों के आधार पर दोनों क्षेत्रों में ली गई तस्वीरों का मिलान किया जाता है, इससे एक बाघ की दो बार गिनती होने की संभावना नही रहती । धारियों के पेटर्न की पहचान करने के लिए कई सॉफ्टवेयर उपलब्ध है । हमारे देश मेंमुख्यतया वाइल्ड- आइडी नामक सॉफ्टवेयर का उपयोग किया गया है ।
कैमरों से बाघों की गणना करने में जिन स्थानों पर परेशानी आती है और जहां बाघों का घनत्व कम होता है , वह डीएनए फिंगरप्रिंटिंग तकनीक का अधिक उपयोग किया जाता है । डीएनए फिंगरप्रिंटिंग तकनीक में बाघों को उनके मल से पहचाना जा सकता है । इसके साथ ही बाघों के पंजोंके निशानोंसे भी बाघ की संख्या की गणना की जाती है ।
सम्पादकीय 
विकास बनाम पर्यावरण
पर्यावरण संरक्षण आज मानव जीवन से जुड़ा अहम मुद्दा है । पर विकास के आगे इसकी गूंज उतनी जोर से नहींसुनाई देती, जितनी होनी चाहिये । आज स्थिति ऐसी हो गई है कि हमें साफ हवा के लिए तरसना पड़ रहा है । खासकर दिल्ली जैसे शहरों की स्थिति कुछ ऐसी हो गई है, जहां साल में कम ही ऐसे दिन देखने को मिलते है, जब हवा का स्तर बिलकुल साफ हो । हालांकि सरकार ने इसके लिए कई बड़े कदम उठाए है, लेकिन इनमें बड़ी पहल जागरुकता को लेकर भी हैं । लोगों को पर्यावरण बचाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है ।
सरकार को यह पहल उस समय करनी पड़ रही है, जब पर्यावरण बचाने के लिए बड़ी संख्या में कानून बनाने के बाद भी इसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखाई दे रहा है । उदाहरण के तौर पर प्रदूषण फैलाने वाले वाहनोंके खिलाफ दंड के कड़े प्रावधानों के बावजूद भी प्रदूषण के स्तर मेंकाई कमी नहीं आयी । इसी तरह से जंगल और पेड़ों को काटने से बचाने के लिए फारेस्ट एक्ट में कड़े प्रावधान किए गए थे । बावजूद इसके पेड़ों का कटना बंद नहीं हुआ ।
ऐसे में सरकार ने पर्यावरण को लेकर अपनी रणनीति को बदला है । अब वह कानून की सख्ती के साथ लोगों को जागरुक बनाने और कानूनों के पालन में लोगों का सहयोग लेने में भी जुटी है । इसके लिए लोगों को पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी छोटी-छोटी चीजों को लेकर जागरुक किया जा रहा है । जिसमें निर्माण कार्योंा को ग्रीन कवर करना, निजी वाहनों के इस्तेमाल के बजाय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करना, घर की छतों पर पेड़-पौधे लगाकर हरा-भरा करने जैसे कदम हैं । इसके साथ ही सरकार ने विकास से जुड़े सभी कार्योंा में पर्यावरण को प्रमुखता से शामिल करने की दिशा में काम करना होगा ।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने जल समस्या का जिक्र करते हुए जनभागीदारी से इसे हल करने की बात कही है । उनकी इस पहल से स्पष्ट है कि सरकार करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद जो नही कर पा रही है उसे जन जागरुकता से पूरा किया जा सकता है । पर्यावरण को लेकर कुछ ऐसे ही कदम उठाने की आवश्यकता हैं । ***
सामयिक
गंभीर दौर में है, पर्यावरण का संकट
भारत डोगरा
विश्व स्तर के पर्यावरण बदलावों व चुनौतियों पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा रिपोर्ट जीईओ समय-समय पर जारी की जाती है ।
इसकी नवीनतम रिपोर्ट जीईओ-५ ने भी यही कहा है कि ऐसे विभिन्न तरह के बदलावों के सबसे खतरनाक स्तर से बचना बहुत जरुरी है क्योंकि इस सीमा के बाद धरती पर विविधतापूर्ण जीवन को पनपाने वाली स्थितियाँ सदा के लिए बदल सकती है । समुद्र के जीवन विहीन क्षेत्रोंमें हाल के वर्षोंा में चौंकाने वाली वृद्धि हुई है ।
Related image विश्व के अनेक शीर्ष वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे है कि विश्व स्तर पर पर्यावरण का संकट अपने सबसे गंभीर दौर मेंपहुंच चुका है । स्टॉकहोम रेसेलियंस सेंटर ने ९ संदर्भोंा में धरती की सीमा रेखाआें को पहचानने का प्रयास किया है । इन सीमा रेखाआें पर अतिक्रमण हुआ तो धरती पर जीवन की संभावनाआें पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ेगा ।
यह नौ संदर्भ है - जलवायु बदलाव, स्ट्रोटोस्फीयर की ओजोन परत, भूमि उपयोग में बदलाव, ताजे या मीठे पानी का उपयोग व दोहन, जैव-विविधता, समुद्रों का अम्लीकरण, नाइट्रोजन व फॉस्फोरस में वृद्धि, वायु 
प्रदूषण व रासायनिक प्रदूषण । इन संदर्भोंा में निधारित सीमा-रेखाआें का अतिक्रमण धरती पर जीवन के लिए घातक होगा । इन सभी सीमा रेखाआेंको निर्धारित करनें में कठिनाईयां है, पर जहां तक संभव था यह काम इस केंद्र के वैज्ञानिकों ने किया है । इनमें से तीन संदर्भोंा में सीमा-रेखा का उल्लंघन संभवत: पहले ही हो चुका है । यह तीन संदर्भ हैं - जलवायु बदलाव, जैव विविधता व बायोस्फीयर में नाईट्रोजन की वृद्धि ।
इस अध्ययन में बताया गया है कि यह सब सीमा-रेखाएं एक दूसरे से पूरी तरह अलग निश्चित तौर पर नहीं है व एक संदर्भ में जो भी समस्याएं उत्पन्न हो रही है वे दूसरे संदर्भो को प्रभावित करती है व उनसे प्रभावित होती है । इस तरह वास्तविक जीवन में इन सब कारकों के मिल-जुले असर से बहुत खतरनाक परिणाम सामने आ सकते है । अभी इन समस्याआें को नियंत्रित करने की उचित  स्थितियां विश्व स्तर पर मौजूद नहीं है पर इस ओर ध्यान देना बहुत जरुरी है ।
विश्व स्तर के पर्यावरण बदलावों व चुनौतियों पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा एक रिपोर्ट जीईओ-५ ने भी यही कहा है कि ऐसे विभिन्न तरह के बदलावोंके सबसे खतरनाक स्तर से बचना बहुत जरुरी है क्योंकि इस सीमा के बाद धरती पर विविधतापूर्ण जीवन को पनपाने वाली स्थितियां सदा के लिए बदल सकती है । इस अध्ययन मेंबताया गया है समुद्र के जीवन विहीन क्षेत्रों में हाल के वर्षोंा में चौकाने वाली वृद्धि हुई है ।
एक चर्चित अध्ययन गेरार्डो केबोलोस, पॉल आर.एहरलिच व उसके साथी वैज्ञानिकोंने किया है । इस अध्ययन में यह बताया गया है कि १०० वर्षो में १०००० प्रजातियों में से २ स्तनधारी लुप्त् हो जाएं तो यह सामान्य स्थिति मानी जाती है । इस सामान्य गति की तुलना में पिछली शताब्दी में रीढ़ की हड्डी वाले जीवों के लुप्त होने की दर १०० गुणा तक अधिक पाई गई है । इस आधार पर इस अध्ययन ने कहा है कि धरती विभिन्न प्रजातियोंके  बड़े पैमाने पर लुप्त् होने के नए दौर मेंप्रवेश कर चुकी है ।
मनुष्य के धरती पर आगमन के बाद प्रजातियों के लुप्त् होने का यह सबसे बड़ा दौर है । यह प्रजातियों के लुप्त् होने को पहला ऐसा दौर है जो प्रकृति जनित कारणोंसे नहीं अपितु मानव जनित कारणों से उत्पन्न हुआ है । धरती पर दो पैरों पर चलने वाले जीव पहली बार लगभग ३ लाख वर्ष पहले उत्पन्न हुए, पर जहां तक मनुष्य के वर्तमान रुप यानि होमो सेपिंयस का सवाल है तो उसका धरती के विभिन्न भागों में प्रसार
लगभग ५०००० वर्ष पहले हुआ ।
हारवर्ड के जीव वैज्ञानिक एडवर्ड विल्सन ने कुछ समय पहले विभिन्न अध्ययनोंके निष्कर्ष  के आधार पर बताया था कि होमो सेंपियंस के आगमन से पहले की स्थिति की तुलना करेंतो विश्व में जमीन पर रहने वाले जीवों के लुप्त् होने की गति १०० गुणा बढ़ गई है ।
इस तरह अनेक वैज्ञानिकों के अलग-अलग अध्ययनों के परिणाम काफी हद तक एक से है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त् होने की गति बढ़ गई है और यह काफी हद तक मानव निर्मित कारणों से हुआ है ।
कुछ वर्ष पहले विश्व के १५७५ वैज्ञानिकों ने (जिनमें उस समय जीवित नोबल पुरस्कार प्राप्त् वैज्ञानिक भी सम्मिलित थे) एक बयान जारी किया, जिसमें उन्होनें कहा  हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की जरुरत है अन्यथा बहुत दुख-दर्द बढ़ेंगे और हम सबका घर यह पृथ्वी इतनी बुरी तरह तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा । 
इन वैज्ञानिक ों ने कहा था कि वायुमंडल, समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रुपों, सभी पर तबाह होे रहे पर्यावरण का बहुत दबाव पड़ रहा है और वर्ष २१०० तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रुपों में से एक तिहाई लुप्त् हो सकते हैं । मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के  अनेक तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाआें को नष्ट कर रहें है और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते है, उसका अस्तित्व ही कठिन हो जाए । इन प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने जोर देकर कहा है कि प्रकृतिकी इस तबाही को रोकने के लिए बुनियादी बदलाव जरुरी है ।***
हमारा भूमण्डल
वैज्ञानिक दृष्टिकोण और शिक्षा
डॉ. नटराजन पंचापकेसन
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब होता है प्राकृतिक विज्ञान के अलावा अन्य क्षैत्रोंजैसे सामाजिक और नैतिक मामलोंमें वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करना । 
Image result वैज्ञानिक दृष्टिकोण हासिल करना मानव व्यवहार में परिर्वतन लाता है और इसलिए यह प्राकृतिक विज्ञान का हिस्सा नहीं है । यह प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन करने से नहीं बल्कि वैज्ञानिक तरीकों से मानव व्यवहार में अमल करने से मज़बूत होता है । सभी छात्रों (वैज्ञानिकों सहित) में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मज़बूत करने के लिए उनके पाठ्यक्रम में सामाजिक विज्ञान और मानविकी को शामिल करने की आवश्यकता है । इसका कारण है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण एक मनोवैज्ञानिक रवैया है जो रोज़मर्रा का विज्ञान करते रहने से प्रभावित नहीं होता बल्कि इसके लिए अपने मूल्यों और नैतिकता के ढांचे में बदलाव की ज़रुरत होती है । भारत में यह अभी भी काफी हद तक परिवार और समाज द्वारा तय किया जाता है । यह कई व्यक्तियों, वैज्ञानिक और गैर-वैज्ञानिक दोनों का अवलोकन है ।
अधिकांश का मनना है कि मूल्य और विवेक (समझदारी) प्राकृतिक विज्ञान से अलग है । हमारे व्यवहार और रवैये को काफी हद तक हमारा नैतिक मूल्यों का ढांचा तय करता है । फिर भी एक बात तो माननी होगी पिछले ६० वर्षोंा में विज्ञान और प्रोद्योगिकी के कारण जीवन और पर्यावरण में बड़े स्तर पर हुए बदलावों ने अंधविश्वासों की साख(के दबदबे) को कम कर दिया है । अब लोग गुरुवार को दक्षिण की तरफ यात्रा के बारे में उतनी चिंता नही करते जितना पहले किया करते थे । ग्रहण के बाद वस्त्रोंसहित स्नान के बारे  में मुझे नहीं पता है जिसकी अनुशंसा हाल ही में कुछ समाचार पत्रों द्वारा की गई थी ।
चर्चा को आगे बढ़ानं के लिए-एक व्यापक परिप्रेक्ष्य से विज्ञान/गैर विज्ञान के विभाजन-यानी एक व्यक्ति की विश्व दृष्टि को देखना उपयोगी हो सकता है । विश्व दृष्टि स्मृति, ज्ञान, व्यवहार, मूल्य, नज़रिए आदि का संग्रह है,और यही वह चीज़ है जो किसी व्यक्ति के विचारोंऔर क्रियाआें को दिशा देती है हम खुद को विश्व के केंद्र में रखकर शुरु कर सकते हैं । जब हम बाहर की ओर बढ़ते हैं, दुनिया में अवास्तविक
सपने ओर कल्पनाएं है, स्वाद और पसंद हैं, जिनमें से कई को व्यक्त भी नही किया जा सकता । 
फिर हम कला, मानविकी, सामाजिक विज्ञान और उसके बाद भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान जैसे प्राकृतिक विज्ञान पर आते है, जो सबसे बाहरी वृत्त है । वर्तमान चर्चा के लिए हम सामाजिक विज्ञान तक की विश्व दृष्टि को अंदरुनी विश्व और प्राकृतिक विज्ञान और उसके आगे की दृष्टि को बाहरी विश्व कह सकते है ।
बाहरी दुनिया वस्तुनिष्ठ या अवैयक्तिक दुनिया है जो हम सबके लिए एक समान है, जो मेरे जन्म से पहले अस्तित्व मेंथी, अभी भी है और मेरी मृत्यु के बाद भी अस्तित्व मेंरहेगी । हालांकि इसमें मेरे लिए कोई यथार्थ नहीं कि मेरी मृत्यु के बाद क्या होगा लेकिन अब मैं एक ऐसी दुनिया की कल्पना कर सकता हँू जो संभवत: मेरी अनुपस्थिति में मौजूद रहेगी । यही भौतिक शास्त्र और अन्य प्राकृतिक विज्ञानों की दुनिया है । बाहरी दुनिया के अवैयक्तिक विवरण मेंभावनाएं या जज़्बात प्रवेश नहीं करतें। इसमें तर्क और वैज्ञानिक पद्धति (परिणाम को दोहराने की संभावना और खंडन-योग्यता) आवश्यक हैं । इस दुनिया का एक सार्वभौमिक समय और इतिहास है । यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपनी अनुभूतियों (इंद्रियों) के माध्यम से सुगम है ।
विज्ञान बाहरी दुनिया से संबंधित है और यह हमारे ज्ञान के साथ-साथ इसके कानून और विकास का भी निर्धारण करता है । यहां विज्ञान शब्द प्राकृतिक विज्ञान का द्योतक है, सामाजिक विज्ञान तो आतंरिक दुनिया से संबंंधित है । प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञान के बीच और अंतर महत्वपूर्ण है । जैसा कि बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के दार्शनिक जॉन आर.सर्ल ने कहा है  तथाकथित   प्राकृतिक   विज्ञान और   सामाजिक   विज्ञान के बीच यह अंतर चाहे कितना भी अस्पष्ट क्योंन हो, एक मुलभूत अंतर है, जो मूलतत्वज्ञान (चींज़ो के सार)पर आधारित है, यह दुनिया के उन गुणधर्मोंा के बीच है जो एक ओर मानव दृष्टिकोण से स्वतंत्र मौजुद हैं, जैसे बल, द्रव्यमान, गुरुत्वाकर्षण एवं प्रकाश संश्लेषण तथा दूसरी ओर वे चीज़े जिनका अस्तित्व मानवीय दृष्टिकोण पर निर्भर करता है, जैसे धन संपत्ति, विवाह और सरकार । सरल शब्दों में कहें तो यह अंतर दुनिया के उन गुणधर्मोंा के बीच है जो प्रेक्षक से स्वतंत्र है और जो प्रेक्षक पर निर्भर है ।
भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र और जीवन विज्ञान जैसे प्राकृतिक विज्ञान, प्रकृति के ऐसे गुणधर्मोंा की बात करते हैं, जिनका अस्तित्व इस बात से स्वतंत्र
है कि हम क्या सोंचते है, दूसरी ओर समाज शास्त्र जैसे सामाजिक विज्ञान दुनिया के उन गुणधर्मोंा की बात करतें है जो कि वैसे हैं । सर्ल जिस प्रेक्षक-निर्भरता के बारे में बात करते है वह प्राकृतिक विज्ञान, विशेष रुप से क्वांटम यांत्रिकी, में देखी जाने वाले प्रेक्षक-निर्भरता से अलग है । सर्ल यहां संस्कृति, समाज और राज्य द्वारा व्यक्त अवधारणाआें और विचारों पर निर्भरता की बात कर रहे हैं ।
व्यक्तिपरक भागीदारी की प्रकृति के आधार पर, सामाजिक विज्ञान में आगे और वर्गीकरण हो सकता है, जिसे अवलोकन में अनिश्चितताएं बहुत ज्यादा हों तो स्व-अवलोकन अर्थहीन हो जातें हैं । तब हमें निष्कर्ष निकालने के लिए बड़ी संख्या में अवलोकन और सांख्यिकी विधियों का उपयोग करना होगा । नमूना जितना छोटा होगा अनिश्चितताएं उतनी ही अधिक होगी, जैसा कि हम अर्थशास्त्र की भविष्यवाणी में देख सकते हैं ।
आंतरिक दुनिया में मानविकी, कला, सामाजिक विज्ञान और वे सभी क्षैत्र शामिल है जो प्राकृतिक विज्ञान के बाहर है । हालांकि यह आंतरिक दुनिया विज्ञान का हिस्सा नहींहै, किंतु वैज्ञानिक विधि, यानी तर्क और विचार, यहां भी महत्वपूर्ण भूमिका निभातेंहैं और जहां संभव है वहां बड़ी त्रुटियां या फैलाव है । कभी-कभी इन क्षैत्रों का वर्णन करने के लिए  सॉफ्ट साइंस  शब्द उपयोग किया जाता है । उनके अध्ययन के लिए सांख्यिकी प्रणाली अनिवार्य है । इन विषयोंमें वस्तुनिष्ठता हासिल करना आसान नहीं हैं । इनमें तटस्थल एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, हालांकि पूर्ण तटस्थल भी संभव नहीं है। मूल्य और नैतिकता मानवीय गुण है ं। वे आंतरिक दुनिया के अंग है यही कारण है कि हम कहते है कि (प्राकृतिक) विज्ञान और प्रौद्योगिकी से विवेक की प्रािप्त् नहीं होती । विज्ञान मूल्य तटस्थ हैं । यदि कोई उस मूल्य प्रणाली को बदलना चाहता है जिसमें वह पैदा हुआ है, तो वह मूल्यों की एक नई प्रणाली का निर्णय कैसे करेगा?
अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है,  वे प्रतिबद्धताएं जो हमारे आचरण और निर्णय के लिए निर्धारक और आवश्यक है , इस ठोस वैज्ञानिक तरीके से पूरी तरह से प्राप्त् नहीं हो सकती । क्या है  का ज्ञान सीधे-सीधे यह नहीं बताया कि  क्या होना चाहिए  जो हमारी मानवीय आकांक्षाआें का लक्ष्य है । मूलभूत साध्य और मूल्यांकन...प्रदर्शनों के माध्यम से नहीं बल्कि सशक्त व्यक्तियों के माध्यम से इल्हाम के रुप मेंआते है । किंतु उन्हेंसही ठहराने का प्रयास नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके स्वरुप को सरल और स्पष्ट रुप से समझने का प्रयास करना चाहिए ।  
हर व्यक्ति निजी निर्णय करता है, जानबूझकर या अनजाने में ।
जैंसे ही हम अंदुरुनी दुनिया में और अधिक अंदर केंद्र की ओर जाते है, दिमाग के बजाय दिल निर्णायक हो जाता है । कोई भी फैसला लेने सेंप्यार, करुणा, दया, उत्साह और उल्लास एक बड़ी भूमिका निभाते हैं । बाहरी दुनिया में सृजन के उल्लास के बाद सत्यापन करना ज़रुरी होता है ।  सॉफ्ट साइंस  के पास ऐसा कोई आसान तरीका नहींहै । अनुभवजन्य वैधता एक मुश्किल समस्या है । प्रायोगिक या गणितीय सबूत की अनुपस्थिति में, व्यक्तिगत संतुष्टि ही वैधता हो जाती है ।
एक उदाहरण  संगीत के रसास्वादन  का है । यहां व्यक्तिगत संतुष्टि एक महत्वपूर्ण कारक है , हालाकि अन्य विशेषज्ञों की राय भी भूमिका निभा सकती हैं । व्यक्तिगत संतुष्टि के साथ उत्साह या खुशी मिलती है और अच्छे संगीत ही हमारी पसंद का फैसला करती है । सार्वभौमिक सत्ता के साथ एक्य की भावना है । यह निश्चित रुप से प्रमाणवाद और भौतिकवाद से पार भौतिकी या मानवतावाद की ओर कदम हैं।
इन क्षेत्रों में, अनिश्चितता के साथ रहना पड़ता है और नतीजों की वैधता उसी हद तक प्रमाणित कर सकते हैं जितना  सॉफ्ट साइंर्स  अनुमति देता है । किन्तु वास्तविक दुनिया में विशेषज्ञ अधिकारी की स्वीकृति, मात्र वैधता पर आधारित नहीं होती । यह विचार के प्रर्वतक के व्यक्तित्व सामाजिक महत्व और उसकी ताकत का मिश्रण है । इसलिए तर्क, वास्तविकता से संबंध और यथासंभव वैज्ञानिक पद्धति का इस्तेमाल ही हमेंबता सकता है कि  सम्राट नंगा है   अर्थात मिथ्या जनमत से अंधे न होते हुए वास्तविकता को देखना । यह भारत में विशेष रुप से सच है जहां सभी प्रकार के मानव रुपी देवता बड़ी तादाद में मौजूद हैं ।
इस चर्चा का शिक्षा के लिए एक विशेष महत्व है जिसे व्यक्तिगत, नैतिक, निर्णयों के लिए मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए । वेज्ञानिक दृष्टिकोण में किसी समस्या को समझना विभिन्न विकल्पो पर विचार करना और फिर निर्णय लेना शामिल है । दुनियाभर में प्राकृतिक विज्ञान में विज्ञान शिक्षण, काफी हद तक (गणितीय और प्रायोगिक) और स्वीकृत विचारों का प्रसारण हैं यह चुननें के लिए विकल्पों का प्रस्तुतीकरण ठीक से नहीं करती और न ही चर्चा के लिए उपयुक्त है दरअसल, उपयुक्त विकल्प चुनने तथा वेज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करने का काम तो सामाजिक विज्ञान करता है । 
वर्तमान में विज्ञान के छात्रों के पाठ्यक्रम मेंसामाजिक विज्ञान की कमज़ोर हो रही भूमिका उन्हें नैतिक मुद्दो को संभालने तुा अखबारों और मिडीया में उनके बारे में निर्णय लेने या लिखने के लिए अच्छी तरह से तैयार नही कर रही हैं लिहाज़ा, सार्थक शिक्षा के लिए प्रत्येक छात्र ने पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को शामिल करना आवश्यक है । ***
गणतंत्र दिवस पर विशेष
पर्यावरण, स्वच्छता और जन सामान्य
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित
स्वच्छ भारत अभियान का मुख्य उद्देश्य गलियों, सड़को, गांवो और शहरों को स्वच्छ रखना है । इस अभियान में खुले में शौच से मुक्ति, अस्वच्छ शौचालयों को नवीन शौचालयों में परिवर्तित करने, सिर पर मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन करने, नगरीय ठोस, अपशिष्ट प्रबंधन और ग्रामीण क्षेत्र में स्वच्छता से संबंध में लोगो से व्यवहार में परिर्वतन लाने के लिए कार्य करना शामिल है ।
Related image एक स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में स्वच्छता की अहम भूमिका होती है । अभियान में प्रमुख रुप से देश में बड़े पैमाने पर प्रोद्योगिकी का उपयोग कर ग्रामीण क्षेत्रो में कचरे का इस्तेमाल कर उसे पूंजी का रुप देते हुए जैव उर्वरक और उर्जा के विभिन्न रुपों में परिवर्तित करना शामिल हैं ।
स्वच्छता अभियान एक राष्ट्रीय अभियान है इसमें प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी तथा भागीदारी आवश्यक है । इसके द्वारा जन-जन में स्वच्छता के प्रति जागरुकता आएगी तो शहरों और ग्रामों में कचरे का निस्तारण वैज्ञानिक पद्धति से करने पर जहां एक ओर पर्यावरण स्वच्छ होगा वही उपयोगी पदार्थ भी बनाये जा सकेगें। इस प्रकार कचरे का निस्तारण हो जाएगा तो पर्यावरण प्रदुषण की समस्या भी कम होगी ।
आज हमारे देश में प्लास्टिक निर्मूलन एक गंभीर समस्या है । आज हर जगह प्लास्टिक की बोतलों में बंद पानी को प्रोत्साहित किया जा रहा है । सार्वजनिक कार्यक्रमोंमें प्लास्टिक, थर्माकॉल और एल्युमिनियम फॉयल से निर्मित  युज़ एण्ड थ्रो  पात्र प्रयोग में लाये जाते है कार्यक्रम खत्म होते ही समारोह स्थल पर इस कचरें क ेढेर लग जाते है । यह कचरा वज़न में अत्यन्त हलका होने के कारण उड़ कर आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाता है । शहरों, कस्बो और गांवो के नैसर्गिक सौंदर्य पर यहा कचरा कलंक की तरह दिखायी देता है ।
भारत में ४५ करोड़ों लोग शहरों में रहते है ताजा आंकड़े बताते है कि भारत के ४ महानगरों में जहां १ करोड़ से ज्यादा आबादी रहती है । देश में १० लाख से अधिक आबादी वाले ५३ शहर है १० लाख से कम आबादी वालों शहरों की संख्या ४६८ है । यह सब मिलकर रोज़ाना ६० हजार टन कचरा उत्पन्न करते है और इस कचरें में से केवल६० प्रतिशत कचरा उठाया जाता है जो प्रक्रिया स्थल पर पहुंचता है । ज्यादातर कचरा अवैज्ञानिक तरीके से गांव से बाहर खड्डों में डाल दिया जाता है । भारतीय कचरे का उष्मांक मूल्य प्रति किलो ६००-८०० कैलोरी होता है  जबकि यूरोप अमेरिका मेंइससे कहीं अधिक अर्थात ३५०० कैलोरी प्रति किलो होता है । भारतीय कचरेंमें ७२-८१ प्रतिशत जैव कचरा १६-१८ प्रतिशत प्लास्टिक, कागज़ तथा कांच और बाकी घरेलू घटक व रसोई का कचरा होता है । जैव कचरें में पानी की मात्रा इतनी अधिक होती है उससे बिज़ली बनाना फायदेमंद नही होता है ।
हमारे देश में करीब १५ लाख टन ई-कचरा सालाना पैदा होता है । भारतीय उद्योग संगठन के एक अध्ययन में कहा गया है कि देश में ई कचरा पैदा करने वाले राज्यों में महाराष्ट्र प्रथम है, इसके बाद के क्रम में तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली और गुजरात राज्य आते है । सरकारी, निज़ी कार्यालय और औद्योगिक संस्थान ७१ प्रतिशत ई-कचरा पैदा करते है जबकि घरों का ई-कचरें में योगदान १६ प्रतिशत है । ई-कचरे में प्राप्त् वस्तुआें और उत्पादों को फिर से इस्तेमाल करने लायक बनाने के लिए भारत मुख्य रुप से असंगठित क्षेत्र पर निर्भर है । इनमें काम करने वाले लोग बिना किसी बचाव उपकरण के काम करते है । ई-कचरे के गलत ढंग से निपटान से न केवल स्वास्थ्य पर बल्कि पर्यावरण पर भी नकारात्मक असर होता है ।
भारतीय ग्रामीण इलाको की अपेक्षा शहरों में १० गुना अधिक कचरा पैदा होता है भारत में प्रति व्यक्ति औसत कचरा २५०-३५० ग्राम तक है । यद्यपि हम बहुत कम कचरा पैदा करते है लेकिन हमारी विशाल जनसंख्या और कचरे के निपटान का उचित प्रबंध ना होने की समस्या से कै से निपटे और स्वच्छता में उच्च् स्तर पर कैसे पंहुचे ये दोनो चिंताए हमारे स्वच्छता अभियान में शामिल करनी होगी । 
हम जानते है कि आधुनिक कचरे का दो तिहाई हिस्सा वही होता है जो किसी वस्तु या खाद्य सामग्री की पैकिंग के रुप में प्रयोग में लाया जाता है । महात्मा गांधी के जन्म से शुरु हुए इस अभियान में गांधी के इस विचार पर ध्यान देना होगा जिसमें उन्होने कहा था -   सुनहरा नियम तो ये है कि जो चीज़लाखों लोगो की नही मिल सकती उसे लेने से हम दृढंतापूर्वक इन्कार कर दें त्याग की यह शक्ति हमें एकाएक नहीं मिल जाएगी पहले तो हमें ऐसी मनोवृति विकसित करनी चाहिए कि हमें उन सुख सुविधाआें का उपयोग नहीं करना है जिनसे लाखों लोग वंचित है और उसके बाद तुरंत ही अपनी मनोवृति के अनुसार हमें शीघ्रता पूर्वक अपना जीवन बदलने में लग जाना चाहिए   । इस प्रकार आवश्यकता कचरें के कम उत्पादन करने अर्थात व्यक्तिगत उपभोग को कम करने की है ।
स्वच्छता अभियान मात्र एक अभियान नही है बल्कि जन आंदोलन है। स्वच्छता का सीधा संबंध पर्यावरण से होता है आज मानव जाति के समक्ष सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण संरक्षण की है । जगह-जगह दिखने वाले कचरे के ढेर ने हमारी नदियों, मंदिरों, तीर्थ क्षैत्रों, ग्रामों और शहरों सभी को अस्वच्छ कर दिया है । गंदगी को साफ करने के कार्य को समाज क्षुद्र कार्य मानता रहा है । सफाई करने की ओर निम्नता का दृष्टिकोण रखा जाता है । जो वर्ग आज तक कचरें से लेकर मल-मूत्र तक साफ करते आया है और पीढ़ी दर पीढ़ी उसी वर्ग का इसमें लगे रहना हम सबके लिए लज्जा का विषय होना चाहिए ।
स्वच्छता अभियान में झाडू केवल सफाई का अस्त्र नही है यह सामाजिक विषमता और जाति - पाति पर आधारित उच-नीच को समाप्त् करने का एक बड़ा प्रतीक है। हमारे यहां सभी धर्मोंा में स्वच्छता पर ज़ोर है इसके चलते हमारे व्यक्तिगत जीवन में साफ-सफाई का विशेष स्थान है । लेकिन सार्वजनिक स्थानों सड़के, पार्क, बस स्टेण्ड और रेल्वे स्टेशन आदि को साफ सुथरा रखने की जिम्मेदारी को अपना कर्तव्य मान कर काम करने के लिए बहुत कम लोग आगे आ रहें है। हर व्यक्ति जब तक अपने हिस्से की सफाई पर ध्यान नही देगा तब तक समूचे देश को साफ सुथरा कैसे रखा जा सकता है? पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छ भारत अभियान को जन आंदोलन बनाने मेंजन सामान्य की सक्रिय सहभागिता नितांत आवश्यक है । 
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गांधी पुण्यतिथि पर विशेष
गांधी समाज का बदलता पर्यावरण
रामचन्द्र राही
पर्यावरण तो गांधी-समाज का भी बदलता है । यह समाज निष्प्रभावी हुआ है । जो संस्थाए सामाजिक काम के लिए बनी थी,उनके भीतर भी सत्ता, साधन और संपत्ति को लेकर खींचतान रहने लगी है । गांधी विचार का काम सिर्फ प्रभाव और प्रेरणा से हो सकता है आज गांधी को केवल प्रतीक बनाकर ही न छोड़ा जाए, बल्कि उन्हे अपने विचार और मूल्योंके केन्द्र में रखें ।
Image result for mahatma gandhiमहात्मा गांधी के जन्म के १५० वर्ष मनाने के लिए सभी अपनी अपनी तरह से कोशिश कर रहेंहै ऐसा नही है कि गांधी-विचार की महत्ता १४९ वर्ष में कम हो, और १५० में बढ़ जाए यह १५० केवल अंक है जैसे सफर पर निकले लोगो के लिए जील का पत्थर, कुछ वैसे ही   गांधी १५०   हमारे लिए है यहां पहुंचकर हम हिसाब लगाते है कि हम कहां से निकले थे और कितनी दूर आ गए ? कहां जा रहे हैं? क्या हमारा रास्ता ठीक है, दिशा ठीक है? हम जहां पहुंचना चाहते है, वहां तक पहुंचने के लिए क्या करें?
गांधीजी के लोकशक्ति को गुलामी की राजशक्ति का सामना करने के लिए सक्षम बनाया था उन्होने कमज़ोर लोगों को मज़बूत बनाने के लिए दो तरीके दिये - सत्य और अहिंसा । देश की राजनीतिक आज़ादी के समय हमारे सामने एक बड़ी चुनौती थी । हमें सामाजिक, आर्थिक, तकनिकी और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की ओर बढ़ना था । राजनीतिक आजादी तो केवल एक ज़रिया थी, हमारे समाज में जिम्मेदारी, संयम और स्वाध्याय लाने की । गांधीजी के अनेक सहयोगियोंने उनके जाने के बाद यह काम बहुत लगन से किया ।
आजादी के १५-२० साल बाद तक लोक शक्ति संजोने का काम गांधी-विचार के भाव से होता रहा किन्तु उसके बाद,लोक शाक्ति के उभरने के बजाय उसका अभाव बढ़ता गया । उसके साथ ही साथ राज शक्ति का प्रभाव हर क्षेत्र मेंबढ़ता गया ।
आज हालात बहुत तेजी से बिगड़ रहे है राज शक्ति हर दायरे में अपनी पैठ बढ़ा रही है, लोक शक्ति क्षीण हो रही है । किसानों और बुनकरों की दुर्दशा तो किसी से भी छुपी नहीं है । रोज़गार विज्ञान, शोध, उद्यम, तकनिकी हर विद्या में राजशक्ति हावी है । यही नही, जहां कही लोक शक्ति अपने आप को संयोजित करने का प्रयास करती है, वही
राजशक्ति के प्रतिष्ठान उनकी वैद्यता पर सवाल उठाते है । जैसे कि जनता और समाज की वोट डालने के अलावा देश-समाज में कोई भूमिका ही नही हो ! इस तरह तो कोई भी स्वस्थ समाज खड़ा नहीं हो सकता । इतिहास हमारी गुलामी का कारण इसी में ही बताता है : हमारी लोकशक्ति ने राजशक्ति के सामने घुटने टेक दिये थे ।
आज हमारे पास राजनीतिक स्वतंत्रता है लेकिन हम अपनी बनाई हुई व्यवस्थाआेंके सामने पराधीन हो रहे है । हम   विकास   कि गुलामी मेंफंस रहे है । ऐसा विकास, जो प्राकृतिक साधनो को अंधाधुंध दुहता है, और उससे बने साधनों को राजशक्ति को अर्पित कर देता है । इतनी ताकत न तो राज शक्ति खुद से पैदा कर सकती है, और न ही इतने साधन पचा सकती है । इसलिए वह निरंकुश पूंजीवाद और बाजार को अपना आधार बना रही है बाजार और राज सत्ता में  विकास   नामक बालक को बंदी बना लिया है ।
इससे ठीक विपरीत, गांधीजी ने सबसे कमजोर लोगो को ताकत दी थी, उनके मन से राजशक्ति का डर निकाला था । उन्होनें प्रमाणित किया था उद्यम अनैतिक ही हो यह जरुरी नही है, सामाजिक समरस्ता से लोग धर्म और जाति की सकंुचित कोठियों से बाहर आ सकते है । परन्तु यह नया अपहृत विकास तो निर्बल को और पराधीन बनाता है कमजोर को बलि चढ़ाता है आज दरिद्रता में फंसतेलोगो के लिए विकल्प केवल अपराध और हिंसा ही बच रहा है । सत्य और अहिंसा पर आधारित उदाहरणोंका अभाव है ।
हमारे देश की एक विशेषता रही है । हमारे यहां गरीब और साधारण लोगों का रोज़गार प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित है, पर्यावरण की स्थिति पर टिका है । पर्यावरण की आधुनिक चेतना के पीछे गांधी-परिवार के सर्वोदयी कार्यकर्ता ही थे । चिपको आंदोलन में सारी दुनिया को दिखाया था कि साधारण लोग अपने वन, अपने पर्यावरण की रक्षा करने में सक्षम है । क्योंकि उनका अपने पर्यावरण से जीवंत संबंध है । उनका रोजगार जंगल-पानी पर टिका रहता है राजशक्ति को जंगल में केवलकटाऊ लक़़डी ही दिखती है । चिपको ग्रामीण महिलाआें का आंदोलन था, पर्यावरण चेतना का हरकारा ।
किन्तु हमारे समाज के साधन सम्पन्न वर्ग का खेतिहर और कामगार समाज से कोई रिश्ता नही बचा है । उसे सस्ता भोजन तो चाहिए लेकिन वहा किसान की मिट्टी की चिंता नहीं करना चाहता । अगर इस वर्ग की जरुरत हमारे खेतों से न हो, तो वह अंतर्राष्ट्रीय बाजार की ताकत से विदेशी खाद्य वस्तुए ला सकता है । बाजार पर आधारित संबंध बाजारु ही होते है, उनमें सामाजिक बंधनों की मिठास नहीं हो सकती । मायूसी में बुनकर आत्महत्या कर रहें है, लेकिन हमारा अभिजात्य वर्ग आयातित पौशाक पहन कर तृप्त् है । अपने लोग, अपने देश, अपनी मिट्टी, अपने नदी-तालाब के प्रति उनमेंकोई राग नही है केवल असीमित लोलुपता और उपभोग है, जिस ेलुटने और अनीति करने मेंउसे कोई संकोच नहीं होता ।
बाजार और राजशक्ति के नशें में रहने वाले इस वर्ग के मापदण्ड पश्चिम के उस समाज से आते है, जिसके असीम उपभोग से पृथ्वी की जलवायु बदल रही है । इसका सबसे बुरा प्रभाव हमारे जैसे गरीब देशोंपर पड़ेगा, हालांकि इसकी जिम्मेदारी पड़ती है, पश्चिमी देशों पर, उपभोग की तृष्णा पुरा करने वाले उनके उद्योगीकरण पर, जिसके विध्वंशक स्वभाव के बारे मेंगांधीजी ने हमें बहुत पहले ही चेता दिया था ।
गांधीजी की लिखाई में पर्यावरण शब्द नही दिखता, क्योंकि उनके समय में पर्यावरण की तबाही ने ऐसा रौद्र रुप धारण नही किया था जैसा कि आज हम अनुभव कर रहें है । इसके बावजूद, गांधीजी की लिखाई में और उनके जीवन-कर्म में, साधनों के प्रति खुद सावधानी दिखती है । क्योंकि उन्हें पता था कि पर्यावरण की रक्षा में सबसे कमजोर लोगों की हितो की रक्षा है । जिस   ग्राम स्वराज   की बात गांधीजी ने कि उसमे नदी कुएंऔर तालाब ही नही, मिट्टी, पशु-पक्षी, मवेशी और सभी जीव-जन्तुआें के लिए जगह है । उसमें संबंध उपयोग और उपभोग भर की नही है, बल्कि पूरी सृष्टि को अपनेपन और ममत्व से देखने की बात है । वरना पर्यारण की बात करने वाले गांधीजी को इतना क्यो मानते ? 
पर्यावरण तो गांधी-समाज का भी बदला है । हम निष्प्रभावी हुए है, क्योंकिहम आपसी झगड़ो में फंसेहुए है । जो संस्थाए सामाजिक काम के लिए बनी थी, उनके भीतर भी सत्ता, साधन और संपत्ति को लेकर तनाव रहने लगा है, मन-मुटाव रहने लगे है । गांधी-विचार का काम सिर्फ प्रभाव और प्रेरणा से ही हो सकता है, नियंत्रण या तिकड़म से नहीं हो सकता । अगर गांधीजी को सत्ता और प्रभुत्व से काम करना होता तो उन्होने सत्य और अहिंसा का सहारा क्यों लिया होता ? कोई चुनाव लड़ते, किसी महत्वपूर्ण पद पर काबिज हो जाते । लेकिन उन्होने ऐसा नही किया । उन्हे किसी प्रतिष्ठान पर नही, अपने लोगों के दिल पर राज़ करना था । 
आज हम अपने-अपने संस्थानों में, प्रतिष्ठानों में नियंत्रण की लड़ाई लडे रहे है । यह आत्मघात ही है । हम अपने रास्ते से भटक रहे है इसलिए हमारा प्रभाव घट रहा है । संस्थाआें में नई उर्जा ला सके, ऐसे नये और प्रभावशाली लोग नहीं है । हम सामाजिक कार्यकर्ता होते हुए भी अपने लोगों की नब्ज़टटोल नही पा रहे है । उन्हे देने के लिए जो स्नेह और अपनापन हमारे पास होना चाहिए उसे हमारी आपसी कलह नष्ट कर रही है ।
इस भटकाआें से हमें बचना होगा, एक-दूसरे को संबल देना होगा । अपने विचार और मूल्यों को आज की जरुरतों के हिसाब से ताजा करना होगा। यह नहीं करेंगे तो मरेंगे, यह निश्चित है। हमारे विचार पर आधारित कर्म के बिना हमारा वजूद बहुत समय तक बचेगा नहीं ।
राजशक्ति और पूंजी के सामने सत्य और अहिंसा हार जाएगें । इसलिए नही कि सत्य और अहिंसा में ताकत नहीं है । इसलिए कि सत्य और अहिंसा के लोगो का अपने मूल्यो में विश्वास कमजोर हुआ है ।
हमारे द्वेष इतने गहरे भी नही है। अगर हम सब एक-दूसरे से हारने को तैयार हो जाए, तो हम सभी की जीत तय है । हम गांधी को केवलप्रतीक बना कर न छोड़ दे, उन्हे अपने विचार और मूल्यों के केन्द्र में रखना होगा । ***
आंचलिक
मंदसौर में जलवायु परिवर्तन की आहट
डॉ. घनश्याम बटवाल
जलवायु परिवर्तन की स्थितियां चिंताजनक होती जा रही है। राष्ट्रीय संदर्भ में देखें तो देश में ही प्रतिदिन १५० से अधिक लोगो की मृत्यू प्रदूषण के कारण हो रही है । स्थानीय प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर समग्र प्रयास नहीं किये गये तो, आगामी मात्र १० वर्षोंा में प्रदूषण से मरने वालों की संख्या बढ़कर प्रतिदिन २५० तक पहुंच जाएगी । प्रदूषण फैलाने में सबसे बड़ी भूमिका मानव निर्मित ही है, इनमें परिवहन, निर्माण और इंर्धन प्रमुख कारक है ।
Image result for mandsaur railway station मध्यप्रदेश के अन्य क्षेत्रो के साथ ही मंदसौर जिले में भी जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव स्पष्ट दिखायी दे रहा है । ऋतु चक्र प्रभावित होकर ३०-४० दिन आगे खिसक रहा है । ग्रीष्म ऋतु प्रभाव तुलनात्मक अधिक दिनों तक सक्रियरहता है । उच्चतम तापमान ४१-४२ डिग्री सेंटीग्रेड से बढ़कर ४५-४६ डिग्री तक पहुंच गया  है । वर्षा ऋतु में मानसून सक्रियता अवधि घटी है । विगत तीन वर्षोंा का आकलन करें तो सन् २०१५ में जिले में मात्र ९०० मिली मीटर वर्षा दर्ज की गई जो औसत से कम रही है । इसमें माह जून-जूलाई में ही कुल वर्षा की ८५ प्रतिशत वर्षा हो गई जबकि अगस्त-सितम्बर-अक्टूबर महिनो में मात्र १५ फीसदी वर्षा हुई । वर्षा दिन भी कम रहे जिससे वर्षा जल बह कर चला गया ।  यहां ध्यान देने योग्य है कि सन् २०१५ में प्रदेश में औसत वर्षा १०५० मिली मीटर दर्ज हुई । वही पश्चिम मध्यप्रदेश के जिलों में औसत वर्षा ९६० मिली मिटर हुई । मंदसौर जिले में इससे भी कम । मंदसौर-नीमच जिले मध्यप्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र और राजस्थान के पूर्वीक्षेत्र से जुड़े है । सन् २०१६ में औसत रुप से जिले में अच्छी और व्यापक वर्षा दर्ज की गई । आंकड़ा ४२ इंच तक दर्ज हुआ । इससे कुछ क्षेत्रो मेंमक्का, उड़द, मूंग और मुंगफली की फसले गलनें के मामले सामने आये । हाल में २०१७ के मानसून ने फिर रुप परिवर्तित किया और वर्षा घट कर ९०० मिलीमीटर से भी कम हुई। इसका प्रभाव फसलों और अन्य कारको पर पड़ा है ।

वर्षा के असमान क्रम से जिले मेंखरीब और रबी की फसलो पर प्रभाव पड़ रहा है । एक तो वेसे ही जिले में बड़ी संख्या में कुए स्थापित है । फिर जल स्त्रोतों के दोहन, नलकूप खनन से सतही जल से अंधाधुंध भूमिगत जल स्तर में गिरावट आई है । कही कही तो ६००-७०० फीट गहराई तक पर्याप्त् जल नहीं मिल पा रहा है । मंदसौर जिले में खरीफ फसलों की बुआई ही २ लाख हेक्टेयर के आसपास हो रही है । इसमें१ लाख ३२ हजार हेक्टेयर में सोयाबीन पैदावार ली जा रही है । मक्का, उड़द, मंूग, अरहर, मुंगफली, तिल आदि अन्य उपज है । इसी प्रकार रवी फसलों में लहसुन, रायड़ा, गेंहू, धनिया, मैथी, चना और विशेष रुप से अफीम उत्पादन किया जा रहा है । अल्प वर्षा के चलते कृषि वैज्ञानिक, कृषि विभाग, किसान कम पानी की अगेती प्रजातियों की बोवनी की सिफारीश कर रहें है । और १०० से अधिक प्रकार की विभिन्न दलहन, तिलहन, अनाज और मसाला, औषधीय फसलें इन दिनों पैदा हो रही है ।
अल्प वर्षा के कारण मंदसौर जिले के दलोदा, मल्हारगढ़, सीतामऊ , मंदसौर तथा सुवासरा सहित पांच तहसीले   डार्क झोन   में अंकित की गई है । यह स्थिति विगत वर्षोंा से है । इसके बावजूद ऐसे अपेक्षित सुधार नही हो पाए जिससे डार्क झोन से बाहर आ सकें । यहां-वहां आज भी अवैध रुप से नलकू प खनन किया जा रहा है । जिले को किसानों को खड़ी फसलों को बचाने के लिये सिंचाई हेतु टैंकरों से जलपूर्ति करना पड़ रही है ।
कम वर्षा के प्रभाव से मंदसौर जिले के कुंए, तालाब,बावड़ियां, नदियां, जलाशय ३०-४० प्रतिशत गत वर्ष की तुलना में आज ही रिक्त है । जिलें में कोई कोई १५-१६ हजार हेक्टेयर रकबे में अफीम की फसल की खेती होगी । इसमें कम से कम १० बार सिंचाई की जरुरत है, इसकी आपूर्ति भी नहीं हो पायेगी । 
अधिक उत्पादन के लालच में किसानों का भ्रम है कि अधिक खाद से अधिक पैदावार होगा । इसके कारण मात्र ८ वर्षोंा में ही जिलो में रसायनिक खाद की खपत १०० मिट्रिक टन बढ़ गई है । जिले में खाद की खपत बढ़कर ८०० मिट्रिक टन से भी अधिक हो गई है । इसका दुष्प्रभाव खेतों की उर्वरा शक्ति पर पड़ा है, भूमि की पीएच वेल्यू के मानक भी बदल गये है । इसी तरह कीटनाशकों का भी प्रयोग अंधाधुन्ध स्तर पर किया जा रहा है ।
जिले में जलस्त्रोतों, नलकूपो और कुआेंके  जल में नाइट्रेट, केल्शियम, कार्बोनेट, मेग्नीशियम सल्फेट, आक्जेलेट, क्लोराईड व अन्य खनिज लवण निर्धारित से अधिक मात्रा मेंपाये जा रहे है । केन्द्रींय भूजल बोर्ड के मानक अनुसार नाइट्रेट न्यूनतम ४५ एम.एल. प्रति लिटर और अधिकत १७१ एम.एल. प्रति लिटर होना चाहिए, जबकी परिक्षण उपरान्त नाइट्रेट ४९ से २१७ एम.एल. प्रति लिटर तक पाया गया है । यह विभिन्न रोगोंका जनक है बड़ी संख्या में ग्रामीण क्षेत्र के लोग प्रभावित हो रहें है ।
जिले में पीएचई विभाग की दो प्रयोगशालाएं संचालित है । विभाग द्वारा ग्रामीणों को जल स्त्रोतों की जांच के लिए   किट   दिये गये है । वही ग्रामीण क्षेत्र के स्कूलोंमें समन्वयकों के माध्यम से प्रदूषित जल तथा स्त्रोंतो की पहचान की समझाईश दी जा रही है । विशेषज्ञ चिकित्सकों के अनुसार नाइट्रेट, कै ल्शियम, ऑक्जलेट, मैग्नीशियम सल्फेट, कार्बोनेट, फ्लोराइड आदि की बहुलता से बच्चों व वयस्कों को गुर्दे व पित्ताशय की पथरी, पीलिया, गेस्ट्रोन्ट्राइटीस, चर्मरोग, पेट के रोग और आहार तंत्र जनित बीमारियां अधिक हो रही है ।
जिलें में प्रतिवर्ष पौधारोपण किया जा रहा है परन्तु पौधों के संरक्षण अभाव में४० प्रतिशत पौधें पेड़ का आकार नहीं ले पा रहें है । जिले में फसलों के  नुकसान नीलगायों से भी हो रहा है ।
जिले में बहने वाली नदियां शिवना, चम्बल, रेवा, तुम्बड़, रेतम आदि के जल बहाव क्षेत्र मेंप्रदूषण बढ़ा है और जल स्तर घटा है । वर्तमान पेयजल, सिंचाई के लिये जल संग्रहित किया गया है । जो वर्ष भर के लिए अपर्याप्त् है । जलाशआें, तालाबों, नाले आदि पर अतिक्रमण बढ़ जाने से आकार घटा है , वही आने वाले वर्षा जल में भी रुकावट हो रही है ।
मंदसौर नगर के तैलीया तालाब के जल संग्रहण क्षेत्र से ५० हजार से अधिक नागरिकों की वार्षिक जलापूर्ति हो सकती है, इसके भराव से जल स्तर में वृद्धि होती है । कुंए-बावड़ियें, नलकूपोंका जल स्तर बढ़ जाता है परन्तु यह तालाब ही अतिक्रमण की चपेट मेंहै । चिन्हित अतिक्रमण भी प्रशासन, पुलिस, नगर पालिका नही हटा पाई है । इसका दुष्परिणाम सारा मंदसौर झेल रहा है ।   शिवना नदि   का प्रदूषण २० वर्षोंा में भी रत्तीभर कम नहीं हुआ है । नदी बचाओ अभियान में   शिवना नदी   पर कार्य हो तो सामाजिक संगठन, स्वयं सेवक तथा कई पर्यावरण प्रेमी साथी सहयोग और योगदान के लिए तैयार है ।
मंदसौर जिले में सबसे अधिक दुपहिया वाहन और ट्रेक्टर है जुगाड़ गाड़ियों की भी बहुतायत है, ये सब प्रदूषण बढ़ाने में योगदान कर रहे है । मंदसौर जिले में जिला पंचायत, जनपद पंचायत, ग्राम पंचायत, नगर निकायो सहित अन्य विभागो द्वारा कराये जा रहे निर्माण और विकास कार्यो में पर्यावरण हित संरक्षण का समुचित ध्यान नहीं रखा जा रहा है ।
जल संवर्धन-जल संरक्षण के लिए शासकीय भवनों, अशासकीय भवनों, निजी क्षेत्र के आवासीय, व्यवसायिक भवनों पर छतीय जल संरक्षण के पर्याप्त उपाय नहीं हो रहे है । नगर निकायों के निर्देश उपरांत का निगरानी नहीं हो रही है । मंदसौर की शिवना नदी मुख्य पेयजल स्त्रोत है । 
जलवायु परिवर्तन के दुर्गामी और तत्कालीन दुष्प्रभावों का जानबुझ कर अनदेखा किया जा रहा है । इसमें आमजन, नागरिक सहित समस्त मशीनरी शामिल है । पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण के लिए सम्बंधित तबके मेंसमन्वय का पूरी तरह अभाव है । किसी भी स्तर पर कोई निगरानी संगठन/संस्था नहीं है । पूर्व में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा सन् १९९०-१९९५ में जिला स्तर पर `पर्यावरण वाहिनी ' गठित की गई । इसके माध्यम से पर्यावरण हितों की अनदेखी पर तथ्यात्मक रिपोर्ट की जाती थी और समयबद्ध निदान होता था । मंदसौर जिले में पर्यावरण वाहिनी के माध्यम से जागरुकता के अलावा पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण निवारण के उपाय किये गये ।
पर्यावरण सुधार, प्रदूषण नियंत्रण और जलवायु परिवर्तन दुष्प्रभाव से निपटने के लिए वन विभाग, पुलिस विभाग, यातायात विभाग, परिवहन विभाव, प्रशासन, खनिज एवं औद्योगिक विभाग, प्रदूषण निवारण मण्डल, लोकनिर्माण विभाग, म.प्र. विद्युत मण्डल, भारत संचार निगम, जिला पंचायत, उद्यानिकी विभाग, कृषि विभाग, नगर पालिका, नगर परिषद, जनपद पंचायत, जल संसाधन, ग्राम पंचायत स्तर तक एकरुपता से नियत मानदण्डोंपर समन्वय कर दायित्व सौंपने चाहिये तथा समयबद्ध निगरानी होनी चाहिए । आमजन में मिडिया, गोष्ठी, सम्वाद, सम्पर्क और जागरुकता के माध्यम से इन सबको मिलजुल कर प्रयास करने होगे । स्वच्छता अभियान से पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण को जोड़ना होगा इससे जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को रोका जा सकेगा । ***
प्रदेेश चर्चा
उत्तराखण्ड : पेड़ो पर टूट रहें `पहाड़'
सुरेश भाई
चारधाम के लिए बनने वाले ऑल वेदर रोड़ के दूसरे चरण का काम शुरु हो गया है । इसमेंऋषिकेश-गंगोत्री हाईवे पर आने वाले पेड़ो का कटना शुरु हो गया है । उत्तराखण्ड सरकार ऑल वेदर रोड़ के नाम पर ४३ हजार पेड़ काट रही है । लेकिन सवाल है कि १०-१२ मीटर सड़क विस्तारीकरण के लिए २४ मीटर तक पेड़ो का कटान क्यों किया जा रहा है? 
Related image आजकल चारधाम-गंगौत्री, यमनौत्री, के दारनाथ, बद्रीनाथ मार्गो पर हजारो वन प्रजातियों के उपर पहाड़ टूटने लगे है । ऋषिकेश से आगे देव प्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, गुप्त्काशी, फाटा, त्रिजुगीनारायण, गोचर, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, चमोली, पिपलकोटी, हेंलग से बद्रीनाथ तक हजारों पेड़ो का सफाया हो गया है । 
उत्तराखण्ड सरकार का दावा है कि वे वेदर रोड़ के नाम ४३ हजार पेड़ काट रहे है । लेकिन सवाल खड़ा होता है कि १०-१२ मीटर सड़क विस्तारीकरण के लिए २४ मीटर तक पेड़ो का कटान क्यों किया जा रहा है ? और यहां नही भुलना चाहिए की एक पेड़ गिराने का अर्थ है १० अन्य पेड़ खतरे में आना इस तरह लाखों की संख्या में वन प्रजातियों का सफाया हो जाएगा । 
सड़क चौडीकरण के नाम पर देवदार के अतिरिक्त बाँझ, बुराँस, तुन, सीरस, उत्तीस, चीड़, पीपल आदि के पेड़ भी वन निगम काट रहा है जो वन निगम केवल ` वनों को काटो और बेचो ' की छवि पर खड़ा है, उससे ये आशा नहीं की जा सकती है कि वह पेड़ो को बचाने का विकल्प दे दें । यह एक तरफ तो सड़क चौड़ीकरण है और दूसरी तरफ वन निगम का कमाई का साधन एक बार फिर उछाल पर है ।
मध्य हिमालय के इस भू-भाग में विकास का यह नया प्रारुप स्थानीय पर्यावरण, पारिस्थितिकीय और जनजीवन पर भारी पड़ रहा है । सड़क निर्माण, सड़क चौड़ीकरण, बड़ी जलविद्युत परियोजनाआें व सुरंगों का निर्माण इस भूकम्प प्रभावित क्षेत्र की अस्थिरता को बढ़ा रहा है । भारी व अनियोजित निर्माण कार्यो का असर जनजीवन पर  भी पड़ रहा है । इन बड़ी  परियोजनाआें से भूस्खलन, भू-कटाव, बाढ़, विस्थापन आदि की समस्या लगातार बढ़ रही है ।
पर्यावरण कार्यकर्ताआें की टीम राधाभट्ट और इन पंक्तियों के लेखक ने वन कटान से प्रभावित इन धामों में प्रस्तावित लगभग ७५० किलोमीटर सड़क और इसके आसपास निवास करने वाले लोगों के बीच भ्रमण कर एक रिपोर्ट भी प्रधानमंत्री को सौंपने के लिए तैयार की है । कई स्थानोंपर सड़क चौड़ीकरण के नए इलाईमेंट करने से लोगों की आजीविका, रोजगार, जंगल समाप्त् हो रहे है ।
यह केदारनाथ मार्ग पर काकड़ गाड़ से लेकर मौजूदा सेमी-गुप्त्काशी तक के मार्ग को बदलने के लिए १० कि.मी. से अधिक सिंगोली के घने जंगलोंके बीच से नया इलाईमेंट लोहारा होकर गुप्त्काशी किया जा रहा है। इसी तरह फाटा बाजार को छोड़कर मेखंडा से खड़िया गांव से होते हुए नये रोड़ का निर्माण किया जाना है । फाटा और सेमी के लोग इससे बहुत आहत है । यदि ऐसा होता है तो इन गांवो के लोगोंका व्यापार और सड़क सुविधा बाधित होगी । इसके साथ ही पौराणिक मंदिर, जल स्त्रोत भी समाप्त् हो जायेगे । यहां लोगों का कहना है कि जिस रोड़ पर वाहन चल रहे हैं, वही सुविधा मजबूत की जानी चाहिए । नई जमीन का इस्तेमाल होने से लम्बी दूरी तो बढ़ेगी ही साथ ही चौड़ी पत्ती के जंगल कट रहे है ।
के दारनाथ मार्ग पर रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, तिलवाड़ा ऐसे स्थान है । जहां पर लोग सड़क चौड़ीकरण नहीं चाहते है । यदि यहाँ ऑल वेदर रोड़ नये स्थान से बनाई गई तो वनों का बढ़े पैमाने पर कटान होगा और यहां का बाजार सुनसान हो जाएगा । प्रभावितों का कहना है कि सरकार केवल डेंजरजोन का ट्रीटमेंट कर दे तो सड़के ऑल वेदर हो जाएगी । चार धामों में भूस्खल व डेंजरजोन निर्माण एवं खनन कार्यो से पैदा हुए है । 
उत्तराखण्ड के लोगो ने अपने गांवों तक गाड़ी पहुचाने के लिए न्यूनतम पेड़ो को काट कर सड़क बनवायी है । वहीं ऑल वेदर रोड़ के नाम पर बेहिचक सेंकड़ो पेड़ कट रहे है । बद्रीनाथ हाईवे के दोनो ओर कई ऐसे दूरस्थ गांव है जहां बीच में कुछ पेड़ों के आने से मोटर सड़क नही बन पा रही है । कई गांवों की सड़के आपदा के बाद नही सुधारी जा सकी है इस पर भी लोग सरकार का ध्यान आकर्षित कर रहे है । चमोली के पत्रकारोंने उत्तराखण्ड के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज से ऑल वेदर रोड़ के बारे में पुछा है कि जोशीमठ को छोड़कर हेंलग-मरवाड़ी बाईपास क्यों बनाया जा रहा है । इससे जोशीमठ अलग थलग पड़ जाएगा । इस पर मंत्री ने जवाब दिया कि उन्हें इसकी कोई जानकारी नही है । अत: इससे जाहिर होता है कि उत्तराखण्ड की सरकार भूमि अधिग्रहण के लिए जितनी सक्रिय हुई है उतना उन्हेंप्रभावित क्षेत्र की पीड़ा को समझने का मौका नहीं मिला है । 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ऑल वेदर रोड़ बनाने की घोषणा उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव के एन वक्त मेंकि थी तब से अब तक यह चर्चा रही है कि पहाड़ो के दूरस्त गांव तक सड़क पंहुचाना अभी बाकी है । सीमान्त जनपद चमौली उर्गम घाटी के लोग सन् २००१ से सुरक्षित मोटर सड़क की माँग कर रहे है । यहां कल्प क्षेत्र विकास आंदोलन के कारण सलना आदि गांवोंतक जो सड़क बनी है उस पर गुजरने वालें वाहन मौत के साये में चलते है । यह चार धामों में रहने वाले लोगों की यदि सुनी जाये तो मौजूदा सड़क को ऑल वेदर बनाने के  लिए यात्रा काल में बाधित करने वाले डेंजरजोन का आधुनिक तकनिकी से ट्रीटमेंट किया जाये । सड़क के दोनों ओर २४ मीटर के स्थान पर १० मीटर तक की भूमि का अधिग्रहण होना चाहिए । क्योंकि यहा छोटे और सीमान्त किसानोंके पास बहुत ही छोटी छोटी जोत है । उसी मेंउनके गांव, कस्बे और सड़क किनारे अजीविको के साधन मौजूद है जिससे पलायन और रोजगार की दृष्टि से बचाना चाहिए ।
चारों धामों से आ रही अलकनंदा, मंदाकिनी,यमुना और भागीरथी के किनारों से गुजरने वाले मौजूदा सड़क मार्गो में पर्याप्त् स्थान की कमी है । जिसमें १० मीटर चौड़ी सड़क बनाना भी जोखिम पूर्ण है । यदि बाढ़, भूकम्प और भूस्खलन जैसी समस्याआें को ध्यान में रखा जाए तो यहां के पहाड़ो को कितना काटा जा सकता है यह पर्यावरणीय न्याय ध्यान में रखना जरुरी है । जहां घने जंगल है, वहां पेड़ो को नुकसान पहुचाए बिना सड़क बननी चाहिए । सड़क चौड़ीकरण टिकाउ डिजाइन भूगर्भविद्ों व विशेषज्ञों से बनाना चाहिए । निर्माण से निकलने वाला मल्बा नदियों में सीधे न फेंक कर सड़क के दोनों ओर सुरक्षा दीवार के बीच डालकर पौधारोपण होना चाहिये । ***
पर्यावरण परिक्रमा
एक साल में सभी ट्रेनों में लग जायेगें बायो टॉयलेट
भारतीय रेल्वे ने सभी गाड़ियों में बायो टॉयलेट लगाने की समय सीमा २०२२ से घटा कर दिसम्बर २०१८ तक कर दी है तथा बायो टॉयलेट के आगे बायो वेक्यूम टॉयलेट लगाने की भी तैयारी शुरु कर दी है ।
रेल्वे बोर्ड के अधिकारिक सूत्रो ने बताया कि भारतीय रेल्वे को महात्मा गांधी की १५० वींजयंती के पहले खुले पाइप वालेंशौच से मुक्त कर दिया जाएगा । सूत्रों ने बताया कि चालु वित्त वर्ष में १२५०० कोचों में बायो टॉयलेट लगाने के बाद कुल २० हजार कोच बचेगें जिसमें ८० हजार बायो टॉयलेट लगाने होंगे ।
यह काम दिसम्बर २०१८ तक पुरा करने का नया लक्ष्य तैयार किया गया है । इसके लिए कम्पनियों की उत्पादन क्षमता भी विकसित हो चुकी है उन्होने ं कहा कि किसी भी हालत मे मार्च २०१९ तक भारतीय रेल्वे को खुले पाईप वाले शौचालय से मुक्त कर दिया जायेगा ।
सूत्रों ने कहा कि रेल्वे को बायो टॉयलेट में पानी की कमी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है । इसी कारण से यात्रियों को अक्सर बोतल ले जाने की जरुरत महसूस होती है । इसके समाधान के लिए हेल्थ फासिट यानि पाइप एवं जेटप्रेशर लगाया जा रहा है ताकि शौच के वक्त पानी के लिये बोतल की जरुरत नहीं पड़े । 
इस बारे में सूत्रो ने बताया कि रेल्वेंके सभी कोचिंग डिपों में एक बायो टॉयलेट प्रयोगशाला भी बनाई गयी है जहां सभी रैकों में बायो टॉयलेट के डिस्चार्ज की जांच की जाती है और अगर बेक्टीरिया का स्तर कम पाया जाता है तो उसमें फिलींग की जाती है । इसी प्रकार हर बायो टॉयलेट में मार्च तक डस्टबीन भी लगाया जाएगा । जिसमें साबुन का रेपर और बोतल आदि फेकी जा सके ।
किसान अब बदल रहे बीहड़ की तस्वीर
म.प्र. में चम्बल के बढ़ते बीहड़ रोकनें में जब सरकार और सेना असफल हो गये तो इलाके के किसान बीहड़ की तस्वीर बदलने के लिए आगे आ रहे है । किसानोंने २० साल में बीहड़ के बड़े भाग को खेती योग्य बना दिया । ४० साल (१९५५-९५) में सरकार व सेना तीन लाख हेक्टेयर बीहड़ में से सिर्फ ७६ हजार हेक्टेयर को ही खेती योग्य बना पाएं, लेकिन पिछले २० साल में अंचल के किसानों ने दो लाख हेक्टेयर से अधिक बीहड़ को खेती लायक बना दिया है । मालूम हो कि हर साल चम्बल के किनारे आठ सौ हेक्टेयर जमीन बीहड़ में बदल जाती है ।
पिछले २० सालों में मल्हन का पूरा, केलारस के चिन्नोनि, जौरा के नन्दपुरा, बरहाना, खांडोल, मुरैना के रिठौर खुर्द सहित चम्बल किनारे के अधिकतर गांवोंमें किसानों ने बिहड़ी जमीन को खेती योग्य बनाया है । वे भूमि कटाव रोकनें के लिए खेतों के  किनारो पर मेड़ बंधान कर रहें है और बीहड़ी जमीन को ढाल के विपरीत जुताई कर फसल ले रहे हैं । कृषि विशेषज्ञ के मुताबिक दो लाख हेक्टेयर बीहड़ जमीन में सुधार होने पर १५० लाख टन फसल का उत्पादन होता है जिससे करीब ६० करोड़ की आय किसानों का हो रही है ।
सरकार ने १९५५ से कई प्रोजेक्ट बीहड़ सुधार के लिए शुरु किये, लेकिन सभी प्रयास यांत्रिक थे । भूमि कटाव रोकने के लिए जो भी चेकडैम व अन्य संरचनाएं बनाई गई, उनकी लगातार देखरेख नही की गई । जो समर्थवान किसान है, वे तो बीहड़ी जमीन को सुधार रहें है लेकिन सभी को लाभ देने में तो सहकारिता के सिद्धांत का पालन कर सभी किसानोंको बीहड़ की जमीन देनी होगी और जो किसान स्वयं सक्षम नहीं है उन्हें भूमि सुधारने के  लिये आर्थिक सहायता भी देनी होगी ।
पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक से बनेगी बिजली
चिप्स, बिस्कुट, केक और चॉकलेट जैसे खाद्य पदार्थोंा की पैकिंग में इस्तेमाल होने वाले चमकील े प्लास्टिक का इस्तेमाल अब बिजली घर में इंधन के तौर पर किया जाएगा ।
देश में अपनी तरह का ऐसा पहला प्रयोग नई दिल्ली में गाज़ीपुर स्थित कुड़े से बिजली बनाने वाले संयंत्र में शुरु हो गया है जबकि चंडीगढ़, मुम्बई व देहरादून सहित आठ और शहरों में भी यह काम जल्द शुरु होने की उम्मीद है । गैर-सरकारी संगठन भारतीय प्रदूषण नियंत्रण संस्था (आईपीसीएस) के निर्देशक आशीष जैन ने बताया कि इस तरह के प्लास्टिक का इस्तेमाल यह गाज़ीपुर स्थित बिजली घर में किया जा रहा है । उन्होने क हां कि भारत मेंदुनिया में सबसे अधिक प्लास्टिक के सामान का इस्तेमाल होता है, इस लिहाज से इस तरह के प्लास्टिक के निस्तारण की शुरुआत महत्वपूण है । 
उल्लेखनीय है कि बिस्कुट, नमकीन, केक, चिप्स सहित कई अन्य खाद्य पदार्थोंा को पैकेजिंग के लिए एक विशेष चमकिले प्लास्टिक मल्टीलेयर्ड प्लास्टिक (एमएलपी) का इस्तेमाल होता है । इस प्लास्टिक मेंखाद्य पदार्थ का सुरक्षित रखते है लेकिन इनका निपटान टेढ़ी खीर है । यह न तो गलता है और न ही नष्ट होता है । इसलिए ऐसा एमएलपी कचरा दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है ।
कुढ़ा भी बीनने वाले भी इसे नहीं उठाते क्योंकि इसका आगे इस्तेमाल नही होता है । आईपीसीए ने ऐसे नॉन-रिसायकिलेबल प्लास्टिक कुढ़े को एकत्रित करने और उसे बिजली घर तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है । दिल्ली एनसीआर में यह संस्थान इस तरह के ६-७ टन प्लास्टिक को एकत्रिक कर बिजला घर तक पहुंचा रहा है । श्री जैन ने कहा कि मानव स्वास्थ्य व पारिस्थितिकी को हो रहे भारी नुकसान को देखते हुए आइपीसीए ने ऐसे प्लास्टिक कचरे के समुचित संग्रहण और निपटान की एक परियोजना `वि- केयर' शुरु की है । यह परियोजना मुख्य रुप से एमएलपी कचरे के निपटान पर केन्द्रित है ।
पेप्सीको इंडिया, नेस्ले, डाबर, परफैटी वान मेले प्रा.लि. व धर्मपाल, सत्यपाल जैसे प्रमुख कम्पनियां इस परियोजना को चलाने मेंमदद के लिये आगे आयी है । उन्होनें कहा कि `वि केयर' परियोजना के तहत आईपीसीए कचरा बिनने वाले के साथ साथ बड़े कचरा स्थलो के प्रबधंको के साथ गठ जोड़ कर रही है ताकि एमएलपी को वही से अलग कर संयत्र तक लाया जा सके ।
नर्मदा घाटी में मिले ७५० लाख साल पुराने शार्क के जीवाश्म
७५० लाख पहले समुद्री शार्को के जीवाश्म म.प्र. के धार जिले के मनावर क्षेत्र मेंआने वाली नर्मदा घाटी से मिले है । खोज में २० हजार से अधिक दांत के जीवाश्म और रीढ़ की हड्डी के भाग बड़ी तादाद में मिले है । इससे यह सिद्ध होता है कि करीब ७५ ० लाख वर्ष पूर्व जब समुद्री हलचल हुई थी, तब यहां पर समुद्र का पानी था और उसके जीव यहां पहुंच गए थे । 
इस काल मेंभारत, लगभग पृथ्वी की विषुवत रेखा पर हुआ करता था। बिना हड्डी की ये मछलियां आकार में ४-६ फीट लम्बी थी । यह जानकारी दिल्ली विश्व विद्यालय के प्रो.डॉ जीवीआर प्रसाद ने पत्रकारवर्ता मेंदी । डॉ. प्रसाद शांति स्वरुप भट्टनागर पुरुस्कार और नेशनल जीओसाइंस पुरस्कार व जैसी बोस नेश्नल फैलोशिप प्राप्त् विशेषज्ञ है । इस मौके पर डायनासोर व शार्क की खोज करने वाले धार के विशेषज्ञ विशाल ज्ञानेश्वर वर्मा,डॉ अशोक साहनी, रंणजीत सिंह लोरेंबम, प्रियदर्शिनी राजकुमारी आदि मौजूद थे ।
इन जीवाश्म की खोज लम्बे समय से की जा रही थी, लेकिन प्रमाणिकता सिद्ध होने के बाद ही इसे उजागर किया जा रहा है । इस पर एक रिसर्च पेपर लिखा गया था, जो अंतराष्ट्रीय जनरल में प्रकाशित हुआ है । 
इस जीवाश्म की काल अवधि निकालने के लिए वेज्ञानिक उपाय अपनाये गये । यहां २० हजार से अधिक शार्क के दांत और रीढ़ की हड्डी के भाग भी बड़ी तादाद में मिले है । जिस प्रकार की चट्टानों से यह मिले है, उन्हे बाग चट्टान यानि बायोजोन फॉर्मेशन के नाम से जाना जाता है । बाग चट्टान से शार्क की पहली रिपोर्ट है । ये शार्क ७५० लाख साल पहले धार जिले की नर्मदा घाटी की १००-२०० मीटर गहरे समुद्र की उपस्थिति प्रमाणित करती है, जो इन जीवों का उपयुक्त आवास प्रदान करता था । यह समुद्र एक भुजा जैसे आकार का था, जो प्राय: द्विपीय भारत से पश्चिम के टेथिस सागर का एक भाग था । इसके अवसादोंका विस्तार बड़वाह के पास तक पाया गया है । डायनासोर के जीवाश्म की सबसे पहल जिले में२००७ में खोज हुई थी । करीब १०० से अधिक डायनासोर के अण्डे पाये गये थे । 
अफगान के नमक से दिल्ली में प्रदुषण
सर्दियों के दौरान दिल्ली में बढ़ते प्रदुषण की एक वजह अफगानिस्तान का नमक भी है । सर्दियों के दौरान दिल्ली में वेस्ट और नोर्थ वेस्ट हवाआें के साथ यह नमक राजधानी में पहुंचता है और दिल्ली में पीएम २.५ के स्तर को बढ़ाता है । सीपीसीबी और दिल्ली आईआईटी ने मिलकर यह स्टडी की है । सीपीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार पीएम २.५ के कण मेंइस अफगानी नमक का हिस्सा ११ प्रतिशत तक है । यही वजह है कि इसकी वजह से दिल्ली में पीएम २.५ की मात्रा बढ़ती है । हालांकि नमक सीधे तौर पर सेहत पर कोई बुरा असर नही डालता । शरीर मे अंदर जाने पर भी नमक का कोई दुष्प्रभाव स्वास्थ्य पर नही पड़ता है लेकिन इससे पीएम २.५ का बढ़ता स्तर चिंता का विषय है ।
सीपीसीबी के एक वैज्ञानिक ने बताया कि पहले हमें लगा था कि यहां समुद्री नमक है, जो बंगाल की खाड़ी या अरब सागर से दिल्ली पहुंच रहा है । लेकिन सर्दियों के दौरान समुद्र की तरफ से हवा दिल्ली पहुंचती ही नही है । सर्दियों के दौरान सामान्य तौर पर दिल्ली में नोर्थ और नोर्थ वेस्ट की तरफ से हवाएं आती है । यह हवाएं वेस्ट एशिया होती हुई दिल्ली पहुंचती है । इस स्टडी के लिए वेज्ञानिकों ने हाइब्रीड सिंगल पार्टीकल लाग्रंगियन इंटीग्रेटेड ट्रेजेक्ट्री मॉडल की मदद ली । यह मॉडल युएस की साइटिंफिक एजेंसी नेशनल ऑशिएनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनिशट्रेशन ने तैयार किया है ।***
प्राणीजगत
क्या मच्छरों की प्रकृतिमें कोई भूमिका हैं ??
डॉ किशोर पंवार
यह तो सब जानते है कि तथाकथित चिकन गुनिया एक वायरस जन्य बीमारी है और ऐडींस वंश के मच्छरों के काटनेसे होती है । यह एक ऐसा मच्छर है जो साफ पानी में पैदा होता है और दिन में काटता है । अत: पानी को रुकने नही देना तथा पुरी बांह के कपड़े पहनना इससे सुरक्षा का उपाय है । पर एक बात समझ से परे है कि पिछले दिनों साफ-सफाई में नं. १ इंदौर शहर में यह बीमारी इतनी क्यों फैली ?
एक बहुत बड़ी आबादी में बीमारी फैलनेकी भयावहता ने कई लोगोंका चिंतित कर दिया । घर-घर में लोग इससे पीड़ित है । कोई आठ-दस दिन तक तकलीफ झैलता है तो कुछ लोगों का दो महीने बाद भी पुरी राहत नहीं । सभी जोड़ो के असहनीय दर्द से परेशान है । 
मनुष्य का दुश्मन नं.१ मच्छर प्रकृति में `खाओ और खा लिए जाओ'नामक प्राकृतिक भोजन श्रंखला और भोजन जाल का एक हिस्सा है । यह मछलियों, कछुआें जैसे जलीय जीवों, ड्रेगन फ्लाईस तथा चमगादड़ों का भोजन है । यह तरह-तरह के कीट भक्षी पक्षियों (सांगबर्ड और अन्य प्रवासी पक्षियों ) का भी प्रिय भोजन है । घर में रहने वाली मकड़ियां तथा छिपकलियां भी घर के अंदर रहकर इन मच्छरों का शिकार कर हमें इनके प्रकोप से कुछ हद तक छुटकारा दिलाती है ।
मच्छरों के घातक दंश से बचना हो तो साफ-सफाई के नाम पर मकड़ियों के जाले बार-बार न हटायें। मच्छरों से छुटकारा पानें के लिए एक्वेरियम एवं तालाबोंतथा कृत्रिम झरनोंके पानी में गेम्बूसिया नाम की मछलियां विशेष रुप से छोड़ी जाती है । यह मच्छरों के लार्वा को खाकर उनको पनपनें नही देती है ।
ज़ाहिर है, यदि मच्छर नहीं होंगे तो भोजन श्रंृखला के इन शिकारियों को खाना नही मिलेगा और इन जीवों पर अस्तित्व का खतरा मंडरा सकता है ।
यह नन्हा-सा शत्रु-कीट कई फसलों और जंगली फूलों का परागण भी करता है । परागण नहीं होगा तो फल नही बनेंगे । फूलों की दुनिया के सुन्दरतम फूल ऑर्किड की कुछ प्रजातियां तो अपने परागण के लिए मच्छरों पर निर्भर है । यह तो नहीं कहा जा सकता कि मच्छर नही होगें तो इनका काम नही चलेगा क्योंकि यह पौधे मात्र मच्छर पर निर्भर नहीं है ।
मच्छर गरम खून वाले जीवों (स्तनधारियों और पक्षियों) को ही काटते है । हम भी इनमें से एक है । यह भी सुननें में आता है कि मछर कुछ लोगो को ज्यादा काटते है । ऐसे लोगों की त्वचा ऐसे रसायन बनाती है जो मच्छरों को ज्यादा लुभाते है, जैसे लेक्टिक अम्ल । रक्त समूह के आधार पर भी मच्छर अपना शिकार चुनता है । `ए' और `बी' रक्त समुह के लोगों की बजाय मच्छर `ओ' रक्त समुह के लोगों को ज़्यादा काटते है । यह भी देखा गया है कि यदि कोई व्यक्ति परजीवी से संक्रमित है तो वह मच्छरों का ज़्यादा आक र्षित करने लगता है । 
मच्छर हमेशा खुन नही चुसतें। मच्छरों का खास भोजन तो पेड-पौधों की पत्तियों और फुलों का रस ही है । परंतु जब कभी मादा मच्छर को अण्डे देना होते है, तब वह हमेंकाटती है । खून में पाए जाने वाले प्रोटीन और लोह तत्व का उपयोग वह अपने अण्डों के विकास हेतु करती है । यानी खून चुसना मादा की कुदरती मजबूरी है । यदि ऐसी मादाएं खून पीने के बाद मसले जाने से बच जाती है तो लगभग तीन सप्तह तक जिंदा रहती है और इस दौरान ५ बार में लगभग १०० अण्डे देती है ।
यह तो हमने जान ही लिया है कि मादा मच्छर ही काटती है । यह अपने शिकार को उसके पसीने मेंउपस्थित कुछ विशेष रसायनों तथा कार्बन-डाई-ऑक्साईड की उपस्थिति से ढुंढती है । श्वसन में छोड़ी गई कार्बन डाई ऑक्साइड जहां ज्यादा होगी वहां मच्छरों द्वारा काटे जाने की संभावना बढ़ जाती है । अत: यदि आप हवादार जगह पर बैठे है तो मच्छरों द्वारा काटे जाने की संभावना कम होती है ।
मच्छर जब खून पीने के लिए अपनी सूंड को हमारी त्वचा मेंघुसाता है तो उस जगह वह अपनी लार भी छोड़ता है। लार में उपस्थित प्रोटीन मनुष्य के लिए एलर्जिक होते है । इसी कारण जलन होती है और काटे गये स्थान पर सूजन आ जाती है ।
वैसे इसी लार के साथ रोग जनक सूक्षम जीव भी हमारे शरीर में प्रवेश करते है । इन सूक्ष्म जीवों की एक विशेषता यह है कि इनका जीवन चक्र मात्र मच्छर के शरीर मेंया मात्र मनुष्य के शरीर मेंपूरा नही हो सकता । इन्हें जीवन चक्र की अलग-अलग अवस्थाआेंमें दोनों की जरुरत होती है । मच्छर हमें काट कर इन परजीवियों की इसी जरुरत को पूरा करता है ।
मच्छरों को खत्म तो नहीं किया जा सकता परन्तु कुछ तरीकों से इनकी संख्या को हम नियंत्रित जरुर कर सकते है । मच्छरों से बचने का सबसे बढ़िया तरीका है उन्हे अपने से दूर भगाना । रेपेलेन्ट पदार्थं ऐसा ही करते है। चाहे वह क्रॅाइल हो या लिक्विड ।
मच्छरों का दूर भगानें में कुछ पौधे भी उपयोगी पाए गए है । लहसुन, तुलसी, पुदीना, केटनीप और एक प्रकार की गुलदावदी । लहसुन का पानी में घोल बनाकर स्प्रे करने से मच्छर भाग जाते है। कपूर के तेल का स्प्रे कर सकते है । तुलसी, पुदीना, केटमींट तीनों एक ही कुल के पौधे है । उनकी पत्तीयोंमें उपस्थित वाष्पशील तेल की गंध मच्छरों को पसन्द नहीं है परन्तु हमें अच्छी लगती है । इससे वातावरण भी खुशनुमा हो जाता है । तो मच्छरों को भगाने और मच्छर-जन्य बीमारीयों से बचने के लिए यह पौधे अपने घर के आस पास बगीचे मेंव घर के अंदर भी गमलोंमें लगाकर देखें । स्वाद, सुगंध और हरियाली के साथ मच्छरों से मुफ्त में छुटकारा मिल जाएगा ।***
स्वास्थ्य
एंटीवेनम के नवाचारी प्रयोग
अफसाना पठान
सांप किसी को ऐसे तो नुकसान नही पहुंचाते लेकिन गलती से अगर इन पर पैर पड़ जाये या कोई इन्हे परेशान करें, तो ये अपनी जान बचाने के लिए हमला करते है । सांपो की कई प्रजातियां होती है जिन्हे आप जानते भी होगें । 
सांपो की हर प्रजाति जहरीली नही होती लेकिन कुछ प्रजातियां बहुत जहरीली होती है, जैस - वायपर, माम्बा और टायफन जिनके काटने से जान भी जा सकती है । कार्पेट वायपर बहुत ही जहरीला सांप होता है । इसके काटनेसे इसका जहर रक्त में पहुंच कर थक्का बनने से रोकता है जिसके कारण रक्त का बहाव तेज हो जाता है और रक्त वाहिनियां क्षतिग्रस्त हो जाती है, इस कारण नाक, मुंह से खून बहने लगता है । इससे या तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है या वह लकवा ग्रस्त हो जाता है ।
सांप के काटने से होने वाली मृत्यु का प्रतिशत भी उतना ही है जितना किसी महामारी के होने वाली मौतोंका होता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे विश्व मेंलगभग ५ लाख लोग सांप के काटने का शिकार होते है । इनमे से लगभग १ लाख की मौत हो जाती है और ४ लाख लोग लकवा ग्रस्त हो जाते है । भारत में २००५ में किये गये सर्वे से यह बात उजागर हुई थी कि ४५००० से ज्यादा मौतें सांप के काटने से होती है । नाइजीरिया मेंप्रतिवर्ष सेकड़ों मृत्यु इन सांपो के काटनेसे होती है । सांप के काटने के सबसे ज्यादा शिकार गरीब देशोंके गरीब और बेघर लोग होते है ।
सांप के काटने से जान बचाने का एक ही तरीका है - सही समय पर इलाज । पीड़ित व्यक्ति को फौरन नज़दीकी अस्पताल ले जाना चाहिए । यदि व्यक्ति को सही उपचार नहीं मिलता है तो उसकी मृत्यु हो सकती है । ऐसा सुना गया है कि दवा की पहुंच न होने या तुरन्त उपचार न मिलने के  कारण पीड़ित व्यक्ति पेट्रोल या केरोसिन पीते है या तंत्र विद्या का सहारा लेते है जो एकदम गलत है और इसके प्रति लोगों को जागरुक करने की आवश्यकता है । क्योंकि सांप के काटनेसे सिर्फ एंटीवेनम ही बचा सकता है । 
अभी तक हमारे पास पर्याप्त् एंटीवेनम मौजूद है और इससे सांप के काटने को इलाज किया जा सकता है । लेकिन आने वाले कु छ वर्षोंा में यह पर्याप्त्
नहीं होगा, क्योंकि दवा का विश्वसनीय बाज़ार उपलब्ध न होने के कारण विकसित देशों की कई दवा निर्माता कम्पनियों में इनके निर्माण से अपने हाथ खिंच लिये है और कई देशों में एंटीवेनम का विकास थम-सा गया है । सोनोफी पाश्चर कंपनी ने फेव-अफ्रीके नामक एंटी-वेनम बनाना बंद कर दिया है । बता दें कि फेव-अफ्रीके अब तक का सबसे प्रभावी कॉम्बीनेशन एंटीवेनम है ।
लेटिन अमेरीका की सरकारी प्रयोगशालाआेंमें एंटीवेनम बनाया जाता है और मुफ्त में अस्पतालों और क्लीनिकों को मुहैया कराया जाता है । लकिन दुर-दराज के इलाको, जैसे उप-सहारा अफ्रीका, जहां इस दवा की सबसे ज्यादा ज़रुरत है वह इसकी पहुंच मुश्किल है । सरकारी काम काज मेंभ्रष्टाचार के चलते इस दवा को मुफ्त मेंउपलब्ध करवाने की बजाय उंचे दामों पर बेचा जाता है । यह समय पर इलाज न मिल पाने का एक बड़ा कारण है ।
एंटीवेनम को लेकर एक और सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि जब इसका विकास पैसा कमाने के लालच में किया जाएगा तो लाजमी है कि दवा की कीमत भी ज्यादा होगी । और हमारें जैसे विकासशील देशों में इस महंगी दवा की कीमत कितने लोग चुका पाएगें, वह भी तब जब इसकी सबसे ज्यादा जरुरत गरीब लोगों का है? 
एंटीवेनम दवा की एक और बड़ी समस्या यह है कि इस दवा की लाइफ बहुत कम होती है और इसे पूरे समय रेफ्रिजरेशन की जरुरत पड़ती है । दुरस्थ स्थानों और विकासशील देशों के कई गावों में जहां बिजली की समस्या है वहां इसका भण्डारण नामुमकिन है ।
सबसे पहले एंटीवेनम बनाने की विधि फ्रांसीसी चिकित्सक एल्बर्ट कालमेटी ने १८९० के दशक मेंविकसित की थी । एंटीवेनम बनाने का खर्च बहुत अधिक इसलिए भी आता है क्योंकि यहां हमारे शरीर में नही बनता। एंटीवेनम बनाने के लिए सांप के दूध से कुछ मात्रा मेंजहर को घोड़े और भेड़ के शरीर में इंजेक्ट किया जाता है ताकि उनका शरीर ज़हर को बेअसर करने वाली एंटीबॉडीस बनाना शुरु कर दें । फिर धीरे-धीरे इस ज़हर की खुराक को बढ़ाया जाता है ताकि ज्यादा तादाद में एंटीबॉडी बना सकें । 
घोड़े और भेड़ सांप के ज़हर के प्रतिरोधी पायेगये है । लेकिन हर प्रजाति के सांप के लिए अलग प्रकार की एंटीबॉडी बनाई जाती है । मकड़ी और बिच्छू का ज़हर भी घातक होता है इनके ज़हर मेंकेवल एक या दो तरह के टॉक्सिक प्रोटीन होते है । लेकिन सांप के ज़हर मेंइससे १० गुना ज्यादा मात्रा में टॉक्सिक प्रोटीन पाये जाते है । फिलहाल तो एंटी बॉडीज़ बनाने के लिये यही प्रक्रिया इस्तेमाल की जा रही है लेकिन भविष्य मेंवेज्ञानिकों का कहना है कि इससे बेहतर तरीके सेएंटीवेनम बनाये जा सकेंगे । कुछ साल पहले की बात है जब सेन जोस स्थित कोस्टारिका यूनिवर्सिटी के विष विज्ञानी हैरिसन और जोस मारिया गुटियरेज़ ने वेनोमिक्स और एंटीवेनोमिक्स का इस्तेमाल करके उप-सहारा अफ्रीका के लिए एक सर्व उपयोगी एंटीवेनम बनाने के प्रयास किये थे । इसके लिए ज़हर में उपस्थित घातक प्रोटीन की पहचान करने के लिए विभिन्न तकनीकोंका इस्तेमाल किया गया । 
इस प्रक्रिया का उद्देश्य कृत्रिम रुप से एंटीबॉडीस बनाना है । जिसमेंकिसी भी पशु के बजाय कोशिका का इस्तेमाल करके सर्व उपयोगी एंटीवेनम बनाया जा सकेगा । हाल ही में गुटियरेज़ की टीम को इसमें कुछ सफलता मिली है । उन्होनें जहरीले सांपो की एक प्रजाति एलीपिड से जहरीला प्रोटीन खोजने में सफलता हासिल की है यह उपचार की दिशा में पहल कदम है । अगर यह शोध सफल रहता है तो बहुत जल्द एंटीवेनम की कमी को पुरा किया जा सकेगा ।***
ज्ञान विज्ञान
कार्बन उत्सर्जन में दो फीसदी वृद्धि का आशंका
वैज्ञानिको द्वारा ताज़ा जानकारी के अनुसार मानव गतिविधियों से उत्सर्जित कार्बन में दो प्रतिशत वृद्धि देखने को मिल सकती है । इसका मुख्य कारण चीन में कोयले का बढ़ता उपयोग है । गौरतलब है कि विश्व अर्थव्यवस्था में वृद्धि के बावजुद वर्ष २०१४ से २०१६ के बीच कार्बन उत्सर्जन एक स्तर पर थम रहा था ।
यह परिणाम राष्ट्र संघ की एक बैठक में प्रस्तुत किये गये जहा कई देश २०१५ के पेरिस जलवायु समझोते लागू करने की तैयारी में है । पेरिस समझौते का मुख्य उद्देश्य ग्लोबल वार्मिंग को डेढ़ से दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि तक सीमित करना है । दुनिया के ग्रीन हाउस गैस उत्पादन मेंअनुमानित उछाल एक चुनौती है । अगर नवीनतम विश्लेषण सही साबित होता है, तो वेश्विक कार्बनडाईऑक्साइड उत्सर्जन २०१७ में ४१ अरब टन के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच जाएगा ।
नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित उपरोक्त अध्ययन के एक शोध कर्ता कोरिनला क्वेरे का कहना है कि उत्सर्जन में वृद्धि के बजाय वृद्धि की मात्रा ज्यादा चकित करने वाली है । देखने वाली बात यह है कि २०१७ एक अपवाद था या एक स्थायी रुझान बनेगा। यही दर रही तो वर्ष २०१८ और भी अधिक निराशाजनक हो सकता है ।
वर्ष २०१४ से वर्ष २०१६ मेंस्थिरता के मुख्य कारण विश्व के सबसे बड़े उत्सर्जक चीन मेंआर्थिक मंदी ; संयुक्त राज्य अमेरीका में कोयले की जगह गैस का उपयोग और विश्व में सौर एवं पवन उर्जा का बढ़ता उपयोग रहे हैं । 
ताज़ा विश्लेषण के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में यूएस और यूरोपीय संघ में क्रमश: ०.४ प्रतिशत और ०.२ प्रतिशत की गिरावट जारी रहेगी । 
भारत में भी उत्सर्जन वृद्धि में कमी आने की संभावना है ; पहले ६ प्रतिशत प्रतिवर्ष थी, अब २ प्रतिशत प्रतिवर्ष हो जाएगी । परन्तु चीन में परिस्थिति उल्टी है । विश्व कार्बन उर्त्सजन में चीन का योगदान २६ प्रतिशत है और उसके उत्सर्जन में ३.५ प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना है, जो लगभग १०.५ अरब टन हो जाएगा । इसके मुख्य कारण देश मेंबढ़ते कारखाने और पनबिजली-ऊर्जा उत्पादन कम होना है । उक्त आंकड़े बताते है कि हम जलवायु परिवर्तन के मामले में अभी सुरक्षित स्थिति में नहीं है और काफी अनिश्चितताएं बाकी है ।
बढ़ती भूखमरी का कारण युद्ध और जलवायु परिवर्तन
हाल में राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि खाद्यान्न की कमी न होने के बावजूद भूखमरी फिर से बढ़ रही है । राष्ट्र संघ के नवीनतम आंकड़ो के अनुसार विश्वस्तर पर लगभग ८१.५ करोड़ लोग यानि विश्व आबादी का ११ प्रतिशत हिस्सा भूखमरी का शिकार है । १५ वर्षोंा में पहली बार यह वृद्धि देखी गई है ।
वैश्विक समुदाय की व्यापक पहल के कारण विश्व में १९९० और २०१५ के बीच कुपोषित लोगों की संख्या आधी रह गई थी । २०१५ में राष्ट्र संघ सदस्यों में टिकाऊ  विकास लक्ष्यों का अपनाया था जिसका उद्देश्य २०३० तक भूखमरी को खत्म कर देना था । लेकिन हाल की रिपोर्ट बताती है कि कई वर्षोंा की गिरावट के बाद भूखमरी फिर से बढ़ने लगी है । 
लगातार समाचारों में आने वाली खबरें गवाह है कि पिछलें कुछ वर्षोंा से हमारा गृह प्राकृतिक आपदाआें से पटा रहा है । जिसके कारण शरणार्थियों की संख्या और हिंसा बढ़ी है और जीवन दुभर होने लगा है । यह आपदाएं गरीबों, शराणार्थियों और युद्ध-ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों की भोजन तक पहुंच को मुश्किल बना देती है ।
छोटे किसानों और पशु पालको को अपनी फसलों, पशुआें और जमीन के बारे में निर्णय करने के लिए जरुरी सेवाएं, बाजार और ऋण आसानी से उपलब्ध नही है । सरकारी और वैश्विक विकल्प सीमित है और जातीय, लिंग- आधारित और शैक्षिक बाधाएं इनके आड़े आती है । नतीजतन, कई बार संकट की स्थिति में वे सुरक्षित या टिकाऊ  खाद्य उत्पादन नही कर पाते है ।
यूएन की नई रिपोर्ट के अनुसार मात्र खाद्य उत्पादन बढ़ाकर भुखमरी को कम या खत्म नही किया जा सकता है । एक ढुलमुल विश्व में गामीण आबादी के लिए विकल्पों को बढ़ाना चाहिए ।
पूरे विश्व में सामाजिक और राजनितिक उथल-पुथल चरम सीमा पर है । २०१० से राज्यों के बीच संघर्ष में ६० प्रतिशत वृद्धि हुई है और आंतरिक सशस्त्र संघर्ष में १२५ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । यूएन रिपोर्ट के अनुसार भोजन की दृष्टि से असुरक्षित ५० प्रतिशत लोग हिंसा ग्रस्त इलाको मेंरहते है । 
इस प्रकार से तीन-चौथाई कुपोषित बच्चे संघर्ष-प्रभावीत क्षेत्रो मेंरहते है । और इन्ही क्षेत्रो में लगातार तुफान, सुखा और बाढ़ की स्थिति भी देखी गई है, जिसका बड़ा कारण वैश्विक जलवायु परिवर्तन है । जलवायु-संबंधि आपदाआें से तबाह लोग और जलवायु के कारण फसल या पशुपालन में विफलता सामाजिक अशांति का कारण बनती है ।
युद्ध किसानों को सबसे अधिक प्रभावित करते है । ऐसे युद्ध ग्रस्त इलाकों में न तो फसल उत्पादन के लिए साधन उपलब्ध हो सकत है और न ही फसल कटाई ठीक ढंग से की जा सकती है । छोटे-मोटे संकटो के कारण भी खेती- किसानी मेंकई परेशानियों का सामना करना पड़ता है । संकट की स्थिति में किसानों और चरवाहों को अपना स्थान छोड़ कर कही और पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है । यह पलायन भी भूखमरी का एक बड़ा कारण है । 
वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो २००७ से २०१६ के बीच शरणार्थियोंकी संख्या लगभग दुगनी हुई है । एक अध्ययन से पता चला है कि पलायन का सबसे ज्यादा शिकार कमज़ोर तबके के लोग होते है ।
ऐसी परिस्थितियोंसे पार पाने के लिए खाद्य सुरक्षा को मजबूत बनाने के साथ ग्रामीण अजीविका को और मजबूत बनाने की जरुरत है ।
नवजात शिशुआेंका संख्याज्ञान
   यह देखा गया है कि लोगों को यदि कुछ कार्ड दिए जाएं जिन पर विभिन्न संख्याएं लिखी हो, और कहा जाएं की वे उन्हें एक लाइन में जमा दें, तो काफी संभावना रहती है कि वे उन्हें बाएं से दाएं बढ़ते क्रम में जमा देंगे । अर्थात सबसे छोटी संख्या बाएं छोर पर रहेगी और सबसे बड़ी संख्या दाएं छोर पर । हां, यदि व्यक्ति जो भाषा बोलता है वह दाएं से बाएं पढ़ी जाए तो बात अलग है । दुनिया की अधिकांश भाषाएं बाएं से दाएं पड़ी जाती है (हिब्रू और अरबी जैसी भाषाआेंमें यह अपवाद है) । 
क्या संख्याआें को बाएं से दाएं बढ़ते क्रम में जमाना एक कुदरती रुझान है या हम इसे सीखते है? एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि नवजात शिशुआें में ` कम ' और ` ज्यादा ' की समझ होती है और वे इन्हें ` बाएं ' और `दाएं' से जोड़ कर देखते है । 
यह अध्ययन पेरिस देकार्ते विश्वविद्यालय की मनोवैज्ञानिक मारिया डोलोरस ने ८० नवजात शिशुआें पर किया जिसकी औसत उम्र ४५ घण्टे थी । कल्पना कीजिए कि इस प्रयोग में यह जानने की कोशिश की गई है कि दो दिन के बच्च्े के दिमाग मेंक्या चल रहा है ।
शोधकर्ताआें ने इसके लिए कुछ दृष्य-श्रव्य परिक्षण विकसित किये । बच्चेंको `टा' या ` बा ' जैसे शब्द कई बार सुनाए गए । कुछ बच्चेंको ६ बार तो शेष बच्चें का १८ बार । शोधकर्ताआें ने पुनरावृति की संख्या को ` कम ' और `ज्यादा ' से जोड़कर देखा था । यह आवाजे सुनाने के बाद उन्ही शिशुआें को एक कम्प्यूटर के पर्दे पर अलग-अलग
साइज़ के आयत दिखाएं गए । जिन बच्चों ने ६ बार आवाज़सुनी थी उन्हे छोटा आयत दिखाया गया और १८ बार आवाज़ सुनने वाले बच्चें को बड़ा आयत दिखाया गया ।
इसके कुछ मिनिट बाद यह प्रयोग फिर से दोहराया गया । जिन बच्चों को पहली बार में ६ आवाज़े सुनाई गई थी उन्हे इस बार १८ आवाज़े सुनाई गई इसके साथ ही उन्हें दो विकल्प दिये गए । उन्हे एक विभाजित पर्दे पर दाई तथा बाई ओर बड़े चतुर्भुज दिखाए गए । 
शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि बच्चें किस चतुर्भुज को ज्यादा देर तक देखते है । मान्यता यहां थी कि यदि बच्चें दाएं वाले चतुर्भुज को ज्यादा देर तक निहारतें है तो इसका मतलब यह होगा की वे `ज्यादा'(दूसरे प्रयोग में सुनी गई १८ आवाज़ों) का संबंध `दाएं ' से जोड़ते है । इसके विपरित १८ आवाज़वालों को ६ ही आवाज़ें सुनाई गई । और उन्हें छोटे वाले आयत दिखाए गए । उम्मीद थी कि वे `कम' का संबंध `बाएं' से जोड़ेगें और उसे ज्यादा देखेगें ।
और ठीक ऐसा ही हुआ । जिन बच्चों ने पहले ६ और उसके बाद १८ आवाज़ेंसुनी थी उन्होनें अधिकांशत: दाएं वाले आयत को ज्यादा देर तक देखा। यह प्रयोग कई बार दोहराया गया और परिणाम हर बार ऐसे ही रहे । करंट बायोलॉजी में प्रकाशित इस शोध पत्र से लगता  है संख्या बोध काफी कम उम्र में ही हासिल हो जाता है या शायद यह जन्म जात ही होता है । यदि यह जन्मजात होता है तो उन बच्चों पर प्रयोग करने पर भी ऐसे ही परिणाम मिलने चाहिए जिनके माता-पिता दाएं - से - बाएं वाली भाषा का उपयोग करते है ।***
विशेष लेख
हिमालय और जलवायु परिवर्तन
टी.डी जोशी
भारत के उत्तर में स्थित हिमालय पर्वत भारत को प्रकृति का अनुपम वरदान है । देश के शीर्ष मेंदीवार की भाँति खड़ी हिमालय पर्वत श्रृंखला सजग प्रहरी की भाँति इसकी सुरक्षा तो करती ही है, साथ ही साइबेरिया से आने वाली ठण्डी हवाआें को रोक कर ठण्ड से बचाती है । 
पारिस्थितिक संतुलन की दृष्टि से भी हिमालय का विशेष महत्व है । क्योंकि यह एक ओर तो विभिन्न प्रकार के जीव जन्तुआें को संरक्षण देकर जैव विविधता को संरक्षित करता है, दूसरी ओर पर्वतीय ढलानों पर स्थित वन बाढ़ और हिम स्खलन और भुस्खलन जैसी प्रकृतिक आपदाआें से सुरक्षा भी प्रदान करता है । इतना ही नही हिमालय क्षैत्र में पाये जाने वाले वन कार्बन का अवशोषण कर ग्रीन हाउस गैसों के परिणाम स्वरुप बढ़ने वाली गरमी को नियंत्रित करते है । यह पर्वत श्रंखला अपने ढलानों पर बहुत बढ़ी आबादी को आश्रय देती है, साथ ही निचले क्षेत्रों में रहने वाली आबादी को जल आपूर्ति भी करती है ।
जब पृथ्वी की उम्र लगभग २ अरब वर्ष थी उस समय पृथ्वी के दो हिस्से थे । एक हिस्सा `पैंजिया' विशाल महाद्वीप था और दुसरा हिस्सा `पैथालासा' एक विशाल महासागर था । कलांतर में `पैंजिया' महाद्वीप पर आंतरिक और बाहरी शक्तियों का दबाव पड़ा यह महाद्वीप दो भागों में विभाजीत हो गया । इसका उत्तरीय भाग `अंगारालैण्ड' था और दक्षिणी भाग `गौंडवानालैण्ड'। अंगारालैण्ड और गौंडवानालैण्ड के बीच में एक बड़ी खाई बनी जो `टेथिज सागर' के नाम से जानी गई । 
धीरे-धीरे टेथिज सागर पर पैंजिया महाद्वीप के दोनोंभागो (अंगारालैण्ड और गौंडवानालैण्ड) ने दबाव डालना शुरु किेयाजिससे यह सागर सिकुड़ने लगा । नदियों द्वारा लाये गये अवसादों और जीव जन्तुआें के अवशेषो से इस सागर की सतह उथली होने लगी । लगभग ५ करोड़ वर्ष पूर्व जब भारतीय प्लेट यूरेशीयाइ प्लेट से टकराई तो टेथिस सागर का अधिकांश भाग उपर उठ गया और वलित हिमालय पर्वत श्रंृखला अस्तित्व मेंआई ।
भारतीय प्लेट के यूरेशियाई प्लेट से टकरानेंके समय से ही भारतीय प्लेट उत्तर की ओर खिसक रही है । जिसकी गति आरंभ में १६ से.मी./वर्ष थी, जो अब ५ सेन्टीमीटर/वर्ष रह गई है । इस प्लेट के खिसकने के कारण ही हिमालय पर्वत श्रंृखला आज भी ५ सेन्टीमीटर/वर्ष की दर से बढ़ रही है ।
हिमालय पर्वत श्रंखला पश्चिम में सिंधु घाटी से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी घाटी तक २४०० किमी लम्बाई में फैली हुई है और अर्द्धवृत्त का निर्माण करती है। यह विश्व की सबसे ऊ ंची पर्वत श्रेणी है । इस श्रंखला की चौड़ाई कश्मीर में ४०० किमी और अरुणाचल में १५० किमी है। पर्वत श्रृंखला की ऊ ंचाई पश्चिमी भाग की अपेक्षा पूर्व में अधिक विविधता पूर्ण है। देशांतरीय विस्तार के साथ हिमालय पर्वत श्रंखला को तीन भागों में विभक्त किया गया है ।
हिमाद्रि या आंतरिक हिमालय
यह पर्वत श्रृंखला महान व विशाल हिमालय के नाम से भी जानी जाती है । यह सबसे सतत श्रंखला है । इसकी दो चौटियां माउण्ट एवरेस्ट व कंजनजंघा की ऊ ंचाई क्र मश: ८८४८ मीटर और ८५९८ मीटर है । इस श्रंखला की १०० से अधिक चौटीयां ७२०० मीटर से अधिक उंची है । महान हिमालय के वलय की प्रकृति असंयमित है और हिमायल के इस भाग का क्रोड मेंम्रेनाइट का बना है । यह श्रंखला हमेशा हिमाच्छादित रहती है और इससे अनेक हिमानिया प्रवाहित होती है ।
निम्न हिमालय या हिमाचल
हिमाद्री के दक्षिण मेंस्थित श्रंखला जो सबसे अधिक असम है, हिमाचल या निम्न हिमालय के नाम से जानी जाती है । इस श्रंखला का निर्माण अत्यधिक संपीडित एवं परिवर्तित शैलों से हुआ है । इसकी ऊ ंचाई ३७०० मीटर से ४५०० मीटर के बीच और चौड़ाई ५० किमी औसतन है । पीर पंजाल इस श्रंखला की सबसे लंबी और महत्वपूर्ण श्रंखला है साथ ही धौलाधर एवं महाभारत श्रेणियां भी महत्पूर्ण है । स्वास्थ्य और पर्यटन की दृष्टि से यह श्रंखला विशेष है । कश्मीर घाटी और हिमाचल की कांगड़ा और कुल्लु घाटीयां इसी श्रंखला में स्थित है ।
शिवालिक
शिवालिक हिमालय की सबसे बाहरी श्रंखला है । इसकी उंचाई ९०० से ११०० मीटर और चौड़ाई १० से ५० किमी है । इन श्रंखलाआें का निर्माण उत्तर में स्थित मुख्य हिमालय की श्रंखलाआें से नदियों द्वारा लायी गई असंपिडित अवसादों से हुआ है निम्न हिमालय और शिवालिक के मध्य स्थित लम्बवत घाटी `दून' कहलाती है । इनमें देहरादून, कोटलीदून और पाटलीदून प्रसिद्ध `दून' घाटियां है ।
हिमालय को पश्चिम से पूर्व तक स्थित क्षेत्रों के आधार पर भी नदी घाटीयों की सीमाआें के आधार पर वर्गीकृत किया गया है । सतलूज और सिंधु के बीच स्थित हिमालय को कश्मीर तथा हिमाचल हिमालय, सतलूज और काली नदी के बीच स्थित हिमालय को कुमाऊ ं  हिमालय, काली और तीस्ता के मध्य नेपाल हिमालय तथा तीस्ता और दिहांग नदी के मध्य का हिमालय असम हिमालय के नाम से जाना जाता है । हिमालय की पूर्वीसीमा ब्रह्मपुत्र नदी बनाती है । दिहांग गार्ज के बाद हिमालय तीखा मोड़ बनातेे हुए भारत की पूर्वी सीमा में फेल जाता है ।
भारत के पूर्वीभाग में ब्रह्मपुत्र नदी बहती है । इसका उद्गम मानसरोवर झील के पूर्व में सिंधु और सतलुज के स्त्रोतों से काफी नज़दीक  से होता है । यह पूर्व की ओर हिमालय पर्वत के समान्तर बहती हुई नामचा बारवा शिखर के पास पहुंच कर एक गार्ज के माध्यम से अरुणाचल प्रदेश में पहुंचती है । यहा पर इसे दिहांग नाम से जाना जाता है । असम में दिबांग, लोहित, केनूला एवं दुसरी सहायक नदियां मिलकर ब्रह्मपुत्र का निर्माण करती है ।
हिमालय पर्वत भारतीय क्षेत्र के लिए जलवायु विभाजक के रुप में कार्य करता है । यह जाड़ो में चलने वाली ठण्डी महाद्वीपीय हवाआें का भारत आने से रोकती है और ठण्ड से देश की सुरक्षा करती है । साथ ही बरसात में चलने वाली दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी हवाआें का रोककर भारत में वर्षा करनें के लिए विवश करती है । जिससे भारतीय क्षेत्र में नमी बनी रहती है । इसके अतिरिक्त हिमालय के ग्लेशियर करोड़ों लोगों को पेयजल उपलब्ध कराते है ।
वर्तमान समय में वैश्विक उषणन के कारण ग्लेशियरों के पिघलने की दर बढ़ी है जिससे ग्लेशियर निरन्तर सिकुड़ते जा रहे है जो एक चिंता का विषय है । उपग्रहों से प्राप्त् सर्वेंाक्षणोंके अनुसार हिमालय क्षेत्र के ४५ हजार ग्लेशियरोंमें से कई ग्लेशियर ऐसे है जिनका द्रव्यमान घट रहा है । ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से हिमालयी क्षेत्र की झीलों का जलस्तर बढ़ेगा, जिससे भविष्य में घाटियों में भीषण बाढ़ आ सकती है । इसके अतिरिक्त भविष्य जनसंख्या वृद्धि से पेयजल के लिये ग्लेशियरोंपर दबाव बढ़ेगा । इसलिए हिमालय के ग्लेशियरोंका महत्व बढ़ जाता है । क्योंकि यह ग्लेशियर भारत की बहुत बढ़ी आबादी को पेयजल उपलब्ध कराते है ।
वैश्विक उष्णन में वृद्धि से तथा जलवायु परिवर्तन के कारण स्थिति बिगड़ने की संभावना है । २० वीं शाताब्दी में विश्व के सभी पर्वतीय क्षेत्रों ने औसत से अधिक तापमान को सहन किया है । हिमालय में उंचाई पर तापमान में वृद्धि वैश्विक तापमान से औसत से तीन गुना अधिक है । ऐसा अनुमान है कि २१ वीं सदी में, २० वीं सदी की अपेक्षा २ या ३ गुना अधिक वृद्धि तापमान में होगी । जो एक चिंता विषय है । भारतीय हिमालय क्षेत्र अतिसंवेदनशील क्षेत्र है और इसके लिए विशेष प्रबंधन की आवश्यकता है । यदि समय पर इस दिशा में उचित कदम नही उठाए गए तो भविष्य में गंभीर परिणाम हो सकतें है ।
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विज्ञान जगत
आठ ग्रहों वाले नए सौरमंडल की खोज
प्रदीप
सदियों से ब्रह्मांड मानव को आकर्षित करता रहा है । इसी आर्कषण ने खगोल वैज्ञानिकों को ब्रह्मांडीय प्रेक्षण और ब्रह्मांड अन्वेषण के लिए प्रेरित किया । 
ब्रह्मांड के रहस्योंकी कुछ परतोंको खोलने के क्रम मेंअमेरिकी अंतरिक्ष संस्थान नासा ने हमारे सौर मंडल के तुल्य एक नए सौर मंडल का पता लगाया है, जिसके प्रधान तारे केप्लर-९० के ईद-गिर्द आठ ग्रह परिक्रमा कर रहे है । दरअसल, यह तारा और उसके सात ग्रह पहले ही खोज लिए गए थे, मगर अब वहींपर आठवें ग्रह की भी पहचान कर ली गई है, जिसको केप्लर-९० नाम दिया गया है । 
ऐसे में केप्लर-९० तंत्र की तुलना हमारे सौरमंडल से की जा सकती है क्योंकि केप्लर-९० के पास हमारे सूर्य के जैसे आठ ग्रह हैं । दिलचस्प बात यह है कि हमारे सौर मंडल के बाहर खोजा गया यह अब तक का सबसे बड़ा सौर मंडल है ।
इस ग्रहीय तंत्र का नाम केप्लर-९० दिया गया है क्योंकि इसे केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन के द्वारा खोजा गया है । केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन को नासा ने ७ मार्च २००९ को अंतरिक्ष मेंप्रक्षेपित किया था । इसका काम सूर्य से इतर किंतु उसी तरह के अन्य तारों के ईद-गिर्द ऐसे बाह्म ग्रहोंको ढंूढना है जो पृथ्वी से मिलते-जुलते हों और उन पर जीवन की संभावना हो । इसने करीब १ लाख ५० हजार तारों की जांच-पड़ताल की है । खगोल वैज्ञानिकों ने केप्लर दूरबीन के डैटा का विश्लेषण करते हुए अब तक लगभग २५०० ग्रहों की खोज की है । नासा की इस नवीनतम खोज मे डैटा विश्लेषण के लिए गुगल की आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक की भी सहायता ली गई है, जिसे विकसित करने का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को बसने योग्य ग्रहों की तलाश करना रहा है ।
मज़ेदार बात यह है कि केप्लर-९० के ग्रहोंकी व्यवस्था हमारे सौर मंडल जैसी ही है । इसका मतलब यह है कि इसके ग्रह हमारे सौर मंडल की तरह के ही क्रम मेंहैं । इसमें भी हमारे सौर मंडल की भांति छोटे ग्रह अपने तारे से नज़दीक हैं और बड़े ग्रह उससे काफी दूर हैं । इस खोज से पहली बार स्पष्ट होता है कि ब्रह्मांड में दूर स्थित किसी तारा तंत्र में हमारें जैसे ही सौर परिवार मौजूद हो सकते हैं ।
इस महत्वपूर्ण खोज में शामिल रहे टेक्सास विश्वविद्यालय के नासा सैंगन पोस्ट डॉक्टरल फेलो एवं खगोल विज्ञानी एंड्रयू वेंडरबर्ग का कहना है, `केप्लर-९० के ग्रहोंकी प्रणाली हमारे सौरमंडल का एक छोटा रुप है । इसके भीतर छोटे और बाहर बड़े ग्रह हैं । लेकिन सभी ग्रह काफी करीब है । ' वे नए ग्रह केप्लर-९० के बारे मेंकहते है, `नया ग्रह पृथ्वी से करीब ३० प्रतिशत बड़ा माना जा रहा है । हालांकि यह ऐसी जगह नही है, जहां आप जाना चाहेंगे ।' 
निकोलिस कॉपरनिकस ने सर्वप्रथम बताया था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमाकरती है । तथा पृथ्वी ब्रह्मांड के केन्द्र में नहीं है । आगे जियोर्डानों ब्रूनो ने यह बताया था कि सूर्य एक तारा है और ब्रह्मांड में अनगिनत तारे हैं । उन्होने यहां तक कहा था कि आकाश अनंत है, तथा हमारे सौरमंडल की तरह अनेक और भी सौरमंडल इस ब्रह्मांड में उपस्थित है । १८ वीं सदी आते-आते दूसरे सौरमंडलों के होने की ब्रूनो की कल्पना को सामान्य रुप से स्वीकार कर लिया गया था । इसके चलते सूर्य की ब्रह्मांड विशिष्ट स्थिति पर खतरा मंडराने लगा । जब यह पता चला कि सूर्य भी हमारी आकाशगंगा के अरबोंतारों में से एक है और यह वहां भी केंद्र में नही है ।
नासा की यह नवीनतम खोज एक महत्वपूर्ण समाचार है, क्योंकि इसने एक बारे फिर ब्रूनों की परिकल्पना की वैज्ञानिक दृष्टि से पुष्टि की है । उम्मीद है  निकट भविष्य में केप्लर पृथ्वी जैसे किसी ग्रह की खोज का समाचार देगा जहां पर जीवन हो सकता है । लेकिन ध्यान रखनें की बात यह है कि इस तरह के समाचारों के सत्यापन में वर्षोंा का समय भी लग सकता है । चिराग रगड़ा और एलियन प्रकट हुआ जैसी मानसिकता विज्ञान के बारे में सतही जाकनारी रखने की परिचायक है ।*** 
कविता
बया, हमारी चिड़िया रानी
महादेवी वर्मा
तिनके लाकर महल बनाती,
ऊ ँची डाली पर लटकाती,
खेतों से फिर दाना लाती,
नदियों से भर लाती पानी
बया, हमारी चिड़िया रानी ।।

तुझको दूर न जाने देंगे,
दानों से आँगन भर देंगे,
और हॉज में भर देंगे हम,
मीठा-मीठा ठन्डा पानी,
बया, हमारी चिड़िया रानी ।।

फिर अन्डे सेयेगी तू जब,
निकलेंगे नन्हे बच्चे तब,
हम आकर बारी-बारी से,
कर लेंगे उनकी निगरानी,
बया, हमारी चिड़िया रानी ।।

फिर जब उनके पर निकलेंगे,
उड़ जाएंगे बया बनेंगे,
हम तब तेरे पास रहेंगे,
तू मत रोना चिड़िया रानी,
बया, हमारी चिड़िया रानी ।।