पर्यावरण परिक्रमा
एक साल में सभी ट्रेनों में लग जायेगें बायो टॉयलेट
भारतीय रेल्वे ने सभी गाड़ियों में बायो टॉयलेट लगाने की समय सीमा २०२२ से घटा कर दिसम्बर २०१८ तक कर दी है तथा बायो टॉयलेट के आगे बायो वेक्यूम टॉयलेट लगाने की भी तैयारी शुरु कर दी है ।
रेल्वे बोर्ड के अधिकारिक सूत्रो ने बताया कि भारतीय रेल्वे को महात्मा गांधी की १५० वींजयंती के पहले खुले पाइप वालेंशौच से मुक्त कर दिया जाएगा । सूत्रों ने बताया कि चालु वित्त वर्ष में १२५०० कोचों में बायो टॉयलेट लगाने के बाद कुल २० हजार कोच बचेगें जिसमें ८० हजार बायो टॉयलेट लगाने होंगे ।
यह काम दिसम्बर २०१८ तक पुरा करने का नया लक्ष्य तैयार किया गया है । इसके लिए कम्पनियों की उत्पादन क्षमता भी विकसित हो चुकी है उन्होने ं कहा कि किसी भी हालत मे मार्च २०१९ तक भारतीय रेल्वे को खुले पाईप वाले शौचालय से मुक्त कर दिया जायेगा ।
सूत्रों ने कहा कि रेल्वे को बायो टॉयलेट में पानी की कमी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है । इसी कारण से यात्रियों को अक्सर बोतल ले जाने की जरुरत महसूस होती है । इसके समाधान के लिए हेल्थ फासिट यानि पाइप एवं जेटप्रेशर लगाया जा रहा है ताकि शौच के वक्त पानी के लिये बोतल की जरुरत नहीं पड़े ।
इस बारे में सूत्रो ने बताया कि रेल्वेंके सभी कोचिंग डिपों में एक बायो टॉयलेट प्रयोगशाला भी बनाई गयी है जहां सभी रैकों में बायो टॉयलेट के डिस्चार्ज की जांच की जाती है और अगर बेक्टीरिया का स्तर कम पाया जाता है तो उसमें फिलींग की जाती है । इसी प्रकार हर बायो टॉयलेट में मार्च तक डस्टबीन भी लगाया जाएगा । जिसमें साबुन का रेपर और बोतल आदि फेकी जा सके ।
किसान अब बदल रहे बीहड़ की तस्वीर
म.प्र. में चम्बल के बढ़ते बीहड़ रोकनें में जब सरकार और सेना असफल हो गये तो इलाके के किसान बीहड़ की तस्वीर बदलने के लिए आगे आ रहे है । किसानोंने २० साल में बीहड़ के बड़े भाग को खेती योग्य बना दिया । ४० साल (१९५५-९५) में सरकार व सेना तीन लाख हेक्टेयर बीहड़ में से सिर्फ ७६ हजार हेक्टेयर को ही खेती योग्य बना पाएं, लेकिन पिछले २० साल में अंचल के किसानों ने दो लाख हेक्टेयर से अधिक बीहड़ को खेती लायक बना दिया है । मालूम हो कि हर साल चम्बल के किनारे आठ सौ हेक्टेयर जमीन बीहड़ में बदल जाती है ।
पिछले २० सालों में मल्हन का पूरा, केलारस के चिन्नोनि, जौरा के नन्दपुरा, बरहाना, खांडोल, मुरैना के रिठौर खुर्द सहित चम्बल किनारे के अधिकतर गांवोंमें किसानों ने बिहड़ी जमीन को खेती योग्य बनाया है । वे भूमि कटाव रोकनें के लिए खेतों के किनारो पर मेड़ बंधान कर रहें है और बीहड़ी जमीन को ढाल के विपरीत जुताई कर फसल ले रहे हैं । कृषि विशेषज्ञ के मुताबिक दो लाख हेक्टेयर बीहड़ जमीन में सुधार होने पर १५० लाख टन फसल का उत्पादन होता है जिससे करीब ६० करोड़ की आय किसानों का हो रही है ।
सरकार ने १९५५ से कई प्रोजेक्ट बीहड़ सुधार के लिए शुरु किये, लेकिन सभी प्रयास यांत्रिक थे । भूमि कटाव रोकने के लिए जो भी चेकडैम व अन्य संरचनाएं बनाई गई, उनकी लगातार देखरेख नही की गई । जो समर्थवान किसान है, वे तो बीहड़ी जमीन को सुधार रहें है लेकिन सभी को लाभ देने में तो सहकारिता के सिद्धांत का पालन कर सभी किसानोंको बीहड़ की जमीन देनी होगी और जो किसान स्वयं सक्षम नहीं है उन्हें भूमि सुधारने के लिये आर्थिक सहायता भी देनी होगी ।
पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक से बनेगी बिजली
चिप्स, बिस्कुट, केक और चॉकलेट जैसे खाद्य पदार्थोंा की पैकिंग में इस्तेमाल होने वाले चमकील े प्लास्टिक का इस्तेमाल अब बिजली घर में इंधन के तौर पर किया जाएगा ।
देश में अपनी तरह का ऐसा पहला प्रयोग नई दिल्ली में गाज़ीपुर स्थित कुड़े से बिजली बनाने वाले संयंत्र में शुरु हो गया है जबकि चंडीगढ़, मुम्बई व देहरादून सहित आठ और शहरों में भी यह काम जल्द शुरु होने की उम्मीद है । गैर-सरकारी संगठन भारतीय प्रदूषण नियंत्रण संस्था (आईपीसीएस) के निर्देशक आशीष जैन ने बताया कि इस तरह के प्लास्टिक का इस्तेमाल यह गाज़ीपुर स्थित बिजली घर में किया जा रहा है । उन्होने क हां कि भारत मेंदुनिया में सबसे अधिक प्लास्टिक के सामान का इस्तेमाल होता है, इस लिहाज से इस तरह के प्लास्टिक के निस्तारण की शुरुआत महत्वपूण है ।
उल्लेखनीय है कि बिस्कुट, नमकीन, केक, चिप्स सहित कई अन्य खाद्य पदार्थोंा को पैकेजिंग के लिए एक विशेष चमकिले प्लास्टिक मल्टीलेयर्ड प्लास्टिक (एमएलपी) का इस्तेमाल होता है । इस प्लास्टिक मेंखाद्य पदार्थ का सुरक्षित रखते है लेकिन इनका निपटान टेढ़ी खीर है । यह न तो गलता है और न ही नष्ट होता है । इसलिए ऐसा एमएलपी कचरा दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है ।
कुढ़ा भी बीनने वाले भी इसे नहीं उठाते क्योंकि इसका आगे इस्तेमाल नही होता है । आईपीसीए ने ऐसे नॉन-रिसायकिलेबल प्लास्टिक कुढ़े को एकत्रित करने और उसे बिजली घर तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है । दिल्ली एनसीआर में यह संस्थान इस तरह के ६-७ टन प्लास्टिक को एकत्रिक कर बिजला घर तक पहुंचा रहा है । श्री जैन ने कहा कि मानव स्वास्थ्य व पारिस्थितिकी को हो रहे भारी नुकसान को देखते हुए आइपीसीए ने ऐसे प्लास्टिक कचरे के समुचित संग्रहण और निपटान की एक परियोजना `वि- केयर' शुरु की है । यह परियोजना मुख्य रुप से एमएलपी कचरे के निपटान पर केन्द्रित है ।
पेप्सीको इंडिया, नेस्ले, डाबर, परफैटी वान मेले प्रा.लि. व धर्मपाल, सत्यपाल जैसे प्रमुख कम्पनियां इस परियोजना को चलाने मेंमदद के लिये आगे आयी है । उन्होनें कहा कि `वि केयर' परियोजना के तहत आईपीसीए कचरा बिनने वाले के साथ साथ बड़े कचरा स्थलो के प्रबधंको के साथ गठ जोड़ कर रही है ताकि एमएलपी को वही से अलग कर संयत्र तक लाया जा सके ।
नर्मदा घाटी में मिले ७५० लाख साल पुराने शार्क के जीवाश्म
७५० लाख पहले समुद्री शार्को के जीवाश्म म.प्र. के धार जिले के मनावर क्षेत्र मेंआने वाली नर्मदा घाटी से मिले है । खोज में २० हजार से अधिक दांत के जीवाश्म और रीढ़ की हड्डी के भाग बड़ी तादाद में मिले है । इससे यह सिद्ध होता है कि करीब ७५ ० लाख वर्ष पूर्व जब समुद्री हलचल हुई थी, तब यहां पर समुद्र का पानी था और उसके जीव यहां पहुंच गए थे ।
इस काल मेंभारत, लगभग पृथ्वी की विषुवत रेखा पर हुआ करता था। बिना हड्डी की ये मछलियां आकार में ४-६ फीट लम्बी थी । यह जानकारी दिल्ली विश्व विद्यालय के प्रो.डॉ जीवीआर प्रसाद ने पत्रकारवर्ता मेंदी । डॉ. प्रसाद शांति स्वरुप भट्टनागर पुरुस्कार और नेशनल जीओसाइंस पुरस्कार व जैसी बोस नेश्नल फैलोशिप प्राप्त् विशेषज्ञ है । इस मौके पर डायनासोर व शार्क की खोज करने वाले धार के विशेषज्ञ विशाल ज्ञानेश्वर वर्मा,डॉ अशोक साहनी, रंणजीत सिंह लोरेंबम, प्रियदर्शिनी राजकुमारी आदि मौजूद थे ।
इन जीवाश्म की खोज लम्बे समय से की जा रही थी, लेकिन प्रमाणिकता सिद्ध होने के बाद ही इसे उजागर किया जा रहा है । इस पर एक रिसर्च पेपर लिखा गया था, जो अंतराष्ट्रीय जनरल में प्रकाशित हुआ है ।
इस जीवाश्म की काल अवधि निकालने के लिए वेज्ञानिक उपाय अपनाये गये । यहां २० हजार से अधिक शार्क के दांत और रीढ़ की हड्डी के भाग भी बड़ी तादाद में मिले है । जिस प्रकार की चट्टानों से यह मिले है, उन्हे बाग चट्टान यानि बायोजोन फॉर्मेशन के नाम से जाना जाता है । बाग चट्टान से शार्क की पहली रिपोर्ट है । ये शार्क ७५० लाख साल पहले धार जिले की नर्मदा घाटी की १००-२०० मीटर गहरे समुद्र की उपस्थिति प्रमाणित करती है, जो इन जीवों का उपयुक्त आवास प्रदान करता था । यह समुद्र एक भुजा जैसे आकार का था, जो प्राय: द्विपीय भारत से पश्चिम के टेथिस सागर का एक भाग था । इसके अवसादोंका विस्तार बड़वाह के पास तक पाया गया है । डायनासोर के जीवाश्म की सबसे पहल जिले में२००७ में खोज हुई थी । करीब १०० से अधिक डायनासोर के अण्डे पाये गये थे ।
अफगान के नमक से दिल्ली में प्रदुषण
सर्दियों के दौरान दिल्ली में बढ़ते प्रदुषण की एक वजह अफगानिस्तान का नमक भी है । सर्दियों के दौरान दिल्ली में वेस्ट और नोर्थ वेस्ट हवाआें के साथ यह नमक राजधानी में पहुंचता है और दिल्ली में पीएम २.५ के स्तर को बढ़ाता है । सीपीसीबी और दिल्ली आईआईटी ने मिलकर यह स्टडी की है । सीपीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार पीएम २.५ के कण मेंइस अफगानी नमक का हिस्सा ११ प्रतिशत तक है । यही वजह है कि इसकी वजह से दिल्ली में पीएम २.५ की मात्रा बढ़ती है । हालांकि नमक सीधे तौर पर सेहत पर कोई बुरा असर नही डालता । शरीर मे अंदर जाने पर भी नमक का कोई दुष्प्रभाव स्वास्थ्य पर नही पड़ता है लेकिन इससे पीएम २.५ का बढ़ता स्तर चिंता का विषय है ।
सीपीसीबी के एक वैज्ञानिक ने बताया कि पहले हमें लगा था कि यहां समुद्री नमक है, जो बंगाल की खाड़ी या अरब सागर से दिल्ली पहुंच रहा है । लेकिन सर्दियों के दौरान समुद्र की तरफ से हवा दिल्ली पहुंचती ही नही है । सर्दियों के दौरान सामान्य तौर पर दिल्ली में नोर्थ और नोर्थ वेस्ट की तरफ से हवाएं आती है । यह हवाएं वेस्ट एशिया होती हुई दिल्ली पहुंचती है । इस स्टडी के लिए वेज्ञानिकों ने हाइब्रीड सिंगल पार्टीकल लाग्रंगियन इंटीग्रेटेड ट्रेजेक्ट्री मॉडल की मदद ली । यह मॉडल युएस की साइटिंफिक एजेंसी नेशनल ऑशिएनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनिशट्रेशन ने तैयार किया है ।***
एक साल में सभी ट्रेनों में लग जायेगें बायो टॉयलेट
भारतीय रेल्वे ने सभी गाड़ियों में बायो टॉयलेट लगाने की समय सीमा २०२२ से घटा कर दिसम्बर २०१८ तक कर दी है तथा बायो टॉयलेट के आगे बायो वेक्यूम टॉयलेट लगाने की भी तैयारी शुरु कर दी है ।
रेल्वे बोर्ड के अधिकारिक सूत्रो ने बताया कि भारतीय रेल्वे को महात्मा गांधी की १५० वींजयंती के पहले खुले पाइप वालेंशौच से मुक्त कर दिया जाएगा । सूत्रों ने बताया कि चालु वित्त वर्ष में १२५०० कोचों में बायो टॉयलेट लगाने के बाद कुल २० हजार कोच बचेगें जिसमें ८० हजार बायो टॉयलेट लगाने होंगे ।
यह काम दिसम्बर २०१८ तक पुरा करने का नया लक्ष्य तैयार किया गया है । इसके लिए कम्पनियों की उत्पादन क्षमता भी विकसित हो चुकी है उन्होने ं कहा कि किसी भी हालत मे मार्च २०१९ तक भारतीय रेल्वे को खुले पाईप वाले शौचालय से मुक्त कर दिया जायेगा ।
सूत्रों ने कहा कि रेल्वे को बायो टॉयलेट में पानी की कमी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है । इसी कारण से यात्रियों को अक्सर बोतल ले जाने की जरुरत महसूस होती है । इसके समाधान के लिए हेल्थ फासिट यानि पाइप एवं जेटप्रेशर लगाया जा रहा है ताकि शौच के वक्त पानी के लिये बोतल की जरुरत नहीं पड़े ।
इस बारे में सूत्रो ने बताया कि रेल्वेंके सभी कोचिंग डिपों में एक बायो टॉयलेट प्रयोगशाला भी बनाई गयी है जहां सभी रैकों में बायो टॉयलेट के डिस्चार्ज की जांच की जाती है और अगर बेक्टीरिया का स्तर कम पाया जाता है तो उसमें फिलींग की जाती है । इसी प्रकार हर बायो टॉयलेट में मार्च तक डस्टबीन भी लगाया जाएगा । जिसमें साबुन का रेपर और बोतल आदि फेकी जा सके ।
किसान अब बदल रहे बीहड़ की तस्वीर
म.प्र. में चम्बल के बढ़ते बीहड़ रोकनें में जब सरकार और सेना असफल हो गये तो इलाके के किसान बीहड़ की तस्वीर बदलने के लिए आगे आ रहे है । किसानोंने २० साल में बीहड़ के बड़े भाग को खेती योग्य बना दिया । ४० साल (१९५५-९५) में सरकार व सेना तीन लाख हेक्टेयर बीहड़ में से सिर्फ ७६ हजार हेक्टेयर को ही खेती योग्य बना पाएं, लेकिन पिछले २० साल में अंचल के किसानों ने दो लाख हेक्टेयर से अधिक बीहड़ को खेती लायक बना दिया है । मालूम हो कि हर साल चम्बल के किनारे आठ सौ हेक्टेयर जमीन बीहड़ में बदल जाती है ।
पिछले २० सालों में मल्हन का पूरा, केलारस के चिन्नोनि, जौरा के नन्दपुरा, बरहाना, खांडोल, मुरैना के रिठौर खुर्द सहित चम्बल किनारे के अधिकतर गांवोंमें किसानों ने बिहड़ी जमीन को खेती योग्य बनाया है । वे भूमि कटाव रोकनें के लिए खेतों के किनारो पर मेड़ बंधान कर रहें है और बीहड़ी जमीन को ढाल के विपरीत जुताई कर फसल ले रहे हैं । कृषि विशेषज्ञ के मुताबिक दो लाख हेक्टेयर बीहड़ जमीन में सुधार होने पर १५० लाख टन फसल का उत्पादन होता है जिससे करीब ६० करोड़ की आय किसानों का हो रही है ।
सरकार ने १९५५ से कई प्रोजेक्ट बीहड़ सुधार के लिए शुरु किये, लेकिन सभी प्रयास यांत्रिक थे । भूमि कटाव रोकने के लिए जो भी चेकडैम व अन्य संरचनाएं बनाई गई, उनकी लगातार देखरेख नही की गई । जो समर्थवान किसान है, वे तो बीहड़ी जमीन को सुधार रहें है लेकिन सभी को लाभ देने में तो सहकारिता के सिद्धांत का पालन कर सभी किसानोंको बीहड़ की जमीन देनी होगी और जो किसान स्वयं सक्षम नहीं है उन्हें भूमि सुधारने के लिये आर्थिक सहायता भी देनी होगी ।
पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक से बनेगी बिजली
चिप्स, बिस्कुट, केक और चॉकलेट जैसे खाद्य पदार्थोंा की पैकिंग में इस्तेमाल होने वाले चमकील े प्लास्टिक का इस्तेमाल अब बिजली घर में इंधन के तौर पर किया जाएगा ।
देश में अपनी तरह का ऐसा पहला प्रयोग नई दिल्ली में गाज़ीपुर स्थित कुड़े से बिजली बनाने वाले संयंत्र में शुरु हो गया है जबकि चंडीगढ़, मुम्बई व देहरादून सहित आठ और शहरों में भी यह काम जल्द शुरु होने की उम्मीद है । गैर-सरकारी संगठन भारतीय प्रदूषण नियंत्रण संस्था (आईपीसीएस) के निर्देशक आशीष जैन ने बताया कि इस तरह के प्लास्टिक का इस्तेमाल यह गाज़ीपुर स्थित बिजली घर में किया जा रहा है । उन्होने क हां कि भारत मेंदुनिया में सबसे अधिक प्लास्टिक के सामान का इस्तेमाल होता है, इस लिहाज से इस तरह के प्लास्टिक के निस्तारण की शुरुआत महत्वपूण है ।
उल्लेखनीय है कि बिस्कुट, नमकीन, केक, चिप्स सहित कई अन्य खाद्य पदार्थोंा को पैकेजिंग के लिए एक विशेष चमकिले प्लास्टिक मल्टीलेयर्ड प्लास्टिक (एमएलपी) का इस्तेमाल होता है । इस प्लास्टिक मेंखाद्य पदार्थ का सुरक्षित रखते है लेकिन इनका निपटान टेढ़ी खीर है । यह न तो गलता है और न ही नष्ट होता है । इसलिए ऐसा एमएलपी कचरा दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है ।
कुढ़ा भी बीनने वाले भी इसे नहीं उठाते क्योंकि इसका आगे इस्तेमाल नही होता है । आईपीसीए ने ऐसे नॉन-रिसायकिलेबल प्लास्टिक कुढ़े को एकत्रित करने और उसे बिजली घर तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है । दिल्ली एनसीआर में यह संस्थान इस तरह के ६-७ टन प्लास्टिक को एकत्रिक कर बिजला घर तक पहुंचा रहा है । श्री जैन ने कहा कि मानव स्वास्थ्य व पारिस्थितिकी को हो रहे भारी नुकसान को देखते हुए आइपीसीए ने ऐसे प्लास्टिक कचरे के समुचित संग्रहण और निपटान की एक परियोजना `वि- केयर' शुरु की है । यह परियोजना मुख्य रुप से एमएलपी कचरे के निपटान पर केन्द्रित है ।
पेप्सीको इंडिया, नेस्ले, डाबर, परफैटी वान मेले प्रा.लि. व धर्मपाल, सत्यपाल जैसे प्रमुख कम्पनियां इस परियोजना को चलाने मेंमदद के लिये आगे आयी है । उन्होनें कहा कि `वि केयर' परियोजना के तहत आईपीसीए कचरा बिनने वाले के साथ साथ बड़े कचरा स्थलो के प्रबधंको के साथ गठ जोड़ कर रही है ताकि एमएलपी को वही से अलग कर संयत्र तक लाया जा सके ।
नर्मदा घाटी में मिले ७५० लाख साल पुराने शार्क के जीवाश्म
७५० लाख पहले समुद्री शार्को के जीवाश्म म.प्र. के धार जिले के मनावर क्षेत्र मेंआने वाली नर्मदा घाटी से मिले है । खोज में २० हजार से अधिक दांत के जीवाश्म और रीढ़ की हड्डी के भाग बड़ी तादाद में मिले है । इससे यह सिद्ध होता है कि करीब ७५ ० लाख वर्ष पूर्व जब समुद्री हलचल हुई थी, तब यहां पर समुद्र का पानी था और उसके जीव यहां पहुंच गए थे ।
इस काल मेंभारत, लगभग पृथ्वी की विषुवत रेखा पर हुआ करता था। बिना हड्डी की ये मछलियां आकार में ४-६ फीट लम्बी थी । यह जानकारी दिल्ली विश्व विद्यालय के प्रो.डॉ जीवीआर प्रसाद ने पत्रकारवर्ता मेंदी । डॉ. प्रसाद शांति स्वरुप भट्टनागर पुरुस्कार और नेशनल जीओसाइंस पुरस्कार व जैसी बोस नेश्नल फैलोशिप प्राप्त् विशेषज्ञ है । इस मौके पर डायनासोर व शार्क की खोज करने वाले धार के विशेषज्ञ विशाल ज्ञानेश्वर वर्मा,डॉ अशोक साहनी, रंणजीत सिंह लोरेंबम, प्रियदर्शिनी राजकुमारी आदि मौजूद थे ।
इन जीवाश्म की खोज लम्बे समय से की जा रही थी, लेकिन प्रमाणिकता सिद्ध होने के बाद ही इसे उजागर किया जा रहा है । इस पर एक रिसर्च पेपर लिखा गया था, जो अंतराष्ट्रीय जनरल में प्रकाशित हुआ है ।
इस जीवाश्म की काल अवधि निकालने के लिए वेज्ञानिक उपाय अपनाये गये । यहां २० हजार से अधिक शार्क के दांत और रीढ़ की हड्डी के भाग भी बड़ी तादाद में मिले है । जिस प्रकार की चट्टानों से यह मिले है, उन्हे बाग चट्टान यानि बायोजोन फॉर्मेशन के नाम से जाना जाता है । बाग चट्टान से शार्क की पहली रिपोर्ट है । ये शार्क ७५० लाख साल पहले धार जिले की नर्मदा घाटी की १००-२०० मीटर गहरे समुद्र की उपस्थिति प्रमाणित करती है, जो इन जीवों का उपयुक्त आवास प्रदान करता था । यह समुद्र एक भुजा जैसे आकार का था, जो प्राय: द्विपीय भारत से पश्चिम के टेथिस सागर का एक भाग था । इसके अवसादोंका विस्तार बड़वाह के पास तक पाया गया है । डायनासोर के जीवाश्म की सबसे पहल जिले में२००७ में खोज हुई थी । करीब १०० से अधिक डायनासोर के अण्डे पाये गये थे ।
अफगान के नमक से दिल्ली में प्रदुषण
सर्दियों के दौरान दिल्ली में बढ़ते प्रदुषण की एक वजह अफगानिस्तान का नमक भी है । सर्दियों के दौरान दिल्ली में वेस्ट और नोर्थ वेस्ट हवाआें के साथ यह नमक राजधानी में पहुंचता है और दिल्ली में पीएम २.५ के स्तर को बढ़ाता है । सीपीसीबी और दिल्ली आईआईटी ने मिलकर यह स्टडी की है । सीपीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार पीएम २.५ के कण मेंइस अफगानी नमक का हिस्सा ११ प्रतिशत तक है । यही वजह है कि इसकी वजह से दिल्ली में पीएम २.५ की मात्रा बढ़ती है । हालांकि नमक सीधे तौर पर सेहत पर कोई बुरा असर नही डालता । शरीर मे अंदर जाने पर भी नमक का कोई दुष्प्रभाव स्वास्थ्य पर नही पड़ता है लेकिन इससे पीएम २.५ का बढ़ता स्तर चिंता का विषय है ।
सीपीसीबी के एक वैज्ञानिक ने बताया कि पहले हमें लगा था कि यहां समुद्री नमक है, जो बंगाल की खाड़ी या अरब सागर से दिल्ली पहुंच रहा है । लेकिन सर्दियों के दौरान समुद्र की तरफ से हवा दिल्ली पहुंचती ही नही है । सर्दियों के दौरान सामान्य तौर पर दिल्ली में नोर्थ और नोर्थ वेस्ट की तरफ से हवाएं आती है । यह हवाएं वेस्ट एशिया होती हुई दिल्ली पहुंचती है । इस स्टडी के लिए वेज्ञानिकों ने हाइब्रीड सिंगल पार्टीकल लाग्रंगियन इंटीग्रेटेड ट्रेजेक्ट्री मॉडल की मदद ली । यह मॉडल युएस की साइटिंफिक एजेंसी नेशनल ऑशिएनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनिशट्रेशन ने तैयार किया है ।***
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