शुक्रवार, 18 मई 2018

ज्ञान विज्ञान
पर्यावरण विनाश की ताज़ा रिपोर्ट
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा २०१२ में जैव विविधता और इकोसिस्टम सेवाआें के संदर्भ में विज्ञान-नीति सम्बंधी पैनल का गठन किया गया था । इस पैनल ने तीन वर्षोंा के अध्ययन के बाद हाल ही मेंअपनी पांच रिपोट्र्स प्रस्तुत कर दी है । अध्ययन के अंतर्गत अफ्रीका, अमेरिका, युरोप, मध्य एशिया तथा एशिया-प्रशांत क्षेत्र मेंजैव विविधता ह्रास का आकलन किया गया है और जो तस्वीर सामने आई है, वह काफी निराशाजनक है । रिपोर्ट को तैयार करने में १०० देशों के ५०० वैज्ञानिक शामिल थे ।
पैनल के अध्यक्ष रॉबर्ट वॉटसन ने बताया है कि प्रजातियों की विलुिप्त् की दर प्राकृतिक दर से १००० गुना ज्यादा है । यानी प्रजातियां हज़ार गुना तेज़ी से गुम हो रही है । इसका असर मनुष्योंपर हुए बिना नहीं रहेगा । समूह की रिपोर्ट मार्च में आयोजित बैठक में प्रस्तुत की गई । इस बैठक में १२० सदस्य राष्ट्रों ने शिरकत की थी । रिपोर्ट के मुताबिक युरोप और मध्य एशियय में२८ प्रतिशत प्रजातियों पर विलुिप्त् का संकट मंडरा रहा है ।
प्रजातियों पर संकट के अलावा रिपोर्ट में भुमि की क्षति का भी अनुमान पेश किया जाता है । रिपोर्ट का मत है कि भूमि की सेहत आज काफी नाज़ुक हालत मेंहै और इसका असर ३.२ अरब लोगों की आजीविका पर हो सकता है । पारिस्थितिक तंत्र के विनाश से पर्यावरणीय उत्पादों व सेवाआें की उपलब्धता में कमी आने की आशंका है - जैसे खाद्य व औषधियां । भविष्य में इनकी उपलब्धता में कमी आने की आशंका है - जैसे खाद्य व औषधियां । भविष्य में इनकी उपलब्धता तेज़ी से घटेगी । इनमें भी सबसे ज़्यादा नुकसान नम-भूमि तंत्रों का हुआ है । वर्ष १९०० के बाद से कम से कम ५० प्रतिशत नम-भूमियां तबाह हो गई है । ऐसा अनुमान है कि अगले ३० वर्षोंा में फसलो की उपज में औसतन १० प्रतिशत की गिरावट आएगी । ऐसा मुख्यत: भूमि की बरबादी और जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा । रिपोर्ट में बताय गया है कि संकट की मुख्य वजह कृषि के बदलते तौर -तरीके  है । युरोप मेंसबसिडी के चलते उर्वरकोंऔर कीटनाशकों का अत्यधिक इस्तेमाल होता है तो पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचा रहा है ।
रिपोर्ट में कुछ सकारात्मक कदमोंकी बात भी की गई है । जैसे एशिया प्रशांत क्षेत्र में २००४ से २०१७ के बीच जमीनी संरक्षित क्षेत्र में १३.८ प्रतिशत की वृद्धि हुई है किंतुसाथ ही यह चेतावनी भी दी गई है मात्र संरक्षित क्षेत्र बनाने से काम नहीं चलेगा ।
इस अंतर्राष्ट्रीय पैनल का मुख्य मकसद ऐसी नीतियों के निर्माण को बढ़ावा देना है जो पर्यावरण, जैव विविधता तथा पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिए अनुकूल हो ।
घरेलू उत्पादों से वायु प्रदूषण का खतरा
हाल ही में यूएस के शहरों मेु वायु प्रदूषण को लेकर हुए शोध के नतीजे कहते है कि हमारे रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाले साबुन, इत्र, रंग और कीटनाशक वगैरह से भी उतना ही वायु प्रदूषण होता है जितना कि वाहनों से होता है । इन नतीजो ने शोधकर्ताआें को भी आश्चर्य में डाल दिया है । 
ओज़ोन के निर्माण में वाष्पशील कार्बनिक यौगिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है और धूल के महीन कण धंुध पैदा करते है जिसके कारण दमा से लेकर हृदय सम्बंधी रोग तक हो सकते है । कारोंऔर ट्रकों से नाइट्रोजन ऑक्साइड के साथ-साथ कई कार्बनिक यौगिक निकल कर हवा में घुल-मिल जाते है और प्रदूषण फैलाते है । किंतु हाल ही मेंसाइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन से पता चला है कि कुछ घरेलू और व्यवसायिक उत्पाद भी वाष्पशील कार्बनिक यौगिक मुक्त करते है ।
घरेलू उत्पादों से होने वाले प्रदूषण सम्बंधी शोध का नेतृत्व कर रही ब्रायन मैकडोनल्ड का कहना है कि सुबह दफ्तर के लिए तैयार होने में जो चीज़ें इस्तेमाल होती है वे सब मेरी कार के बराबर ही प्रदूषण फैलाती है । बायन मैकडोनाल्ड कोलेरोडो स्थित नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन में वायु प्रदूषण शोधकर्ता है ।
वाहनों में प्रदूषण नियंत्रक लगाने से पिछले ५० सालों में वाहनों के कारण होने वाले वायु प्रदूषण का स्तर घटा है, लेकिन धुंध भरे शहरो जैसे लॉस एंजेल्स में धंुध का स्तर फिर भी वैसा ही बना हुआ है । सन् २०१० में वायु के नमूनोंकी जांच में कुछ ऐसे वाष्पशील कार्बनिक यौगिक पाए गए है जो वाहनों द्वारा उत्सर्जित नहीं होते है । वायु में इन यौगिकों का स्तर आशंका से कहीं अधिक था । मैकडोनाल्ड और उनके साथियों ने इन यौगिकों के स्त्रोत का पता लगाने की कोशिश की ।
क्या घरेलू रासायनिक उत्पाद धंुध पैदा करने में अपनी भूमिका निभाते है ? यह जांचने के लिए मैकडोनोल्ड और उनके साथियोंने घर के अंदर और बाहर की हवा के नमूने, नियामक डैटा, और प्रायोगिक परिणाम लिए ।
टीम ने कैलिफोर्निया एअर रिसोर्सेस बोर्ड से रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाले उत्पादों (जैसे साफ सफाई, ड्रायक्लीनिंग, नेल पेंट रिमूवर और प्रिंटिंग स्याही) के रासायनिक संघटन की जानकारी प्राप्त् की । इसके बाद उन्होने इकट्ठे किए गए हवा के नमूनोंमें यौगिकों का विश्लेषण किया और उनका मिलान इन उपरोक्त उत्पादों के यौगिकों से किया । शोधकर्ताआें ने यह भी अनुमान लगाया कि साबुन और सफाई में इस्तेमाल होने वाले उत्पाद पानी के साथ धुलकर नाले में बह जाते है लेकिन उनके वाष्पशील कार्बनिक यौगिक हवा में घुल जाते है ।           अध्ययन की सह-लेखिका जेसिका गिलमैन का कहना है कि ये रासायनिक उत्पाद वाहनों से उत्सर्जित प्रदूषकों से भिन्न है । इन उत्पादों को इस तरह बनाया जाता है कि इनका वाष्पीकरण हो । इन यौगिकों के हवा में घुलने पर कई तरह की क्रियाएं होती है जो उन्हे महीन कणोंमें परिवर्तित कर देती है ।
फ्रेंक गिलिलैंड एक सार्वजनिक स्वास्थ्य शोधकर्ता है । वे वायु प्रदूषण से बच्चों के स्वास्थ्य पर होने प्रभावों पर अध्ययन कर रहे है । उनका कहना है कि यह अध्ययन प्रदूषण नियंत्रण के नए लक्ष्यों की ओर ध्यान अवश्य दिलाता है । लेकिन आज भी वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण जीवाश्म इंर्धनों का दहन है । और हमें इस पर से ध्यान हटाना नहीं चाहिए ।
उंगलियां चटकाने की आवाज़ कहां से आती है ?
उंगलियां चटकाना कई लोगों का शगल होता है । वे तरह-तरह से उंगलियों को चटका सकते है - उंगलियों के जोड़ो को मोड़कर, उंगलियों को खींचकर वगैरह । जब इस तरह से उंगलियों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है तो चट-चट की आवाज़ निकलती है । इस बात को लेकर वैज्ञानिक असमंजस में रहे है कि इस आवाज़ का स्त्रोत क्या है । साइंटिफिक रिपोट्र्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र को देखकर लगता है कि पहेली को सुलझा लिया गया है ।
उंगलियां चटकाने की आवाज़ के स्त्रोंत को समझने में दिक्कत यह रही है कि पूरी क्रिया बहुत तेज़ी से घट जाती है । इस मामले में एक मत यह रहा है कि जब उंगलियों को मोड़ा या खींचा जाता है कि तो हडि्डयों के बीच की तरल भरी जगह में बुलबुले बन जाते है । २०१५ में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि इन बुलबुलों के बनने की वजह से ही आवाज़उत्पन्न होती है । दूसरी ओर, कु छ वैज्ञानिकों का मत रहा है कि आवाज़इन बुलबुलों के फूटनेकी वजह से आती है ।
तो कुछ शोधकर्ताआेंने बात को समझने के लिए गणित का उपयोग किया । उन्होनें उंगलियों के जोड़ों की तरल भरी जगह का विवरण देने के लिए कुछ गणितीय समीकरणें तैयार कीं । इन समीकरणों के आधार पर गणनाएं की गई तो पता चला कि वास्तव में चटकने की आवाज़ बुलबुलों के बनने से नही बल्कि फूटने से पैदा होती है । जब उन्होने `गणितीय' बुलबुलोंपर गौर किया तो पता चला कि उनके फूटने से जो ध्वनि तरंगे निर्मित होती है वे वास्तव मेंउंगलियां चटकाने पर पैदा हुई तरंगों से मेल खाती है ।
यह तो गणितीय हल है, इसे वास्तव में लागू करके देखने पर ही कोई समाधान निकल सकता है । तब तक के लिए इतनी ही कहा जा सकता है कि उंगलियां चटकने में बुलबुलों के बनने या फूटने की भूमिका है ।
कम खाओ, लंबी उम्र पाओ
पहले जंतुओ पर और अब मनुष्योंपर किए गए प्रयोगों से लग रहा है कि थोड़ा कम खाने से आप स्वस्थ रहेंगे और लंबी उम्र जीएंगे । सेल मेटाबोलिज्म नामक शोध पत्रिका में हाल ही में प्रकाशित यह शोध पत्र लगभग ५३ व्यक्तियों पर २ साल तक किए गए एक अध्ययन पर आधारित है ।
इससे पहले कुछ कृमियों, मक्खियों और चूहों जैसे जंतुआें पर प्रयोगों से पता चला था कि यदि कम कैलोरी मिले तो इनकी शरीर क्रियाएं (चयापचय) धीमी पड़ती है और उम्र बढ़ती है । मगर वैसे भी ये जंतु अपेक्षाकृत कम आयु ही जीते है । इसलिए किसी ने भी यकीन से नहींकहा था कि ये परिणाम मनुष्यों पर भी लागू होगें ।
अब यूएस के राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान द्वारा प्रायोजित कैलेरी नामक शोध परियोजना के तहत मनुष्योंपर प्रयोग किया गया है । इसके अंतर्गत ५३ स्वस्थ, मोटापे से मुक्त व्यक्तियोंको शामिल किया गया था । शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि क्या कैलोरी सेवन को कम करके बढ़ाने की प्रक्रिया को धीमा किया जा सकता है । इन्हे दो समूहों में बांटा गया । सारे सहभागी २१ से ५० वर्ष के बीच थे । एक समूह परीक्षण समूह था जिसमे ३४ व्यक्ति थे । इनका कैलोरी सेवन औसतन १५ प्रतिशत कम कर दिया गया । तुलना के लिए बनाए गए दूसरे समूह में१९ लोग थे जो सामान्य भोजन करते रहे । यह सिलसिला २ साल तक चला । इन दो सालों में कई बार इन व्यक्तियों की कई जांचें की गई । जैसे यह देखा गया कि कुल मिलाकर इनके चयापचय की क्या स्थिति है और बुढ़ाने के जैविक चिंह कैसे व्यवहार कर रहे है । बुढ़ाने के लक्षणों में एक खास बात ऑक्सीजन मुक्त मूलकों के कारण होने वाली क्षति होती है । इन लोगों को समय-समय पर एक ऐसे कमरे मे रखा गया जहां इनकी ऑक्सीजन खपत, कार्बन डाई ऑक्साइड के निकास और पेशाब व अन्य रास्तों से नाइट्रोजन के उत्सर्जन का मापन किया जा सकता है । इनसे यह पता चलता है कि शरीर ऊ र्जा उत्पदान के लिए किन पदार्थोंा (कार्बोहाइड्रेट, वसा या प्रोटीन) का उपयोग कर रहा है ।
परीक्षणों से पता चला कि कम कैलोरी पर जी रहे लोग (बेचारे) अन्य की अपेक्षा सोते समय ऊ र्जा का उपयोग ज्यादा कुशलता से करते है । इन लोगों के आधारभूत चयापचय में कमी आई और यह कमी उनके वज़न में हुई कमी (औसतन ९ कि.ग्रा.) की अपेक्षा कहीं अधिक थी । सारे परिणाम दर्शातें है कि कम कैलोरी खपत से चयापचय दर में गिरावट आती है और बुढ़ाने के लक्षण भी कम होते है ।
इस अध्ययन से तो लगता है कि थोड़ा कम खाने से व्यक्ति स्वस्थ रह सकता है और लंबी उम्र जी सकता है । कई शोधकर्ताआें का मनना है कि यही असर बीच-बीच में उपवास करके भी हासिल किए जा सकते है (किंतु वह उपवास वैसा नहींहोगा जैसा लोग आम तौर पर करते है) । अलबत्ता ध्यान रखने की बात यह है कि यह अध्ययन स्वस्थ लोगों पर किया गया है जिनके पास ९ कि.ग्रा. वज़न घटाने को था । लिहाज़ा इसके परिणाम आबादी के एक बहुत ही छोटे हिस्से के लिए प्रासंगिंक होंगे ।     ***

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