रविवार, 15 मार्च 2015

विश्व महिला दिवस पर विशेष
महिलाएं : घरेलू काम, बिलकुल बे-दाम 
सचिन कुमार जैन

घर का काम करना स्त्री की जिम्मेदारी है और इस काम का कोई 'मोल' नही होेगा । यह हमारे समाज का मुखौटे के पीछे छिपा हुआ वह चेहरा है जो श्रम और आय को ऐसे परिभाषित करता है जिससे लिंग आधारित असमानता पैदा हो जाती है। 
सामाजिक ताने बाने मेें आर्थिक आकलन ही किसी योगदान का एक मात्र सूचक नहीं है परन्तु जब हमारी विकास की नीति में सबकुछ आर्थिक सूचकों के आधार पर निर्धारित हो रहा हो । देश की आधी आबादी याने महिलाओं का अर्थव्यवस्था में सीधा योगदान है, परन्तु उसे अदृश्य बना दिया गया  है । 
गली-मोहल्ले के छुटभइ्यों से लगाकर सत्ता के शिखर पर बैठे उंचे लोगों तक किसी से भी पूछें कि घर संभालती उनकी मां या बहन या पत्नी क्या करती हैं तो सभी कहेंगे 'कुछ नहीं करतीं ।' देश चलाने वाले हमारे अर्थशास्त्रियों, योजनाकारों, राजनेताओं और नौकरशाहों तक सभी का कमोबेश यही मानना है । यानि घर के बच्चें, जवानों और बूढों को उत्पादन कामों में अपना योगदान कर पाने लायक बनाए रखने की जिम्मेदारी निष्ठापूर्वक निभाने वाली घर की महिला के काम की कोई गिनती नहीं की जाती । समाज अपनी लाड-प्यार की चाशनी में लपेटकर उनके काम को खारिज करते हुए उसका वाजिब कीमत नहीं लगाता । तेजी से बढ़ती हमारी अर्थव्यवस्था में अब तक घेरलू काम को सामाजिक-आर्थिक स्तर पर कोई वैधानिक मान्यता नहीं मिली   हैं । दूसरी तरफ, महिलाओं के घरेलू काम की सरसरी तौर पर की गई पड़ताल बताती है कि उनके काम का मूल्य हमारे विशाल देश के कुल बजट से भी कुछ ज्यादा होता है ।
घर अपने आप में बाजार की ऐसी इकाई है, जहां आय और व्यय की व्यवस्था को ईमानदारी से आंके जाने की जरूरत को हमेशा छिपाया गया । स्त्री और पुरुष के बीच श्रम के विभाजन की पितृसतात्मक व्यवस्था में भोजन बनाने, साफ-सफाई करने, बर्तन और कपडे धोने जैसे काम स्त्री के हिस्से में डाल दिए गए । इन कार्योको स्त्री की जिम्मेदारी मानते हुए इनके आर्थिक मूल्यांकन की कोई व्यवस्था नहीं की गयी । लेकिन यही काम किसी बाहरी पेशेवर व्यक्ति  (अमूमन महिला ही होती है) से करवाया जाए तभी श्रम की कीमत देनी पड़ती है । साफ है कि असमानता और भेदभाव बनाये रखने के लिए `घर और घर की महिला` अपने आप ही राजनीति की एक ऐसी इकाई बन जाते हैं, जहां स्त्रियों पर पुरुषों का राज है । श्रम की परिभाषा मानवीय मूल्यों पर आधारित नहीं है। अगर होती तो नि:संदेह स्त्री के योगदान को पहचान मिलती और उसका मूल्यांकन भी होता । 
महिला हकों के लिए संघर्षरत संगठन यह साबित कर चुके हैंकि हर महिला कामकाजी है । फिर वह चाहे आमदनी के लिए श्रम करे या फिर घर-परिवार चलाने के लिए । इस हिसाब से मातृत्व हक पर हर महिला का अधिकार है। दो साल पहले माउंटेन रिसर्च जर्नल में उत्तराखंड के गढ़वाल अंचल का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था । विषय था-परिवार की खाद्य और आर्थिक सुरक्षा में महिलाओंका योगदान । इसमें पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं ने अध्ययनकर्ताओं से कहा कि वे कोई काम नहीं करती हैं। लेकिन विश्लेषण में पता चला कि  परिवार के  पुरुष जहां रोजाना औसतन ९ घंटे काम कर रहे थे, वहीं महिलाएं १६ घंटे खट रही थीं। तत्कालीन सरकारी दर पर मूल्यांकन करें तो पुरुष को १२८ रुपए और महिला को २२८ रुपए प्रतिदिन मिलने चाहिए । 

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