मंगलवार, 16 जनवरी 2018

ज्ञान विज्ञान
कार्बन उत्सर्जन में दो फीसदी वृद्धि का आशंका
वैज्ञानिको द्वारा ताज़ा जानकारी के अनुसार मानव गतिविधियों से उत्सर्जित कार्बन में दो प्रतिशत वृद्धि देखने को मिल सकती है । इसका मुख्य कारण चीन में कोयले का बढ़ता उपयोग है । गौरतलब है कि विश्व अर्थव्यवस्था में वृद्धि के बावजुद वर्ष २०१४ से २०१६ के बीच कार्बन उत्सर्जन एक स्तर पर थम रहा था ।
यह परिणाम राष्ट्र संघ की एक बैठक में प्रस्तुत किये गये जहा कई देश २०१५ के पेरिस जलवायु समझोते लागू करने की तैयारी में है । पेरिस समझौते का मुख्य उद्देश्य ग्लोबल वार्मिंग को डेढ़ से दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि तक सीमित करना है । दुनिया के ग्रीन हाउस गैस उत्पादन मेंअनुमानित उछाल एक चुनौती है । अगर नवीनतम विश्लेषण सही साबित होता है, तो वेश्विक कार्बनडाईऑक्साइड उत्सर्जन २०१७ में ४१ अरब टन के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच जाएगा ।
नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित उपरोक्त अध्ययन के एक शोध कर्ता कोरिनला क्वेरे का कहना है कि उत्सर्जन में वृद्धि के बजाय वृद्धि की मात्रा ज्यादा चकित करने वाली है । देखने वाली बात यह है कि २०१७ एक अपवाद था या एक स्थायी रुझान बनेगा। यही दर रही तो वर्ष २०१८ और भी अधिक निराशाजनक हो सकता है ।
वर्ष २०१४ से वर्ष २०१६ मेंस्थिरता के मुख्य कारण विश्व के सबसे बड़े उत्सर्जक चीन मेंआर्थिक मंदी ; संयुक्त राज्य अमेरीका में कोयले की जगह गैस का उपयोग और विश्व में सौर एवं पवन उर्जा का बढ़ता उपयोग रहे हैं । 
ताज़ा विश्लेषण के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में यूएस और यूरोपीय संघ में क्रमश: ०.४ प्रतिशत और ०.२ प्रतिशत की गिरावट जारी रहेगी । 
भारत में भी उत्सर्जन वृद्धि में कमी आने की संभावना है ; पहले ६ प्रतिशत प्रतिवर्ष थी, अब २ प्रतिशत प्रतिवर्ष हो जाएगी । परन्तु चीन में परिस्थिति उल्टी है । विश्व कार्बन उर्त्सजन में चीन का योगदान २६ प्रतिशत है और उसके उत्सर्जन में ३.५ प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना है, जो लगभग १०.५ अरब टन हो जाएगा । इसके मुख्य कारण देश मेंबढ़ते कारखाने और पनबिजली-ऊर्जा उत्पादन कम होना है । उक्त आंकड़े बताते है कि हम जलवायु परिवर्तन के मामले में अभी सुरक्षित स्थिति में नहीं है और काफी अनिश्चितताएं बाकी है ।
बढ़ती भूखमरी का कारण युद्ध और जलवायु परिवर्तन
हाल में राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि खाद्यान्न की कमी न होने के बावजूद भूखमरी फिर से बढ़ रही है । राष्ट्र संघ के नवीनतम आंकड़ो के अनुसार विश्वस्तर पर लगभग ८१.५ करोड़ लोग यानि विश्व आबादी का ११ प्रतिशत हिस्सा भूखमरी का शिकार है । १५ वर्षोंा में पहली बार यह वृद्धि देखी गई है ।
वैश्विक समुदाय की व्यापक पहल के कारण विश्व में १९९० और २०१५ के बीच कुपोषित लोगों की संख्या आधी रह गई थी । २०१५ में राष्ट्र संघ सदस्यों में टिकाऊ  विकास लक्ष्यों का अपनाया था जिसका उद्देश्य २०३० तक भूखमरी को खत्म कर देना था । लेकिन हाल की रिपोर्ट बताती है कि कई वर्षोंा की गिरावट के बाद भूखमरी फिर से बढ़ने लगी है । 
लगातार समाचारों में आने वाली खबरें गवाह है कि पिछलें कुछ वर्षोंा से हमारा गृह प्राकृतिक आपदाआें से पटा रहा है । जिसके कारण शरणार्थियों की संख्या और हिंसा बढ़ी है और जीवन दुभर होने लगा है । यह आपदाएं गरीबों, शराणार्थियों और युद्ध-ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों की भोजन तक पहुंच को मुश्किल बना देती है ।
छोटे किसानों और पशु पालको को अपनी फसलों, पशुआें और जमीन के बारे में निर्णय करने के लिए जरुरी सेवाएं, बाजार और ऋण आसानी से उपलब्ध नही है । सरकारी और वैश्विक विकल्प सीमित है और जातीय, लिंग- आधारित और शैक्षिक बाधाएं इनके आड़े आती है । नतीजतन, कई बार संकट की स्थिति में वे सुरक्षित या टिकाऊ  खाद्य उत्पादन नही कर पाते है ।
यूएन की नई रिपोर्ट के अनुसार मात्र खाद्य उत्पादन बढ़ाकर भुखमरी को कम या खत्म नही किया जा सकता है । एक ढुलमुल विश्व में गामीण आबादी के लिए विकल्पों को बढ़ाना चाहिए ।
पूरे विश्व में सामाजिक और राजनितिक उथल-पुथल चरम सीमा पर है । २०१० से राज्यों के बीच संघर्ष में ६० प्रतिशत वृद्धि हुई है और आंतरिक सशस्त्र संघर्ष में १२५ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । यूएन रिपोर्ट के अनुसार भोजन की दृष्टि से असुरक्षित ५० प्रतिशत लोग हिंसा ग्रस्त इलाको मेंरहते है । 
इस प्रकार से तीन-चौथाई कुपोषित बच्चे संघर्ष-प्रभावीत क्षेत्रो मेंरहते है । और इन्ही क्षेत्रो में लगातार तुफान, सुखा और बाढ़ की स्थिति भी देखी गई है, जिसका बड़ा कारण वैश्विक जलवायु परिवर्तन है । जलवायु-संबंधि आपदाआें से तबाह लोग और जलवायु के कारण फसल या पशुपालन में विफलता सामाजिक अशांति का कारण बनती है ।
युद्ध किसानों को सबसे अधिक प्रभावित करते है । ऐसे युद्ध ग्रस्त इलाकों में न तो फसल उत्पादन के लिए साधन उपलब्ध हो सकत है और न ही फसल कटाई ठीक ढंग से की जा सकती है । छोटे-मोटे संकटो के कारण भी खेती- किसानी मेंकई परेशानियों का सामना करना पड़ता है । संकट की स्थिति में किसानों और चरवाहों को अपना स्थान छोड़ कर कही और पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है । यह पलायन भी भूखमरी का एक बड़ा कारण है । 
वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो २००७ से २०१६ के बीच शरणार्थियोंकी संख्या लगभग दुगनी हुई है । एक अध्ययन से पता चला है कि पलायन का सबसे ज्यादा शिकार कमज़ोर तबके के लोग होते है ।
ऐसी परिस्थितियोंसे पार पाने के लिए खाद्य सुरक्षा को मजबूत बनाने के साथ ग्रामीण अजीविका को और मजबूत बनाने की जरुरत है ।
नवजात शिशुआेंका संख्याज्ञान
   यह देखा गया है कि लोगों को यदि कुछ कार्ड दिए जाएं जिन पर विभिन्न संख्याएं लिखी हो, और कहा जाएं की वे उन्हें एक लाइन में जमा दें, तो काफी संभावना रहती है कि वे उन्हें बाएं से दाएं बढ़ते क्रम में जमा देंगे । अर्थात सबसे छोटी संख्या बाएं छोर पर रहेगी और सबसे बड़ी संख्या दाएं छोर पर । हां, यदि व्यक्ति जो भाषा बोलता है वह दाएं से बाएं पढ़ी जाए तो बात अलग है । दुनिया की अधिकांश भाषाएं बाएं से दाएं पड़ी जाती है (हिब्रू और अरबी जैसी भाषाआेंमें यह अपवाद है) । 
क्या संख्याआें को बाएं से दाएं बढ़ते क्रम में जमाना एक कुदरती रुझान है या हम इसे सीखते है? एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि नवजात शिशुआें में ` कम ' और ` ज्यादा ' की समझ होती है और वे इन्हें ` बाएं ' और `दाएं' से जोड़ कर देखते है । 
यह अध्ययन पेरिस देकार्ते विश्वविद्यालय की मनोवैज्ञानिक मारिया डोलोरस ने ८० नवजात शिशुआें पर किया जिसकी औसत उम्र ४५ घण्टे थी । कल्पना कीजिए कि इस प्रयोग में यह जानने की कोशिश की गई है कि दो दिन के बच्च्े के दिमाग मेंक्या चल रहा है ।
शोधकर्ताआें ने इसके लिए कुछ दृष्य-श्रव्य परिक्षण विकसित किये । बच्चेंको `टा' या ` बा ' जैसे शब्द कई बार सुनाए गए । कुछ बच्चेंको ६ बार तो शेष बच्चें का १८ बार । शोधकर्ताआें ने पुनरावृति की संख्या को ` कम ' और `ज्यादा ' से जोड़कर देखा था । यह आवाजे सुनाने के बाद उन्ही शिशुआें को एक कम्प्यूटर के पर्दे पर अलग-अलग
साइज़ के आयत दिखाएं गए । जिन बच्चों ने ६ बार आवाज़सुनी थी उन्हे छोटा आयत दिखाया गया और १८ बार आवाज़ सुनने वाले बच्चें को बड़ा आयत दिखाया गया ।
इसके कुछ मिनिट बाद यह प्रयोग फिर से दोहराया गया । जिन बच्चों को पहली बार में ६ आवाज़े सुनाई गई थी उन्हे इस बार १८ आवाज़े सुनाई गई इसके साथ ही उन्हें दो विकल्प दिये गए । उन्हे एक विभाजित पर्दे पर दाई तथा बाई ओर बड़े चतुर्भुज दिखाए गए । 
शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि बच्चें किस चतुर्भुज को ज्यादा देर तक देखते है । मान्यता यहां थी कि यदि बच्चें दाएं वाले चतुर्भुज को ज्यादा देर तक निहारतें है तो इसका मतलब यह होगा की वे `ज्यादा'(दूसरे प्रयोग में सुनी गई १८ आवाज़ों) का संबंध `दाएं ' से जोड़ते है । इसके विपरित १८ आवाज़वालों को ६ ही आवाज़ें सुनाई गई । और उन्हें छोटे वाले आयत दिखाए गए । उम्मीद थी कि वे `कम' का संबंध `बाएं' से जोड़ेगें और उसे ज्यादा देखेगें ।
और ठीक ऐसा ही हुआ । जिन बच्चों ने पहले ६ और उसके बाद १८ आवाज़ेंसुनी थी उन्होनें अधिकांशत: दाएं वाले आयत को ज्यादा देर तक देखा। यह प्रयोग कई बार दोहराया गया और परिणाम हर बार ऐसे ही रहे । करंट बायोलॉजी में प्रकाशित इस शोध पत्र से लगता  है संख्या बोध काफी कम उम्र में ही हासिल हो जाता है या शायद यह जन्म जात ही होता है । यदि यह जन्मजात होता है तो उन बच्चों पर प्रयोग करने पर भी ऐसे ही परिणाम मिलने चाहिए जिनके माता-पिता दाएं - से - बाएं वाली भाषा का उपयोग करते है ।***

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