मंगलवार, 16 जनवरी 2018

सामयिक
गंभीर दौर में है, पर्यावरण का संकट
भारत डोगरा
विश्व स्तर के पर्यावरण बदलावों व चुनौतियों पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा रिपोर्ट जीईओ समय-समय पर जारी की जाती है ।
इसकी नवीनतम रिपोर्ट जीईओ-५ ने भी यही कहा है कि ऐसे विभिन्न तरह के बदलावों के सबसे खतरनाक स्तर से बचना बहुत जरुरी है क्योंकि इस सीमा के बाद धरती पर विविधतापूर्ण जीवन को पनपाने वाली स्थितियाँ सदा के लिए बदल सकती है । समुद्र के जीवन विहीन क्षेत्रोंमें हाल के वर्षोंा में चौंकाने वाली वृद्धि हुई है ।
Related image विश्व के अनेक शीर्ष वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे है कि विश्व स्तर पर पर्यावरण का संकट अपने सबसे गंभीर दौर मेंपहुंच चुका है । स्टॉकहोम रेसेलियंस सेंटर ने ९ संदर्भोंा में धरती की सीमा रेखाआें को पहचानने का प्रयास किया है । इन सीमा रेखाआें पर अतिक्रमण हुआ तो धरती पर जीवन की संभावनाआें पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ेगा ।
यह नौ संदर्भ है - जलवायु बदलाव, स्ट्रोटोस्फीयर की ओजोन परत, भूमि उपयोग में बदलाव, ताजे या मीठे पानी का उपयोग व दोहन, जैव-विविधता, समुद्रों का अम्लीकरण, नाइट्रोजन व फॉस्फोरस में वृद्धि, वायु 
प्रदूषण व रासायनिक प्रदूषण । इन संदर्भोंा में निधारित सीमा-रेखाआें का अतिक्रमण धरती पर जीवन के लिए घातक होगा । इन सभी सीमा रेखाआेंको निर्धारित करनें में कठिनाईयां है, पर जहां तक संभव था यह काम इस केंद्र के वैज्ञानिकों ने किया है । इनमें से तीन संदर्भोंा में सीमा-रेखा का उल्लंघन संभवत: पहले ही हो चुका है । यह तीन संदर्भ हैं - जलवायु बदलाव, जैव विविधता व बायोस्फीयर में नाईट्रोजन की वृद्धि ।
इस अध्ययन में बताया गया है कि यह सब सीमा-रेखाएं एक दूसरे से पूरी तरह अलग निश्चित तौर पर नहीं है व एक संदर्भ में जो भी समस्याएं उत्पन्न हो रही है वे दूसरे संदर्भो को प्रभावित करती है व उनसे प्रभावित होती है । इस तरह वास्तविक जीवन में इन सब कारकों के मिल-जुले असर से बहुत खतरनाक परिणाम सामने आ सकते है । अभी इन समस्याआें को नियंत्रित करने की उचित  स्थितियां विश्व स्तर पर मौजूद नहीं है पर इस ओर ध्यान देना बहुत जरुरी है ।
विश्व स्तर के पर्यावरण बदलावों व चुनौतियों पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा एक रिपोर्ट जीईओ-५ ने भी यही कहा है कि ऐसे विभिन्न तरह के बदलावोंके सबसे खतरनाक स्तर से बचना बहुत जरुरी है क्योंकि इस सीमा के बाद धरती पर विविधतापूर्ण जीवन को पनपाने वाली स्थितियां सदा के लिए बदल सकती है । इस अध्ययन मेंबताया गया है समुद्र के जीवन विहीन क्षेत्रों में हाल के वर्षोंा में चौकाने वाली वृद्धि हुई है ।
एक चर्चित अध्ययन गेरार्डो केबोलोस, पॉल आर.एहरलिच व उसके साथी वैज्ञानिकोंने किया है । इस अध्ययन में यह बताया गया है कि १०० वर्षो में १०००० प्रजातियों में से २ स्तनधारी लुप्त् हो जाएं तो यह सामान्य स्थिति मानी जाती है । इस सामान्य गति की तुलना में पिछली शताब्दी में रीढ़ की हड्डी वाले जीवों के लुप्त होने की दर १०० गुणा तक अधिक पाई गई है । इस आधार पर इस अध्ययन ने कहा है कि धरती विभिन्न प्रजातियोंके  बड़े पैमाने पर लुप्त् होने के नए दौर मेंप्रवेश कर चुकी है ।
मनुष्य के धरती पर आगमन के बाद प्रजातियों के लुप्त् होने का यह सबसे बड़ा दौर है । यह प्रजातियों के लुप्त् होने को पहला ऐसा दौर है जो प्रकृति जनित कारणोंसे नहीं अपितु मानव जनित कारणों से उत्पन्न हुआ है । धरती पर दो पैरों पर चलने वाले जीव पहली बार लगभग ३ लाख वर्ष पहले उत्पन्न हुए, पर जहां तक मनुष्य के वर्तमान रुप यानि होमो सेपिंयस का सवाल है तो उसका धरती के विभिन्न भागों में प्रसार
लगभग ५०००० वर्ष पहले हुआ ।
हारवर्ड के जीव वैज्ञानिक एडवर्ड विल्सन ने कुछ समय पहले विभिन्न अध्ययनोंके निष्कर्ष  के आधार पर बताया था कि होमो सेंपियंस के आगमन से पहले की स्थिति की तुलना करेंतो विश्व में जमीन पर रहने वाले जीवों के लुप्त् होने की गति १०० गुणा बढ़ गई है ।
इस तरह अनेक वैज्ञानिकों के अलग-अलग अध्ययनों के परिणाम काफी हद तक एक से है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त् होने की गति बढ़ गई है और यह काफी हद तक मानव निर्मित कारणों से हुआ है ।
कुछ वर्ष पहले विश्व के १५७५ वैज्ञानिकों ने (जिनमें उस समय जीवित नोबल पुरस्कार प्राप्त् वैज्ञानिक भी सम्मिलित थे) एक बयान जारी किया, जिसमें उन्होनें कहा  हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की जरुरत है अन्यथा बहुत दुख-दर्द बढ़ेंगे और हम सबका घर यह पृथ्वी इतनी बुरी तरह तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा । 
इन वैज्ञानिक ों ने कहा था कि वायुमंडल, समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रुपों, सभी पर तबाह होे रहे पर्यावरण का बहुत दबाव पड़ रहा है और वर्ष २१०० तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रुपों में से एक तिहाई लुप्त् हो सकते हैं । मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के  अनेक तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाआें को नष्ट कर रहें है और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते है, उसका अस्तित्व ही कठिन हो जाए । इन प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने जोर देकर कहा है कि प्रकृतिकी इस तबाही को रोकने के लिए बुनियादी बदलाव जरुरी है ।***

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