शनिवार, 19 मई 2018


शुक्रवार, 18 मई 2018

प्रसंगवश
साफ पानी आज भी बड़ी चुनौती
देश की आबादी का बड़ा हिस्सा गंदा पानी पीने को मजबूर है । हालात इतने गंभीर इसलिए हो गए कि देश के ज्यादातर हिस्सों में जमीन के भीतर का पानी गंदा और जहरीला हो चुका है । भू-जल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौह व नाइट्रेट जैसे तत्वों, लवणों और भारी धातुआें की मात्रा इस कदर बढ़ चुकी है कि ऐसे पानी को पीने वाले गंभीर बीमारियों के शिकार होते जा रहे है । इससे त्वचा संबंधी रोग, सांस की बीमारियां, हडि्डया कमजोर पड़ना, गठिया और कैंसर जैसे रोग दस्तक दे रहे है । जिन राज्यों में ज्यादातर लोग गंदा और जहरीला पानी को विवश है उनमें पश्चिम बंगाल, असम और राजस्थान सबसे उपर है । देश में पानी की गुणवत्ता को लेकर एकीकृत प्रबंधन सूचना प्रणाली ने जो आंकड़े पेश किए है वे चौंकाने वाले है । राजस्थान में ७७ लाख से ज्यादा लोग दूषित पानी पीने को मजबूर है और इससे होने वाली बीमारियों से जूझ रहे है । राजस्थान के बड़ हिस्से में पानी में फ्लोराइड, नाइट्रेट और दूसरे लवण है । इनमें ४१ लाख लोग फ्लोराइड, २८ लाख से ज्यादा लोग लवणयुक्त पानी और ८ लाख नाइट्रेट युक्त पानी पी रहे है । असम के हालात तो और गंभीर है, जहां १७ लाख लोगों को आर्सेनिक घुला पानी पीना पड़ रहा है । पश्चिम बंगाल में करीब पौने दो करोड़ लोगों को इस तरह को जहरीला पानी मिल रहा है । देश भर में ऐसा दूषित जल पीने वालों का आंकड़ा ४७ करोड़ के पार है । तब सवाल उठता है क्या पीने का साफ पानी कभी नसीब हो भी पाएगा या नहीं ? लोगो को साफ पानी मुहैया कराने की क्या सरकारें की कोई जिम्मेदार नहीं है ? देश आज पीने के पानी और साफ पानी की जिस समस्या से जूझ रहा है, उसकी जड़े जल प्रबंधन में हमारी घोर नाकामी में देखी जा सकती है । दो समस्याएं है । एक पानी नहीं है । और दूसरी यह कि जहां पानी है वह पीने लायक नहीं है । बारिश के पानी को संग्रहित और संरक्षित करने का कोई ठोस तंत्र हम आज तक विकसित नहीं कर पाएं है, जबकि आज भी यह परंपरा का हिस्सा माना जाता है ।
कहने को पेयजल के मसले पर कितनी ही योजनाएं-परियोजनाएं बनी, लेकिन जल संकट से मुक्ति नही मिली । यह इस बात का प्रमाण है कि इन योजनाआें पर ठोस तरीके से अमल नहींहुआ । हालांकि केंद्र सरकार राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना के तहत राज्य सरकारों को पानी की गुणवत्ता सुधारने के लिए तकनीकी और आर्थिक मद्द मुहैया करा रही है । लेकिन ये काम बहुत मंथर गति से हो रहे है, जबकि समस्या काफी तेजी से बढ़ रही है । देश को साफ पानी की उपलब्धता की चुनौती को दूर करना बेहद जरुरी है । हर नागरिक को साफ पेयजल दिया जाना अभी भले ही चुनौती हो, मगर प्रयास किए जाएं, तो ऐसा संभव है । अब तक इस दिशा में सामूहिकता का अभाव दिखता है ।
गांव में जुर्माना याने पौधे लगाने की सज़ा
मध्यप्रदेश सरकार इस बार बड़े स्तर पर पौधारोपण करवा रही है, लेकिन एक गांव की कथा कुछ अलग है वहीं यह गांव पेड़-पौधो के लिहाज से अनूठा है, महज दो हजार की आबादी वाले इस छोटे से गांव की गलियों में दो सौ से ज्यादा पेड़-पौधे लहलहाते है, यहाँ हर घर के सामने पेड़ है, इतना ही नहीं, पेड़ को किसी ने नुकसान पहुंचाया तो उसे जुर्माना के तौर पर नए पौधे लगाकर परवरिश करते हुए पेड़ बनाने की सजा सुनाई जाती है । पिछले ३५ सालों से यहां के ग्रामीण हर साल कुछ नए पौधे भी लगाते है । इस साल वे सौ नए पौधे लगाने वाले है।
चमचमाते आगरा-मुंबई हाईवे से करीब १५ किमी दूर देवास जिले के गांव देवली की गलियों में पेड़ पौधों की बहार है, बुजुर्ग सूरजसिंह बताते है कि गांवभर के लोग इनकी निगरानी करते है और बुजुर्ग इस बात का ध्यान रखते है कि कोई इन्हें नुकसान नही पहुचाएं, इन्हे सूखने पर नही काटा जाता, यदि कोई ऐसा करते है तो चौपाल पर बैठक में बुजुर्ग उसे नए पौधे लगाने और इन्हे बड़ा करने की सजा सुनाते है, बीते दिनों एक ग्रामीण ने सड़क किनारे पेड़ को अपने ट्रेक्टर से धक्का दिया, इससे पेड़ की कुछ डालियां क्षतिग्रस्त हुई तो ग्रामीणों ने चालक से वहीं ट्रीगार्ड में नया पौधा लगवाकर उसे बड़ा करने का संकल्प करवाया । इसी तरह एक बस चालक से भी जुर्माना स्वरुप पांच पौधे लगवाए गए है ।
लोग बताते है कि ३५ सालों से यह प्रथा चली आ रही है, गांव के ४५ बुजुर्ग इनकी निगरानी करते है, हर साल कुछ नए पौधे लगाते है, ग्रामीण अपने घर के समीप के पौधोंको गर्मी में पानी देते है, गांव की सरपंच प्रेम बाई के मुताबिक इस बार सौ नए पौधे लगाए जाएंगे, इसका बड़ा फायदा यह हुआ है कि अब गांव के बच्चे भी पौधों और उनकी सुरक्षा करना सीख गए है । और पौधारोपण कार्य में भाग लेते है ।
सामयिक
लू और आपदा प्रबंधन
नवनीत कुमार गुप्त
विश्व मौसम संगठन के अनुसार २०११ से २०१२ के दौरान वैश्विक तापमान मेंनिरंतर वृद्धि देखी गई है । तापमान का बढ़ना समाज को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करता है । तापमान बढ़ने से प्राकृतिक आपदाआेंजैसे बाढ़, सूखा, असामान्य बारिश, खेती आदि पर प्रभाव होता है । यह हम जानते है कि कृषि प्रधान देश होने के कारण हमारी पूरी अर्थ व्यवस्था खेती पर निर्भर है ।
लगभग एक अरब बत्तीस करोड़ की आबादी के साथ भारत आबादी के हिसाब से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है । वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार भारत की ३१ प्रतिशत आबादी शहरों और ६९ प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है । रुझानों से पता चलता है कि शहरी आबादी निरंतर वृद्धि हो रही है । सामान्यत: शहरो में हरियाली और पानी की कमी अधिक देखी गई है । ऐसे में प्राकृतिक आपदाआें के प्रति भारत को भविष्य में अधिक सचेत रहने की आवश्यकता है ।
जलवायु में परिवर्तन के कारण मौसम में बदलाव से हमारा स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है । भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देशों में गर्मी के मौसम में लू लगने की घटनाएं काफी देखने को मिलती है जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले सालों में लू की घटनाआें और उनकी तीव्रता में वृद्धि होने की आशंका है । ऐसे में बचाव की जानकारी ही हमें इससे बचा सकती है ।
लू गर्मियों में उत्तर पूर्व तथा पश्चिम से पूर्व की ओर चलने वाली गर्म और शुष्क हवा है । गर्मियों में दिन का अधिकतम तापमान लगातार तीन दिनों तक सामान्य तापमान से ३ डिग्री अधिक हो तो लू चलती है । विश्व मौसम संगठन के अनुसार लगातार पांच दिनो तक तापमान का सामान्य तापमान से ५ डिग्री सेल्सियस अधिक होने से भी लू चलती है । यदि किसी स्थान का तापमान ४५ डिग्री सेल्सीयस से अधिक होता है तो वहां लू चल सकती है । भारतीय मौसम विभाग के अनुसार मैदानी क्षेत्रों में ४६ से अधिक तापमान लू को जन्म देता है ।
यदि वायुमंडलीय तापमान ३७ डिग्री सेल्सियस रहता है तो मानव शरीर पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है । लेकिन इससे अधिक तापमान पर शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । लू लगने का प्रमुख कारण शरीर में लवणों और पानी की कमी होना है । पसीने के रुप में लवण और पानी का बड़ा हिस्सा शरीर से निकलकर खून की गर्मी को बढ़ा देता है । सिर में भारीपन मालूम होने लगता है, नाड़ी की गति बढ़ने लगती है, खून की गति भी ठीक नही रहती तथा शरीर में एेंठन-सी लगती है । बुखार काफी बढ़ जाता है । हाथ और पैरों के तलुआें में जलन-सी होती है । आंखे भी जलती है । इससे अचानक बेहोशी व अंतत: रोगी की मौत भी हो सकती है ।
भारत में आम तौर पर अप्रेल से जून के दौरान लू चलती है और कुछ मामलोंमें तो यह जुलाई तक जारी रहती है । इसके परिणाम स्वरुप निर्जलन, लू लगना, थकान और यहां तक कि घातक हीट स्ट्रोक भी हो सकता है । लू लगने के कारण देश में२०१५ में लगभग ढाई हजार और वर्ष २०१६ में करीब १६०० लोगों की मौत हुई थी ।
१५ से १६ जून २०१७ के दौरान नई दिल्ली में संपन्न आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए राष्ट्रीय मंच की दूसरी बैठक में लू के प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण यानी एनडीएमए द्वारा किए गए कार्योकी जानकारी दी गई । इसके अंतर्गत लू को भी प्राकृतिक आपदा माना गया है । देश मेंलू की तीव्रता को देखते हुए एनडीएमए ने इसकी रोकथाम और प्रबंधन के लिए पिछले साल एक कार्य योजना तैयार करने के निर्देश दिए थे । इसी के अंतर्गत इस वर्ष के आरंभ से ही इस विषय पर जागरुकता कार्यक्रमोंका आयोजन आरंभ किया गया था । मार्च से पहले से ही देश के अनेक स्थानोंमें लू से बचाव के सर्वोत्तम तरीकों पर कार्यशालाआें का आयोजन किया गया ।
ऐसी कार्यशालाआें का मुख्य उद्देश्य लू से बचने के लिए राज्यों को जागरुक करना और इससे बचाव के तरीकों का प्रसारित करना रहा । कुछ राज्यों ने लू से बचाव के तरीकों को लागू करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए और अपने अनुभवों और योजनाआें को दूसरों के साथ साझा भी किया । राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने लू से सम्बंधित कार्य योजना और जोखिम न्यूनीकरण, लू से प्रभावित राज्यों के साथ अनुभव साझा करने और इससे निपटने के उपायोंतथा लू के बारे मेंपूर्वानुमान आदि कार्यक्रमोंपर विशेष ध्यान दिया । इसके अलावा भारतीय मौसम विभाग द्वारा समय-समय पर तापमान की सटीक जानकारी से भी लोग सचेत हो जाते है ।
सरकार एवं विभिन्न संगठनों के  प्रयासोंके साथ लोगोंकी जागरुकता का ही नतीजा रहा है कि अभी तक इस वर्ष लू से मरने वालों का आकड़ा काफी कम रहा है । आशा है आने वाले समय में अधिक लोग जागरुक होंगे।
लू से बचने के उपाय
लू से बचने के लिए तेज़ धूप में बाहर नहीं निकलना चाहिए । अगर बाहर जाना ही पड़े तो सिर व गर्दन को तौलिए या अंगोछे से ढक लेना चाहिए ।
गर्मी के दिनोंमें हल्का भोजन करना चाहिए । बाहर जाते समय खाली पेट नहीं जाना चाहिए ।
गर्मी के दिनों में बार-बार पानी पीते रहना चाहिए ताकि शरीर में पानी की कमी नही हो ।
गर्मी के दौरान नरम, मुलायम, सूती कपड़े पहनना चाहिए । ऐसे कपड़ो जो शरीर के पसीने को सोखते रहेंऔर उसे हवा में बिखराते रहे ।
गर्मी में मौसमी फलों, जैसे खरबूज, तरबूज, अंगूर इत्यादि एवं छाछ, दही का सेवन नियमित करना चाहिए ।
गर्मी के दिनों में प्याज़ का सेवन भी अधिक करना चाहिए ।
लू लगने पर क्या करें
लू लगने पर तत्काल योग्य डॉक्टर को दिखाना चाहिए । डॉक्टर को दिखाने के पूर्व कुछ प्राथमिक उपचार करने पर भी लू के रोगी को राहत महसूस होने लगती है ।
बुखार तेज़होने पर रोगी को ठंडी खुली हवा में आराम करवाना चाहिए । तेज बुखार होने पर बर्फ  की पट्टी सिर पर रखना चाहिए ।                 ***
हमारा भूमण्डल
खतरे में है जैव विविधता
रवीन्द्र गिन्नौरे
जैव विविधता की दृष्टि से भारत विश्व के समृद्धतम राष्ट्रोंमें प्रमुख है । भारत की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति होने के कारण पुश-पक्षियों एवं पेड़-पौधों को जितनी अधिक प्रजातियां पाई जाती है, उतनी विश्व के गिने-चुने राष्ट्रों में ही मिलती है । पृथ्वी पर उपलब्ध चार जैव भौगोलिक परिमंडलों में तीन पराध्रुव तटीय, अफ्रीकी, तथा इण्डोमलयान के प्रतिनिधि क्षेत्र भारत मेंपाए जाते है । घटते संसाधन और बढ़ते हुए खतरे से आज पूरा विश्व जगत अवगत हो चुका है । परंतु प्रकृति को उसकी जैव विविधता को संजोने का प्रयास आज भी शैशावस्था में है ।
परम्परागत ज्ञान, हमारी सांस्कृतिक धरोहर से सरोकार रखने वाली प्राकृतिक सम्पदा उपभोक्ता संस्कृति के बाजार में मूल्यवान हो गई है । जैव विविधता की दृष्टि से सम्पन्न भारत के उन क्षेत्र मेंघुसपैठ हो चुकी है, जहां दुर्लभ जड़ी-बुटियां और मूल्यवान जीवाष्म मौजूद है । भौगोलिक विभिन्नताआें से परिपूर्ण हर इलाकों में पेड़ पौधों के साथ वन्य पशु पक्षियों का बसेरा अब छिनता जा रहा है । प्रकृतिचक्र के साथ जिन वनवासियों का जीव निहित है, अब वही बाजारवाद के कुचक्र मेंफंस कर अवैध तस्करी के लिए सामान उपलब्ध करा रहे है ।
अपनी अनमोल विरासत से वनवासी अनभिज्ञ है, लेकिन जैव विविधता की कीमत जो समझते है, उसी समुदाय के कुछ लोग बेचने में लगे है । घटते संसाधन और बढ़ते हुए खतरे से आज पूरा विश्व अवगत हो चुका है । परंतु प्रकृति को, उसकी जैव विविधता को संजोने का प्रयास आज भी शैशावस्था मेंहै ।
पृथ्वी के समृद्ध जीवन का मनोहारी स्वरुप को मानव जितना देख सका है, आंकड़ो की सत्यता में उतना अभी तक परखा नहीं गया है । असंख्य ताने-बाने में बुना है प्रकृतिका स्वरुप । वैज्ञानिकों का पृथ्वी पर १६ लाख जीव-जंतुआें की प्रजातियों की जानकारी है, जिसकी संख्या तो दिन ब दिन बढ़ती जा रही है । मगर इसके ठीक विपरीत हजारों प्रजातियों विलुप्त् होती जा रही है । पशु पक्षी किसी जन्तु की प्रजाति विलुप्त् होने के बाद उसकी अहमियत का पता हमें चलता है । 
पृथ्वी के आनुवांशिक संसाधन साझा विरासत है, जिन्हे सम्पूर्ण मानव जाति के द्वारा उपयोग में लाया जाना चाहिए । जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के महत्वपूर्ण इन स्त्रौतों से भारी भरकम व्यापारिक लाभ है । विकासशील राष्ट्र जैव विविधता से सम्पन्न राष्ट्रों से लेने के लिए अपना दबाव बना रहे है । जबकि जैविक संसाधन उस राष्ट्र की सम्पत्ति है, जहां यह आनुवांशिक संसाधन मूल रुप से पाए जाते है । 
जैव विविधता के संरक्षण का प्रश्न तभी से उठ खड़ा हुआ, जब इसके अनुचित दोहन के विरोधी स्वर उठे । जैव विविधता के संरक्षण का अर्थ, किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक सीमाआें में पाए जाने वाले पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जातियों को विलुप्त् होने से बचाना । इन जातियों के लगभग पांच प्रतिशत को ही मानव खेतों व बागों में बोता है, उगाता और पालता है, शेष ९५ प्रतिशत जातियों प्राकृतिक रुप से वन क्षेत्रों, नदी-नालों एवं समुद्री तटों में उगती एवं पलती है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के आव्हान पर ब्राजील के रियो-डि-जेनेरा `पृथ्वी शिखर' सम्मेलन में उपस्थित राष्ट्रों ने सामूहिक रुप से निर्णय लिया, वह था धरती की जैव विविधता के संरक्षण का निर्णय । जून १९९२ में यह निर्णय लिया गया, जो २९ दिसम्बर १९९३ में लागू हो गया । भारत ने भी इस समझौते को स्वीकृति दे दी है ।
जैव विविधता की दृष्टि से भारत विश्व के समृद्धतम राष्ट्रों में प्रमुख है । भारत की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति होने के कारण पुश-पक्षियों एवं पेड पौधों को जितनी अधिक प्रजातियों पाई जाती है, उतनी विश्व के गिने चुने राष्ट्रों में ही मिलती है । पृथ्वी पर उपलब्ध चार जैव भौगोलिक परिमंडलों में तीन पराधु्रव तटीय, अफ्रीकी, तथा इण्डोमलयान के प्रतिनिधि क्षेत्र भारत मेंपाए जाते है । विश्व के किसी भी देश मेंदो अधिक परिमण्डलों के क्षेत्र नही मिलते । यह कारण है कि यूरोप और उत्तरी अमेरिका की भांति भारत मे हिरणों की आठ प्रजातियां पाई जाति है ।
दुर्लभ विश्व का सबसे छोटा चूहा हिरण (माउस डियर) भारत में ही पाया जाता है । अफ्रीकी महाद्वीप में हिरणों की एक भी जाति नहीं पाई जाती । वहीं सम्पूर्ण यूरोप एवं उत्तरी अमरीकी महाद्वीप में बबर शेर एवं एण्टीलोप की जातियों नही पाई जाती । मानव जाति के निकटस्थ चार प्राकृतिक सम्बन्धियों में गुरिल्ला, चिम्पैंजी, ओरंग उटान और गिब्बन में अंतिम जाति गिब्बन भारत के अरुणाचल प्रदेश के वनोंमे पाई जाती है । यह सभी जीव विषुवत रेखा के सदाबहार वनोंके है । जलवायु की विविधता के साथ-साथ धरातल की विविधता, लम्बा सागरतट एवं अनेक समुद्री द्वीप के कारण भारत में पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों की विभिन्न जातियों का उत्क्रमण भारत में संभव हो सका ।
भारत में अभी तक पशु पक्षियों की ६५ हजार जातियों (मछलियां २ हजार, रेंगने वाले जीव ४२०, जल स्थर चर जीवन १५०, पक्षियों की १२०, स्तनपायी पशुआें की २४० तथा शेष पतंगों की जातियों) एवं पुष्पधारी वनस्पतियों की १३ हजार जातियां पहचानी जा चुकी है । जैव विविधता की दृष्टि से सम्पन्न अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है । पुश पक्षियों की अनेक प्रजातियों तेजी से विलुप्त् हो रही है ।
लगभग ११८६ पक्षियों की प्रजातियों सम्पूर्ण विश्व में अब समािप्त् की ओर अग्रसर है । यह विचार मुंबई नेचुरल हिस्ट्र सोसायटी ने व्यक्त किए है । एम.एन. एच.एस. के अनुसार इनमें से ७८ पक्षियों की प्रजातियों केवलभारत में विलुिप्त् के कगार पर है । उपरोक्त संख्या में १८२ प्रजातियां आने वाले दस वर्षोंा के भीतर खत्म हो जाएगी ।
लगभग ११८६ पक्षियों की प्रजातियों सम्पूर्ण विश्व में अब समािप्त् की ओर अग्रसर है । यह विचार मुंबई नेचुरल हिस्ट्र सोसायटी ने व्यक्त किए है । एम.एन.
एच. एस. के अनुसार इनमें से ७८ पक्षियों की प्रजातियों केवलभारत में विलुिप्त् के कगार पर है । उपरोक्त संख्या में १८२ प्रजातियों आने वाले दस वर्षो के भीतर खत्म हो जाएगी ।
भारत में औषधीय पौधों की लगभग ९५०० प्रजातियों का उपयोग दवाआें के रुप में किया जाता है । एथनो मेडिसीन के इतिहास में मुंड जनजातियों द्वारा इनके इस्तेमाल का प्रमाण मिलता है । ३९०० औषधीय पौधों का संबंध वनवासियों की खाद्य संबंधी जरुरतों से है । २५० पौधोें का के बारे में इतना कहा जाता है कि भोजन के विकल्प के रुप में भविष्य में ये ही मनुष्य की जरुरतों को पूरा करेंगे ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अमरीका में३३ फीसदी और एशिया में ६५ फीसदी लोग आयुर्वेद चिकित्सा पर विश्वास करते है । मारीशस, नेपाल और श्रीलंका में तो इस चिकित्सा प्रणाली को सरकारी मान्यता प्राप्त् है । भारत, चीन, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और इंडोनेशिया में तो प्राचीनकाल से ही जड़ी-बूटियों से इलाज की परम्परा रही है । किन्तु आज अमेरीका, जर्मनी जैसे विकसित देशों में इसकी बढ़ती लोकप्रियता ने एक बहुत बड़ा संकट खड़ा कर दिया है । इन वनौषधियों कों लूटा जा रहा है । भारी पैमाने पर इनकी तस्करी हो रही है । परिणामस्वरुप हमारे वनवासी प्रकृति की इसअमूल्य धरोहर से वंचित होते जा रहे है ।
अर्जेंाटाइना, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, ब्राजील, अमरीका, इंग्लैंड, कनाडा, चीन, फ्रांस, रुस, इजराइल, इटली, थाईलैंड, जापान, स्विटजरलैंड, जोर्डन, केनिया, कोरिया, लेबनान, मोरक्को, वेनेजुएला आदि ऐसे देश है जहां काफी बड़ी कीमत देकर इन वनौषधियों का खरीदा जा रहा है । मिलने वाली बड़ी कीमत ने ही इनकी तस्करी को बढ़ाया है । दो वर्ष पूर्व हुए एक अध्ययन के मुताबिक हर वर्ष ८० हजार टन वनस्पति, जिसमें दुर्लभ जड़ी-बूटियों भी शामिल है, वैध और अवैध तरीके सेभारत से बाहर ले जाई गई है ।
मानव जिंदगी के लिए जिस तरह जमीन, हवा, पानी जरुरी है, उसी तरह वनस्पति और प्राणी भी जरुरी है । प्रकृति का संपूर्ण तंत्र एक विशालकाय मशीन जैसा है, जिसमें कीड़े-मकोड़े, केचुआ, पक्षी, जंगली जानवर से लेकर पौधे और विशालकाय वृक्ष तक शामिल है । सभी प्रकृति रुपी मशीन के कलपुर्जेहै । यही जलीय ग्रह पर जीवन की प्राकृतिक क्रिया का निर्धारण करते है तो इसका दुष्परिणाम प्रकृति के सारे क्रियाकलाप में अनुभव किया जाता है ।
जीवन निर्वाह के लिए धन-दौलत से अधिक हवा, पानी ज्यादा जरुरी है । शुद्ध हवा, पानी व प्राकृतिक संतुलन तभी बना रह सकता है, जब हम सही मायने मेंवसंुधरा को माता समझें और वैसा ही व्यवहार करें । धरती की गोद में मानव तभी सुखी रह सकता है, जब वह दोहन करने की नीति छोड़ कर प्रकृति के  अनुकुल चले । भविष्य में इसी लीक पर मानव चलने को मजबूर होगा, लेकिन तब तक प्रकृतिके उग्रतम रुप देख चुका होगा।
***
विशेष लेख
ज्योतिष बनाम विज्ञान
प्रो. ईश्वरचन्द्र शुक्ल/विशाल कुमार सिंह
विज्ञान क्या है, इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहींहै । विज्ञान की कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं है । कैब्रिज डिक्शनरी के अनुसार भौतिक जगत की संरचना एवं व्यवहार का प्रयोगोंऔर मापन के द्वारा क्रमबद्ध अध्ययन करना, प्राप्त् ज्ञान, परिणामों की आख्या करने के लिए सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना विज्ञान कहलाता है ।
प्राचीनकाल में हमारे पूर्वजों ने ज्योतिष विज्ञान का प्रतिपादन भी इसी पद्धति से सम्भवत: किया होगा । ज्योतिष में किसी व्यक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्तियों, जीवन की घटनाआें तथा जन्म के समय ग्रहों की स्थितियों से जुड़े तथ्यों का संग्रह किया जाता है । पर्याप्त् तथ्यों का अध्ययन, वर्गीकरण करने के पश्चात् प्राप्त् तथ्यों का संग्रह किया जाता है । जैसे ग्रहों की स्थितिविन्यास (योग) के अनुरुप ही फल प्राप्त् होता है । इन नियमों का पुन: प्रयोग करके ज्योतिषी किसी व्यक्ति की मानसिक प्रवृत्ति या जीवन में घटित होने वाली घटनाआें की संभावना व्यक्त करता है । 
यह किसी भी मान्य आधुनिक विज्ञान की तरह सांख्यिकी पर आधारित प्रणाली जैसी ही है । जैसे भौतिक विज्ञान में ताप और दाब के आधार पर अणुआेंके व्यवहार की भविष्यवाणी की जाती है, ठीक उसी प्रकार ज्योतिष विज्ञान में ग्रहों प्रवृत्तियों के आधार पर भविष्यवाणी की जाती है ।
प्रख्यात मनोवैज्ञानिक सीजे जूंग ने प्राच्य विद्याआें का कई बार उपयोग मनोरोगों की पहचान के लिए करते थे । इनकी सत्यता और व्यवहारिक उपयोगिता से प्रभावित होकर जुंग ने कहा था कि तीन सौ वर्षोंा से विश्वविद्यालयों के द्वारा ज्योतिष के लिए बंद है , लेकिन आने वाले तीस वर्षोमें ज्योतिष इन बंद दरवाजो को तोड़कर विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाकर रहेगा । जुग की भविष्यवाणी अब सच साबित हो रही है । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शिक्षा प्रारंभ करने की घोषणा की है ।
रुस में चेजोवस्की ने ७०० वर्षोंा के इतिहास का अध्ययन करके कहा था कि जब जब सूर्य पर महाविस्फोट होते है, पृथ्वी पर युद्ध और क्रांतियों का सूत्रपात होता है । स्टालिने ने चेजोवस्की को जेल में बंद कर दिया, क्योंकि कार्ल मार्क्स और कम्युनिस्टों का विचार है कि पृथ्वी पर जो क्रान्तियाँ होती है उनका मूल कारण एक छद्म विज्ञान है इस संदर्भ में महर्षि अरविन्द ने कहा था, `आज तक वस्तुत: वैज्ञानिक प्रणाली से ज्योतिष का झूठा विज्ञान किसी ने सिद्ध नहीं किया है ।'
आकाश में घूमते ग्रह धरती के जीवन पर विशेष प्रकार का प्रभाव डालते है, इसकी व्याख्या आधुनिक विज्ञान की अवधारणा के अनुसार की जा सकती है । भौतिक विज्ञान के अनुसार किसी समय व स्थान पर तीन प्रकार का प्रभाव पड़ता है, विकिरण प्रभाव, गुरुत्वाकर्षण प्रभाव और चुंबकीय प्रभाव । इन तीनों प्रभावों को हम एक साथ `कॉस्मिक प्रभाव' कह सकते है । किसी व्यक्ति के जन्म समय पर `कॉस्मिक प्रभाव' की उसके जीवन मेंमहत्वपूर्ण भूमिका होती है, इसका अध्ययन अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों के प्राफेसरों ने किया था, जिनका ज्योतिष से कुछ लेना देना नही था । येल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हटिंगटन ने जन्म के समय की ऋतु और मनुष्य की कार्यक्षमता मेंअन्तर्सम्बन्ध की खोज की । १९५३ में चार्ल्स ने जन्म के समय और मानसिक प्रवृत्तियों नामक शोधपत्र को इंग्लैण्ड की प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका `नेचर' में प्रकाशित करवाया था । १९७३ में हारे, प्राइस और स्लेटर ने भी जन्म समय और मानसिक रोग नामक शोधपत्र के `नेचर' में छपवाया था । इसी विषय पर पार्कर और नेल्सन ने ब्रिटिस जर्नल ऑफ साइकियाट्री में अपना शोधपत्र प्रकाशित करवाया ।
चंद्रमा का धरती पर गुरुत्वाकर्षण इतना प्रबल है कि समुद्र में ज्वार भाटे आते है । मनुष्य के शरीर मेंलगभग ७० प्रतिशत द्रव है, जो कुछ कारणोंसे नमकीन है । अत: यह सामान्य ज्ञान की बात है कि चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव मनुष्य के शरीर में उपस्थित द्रव पर भी पड़ेगा । इस दिशा में भी कई वैज्ञानिकों ने खोजबीन की है, जिनमें प्रमुख है, डी.एम. लेलिनफील्ड जिनका शोधपत्र `चंद्रमा का मानसिक रोगों पर प्रभाव'१९६९ में अमेरिकन जर्नल ऑफ साइकियाट्री में प्रकाशित हुआ था । यह पाया गया कि पागलपन का उन्माद, मिरगी के दौरे, आपराधिक एवं सड़क दुर्घटनाएँ पूर्णिमा के आसपास बढ़ जाती है ।
ग्रहों का मानव जीवन पर प्रभाव है, यह तो ज्ञात है, किन्तु यह प्रभाव किस क्रियाविधि से पड़ता है, अभी इस दिशा में वैज्ञानिकों ने कोई खोजबीन नहीं की है । एक प्रयास ब्रिटेन के एस्ट्रोनॉमी स्कूल के प्रिंसिपल पर्सी सेमोर ने अपनी पुस्तक एस्ट्रोलॉजी द एविडेंस ऑफ साइंस में किया है । संभव है इसमें प्रकृतिके गहरे रहस्य काम कर रहे हो, यह अभी तक विज्ञान की परिधि में या वैज्ञानिकों के संज्ञान मेंनही हो सके है ।
कारण और प्रभाव में कई बार प्रत्यक्ष विधि से संबंध दर्शाना संभव नहीं होता है । `कॉस्मिक प्रभाव' (ग्रहों से आ रहे विकिरण, गुरुत्वाकर्षण बल, चुंबकीय बल आदि) पृथ्वी पर आते है । मनुष्य के शरीर के संवेदक उसे ग्रहण कर मस्तिष्क तक ले जाते है, उसका प्रभाव चेतन मन पर पड़ता है, फिर मन में विचार उत्पन्न होते है । जैसे विचार उत्पन्न होते है वैसे ही कार्य के लिए मनुष्य तत्पर होता है । इस संपूर्ण प्रक्रिया को किसी वैज्ञानिक उपकरण से दर्शाना अभी संभव हुआ है ।
आज विज्ञान के पास विश्व के प्रत्येक कैसे और क्योंका उत्तर नहीं है । खरबों रुपये जीनोम परियोजना पर व्यय करने के बाद वैज्ञानिक मनुष्य के संपूर्ण जीनों को पहचानने में सफल हो गए है । अब ये बता सकते है कि किस जीन की खराबी से कौन सा रोग उत्पन्न होता है । जब कि एक कुशलज्योतिष इसे सरलता से व्यक्त कर सकता है, यदि अष्टमेश का प्रभाव लग्न या लग्नेश पर हो तो जेनेटिक दोष के कारण रोग उत्पन्न होते है ।
ज्योतिष पर आधारित भविष्य -वाणियोंका आरम्भ बहुत पहले हो चुका था और इसके प्रचार-प्रसार मेंकतिपय प्रख्यात वैज्ञानिकों के नाम भी जुड़े हुए है । किन्तु जैसा कि आगे वर्णन किया गया है, विज्ञान की किसी अन्य शाखा के विरुद्ध इनमेंनये तथ्यों एवं गवेषणाआें को बहुधा स्वीकार नहीं किया गया है । तारों के सापेक्ष सूर्य, चन्द्र, बुद्ध, मंगल, ब्रहस्पति एवं शनि की गतियों को ध्यान में रखते हुए ग्रीसवासियों ने इन्हे `प्लैनेट' कहा जिसका शाब्दिक अर्थ `वाण्डरर' अथवा `घुमक्कड़' है ।
ग्रीसवासियों से पूर्व हेबू्र लोगों ने इनके आधार पर सात दिन वाले सप्तह का निर्माण किया और दिनों को नाम दिया । पृथ्वी से दिखायी पड़ने वाली इनकी एवं `राहु केतु' की आभासी गतियों पर फलित की भविष्यवाणियाँ आधारित है अर्थात भू-केन्द्रित है और इस परिकल्पना पर आधारित है कि ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुएँ पृथ्वी के चारों तरफ घूमती है । इस प्रकार एक अन्तर्निहित विरोधाभास के कारण फलित ज्योतिष में वक्र गतियों की बात की जाती है जो वस्तुत: पृथ्वी से दिखाई पड़ने वाली छद्मपूर्ण  गतियाँ है । खगोल विज्ञान की कोई भी मामूली पुस्तक इस तथ्य की अच्छी तरह व्याख्या करती है । यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य है कि राहु तथा केतु को प्लैनेट (ग्रह) नहीं कहा गया है । कोपरनिकस के सूर्य -केन्द्रित सिद्धान्त में, जिस पूर्ण वैज्ञानिक आधार एवं समर्थन प्राप्त् है, सूर्य के चारो ओर सभी ग्रह परिक्रमा करते है । सूर्य ग्रह नहीं है, पृथ्वी की परिक्रमाकरता हुआ चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है और पृथ्वी ग्रह है । कालान्तर में अरुण, वरुण और यम नामक ग्रह खोजे गये । इस प्रकार आकाश में नौ ग्रह है जिनके नाम सूर्य से बढ़ती हुई दूरी के क्रम में बुद्ध, शुक्र, पृथ्वी, ब्रहस्पति, शनि, अरुण, वरुण तथा यम है ।
फलित ज्योतिषियोंके भयोत्पादक भविष्यवाणियाँ, जो ग्रहों के आकाश में एक स्थान पर आभासी रुप से आने पर आधारित होती है, अनेक बार प्रयोगशालाआें एवं नक्षत्रशालाआें में कार्य कर रहे वैज्ञानिकों द्वारा गलत प्रमाणित की गई है । यद्यपि कई बार प्रलयकारी घटनाआें की भविष्यवाणियाँ हुई है लेकिन विपुल सम्पदा से भरी हुई इस पृथ्वी पर मानव समेत अनेक जीवधारी अभी तक विद्यमान है । यह अक्सर कहा जाता है कि फलितज्योतिषी के पंचांगोंमें चूंकि खगोलीय पिण्ड जैसे सूर्य और चन्द्रमा की स्थितियाँ सही-सही दी रहती है अत: भविष्यवाणियों का वैज्ञानिक आधार है ।
ज्योतिष एक विद्या है इसमें ज्योतियों का विज्ञान होता है । ज्योतियाँ दो प्रकार की है । १. स्वत: ज्योति २. परत: ज्योति । स्वत: ज्योति सूर्य आदि, परत: ज्योति पृथ्वी चन्द्र आदि है । इनकी उत्पत्ति होती है । उत्पत्ति है तो इनका प्रलय भी होता है । इनकी उत्पत्ति कौन करता है, किससे करता है, क्यों करता है, इनका प्रयोजन क्या है, इनकी स्थिति, गति परिणाम क्या है इत्यादि का विज्ञान बहुत विस्तृत, मनोरंजक एवं उपादेय है । यह विज्ञान वेदों में सर्वत्र है । ऐसा प्रतीत होता है कि वेद ज्योतिष के ग्रन्थ हो । इसको जानने से मानव जीवन में विकास होता है । इस विद्या से जहाँ मानव को लौकिक सुख प्राप्त् होता है वहाँ आध्यात्मिक भाव भी उदित होते है । इसको न जानने से जहाँ मानव लौकिक सुखों से वंचित होता है वहां अनेक भ्रान्तियों एवं अन्धविश्वासों से ग्रस्त रहता है ।
आज भी पशु- पक्षी, कीट पतंगों के माध्यम से सूक्ष्मदशियों के द्वारा अनेक भविष्यवाणियाँ की जाती थी जो शत प्रतिशत सत्य होती है । भैस, गाय, अश्व, बैल के बच्चे को देखकर यह बता देना कि बुद्धिमान, दुधारु, तेजधावक तथा कृषि कार्य के लिए पूर्ण योग्य होगा - इनके विशेषज्ञों द्वारा की गई इस प्रकार की भविष्यवाणियाँ भी ९० प्रतिशत से अधिक सत्य सिद्ध होती दृष्टिगोचर होती है । ग्रह नक्षत्रविदों के द्वारा मनुष्य, समाज, राष्ट्र के सम्बन्ध में की जाने वाली भविष्यवाणियों का आधार भी कुछ इसी प्रकार का होता है । ज्योतिष शास्त्र के विरोधियों द्वारा यह आपत्ति की जाती है कि ये भविष्य-वाणियाँ असत्य भी होती है, किन्तु यही बात चिकित्साशास्त्र के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है । 
***
जल जगत
अपने देश में भी `केपटाउन' संभव है
राजकुमार कुम्भज
जलसंकट को लेकर दुनियाभर की हालत चिंताजनक है । दक्षिण अफ्रीका में एक लंबे समय से बारिश नहीं हो रही है । इस वजह से केपटाउन को जल-आपूर्ति करने वाले संसाधन नेशनल मंडेलाबे पर बने बांध में लगभग तीस फीसदी से भी कुछ कम पानी ही अब शेष रह गया है । तमाम जल आपूर्ति की पाबंदियोंके बावजूद उक्त बांध तीन-चार माह मे पूरी तरह से खाली हो जाएगा, अगर ऐसा हुआ तो हमारे देखते केपटाउन दुनिया का एकमात्र ऐसा पहला महानगर होगा, जिसके पास दैनिक उपयोग और प्यास बुझाने तक का दो बूंद पानी नही होगा । भारत की स्थितियां भी कोई कम दयनीय नहीं है । देश के अधिकतर कुआें, तालाबों बांधों ने पिछले दो दशक में तेजी से पानी खोया है ।
दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन इस समय भीषण जल संकट से जूझ रहा है । हालात इतने भयानक हो चुके है कि यहां पानी का संकट अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया है । वैसे तो दक्षिण अफ्रीका का यह खूबसूरत शहर पिछले एक दशक से पानी की किल्लत भोग रहा है और समय रहते इसके समाधान हेतु कुछ नहीं किया जा सका । केपटाउन इस समय भयंकर सूखे की चपेट में है । तकरीबन एक पखवाड़े पहले तक प्रति व्यक्ति जहां ८७ लीटर पानी जैसे-तैसे उपलब्ध करता जा रहा था, वहीं अब यह आपूर्ति प्रति व्यक्ति मात्र २५ लीटर पर सिमट गई है । हैरानी नहीं होना चाहिए कि जल-संकुचन के कारण पैदा हुआ जल-संकट केपटाउन में जल-दंगों की शक्ल ले लें क्योंकि जल-दंगों की आर्थिक से निपटने के लिए सरकार ने सेना और पुलिय को तैयार रहने का जारी आदेश भी दे दिया है ।
केपटाउन मेंतरह-तरह की पाबंदियां आजकल सामान्य है । वहां कम से कम पानी में ज्यादा से ज्यादा नहाना धोना निपटा लेना पड़ता है । दुनिया का कोई खूबसूरत शहर सूखे की वजह से सुर्खिंयों में आ जाए यह दिलचस्प हो सकता है किंतु उससे कहीं अधिक यह खबर भयावह भी है । केपटाउन में घरेलू आपूर्ति लायक भी पानी शेष नहीं है । दरअसल केपटाउन दुनिया के नक्शे मेंउस स्थान पर स्थित है, जहां अटलांटिक और हिंदमहासागर आपस में मिलते है लेकिन यह पानी अत्यधिक खारा होने की वजह से पीने लायक नही है और दैनिक उपयोग के योग्य तो बिल्कुल भी नहीे है । जिस पानी को यहां उपयोग के काबिल बनाया जाता है उसकी बेहद कमी हो गई है । फिर डीसेलीनेशन (गैर लवणीकृत) तकनीक बहुत महंगी भी है ।
विश्व बैंक के अनुसार डीसेलीनेशन तकीनीकी से मिलने वाले पानी की लागत तकरीबन ५५ रुपया प्रति लीटर आती है । विश्व का एक फीसदी पेयजल इसी प्रक्रिया से उपलब्ध हो रहा है । सउदी अरब जहां नदी व झील न के बराबर है, डीसेलीनेटेड वॉटर का दुनिया में सबसे बड़ा स्त्रोत है । ये संसाधन (प्लांट) शहरों मे इस्तेमाल होने वाला ७० फीसदी पानी उपलब्ध करवाते है साथ ही उद्योग धंधों में इस्तेमाल होने लायक जल की आपूर्ति भी करते है । सउदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन उन देशों में शामिल है जो डीसेलीनेटेड वॉटर का इस्तेमाल करते है । दुनिया के तकरीबन १२० देशों  में समुद्री पानी पीने योग्य बनाने वाली तकरीबन सत्रह हजार डीसेलीनेशन वॉटर प्लांट लगे है और करीब करीब बीस करोड़ लोग इन्हीं प्लांट का बना पानी पी रहे है । सउदी अरब अकवीफर्स प्रक्रिया के जरिये जमीन के नीचे जल संग्रहण करके इस तकनीक का इस्तेमाल करता है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक जाहिर हुआ है कि वर्ष २०५० तक चीन और भारत भी जल संकट से जूझ रहे होंगे तब समुद्री खारे पानी को पीने योग्य बनाना ही एकमात्र विकल्प होगा । भारत में भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने भी डीसेलीनेशन तकनीक विकसित की है जिससे समुद्री पानी को पीने योग्य बनाया जा सकता है । इस तरह के कई प्लांटस पंजाब, पश्चिम बंगाल और राजस्थान में काम कर रहे है । भाभा के वैज्ञानिकोंद्वारा विकसित की गई इस तकनीक से प्रतिदिन ६३ लाख लीटर पानी पीने योग्य बनाया जा सकता है । एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष २०३० तक दुनिया के तकरीबन चार अरब लोग पेयजल मेंपरिवर्तित समुद्री खारा पानी इस्तेमाल करने लगेंगे ।
पिछले दिनों भारत पहुंचे इजरायली प्रधानमंत्री बेजामिन नेतन्याहू ने भारत को जो एक डीसेलीनेशन कार भेंट दी थी, वह प्रतिदिन बीस हजार लीटर समुद्री खारा पानी पीने योग्य बनाती है । इस गल मोबाइल डीसेलीनेशन कार का इस्तेमाल कच्छकेरण में तैनात बीएसएफ के जवान करेंगे । यह कार नब्बे किलो मीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से दौड़ सकती है, जिसका स्व-उर्जा स्त्रोत होता है ।
दुनिया की चालीस फीसदी आबादी समुद्री किनारों पर बसती है । जबकि दुनिया के दस में से एक व्यक्ति को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं होता है । यहां तक कि बाजार में बिकने वाली बोतल बंद मिनरल वॉटर भी सौ फीसदी स्वच्छ शुद्ध नहीं है । भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा तय किए चालीस से अधिक मानको में से यहां कई नदारद है । जिनसे कई तरह की परेशानियां पैदा होती है ।
यहां यह जान लेना बेहद जरुरी होता है कि बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियों के उत्पादन भी भारतीय मानक ब्यूरों की अनिवार्य प्रमाणनता के अंतर्गत आते है । अभी उपभोक्ता मंत्रालय के मुताबिक वित्त वर्ष २०१७-१८ दौरान बी आई एस (भारतीय मानक ब्यूरो) ने पानी बेचने वाली पच्चीस कंपनियोंपर छापेमारी करते हुए जो नमूने एकत्रित किए थे, उनमें से ज्यादातर खरे नही रहे । कम से कम ग्यारह मामलों में अदालती फैसलों के बाद इस कंपनियों पर कार्रवाई की गई और कंपनियोंसे भारी जुर्माना भी वसूल किया गया । तात्पर्य यही है कि पानी अमूल्य है और पीने का पानी तो अद्वितीय है । पानी बचाना बेहद जरुरी है । पानी बचेगा तो जीवन बचेगा और जीवन बचेगा तो मनुष्य बचेगा । इसीलिए कहा गया है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा । इसका सबसे ताजा उदाहरण दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन है, जहां जल संकट से पैदा होने वाले जल-दंगोंके लिए पुलिस और सेना को सतर्क कर दिया गया है ।
जलसंकट को लेकर दुनियाभर की हालक चिंताजनक है । दक्षिण अफ्रीका मेंएक लंबे समय से बारिश नही हो रही है । इस वजह से केपटाउन को जल आपूर्ति करने वाले संसाधन बेहद खराब स्थिति में पहुंच गए है । इस शहर को जल-आपूर्ति करने वाले नेशनल मंडेलाबे पर बने बांध में लगभग तीस फीसदी से भी कुछ कम पानी ही अब शेष रह गया है और मौसम वैज्ञानिकों का आकलन है कि हाल फिलहाल यहां बारिश होने की कोई संभावना नही है । प्रबल आशंका बनी हुई है कि जल-आपूर्ति की तमाम पाबंदियों के बावजूद उक्त बांध तीन-चार माह में पूरी तरह से खाली हो जाएगा, अगर ऐसा हुआ हो तो हमारे देखते केपटाउन दुनिया का एकमात्र ऐसा महानगर होगा जिसके पास दैनिक उपयोग और प्यास बुझाने तक का एक बूंद पानी नही होगा ।
केपटाउन की तरह संपूर्ण अरब अमीरात भी विकराल जल-संकट की चपेट मेंआ गया है । यहां जल संकट से निपटने के लिए जो योजना बनाई गई है । वह बेहद ही अजीबो गरीब है । यहां अंटार्कटिका से समुद्र के रास्ते एक हिमखंड खींचकर लाने की कोशिश की जा रही है । हिमखंड को खींचकर लाने की जिम्मेदारी एक निजी कंपनी का सौंपी जा रही है । इस योजना के तहत ८,८०० किलोमीटर दूर यह हिमखंड यहां पहुचेगा फिर उसके टुकडे तोड़ तोड़कर संग्रह किए जाएंगे । अनुमान लगाया जा रहा है कि यह हिमखंड लगातार पांच बरस तक यू एई के लोगोंकी प्यास बुझाएगा । संयुक्त अरब अमीरात की इस अजीबों गरीब योजना से यह अदांज लगाना कठिन होता जा रहा है ।
माना कि शेष दुनिया में जल-संकट की समस्या भले ही अभी इतनी विकराल नहीं हों किंतुदुनिया की एक बड़ी आबादी पानी की विकरालता से परेशान तो हो रही है । एक आकलन के अनुसार दुनिया की एक अरब सेअधिक आबादी को आज भी पीने का साफ पानी नहींमिलता है जबकि कम से कम तीन अरब लोग वर्ष मेंकम से कम एक महीना तो पानी की कमी का सामना करते ही है । खबरें बता रही है कि वर्ष २०२५ तक दुनिया की दो तिहाई आबादी जलसंकट की गिरफ्त में आ जाएगी ।
भारत की स्थितियां भी कोई कम दयनीय नहीं है । देश के अधिकतर कुआें, तालाबों, बांधों ने पिछले दो दशक में तेजी से पानी खोया है । दो दशक पूर्व तक जहां पानी २५३० फीट जमीन के नीचे पानी उपलब्ध था वहां वह २००-३०० फीट तक नीचे उतर चुका है । कहीं-कहीं तो इस गहराई ने भी साथ छोड़ दिया है । देश की लगभग तीन सौ नदियों खतरे की सूचना दे चुकी है । हिमालय से निकलने वाली साठ फीसदी जल धाराएं सूखने के कगार पर है जिनमें गंगा और ब्रम्हपुत्र जैसी बड़ी नदियां शामिल है । वर्ष २०१६ में देश के नौ राज्यों के तकरीबन पैंतीस करोड़ लोग जल संकट से प्रभावित हुए थे । आशंका है कि भारत में भी केपटाउन जैसे हालात हो सकते है।***
प्रदेश चर्चा
उत्तराखंड : धधकते जंगल कब बुझेंगे ?
सुरेश भाई
उत्तराखंड में वनों का बचाना एक बड़ी चुनौती है । पिछले १६ सालों के आंकडे बतात है कि इस अवधि में राज्य में हर साल औसतन ४० हजार हेक्टेयर जंगल आग से तबाह हो रहे है । जिससे जैव विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है । आग लगने से न सिर्फ राज्य बल्कि दूसरे क्षेत्रों के पर्यावरण पर भी असर पड़ता है । आग के धुएं की धुंध जहां दिक्कते खड़ी करती है, वही तापमान बढ़ने से ग्लेश्यिरों के पिघलने की रफ्तार भी बढ़ती है 
हिमालयी राज्यों में बारिश और बर्फ की कमी से जंगलों की आग थमने का नाम नहीं ले रही है । उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर के जंगलोंमें जनवरी से ही आग की घटनाएं बढ़ जाती है । लम्बे अन्तराल में हो रही बारिश की बूंदे ही आग को काबू करती है । इस बार केवल उत्तराखण्ड में ही १२४४ हेक्टेयर जंगल जल गये है । पिछले १६ वर्ष में यहां के लगभग ४० हजार हैक्टेयर जंगल आग से तबाह हो चुके है । चिन्ता की बात तो यह है कि वन विभाग प्रति वर्ष वनों में वृद्धि के आंकड़े दर्ज करता है । लेकिन आग के प्रभाव के कारण कम हुए वनों की सच्चाई सामने नही लाता है ।
देश के अन्य भागोंके जंगल भी आग की चपेट में आये है । जिसका एक अनुमान है कि प्रतिवर्ष लगभग ३७.३ लाख हेक्टेयर जंगल आग से प्रभावित होते है । कहा जाता है कि इन जंगलों को पुर्न स्थापित करने के नाम पर हर वर्ष ४४० करोड़ से अधिक खर्च करने होतो है । उत्तराखण्ड वन विभाग ने तो पिछले१० सालो मे आग की घटनाआें का अध्ययन भी कराया है, जिसमें बताया गया ३.४६ लाख हेक्टेयर आग के लिये संवेदनशील है । ताजुब्ब तो तब हुआ कि जब उत्तरकाशी वन विभाग ने एक ओर वनाग्नि सुरक्षा पर बैठकें की है, दूसरी ओर फरवरी में कंट्रोल बर्निंग के नाम पर ३ हजार हेक्टेयर जंगल जला दिये है ।
उत्तराखंड में वनो में आग से जैव विविधता पर सर्वाधिक असर पड़ रहा है और तमाम जड़ी बूटियां विलुिप्त् के कगार पर पहूंच गई है । वन्यजीव स्थान बदल रहे है ।
देश भर के पर्यावरण संगठनोंने कई बार माँग की है कि `वनों को गांव को सौंप दो ।' अब तक यदि ऐसा हो जाता तो वनों के पास रहने वाले लोग स्वयं ही वनों की आग बुझाते । वन विभाग और लोगों के बीच में आजादी के बाद अब तक सामंजस्य नहीं बना है । जिसके कारण लाखों वन निवासी, आदिवासी और अन्य लोग अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय पार्कोंा के नाम पर बेदखल किये गये है । जिन लोगो ने पहले से ही अपने गांव में जंगल पाले हुए है, उन्हे भी अंग्रेजों के समय से चली आ रही व्यवस्था के अनुसार वन विभाग ने अतिक्रमणकारी मान रखा है । वे अपने ही जंगल से घास, लकड़ी व चारा लाने में सहजता महसूस नहीं करते है । यदि वनों पर गाँवों का नियन्त्रण होता और वन विभाग उनकी मदद करता, तो वनों को आग से बचाया जा सकता है ।
आमतौर पर माना जाता है कि वन माफियाओ का समूह वनों में आग लगाने के लिये सक्रिय रहता है । वे चाहे वन्य जीवों के तस्कर हो अथवा असफल वृक्षारोपण के सबूतों के नाम पर आग लगायी जाती है । इसके अलावा वनों को आग से सूखाकर सूखे पेड़ों के नाम पर वनों के कटान का ठेका भी मिलना आसान हो जाता है ।
वनों पर ग्रामीणों को अधिकार देकर सरकार को वनाग्नि नियंत्रण में जनता का सहयोग हासिल करना चाहिए । अकेले उत्तराखण्ड का उदाहरण ले तो १२०८९ वन पंचायत के सदस्योंकी संख्या १ लाख से अधिक है । इनका सहयोग अग्नि नियंत्रण में क्यों नहीं लिया जा रहा है ?
हर वर्ष करोड़ो रुपए के पौधारोपण करने की जितनी आवश्यकता है उससे कहीं अधिक  जरुरत वनों को आग से बचाने की है । वनों पर ग्रामीणों को अधिकार देकर सरकार को वनाग्नि नियंत्रण में जनता का सहयोग हासिल करना चाहिए । गाँव के हक-हकूक भी आग से समाप्त् हो रहे है । बार-बार आग की घटनाआेंके बाद भूस्खलन की सम्भवानाएँ अधिक बढ़ जाती है । पहाड़ों में जिन झाड़ियों, पेड़ो और घास के सहारे मिट्टी और मलबे के ढेर जमे हुए रहते है, वे जलने के बाद थोड़ी सी बरसात में ही सड़कों की तरफ टूट कर आने लगते है । पहाड़ी राज्यों में इसके अनगिनत उदाहरण है कि आग लगने के बाद तेज बारिश ने बाढ एवं भूस्खलन की संभावनाएं बढ़ायी है, जो आने वाली वर्षा में फिर तबाही का कारण बन सकती है ।
चिन्ता भविष्य की है कि क्या यों ही जंगल जलते रहेंगे या स्थानीय महिला संगठनों, पंचायतों को वन अधिकार सौंपकर आग जैसी भीषण आपदा से निपटेंगे । वन विभाग के पास ऐसी कोई मैन पावर नहीं है  कि वे अकेले ही लोगोंके सहयोग के बिना आग बुझा सकें ।***
पर्यावरण परिक्रमा
सस्ते वाहनों की होड़ से बढ़ा वायु प्रदूषण
विश्व में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों में ५१ फीसदी मौतें केवल भारत और चीन में हो रही है । भारत में वायु प्रदूषण दिल्ली और आसपास के क्षेत्रो तक सीमित न रहकर पूरे देश को गिरफ्त में ले चुका है । शायद ही कोई राज्य या शहर हो जो विश्व स्वास्थ संगठन के वायु प्रदूषण के मानक पर खरा उतरता हो । वायु प्रदूषण मेंवाहनों से निकलने वाले सल्फर व नाइट्रोजन के ऑक्साइड मुख्य भूमिका निभाते है ।
वायु प्रदूषण का स्तर भले ही परिस्थितियां अनुकूल होने पर सुधर जाता हो लेकिन, मानव शरीर पर उसका असर लंबे समय तक रहता है । इसलिए तात्कालिक और दीर्घकालिन दोनों उपायों की जरुरत है । राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने दस साल पुराने डीजल और पंद्रह साल पुराने पेट्रोल वाहनों के प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया । लेकिन, सस्ते वाहन लाने की होड़ में आ रहे घटिया वाहनों के चलते यह कितना उचित है? वैसे भी वायु प्रदूषण के लिए केवल पुराने वाहन जिम्मेदार नहींबल्कि खराब सड़के और जाम की समस्या भी जिम्मेदार है । अगर किसी वाहन का रखरखाव ठीक हो तो १५-२० साल पुराना होने पर भी वह प्रदूषण स्तर के तय मानक पर खरा उतर सकता है । दूसरी तरफ रखरखाव ठीक न होने अथवा घटिया होने पर ४-५ साल पुराने वाहन भी तय सीमा से अधिक प्रदूषण करने लगते है ।
ऐसे में व्यापक स्तर पर अत्याधुनिक व्हिकल फिटनेस सेंटर खोलने की जरुरत है । हर सेंटर पर टेक्नीशियन की तैनाती हो, जो ठीक तरीके से वाहन की फिटनेस जांच करके निष्पक्षता के साथ फिटनेस सर्टिफिकेट जारी कर सकें । अगर ४-५ साल पुराने वाहन भी फिटनेस के मानको पर खरे न उतरे तो उनका फिटनेस सार्टिफिकेट रिन्यू न किया जाए । ऐसा करने से प्रदूषण में कमी तो आएगी ही साथ में आज के प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में सुरक्षा मानकों को ताक पर रखकर अपने ग्राहकों को एक-दूसरे से सस्ते वाहन उपलब्ध कराने की होड़ में लगी वाहन निर्माता कम्पनियां भी उच्च गुणवत्ता के वाहन बनाने के लिए बाध्य होगी ।
मलेरिया से मुक्ति बेहद जरुरी
मलेरिया आज भी भारत के लिए बड़ी समस्या बना हुआ है । कहने को इससे निपटने के लिए तमाम सरकारी कार्यक्रम और अभियान चलते रहे, पर सब बेनतीजा साबित हुए । यह गंभीर चिंता का विषय है । राजधानी दिल्ली में साल के आठ महीने में मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी मच्छर जनित बीमारियों के मामले बड़ी संख्या में सामने आते है । दूसरे राज्यों में भी हर साल ये बीमारियां फैलती है । मच्छरों से होने वाली इन बीमारियों की रोकथाम में सरकारें नाकाम रही है । मलेरिया को लेकर भारत की स्थिति आज भी गंभीर है ।
भारत आज भी दुनिया के उन पंद्रह देशों में शुमार है, जहां मलेरिया के सबसे ज्यादा मामले आते है विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की २०१७ की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में भारत चौथा देश है, जहां मलेरिया से सबसे ज्यादा लोग मरते है । दुनिया में हर साल मलेरिया से होने वाली कुल मौतों में सात फीसद अकेले भारत मेंहोती है । नाइजीरिया पहले स्थान पर है, जहां मलेरिया सबसे बड़ी जानलेवा बीमारी बना हुआ है । ज्यादातर विकासशील देशों (जिनमें अफ्रीकी देशों की संख्या ज्यादा है) में मलेरिया से होने वाली मौतों का आंकड़ा आज़ भी चौंकाने वाला है ।
सवाल है कि भारत मच्छर जनित बीमारियों, खासकर मलेरिया से निपट क्यों नही पा रहा है ? मलेरिया के खात्मे के लिए बने कार्यक्रम और अभियान आखिर क्यों ध्वस्त होते जा रहे है ? ऐसी नाकामियां हमारे स्वास्थ्य क्षेत्र की खामियों की ओर इशारा करती है । ये नीतिगत भी है और सरकारी स्तर पर नीतियों के अमल को लेकर भी । मलेरिया उन्मूलन के लिए जो राष्ट्रीय कार्यक्रम बना था, वह सफल नहींहो पाया ? इस पर अमल के लिए सरकारोंको जो गंभीरता दिखानी चाहिए थी, उसमें कहीं न कहीं कमी अवश्य रही । बता दें कि सरकार का मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम कामयाब नहीं हो पाया था, जो वर्ष २०१३ में बंद कर दिया गया । फिर सवाल है कि भारत आखिर मलेरिया से मुक्ति कैसे पाएगा ?
  डब्ल्यूएचओ ने दुनिया से मलेरिया का खात्मा करने के लिए २०३० तक की समय सीमा रखी है । भारत को भी अगले बारह साल से इस लक्ष्य को हासिल करना है । स्वच्छता के मामले मेंभी भारत की स्थिति दयनीय है । साफ-सफाई को लेकर लोगों में जागरुकता की बेहद कमी है । दूसरी ओर स्थानीय प्रशासन और सरकारों की लापरवाही भी इसके लिए जिम्मेदार है । मलेरिया को कैसे भागाएं, यह हमें श्रीलंका और मालदीव जैसे छोटे देशों से सिखना चाहिए । श्रीलंका ने जिस तरह मलेरिया का खात्मा किया वह पूरी दुनिया के लिए मिसाला है । श्रीलंका ने मलेरिया खत्म करने के लिए देश के कोने-कोने तक जागरुकता अभियान चलाया, मोबाइल मलेरिया क्लीनिक शुरु किए गए और इन चल-चिकित्सालयोंकी मदद से मलेरिया को बढ़ने से रोका गया । भारत में पल्स पोलियो जैसा अभियान पूरी तरह सफल रहा, तो फिर मलेरिया के खिलाफ हम जंग क्यों नही जीत सकते?
घरेलू गाय ही पृथ्वी पर सबसे बड़ा स्थलीय स्तनधारी होगा
एक अध्ययन के अनुसार यदि भविष्य में बड़े आकार वाले और विलुप्त्प्राय: जीवों का अस्तित्व नहीं रहा तो आने वाले २०० वर्षो में घरेलू गाय पृथ्वी पर सबसे बड़ी स्थल स्तनधारी जीव रह जाएगी । अमेरिका में न्यू मैक्सिको विश्वविद्यालय के नेतृत्व में शोधकर्ताआें ने पाया कि स्तनधारी जैव विविधता का नुकसान एक प्रमुख संरक्षण चिंता है, जो कम से कम १२५००० वर्षो तक चलने वाली लंबी अवधि की प्रवृत्ति का हिस्सा है । एक अध्ययन के अनुसार बड़े आकार वाले स्तनधारी जीवोंपर मनुष्य के प्रभाव से इन जीवोंके अफ्रीका से बाहर चले जाने का अनुमान लगता है । इसका मतलब यह है कि हाथिया, जिराफ और दरियाई घोड़ों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा । न्यू मैक्सिको विश्वविद्यालय के  फेलिसा स्मिथ ने कहा `सबसे चौंका देने वाली खोजों में से एक यह थी कि १२५००० साल पहले, अफ्रीकामें स्तनधारियों का औसत शरीर का आकार पहले से ही अन्य महाद्वीपों की तुलना में ५० प्रतिशत छोटा था ।' स्मिथ ने कहा - `हमे संदेह है कि इसका मतलब यह है कि पुरातन मनुष्यों ने पइले से ही स्तनधारी विविधता और जीवों के शरीर के आकार को प्रभावित किया था ।'
शोधकर्ताआेंने पाया कि जीवों के शरीर के आकार में गिरावट से प्रत्येक महाद्वीप पर समय के साथ ही सबसे बड़ी प्रजातियों के अस्तित्व को खतरा है कि और यह अतीत तथा वर्तमान दोनोंमें मानव गतिविधि की एक बानगी है । अध्ययन के अनुसार यदि भविष्य में यही प्रवृत्ति जारी रही तो शोधकर्ताआें ने चेताया है कि आने वाले २०० वर्षों में घरेलू गाय पृथ्वी पर सबसे बड़ा स्थलीय स्तनधार हो सकता है । 
म.प्र. के शहर लील गए २६० गांव 
भले कोई भारत को गांवो का देश होने का दावा करे, लेकिन बदलते समय के साथ यह गांव तेजी से शहरोंके शिकार बन रहे है । वजह, प्रदेश सरकार मूलभूत सुविधाआेंसे नागरिकों को जोड़ने के नाम पर तेजी के साथ गांवोंका विलय नगरीय निकायों में कर रही है । अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में हर साल ५२ गांवों का अस्तित्व समाप्त् हो रहा है ।
मध्यप्रदेश में २२ हजार ८२७ ग्राम पंचायतों के अधीन लगभग ५४ हजार से अधिक गांव अस्तित्व में है । लेकिन समय के साथ बढ़ते शहरीकरण के चलते इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है । अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बीते पांच सालोंमें प्रदेश के २६० गांवों को शहर लील गए । सरकार द्वारा भले ही यह कवायद नगर निगम, नगर पालिका परिषद और नगर पंचायतों के पुर्नगठन के नाम पर की गई है । लेकिन जिस तरह आबादी का बोझ शहरोंमें बढ़ रहा है शेष बचे गांवों पर उनके अस्तित्व का संकट मंडराने लगा है ।
जानकारी के अनुसार वर्ष २०१३ से २०१७ के बीच प्रदेश के ५ नगर निगमों के पुनर्गठन की कवायद में१४८ गांव समाप्त् कर दिए गए । इनमें छिंदवाड़ा के २४, मुरैना के २१, जबलपुर के ५६, इंदौर के २८ और भोपाल के २० गांव शामिल है । इसमेंनगर पालिका परिषदोंके लिए खत्म किए गए ८१ गांव शामिल नहीं है ।
गांवों को भले ही विकास के नाम पर शहरों में समाहित कर दिया गया, लेकिन जानकर हैरानी होगी, कि ये अभी भी विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर है । न तो यहां पर मूलभूत सुविधाआें के नाम पर सड़क, पानी और प्रकाश का समुचित प्रबंध है और न ही कोई दूसरी सहूलियतें ही मिल रहीं है ।
रीवा की सौर ऊर्जा से दौड़ेगी दिल्ली की मैट्रो ट्रेन
म.प्र. में रीवा जिले की गुढ़ तहसील में विश्व का सबसे बड़ा सोलर पावर प्लांट स्थापित हो रहा है, विध्य क्षेत्र के लिये यह गर्व की बात है, पर्यावरण को बिना हानि पहुंचाये दुनिया की सबसे कम दर पर सोलर ऊ र्जा यहां पैदा होगी, ऊर्जा संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण को बल मिलेगा ।
यहां के सोलर प्लांट से राजधानी दिल्ली की मैट्रो रेल दौड़ेगी, ७५० मेगावाट बिजली का उत्पादन के साथ रीवा अल्ट्रा मेगा सौर ऊर्जा संयंत्र विश्व का सबसे बड़ा सौर ऊ र्जा केन्द्र है इसी वर्ष में सितम्बर माह तक सोलर प्लांट तैयार हो जाने की संभावना है ।
परियोजना का विकास सोलर एनर्जी कारर्पोरेशन म.प्र. तथा ऊ र्जा विकास निगम द्वारा किया जा रहा है, बदवार की उजाड़, बंंजर सैकड़ों एकड़ की भूमि में सौर ऊ र्जा का सबसे बड़ा प्लांट लगेगा, यह कभी किसी ने नहीं सोचा था और न ही कल्पना की थी ।
जनवरी २०१८ में प्लांट का भूमि पूजन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया था, ७५० मेगावाट बिलजी पैदा करने वाले इस प्लांट से मात्र २.९७ रुपये प्रति यूनिट की लागत से बिजली का उत्पादन होगा, जो दुनिया में सबसे कम है इसके निर्माण के लिये १५४२ हेक्टेयर भूमि उपलब्ध कराई गई ।             ***
जनजीवन
मुर्गे की बांग और शरीर घड़ी
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
रिकाड्र्स बताते है कि मुर्गे अलसुबह बांग देने का काम सिंधु घाटी सभ्यता के समय से करते आ रहे है ।
शहरों में ज्यादातर लोग रात को सोते समय रोशनी से बचने के लिए पर्दे लगाकर सोते है और सुबह अलार्म बजने पर जगाते है ।
शहरों में हमें सुबह होने की सूचना देने के लिए आस-पास बहुत ही थोड़े पर्यावरणीय संंकेत होते है । लेकिन गांवोंमें लोगों को जगाने का काम मुर्गेंा की बांग करती है । रिकॉड्र्स से पता चला है कि ऐसा सिंधु घाटी सभ्यता (३५०० ई.पू.) से होता आ रहा है । (मज़ेदार बात है कि मुर्गा के लिए अंग्रेजी शब्द कॉक दरअसल कॉकरल का छोटा रुप है । जब कॉकरल बाड़े में किसी समूह का हिस्सा होता है तो इसे रुस्टर कहते है । रुस्ट शब्द स्थायी बसे हुए समूह के लिए प्रयुक्त होता है ।) आम तौर पर हम मुर्गा शब्द का इस्तेमाल करते है जबकि वैज्ञानिक रुस्टर शब्द का ।
मुर्गा बांग क्यो देता है इस पर कई शोध हुए है । मुर्गे की बांग को तमिल में `कुकड़ कू' अंग्रेजी में `कॉक ए डूडल-डू' और जापानी में `को-की- कोक- को' कहा जाता है ।
कुछ पक्षी वैज्ञानिकों ने इस पर अध्ययन किया है कि मुर्गे सुबह-सुबह बांग क्यों देते है । हालांकि चर्चा तो कई सिद्धांतों पर हुई है, लेकिन इसका सही जवाब है कि यह मुर्गे की जैविक घड़ी (पासर्केडियन रिदम) के कारण होता है । यह बात जापान के नागोया विश्वविद्यालय की लैबोरेटरी ऑफ एनिमल फिज़ियोलॉजी (जंतु कार्यिकी प्रयोगशाला) के वैज्ञानिक डॉ. तुसुयोशी शिमूरा और उनके समूह ने दर्शाई है ।
उन्होने विभिन्न परिस्थितियोंमें मुर्गे की बांग को रिकार्ड किया । सबसे पहले उन्होने मुर्गोंा को १२ घंटे पूर्व प्रकाश और १२ घंटे मंद प्रकाश की परिस्थिति में रखा और इसके बाद लगातार मंद प्रकाश की स्थिति मेंरखा । पहली परिस्थिति में मुर्गेंा ने सूर्योदय के लगभग २ घंटे पहले (यानी उषाकाल में) ही बांग देना शुरु कर दिया । लेकिन दूसरी परिस्थिति (लगातार मंद प्रकाश) में वे पक-पक करते रहे, और इसका चक्र भी २४ घंटे का था । पर यह पक-पक जल्द ही बंद भी हो गई । इसी प्रकार से शोधकर्ताआें ने जब टार्च का कार की हैड लाइट की मदद से तेज़रोशनी डाली तो मुर्गे ने बांग तो दी लेकिन बहुत ही धीमी और संक्षिप्त्, और वह भी जल्दी ही बंद हो गई ।
मुर्गा एक सामाजिक जंतु है जो समूहों में रहता है । जब समूह में से एक मुर्गा बांग देना शुरु करता है तो दूसरे मुर्गे भी बांग में बांग मिलाने लगते है हालांकि वे थोडी कमज़ोर बांग देते है और थोड़ी विलंब से । ऐसा प्रतीत होता है कि बांग देने का मतलब अपने इलाके की घोषणा करना है ताकि कोई बाहरी जीव उस इलाके मेंघुसने की ज़ुर्रत न करे । शिमुरा के दल ने इस बात का भी अध्ययन किया कि ऐसा क्यों होता है कि जब एक मुर्गा बांग देना शुरु करता है तो बाड़ के बाकी साथी भी उसका साथ देने लगते है । उन्होनेंपाया मुर्गो के बाड़े में जो सबसे पहले बांग देता है वह प्रतिष्ठा के क्रम में सबसे उपर होता है और बाकी सारे उसके अधीन होते है ।
बाड़े में जो मुर्गियां होती है वे बांग नहीं देती है । ये केवल थोड़ी पक-पक करती है और वह भी आपस में । हो सकता है कि मुर्गियों में सामाजिक व्यवस्था होती हो और वे भी कोई प्रतिष्ठा क्रम बनाती हो जैसा कि मुर्गोंा के बीच बांग देने का क्रम होता है । क्या मुर्गिंयों में भी जैविक (सर्केडियन) घड़ी अंतनिर्मित होती है ? लगता तो है कि होती है ; विशेष रुप से यह अंडाशय से अंडा निकलने (यानी अंडोत्सर्ग) और अंडा देने के दौरान काम करती है । जैसे नर मुर्गों में उषाकाल के दौरान हार्मोन का स्तर अपन चरम पर होता है, उसी तरह मुर्गियों में गोनेडोट्रापीन हार्मोन अंडोत्सर्ग के दौरान महत्वपूर्ण होता है । और जहां तक इस बात का सवाल है कि क्यों मुर्गियां केवलपक-पक करती है और मुर्गे ज़ोरदार आवाज़में बांग देते है, तो इसका संबंध शायद उनकी शरीर रचना में अंतर से है ।
जेट प्लेन की तरह जोरदार दहाड़
मुर्गे की बांग कितनी तेज़ हो सकती है ? इसका अध्ययन एक बेल्जियन समूह द्वारा किया गया है । उन्होने इस आवाज़ की तीव्रता नापने के लिए एक यंत्र का उपयोग किया तो पाया कि यह उतनी ही तीव्र होती है जितनी किसी जेट प्लेन के पास खड़े होने पर हमारे कानों तक पंहुचती है । ध्वनी की तीव्रता को डेसिबल की इकाई में मापा जाता है । बाड़े में प्रमुख मुर्गेंा की ज़ोरदार बांग की तीव्रता १४३ डेसिबल (लगभग जेट इज़न के बराबर) होती है । हां, इतनी तीव्रता तब होती है जब हम उससे एक फुट की दूरी पर हो । इतनी तीव्रता की ध्वनि हमारे कान के पर्देंा को नुकसान पहुंचा सकती है और हम बहरे भी हो सकते है । गनीमत है कि दूर जाने पर आवाज़की तीव्रता कम होती जाती है । (आम तौर पर बाड़ में मुर्गियां मुर्गोंा से एक मीटर दूरी पर रहती है।)
तुलनाके लिए देखेंकि फुसफुसाहट की तीव्रता ३० डेसिबल, मच्छर की भिनभिनाहट की तीव्रता ४० डेसिबल और व्यस्त ट्रैफिक की आवाज़की तीव्रता ८० डेसिबल होती है और किसी बच्चे की ज़ोर से रोने की आवाज़ १००-१२० डेसिबल होती है । (मेरे एक दोस्त जैकब तरु के यहां जब बेटी हुई तो उसने उसका नाम इसाबेल रखने का सोचा, लेकिन उसके जोरदार रोने की आवाज़ सुनी तो कहा इसका नाम तो डेसिबल होना चाहिए । वैसे उसका असली नाम सुसाना है ।) १३० डेसिबल से ज्यादा की आवाज़ हमारे कानों को नुकसान पहुंचा सकती है ।
इतनी तेज़ आवाज़ में बांग देने के बावजूद मुर्गा खुद बहरा क्यों नही होता ? बेल्जियम शोर्ध कार्य का सारांश करते देते हुए किम्बर्ली हिकॉक बताते है कि मुर्गे के कान की बनावट विशेष होती है । मुर्गे के बांग देने के समय शोधकर्ताआेंने उसके कानोंमें माइक्राफोन बांध दिया । उन्होनें पाया कि बांग देते समय मुर्गे के कानबंद हो जाते है । उनके कानों की एक चौथाई नली पूरी तरह बंद हो जाती है और कान के पर्देको नरम उत्तक आधा ढंक लेते है । 
वास्तव में वे खुद अपनी उंची बांग को पूरी तीव्रता से सुन नही पाते है । उनकी खोपड़ी भी इस तरह के शोर का सामना करने के लिए बनी है । अपनी नैसर्गिक अक्लमंदी के चलते मुर्गियां बांग देने वाले मुर्गे से दूर, रहती है । इस कारण वे इस शोर से प्रभावित नही होती है । और यदि उन्हें बांग का शोर सुनना भी पड़े तो बहुत जल्द ही उनके पुनजर्नन हो जाता है ।
***
खास खबर
भारत फ्रांस में सोलर ऊर्जा समझौता
विशेष संवाददाता द्वारा
वर्ष २०१५ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने मिलकर पेरिस में इंटरनेशनल सोलर एलायंस का गठन किया था । २०१६ में ओलांद ने ही गुड़गांव में पांच एकड़ भूमि पर इंटरनेशनल सोलर एलायंस (आईएसए) के मुख्यालय की नींव रखी थी । इसके बाद से इस संगठन को क्रियाशील करने के प्रयास दोनोंदेशों द्वारा तेज़ी से किए जा रहे थे । अब ११ मार्च २०१८ को इस संगठन के कामकाज की औपचारिक शुरुआत संभव हो सकी है । ११ मार्च २०१८ को फ्रांस के वर्तमान राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रो द्वारा आईएसए के पहले अंतराष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन भारत के राष्ट्रपति भवन में किया गया । इस सम्मेलन में दुनिया भर के कईदेशों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है । इसमें श्रीलंका, बांग्लादेश समेत २३ देशों के राष्ट्राध्यक्ष, १० देशों के मंत्री तथा १२१ देशोंके प्रतिनिधियों सहित वर्ल्ड बैंक, ब्रिक्स बैंक, एडीबी और युरोपियन इंवेस्टमेंट बैंक के अधिकारी शामिल हुए । सभी देशों ने एक साथ मिलकर आने वाले समय में अधिक सौर ऊर्जा उत्पादन करने तथा प्रयोग करने पर सहमति जताई है ।
फ्रांस और भारत के इस संयुक्त प्रयास को आज पूरी दुनिया बड़ी आशा भरी नज़रों से देश रही है । यही कारण है कि आईएसए से बड़ी संख्या में देश जुड़ गए है और इस संगठन ने दुनिया के कईबड़े संगठनोंकी बराबरी कर ली है । इस सम्मेलन मे सौर ऊ र्जा को बढ़ावा देने सहित क्राउड फंडिंग टेक्नोलॉजी ट्रांसफर ग्रामीण विद्युतीकरण, जल आपूर्ति और सिंचाई जैसे मुददों पर विकसित प्रोजेक्ट्स भी चर्चा की गई ।
इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन अवसर पर फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रो ने कहा कि फ्रांस २०२२ तक आईएसए को ५६०० करोड़ रुपए का फंड उपलब्ध कराएगा । इससे पहले भी इस संगठन के गठन के समय २४०० करोड़ देने की घोषणा फ्रांस ने की थी । इस तरह फ्रांस इस एलायंस के कार्य में कुल ८००० करोड़ रुपए लगाने जा रहा है । इसके ज़रिए साल २०३० तक  १००० गीगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है जिसका बाज़ार मूल्य ६५ लाख करोड़ रुपए होगा । इसके माध्यम से अन्य ऊ र्जा स्त्रोतोंपर निर्भरता भी घटेगी । इससे अक्षय ऊ र्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा मिलेगा जो संगठन के सभी देशोंको लाभ पहुंचाएगा ।
चार साल में १७५ गीगावाट बिजली
फिलहाल भारत करीब २० गीगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन कर रहा है । नवीनीकृत ऊर्जा का कुल उत्पादन ५८.३० गीगावाट होता है जो देश के कुल ऊर्जा उत्पादन का १८.५ प्रतिशत हिस्सा है । आईएसए के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत २०२२ तक नवीनीकृत ऊर्जा स्त्रोतोंसे १७५ गीगावट बिजली पैदा करने लगेगा । इसमें सौर ऊर्जा का हिस्सा १०० गीगावाट रहेगा । भारत ने पिछले कुछ सालों में ऊर्जा के किफायती साधनों का प्रयोग किया है । इसके अंतर्गत पिछले ३ साल मेंदेश में २८ करोड़ एलईडी बांटे गए है जिससे २ अरब डॉलर और ४ गीगावाट बिजली की बचत हुई है ।
अक्षय ऊ र्जा के लाभ को देखते हुए ही भारत ने फ्रांस के साथ मिलकर दुनिया के सबसे बड़े अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम की शुरुआत की है । इसके सुफल आने वाले भविष्य में प्राप्त् होंगे । भारत ने २०३० तक ४० प्रतिशत बिजली का उत्पादन गैर जीवाश्म स्त्रोतो से करने का लक्ष्य भी तय किया है ।
इंटरनेशनल सोजर एलायंस
यह कर्क और मकर रेखा के बीच आने वाले देशों का समूह है । इसमें १२१ देश शामिल है । इन देशों में अच्छी धूप पड़ती है । इसलिए सौर ऊ र्जा से यहां बड़े पैमाने पर लाभ हो सकता है । हर साल दुनिया में ऊर्जा से बड़ा पैमाने पर लाभ हो सकता है । हर साल दुनिया ऊ र्जा पर ४५५ लाख करोड़ का खर्च आता है । एक अनुमान के अनुसार यह दुनिया के कुल जीडीपी का करीब १० प्रतिशत है । आईएसए का मकसद सौर ऊ र्जा के उपयोगर को बढ़ावा देना तथा गरीब देशों को कम लागत में सौर ऊ र्जा उपलब्ध कराना है ।
भारत में सौर ऊ र्जा
भारत में सौर ऊर्जा उत्पादन की प्रबल संभावनाएं है । हैंडबुक ऑन सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया के अनुसार, भारत के अधिकांश भाग में एक वर्ष में २५०-३०० दिन धूप मिलती है । इससे प्रतिदिन प्रति वर्ग मीटर ४-७ किलोवाट का सौर विकिरण प्राप्त् होता है । आज भारत में खुला क्षेत्र बड़ी मात्रा में है लेकिन उसके अनुसार सौर ऊ र्जा का उत्पादन नहीं हो पा रहा है । उम्मीद की जा सकती है कि अक्षय ऊ र्जा को बढ़ावा देने के लिए नई-नई परियोजनाएं शुरु होने से अन्य ऊ र्जा स्त्रोतोंपर हमारी निर्भरता काफी हद तक कम हो जाएगी । आज भारत में ३० करोड़ लोग बिजली से वंचित है । विशेषज्ञों का कहना है कि २०३५ तक भारत में सौर ऊर्जा की मांग सात गुना तक बढ़ सकती है । साथ ही अगर भारत में सौर ऊ र्जा का इस्तेमाल बढ़ाया जाए तो इससे जीडीपी दर भी बढ़ाई जा सकती है । इन सभी दृष्टियों से सौर ऊ र्जा को बढ़ावा देना लाभप्रद है ।
***
लघु कथा
अनपढ़ मजदूर
सुश्री प्रज्ञा गौतम
उस दिन बालकनी में से एक दृश्य को देखकर मेरा मन आश्चर्य मिश्रित खुशी से भर उठा । मोहल्ले वालों का शोर सुनकर मैं बालकनी में खड़ी हो गई थी । बालकनी से घर के सामने स्थित छोटा आयताकार पार्क नज़र आता है । पार्क में अब केवल चार बड़े पेड़ बचे है बाकी भाग मेंकार पार्किंग हेतु कांक्रीट हो चुकी है ।
सर्दियोंमें उन पेड़ों की छंटाई कर दी जाती है ताकि रोशनी और धूप ज्यादा मिल सके । हुआ यूं कि छंटाई करने वालों ने पेड़ों की एक तरफ ज्यादा छंटाई कर दी तो पेड़ों के दूसरी तरफ जो घर थे, उनके लोगोंने बाहर आकर लड़ाई शुरु कर दी कि पेड़ हमारे घरो पर गिर जाएंगे । 
वैसे कोई विशेष बात नहीं थी न ही पेड़ गिरने की स्थिति में थे । खैर छंटाई करने वाले दोबारा बुलाए गए । वह मजदूर लड़का लगभग २०-२२ साल का होगा । मैने देखा, उसने कुल्हाड़ी स्पर्श करने के पहले पेड़ को झुक कर नमन किया, हाथ जोड़कर माफी मांगी तत्पश्चात वह पेड़ पर छंटाई करने के लिए चढ़ा । मेरा मन श्रद्धा से भर उठा । कहां यह अनपढ़ मजदूर जो पेड़ों के प्रति इतना संवेदनशील था और कहाँये तथाकथित पढ़े लिखे लोग जो कुछ दिन पूर्व कार-पार्किंग बनवाने के लिए इन पेड़ों को काटने पर तुले थे । इसके बाद हमारे एक जागरुक पड़ौसी के प्रयास से ये पेड़ बच पाए थे ।                     ***
पृथ्वी दिवस पर विशेष
पृथ्वी दिवस सार्थक कैसे हो ?
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
पृथ्वी के निरन्तर बदलते स्वरुप ने नि: सन्देह सोचने पर मजबूर किया है कि महज परम्पराआेंके रुप में पृथ्वी दिवस मनाने से मानव आबादी अपने कर्तव्यों से छुटकारा नहीं पा सकती है ।
सही मायनों में पर्यावरणीय कसौटियों पर खरे उतरने वाले कामों को करके ही पृथ्वी दिवस की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी । वरना वह दिन दूर नहींजब हम पृथ्वी पर अन्तरराष्ट्रीय दिवस मनाने लायक भी पृथ्वी के स्वरुप को नहींरहने दे पाएंगे ।
पृथ्वी दिवस विश्व भर में २२ अप्रेल को पर्यावरण चेतना जाग्रत करने के लिए मनाया जाता है । पृथ्वी दिवस को पहली बार सन् १९७० में मनाया गया था । आजकल विश्व में हर क्षेत्र में बढता प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के रुप में आपदाएं पृथ्वी पर ऐसे ही बढती रही तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तित्व ही समाप्त् हो जाएगा ।
लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाने के उद्देश्य से पहली बार २२ अप्रैल १९७० को पृथ्वी दिवस मनाया गया । प्राकृतिक आपदाआेंसे बचाव के लिए पर्यावरण संरक्षण पर जोर देने की आवश्यकता है । यह धरती हमेंक्या नहीं देती ? वर्तमान समय में पृथ्वी के समक्ष चुनौती बढ़ती जनसंख्या की है । धरती की कुल आबादी आज आठ अरब के निकट पहुंच चुकी है । बढ़ती आबादी पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों पर अधिक दबाव डालती है, जिससे वसुंधरा की नैसर्गिक क्षमता प्रभावित होती है । बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताआें की पूर्ति के लिए पृथ्वी के शोषण की सीमा आज चरम पर पहुंच रही है । जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम से कम करना दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है । आज हमारी धरती अपना प्राकृतिक रुप खोती जा रही है । विश्व मेंबढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकरण एवं शहरीकरण में तेजी से वृद्धि के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विकराल होती जा रही है ।
पृथ्वी को बचाने के लिए हमें मुख्य तौर पर तीन बिंदुआें पर ध्यान देने की जरुरत है - (१) जलवायु परिवर्तन को बारीकी से समझना होगा । और यह समझ केवल वैज्ञानिकों तक सीमित नहीं रहनी चाहिये, आम जन मानस तक इस ज्ञान को पहुंचाने की जरुरत है । (२) खाद्य सुरक्षा हमें अन्न पृथ्वी से ही मिलता है । जिस हिसाब से जनसंख्या बढ़ रही है, उससे आने वाले दिनों में पृथ्वी पर दबाव निसंदेह काफी ज्यादा बढ़ने वाला है । बढ़ती जनसंख्या को हम तभी खाद्यान्न दे सकते है, जब पृथ्वी बची रहेगी । इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है । (३) हमें पानी पृथ्वी से मिलता है पानी के प्रदूषण को कम करने के साथ ही पानी की मात्रा और गुणवत्ता पर भी नजर रखने की जिम्मेदारी लेनी होगी । यह बेहर जरुरी हो गया है । 
मानव अपनी आदिम व्यवस्था से ही अपने पर्यावरण का संरक्षण करता रहा है । इन दिनों मानव और प्रकृति का संबंध सकारात्मक न होकर विध्वंसात्मक ज्यादा होता जा रहा है । ऐसी स्थिति में पर्यावरण का प्रदूषण सिर्फ समुदाय या राष्ट्र विशेष की समस्या न होकर एक सार्वभौमिक चिन्ता का विषय बन गया है । पारिस्थितिकीय असन्तुलन हर प्राणी को प्रभावित करता है अत: यह जरुरी हो जाता है कि विश्व के सभी नागरिक पर्यावरण समस्याआें के सृजन मेंअपनी हिस्सेदारी को पहचाने और इन समस्याआें के समाधान के लिए अपना अपना योगदान दे । आज विश्व में पर्यावरण में असंतुलन गंभीर चिंता का विषय बन गया है । जिस पर अब विचार नहीं ठोस पहल की आवश्यकता है अन्यथा जलवायु परिवर्तन, गर्माती धरती और पिघलते ग्लेशियर मानव जीवन के अस्तित्व को खतरे में डाल देंगे ।
पर्यावरण शिक्षा का पाठ सीखकर पर्यावरण मित्र नागरिक की भूमिका निभाने से ही प्राकृतिक प्रकोपों से बचा जा सकेगा। वर्तमान में स्थिति यह है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली हानिकारक गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा है । मानवीय जरुरतों के लिए विश्वभर में बड़े पैमाने पर वनों का सफाया किया जा रहा है । विकासशील देशों में विकास के नाम पर सड़कों, पुलों और शहरों को बसाने के लिए अंधाधंुध वृक्षों की कटाई की जा रही है । नदियों पर बांध बनाकर नदियों के प्रवाह को अवरुद्ध करने के साथ ही अनियोजित खनन को बढ़ावा दिया जा रहा है । वर्तमान विश्व की पर्यावरण की अधिकतर समस्याआें का सीधा सम्बन्ध मानव के आर्थिक विकास से है ।
शहरीकरण औद्योगिकरण और प्राकृतिक संसाधनोंके विवेकहीन दोहन के परिणामस्वरुप पर्यावरण पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है । पर्यावरण अवनयन की बढ़ती दर के कारण पारिस्थितिकी तंत्र लड़खड़ाने लगा है । आज विश्व के सामने ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं चुनौती के रुप मेंखड़ी है । औद्योगिक गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन और वन आवरण में तेजी से हो रही कमी के कारण ओजोन गैस की परत का क्षरण हो रहा है । इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव स्थानीय प्रादेशिक और वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तनों के रुप में दिखलाई पड़ता है । सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि के कारण विश्व के हिमनद पिघलने का प्रभाव महासागर में जलस्तर के बढ़ने में दिखाई देता है । यदि तापमान में ऐसी ही बढ़ोतरी होती रही तो महासागरों का बढ़ता हुआ क्षेत्रफल और जल स्तर एक दिन तटवर्ती स्थल भागों और द्वीपों का जलमग्न कर देगा ।
हर व्यक्ति अपने पर्यावरण की एक सक्रिय इकाई है इसलिए यह आवश्यक है कि बेहतर जीवन जीने के लिए अपने पर्यावरण के उन्नयन और अवनयन में वे अपनी जिम्मेदारी को समझे । आज हम दूर दराज गांव से महानगर तक प्लास्टिक कचरे की सर्वव्यापकता से त्रस्त है जगह-जगह पॉलीथीन की थैलियों और प्लास्टिक बोतर वातावरण को प्रदूषित कर रही है इस दृश्य के रचियता हम लोग ही है । पर्यावरण की भवायह होती तस्वीर और पारिस्थितिकी असन्तुलन की समस्या का सामना करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने पर्यावरण के प्रति एक सजग नागरिक का दायित्व निभाना होगा ।
हमें यह नही भूलना चाहिए कि राजस्थान के खेजड़ली ग्राम की अमृता देवी एक सामान्य ग्रामीण महिला थी किन्तु उनकी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता ने राजस्थान के  कई समुदायों में वृक्ष और वन्यजीव प्रेम की नई चेतना जगाई थी । आज आवश्यक हो गया है कि व्यक्ति ही नहीं समुदायों, राष्ट्रों और सम्पूर्ण विश्व, पर्यावरण के प्रति अपनी नीतियों और उनके क्रियान्वयन में एक सह संवेदनशीलता लायें । विश्व के विभिन्न भागों में पर्यावरण के प्रति सजगता धीरे-धीरे बढ़ती हुई दिखाई देने लगी है और लोग पर्यावरण अवनयन के परिणामस्वरुप होने वाली समस्याआें को समझने लगे है ।
यह भी जनभावना पर निर्भर है कि सरकारें इसी पर्यावरण के स्वास्थ्य की कीमत पर भौतिक आर्थिक विकास को जारी रखे या अपनी प्राथमिकताआें पर पुनर्विचार करें । आधुनिक समाज में एक स्वस्थ संतुलित जीवन को एक नागरिक अधिकार के रुप में देखा जाने लगा । औद्योगिक राष्ट्र भी यह स्वीकार करने लगे है कि पारिस्थितिकी दृष्टि से गैर जिम्मेदार होना आर्थिक रुप से भी फायदे का सौदा नहीं है । आज जरुरत इस बात की है कि सरकारे पर्यावरण के विभिन्न घटकों के महत्व को समझकर पर्यावरण कानूनों को सख्ती से लागू कराने में अपनी महती भूमिका अदा करे ।
पृथ्वी के निरन्तर बदलते स्वरुप ने नि: संदेह सोचने पर मजबूर किया है कि महज परम्पराआेंके रुप मेंपृथ्वी दिवस मनाने से मानव आबादी अपने कर्तव्यों से छुटकारा नहीं पा सकती । सही मायनों में पर्यावरणीय कसौटियों पर खरे उतरने वाले कामों को करके ही पृथ्वी दिवस की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी । वरना वह दिन दूर नहींजब हम पृथ्वी पर अन्तरराष्ट्रीय दिवस मनाने लायक भी पृथ्वी के स्वरुप को नहीं रहने दे पाएंगे ।
पृथ्वी दिवस के अवसर पर पर्यावरण चेतना के लिए कवि द्वारा कविता में व्यक्त विचार हमारे लिए प्रेरणादायी होंगे, जिसमें कहा गया है -

आकाश में बांह फैलाये,
धरती पर पैर जमाये, 
आदमी का होना,
सिर्फ उसका होना नहींहै ।
भीतर बाहर के,
हवा, पानी आकाश, मिट्टी,
और ताप से वो बनता है,
और वे भी ।
जब नहीं रहेंगे
बाहर हवा, पानी, आकाश,
तब आदमी कहां होगा ?
पर्यावरण की रक्षा,
अपने होने की रक्षा है ।
 ***
ज्ञान विज्ञान
पर्यावरण विनाश की ताज़ा रिपोर्ट
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा २०१२ में जैव विविधता और इकोसिस्टम सेवाआें के संदर्भ में विज्ञान-नीति सम्बंधी पैनल का गठन किया गया था । इस पैनल ने तीन वर्षोंा के अध्ययन के बाद हाल ही मेंअपनी पांच रिपोट्र्स प्रस्तुत कर दी है । अध्ययन के अंतर्गत अफ्रीका, अमेरिका, युरोप, मध्य एशिया तथा एशिया-प्रशांत क्षेत्र मेंजैव विविधता ह्रास का आकलन किया गया है और जो तस्वीर सामने आई है, वह काफी निराशाजनक है । रिपोर्ट को तैयार करने में १०० देशों के ५०० वैज्ञानिक शामिल थे ।
पैनल के अध्यक्ष रॉबर्ट वॉटसन ने बताया है कि प्रजातियों की विलुिप्त् की दर प्राकृतिक दर से १००० गुना ज्यादा है । यानी प्रजातियां हज़ार गुना तेज़ी से गुम हो रही है । इसका असर मनुष्योंपर हुए बिना नहीं रहेगा । समूह की रिपोर्ट मार्च में आयोजित बैठक में प्रस्तुत की गई । इस बैठक में १२० सदस्य राष्ट्रों ने शिरकत की थी । रिपोर्ट के मुताबिक युरोप और मध्य एशियय में२८ प्रतिशत प्रजातियों पर विलुिप्त् का संकट मंडरा रहा है ।
प्रजातियों पर संकट के अलावा रिपोर्ट में भुमि की क्षति का भी अनुमान पेश किया जाता है । रिपोर्ट का मत है कि भूमि की सेहत आज काफी नाज़ुक हालत मेंहै और इसका असर ३.२ अरब लोगों की आजीविका पर हो सकता है । पारिस्थितिक तंत्र के विनाश से पर्यावरणीय उत्पादों व सेवाआें की उपलब्धता में कमी आने की आशंका है - जैसे खाद्य व औषधियां । भविष्य में इनकी उपलब्धता में कमी आने की आशंका है - जैसे खाद्य व औषधियां । भविष्य में इनकी उपलब्धता तेज़ी से घटेगी । इनमें भी सबसे ज़्यादा नुकसान नम-भूमि तंत्रों का हुआ है । वर्ष १९०० के बाद से कम से कम ५० प्रतिशत नम-भूमियां तबाह हो गई है । ऐसा अनुमान है कि अगले ३० वर्षोंा में फसलो की उपज में औसतन १० प्रतिशत की गिरावट आएगी । ऐसा मुख्यत: भूमि की बरबादी और जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा । रिपोर्ट में बताय गया है कि संकट की मुख्य वजह कृषि के बदलते तौर -तरीके  है । युरोप मेंसबसिडी के चलते उर्वरकोंऔर कीटनाशकों का अत्यधिक इस्तेमाल होता है तो पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचा रहा है ।
रिपोर्ट में कुछ सकारात्मक कदमोंकी बात भी की गई है । जैसे एशिया प्रशांत क्षेत्र में २००४ से २०१७ के बीच जमीनी संरक्षित क्षेत्र में १३.८ प्रतिशत की वृद्धि हुई है किंतुसाथ ही यह चेतावनी भी दी गई है मात्र संरक्षित क्षेत्र बनाने से काम नहीं चलेगा ।
इस अंतर्राष्ट्रीय पैनल का मुख्य मकसद ऐसी नीतियों के निर्माण को बढ़ावा देना है जो पर्यावरण, जैव विविधता तथा पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिए अनुकूल हो ।
घरेलू उत्पादों से वायु प्रदूषण का खतरा
हाल ही में यूएस के शहरों मेु वायु प्रदूषण को लेकर हुए शोध के नतीजे कहते है कि हमारे रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाले साबुन, इत्र, रंग और कीटनाशक वगैरह से भी उतना ही वायु प्रदूषण होता है जितना कि वाहनों से होता है । इन नतीजो ने शोधकर्ताआें को भी आश्चर्य में डाल दिया है । 
ओज़ोन के निर्माण में वाष्पशील कार्बनिक यौगिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है और धूल के महीन कण धंुध पैदा करते है जिसके कारण दमा से लेकर हृदय सम्बंधी रोग तक हो सकते है । कारोंऔर ट्रकों से नाइट्रोजन ऑक्साइड के साथ-साथ कई कार्बनिक यौगिक निकल कर हवा में घुल-मिल जाते है और प्रदूषण फैलाते है । किंतु हाल ही मेंसाइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन से पता चला है कि कुछ घरेलू और व्यवसायिक उत्पाद भी वाष्पशील कार्बनिक यौगिक मुक्त करते है ।
घरेलू उत्पादों से होने वाले प्रदूषण सम्बंधी शोध का नेतृत्व कर रही ब्रायन मैकडोनल्ड का कहना है कि सुबह दफ्तर के लिए तैयार होने में जो चीज़ें इस्तेमाल होती है वे सब मेरी कार के बराबर ही प्रदूषण फैलाती है । बायन मैकडोनाल्ड कोलेरोडो स्थित नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन में वायु प्रदूषण शोधकर्ता है ।
वाहनों में प्रदूषण नियंत्रक लगाने से पिछले ५० सालों में वाहनों के कारण होने वाले वायु प्रदूषण का स्तर घटा है, लेकिन धुंध भरे शहरो जैसे लॉस एंजेल्स में धंुध का स्तर फिर भी वैसा ही बना हुआ है । सन् २०१० में वायु के नमूनोंकी जांच में कुछ ऐसे वाष्पशील कार्बनिक यौगिक पाए गए है जो वाहनों द्वारा उत्सर्जित नहीं होते है । वायु में इन यौगिकों का स्तर आशंका से कहीं अधिक था । मैकडोनाल्ड और उनके साथियों ने इन यौगिकों के स्त्रोत का पता लगाने की कोशिश की ।
क्या घरेलू रासायनिक उत्पाद धंुध पैदा करने में अपनी भूमिका निभाते है ? यह जांचने के लिए मैकडोनोल्ड और उनके साथियोंने घर के अंदर और बाहर की हवा के नमूने, नियामक डैटा, और प्रायोगिक परिणाम लिए ।
टीम ने कैलिफोर्निया एअर रिसोर्सेस बोर्ड से रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाले उत्पादों (जैसे साफ सफाई, ड्रायक्लीनिंग, नेल पेंट रिमूवर और प्रिंटिंग स्याही) के रासायनिक संघटन की जानकारी प्राप्त् की । इसके बाद उन्होने इकट्ठे किए गए हवा के नमूनोंमें यौगिकों का विश्लेषण किया और उनका मिलान इन उपरोक्त उत्पादों के यौगिकों से किया । शोधकर्ताआें ने यह भी अनुमान लगाया कि साबुन और सफाई में इस्तेमाल होने वाले उत्पाद पानी के साथ धुलकर नाले में बह जाते है लेकिन उनके वाष्पशील कार्बनिक यौगिक हवा में घुल जाते है ।           अध्ययन की सह-लेखिका जेसिका गिलमैन का कहना है कि ये रासायनिक उत्पाद वाहनों से उत्सर्जित प्रदूषकों से भिन्न है । इन उत्पादों को इस तरह बनाया जाता है कि इनका वाष्पीकरण हो । इन यौगिकों के हवा में घुलने पर कई तरह की क्रियाएं होती है जो उन्हे महीन कणोंमें परिवर्तित कर देती है ।
फ्रेंक गिलिलैंड एक सार्वजनिक स्वास्थ्य शोधकर्ता है । वे वायु प्रदूषण से बच्चों के स्वास्थ्य पर होने प्रभावों पर अध्ययन कर रहे है । उनका कहना है कि यह अध्ययन प्रदूषण नियंत्रण के नए लक्ष्यों की ओर ध्यान अवश्य दिलाता है । लेकिन आज भी वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण जीवाश्म इंर्धनों का दहन है । और हमें इस पर से ध्यान हटाना नहीं चाहिए ।
उंगलियां चटकाने की आवाज़ कहां से आती है ?
उंगलियां चटकाना कई लोगों का शगल होता है । वे तरह-तरह से उंगलियों को चटका सकते है - उंगलियों के जोड़ो को मोड़कर, उंगलियों को खींचकर वगैरह । जब इस तरह से उंगलियों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है तो चट-चट की आवाज़ निकलती है । इस बात को लेकर वैज्ञानिक असमंजस में रहे है कि इस आवाज़ का स्त्रोत क्या है । साइंटिफिक रिपोट्र्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र को देखकर लगता है कि पहेली को सुलझा लिया गया है ।
उंगलियां चटकाने की आवाज़ के स्त्रोंत को समझने में दिक्कत यह रही है कि पूरी क्रिया बहुत तेज़ी से घट जाती है । इस मामले में एक मत यह रहा है कि जब उंगलियों को मोड़ा या खींचा जाता है कि तो हडि्डयों के बीच की तरल भरी जगह में बुलबुले बन जाते है । २०१५ में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि इन बुलबुलों के बनने की वजह से ही आवाज़उत्पन्न होती है । दूसरी ओर, कु छ वैज्ञानिकों का मत रहा है कि आवाज़इन बुलबुलों के फूटनेकी वजह से आती है ।
तो कुछ शोधकर्ताआेंने बात को समझने के लिए गणित का उपयोग किया । उन्होनें उंगलियों के जोड़ों की तरल भरी जगह का विवरण देने के लिए कुछ गणितीय समीकरणें तैयार कीं । इन समीकरणों के आधार पर गणनाएं की गई तो पता चला कि वास्तव में चटकने की आवाज़ बुलबुलों के बनने से नही बल्कि फूटने से पैदा होती है । जब उन्होने `गणितीय' बुलबुलोंपर गौर किया तो पता चला कि उनके फूटने से जो ध्वनि तरंगे निर्मित होती है वे वास्तव मेंउंगलियां चटकाने पर पैदा हुई तरंगों से मेल खाती है ।
यह तो गणितीय हल है, इसे वास्तव में लागू करके देखने पर ही कोई समाधान निकल सकता है । तब तक के लिए इतनी ही कहा जा सकता है कि उंगलियां चटकने में बुलबुलों के बनने या फूटने की भूमिका है ।
कम खाओ, लंबी उम्र पाओ
पहले जंतुओ पर और अब मनुष्योंपर किए गए प्रयोगों से लग रहा है कि थोड़ा कम खाने से आप स्वस्थ रहेंगे और लंबी उम्र जीएंगे । सेल मेटाबोलिज्म नामक शोध पत्रिका में हाल ही में प्रकाशित यह शोध पत्र लगभग ५३ व्यक्तियों पर २ साल तक किए गए एक अध्ययन पर आधारित है ।
इससे पहले कुछ कृमियों, मक्खियों और चूहों जैसे जंतुआें पर प्रयोगों से पता चला था कि यदि कम कैलोरी मिले तो इनकी शरीर क्रियाएं (चयापचय) धीमी पड़ती है और उम्र बढ़ती है । मगर वैसे भी ये जंतु अपेक्षाकृत कम आयु ही जीते है । इसलिए किसी ने भी यकीन से नहींकहा था कि ये परिणाम मनुष्यों पर भी लागू होगें ।
अब यूएस के राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान द्वारा प्रायोजित कैलेरी नामक शोध परियोजना के तहत मनुष्योंपर प्रयोग किया गया है । इसके अंतर्गत ५३ स्वस्थ, मोटापे से मुक्त व्यक्तियोंको शामिल किया गया था । शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि क्या कैलोरी सेवन को कम करके बढ़ाने की प्रक्रिया को धीमा किया जा सकता है । इन्हे दो समूहों में बांटा गया । सारे सहभागी २१ से ५० वर्ष के बीच थे । एक समूह परीक्षण समूह था जिसमे ३४ व्यक्ति थे । इनका कैलोरी सेवन औसतन १५ प्रतिशत कम कर दिया गया । तुलना के लिए बनाए गए दूसरे समूह में१९ लोग थे जो सामान्य भोजन करते रहे । यह सिलसिला २ साल तक चला । इन दो सालों में कई बार इन व्यक्तियों की कई जांचें की गई । जैसे यह देखा गया कि कुल मिलाकर इनके चयापचय की क्या स्थिति है और बुढ़ाने के जैविक चिंह कैसे व्यवहार कर रहे है । बुढ़ाने के लक्षणों में एक खास बात ऑक्सीजन मुक्त मूलकों के कारण होने वाली क्षति होती है । इन लोगों को समय-समय पर एक ऐसे कमरे मे रखा गया जहां इनकी ऑक्सीजन खपत, कार्बन डाई ऑक्साइड के निकास और पेशाब व अन्य रास्तों से नाइट्रोजन के उत्सर्जन का मापन किया जा सकता है । इनसे यह पता चलता है कि शरीर ऊ र्जा उत्पदान के लिए किन पदार्थोंा (कार्बोहाइड्रेट, वसा या प्रोटीन) का उपयोग कर रहा है ।
परीक्षणों से पता चला कि कम कैलोरी पर जी रहे लोग (बेचारे) अन्य की अपेक्षा सोते समय ऊ र्जा का उपयोग ज्यादा कुशलता से करते है । इन लोगों के आधारभूत चयापचय में कमी आई और यह कमी उनके वज़न में हुई कमी (औसतन ९ कि.ग्रा.) की अपेक्षा कहीं अधिक थी । सारे परिणाम दर्शातें है कि कम कैलोरी खपत से चयापचय दर में गिरावट आती है और बुढ़ाने के लक्षण भी कम होते है ।
इस अध्ययन से तो लगता है कि थोड़ा कम खाने से व्यक्ति स्वस्थ रह सकता है और लंबी उम्र जी सकता है । कई शोधकर्ताआें का मनना है कि यही असर बीच-बीच में उपवास करके भी हासिल किए जा सकते है (किंतु वह उपवास वैसा नहींहोगा जैसा लोग आम तौर पर करते है) । अलबत्ता ध्यान रखने की बात यह है कि यह अध्ययन स्वस्थ लोगों पर किया गया है जिनके पास ९ कि.ग्रा. वज़न घटाने को था । लिहाज़ा इसके परिणाम आबादी के एक बहुत ही छोटे हिस्से के लिए प्रासंगिंक होंगे ।     ***
विज्ञान हमारे आसपास
कृत्रिम बुद्धि गढ़ेगी नई दुनिया
मनीष श्रीवास्तव
हाल ही मे सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने कहा कि उन्होने एक ऐसे ऐप का निर्माण किया है जिसमेंकृत्रिम बुद्धि के ज़रिए वे अपने घर के सारे जरुरी काम कर सकते है । इसे उन्होने जारविस नाम दिया है । उन्हेंजारविस को सिर्फ निर्देश देने होते है और वह उनके बताए काम को पल भर में कर देता है ।
इसे कृत्रिम बुद्धि के क्षेत्र मेंमहत्वपूर्ण सफलता कहा जा रहा है । हालांकि इससे पहले भी वैज्ञानिकों ने इस क्षैत्र में कई महत्वपूर्ण प्रयोग करके दिखाए थे लेकिन इस बार जुकरबर्ग ने कृत्रिम बुद्धि के ज़रिए हमारे भविष्य में आने वाले बदलावों से रु-ब-रु करवाया है ।
आज का पूरा परिदृश्य तकनीकी क्रांति से होकर गुजर रहा है । कई मानवीय कार्योंा में मशीनों यंत्रों का उपयोग हो रहा है जो शारीरिक और मानसिक, दोनों कार्यो को बेहद आसानी से सम्पन्न कर रहे है । इन मशीनों को मानव निर्देशों के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है । ये मशीने इस तरह से बनाई जाती है कि वे किसी कार्य विशेष को ही सम्पन्न कर सकती है । मशीन स्वयं के दिमाग से काई निर्णय लेने मेंसक्षम नहीं होती है ।
इसी अवस्था को और विकसित करते हुए वैज्ञानिक मशीनों को स्व-निर्णय लेने वाली स्थिति में पहुंचाने के प्रयास कर रहे है , जिसके लिए आवश्यकता है कृत्रिम बुद्धि की । वैज्ञानिक इस दिशा में कुछ हद तक कामयाब भी हुए है । कृत्रिम बुद्धि मानव सभ्यता के भविष्य को पूरी तरह बदलने की क्षमता रखती है ।
कृत्रिम बुद्धि का इतिहास
यूनान के कई धर्मग्रंथोंमें बुद्धिमान मशीनों के संदर्भ मिलते है । इसके अलावा मानवीय कार्य करने वाली सबसे पहली मशीन चीन मेंउपयोग किए जाने वाले केल्क्युलेटर को माना जाता है । सैद्धांतिक रुप से माना जाता है कि कृत्रिम बुद्धि का आरंभ १९५० के दशक से हुआ था । सन् १९५५ में जॉन मेककार्थी ने सबसे पहले कृत्रिम बुद्धि शब्द दिया था । कृत्रिम बुद्धि के महत्व को ठीक से १९७० के दशक मेंपहचाना गया ।
जापान ऐसा देश रहा जिसने सबसे पहले इस ओर पहल की । उन्होनें सन् १९८१ में जनरेशन नाम से एक योजना की शुरुआत की थी । इसमें सुपर कंप्यूटर के विकास के लिए दस वर्षीय कार्यक्रम की रुपरेखा प्रस्तुत की गई थी । जापान के बाद अन्य देशोंने भी इस ओर ध्यान दिया । ब्रिटेन ने इसके लिए एल्वी नाम का एक प्रोजेक्ट बनाया । युरोपीय संघ के देशों ने भी एक साथ मिलकर एक कार्यक्रम की शुरुआत की थी जिसे एस्प्रिट नाम दिया गया ।
इसके बाद १९८३ मेंकुछ प्रायवेट संस्थाआेंने मिलकर कृत्रिम बुद्धि पर लागू होने वाली उन्नत तकनीकोंजैसे वीएलएसआई का विकास करने के लिए एक संघ की स्थापना की । इस संघ को माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स एण्ड कम्प्यूटर टेक्नालॉजी के नाम से जाना गया । बाद में कृत्रिम बुद्धि के क्षेत्र में हुई आशातीत प्रगति और बेहतर परिणामों को देखते हुए कई बड़ी कंपनियों, जैसे आईबीएम, डीईसी, एटी एण्ड टी ने भी अपने अपने अनुसंधान कार्यक्रमोंकी शुरुआत की । धीरे-धीरे हुए अनुसंधानों से इस क्षेत्र में कई अच्छे परिणाम प्राप्त् होते गए । विशेषकर जापान ने ऐसे रोबोट बनाने में सफलता प्राप्त् कर ली जो घर के कई काम स्वयं कर सकता है ।
कृत्रिम बुद्धि क्या है ?
कृत्रिम बुद्धि को कई विशेषज्ञों ने अपनी तरह से परिभाषित किया है । हबर्ट साइमन के अनुसार `प्रोग्रामोंको बुद्धिमान तब माना जाता है जब वे ऐसा व्यवहार प्रदर्शित करें जैसा व्यवहार मनुष्यों द्वारा किए जाने पर उन्हें बुद्धिमतापूर्ण माना जाएगा' एलेन रिच और केविन नाइट के अनुसार `कृत्रिम बुद्धि इस बात का अध्ययन है कि कंप्यूटर को उन कार्योंा को कर पाने में किस प्रकार सक्षम बनाया जाए जिन्हें इंसान फिलहाल बेहतर ढंग से करते है ।' पैट्रिक विस्टने के अनुसार `कृत्रिम बुद्धि उन विचारोंका अध्ययन है जो कंप्यूटर को बुद्धिमान बनने की क्षमता प्रदान करते है ।'
सरल शब्दों में कहा जाए तो कृत्रिम बुद्धि कंप्यूटर साइंस की एक शाखा है जिसमेंमशीन को कृत्रिम बुद्धि देने का काम किया जाता है । रोबोट सहित अन्य मशीने इसी श्रेणी में आती है । कृत्रिम बुद्धि का उद्देश्य यह है कि मशीन खुद तय करे कि उसकी अगली गतिविधि क्या होगी ।
विशेषज्ञों के अनुसार कृत्रिम बुद्धि के कुछ बुनियादी विशेषताएं होनी चाहिए । पहली, मनुष्यों की तरह विचार करने या कार्य करने में सक्षम हो । दूसरी, तार्किक रुप से विचार करने या कार्य करने में सक्षम हो । समय के साथ कृत्रिम बुद्धि से बनी मशीनोंमें वृद्धि होती गई । इसलिए इन्हें विशेषज्ञों ने तीन श्रेणियों में विभाजित कर दिया है -
१. दुर्बल कृत्रिम बुद्धि - सिर्फ एक ही प्रकार के कार्य को अच्छे से करने में सक्षम होती है और मनुष्यों द्वारा भरी गई जानकारी के आधार पर कार्य करने तक सीमित होती है ।
२. सशक्त कृत्रिम बुद्धि - ऐसी मशीन और मानव मस्तिष्क लगभग एक जैसी बुद्धि रखते है । जो काम मनुष्य कर रहा है वो हर काम यदि रोबोट या मशीन करने लगे तो उस सशक्त एआई की श्रेणी में रखा जाता है ।
३. सिंगुलैरिटी - इस श्रेणी में मशीन स्वयं का निर्माण करने में सक्षम हो जाती है । वे स्वयं के निर्णय के अनुसार कुछ नया आविष्कार भी कर सकती है ।
कृत्रिम बुद्धि का उपयोग
आज इस क्षेत्र में क्रमिक विकास करते हुए लगभग १०० करोड़ डॉलर का बाज़ार तैयार हो गया है । विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष २०२५ तक यह बाज़ार ३५,००० करोड़ डॉलर का हो जाएगा । आज कई क्षेत्रों में इसके माध्यम से कार्य किए जा रहे है । जैसे - 
* विडियों गेम्स इस तरह से बनाए जा रहे है कि कंप्यूटर अपने प्रतिस्पर्धीइंसान के साथ स्वयं की सूझबूझ से खेल सके । इसका सबसे अच्छा उदाहरण शतरंज खेलने वाला कंप्यूटर है । इसे मानव मस्तिष्क की तरह हर अगली चाल सोचने के लिए प्रोग्राम किया गया है । यह प्रयोग इतना सफल रहा है कि मई १९९७ में आईबीएम का एक कंप्यूटर विश्व में सबसे नामी खिलाड़ी गैरी कास्परोव को हरा चुका है ।
* किसी दुर्घटना में अपने शरीर के अंगोंको खो चुके लोगोंके लिए कृत्रिम अंगोंका निर्माण किया जा रहा है । ये कृत्रिम अंग दिमाग मेंलगे सेंसर से संचालित होते है ।
* घरेलू या अन्य कार्योंा को करने के लिए रोबोट तैयार किए जा रहे है । इन्हें इस तरह से प्रोग्राम किया जा रहा है कि ये निश्चित कार्योंा को करते हुए परिस्थितिवश स्वयं निर्णय ले सकें ।
* ऐसी मशीनें बना ली गई है जो किसी लिखे हुए पाठ को इंसान की तरह ही पहचान कर पढ़ सकती है ।
* ऑटो पायलेट मोड पर वायुयान संचालित किए जा सकते है ।
विशेषज्ञों की राय
कृत्रिम बुद्धि के कई लाभ होने के बाद भी विशेषज्ञ इस बात को लेकर सहमत नहीं है कि यह भविष्य के लिए वरदान ही सिद्ध होगी । इस बारे में अपनी राय रखते हुए कंप्यूटर सांइटिस्ट रेमंड कुऱ्जवील का कहना है कि `कृत्रिम बुद्धि हमारी जीवनशैली का हिस्सा है ।' इसे मानव जाति को तबाह करने वाली किसी दूसरे ग्रह की बुद्धिमान मशीन के हमले की तरह नहींसमझना चाहिए । मशीनें पहले से ही कई क्षेत्रों में मानव बुद्धिमता के बराबर काम कर रही है । भविष्य में कृत्रिम बुद्धि मानव बुद्धि से अधिक श्रेष्ठ होगी । तब इस अवस्था को टेक्नालॉजिकल सिंग्युलेरिटी कहा जाएगा । इस बारे में प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग का कहना है कि `एक दिन कृत्रिम बुद्धि अपना नियंत्रण अपने हाथ मेंले लेगी और खुद को फिर से तैयार करेगी । यह लगातार बढ़ती ही जाएगी । चूंकि जैविक रुप से इंसान का विकास धीमी गति से होता है इसलिए वह ऐसी प्रणाली से प्रतियोगिता नहीं कर पाएगा और पिछड़ जाएगा ।'
अनुसंधानों के नतीजों से कह सकते है कि शुरु में लोगों के शारीरिक श्रम की जगह मशीनों ने ले ली थी, अब स्व-चलित मशीनें बहुत कम समय में लोगों के मानसिक कार्य करने लगी है । जैस- जैस कृत्रिम बुद्धि के क्षेत्र में प्रगति होती जाएगा मनुष्य के कार्य मशीनोंद्वारा अधिक बेहतर और सुविधाजनक तरीके से होते जाएंगे । किन्तु इस बात को भी नज़रअंदाज नही किया जा सकता है कि यदि मशीनेंस्वयं निर्णय लेने लगी तो फिर वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हो जाएंगी ।                                      ***