रविवार, 15 मार्च 2015



प्रसंगवश
बोरवेल बन रहे है, डेथवेल 
प्रो. अजहर हाशमी, प्रख्यात साहित्यकार, रतलाम (म.प्र.)
बोरवेल के ग े बच्चें के डेथवेल बनते जा रहे हैं । ताजातरीन उदाहरण म.प्र. के जिले आगर-मालवा के ग्राम निपानिया वैजनाथ का है, जहां २६ फरवरी की शाम लगभग पांच वर्षीय अजय पिता कमल बोरवेल में अपनी जिंदगी की जंग हार गया । उसे बचाने के लिए तकरीबन ७३ घंटे रेस्क्यू आपरेशन चला, लेकिन बोरवेल से बच्च टुकड़े-टुकड़े अंग के रूप मेंमिला। प्रदेश में बोरवेल के ग े में बच्च्े के गिरने का यह पहला मामला नहीं है। गतवर्ष १७ दिसम्बर को छतरपुर में सवा साल का मासूम किशन एक खेत के खुले बोरवेल में गिरकर अपनी जान गंवा बैठा था । किशन बोरवेल में १८-२० फीट नीचे तक फंसा हुआ था । यद्यपि उसे ग े से बाहर निकालने  के लिए लगभग २९ घंटे रेस्क्यू ऑपरेशन चला था और १८ दिसम्बर को उसे बाहर भी निकाल लिया गया था, तथापि वह बच नहीं सका था । बहुत समय पहले रतलाम जिले के अंचल में लगभग ऐसे ही मामले में बच्च्े पर मौत के बादल मंडरा चुके हैं। यद्यपि मौत कहकर नहीं आती और दुर्घटना कालबेल का बटन नहीं दबाती तथापि ये दर्दनाक हादसे झकझोरते हुए चार सवाल सामने लाते हैं । 
पहला यह कि ऐसे हादसे क्यों होते है ? दूसरा यह कि बोरवेल के संदर्भ में कानून क्या कहता है ? तीसरा यह कि हमारे जनप्रतिनिधि का इस मामले में रवैया क्या है ? चौथे यह कि कैसे रूकेंगी ये दुर्घटनाएं ? पहले सवाल का जवाब तो यह कि बोरवेल वहीं बनाए जाते हैं, जहां जमीन पथरीली होने के कारण पानी बहुत नीचे होता है । अमूमन ऐसे हादसे उन्हीं बोरवेल में होते हैं, जहां बहुत गहरी बोरिंग करने के बावजूद पानी का स्त्रोत नहीं मिलता और फिर उसे खुला छोड़ दिया जाता है । दूसरे सवाल का जवाब यह है कि बोरवेल के संदर्भ में कानून स्पष्ट ही नहीं दिन के उंजाले की तरह साफ है । सर्वोच्च् न्यायालय का यह आदेश दृष्टव्य है कि किसी भी जमीन अथवा भवन के मालिक को अपने क्षेत्र में बोरवेल एवं ट्यूबवेल की खुदाई करने से पहले उस क्षेत्र के जिला कलेक्टर/ग्राम सरपंच/सक्षम अधिकारी को १५ दिन पूर्व लिखित में सूचित करना अनिवार्य है । बोरवेल-ट्यूबवेल के पास सूचना पट्टी, चारों तरफ कांटेदार तार लगाना/चबूतरा बनवाना, ग ों को भरना तथा बोरवेल पर ढक्कन लगाना अनिवार्य है । तीसरे सवाल का उत्तर यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि का रवैया गैरजिम्मेदाराना न हो यानी बोरवेल के ग े में गिरते बच्च्े को वे मुद्दा बनाएं । चौथे सवाल का जवाब यह है कि कानून का पालन सख्ती से हो । 
सम्पादकीय
ऑक्सीटोसिन शराब को बेअसर करता है 
 ऑक्सीटोसिन एक रसायन है जो हमारे मस्तिष्क में कुदरती तौर पर बनता है और माना जाता है कि यह सामाजिक संबंधों के बनने बिगड़ने में अहम भूमिका निभाता है । मगर सिडनी विश्वविघालय के माइकल बोवेन ने इसी रसायन का एक विचित्र असर चूहों में देखा है। 
जिन चूहों को ऑक्सीटोसिन की खुराक दी गई थी उन्हें शराब का नशा नहीं चढ़ा । ऑक्सीटोसिन की खुराक के बाद शराब पीने वाले चूहे ऐसे घूमते-फिरते और चौकन्ने रहे जैसे उन्होनें शराब पी ही नहीं हो । 
इस असर की जांच एक और प्रयोग से की गई । कुछ चूहों को ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन सीधे दिमाग में दिया गया । उनके दिमाग में इंजेक्शन के जरिए जितना ऑक्सीटोसिन पहुंचाया गया वह प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले ऑक्सीटोसिन से डेढ़ लाख गुना ज्यादा था । कुछ चूहों को वैसे ही रहने दिया गया । अब दोनों तरह के चूहों को शराब पिलाई गई और उनमें शारीरिक गतियों पर नियंत्रण तथा प्रतिक्रियाकी समयबद्ध जांच की गई । पता चला कि ऑक्सीटोसिन ने शराब के असर को एकदम बेअसर कर दिया था - हालांकि उन्हें जो शराब पिलाई गई थी वह एक इंसान के लिए डेढ़ बोतल के बराबर थी । श्री बोवेन का कहना है कि जिन चूहों को ऑक्सीटोसिन और शराब दोनों मिले थे वे उन चूहों से अलग नहीं दिखे जिन्हें कुछ भी नहीं मिला था । 
तो ऑक्सीटोसिन ऐसा क्या करता है ? बात यह है कि दिमाग में शराब को जोड़ने के लिए एक ग्राही होता है, इसे गाबा ग्राही कहते हैं । इस ग्राही से जुड़कर ही शराब अपना रंग दिखाती है । श्री बोवेन की टीम ने पाया कि ऑक्सीटोसिन इन ग्राहियों के दो हिस्सों से जुड़ जाता है जिसकी वजह से अल्कोहल वहां तक पहुंच ही नहीं पाता । 
ऐसा लगता है कि ऑक्सीटोसिन के इस विचित्र असर का फायदा लोग शराब पीकर भी नशे से मुक्त रहने में उठा सकते है । इसका मतलब शायद यह निकाला जाए कि यदि आप ऑक्सीटोसिन ले लेंगे तो नशा करने के लिए आपको ज्यादा शराब पीना होगी । 
वैसी अभी इसानों पर ऑक्सीटोसिन और अल्कोहल के संबंध को देखना बाकी है मगर श्री बोवेन का ख्याल है कि इसका उपयोग शराब की लत छुड़ाने में हो सकता है । आगे वे इसी पर शोध करने का विचार रखते है । 
सामयिक
धर्म, राजनीति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अरूण कुमार त्रिपाठी
अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ रहे खतरे दिनों-दिन नए स्वरूप में हमारे सामने आ रहे हैं । फ्रांस में शार्ली एब्दो पर हुए हमले में मारे गए पत्रकारों के शोक से अभी विश्व उभर भी नहीं पाया था कि आईएसआईएस द्वारा दो जापानी पत्रकारों के सिर कलम कर दिए जाने के समाचार ने पूरे विश्व को दहला दिया है । 
अभिव्यक्ति की आजादी के  आगे आज धर्म की बंदूकें और जाति की तलवारें तन गई हैं । ऐसे में  उदारता भयभीत है । अभिव्यक्ति की वेदी पर मचे इस महाभारत में पश्चिम के कथित धर्मनिरपेक्ष राज्य जहां अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में खड़े होने का दावा कर रहे हैं, वहीं एशियाई राज्य धर्म और जाति की ताकतों के आगे विचित्र किस्म के  समझौते कर रहे हैं । पेरिस के कार्टून वाले पत्र शार्लीं एब्दो से लेकर भारत के तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन के  उपन्यास ``माथोरुभगन`` और डेरा सच्च सौदा के प्रमुख बाबा राम रहीम की फिल्म ``मेसंेजर आफ गॉड`` पर मचे घमासान इसके उदाहरण हैं ।
पेरिस में चालीस देशों के  राष्ट्राध्यक्षों ने जिस तरह से एकजुट होकर शार्ली एब्दो के दफ्तर पर हुए आतंकी हमले का विरोध किया और बाद में शार्ली एब्दो ने धार्मिक कट्टरता पर हंसने की उसी परंपरा को जारी रखते हुए उन्हीं पात्रों पर केन्द्रित अपना अंक फिर से प्रकाशित करने से लगता है कि पश्चिम मेंराज्य और समाज अभिव्यक्ति की पूर्ण आजादी के लिए समर्पित हैं । कई बार उनकी यह लड़ाई धर्म के विरुद्ध उसी प्रकार अतिवादी दिखती है जिस तरह की लड़ाई धर्म के अतिवादी लड़ते  हैं । वे फ्रांस की क्रांति से निकले लोकतांत्रिक मूल्यों को जीते हुए उसी को दुनिया का परम आदर्श बताते हैंऔर उसी में दुनिया को ढालने की कोशिश कर रहे हैं । 
लेकिन दुनिया है कि अपने नए-नए प्रयोगों और नई-नई सनकों से बाज आती ही नहीं क्योंकि मनुष्य विचारों और जीवन में एकरूपता पसंद नहीं करता । विडंबना देखिए कि धर्म की जिस आजादी को यूरोप से निकले साम्यवाद ने प्रतिबंधित किया बाद में यूरोप ने उसी आजादी के लिए साम्यवाद को ध्वस्त कर दिया । साम्यवाद के पतन की शुरुआत पोप के पोलैंड दौरे से हुई और बाद में उस काम के लिए ट्रेड यूनियन नेता और ईसाइयत में धार्मिक आस्था रखने वाले लेकवालेंसा का सहारा लिया गया । इसलिए अभिव्यक्ति के प्रति यूरोप के इस उत्साह को अगर हम तात्कालिक घटनाओं के बजाय ऐतिहासिक संदर्भ में देखेंगे तो विषय ज्यादा स्पष्ट  होगा । यूरोप ने पहले विचारधारा से धर्म को नष्ट करने की कोशिश की और बाद में धर्म से विचारधारा को नष्ट कर दिया । इसी अंर्तसंघर्ष में आज की अभिव्यक्ति की जंग तथा जेहाद और उसके विरुद्ध संघर्ष छिड़ा हुआ है ।
अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशिया तक सभी इसमें उलझे हुए हैं और भारत जैसा बहु सांस्कृतिक देश, जहां अभिव्यक्ति की आजादी की आधुनिक से ज्यादा मध्ययुगीन और प्राचीन परंपरा रही है उसे भी इस विवाद में लपेटा जा रहा है । भारत की आजादी की लड़ाई हालांकि ज्यादा धार्मिक समाज ने लड़ी थी लेकिन उसमेें धार्मिक प्रतीकों का उतना इस्तेमाल नहीं हुआ जितना आज की राजनीति में किया जा रहा है। भारत के विभाजन लिए वे नेता ज्यादा जिम्मेदार थे, जो न सिर्फ नास्तिक थे बल्कि जिन्होंने सारा जीवन धर्म से अलग रहकर राजनीति की और आखिर में धर्म का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए किया । 
भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देशों में अभिव्यक्ति की जितनी विविध संभावनाएं हैं उतने ही खतरे भी हैं । संभावना तब है जब हम उसे अपनी सांस्कृतिक विरासत मानकर उसे सहते हुए उसमें रचनाशीलता तलाशें और खेमेबाजी से बाज आएं । जिस पंूजीवाद से अभिव्यक्ति की आजादी के विस्तार की उम्मीद की जा रही थी और हमारे वित्ता मंत्री अरुण जेटली दावा कर रहे हैं कि प्रौद्योगिकी के विस्तार के साथ अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाना संभव नहीं हैं, जबकि उसी ने इस आजादी पर अंकुश लगाने की सबसे ज्यादा आशंका पैदा की है । नब्बे के दशक में शुरु हुई वैश्वीकरण, सांप्रदायिकता और अस्मिताओं की राजनीति ने इस देश के बौद्धिक, अकादमिक और मीडिया जगत को विमर्श के नए आयाम   दिए । 
धर्म और जाति के बारे में वे तमाम बातें उभर कर आई जो कि या तो महात्मा फूले, पेरियार, आंबेडकर, सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय और गांधी के ग्रंथों में थीं या फिर ग्रामीण समाज के भीतरी पर्तोंा में  थीं । इसी दौरान दलित, स्त्री और आदिवासी साहित्य के विविध आयाम विमर्शोंा में आए और लोगों की संवेदना और समझ में वृद्धि हुई । इस विमर्श का इस्तेमाल पश्चिम के योजनाकारोें और भारत के संकीर्ण बौद्धिकों और नेताओं ने भारत की एकता के साथ ही समाजवाद की उस विचारधारा पर चोट करने के लिए किया जो कि अस्मिताओं को खंडित विमर्श का मानता था । 
इस विमर्श ने स्वाधीनता संग्राम के उन मूल्यों पर भी चोट की जिसने संविधान के अनुच्छेद १९(१) में अभिव्यक्ति की आजादी दी थी और उसके उपधारा (२) में आठ अपवाद बताए थे । इसी दौरान साहित्य के उस विमर्श ने भी जोर पकड़ा कि दलितों पर प्रामाणिक साहित्य दलित ही लिख सकता है, स्त़्रियों पर स्त्री और आदिवासियों पर आदिवासी । क्योंकि वे ही उसकी पीड़ा को समझ सकते हैं । साहित्य (और अभिव्यक्ति) का यह सिद्धांत जहां संवेदना की गहराई बनाने और पक्षपातपूर्ण रचना करने में सहायक हुआ वहीं इसने एक खास तरह की संकीर्णता तैयार की जो बाद में दुधारी तलवार साबित हुई । इस सिद्धांत ने न सिर्र्फ विधर्मी और परजाति के लोगों को निशाना बनाया बल्कि अब वह अपने ही लोगों पर हमलावर होती जा रही है ।
पेरुमल मुरुगन का मामला ठीक यही है । वे तो पश्चिमी तमिलनाडु के कोंगू वेल्लाना समुदाय के हैंऔर उन्होंने पिछली सदी की जिस प्रथा का शोधपूर्ण तरीेके के  जिक्र किया है वह तो उन्हीं स्त्रियों के बारे में है । चंूकि वे वामपंथी रहें हैं और इन दिनों तमिलनाडु मेंं दक्षिणपंथी दल को अपने उभार के  लिए मध्यजातियों की जरुरत है इसलिए मुरुगन के विरुद्ध कोंगू वेल्लाना जाति का आंदोलन खड़ा करके उन्हें खामोश कर दिया । अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद भारतीय समाज भगवान और देवी, देवताओं के मानवीकरण का समाज रहा हैं । इसीलिए यहां राम, कृष्ण और शिव को लेकर लोकजीवन में जितनी हंसी मजाक की बातें हैं उतनी किसी मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के  बारे में नहीं हैं । 
आज हम मानवीकरण की उस प्रक्रिया को पलट रहे हैं और नए-नए ईश्वर बना रहे हैं । यही ईशनिंदा का अपराध नया रूप लेता है। इसकी शुरुआत पूंजीवाद के सबसे उदार रूप कहे जाने वाले नब्बे के दशक से शुरु हुए वैश्वीकरण ने की है । जाहिर है जब हम धर्म और जाति यानी अस्मिताओं की राजनीति और उसके विमर्श का इस्तेमाल पहले समाजवाद को कमजोर करने और बाद में लोकतंत्र को कमजोर करने के लिए करेंगे तो वे अभिव्यक्ति की आजादी के  विरुद्ध तलवार और बंदूक उठाएंगी ही । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे तमाम टीवी चैनलों और अखबारों ने अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा और कुपोषण की खबर लेने और दाभोलकर जैसे लोेगों की मदद करने के बजाय आर्थिक रूप से निराश लोगों का भयादोहन कर अंधविश्वास के आधार पर कमाई करने वालों की ही मदद की है । 
हमने आधुनिक राजनीतिक विमर्श की भाषा को रंगबिरंगा और बिकाऊ बनाने के  लिए राजतिलक, सिंहासन, अवतार जैसे शब्दों और अवधारणाओं से पाट दिया है । रघुवीर सहाय जैसे पत्रकार और कवि ने इस तरह के विमर्श के  प्रति पत्रकारों और लेखकों को आगाह किया था कि अगर हम सामंती विमर्शों की भाषा का प्रयोग करेंगे तो समाज के मानस को वहां उतरने से रोक नहीं पाएंगे । ऐसे में सवाल यह है कि हम कैसा विमर्श करें जिससे बहुसांस्कृतिक समाज में टकराव कम से कम हो और बात भी चलती रहे ? अगर लोकतंत्र को उसके मूल अधिकारों के साथ लंबे समय तक चलाना है तो अस्मिताओं के विमर्श और उसकी राजनीति को व्यापक मानवीय विमर्श और हितों की राजनीति में विलीन करना होगा। हमें अपने बारे में ही सोचने के बजाय पराए हितों के बारे में अधिक सोचना होगा। 
हमारा भूमण्डल 
कैसे होगा, जलवायु संकट का समाधान
जागोडा मुनिक
जलवायु का संकट एवं परिवर्तन से निपटने का सबसे महत्त्वपूर्ण समाधान ऊर्जा के उत्पादन वितरण और हमारे उपभोग मेंनिहित है । आवश्यकता इस बात की है कि विकसित या औद्योगिक देश अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी स्वीकारते हुए एक बेहतर एवं सुरक्षित भविष्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाए । 
विश्व भर के जलवायु वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि हमने ऊर्जा उत्पादन का प्रदूषण भरा तरीका नहीं बदला तो हम जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपट नहीं पाएंगे । विज्ञान का मानना है कि जलवायु परिवर्तन खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है और हम इसका प्रभाव विकराल बाढ़, सूखा, तूफान आदि में देख सकते हैं । विश्वभर के समुदाय व लोग इसे भुगत रह हैं और हमारी सरकार आजीविका को लेकर लापरवाह बनी हुई है । 
वास्तविकता यह है कि हम वर्तमान में जिस तरह से ऊर्जा का उत्पादन, वितरण व उपभोग कर रहे है वह सुस्थिर नहीं है, अन्यायपूर्ण है और समुदायों, कर्मचारियों, पर्यावरण एवं जलवायु को नुकसान पहुंचा रहा   है । ऊर्जा से उत्पन्न उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है तथा यह गरीब देशों के अरबों लोगों को उपलब्ध भी नहीं है । विश्वभर में ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत है तेल, गैस और कोयला और यह समुदाय, उनकी भूमि, उनकी वायु एवं उनके पानी को नष्ट कर रहे हैं । इसके अलावा ऊर्जा के अन्य स्त्रोत जैसे परमाणु ऊर्जा, औद्योगिक कृषि इंर्धन एवं बायोमास, बड़े बांध एवं कचड़े से ऊर्जा उन्पादन भी हानिकारक नहीं   है । इनमें से कोई भी ऊर्जा हमारे भविष्य के लिए सुरक्षित नहीं है । 
इस जलवायु संकट के वास्तविक समाधान मौजूद हैं । इनमें शामिल हैं फॉजिल इंर्धन का उपयोग रोकना, समुदाय आधारित ऊर्जा प्रणाली, कार्बन उत्सर्जन में जबरदस्त कमी, अपनी भोजन प्रणाली में रूपांतरण एवं वनों की कटाई   रोकना । इसे संभव बनाने के लिए आवश्यक है कि ऊर्जा का उत्पादन स्थानीय, एवं लोकतांत्रिक तरीके से एवं मानव अधिकारोंका सम्मान करते हुए हो । इसे संभव बानने के लिए आवश्यक है कि ऊर्जा का उत्पादन स्थानीय आवश्यकताआें के अनुकूल, जलवायु सुरक्षित, वहनीय एवं सबके लिए ऊर्जा तैयार करें । साथ ही आवश्यक है कि ऊर्जा का उत्पादन स्थानीय आवश्यकताआें के अनुकूल, जलवायु सुरक्षित, वहनीय एवं सबके लिए ऊर्जा तैयार करें । साथ ही आवश्यक है कि ऊर्जा पर जीवन का निर्भरता कम करी जाए । साथ ही आवश्यक है कि नई विध्वंसक ऊर्जा परियोजनाआें पर रोक लगे एवं वर्तमान परियोजनाआें को शनै: शनै: बंद किया जाए । इस हेतु व्यापार एवं निवेश के नियमोंमें बदलाव लाकर कारपोरेट प्रभाव कम करना होगा । 
हमारी सरकारें किस तरह इस समस्या से निपटना चाहती हैं ? पिछले २० वर्षोंा से संयुक्त राष्ट्र संघ जलवायु परिवर्तन पर समझौते के लिए प्रयासरत है । लेकिन न तो हम जलवायु परिवर्तन रोक पाए और न ही इसकी रफ्तार धीमी कर पाए । हमारी सरकारेंभी झूठे वादे कर रही हैं रीड यानि वनों के नाश एवं उनके स्तर के गिरने को रोकने से उत्सर्जन को कम करना भी एक जोखिम भरी प्रणाली सिद्ध हो रही है । इस से जलवायु परिवर्तन तो नही रूका बल्कि विपरीत प्रभाव पड़े । इससे गरीब एवं देश समुदाय संकट में पड़ गए और बड़े कारपोरेशन ने खूब पैसा कमाया । हमारी सरकारें भी पिछले २० वर्षोंा में संयुक्तराष्ट्र संघ के माध्यम से किसी शक्तिशाली एवं न्यायपूर्ण जलवायु समझौते पर नहीं पहुंच पाई हैं और सम्मेलन की ओर उठे छोटे-मोटे कदम भी सही दिशा में नहीं हैं । इसका सीधा सा कारण है कि संरासंघ ने इन अनुबंधों को लेकर अत्यधिक समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाया है । इसकी वजह कारपोरेशनों का दबाव है जो कि गंदी ऊर्जा के उत्पादन से लाभ कमा रहा है । गौरतलब है सभी बड़े कारपोरेशन बड़ी मात्रा में प्रदूषण फैलाते हैं । 
दूसरा मुद्दा ऐतिहासिक जिम्मेदारी का है । विश्व के समृद्धतम, विकसित देश ही ऐतिहासिक रूप से कार्बन उत्सर्जन के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं । जबकि इन देशों में केवल १५ प्रतिशत आबादी ही निवास करती है ओर यही देश सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी करते है । जाहिर है जलवायु परिवर्तन के प्रलयंकारी प्रभावों से निपटने के लिए तो सभी के साथ आना होगा । हालांकि चीन, भारत व दक्षिण अफ्रीका मेंभी उत्सर्जन तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन उनका प्रति व्यक्ति अनुपात अभी कम है । दूसरी ओर लीमा में इस वर्ष कार्बन के बाजार को और फैलाने की जबरदस्त कोशिश थी । अमीर देशोंका यह बेफिजूल सा प्रस्ताव है । दूसरी ओर संरासंघ सन् १९९२ से मानव निर्मित एवं खतरनाक जलवायु परिवर्तन को रोकने में प्रयत्नशील है, लेकिन स्थितियां जस की तस हैं । इसकी एक वजह यह है कि विकसित देश इस दिशा में बहुत कम प्रयास कर रहे   हैं । 
आवश्यकता इस बात की है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के भीतर बैठे विकसित देश अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को समझे ओर जलवायु परिवर्तन से निपटने में गरीब देशों की सहायता करें । इसका अर्थ है बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन का हस्तांतरण एवं विकसित देशों की हरित तकनीकों को भी विकासशील देशों को हस्तांतरित किया जाए । इससे अर्थव्यवस्थाएं टिकाऊ बन पाएंगी । साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन पर काबू पाने में मदद मिलेगी लोगों की आजीविका सुरक्षित हो पाएगी अधिक रोजगार सृजित हो पाएंगे एवं सभी के लिए वहनीय ऊर्जा तैयार हो पाएगी । इतने संकट के बावजूद संरासंघ की बातचीत गलत दिशा में जा रही  है क्योंकि विकसित देश अभी भी अपना वायदा पूरा नहीं कर रहे हैं । न्यायपूर्ण समझौते के लिए आवश्यक है कि विज्ञान की उपलब्धता सभी के लिए सुनिश्चित हो वैसे दुनिया भर में लोग पेरिस सम्मेलन को लेकर सचेत हो गए हैं न्यूयार्क में करीब ४ लाख लोग इसे लेकर सड़कों पर आए और सारे विश्व में यही हो रहा है । 
       दुनियाभर के लोग, सामाजिक आंदोलन कार्यकर्ता, युवा, किसान, महिला आंदोलन पेरू में हो रहे जन सम्मेलन में पहुंचे भी थे और उन्होंने सामुहिक तौर पर जलवायु परिवर्तन पर न्यायपूर्ण समझौते की आवाज उठाई । हमें अधिक व्यापक और मजबूत बनना होगा एवं सारी दुनिया के आंदोलनों का जलवायु न्याय को लेकर आवाज उठानी होगी । हमें यह विश्वास करना होगा कि जलवायु संकट का समाधान निकाला जा सकता है और वह हमारे हाथों में है । 
विशेष लेख 
कैसे सफल हो, स्वच्छ भारत अभियान ?
नित्यानंद जयरामन
केन्द्र सरकार द्वारा देश में शुरू किया गया स्वच्छता अभियान अपनी सरलता में जितना असरकारक है, उतना ही समस्यामूलक भी है । अभियान को लेकर बारीकियों के अभाव और नरेन्द्र मोदी के उपभोक्तावादी विकास के एजेंडे व स्वच्छ भारत अभियान के उद्देश्यों के बीच निहित विरोधाभासों ने ही इसमें संदेह के बीज बोए हैं । 
साथ ही कई सवाल भी खड़े किए है, जैसे - भारत के किस हिस्से को स्वच्छ बनाया जाएगा, किसे नहीं ? क्यों स्वच्छ नहीं बनाया जाएगा ? जो गंदगी हम हटाएंगे, उसका क्या करेंगे ? इस गंदगी को हम कहां रखेंगे ?   इत्यादि । 
अगर स्वच्छता अंतिम नतीजा है तो हमें शुरूआत गंदगी से करनी होगी । वर्ष १९६६ में मानव विज्ञानी मैरी डगलस ने अपनी क्लासिक पुस्तक प्युरिटी एण्ड डेंजर में लिखा है - अगर हम गंदगी की अपनी धारणा को स्वच्छता और रोगजनकता में तबदील कर सकें तो हमारे पास गंदगी की वही पुरानी परिभाषा रह जाती है यानी वह पदार्थ जिसे हमें दूर हटाना है .... इससे दो स्थितियां सामने आती है, एक, व्यवस्थित संबंधों का एक सेट और दूसरा, उस व्यवस्था को तोड़ना । 
अगर भारत के संदर्भ में देखें तो स्वच्छता नामक यह शब्द जाति की धारणा के साथ जुड़ा है, जिसे सामाजिक और भौतिक विवेचना में शुद्ध और अशुद्ध के रूप में सजा-संवार दिया गया है । यानी इस संदर्भ में स्वच्छता को तभी हासिल किया जा सकता है जब हम स्वच्छ और अस्वच्छ को अलग-अलग रखकर देखें । 
केवल वस्तु या स्थान ही अस्वच्छ, अशुद्ध, गंदे या भद्दे नहीं होते । जब पिछली बार तमिलनाडु में डीएमके सत्ता में थी, उस समय तत्कालीन स्थानीय प्रशासन मंत्री एम.के. स्टालिन ने सिगारा चेन्नई (सुन्दर चेन्नई) नामक अभियान शुरू किया था । स्वच्छ भारत अभियान की तरह ही किसी स्थान को सुन्दर बनाने के अभियान के खिलाफ दलील देना काफी मुश्किल है । लेकिन सुन्दरता या गंदगी तो देखने वाले की आंखों में होती है । सिंगारा चेन्नई अभियान के बाद भी जहां तक कूड़ा करकट का सवाल है, चेन्नई में कोई अंतर नहीं आया है । आज भी जगह-जगह कूड़े-करकट के ढेर लगे हुए हैं । लेकिन शहर की सुन्दरता के नाम पर झुग्गी बस्तियों में रहने वाले कम से कम २० हजार परिवारों को हटा दिया  गया । उन्हें कन्नगी नगर और सेमेरचेरी जैसे स्थानों पर अस्थायी ठिकानों पर बसाया गया, जो चेन्नई से २० से ३० कि.मी. दूर हैं । गंदगी या कचरा तो महज एक उपमा है, जिसे लोगों पर भी लागू किया जा सकता है । 
अतीत के अनुभवों को देखते हुए कहा जा सकता है कि ऐसे अभियान जिनके नारों के साथ उपशीर्षक या चेतावनियां न हों, वे सतही नारे ही बने रहेंगे । वे अतीत में चले आ रहे अन्याय को बनाए रखेंगे और जातिवाद के आधुनिक रूप को और भी मजबूती के साथ स्थापित करेंगे ।
नरेन्द्र मोदी ने स्कूली बच्चें और सरकारी कर्मचारियों को शपथ दिलाते हुए उन्हें याद दिलाया कि अपने आसपास सफाई बनाए रखना राष्ट्रसेवा के बराबर है - अब हमारा कर्तव्य है कि गंदगी को दूर करके भारत माता की सेवा करें । गंदगी को दूर कर उसे कहां फेंका जाएगा, इसके बारे में कुछ नहींकहा गया है । लेकिन अगर गंदगी का मतलब उसे एक स्थान से हटाना है तो इसका अर्थ है कि उसे उसके सही स्थान पर रखना होगा । 
तमाम आधुनिक संस्कृतियों में सफाई का मतलब केवल इतना ही है कि गंदगी को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर रख देना । पांच दशक पहले सफाई शायद ज्यादा आसान थी । सफाई का मतलब यह था कि जैविक अपशिष्ट पदार्थो, जैसे पेड़-पौधों की पत्तियों इत्यादि को सही स्थान जैसे जमीन के भीतर रख देना ताकि वह खाद में बदल सके । पिछले दो दशकों में भारत गांवों में रहने वाले एक उनींदे राष्ट्र से जागकर बढ़ती शहरी आबादी वाली एक आर्थिक शक्ति में बदल गया है । मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा कि भारतीयों को प्रकृति के साथ एक विशेष संबंध और प्रकृति के प्रति एक खास आस्था है । लेकिन इसके बावजूद इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि चाहे अमरीकी हो या भारतीय, चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम, हम सभी उपभोगवादी धर्म के भी उपासक हैं । 
हम जैसे होते हैं, हमारा कचरा भी वैसा ही होता है । सालों पहले हमारा कूड़ा-करकट अमरीकी कूड़े-करकट से भिन्न हुआ करता   था । लेकिन आज हमारे कूड़े में उन्हीं ब्रांड्स का अपशिष्ट, स्टायरोफोम व प्लास्टिक जैसा नष्ट न होने वाला कचरा बढ़ता जा रहा है जो अमरीकी लैंडफिल्स में भी मिलता है । 
गंदगी तो रूपक है 
चैन्नई शहर से रोजाना ६००० टन से भी अधिक मिश्रित कचरा कोडुनगैयूर में डंप किया जाता है । कोडुनगैयूर कभी वेटलैंड हुआ करता था । गंदगी का यह विशालकाय ढेर आपकी  देखने और सूंघने की इन्द्रियों को पस्त कर देता है । कचरे का यह पहाड़ इतना ऊंचा हो गया है कि आसपास के इलाके में इतनी ऊंची तो कोई इमारत भी नहीं मिलेगी । ऐेसे सभी लोग इस इलाके को छोड़कर जा चुके हैं जिनके पास विकल्प थे । वही लोग बचे हैं जिनके पास या तो रहने का कोई विकल्प नहीं है या आजीविका का कोई दूसरा साधन नहीं है । 
गंदगी के ढेर से निकलने वाले काले कीचड़ के ऊपर एक पैदल पुल बना हुआ है, जिसका इस्तेमाल कचरा बीनने वाले और स्थानीय लोग इस लैंडफिल में पहुंचने के लिए करते हैं । यह जो काले कीचड़ का दलदल नजर आता है, वह किसी समय कैप्टन कॉटन नहर हुआ करती थी । इस डंप साइट के करीब १०० मीटर अंदर एक मजबूत दरवाजा नजर आता है जिस पर मांगलिक चिन्ह बने हुए है । यह दरवाजा एक जीर्ण-शीर्ण घर की मुस्तैदी से सुरक्षा करता प्रतीत होता है जिसकी छत और दीवारें टूट-फूट गई हैं । यह घर कामाच्छी देवी का है जिसका निर्माण उसने इसी कचरे की डम्प साईट में मिली चीजों से किया है । इस मकान से बमुश्किल पांच मीटर की दूरी पर लाल-नारंगी रंग की एक बदबूदार सड़ांध मारती नदी सी बहती नजर आती है । यह तरल उसी सड़ते हुए कचरे के पहाड़ से आता है जो उसके मकान के चारोंओर फैला हुआ है । इसी नदी के दूसरी ओर युद्ध के देवता मुरूगन का एक खंडहर सा मन्दिर बना हुआ है । 
हवा की दिशा कैसी भी हो, कामाच्छी के घर को पूरे साल जहरीले बदबूदार झोंको का सामना करना पड़ता है । उसका घर उन १५ दलित परिवारों के घरों में से एक है जो पनक्करा नगर में रहते हैं । इसे विडंबना ही कहेंगे कि पनक्करा  नगर का अर्थ है धनवान लोगों का नगर । हजारों लोग कचरे की इस साइट पर शहरी उपभोक्ताआें द्वारा फेंकी गई चीजों को छांटकर और उन्हें बेचकर अपनी आजीविका कमाते    हैं । 
डंप साइट के मुख्य प्रवेश स्थल के सामने सड़क के उस पार आर.आर. नगर बसा हुआ है । यहां करीब १५०० परिवार नारकीय स्थिति में रह रहे हैं । तमिलनाडु झुग्गी बस्ती उन्मूलन बोर्ड ने १९९० की शुरूआत में चेन्नई नगर निगम के सफाईकर्मियों के रहने के लिए आर.आर. नगर में मकान बनाए   थे । लेकिन इन कर्मचारियों ने डंप साइट के सामने बने इन मकानों में जाने से इंकार कर दिया । अंतत: यहां उन परिवारों को भेज दिया गया जिन्हें शहर के विकास की प्रक्रिया में जबरदस्ती हटा दिया गया था । यह वही स्थान है जहां शहर का कचरा भी भेजा जाता है । 
डंप साइट पर कचरा बीनने वाला, पनक्करा नगर व आर.आर. नगर में रहने वाले, सफाईकर्मी जिनके लिए सरकार ने डंप साईट के सामने मकान बनाए थे और जिनमें अंतत: शहर के विस्थापितों को बसाया गया, इन तमाम लोगों में अधिकांश लोग अनुसूचित जाति या जनजाति के हैं । कोडनगैयूर एक आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र है जहां बड़ी आबादी अनुसूचित जाति के लोगों की है । 
वर्ष २०१० में एक वैधानिक पर्यावरणीय जनसुनवाई, जो इस डंप साइट के विस्तार और आधुनिकीकरण के मुद्दे पर की गई थी, में चेन्नई के तत्कालीन महापौर ने इस जगह पर कचरा फेंकने के पक्ष में एक अजीबो-गरीब दलील दी थी । उन्होनें कहा था कि जैसे हमें अपने घरों में शौचालयों की जरूरत होती है, वेस ही शहर के लिए भी शौचालय जरूरी है और स्थानीय लोगों को तो इस बात पर गर्व करना चाहिए कि ये अपने यहां डंप साइट बनाकर शहर की सेवा कर रहे हैं । 
कोडुनगैयूर डंप यार्ड अनेक मामलों में अवैध है । इसे तमिलनाडु वायु एवं जल कानून के तहत तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से वैधानिक मंजूरी नहीं मिली है । इसे वर्ष २००० में अधिसूचित नगर पालिका ठोस अपशिष्ट पदार्थ नियमों का खुला उल्लघंन कर संचालित किया जा रहा है । कोडुनगैयूर में वर्ष २०१२ में हवा के कुछ नमूनों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया था । यहां की हवा में १९ प्रकार के जहरीले रसायन पाए गए थे । इनमें तीन रसायन तो कैंसरजनक थे । बच्चें में ल्युकेमिया पैदा करने वाली बेंजीन तो सुरक्षित स्तर से ५० गुना ज्यादा    थी । इस संबंध में एक मामला मद्रास उच्च् न्यायालय में पिछले दस साल से भी ज्यादा समय से लंबित है । इस मामले के इतने सालों तक लंबित रहना भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए शर्मनाक है । 
ऐसा नहीं है कि इस तरह के डंप यार्ड बंद किए नहीं जा सकते । हाल के दिनों तक चैन्नई में दूसरा डंप यार्ड था । यह भी जलीय स्थल पल्लीकरनाई में बनाया गया था जो पेरूनगुडी में स्थित है । जबसे यहां कचरा फेंकना शुरू हुआ, पेरूनगुडी की जनांकिकी में भारी बदलाव आ गया । चेन्नई का प्रसिद्ध आईटी कॉरिडोर इसी जलीय स्थल पर बनाया जा रहा है और यह इस डंप यार्ड के कॉफी करीब है । जब इस डंप यार्ड में सड़ते हुए कचरे की बदबू संवेदनशील मध्यमवर्गीय और उच्च् जातीय समाज के लोगों की नाक तक पहुंचने लगी तो सभी लोग हरकत में आ गए । पेरूनगुडी के प्रभावशाली लोगों ने चेन्नई नगर निगम के अधिकारियों को अपने यहां के डंप यार्ड को बंद कर कचरे को कोडुनगैयूर डंप यार्ड में ही फेंकने के लिए मजबूर कर दिया । 
कचरा और कचरे से निपटने के लिए जिस तरह के गलत तरीके इस्तेमाल किए जा रहे हैं, उससे यह समस्या समाजशास्त्रीय ज्यादा नजर आती है । इस समस्या का कोई भी वास्तविक समाधान स्थापित सामाजिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर सकता है । इसीलिए स्थानीय निकाय इंजीनियरिंग समाधान ही पंसद करते हैं, जिससे कि सामाजिक समस्या बनी रहती है । उच्च् तबके के इंजीनियर्स को आधुनिक औद्योगिक अपशिष्ट प्रबंधन सुविधाआें का निर्माण करने के लिए बुलाया जाता  है । यह इंजीनियरिंग दखल कचरे की डंपिंग, उसे दफन या दहन करने के आधुनिक तरीकों तक ही सीमित रहता है । इसे और अधिक आकर्षक बनाने के लिए इंजीनियर्स अपने इन प्रयासों को सेनेटरी लैंडफिल या इंसीनरेटर्स नाम दे देते हैं । इन्हें कुछ भी  कहा जाए, एक बात तय है । भारत जैसे जातिगत या अमरीका जैसे नस्लीय प्रभाव वाले समाजों में ये तथाकथित अत्याधुनिक सुविधाएं भी उन स्थानों पर स्थापित नहीं की जाएंगी जहां हैसियत वाले लोग रहते है । वे उन्हीं लोगों के बीच स्थापित की जाएंगी जो पहले से ही पारंपरिक कचरा प्रबंधन का भार ढोते आए हैं । 
अमरीकी समाजशास्त्री मुरे मिलनर जुनियर का कहना है कि हमारे जैसे समाजों में कचरे के साथ जाति को जोड़ने का मतलब यह मानना है कि कुछ मात्रा में गंदगी और अस्वच्छता अनिवार्य है । तो यहां रणनीति कचरे के इधर से उधर स्थानान्तरण की होगी, उसके उन्मूलन की नहीं । 
मिलनर लिखते हैं कि जातिविहीन पश्चिमी समाजों में माना जाता है कि कचरे को नष्ट करके उसका उन्मूलन करना संभव  है । दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं   है । पहले वाले मामले में सामाजिक समस्याएं बाधक बनती हैं तो दूसरे मामले में पर्यावरणीय दिक्कतों से दो-चार होना पड़ता है । 
आर्थिक विकास को अक्सर उत्पादन में बढ़ोतरी और माल एवं सेवाआें के उपभोग में वृद्धि से जोड़ा जाता है । अर्थव्यवस्था में विकास की दर अक्सर इस बात से निर्धारित होती है कि प्राकृतिक  संसाधनों का कितना अधिक से अधिक दोहन करके उपभोग लायक वस्तुआें में परिवर्तित किया जा रहा है, उनका उपभोग किया जा रहा है और उनका निस्तारण किया जा रहा है । यानी विकास की दर जितनी अधिक होगी, कचरा भी उतना ही अधिक होगा । उपभोग के बाद जो गंदगी निकलती है ओर जिसे लेकर झाडू घुमाने वाला मध्यमवर्ग चिंतित हो रहा है, वह तो बस ऊपरी झलक भर है । उपभोक्ता वस्तुआें (चाहे वह बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए अतिआवश्यक इस्पात हो या बिजली अथवा प्लास्टिक पैकेजिंग) के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान काफी बड़ी मात्रा में जहरीले अपशिष्ट पैदा होते हैं जिनका निस्तारण या तो जमीन के भीतर या फिर पानी में कर दिया जाता है । तो क्या स्वच्छ भारत अभियान केवलसतही गंदगी को ही दूर   करेगा ?
अगर मोदी का मेक इन इण्डिया का सपना सच होता है तो स्वच्छ भारत अभियान एक त्रासदी बन जाएगा । जिस तरह उद्योगों की पर्यावरणीय कीमत प्रदूषण के रूप में हवा, जमीन और पानी को चुकानी होती है, उसी तरह उपभोगवादी अर्थव्यवस्थाआें की पर्यावरणीय व सामाजिक कीमत कचरे के रूप में राजनीतिक रूप से कमजोर और सदियोें से सताए हुए समुदायों को चुकानी पड़ती है । यदि अपना कचरा दूसरों पर फेंकने का विकल्प बंद कर दिया जाए तो हमारी उपभोगवादी अर्थव्यवस्था खुद के ही पाखाने में डूब मरेगी । विकास अथवा उपभोग के संबंध में नई रणनीति बनाए बगैर साफ-सफाई की यह कोशिश करना उसी तरह होगा जैसा कि बाथरूम में भर आए पानी की समस्या को रोकने की कोशिश नल से आ रहे पानी को बंद किए बगैर करना । 
यदि प्रधानमंत्री स्वच्छता अभियान को लेकर वाकई गंभीर है तो उन्हें कुछ और भी घोषणाएं करनी चाहिए । इन घोषणाआें को अमल में लाना वर्ष २०१९ तक गंगा या देश को स्वच्छ बनाने की तुलना में ज्यादा आसान होगा । उन्हें शुरूआत इनसे करनी चाहिए :-
१.  भोपाल गैस त्रासदी की ३०वीं बरसी को मील का पत्थर मानते हुए उन्हें घोषणा करनी चाहिए कि वे प्रदूषण के लिए जिम्मेदार लोगों को यहां लाकर पूरे स्थल को जहरीले पदार्थो से मुक्त करवाएंगे । 
२.  ऐसे ही अन्य प्रदूषित औद्योगिक स्थलों, जैसे तमिलनाडु के कोडाईकनाल स्थित हिन्दुस्तान युनीलीवर थर्मामीटर फैक्ट्री और उसके आस-पास के स्थलों को एक निर्धारित समय सीमा के भीतर स्वच्छ किया जाएगा और इसकी पूरी कीमत भी प्रदूषण फैलाने वालों से ही वसूली जाएगी । 
३.  भारत ऐसी गतिविधियों से परहेज करेगा जिनसे ऐसे अपशिष्ट पदार्थ निकलते हैं जिनका निस्तारण नहीं हो सकता, जैसे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ । साथ ही यह भी घोषणा करनी चाहिए कि गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, हरियाणा और तमिलनाडु में नए परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने की योजना छोड़ देंगे । 
४.  पैकेजिंग जैसे कार्यो में इस्तेमाल की जाने वाली नष्ट न होने वाली सामग्री का उपयोग धीरे-धीरे खत्म करने और उनके स्थान पर वैकल्पिक सामग्री का उपयोग बढ़ाने को लेकर प्रतिबद्धता दर्शानी चाहिए । इसके अलावा, ऐसी आदतें विकसित करने पर जोर देना होगा कि पर्यावरण पर ज्यादा भार न आए । 
५.  हाथ से मैला साफ करने की अमानवीय प्रथा का पूरी तरह खात्मा करने को लेकर अपनी सरकार की प्रतिबद्धता जताना । 
६.  स्थानीय निकायों को इतनी धनराशि उपलब्ध करवाने के प्रति प्रतिबद्धता जताना ताकि वे सफाई कर्मियों को बेहतर वेतन और सुविधाएं मुहैया करवा सकें । 
७.  कचरा बीनने वालों के योगदान को स्वीकार कर उन्हें जहां से कचरा निकल रहा है, उसी स्त्रोत या उसके करीब उनकी पहुंच बनाना । 
८.  जैविक अपशिष्ट पदार्थो के निस्तारण की विकेन्द्रीकृत व्यवस्था को प्रोत्साहित करना ताकि कचरे का एक बड़ा हिस्सा डंप साइट पर आने से रोका जा सके । 
भारत को पश्चिम की तुलना मेंएक अलग तरह का काम करने के लिए विकास के लक्ष्य पाने की ऐसी रणनीति बनानी होगी जो मात्र वृद्धि पर निर्भर न हो । उसे स्वच्छ भारत अभियान के तहत सदियों पुराने जातिवाद, नस्लवाद और लिंगभेद के सड़े-गले मलबे को साफ करना  होगा । उसे वृद्धि-विहीन विकास के लक्ष्य को पाने के लिए एक छोटे से उच्च् एवं उच्च् मध्यम वर्ग में हो रही बेहिसाब खपत की मात्रा को काफी हद तक कम करना होगा । जब तक हमारी सरकार प्रकृति के दोहन करने वाली अर्थव्यवस्था का अनुसरण करती रहेगी,तब तक भारत को स्वच्छ बनाना संभव नहीं होगा, भले ही कितने ही लोग और कितने ही स्कूली बच्च्े हाथोंमें झाडू थाम लें । 
प्राणी जगत
क्या हमारे मस्तिष्क मेंआंतरिक जीपीएस है 
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हम यह कैसे जानते है कि कहां क्या है ? स्थानों और निर्देशों को कैसेपहचानते हैं ? हम कहां इस तरह की जानकारी संग्रहित करते हैं और याददाश्त से इसे उभारते हैं ? आज हम शुक्रगुजार है सूचना तकनीकी की ताकत के, जिसकी मदद से हमें किसी भी जगह पहुंचने के लिए किसी से पूछने की जरूरत नहीं । 
गूगल मैप और जियोग्राफिक पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) की मदद से सही जगह पहुंचा जा सकता है । लेकिन मस्तिष्क यह सब कैसे कर पाता है ? यह सब कैसे होता है ? हमारे मस्तिष्क में आतंरिक जीपीएस कहां होता है ?
इनमें से कुछ सवालों के जवाब तीन वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन से आए हैं - युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन (यूके) के जॉन लो कीफ, ट्रोन्डहाइम (नार्वे) के दम्पति एडवर्ड और मे-ब्रिट मोसर । इन तीनों को चिकित्सा/जीव विज्ञान का २०१४ का नोबेल पुरस्कार दिया गया है । 
कुछ समय पहले तक यह माना जाता था कि मस्तिष्क में सेरेबल कॉर्टेक्स के नीचे स्थित हिप्पोकैम्पस मस्तिष्क का स्मृति केन्द्र होता है । १९६० के अंतिम दशकों में जॉन ओ कीफ ने इस क्षेत्र में काम शुरू किया था कि मस्तिष्क कैसे व्यवहार को काबू करता है और चूहे किसी भूलभुलैया में कहां है यह कैसेपहचानना सीखते हैं । उन्होनें चूहों को एक बड़े बक्से में रखा और मस्तिष्क के चुने हुए हिस्सोंपर, विशेष तौर पर हिप्पौकेम्पस पर इलेक्ट्रोड्स चिपका दिए । चूहे जब घूमने-फिरने लग तो उनके मस्तिष्क से आने वाले इलेक्ट्रिकल संकेतों को रिकार्ड किया गया । 
शोधकर्ताआें ने पाया कि जब चूहा बक्से में किसी खास जगह (जैसे किसी कोने में) पर जाता है तो कुछ विशिष्ट तंत्रिका कोशिकाएं सक्रिय होती हैं । जब वे दूसरी जगह जाता था तो दूसरी तरह की कोशिकाआें का समूह सक्रिय हो जाता था । फिर इसके बाद ओ कीफ मस्तिष्क में वह जगह जिसे प्लेस सेल कहते हैं का पता कर सके और हिप्पोकैम्पस मेंइस तरह की प्लेस कोशिकाआें का नक्शा बना पाए । प्रत्येक प्लेस कोशिका विशेष स्थान और परिवेश में सक्रिय होती है । यह तंत्रिका मैपिंग का शुरूआती बिन्दु  था । 
उसी समय नार्वे के दम्पति मे-ब्रिट और एडवर्ड मोसर ने अपनी पीएचडी युनिवर्सिटी ऑफ ओसलो से की और सबसे पहले युनिवर्सिटी ऑफ एडिनबरा गए और फिर ओ कीफ के नेतृत्व में उनकी लैब में पोस्टडॉक्टरल फेलोबने । 
यहां उन्होनें चूहों में आतंरिक जीपीएस के तंत्रिका तंत्र की क्रिया पर काम करने का निर्णय लिया । यूएस के कैलीफोर्निया के कावली फाउंडेशन से रिसर्च ग्रांट हासिल करने के बाद वे ट्रॉन्डहाइम मेंरिसर्च सेटअप लगाने के लिए नार्वेलौट आए । उनका उद्देश्य यह खोजना था कि मस्तिष्क में स्थान पता करने वाली प्लेस सेल को सक्रिय होने के संकेत कहां से मिलते हैं । 
इस दिशा में, उन्होनें चूहों के हिप्पोकैम्पस और उसके आसपास के हिस्सों में सीधे इलेक्ट्रोड्स लगा दिए और उन चूहों को एक बड़े बक्सें में आजादी से घूमने के लिए छोड़    दिया । जब चूहे बॉक्स में यहा-वहां दौड़ते थे तब इलेक्ट्रोड्स से आने वाले संकेतों का विश्लेषण कम्प्यूटर की मदद से किया गया । इस प्रकार, उनके हिलन-डुलने का एक नक्शा बन गया । इसके बाद उन्होंने हिप्पोकैम्पस के एक हिस्से और आसपास के क्षेत्र को रासायनिक तरीके से सूत्र कर दिया । यह तंत्रिका की एक पतली पट्टी थी जिसे एंटोराइनल कार्टेक्स कहते हैं । उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होनें पाया कि हिप्पोकैम्पस में स्थित प्लेस सेल को उत्तेजित करने वाला संकेत सच में एंटोराइनल कॉर्टेक्स की कोशिकाआें से आ रहा था । 
वैज्ञानिकों ने देखा कि जब ये चूहे बॉक्स में स्थित किसी विशिष्ट स्थान पर जाते थे उस समय एंटोराइनल कॉर्टेक्स कोशिकाआें से आने वाले संकेत बेतरतीब नहीं थे बल्कि एक ग्रिड में व्यवस्थित थे - एक षट्कोणीय पैटर्न में मधुमक्खी के छत्ते के समान । 
नेचर के एक अंक में डॉ. एलीसन एबॉट ने इस काम का सारांश प्रस्तुत किया । उन्होनें बताया कि उस बॉक्स के तल पर कोई भी षट्कोणीय आकृति नहींबनी थी । ये आकृतियां अमूर्त रूप से चूहे के मस्तिष्क के अंदर उभरी होगी और इन्हें परिवेश पर आरोपित किया गया होगा । यह मस्तिष्क की भाषा में एक कोड है जिसका इस्तेमाल चूहों ने जगह और स्थान ढूंढने के लिए किया होगा । 
इससे भी ज्यादा हैरतअंगेज तो इस ग्रिड को बनाने वाली कोशिकाआें - ग्रिड जनरेटिंग कोशिकाआें की जमावट है । जब हम एंटोराइनल कॉर्टेक्स पट्टी के ऊपरी हिस्से से निचले हिस्से की तरफ जाते हैंतब यह पैटर्न क्रमिक ढंग से पास-पास सटी ग्रिड से दूर-दूर बनी ग्रिड में बदलता जाता है । इस मॉड्यूल में प्रत्येक पायदान में बिन्दुआें के बीच दूरी का अंतर १.४ गुना की स्थिर दर से बढ़ता है । 
इस षट्कोणीय पैटर्न और निश्चित मॉड्यूलर के गणित ने सिद्धांतकारों को आकर्षित किया  है । डॉ. एलीसन एबॉट और म्यूनिश की न्यूरोसाइटिस्ट डॉ. एन्ड्रिज हर्ज बताती है कि यह खोज बहुत ही अनेपक्षित है कि मस्तिष्क इतने सरल गणितीय पैटर्न का उपयोग करता है जिसका हम सदियों से गणित में अध्ययन कर रहे हैं । वे बताती हैं कि बच्च्े, मनुष्य और चूहे जिस जगह वे रहते हैं वहां की बहुत ही प्राथमिक चेतना के साथ पैदा होते हैं और फिर यह क्षमता धीरे-धीरे विकसित होती है । 
सामाजिक पर्यावरण  
संविधान पर एक अमानवीय बहस 
न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी
भारतीय संविधान की उद्देशिका को लेकर छिड़ा विवाद वास्तव में भारत में सांप्रदायिक राजनीति की कई हवा दने की असफल कोशिश है । आम आदमी के मुद्दों, परेशानियों एवं राजनीतिक असफलता को छिपाने के लिए इस नए विवाद को जन्म दिया जा रहा   है । 
भारतीय संविधान में गांधी विचार और समाजवादी संकल्पना के अंतर्भाव का विचार आज तक विचारकों ने ही नहीं किया । मूलत: जो भारत का संविधान सन् १९४९ में पारित हुआ उसकी उद्देशिका (प्रीअॅम्बल) में सोशालिस्ट तथा सेक्युलर यह दोनों शब्द नहीं थे । 
इतना ही नहीं नागरिक के लिए जो मूलभूत अधिकार और हक धारा १९ में विशद किए गए थे उनमें धारा १९ (च) में सम्पत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन का मूलभूत अधिकार सभी भारतीय नागरिकों को प्रदान किया गया था । जो समाजवादी संकल्पना विरोधी स्वतंत्रता आन्दोलन की आकांक्षाआें के भी विपरीत व विसंगत भी था । उसके पश्चात संविधान के ४२ वें संशोधन अधिनियम १९७६ के द्वारा संविधान के उद्देशिका में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष नामक दो शब्द दाखिल किए गए । लेकिन इन शब्दों की व्यािप्त् का अर्थ क्या होगा इसकी कोई व्याख्या नहीं की गई । उसके बाद संविधान के ४४ वे संशोधन अधिनियम १९७८ द्वारा नागरिक के बुनियादी धारा१९(१) (च) जो संपत्ति के अधिकारों से सम्बन्धित थी, उसे निरस्त कर, पंथनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द की व्याख्या और व्यािप्त् प्रस्तुत की गई । 
पंथनिरपेक्ष की व्याख्या थी सभी धर्मोंा का समान सम्मान । एक अर्थ में यह इन शब्दों का स्पष्टीकरण था । उस समय सत्ता में जनता पार्टी थी और उसी सरकार ने यह प्रस्ताव रखा   था । यह प्रस्ताव लोकसभा ने पारित किया लेकिन इंदिरा कांग्रेस का राज्यसभा में बहुमत था इसलिए वह प्रस्ताव राज्यसभा ने नामंजूर  किया । इसलिए आज भी उद्देशिका में यह शब्द है, लेकिन उनकी कोई व्याख्या नहीं है । 
अगर समाजवाद की संकल्पना का अर्थ सभी प्रकार के याने राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक शोषण से मुक्ति नहीं हैं, तो फिर क्या है ? यदि व्याख्या या स्पष्टीकरण को राज्यसभा ने मंजूर नहीं किया, तो फिर उस संकल्पना का दूसरा क्या अर्थ हो सकता है ? यही यक्ष प्रश्न है । महात्मा गांधी ने शोषण रहित समाज की संकल्पना की थी । १० सितम्बर १९३१ के यंग इंडिया में उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि  मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूँगा जो भारत को हर तरह की गुलामी और परावलम्बन से मुक्त करे ।  १ जून १९४७ के हरिजन में गांधीजी ने लिखा -  समाजवाद का आधार आर्थिक समानता है । अन्यायपूर्ण असमानताआें की इस हालत में जहाँ चन्द लोग मालामाल हैं, और सामान्य प्रजा को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता, उसे  रामराज्य  कैसे कह सकते हैं ?  
इसीलिए गांधीजी ने विश्वस्त भावना पर जोर दिया और अब तो अमेरिका और भारत के सर्वोच्च् न्यायालय ने भी यह स्पष्ट किया है कि सरकार या शासन नैसर्गिक सम्पत्ति के विश्वस्त है मालिक    नहीं । इसीलिए गाधीजी ने कहा था कि - समाजवाद में मूलत: और सर्वप्रथम समाजवादी वृत्ति   होगी । वह किसी भी प्रकार की हो इसे ही तो समाजवाद कहा जा सकता है । गांधीजी ने यह भी कहा था कि, मेरे समाजवाद का अर्थ है सर्वोदय और उसका प्रवास है, अन्त्योदय से सर्वोदय की दिशा । यही स्थिति पंथनिरपेक्ष संकल्पना के बाबद् भी    है । भारत सरकार द्वारा प्रकाशित शब्दावली में इस शब्द के लिए सर्वधर्म समभाव धर्मनिरपेक्ष, लौकिक अर्थ दिया है । दादा धर्माधिकारी ने कहा है सेक्युलर शब्द का इतिहास वैसे बहुत पुराना है, लेकिन वह शब्द अलग-अलग अर्थोंा में प्रयोग में लाया जाता था । जैसे सेक्यूलर गेम्स, सेक्यूलर क्लर्जी, सेक्यूलर अॅक्जिलरेशन ऑफ द मून आदि । 
सर्वप्रथम जॉर्ज जेकब होलिओक ने सन् १९५० में कहा, धर्म और सेक्युलॅरिज्म परस्पर व्यावर्तक है । वे एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश न करें । धर्म में निहित नैतिकता हमें मान्य है, लेकिन उस नैतिकता का आधार धर्म नहीं    होगा । इसके माने हैं कि सेक्यूलरिज्म धर्मनिरपेक्ष हो तो भी धर्मविरोधी नहीं । श्री रामकृष्ण परमहंस देव, स्वामी विवेकानन्द, गांधी और विनोबा ने धार्मिक समन्वय पर जोर दिया । रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन मेंभिन्न-भिन्न धर्मोंा का अनुष्ठान कर उनकी मूलभूत एकता का अनुभव किया । गांधी ने सामूहिक सर्वधर्म प्रार्थना का प्रवर्तन कर सर्वधर्म समभाव लोक-जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न किया । और विनोबा ने सब प्रमुख धर्म-ग्रंथों का सार निकालकर उनका साम्य लोगों के सामने रखा । 
विनोबा ने इसी मर्म को पकड़ लिया और कहा  आज के युग में धर्म और राजनीति कालबाह्रय हो गए है । यह युग विज्ञान और अध्यात्म का है । इससे यह पता चलता है कि सर्वधर्म समभाव शब्द का प्रयोग भी सदोष है । तो हर एक इसका समर्थन कैसे कर सकेगा ? सर्वधर्म समभाव का प्रतिपादन करने वाले गांधी तो यहाँ तक कह गए कि अस्पृश्यता वेदविहित होगी तो मैं वेद भी नहीं मानूँगा । यानी धर्मनिष्ठ व्यक्ति की स्वधर्म श्रद्धा में भी विवेकपूर्ण मर्यादा होनी चाहिए । विवेक की मर्यादा के साथ ही गांधी ने अपने धर्म का पालन किया और उसकी नीतिविहीन विधियों का दृढ़ता से विरोध किया । दूसरे के ह्दय में प्रवेश उसके धर्म द्वारा किया जाय, यह समाजशास्त्रीय सिद्धान्त है । लेकिन उसमें भी विवेक की मर्यादा तो रहनी ही चाहिए । इस दृष्टि से विवेकनिष्ठ धार्मिक व्यक्ति अपने धर्म के बारे में भूमिका रखता है वैसा ही विवेकनिष्ठ भूमिका दूसरे धर्मो के विषय में उसे रखनी  चाहिए । 
हर किसी को अपने-अपने धर्म का अनुष्ठान और प्रचार करने की स्वतंत्रता हो, लेकिन मर्यादा होनी चाहिए मानवनिष्ठा और नीतिमत्ता । हमारे देश में आज यह नहीं हो रही है । इसलिए सर्वधर्म समभाव सध नहीं पा रहा है । दुनिया में नैतिक मूल्यों के विषय के कानून धर्म से आगे बढ़ गया  है । कानून ने ऐसे कुछ सर्वव्यापी मूल्य स्थापित किए हैं जो मानवमात्र पर लागू होते है । उस कानून में सम्प्रदाय, जाति या वंशवाद का कोई स्थान नहीं । इस अर्थ में वह कानून ही धर्मनिरपेक्ष या सेक्युलर   है । पूरी मानवता और जीवमात्र के लिए यथासंभव करूणा उस कानून का आधार है । यही पर धर्म पीछे रह जाता है । सब धर्मो के लिए समान आदर हो, लेकिन उनमें मानवनिष्ठा और नैतिकता का अधिष्ठान हो, यह भी अत्यन्त जरूरी है । तब सर्वधर्म समभाव और सेक्युलॅरिजम यानी धर्म निरपेक्षता की भूमिकाआें में विलक्षण साम्य हो जाता है । 
       सेक्युलॅरिजम में धर्मनिरपेक्षता है, तो सर्वधर्म समभाव में किसी भी धर्म विशेष का आग्रह नहीं है । यह संकल्पनाआें का स्पष्टीकरण नहीं है इसलिए सेक्यूलर शब्द के नाम पर अत्याचारों में वृद्धि हो रही है । मराठी के सुप्रसिद्ध कवि कुसुमाग्रज ने लिखा है कि धर्म का ध्वज जब धर्मान्ध शक्तियोंके कंधे पर रखा जाता है, तब उसके परिणाम स्वरूप जो खून बहता है, वह हमेशा उसी धर्म का होता है । 
अगर संविधान के उद्देशिका के अन्य शब्द जैसे सामाजिक, आर्थिक न्याय और उपासना की स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समानता या संविधान कि धारा २५,२६ तथा धारा ५१क, जो नागरिक के मूलककर्तव्य के बाबत है, वह सब एक साथ पढ़े जाए, तो यह स्पष्ट है कि सेक्युलर तथा समाजवादी प्रवृत्ति भारतीय संविधान का बुनियादी सिद्धान्त है । इसलिए अब उस बाबद विवाद खड़ा करना असंगत ही नहीं, बल्कि अमानवीय भी है । 
पर्यावरण परिक्रमा
कई गुफाआें वाली होगी न्यूट्रिनो वेधशाला
ब्रह्मांड की उत्पत्ति में अहम माने जाने वाले न्यूट्रिनो कणों की खोज और अध्ययन के लिए तमिलनाडु में केरलसीमा के पास बनाई जा रही भूमिगत वेधशाला चट्टान से १२०० मीटर गहराई पर होगी तथा इसमें कई गुफाएं होगी । 
तमिलनाडु के थेनी जिले की बोडी पहाड़ियों में कई संस्थाआें के सहयोग से इस वेधशाला की स्थापना की जा रही है । केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने इस वर्ष जनवरी में करीब १५०० करोड़ की इस परियोजना को हरी झण्डी दी थी । इसके तहत लगभग १२०० मीटर ऊंचे चट्टानी पहाड़ों के नीचे विश्व स्तरीय प्रयोगशाला बनाई जाएंगी जिसमें १३२ मीटर गुणा २६ मीटर गुणा २० मीटर आकार की एक बड़ी गुफा और कई अन्य छोटी-छोटी गुफाएं होगी जहां १९०० मीटर लंबी और साढ़े सात मीटर चौड़ी सुरंग से पहुंचा जा सकेगा । 
इस परियोजना में परमाणु ऊर्जा विभाग और विज्ञान तथा प्रौघोगिकी विभाग मिलकर सहयोग दे रहे है जबकि परमाणु ऊर्जा विभाग केन्द्रीय एजेंसी के तौर पर काम करेगा । परियोजना का उद्देश्य न्यूट्रिनों पर मूलभूत अनुसंधान करना है । देश के २१ अनुसंधान संस्थान, विश्वविघालय और आईआईटी इस परियोजना में शामिल है । माना जा रहा है कि न्यूट्रिनो कण से अंतरिक्ष से संबंधित कई जानकारियां प्राप्त् की जा सकती है । इसी कारण वैज्ञानिकों को इनके अध्ययन में विशेष रूचि है ।
फोटोन के बाद न्यूट्रिनो प्रचुर मात्रा में ब्रह्मांड में विद्यमान है । प्रत्येक एक घन सेंटीमीटर में लगभग ३०० न्यूट्रिनो होते है । ये कण सूर्य जैसे तारों में रेडियोधर्मी क्षय और वायुमण्डल से कास्मिक विकिरणों की आपसी क्रिया से उत्पन्न होते हैं । साथ ही इन्हें नाभिकीय संयंत्रों में भी निर्मित किया जा सकता है । 
वैज्ञानिकों का मानना है कि १५ अरब वर्ष पहले ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बाद जो न्यूट्रिनो पैदा हुए थे वे आज भी सक्रिय है । सूर्य के केन्द्र में परमाणु संलयन की वजह से जो न्यूट्रिनो उत्पन्न हुए वे पृथ्वी के ऊपर घूमते रहते हैं । मानव शरीर से भी न्यूट्रिनो उत्सर्जित होते है । मानव शरीर में मौजूद रेडियोधर्मी पदार्थ पोटेशियम ४० लगातार न्यूट्रिनोे का उत्सर्जन करता है । प्रति सेकण्ड लगभग १०० खरब न्यूट्रिनो सूर्य और अन्य आकाशीय पिंडों से उत्सर्जित होकर हमारे शरीर से टकराते है लेकिन इससे हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचता । 
सन १९३० में जाने-माने भौतिकविद् पाउली को प्रयोगों से पता चला कि जब कोई अस्थिर आणविक नाभिक एक इलेक्ट्रान को छोड़ता है तो उसकी नई ऊर्जा और गति उम्मीद के मुताबिक नहीं होती थी । इस समीकरण को संतुलित करने और ऊर्जा के संरक्षण के सिद्धांत को कायम रखने के लिए पाउली ने एक सैद्धांतिक कण की अवधारणा प्रस्तुत की । 

एक व्हाइट हाउस जिसमें रहते है कबूतर
एक व्हाइट हाउस अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में है । दुनियाभर के सैलानी इसे देखने आते है । दुनिया का सबसे ताकतवर समझे जाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति, यहां रहते हैं । लेकिन अपने आप में कुछ ऐसा ही अनूठा एक और व्हाइट हाउस राजस्थान में बाड़मेर के आजाद चौक पर है । लोग यहां भी आते हैंपर व्हाइट हाउस देखने नहीं, दाना-चुग्गा डालने को । इस व्हाइट हाउस में करीब १०,००० कबूतर रहते है ।   बिल्कुल, इस तीन मंजिला व्हाइट हाउस के मालिक कबूतर ही  हैं । इस इमारत की कीमत करीब एक करोड़ रूपए है । इसमें नौ फ्लेट हैं । इनसे २०,००० रूपए महीने का किराया अलग से आता है । व्हाइट हाउस ही नहीं, आजाद चौक पर ही बनी १० दुकानों के मालिक भी कबूतर है । इन दुकानों की कीमत करीब सवा करोड़ रूपए है । हर दुकान से दो हजार रूपए महीने किराया आता है, वह अलग । कबूतरों का अपना बैंक बैलेंस भी है । इसमें पांच-सात लाख रूपये जमा हैं । इतना पढने के बाद आपको लगेगा कि कोई करोड़पति अपनी संपत्ति और बैंक बैलेंस कबूतरों के नाम कर गया होगा । लेकिन ऐसा नहीं है । यह संपत्ति खालिस तौर पर कबूतरों की है । यह बाड़मेर के कबूतर धर्मार्थ ट्रस्ट की देखरेख में साल दर साल फल-फूल रही है । 
बाड़मेर के लोगों की धर्म व दान के प्रति रूचि की वजह से उनके शहर के कबूतर करोड़पति हो पाए । ट्रस्ट के अध्यक्ष मदन सिंघल बताते है कि इस सिलसिले की शुरूआत १९६० से हुई थी । तब आजाद चौक पर लोगों ने मिलकर कबूतरों के लिए एक चबूतरा बनाया था । फिर ट्रस्ट बना । दुकानें बनी । और अभी सात-आठ साल पहले सुमेर गोशाला के पास दान की जमीन पर व्हाइट  हाउस । पूरी संपत्ति और उससे होने वाली आमदनी ट्रस्ट के मार्फत कबूतरों के लिए और उन्हींकी मानी जाती है । 
लोग रोज दाना-चुग्गा डालते है । करीब ५० किलो दाना इकट्ठा हो जाता है । कबूतर चार-पांच किलो ही खा पाते है । बाकी को बोरियो में भरकर बाजार में बेच दिया जाता     है । इससे जो पैसा मिलता है, वह ट्रस्ट के खाते में जमा कर दिया जाता है । 

राज्यों को मालामाल करेगा काला सोना
कोयला ब्लॉकों की नीलामी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे साबित होता जा रहा है कि सरकार का यह फैसला राज्यों को मालामाल करने जा रहा है । साथ ही तीन वर्ष पहले कोयला ब्लॉक आवंटन पर नियत्रंक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भारी गड़बड़ी की आशंका वाली बात भी सही साबित हो रही है । 
पिछले दिनों १६ कोयला ब्लॉक नीलाम हुए है । इनसे एक लाख करोड़ रूपये का राजस्व हासिल होने की उम्मीद है । यह सारी रकम राज्यों के खाते में जाएगी । कोयला सचिव अनिल स्वरूप का कहना है कि कंपनियां जिस तरह से ब्लॉक खरीदने के लिए उत्साह दिखा रही हैं, उससे अभी तक गरीब समझे जाने वाले लेकिन खनिज संपदा से भरपूर राज्यों का कायाकल्प हो सकता है । साथ ही बिजली क्षेत्र के लिए रिवर्स बिडिंग (अधिकतम बोली लगाकर उससे सबसे कम बोली लगाने की प्रक्रिया) का सरकार का फैसला भी सही साबित हो रहा है । 
तय फार्मूले के मुताबिक बिजली प्लांट को आवंटित होने वाले कोल ब्लॉकोंके लिए कोयले की एक उच्च्तम कीमत सरकार ने तय की   है । इसे उस इलाके में बिजली और कोयले की लागत के आधार पर तय किया गया है । मान लीजिए एक ब्लॉक के प्रति कोयले की कीमत १,००० रूपये प्रति टन तय की गई है । कंपनियों को इससे कम बोली लगानी होगी । अगर किसी कंपनी ने ८०० रूपये प्रति टन की बोली लगाकर इसे हासिल किया, तो २०० रूपये प्रति टन का फायदा उसे बिजली की दर घटाकर आम जनता को देना होगा । राज्यों को मिलने राशि का अनुमान इस प्रकार है - म.प्र. ३९,९००, छ.ग.२६,४३५, झारखण्ड १४,४९८, पं. बंगाल १३,२१०, महाराष्ट्र १,८१९ और उड़ीसा को ६०७ करोड़ रूपये मिलने की संभावना है । 

 बंदर को ७० लाख का मकान और २० लाख नगद
चुनमुन को ७० लाख रूपये कीमत वाला एक घर मिलने जा रहा है, और लगभग २० लाख रूपये का बैंक बैलेंस भी, लेकिन चुनमुन बैंक के लिए चेक पर दस्तखत करना भी नहीं जानता है । 
दरअसल, चुनमुन एक बंदर है, जो उत्तरप्रदेश के रायबरेली शहर में बने एक घर के भीतर एयरकंडीशन्ड कमरे में रहता है, जिसके मालिक सविस्ता और ब्रजेश हैंऔर इन्हीं लोगों ने अपना सबकुछ चुनमुन के नाम वसीयत में लिख दिया है, सविस्ता का कहना है कि चुनमुन की मां ने उसे जन्म देते हुए दम तोड़ दिया था, और चूंकि सविस्ता ब्रजेश की कोई संतान नहीं थी, इसलिए वे नवजात बन्दर को अपने साथ अपने घर ले आए थे । उसके बाद से वे चुनमुन को अपनी संतान की तरह ही पाल रहे है और यहां तक कि उन्होनें अपने घर का नाम भी चुनमुन हाउस रखा हुआ है । 
चुनमुन के मानव माता-पिता ने अब तय किया है कि बंदरों की भलाई के कामों के लिए चुनमुन के नाम से एक ट्रस्ट की स्थापना की जाए । सविस्ता के पति ने बताया, जब हम नहीं रहेंगे, हम चाहेंगे कि यह ट्रस्ट उन बंदरों के लिए मचानों का निर्माण करे, जो मनुष्यों के साथ दोस्ताना तालुकात रखते हैं और पेड़ों की लगातार हो रही कटाई के कारण तकलीफ में हैं । मनुष्यों की गलतियों के कारण किसी बंदर को कष्ट नहीं होना चाहिए । जहां तक चुनमुन का सवाल है, वह हमारे लिए हमारे बेटे जैसा है । 
सविस्ता और ब्रजेश स्थानीय लोगों में फैले उस अंधविश्वास को भी नकारते हैं, जिसके मुताबिक बंदर को पालना शुभ नहीं होता । उनका दावा है कि चुनमुन के आने से उनके जीवन में सौभाग्य और खुशहाली आई है । खैर, कोई माने या न माने, छोटा सा ही सही, रायबेरली के एक मकान का मालिक अब बंदर ही   होगा । 
स्वास्थ्य
अपाच्य भोजन भी लाभदायक हो सकता है 
डॉ. सुशील जोशी
आमतौर पर कहा जाता है कि सुपाच्य भोजन का सेवन करना चाहिए क्योंकि वहीं स्वास्थ्यप्रद है । मगर अचरज की बात है कि हाल के वर्षो में भोजन के अपाच्य हिस्सों पर काफी ध्यान दिया गया है । 
पहले बात आई रेशेदार पदार्थो की । रेशे यानी फाइबर जिस पदार्थ (सेल्यूलोज) के बने होते हैं उन्हें पचाने की क्षमता हममें नहीं होती । हममें ही क्या, इन रेशों को पचाने की क्षमता किसी भी जन्तु में नहीं होती । गाय, भैंस वगैरह यदि घास-फूस पर जीते हैं तो इसलिए कि उनके पाचन तंत्र में कई सूक्ष्मजीव इन रेशों को पचाते हैं और गाय-भैसों को पोषण उपलब्ध कराते हैं । 
आजकल बात चल रही है अपाच्य स्टार्च की । हमारे भोजन मे ंप्रोटीन, वसा, खनिज लवणों के अलावा जो प्रमुख घटक होता है वह स्टार्च या मंड ही है । रोटी, चावल वगैरह के अलावा दालों में भी काफी मात्रा में स्टार्च पाया जाता है । स्टार्च एक किस्म का कार्बोहायड्रेट है । वैसे तो सेल्यूलोज भी कार्बोहायड्रेट ही है मगर इन दोनों की संरचना काफी अलग-अलग है । जंतुआें के शरीर में स्टार्च को पचाने के लिए एक एंजाइम होता है एमायलेज । अलबत्ता, हम जितना भी स्टार्च खाते हैं वह सारा का सारा पचता नहीं है । कुछ स्टार्च एमायलेज की क्रिया से अछूता रह जाता है । इस तरह के स्टार्च को अपाच्य या प्रतिरोधी स्टार्च कहते हैं।
जब हमारे शरीर में स्टार्च का पाचन होता है तो शर्कराबनती है - मुख्य रूप से ग्लूकोज बनता है । यह ग्लूकोज शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है । यानी स्टार्च मूलत: ऊर्जादायी खाद्य पदार्थ है । बताते है कि १ ग्राम स्टार्च से इतनी ऊर्जा मिलती है कि १ किलोग्राम पानी का तापमान करीब ४ डिग्री सेल्सियस बढ़ाया जा सकता है । तकनीकी भाषा में कहते है कि स्टार्च में प्रति ग्राम ४ किलोकैलोरी ऊर्जा होती है । हम प्रतिदिन लगभग २०० ग्राम स्टार्च खाते हैं । आप सोच सकते हैं कि यह हमें कितनी सारी ऊर्जा प्रदान करता है । वैसे शरीर में इस ऊर्जा का अधिकतम उत्पादन गर्मी के रूप में नहीं बल्कि एक रासायनिक पदार्थ के रूप में होता है । 
इसका मतलब हुआ कि यदि हम ऐसा स्टार्च खाएं जो अपाच्य या प्रतिरोधी है तो हमें उतनी कम ऊर्जा प्राप्त् होगी । जैसा कि आप जानते ही हैं आजकल समाज के एक वर्ग को मोटापा और वजन बढ़ाने की समस्या त्रस्त किए हुए है । ऐसे लोगों को सलाह दी जाती है कि वे अपना कैलोरी उपभोग कम करें । लिहाजा इन लोगों के लिए अच्छी खबर है कि अपाच्य स्टार्च खाकर वे इस लक्ष्य की पूर्ति कर सकते हैं । अलबत्ता, अपाच्य स्टार्च के और भी कई फायदे गिनाए जा रहे हैं । 
पहले यह देखते है कि स्टार्च अपाच्य क्यों हो जाता है । सबसे पहले १९३७ में पोलैण्ड के वैज्ञानिक एफ. नोवोत्नी ने रिपोर्ट किया था कि कुछ स्टार्च एमायलेज एंजाइम से विघटित नहीं होते । आगे चलकर कई अन्य वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की । तब से इस संबंध में खोजबीन चलती रही है कि आखिर क्यों कुछ स्टार्च अपचनीय साबित होते हैं । इस तहकीकात का नतीजा यह निकाला है कि अपाच्य स्टार्च चार किस्म के होते हैं । 
हम जो भी स्टार्च खाते हैं, जाहिर है वह वनस्पति स्त्रोतों से प्राप्त् होता है । यदि यह स्टार्च कोशिकाआें के अंदर हो, तो हम इसे पचा नहीं पाते । कारण यह है कि वनस्पति कोशिकाआें की बाहरी कोशिका दीवार को विघटित करने के लिए हमारे पास उपयुक्त एंजाइम ही नहीं   है । तो यह हुआ पहले किस्म का अपचनीय स्टार्च । 
दूसरे किस्म का अपाच्य स्टार्च वह होता है जो बड़े-बड़े क्रिस्टल के रूप में पाया जाता है । यह स्टार्च चाहे सुपाच्य हो मगर इसके पाचन में दिक्कत यह होती है कि बड़े क्रिस्टल की मात्रा के हिसाब से उनकी बाहरी सतह का क्षेत्रफल अपेक्षाकृत कम होता है । लिहाजा एमायलेज एंजाइम को क्रिया करने के लिए जगह कम मिलती है । इसलिए ऐसे बड़े क्रिस्टल वाले स्टार्च हमारी छोटी आंत मेंपूरी तरह पच नहीं पाते । यह अपाच्य स्टार्च का दूसरा प्रकार है । 
अपाच्य स्टार्च की तीसरी किस्म का संबंध स्टार्च की रासायनिक रचना से है । स्टार्च एक बहुलक यानी पोलीमर पदार्थ है । ग्लूकोज के अणु एक-दूसरे जुड़कर लंबी-लंबी श्रृंखलाएं बना लेते है । यही स्टार्च है । ग्लूकोज के अणु आपस में कई तरह से जुड़ सकते   हैं । उनमें हर जगह शाखाएं भी निकली होती हैं जो स्वयं ग्लूकोज की श्रृंखलाएं होती है । इसके अलावा ग्लूकोज के अणुआेंपर कुछ अन्य समूह भी जुड़ जाते हैं । इन सबकी वजह से स्टार्च के गुणधर्मो में अंतर आ जाते हैं और कभी - कभी वह एमायलेज का प्रतिरोधी बन जाता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि स्टार्च का विशाल अणु कुछ इस तरह तहदार बन जाता है कि एमायलेज को उन जगहों तक पहुंचने में असुविधा होती है, जहां वह क्रियाकर सके । ये तीसरे प्रकार के अपाच्य स्टार्च मूलत: रासायनिक या भौतिक संरचना के चलते प्रतिरोधी बन जाते हैं ।
अपाच्य स्टार्च का चौथा प्रकार मानव निर्मित होता है । जब पोषण वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रतिरोधी स्टार्च स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हो सकते हैं तो उन्होनें कोशिशें शुरू कर दी कि स्टार्च अणुआें में ऐसे परिवर्तन किए जाएं कि वह अपाच्य हो जाए । 
तो सवाल उठता है कि अपाच्य स्टार्च जब हमें ऊर्जा प्रदान नहीं कर सकता तो इसके फायदे क्या हैं और क्यों आजकल पोषण के क्षेत्र में अपाच्य स्टार्च का बोलबाला है । 
पहला फायदा तो, जैसा कि ऊपर कहा गया था, यह है कि आप जितना स्टार्च खाएंगे उसमें से अपाच्य स्टार्च से आपको ऊर्जा नहीं मिलेगी । यानी यदि आप ऐसा भोजन चुनते हैं जिसमें अपाच्य स्टार्च की मात्रा ज्यादा है तो आप भरपेट खा सकते हैं मगर इससे आपको अपेक्षाकृत कम ऊर्जा मिलेगी । यानी मोटापे पर रोक लगाने में अपाच्य स्टार्च बड़ी भूमिका निभा सकता है ।
मगर इसके फायदे और भी है । छोटी आंत मेंयह स्टार्च अपाच्य रहता है और बड़ी आंत में जस का तस पहुंच जाता है । यहां करोड़ों बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीव इसका इन्तजार कर रहे होते हैं । ये सूक्ष्मजीव इस मायने में हमसे अलग हैं कि ये वनस्पति कोशिका की दीवार को पचा सकते हैं । तो किस्म १ का अपाच्य स्टार्च इन सूक्ष्मजीवों को उपलब्ध होता है । अन्य किस्म के प्रतिरोधी स्टार्च भी इन सूक्ष्मजीवों द्वारा पचाए जाते हैं । इस प्रक्रिया को किण्वन कहते हैं । 
ऐसा बताया जाता है कि अपाच्य स्टार्च के किण्वन से जहां मिथेन आदि गैसे बनती हैं, वही कुछ वसा अम्ल भी बनते हैं । ये वसा अम्ल कार्बन की छोटी-छोटी श्रृंखलाआें के होते हैं । जैसे एसिटिक अम्ल, प्रोपिओनिक अम्ल और ब्यूटिरिक अम्ल । कहते हैं कि ये छोटी श्रृंखला वाले वसा अम्ल आंतों में लाभदायक सूक्ष्मजीवों की वृद्धि में सहायक होते हैं । 
विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि अपाच्य स्टार्च के सेवन से खून में ग्लूकोज का स्तर कम रहता है और आंतों के कैंसर का खतरा भी कम होता है । इसके अलावा बताते हैं कि ऐसे स्टार्च के सेवन से कोलेस्ट्रॉल की मात्रा भी घटती है । 
तो अपाच्य स्टार्च लोकप्रिय हो गए हैं । कई खाद्य कंपनियां आजकल अपने खाद्य पदार्थो में अपाच्य स्टार्च मिलाती हैं । यह अपाच्य स्टार्च कारखानों में बनाया जाता है । मगर कई सारे खाद्य पदार्थो में कुदरती रूप से काफी मात्रा में अपाच्य स्टार्च पाया जाता है । 
उदाहरण के लिए १०० ग्राम भुनी हुई मूंगफली में ४२ ग्राम अपाच्य स्टार्च होता है । १०० गा्रम कच्च्े मटर के दानों में लगभग १ ग्राम तो उबले मटर के दानों में पूरा १० ग्राम अपाच्य स्टार्च पाया जाता  है । आलू, कच्च कैला वगैरह में बहुत अधिक मात्रा में अपाच्य स्टार्च स्टार्च में बदल जाता है और यदि उबले आलू को २४ घंटे फ्रिज में रखा जाए तो अपाच्य स्टार्च की मात्रा फिर बढ़ जाती है । यानी भोजन के पकाने के तरीकोंसे भी अपाच्य स्टार्च की मात्रा बढ़ाई जा सकती है । 
ज्ञान-विज्ञान
नई तकनीक से बदल देंगे क्षतिग्रस्त मस्तिष्क 
इटली के एक सर्जन की मानें तो दुनिया का पहला मानव सिर प्रत्यारोपण अगले दो साल में संभव हो सकता है । सर्जन ने इस विलक्षण ऑपरेशन के लिए तकनीक विकसित करने का दावा किया है । इटली के तुरिन एडवांस्ड न्यूरोमोड्यूलेशन ग्रुप के सर्जन सर्गियोंकैनावेरो ने तकनीक का विवरण देते हुए कहा कि उन्हें विश्वास है कि इससे डॉक्टरों को सिर को एक नए शरीर में प्रत्यारोपित करने में मदद मिलेगी । कैनावेरो ने २०१३ में पहली बार इस तरह का विचार सामने रखा था । 
इस तकनीक के तहत प्राप्त्कर्ता के सिर और डोनर के शरीर को ठंडा किया जाता है ताकि उनकी कोशिकाआें के ऑक्सीजन के बिना जीवित रहने का समय बढ़ाया जा सके । कैनावेरो ने कहा कि गले के आसपास के टिश्यू को अलग किया जाता है और इंसान की रीढ़ की हडि्डयों को काटे जाने से पहले बड़ी रक्त नालिकाआें को छोटे ट्यूब की मदद से जोड़ा जाता है, सफाई से हडि्डयों को अलग करना बहुत महत्वपूर्ण है, इसके बाद प्राप्त्कर्ता के सिर को डोनर के शरीर में लगाया जाता है और रीढ़ की हड्डी के दोनों सिरों को जोड़ा जाता है । कैनावेरो की आगामी जून माह में अमेरिका के मेरीलैड के अन्नापोलिस मेकं अमेरिकन एकेडमी ऑफ न्यूरोलॉजी एंड ऑथरेपेडिक सर्जन्स के वार्षिक सम्मेलन में परियोजना की घोषणा करने की योजना है ।  
परजीवियों की करामातें 
यह बात तो काफी समय से पता है कि परजीवी जन्तु अपने मेजबान के व्यवहार को बदल देते   हैं । जैसे यह देखा गया है कि कुछ कृमि जिस चींटी के शरीर में रहते है उसके व्यवहार पर असर डालते है । चींटी का पेट लाल हो जाता है और वह पेट को ऊपर उठाकर चलने लगती है । इस वजह से वह किसी पके हुए फल की तरह नजर आने लगती है जिसे कोई पक्षी धोखे में खा लेता है । कृमि को फायदा यह होता है कि उसके जीवन चक्र का अगला चरण पक्षी में ही पूरा होता है इसलिए उसे किसी पक्षी के शरीर में पहुंचना जरूरी होता है । चींटी का व्यवहार यह कृमितभी बदलता है जब वह किसी पक्षी के शरीर में जाने की अवस्था में आ जाता है । 
यही बात मनुष्यों के संदर्भ मेंभी कही गई है । कहते है कि एक प्रोटोजोआ परजीवी टोक्सोप्लाज्मा गोंडी अपने मेजबान मनुष्य के व्यवहार को बदलता है और वह व्यक्ति  ज्यादा खतरे उठाने को तैयार रहता  है । परजीवी मेजबान का यह रिश्ता अब एक फीता कृमि और कोपेपॉड नामक एक जीव के बीच भी देखा गया है । मैक्स प्लांक, इंस्टीट्यूट फॉर इवॉल्यूशनरी बायोलॉजी की निना हैफर और मैनफ्रेड मिलिस्की ने एक कोपेपॉड मे परजीवी फीता कृमि प्रविष्ट करा दिए । ये फीता कृमि इस कोपेपॉड के शरीर में जीवन चक्र का कुछ हिस्सा बिताने के बाद किसी मछली के शरीर मेंपहुंचने को उत्सुक रहते है । ये जब मछली में पहुंचने की अवस्था में आते है तो कोपेपॉड को अति-सक्रिय कर देते हैं ताकि वह खूब घूमे-फिरे और किसी मछली द्वारा खा लिया जाए । 
हैफर और मिलिस्की यह देखना चाहते थे कि यदि एक के बजाय दो परजीवों हो तो क्या होगा तो उन्होनेंं एक कोपेपॉड में दो कृमिप्रविष्ट करा दिए । शोध पत्रिका इवॉल्यूशन में अपने शोध पत्र में उन्होनें बताया कि ऐसा करने पर वह कोपेपॉड और भी अधिक सक्रिय हो गया । मगर जब कोपेपॉड में डाले गए कृमिअलग-अलग उम्र के थे तो मामला कुछ पेचीदा रहा । 
जब दो अलग-अलग उम्र के कृमि कोपेपॉड मेंडाले गए तो उनकी जीवन चक्र की अवस्थाएं भी अलग-अलग थी । ज्यादा उम्र वाले कृमि के लिए वक्त आ चुका था कि वह किसी मछली मेंपहुंचे जबकि कम उम्र वाले कृमि के लिए कोपेपॉड में ही बने रहना जरूरी था । यानी ये दो कृमि कोपेपॉड के व्यवहार पर विपरीत प्रभाव डालने के इच्छुक थे । एक उसे सक्रिय बनाना चाहता था तो दूसरा निष्क्रिय । प्रयोग में देखा गया कि इस संघर्ष में बड़ी उम्र वाला कृमि जीत गया वह कोपेपॉड को सक्रिय बनाने में सफल हुआ । 
हैफर के मुताबिक इससे लगता है कि बड़ी उम्र का कृमि दूसरे कृमि के असर को खत्म करने के लिए कुछ करता है । उनके मुताबिक यदि दोनों अपना-अपना असर दिखाते तो कोपेपॉड की सक्रियता बीच में कहीं रहनी थी । इस प्रयोग से एक तो यह पता चलता है कि परजीवी अपने फायदे के लिए मेजबान की जीवन शैली को प्रभावित करते है और दूसरा कि वे एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा भी करते हैं। 

विस्फोटक रसायन से बनेगी मधुमेह की दवा 
अमेरिका के येल विश्वविघालय के वैज्ञानिकों ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान विस्फोटक बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले एक रसायन के जरिए अब मधुमेह की कारगर दवा बनाने का दावा किया है। 
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान डिनीट्रोफीनोल (डीएनपी) नाम का यह रसायन फ्रांस के हथियार बनाने वाले कारखानों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता था । इसे पीरिक एसिड के साथ मिलाकर विस्फोटक बनाए जाते    थे । कुछ दिनोंबाद यह देखने में आया कि जिन कारखानों में इसका इस्तेमाल हो रहा है वहां काम करने वाले मजदूर पसीने से लथपथ हो जाते हैं । इसके कारण उनका वजन भी बहुत ज्यादा घट रहा है । स्टैनफोर्ड विश्वविघालय के वैज्ञानिकों को इस पर शोध करना शुरू कर दिया । यह शोध विज्ञान पत्रिका साइंस जर्नल में प्रकाशित हुआ है । 
इस दौरान पता लगा कि इस रसायन के साथ संपर्क में आने वालों के शरीर की वसा बहुत तेजी से घटने लगी है । वैज्ञानिकों को लगा कि यह रसायन वजन घटाने वाली दवाआें में इस्तेमाल किया जा सकता है । बस फिर क्या था आनन फानन में बाजार में इस रसायन से युक्त २० किस्म की दवाएं बाजार में आ गई । १९३० के आते-आते इस दवा के फायदोंसे ज्यादा दुष्प्रभाव लोगों पर दिखने लगे । यहां तक की एक व्यक्ति की इसे खाने से मौत भी हो गई । जब यह खबर प्रकाशित हुई तो दवा बाजार से हटा ली गई । 
लगभग ८५ वर्षो बाद वैज्ञानिकों को एक बार फिर से डीएनपी रसायन की याद आई और उन्होनें इसके बेहद कम इस्तेमाल से मधुमेह की दवा बनाने का इरादा कर लिया । इस बार नई दवा में डीएनपी रसायन का बहुत कम इस्तेमाल किया गया यानी पहले जितना किया गया था उसका सौंवा हिस्सा ही लिया गया । 

माचीस की तीलियों से अनाज सुरक्षा
आपको सुनकर यह भले ही अजी लगे लेकिन यह सच है कि देश के अनेक हिस्सों में किसान अनाज भण्डारण की सुरक्षा के लिए अत्यन्त जहरीली सल्फास की गोलियों की जगह माचिस की तीलियों का सहारा ले रहे हैं।
   राष्ट्रीय समेकित नाशी जीव प्रबंधन अनुसंधान केन्द्र के निदेशक चितरंजन चट्टोपाध्याय ने पिछले दिनों एक सम्मेलन में जानकारी दी कि उ.प्र., हरियाणा तथा कई अन्य राज्यों के किसान माचीस की तीलियों और खान पकाने की गैस के पुराने पाइप से अनाज भण्डारण की सुरक्षा करते है ।
   उन्होने बताया कि किसान कीटनाशकों की जगह अनाज की एक परत के बाद माचीस की पांच-छह तीलियां डाल देते है फिर उसके ऊपर अनाज की एक परत डालते है । इसी तरह यह क्रम चलता रहता है, अनाज भण्डारण को सुरक्षित रखने के लिए कुछ किसान गैस पाईप के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर अनाज के बीच में डालते हैं इससे कीडें अनाज को नुकसान नहीं पहुँचाते है । 
वातावरण
स्वच्छ ऊर्जा से गंदा होता पर्यावरण 
नीना भण्डारी
आज से करीब ५० वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया में परमाणु हथियारों के  लिए हुए परीक्षणों की वजह से वहां के देशज निवासी एवं उनकी पैतृक भूमि वन  वनस्पति, पानी, हवा एवं वातावरण सभी कुछ प्रदूषित हो गया है । पांच दशकों के बाद भी स्थितियां काबू में नहीं आ पा रही हैं । 
हमारे राजनीतिक परमाणु ऊर्जा को स्वच्छ ऊर्जा बता रहे हैं । जबकि दूसरी ओर वैज्ञानिक तथ्य बता रहे हैं कि प्लूटोनियम २३९ कम से कम २४००० वर्षों तक सक्रिय रहता है । परमाणु हथियारों की समाप्ति भी क्या इस संकट से हमारी सभ्यता को बचा पाएगी ?
स्युकोलेमन-हासिल्डिनी नामक एक कोकाथा-मुला देश महिला तब तीन वर्ष की थी जब ब्रिटेन ने पश्चिमी आस्टे्रलिया के तट पर स्थित मोंटे बेल्लो द्वीप एवं दक्षिण आस्टे्रलिया के ईमु फील्ड एवं मारालिंगा में परमाणु हथियारों का परीक्षण किया था । सन्१९५२ से १९६३ के मध्य कुल १२ बड़े परीक्षण किए गए जिसने जहां स्यु एवं उसका परिवार और समुदाय जिस विशाल क्षेत्र में रहता था उसे प्रदूषित कर दिया था। स्यु अपने बुजुर्गोंा द्वारा उस क्षेत्र की स्वस्थ जलवायु एवं जीवनशैली का वर्णन करते हुए कहती हैं, ''जब परीक्षण प्रारंभ हुए तब उस क्षेत्र में देशज लोग रह रहे थे। परीक्षण के निकटस्थ क्षेत्रों के अनेक लोग या तो तुरन्त मारे गए या बीमार पड़ गए । पहले परमाणु बम का नाम था - 'टोटेम १' जो कि व्यापक क्षेत्र में फैलाऔर उससे फैले ''काले कोहरा'' की वजह से अनेक लोेग मारे गए या अंधे हो गए एवं बहुत बीमार भी    पड़े । उनका कहना है,''हमारे समुदाय के बुजुर्ग लोेग ''नुल्लाबोर धूल के  तूफान'' का जिक्र करते हैं, जो कि मारालिंगा परीक्षणों का परिणाम    था । हम लोग उस स्थान पर नहीं थे, लेकिन धूल एक जगह पर नहीं   टिकी । हवा उसे जहां ले गई वह वहां गई । लोग कैंसर से मर रहे थे और हमारे लिए यह एक नई स्थिति थी । ''उन्हें आस्टे्रलिया न्यूक्लीयर फ्री अलायंस (एएनएफ ए) द्वारा विकिरण पर हो रहे एक सेमिनार में समझ मेें आई थी ।
देशज लोगांे ने सन् १९९७ में ए.एन.एफ.ए. का गठन किया था जिसे पहले अलायंस अगेंस्ट यूरेनियम के नाम से जाना जाता था । इसमें आस्टे्रलिया के अनेक देशज समुदायों के लोग एवं गैर सरकारी संगठन इसमंे शामिल थे । देशज लोगों के लिए यह भूमि ही उनकी संस्कृति का आधार है । वह यह सुनकर स्तब्ध रह गई थी कि जो जंगली झाड़ी से निकला भोजन वह खाते हैं वह संभवत: संदूषित हैं । उसका कहना था कि यह (झाड़ियां) हमारे भोजन का सुपर मार्केट है, और हमारी औषधियों का औषधालय है, और इनकी देखभाल हमारा धर्म है । यह अर्थहीन है कि आप देशज हैं या नहीं क्योंकि देश के इस भाग में परिवारों में असामयिक बीमारी और मृत्यु एक सामान्य बात है। कैंसर एक बड़ी समस्या है और लोग थायराइड से भी बड़ी मात्रा में पीड़ित हैं । 
परीक्षण के समय प्रजनन संबंधी समस्याएं, मृत शिशु जन्म एवं जन्म के समय अपंगता सर्वव्याप्त हो गई थी, लेकिन  विकिरण  की समस्या वंशानुगत हस्तांतरित होती जा रही है । वह चाहती हैं कि परमाणु हथियारों पर स्थायी प्रतिबंध लगे एवं जिस यूरेनियम से यह तैयार होता है उसे जमीन के अंदर दबा रहने दिया जाए । गत वर्ष राष्ट्रीय सरकारों, संयुक्त राष्ट्र एजेंसी एवं नागरिक समाज पहली बार ओस्लो (नार्वे) मेंे परमाणु हथियारों के मानवों पर प्रभाव विषय पर आयोजित पहले सम्मेलन में मिले थे । इसके बाद अक्टूबर २०१४ में मेक्सिको में ऐसी ही बैंक में संयुक्त राष्ट्र संघ के १९३ में से१५५ सदस्य देश मिले और उन्होंने सं.रां साधारण सभा हेतु साझा वक्तव्य भी तैयार किया । इससे परमाणु हथियारों के विरुद्ध वातावरण का निर्माण पुन: आंरभ हुआ है ।
तमाम विरोधों के बावजूद इस वक्त दुनिया में करीब १७००० परमाणु हथियारों का भंडारण है जबकि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद रूस एवं अमेरिका ने बड़ी मात्रा में इन हथियारों को नष्ट किया है। आस्ट्रेलिया के समूहों का मानना है कि यह सही वक्त है जबकि आस्टे्रलिया भी उन देशों में शामिल हो जाए जो कि परमाणु हथियारों के  विरोध में है । हाल ही में रेडक्रास द्वारा यहां किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि १० में से ८ आस्टे्रलियाई नागरिक इन हथियारांे के खिलाफ   हैं । गौरतलब है विकिरण के प्रभाव समय व स्थान तक सीमित नहीं हैं । इसका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य, कृषि और प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता रहेगा । गौरतलब है आस्टे्रलिया के देशज समुदायों में अब यूरेनियम के दुष्प्रभावों को लेकर जागरुकता बढ़ती जा रही है ।
सन्१९८४ में समुदायों की परमाणु परीक्षण संबंधी बढ़ती चिंताओं के मद्देनजर आस्टे्रलिया की सरकार ने मारालिंग रायल कमीशन का गठन किया । इसमें विकिरण के  प्रभाव एवं रेडियोएक्टिव पदार्थ एवं जहरीले पदार्थोंा के निपटान के दौरान संपर्क में व्यक्तियों के संरक्षण को ध्यान में रखा गया था । रोजमेरी नामक एक कार्यकर्ता का कहना है कि गुप्त फाइलंे सन् २००३ तक यानि परमाणु परीक्षण के ५० वर्ष बाद तक तो उपलब्ध ही नहीं थीं । यहां सभी को मालूम था कि प्लूटोनियम २३९ को इस क्षेत्र में खुले में रखा गया  था । यह जहर मिट्टी में आ गया है, हवाओं के माध्यम से सब ओर फैल गया और लोग इसी में सांस ले रहेे हैं । इतना ही नहीं जंगली झाड़ी जिन्हें आप खाते हैं वह भी प्रदूषित हो चुकी है ।
गौरतलब है इस संदूषण के  बावजूद कुछ लोगों का दावा है कि यह क्षेत्र सुरक्षित है और वे इस क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा देना चाहते हैं । इस पूर्व परीक्षण स्थल की सफाई की जिम्मेदारी संघीय सरकार की है। मारलिंगा क्षेत्र की सफाई के  निरीक्षण के लिए सरकार द्वारा नियुक्त एलन्ष पार्किसन्स का कहना है कि यहां पर व्यापक प्रदूषण है और करीब १०० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को अभी भी साफ किया जाना है। यह प्लूटोनियम २३९ है और आगामी २४००० वर्ष बाद भी यहां उसमें से आधा तो मौजूद रहेेगा ।
रोजमेरी का कहना है कि परमाणु परीक्षण के परिणाम स्वरूप अनेक लोगों की तो तत्काल मृत्यु हो गई थी, लेकिन कई लोग लंबी बीमारी के साथ जीवन बिता रहे हैं, जिनमें कैंसर व विकलांगता प्रमुख  हैं । इसके अलावा बड़ी संख्या में लोग मानसिक अवसाद व मानसिक बीमारियों से भी ग्रस्त हैं । इसके जबरदस्त विपरीत सामाजिक प्रभाव भी सामने आ रहे हैं । इसने न केवल संस्कृति का नाश किया है बल्कि लोेगोंको और भी अंधेर में धकेल दिया है । परमाणु निषेध के पैरोकार चाहते हैं कि सरकार इस विध्वंस में अपनी भूमिका स्वीकारे एवं यूरेनियम के खनन पर रोक लगाए । ए.एन. एफ.ए. की बैक में यह बात सामने आई है कि आस्टे्रलिया के सैन्य प्रशिक्षण के दौरान ४० हजार राउंड यूरेनियम बुझे हथियार तैनात किए गए थे । इससे स्वास्थ्य पर पड़ रहे विपरीत प्रभावों का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है ।
कार्यकर्त्ताआेंने मांग की है कि सरकार संबंधित शोध के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध कराए । साथ ही पीड़ितों को यथोचित मुआवजा भी दंे तथा बीमार लोेगों की चिकित्सा प्रक्रिया पर भी पुनर्विचार करे । इसके अलावा जिन लोगों की जमीनंे अधिग्रहित की गई थीं या बर्बाद हुई हैं उन्हें भी पर्याप्त मुआवजा दिया  जाए । वैसे लोगों को आशा है कि विएना सम्मेलन की वजह से त्रासदी के बचे लोगों में उम्मीद जगी है और वे एक परमाणु हथियार मुक्त विश्व के सपने की आकांक्षा रख रहे  है । 
कविता
आओ पर्यावरण बचायें 
डॉ. विजय पण्डित
आओ पर्यावरण बचायें 
धरा प्रदूषण दूर भगायें । 
साफ रखें नाले व नाली,
पालीथीन न चलने वाली,
कूड़ा-करकट दूर हो घर से 
घर-घर में आये खुशहाली,
कपड़े के थैले सिलवायें । 
धरा प्रदूषण दूर भगायें । 
हरियाली देती है जीवन,
वृक्षों से जन्मों का बंधन
कल को दम ये घुट जायेगा 
मत काटो ये महके उपवन 
अधिकाधिक सब पेड़ लगायें
धरा प्रदूषण दूर भगायें । 
जल जीवन है इसे बचाओ
जोहड़ और तालाब बनाओ 
सूख न जाये भरा समन्दर
ऐसा न हो कल पछताओ
पानी न बेकार बहायें 
धरा प्रदूषण दूर भगायें । 
कल को जब जंगल न होगा 
कभी सुरक्षित कल न होगा 
नल तो होगा गली-गली में
पर उस नल में जल न होगा 
घर-घर तुलसी नीम लगायें 
धरा प्रदूषण दूर भगायें । 
विश्व महिला दिवस पर विशेष
महिलाएं : घरेलू काम, बिलकुल बे-दाम 
सचिन कुमार जैन

घर का काम करना स्त्री की जिम्मेदारी है और इस काम का कोई 'मोल' नही होेगा । यह हमारे समाज का मुखौटे के पीछे छिपा हुआ वह चेहरा है जो श्रम और आय को ऐसे परिभाषित करता है जिससे लिंग आधारित असमानता पैदा हो जाती है। 
सामाजिक ताने बाने मेें आर्थिक आकलन ही किसी योगदान का एक मात्र सूचक नहीं है परन्तु जब हमारी विकास की नीति में सबकुछ आर्थिक सूचकों के आधार पर निर्धारित हो रहा हो । देश की आधी आबादी याने महिलाओं का अर्थव्यवस्था में सीधा योगदान है, परन्तु उसे अदृश्य बना दिया गया  है । 
गली-मोहल्ले के छुटभइ्यों से लगाकर सत्ता के शिखर पर बैठे उंचे लोगों तक किसी से भी पूछें कि घर संभालती उनकी मां या बहन या पत्नी क्या करती हैं तो सभी कहेंगे 'कुछ नहीं करतीं ।' देश चलाने वाले हमारे अर्थशास्त्रियों, योजनाकारों, राजनेताओं और नौकरशाहों तक सभी का कमोबेश यही मानना है । यानि घर के बच्चें, जवानों और बूढों को उत्पादन कामों में अपना योगदान कर पाने लायक बनाए रखने की जिम्मेदारी निष्ठापूर्वक निभाने वाली घर की महिला के काम की कोई गिनती नहीं की जाती । समाज अपनी लाड-प्यार की चाशनी में लपेटकर उनके काम को खारिज करते हुए उसका वाजिब कीमत नहीं लगाता । तेजी से बढ़ती हमारी अर्थव्यवस्था में अब तक घेरलू काम को सामाजिक-आर्थिक स्तर पर कोई वैधानिक मान्यता नहीं मिली   हैं । दूसरी तरफ, महिलाओं के घरेलू काम की सरसरी तौर पर की गई पड़ताल बताती है कि उनके काम का मूल्य हमारे विशाल देश के कुल बजट से भी कुछ ज्यादा होता है ।
घर अपने आप में बाजार की ऐसी इकाई है, जहां आय और व्यय की व्यवस्था को ईमानदारी से आंके जाने की जरूरत को हमेशा छिपाया गया । स्त्री और पुरुष के बीच श्रम के विभाजन की पितृसतात्मक व्यवस्था में भोजन बनाने, साफ-सफाई करने, बर्तन और कपडे धोने जैसे काम स्त्री के हिस्से में डाल दिए गए । इन कार्योको स्त्री की जिम्मेदारी मानते हुए इनके आर्थिक मूल्यांकन की कोई व्यवस्था नहीं की गयी । लेकिन यही काम किसी बाहरी पेशेवर व्यक्ति  (अमूमन महिला ही होती है) से करवाया जाए तभी श्रम की कीमत देनी पड़ती है । साफ है कि असमानता और भेदभाव बनाये रखने के लिए `घर और घर की महिला` अपने आप ही राजनीति की एक ऐसी इकाई बन जाते हैं, जहां स्त्रियों पर पुरुषों का राज है । श्रम की परिभाषा मानवीय मूल्यों पर आधारित नहीं है। अगर होती तो नि:संदेह स्त्री के योगदान को पहचान मिलती और उसका मूल्यांकन भी होता । 
महिला हकों के लिए संघर्षरत संगठन यह साबित कर चुके हैंकि हर महिला कामकाजी है । फिर वह चाहे आमदनी के लिए श्रम करे या फिर घर-परिवार चलाने के लिए । इस हिसाब से मातृत्व हक पर हर महिला का अधिकार है। दो साल पहले माउंटेन रिसर्च जर्नल में उत्तराखंड के गढ़वाल अंचल का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था । विषय था-परिवार की खाद्य और आर्थिक सुरक्षा में महिलाओंका योगदान । इसमें पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं ने अध्ययनकर्ताओं से कहा कि वे कोई काम नहीं करती हैं। लेकिन विश्लेषण में पता चला कि  परिवार के  पुरुष जहां रोजाना औसतन ९ घंटे काम कर रहे थे, वहीं महिलाएं १६ घंटे खट रही थीं। तत्कालीन सरकारी दर पर मूल्यांकन करें तो पुरुष को १२८ रुपए और महिला को २२८ रुपए प्रतिदिन मिलने चाहिए ।