गुरुवार, 18 दिसंबर 2014



प्रसंगवश   
जीव जन्तुआें की गजब है, दुनिया
    दुनिया में जीव-जन्तुआें  की करीब ७८ लाख प्रजातियां हैं, जिनमें से बहुतों के बारे में तो कुछ खास जानकारी हमारे पास नहीं है । लेकिन जिनके बारे में हमें पता है, उनमें से हर जीव की अपनी एक खासियत होती है ।
    दुनिया का सबसे बड़ा जीव ब्लू हे्वल है । इसकी लंबाई करीब १०० फुट और वजन कम से कम १२५ टन होता है । यानी इसका वजन करीब चार बड़े डायनासोर या २३ हाथी या २३० गायों या १८०० आदमियों के बराबर होता है । कई प्राणी अपने शरीर से प्रकाश पैदा करते है । इसे बायोलुमिनेसेंस कहते हैं । ब्राजील में पाए जाने वाले रेलरोड वर्म के सिर पर रेड लाइट होती है और नीचे की ओर ग्रीन लाईट होती है । दुनिया का सबसे तेज उड़ने वाला पक्षी पेराग्रिन फॉल्कन है । यह १६८ मील (२७० किलोमीटर) प्रति घंटा से लेकर २१७ मील (३४९ किलोमीटर) प्रति घंटा तक की गति से उड़ सकता है ।
    घड़ियाल (एलिगेटर) के बारे में एक मजेदार बात यह है कि अगर अंडा अंडा देने की जगह का तापमान ९० से ९३ डिग्री है तो अंडे से नर बच्च निकलेगा और अगर तापमान ८२ से ८६ डिग्री होगा तो अण्डे से मादा बच्च निकलेगा । मेरियन कछुए (१५० साल), फिन ह्वेल(११३ साल) और गहरे समुद्र में पाई जाने वाली क्लैम यानी डीप सी क्लैम (१०० साल) सबसे ज्यादा वर्षो तक जीवित रहने वाला जीव है ।
    एक वयस्क अफ्रीकन हाथी एक दिन में ६०० पाउंड भोजन खाता है, जो उसके शरीर के वजन का चार प्रतिशत होता है । दुनिया की सबसे छोटी मछलियां फिलीपींस की पिग्मी गोबी और लूजन गोबी हैं । पूरी तरह बढ़ जाने के बाद भी इनकी लंबाई केवल एक से डेढ़ सेंटीमीटर ही होती है । आदमी के बाद औजारों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल चिम्पांजी करते हैं । मैंड्रिल लंगूर की नाक लाल, गाल नीले और दाढ़ी नारंगी होती है । हमिंगबर्ड अपने पंखों को एक सेकेण्ड में ५० से ७० बार तक फड़फड़ा सकती है । जब ऑक्टोपस को गुस्सा आता है तो ब्लैक इंक जैसी बौछारें छोड़ता है । पूरी दुनिया में १०० अरब पक्षी हैं, जिनमें से ६ अरब अकेले अमेरिका में पाए जाते हैं ।
डूबते टापुआें से बढ़ता पलायन

    खबर यह है कि प्रशांत महासागर और कैरेबियन सागर के द्वीपों  से युवा लोग रोजगार और उच्च् शिक्षा की चाह में तेजी से पलायन कर    रहे   हैं । इन द्वीपों पर समुद्र के बढ़ते पानी में डूबने का खतरा मंडरा रहा  है ।  यह बात राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट में सामने आई  है ।
    समोआ, ग्रेनाडा, एंटीगुआ और डोमिनिका जैसे द्वीपों से पलायन इस हद तक हुआ है कि इनकी आधी आबादी वहां से चली गई है और पलायन करने वालों में अधिकांश युवा वर्ग के लोग हैं । यानी इन द्वीपों पर बुजुर्ग और बच्च्े ही रह गए हैं । राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम की सूचना अधिकारी मेलिसा गोरेलिक के मुताबिक इन छोटे द्वीपों से प्रतिभा पलायन की स्थिति गंभीर हो गई है ।
    दरअसल, ये छोटे-छोटे द्वीप जलवायु परिवर्तन की मार सबसे ज्यादा झेल रहे है । हाल ही में लघु विकासशील द्वीप राष्ट्रों की एक बैठक हुई जहां जलवायु परिवर्तन के असर पर बातचीत होनी थी । पलायन इस बैठक के एजेंडा का एक प्रमुख बिन्दु था । बातचीत में एक बात यह उभरकर आई कि ये द्वीप राष्ट्र एक ओर तो जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ते समुद्र तल का दंश झेल रहे हैं, वहीं युवा लोगों के अभाव में इनके लिए बढ़ते तूफानों और तीव्र होते ज्वारों का असर झेलना भी कठिन होता जा रहा है ।
    कई विशेषज्ञ कह रहे हैं कि ऑस्ट्रेलिया के ग्रामीण इलाकों में युवा डॉक्टरों, शोधकर्ताआें और शिक्षकों को आकर्षित करने के लिए जिस तरह के प्रलोभन सफल रहे हैं, उसी तरह की रणनीति इन द्वीपों पर भी आजमाना चाहिए । उपस्थित प्रतिनिधियों ने पैसिफिक ओशियन एलाएंस नामक एक संगठन का भी गठन किया है ताकि ये राष्ट्र समन्वित व संगठित रूप से बड़े देशों पर दबाव बना सकें कि वे जलवायु परिवर्तन, खास तौर से तापमान में वृद्धि को रोकने की दिशा में ठोस कदम उठा सके ।
सामयिक
पर्यावरण विनाश की ओर बढ़ती नीतियां
डॉ. महेश परिमल

    हाल ही मे सरकार ने नई पर्यावरण नीति की घोषणा की है । पर्यावरण और विकास दोनो ही साथ रहें, ऐसी सोच अब तक किसी सरकार में नहीं देखी गई ।
    आम तौर पर सरकार ऐसी नीतियां बनाती हैं, जिससे पर्यावरण का संरक्षण तो कम, विनाश अधिक होता है । कहा यह जाता है कि इन नीतियों से पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ विकास होगा, पर ऐसा होता नहीं है, बल्कि विकास के नाम पर विनाश ही अधिक होता है । एनडीए सरकार पर्यावरण के कारण अटकी परियोजनाओें को आगे बढ़ाना चाहती है । इसलिए पहले पर्यावरण मंजूरी की जो समय सीमा १०५ दिन थी, उसे घटाकर ६० दिन कर दिया गया है । सरकार की यह जल्दबाजी पर्यावरण और वन्य जीवो की सुरक्षा के लिए हानिकारक है । देश की पर्यावरण नीति गलत दिशा में जा रही है । इसके लक्षण अभी से दिखाई दे रहे हैं । 
     कितनी ही परियोजनाये ऐसी होती हैं, जिन्हें पर्यावरणीय अनुमति की आवश्यकता होती है । अनुमति प्राप्त् होने में कई बार देर हो जाती    है । किसी परियोजना से पर्यावरण को किस तरह से हानि हो सकती है, इसकी जानकारी रातों-रात पता नहीं   चलती । उसके लिए पर्यावरणविदों की एक टीम अध्ययन करती है, शोध करती है ताकि पता चल सके कि इस परियोजना से पर्यावरण को किस तरह से हानि होगी । कई परियोजनाओें के खिलाफ पर्यावरणविद्  लामबंद भी होते हैं । सरकार इन विरोधों को गंभीरता से न लेकर आरोप लगाती है कि वे लोग विकास का विरोध कर रहे हैं । कुछ ऐसा ही नई सरकार कर रही है । वह परियोजनाओें को धड़ाधड़ अनुमति देकर विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ना चाहती है ।
    पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पद संभालते ही यह संकेत दे दिया कि अब परियोजनाओें  को पर्यावरण अनुमति में विलम्ब नहीं होगा । अभी सरकार के पास पर्यावरण मंजूरी के लिए आने वाले ३५८ परियोजनायें विचाराधीन है । ये परियोजनायें इसलिए विचाराधीन है क्योंकि इस पर विचार चल रहा है ।
    मान लीजिए किसी परियोजना में वन्य जीव अभयारण्य या राष्ट्रीय उद्यान आ रहा हो, तो यह देखना होता है कि परियोजना स्थापित किए जाने के बाद वह वहां के वन्य जीवन को किस तरह से नुकसान पहुंचाएगा, वहां के प्राणियों का संरक्षण किस तरह से किया जाएगा,  संबंधित परियोजना प्राणी संरक्षण के लिए किस तरह का कार्य करेगी वगैरह । अधिकांश मामलों में यही होता है कि पूरे अध्ययन के बाद यह बात सामने आती है कि परियोजना के स्थापित होने से पर्यावरण को नुकसान अधिक होगा, इसलिए उन परियोजना को मंजूरी नहीं मिल  पाती ।
    लेकिन अब सरकार जल्दबाजी में कई परियोजनाओें को मंजूरी देने वाली हैं, जिससे पर्यावरण को नुकसान होगा, यह तय है । नई सरकार की इस तरह की पहल भविष्य में पर्यावरणीय नुकसान के लिए दोषी होगी । नई नीति में परियोजना स्थापित करने की इच्छुक कंपनी हो यह तय करेगी कि उसके परियोजना के असर का पर्यावरणीय अध्ययन कौन करेगा । यानी यदि ए नाम की कोई कंपनी पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाली परियोजना स्थापित करना चाहती है, तो वही तय करेगी कि कौन सी कंपनी पर्यावरण पर होने वाले असर का अध्ययन करेगी । यह तो वही बात हुई कि अपराधी से कहा जाए कि चार ऐसे इंसानों को सामने लाओ, जो तुम्हें निर्दोष बताएं । तय है कि इसमें भ्रष्टाचार होगा । कंपनी उन्हीं संस्थाआें को चुनेगी, जो उसके समर्थन में रिपोर्ट देने को तैयार हो ।
    पिछली सरकार ने यह नियम रखा था कि परियोजना की फाइल आने के १०५ दिनों के अंदर उसे पर्यावरणीय मंजूरी देनी है या नहीं, यह तय किया जाए । यानी परियोजना प्रस्तुत करने वाली कंपनी को कम से कम १०५ दिन तक तो इंतजार करना ही होता था । इसके बाद भी यह इंतजार काफी लंबा हो जाता था, इसलिए प्रस्ताव ताक पर रख दिए जाते थे ।
    नई सरकार ने १०५ दिन की इस समय सीमा को ६० दिन कर दिया है । इस समय सीमा का सख्ती से पालन करना होगा । यदि पालन नहीं किया गया, तो संबंधित अधिकारी को दण्ड दिया जाएगा, ऐसा प्रावधान भी किया गया है । यह काम सरलता से हो, इसके लिए कई काम ऑनलाइन करने की सुविधा भी दी जाएगी ।
    हकीकत यह है कि तमाम परियोजनाओं के पर्यावरण असर का अध्ययन ६० दिनों में संभव नहीं    है । मान लीजिए किसी पक्षी अभयारण्य के आसपास कोई परियोजना स्थापित किया जाना है । कंपनी इसके लिए सरकार को ग्रीष्म ऋतु मेंफाइल देती है । इसके बाद ६० दिन के नियम के अनुसार उस परियोजना के लिए हां या ना कह दिया जाता है । किंतु पक्षी अभयारण्य में कई प्रवासी पक्षी केवल शीत ऋतु में ही आते हैं । यह तथ्य अध्ययन मं नहीं आ  पाएगा । शीत ऋतु में जब यायावर पक्षी वहां पहुंचेंगे, उन्हें वहां पता चलेगा कि जहां वे अमूमन अंडे देते हैं, वहां तो फैक्टरी बन रही है । इस तरह से जल्दबाजी में निर्णय ले लिया जाता है, तो पक्षी अभयारण्य का क्या होगा ?
    अतीत में नर्मदा बांध, कुदनकुलम परमाणु संयंत्र, निरमा परियोजना, नियमगिरी में पॉस्को स्टील कारखाना आदि का काफी विरोध हुआ । कितने ही विरोध सही होने के कारण परियोजना बंद भी हुई है । यह सही है कि कुछ स्थानों पर गलत इरादे से विरोध भी होता आया है । सरकार ने इस मुद्दे को भी ध्यान में रखा है । नए नियम के अनुसार परियोजना की घोषणा होने के दो महीने के अंदर यदि किसी संगठन या व्यक्ति द्बारा विरोध नहीं किया जाता, तो यह माना लिया जाएगा कि इस परियोजना से किसी को भी किसी तरह का नुकसान नहीं हो रहा है ।
    सरकार यहीं नहीं रूकी है । अतीत में रद्द हो चुके परियोजनाआें को भी सरकार पर्यावरणीय मंजूरी देना चाह रही है । यह भी पर्यावरण के संदर्भ में एक नुकसानदेह कदम साबित होगा । पर्यावरण के नुकसान के चलते पॉस्को की योजना धराशायी हो गई । यदि इसे मंजूरी मिल गई होती, तो आडिशा में स्थापित होने वाला यह सबसे बड़ा स्टील प्लांट होता । गोवा में खनन कार्य बंद हो गया है । नई सरकार ये सब फिर से शुरू करना चाहती है । यदि यह सब होता रहा, तो किस तरह से पर्यावरण का सरंक्षण हो पाएगा ? इस समय सरकार के पास पर्यावरणीय मंजूरी के लिए लंबित परियोजनाआें की संख्या ३५८ है । इनमें से १३७ औघोगिक, ६९ इंफ्रांस्टक्चर, ३६ कोयले की खानें, ६३ अन्य खानें, २१ नदी घाटी, १७ नए निर्माण और १४ थर्मल परियोजना हैं ।
हमारा भूमण्डल
वैश्विक उथलपुथल का दौर
मार्टिन खोर

    सारा विश्व इस समय समस्याओं व अशांति से उबल सा रहा है । दुनिया का कोई भी क्षेत्र विकसित, विकासशील या अल्पविकसित, इस समय संकट में  है । हम सभी जानते हैं कि ईबोला का पहला मामला सन् १९८० के दशक में सामने आया था, लेकिन इसका उपचार ढूंढने में तेजी तब आई जबकि इसने पश्चिमी अफ्रीका में महामारी का रूप ले लिया और विकसित विश्व में भी दस्तक दे दी ।
    दो दशक पूर्व समाप्त हुए शीत युद्ध के बाद विश्वभर के लोगों ने सोचा था कि अब शांतिकाल आ गया है । एक राजनीतिक  वैज्ञानिक ने तो `इतिहास की समाप्ति` की भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि विचारधाराओं एवं बड़ी शाक्तियों के मध्य का संघर्ष समाप्ति हो गया है और मुक्त  बाजार एवं लोकतंत्र की वकालत करने वालों की जीत हो गई है। परन्तु संघर्ष समाप्ती का भ्रम समाप्त हो गया है। संयुक्त राष्ट्र के हालिया वार्षिक सम्मेलन में शामिल हुए नेताओं ने स्वीकारा कि `वैश्विक अशांति` अभी भी कायम है । 
     पश्चिमी अफ्रीका में इबोला के मामलों में जबरदस्त वृद्धि हो रही है और विद्यमान वित्तीय एवं आर्थिक संकट के चलते भी अशांति फैल रही है, जिसकी छाया विकासशील देशों पर पड़ रही है । अपने शुभारंभ भाषण में सं.रा. महासचिव बान की मून ने कहा कि `यह एक भयानक वर्ष रहा है । इसमें बमों से लोगों को उड़ाने से लेकर सिर कलम करने तक, नागरिकों को जानबूझकर भुखमरी में डालने से लेकर अस्पतालों पर हमले करने तक, सं.रा. राहत शिविर व सहायता वाहन, मानवाधिकार एवं कानून का राज सभी पर हमले हुए हैं । उन्होंने इसमें गाजा की त्रासदी, यूक्रेन की उथलपुथल दक्षिण सूडान के राजनीतिक युद्ध में हजारों की हत्या और मध्य अफ्रीकी गणराज्य, माली एवं दि साहेल एवं सोमालिया में संघर्ष को भी इसमें शामिल किया    है । इसके अतिरिक्त  उन्होंने इराक एवं सीरिया का जिक्र किया है, जहां हर दिन क्रूरता की नई हदें तोड़ी जा रही है ।
    इस वर्ष उम्मीद के क्षितिज पर अंधकार छा गया है। बयान न कर सकने वाले कार्यों एवं मासूमों की मृत्यु से हमारा हृदय व्यथित है । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से कभी भी इतने शरणार्थी, विस्थापित लोग एवं दूसरे देशों में शरण लेने वाले लोग नहीं   थे । संयुक्त  राष्ट्रसंघ ने अतीत में कभी भी इतने सारे लोगों के लिए आपात भोजन सहायता और जीवन रक्षक सामग्रियों की आपूर्तियों हेतु अपील नहीं की थी ।
    उन्होंने कहा कि आज हम प्राकृतिक आपदाओं से अधिक मानव निर्मित आपदाओं का सामना कर रहे हैं । उन्होंने वहां इकट्ठा हुए नेताओं से अपनी नेतृत्व क्षमता दिखाने और कार्यवाही करने का आह्वान किया । पश्चिमी नेताओं, खासकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने मुस्लिम अतिवाद से निपटने की आवश्यकता पर जोर दिया । उनका इशारा इस्लामिक स्टेट (आईएस) की ओर था । सितंबर में ओबामा ने सीरिया में आइएस के ठिकानों पर बमबारी के  आदेश दिए थे । लेकिन कुछ लोगों ने बमबारी की वैधता और उसी के साथ आतंकवाद से निपटने और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन पर दोहरा मापदंड अपनाने पर प्रश्न उठाते हुए इजराइली हमलों से गाजा में फिलिस्तीनियों की मृत्यु को लेकर इजराइल के खिलाफ कार्यवाही न करने का उदाहरण भी दिया ।
    जलवायु परिवर्तन व ईबोला का उभरना भी सितंबर महीने के दो मुद्दे रहे हैं । २३ सितंबर को बान की मून ने एक जलवायु सम्मेलन बुलाया था, जिसमें १०० से अधिक देशों के उच्च् राजनीतिकनेताओं ने भागीदारी की थी । इसके एक दिन पूर्व अनेक समूहों के ३ लाख से ज्यादा लोगों ने न्यूयॉर्क में प्रदर्शन करते हुए `जलवायु न्याय` की मांग की । यह जलवायु संबंधित अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन था । इसमें जलवायु संबंधी चरम दुष्परिणामों के सबूतों के सामने आने के बाद भी सरकारों द्वारा गंभीर कदम न उठाए जाने के प्रति बेचैनी दिखाई पड़ी । नेताओं ने उत्सर्जन में कमी का अपना वायदा दोहराया, लेकिन यह मूलत: पुराने वायदों की पुनरावर्ति ही थी जो कि वैसे भी अपर्याप्त सिद्ध हो चुके हैं।
    केवल तीन यूरोपीय नेताओं ने हरित जलवायु कोष के लिए यथोचित धन उपलब्ध कराने का वायदा (प्रतिदेश १ अरब डॉलर) किया । परंतु यह चार वर्ष पूर्व किए गए प्रति वर्ष १०० अरब डॉलर के वायदे से बहुत कम है । इस बात पर भी सवाल उठे कि विकसित देशों की सरकारें बाजार की उन ताकतों के खिलाफ कोर कार्यवाही करने से बच रही हैं, जिनकी वजह से जलवायु समस्या खड़ी हो रही है । इसके अलावा विकसित देश हेतु धन उपलब्ध कराने की अपनी प्रतिबद्धता से भी छिटक रहे हैं ।
    अंतिम दिन सामूहिक विमर्श में, राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, शक्तिशाली उद्योगपतियों/व्यापारियों, बैंक के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों, वैज्ञानिकों और कुछ फिल्मी सितारों (लियोनार्डों केप्रियो, लिबिंग बिंग) ने संबोधित किया । ग्राका माशेल (नेल्सन मंडेला की विधवा) ने अपने समापन भाषण में नेताओं को चुनौती भी दी । उन्होंने कहा कि `समस्या की विशालता और निपटने के उपायों में कोई तारतम्य ही नहीं है । आज लाखों लाख लोग सड़कों पर उतरे हुए हैं और प्रत्युत्तर में हम जो कर रहे हैं क्या वह काफी है? हमें पुन: ठीक से योजना बनानी होगी ।
    आप लोग जो वचन दे रहे हैंउसको देखिए और स्वयं से पूछिए कि क्या आप इसके माध्यम से इस चुनौती से निपट सकते हैं। यह हमारे लाभ के लिए नहीं बल्कि हमारे कल्याण और जीवित रह सकने के लिए है । आपकोे ऐसे निर्णय लेने का साहस उठाना पड़ेगा जो संभवत: कुछ हजार लोगों को पसंद न आएं, लेकिन वह करोड़ों के हित में होंगे । आपमें  इतना साहस होना चाहिए कि आप तकनीक में परिवर्तन और उसका नियमन अनिवार्य कर पाएं । उन लोगों को भी सुनिए जिनके हित इस परिवर्तन से जुड़े हैं।
    मैंने २५ सितंबर को ईबोला के खतरे पर हुए सत्र में भी भागीदारी की थी, जिसमें, अमेरिकी राष्ट्रपति न अन्य वैश्विक नेताओं ने सर्वाधिक प्रभावित तीन देशों लाइबेरिया, सिअरा लिओन एवं गुयाना को मदद देने का वचन दिया । तीनों देशों के राष्ट्रपतियों ने बताया कि `हमने परिवार पद्धति का विस्तार किया है जहां पर हम सदस्यों का ध्यान रखते हैंऔर मरने वालों के साथ खड़े रहते हैं। परंतु हम कमोवेश उस गुस्से के आगे झुक जाते हैं, जब हम लोगों से कहते हैं कि अपने बीमार बच्च्े या दफनाए जा रहे व्यक्ति  को न छुएं ? लाइबेरिया में अब तक १७०० लोग मर चुके हैं,  जिसमें तकरीबन १०० स्वास्थ्यकर्मी भी शामिल हैं।
    ओबामा ने चेतावनी दी कि यदि इसे रोका नहीं गया तो कुछ महीनों में इबोला हजारों लोगों को मार सकता है । विश्वबैंक के अध्यक्ष का कहना था कि उन्होंने अब तक इतनी भयानक महामारी देखी ही नहीं है । इसके लिए जो कुछ संभव हो वह नहीं बल्कि जिस भी तरह की भी आवश्यकता हो वह किया जाना चाहिए । सबसे गंभीर खतरा यह है कि यह प्राणलेवा बीमारी (दो संक्रमित में से एक की मृत्यु) को रोका नहीं गया तो यह पहले संपूर्ण पश्चिमी अफ्रीका को और अन्तोतगत्वा पूरे विश्व को चपेट में ले लेगी । बैठकमें सामने आया कि जब इस तरह के संकट में सं.रा. संघ एकजुटता हेतु महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।         डॉक्टर्स विद आउट बार्डर की प्रमुख जॉनी ल्यु जो कि मामले में सबसे आगे है और महीनों से इस खतरे के बारे में चेता रही हैंने बैठक को बताया कि, जो वायदे किए गए थे वे पूरे नहीं हुए हैं। मदद करने वाले कार्यकर्ता थकान से चकनाचूर हो चुके हैं, सबके मन में डर बैठ गया है और संक्रमण की दर प्रत्येक तीन हफ्तों में दुगनी हो रही है । स्वास्थ्य प्रणाली धराशायी हो चुकी है, मरीज भाग रहे हैं(भगाए जा रहे हैं) और वे घर लौटकर अपने परिवारों को भी बीमार कर रहे हैं। हमें जुटना पड़ेगा और कोई गली मत ढूंढिये । हमारे सामने जबरदस्त सांगठनिक समस्याएं हैं। संयुक्त  राष्ट्र इस मामले में असफल नहीं हो सकता । आज एक राजनीतिक संवेग चल रहा है और विश्व नेता होने के नाते लोग आपका मूल्यांकन भी करेंगे ।`
    स्वास्थ्य कर्मचारियोंएवं प्रशासकों की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है, क्योंकि उन्हें स्वयं यह प्राणलेवा बीमारी अपनी चपेट में ले सकती है। सम्मेलन में यह भी सामने आया कि पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य संकट किस हद तक पहुंच चुके हैं। बहुत से लोग इस ओर ध्यान भी दे रहे हैंऔर एक बेहतर विश्व के लिए संघर्ष को तैयार हैं। जमीनी मदद से सार्वजनिक मत बनाने में मदद मिलती है और राजनीतिक नेताओं पर कार्य करने का दबाव भी पड़ता है।   उथलपुथल के इस काल में हमें पलटकर वार करना ही होगा अन्यथा सब नैराश्य में चले जाएंगे । जैसे कि माशोल ने चेताया भी है, `हम एक ऐसी चट्टान के निकट खड़े हैंजो बहुत जल्द गिरने वाली है। वैश्विक राजनीतिक नेतृत्व से मिला प्रत्युत्तर चुनौती के समक्ष अपर्याप्त है और इसे बढ़ाया जाना अनिवार्य है ।`
जनजीवन
कचड़ा सिर्फ सड़क पर नहीं होता
न्या. चन्द्रशेखर धर्माधिकारी

    स्वच्छता अभियान को महज भौतिकसंसाधनों से जोड़कर देखने से इसे गांधी द्वारा परिकल्पित स्वच्छता अभियान नहीं माना जा सकता । शुद्ध वातावरण के समानांतर शुद्ध अंत:करण भी अनिवार्य है । दोनों में से किसी एक की अनुपस्थिति हमें और हमारे समाज को अपूर्ण बनाती है ।
    स्वच्छ भारत अभियान या सफाई के कार्यक्रम का स्वागत इसलिए करना चाहिए क्योंकि यह  `फैशनेबल इवेंट` नहीं, बल्कि प्रायश्चित का कार्यक्रम है। `झाड़ू` गांधी की सामाजिक विषमता तथा जात-पात पर आधारित ऊंच-नीच की भावना समाप्त करने वाली सामाजिक क्रांति का प्रतीक थी । वैसे भी क्रांति का अंकगणित नहीं होता, `प्रतीक` होते हैं। 
     झाड़ू या सफाई का कार्यक्रम जाति निवारण का व वर्ग निराकरण का भी प्रतीक था । उस क्रांति के पीछे भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व भावना निर्माण करना, जो धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव के परे हो, की भावना थी । असमानता में विश्वास रखने वालों के लिए स्वच्छता अभियान अखबार की खबर और हाथ में झाड़ू लेकर फोटो का पोज् छपवा लेने का कार्यक्रम है । सफाई कामगार को तो आज पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नसीब नहीं होता । जिनके मन `स्वच्छ` नहीं होंगे, उनके लिए यह `स्वच्छता अभियान` गांधी के क्रांति के प्रतीक झाड़ू की जगह नहीं ले पाएगा ।
    इससे उस अभियान के पीछे की भावना ही लुप्त हो जाएगी । शेष बचेगी सिर्फ शासकीय औपचारिकता। हमारे समाज में आज सफाई कामगार से गंदगी और कचरा करने वाले उच्च्वर्णीय और उच्च्वर्गीय लोगों की प्रतिष्ठा अधिक है। विसंगति और विरोधाभासी जात-पात पर आधारित सामाजिक विषमता जब तक समाप्त नहीं होगी, तब तक यह अभियान प्राणदायी नहीं बनेगा । इस अभियान की `एकला चलो रे` की घोषणा भी स्वागत योग्य है । गांधीजी भी व्यक्तिगत चारित्र्य और व्यवहार पर जोर देते थे ।
    सफाई में विश्वास रखने वालों को स्पष्ट करना होगा कि वे जातिभेद या वर्गभेद पर आधारित विषमता को अपने निजी जीवन में स्थान नहीं देंगे और न ही उसमें शामिल होंगे । साथ ही `मेरा जीवन ही मेरा संदेश है`, मानने वाले गांधीजी की विचारधारा और जीवनप्रणाली का निजी तथा सार्वजनिक जीवन में पालन करेंगे । वे लोग उन मंदिरों में नहीं जाएंगे, जहां स्त्री और दलित को प्रवेश नहीं है । गांधीजी स्वयं तो उस विवाह समारोह में भी हाजिर ही नहीं रहते थे, जिसमें शादी का एक पक्ष हरिजन न हो । इसीलिए वे महादेव भाई देसाई के पुत्र नारायणभाई के विवाह में उपस्थित नहीं रहे ।
    स्वच्छता अभियान जब मन की शुद्धि और हरिजन सेवा का कार्यक्रम बनेगा, तभी तो `मन   शुद्ध` होगा और स्वच्छ मन से स्वच्छता के अभियान में शरीक होने का अधिकार प्राप्त होगा । वैसे भी सभी के पाप धोते-धोते आज गंगा भी मैली हो गई है । भारत मेें सार्वजनिक सड़कें `कचरा डालने के लिए और गंदगी करने के लिए तो अपने बाप की है, लेकिन साफ करने के लिए वह किसी के भी बाप की नहीं है । यह है `मातृभूमि` या भारत की  स्थिति ।
    `हरिजन` शब्द का उपयोग तो महात्मा गांधी के पूर्व संत नरसी मेहता ने भी किया है, जो नागर ब्राह्मण थे । उनकी भी निकटता हरिजनों से थी । झारखंड मुक्ति आंदोलन के नेता तथा सांसद शैलेंद्र महतो के अनुसार हरिजन शब्द का सर्वप्रथम उपयोग महर्षि वाल्मीकि ने किया है, जो स्वयं अस्पृश्य थे। गांधीजी ने `हरिजन-सेवा` का कार्यक्रम स्थापित किया । वे जानते थे एक का उद्धार दूसरा नहीं कर सकता । गांधीजी जानते थे कि स्वयं मरे बिना स्वर्ग नहीं दिखता । हरिजन-सेवा का उनका कार्यक्रम सवर्णों के उद्धार के लिए था ।
    झाड़ू के माध्यम से शौचालय-सफाई का कार्य प्रतिदिन वे स्वयं और आश्रमवासी करते थे । वे मानते थे कि पीढ़ियों से समाज के एक वर्ग को अस्पृश्य मानने वाले सवर्णों को प्रायश्चित के रूप में हरिजन सेवा करनी चाहिए । हरिजन वास्तव में हरिजन यानी भगवान के पुत्र हैं ।  उच्च् वर्ग के लोगों का स्वच्छ और पवित्र जीवन अस्पृश्यों की ही देन    है । गांधीजी मानते थे कि जब सफाई कर्मचारियों के हाथ में भगवद् गीता और ब्राह्मणों के हाथ में झाड़ू आएगी, तब अस्पृश्यता मिटकर सामाजिक समता निर्मित होगी ।
    यह प्रश्न भी उठा कि यदि हरिजन भगवान के बालक हैं, तो क्या बाकी के सब दुर्जन या शैतान की औलाद हैं? गांधी का विचार था कि `आजकल` की अस्पृश्यता से जब सवर्ण हिंदू आंतरिक निश्चय से तथा स्वेच्छा से मुक्त  होंगे, तब हम सारे अस्पृश्यजन हरिजन के रूप में पहचाने जाएंगे, क्योंकि तभी हम पर ईश्वर की कृपा होगी । जबकि हम उन्हें दबाकर, कुचलकर आनंद मनाते आए हैं । अभी भी हमें हरिजन होने की छूट है । आज हमें उनके प्रति किए गए पाप के बदले अंत:करण-पूर्वक पश्चाताप करना चाहिए । अस्पृश्यता समाप्त कर एकात्म और एकसमान समाज का निर्माण करना, गांधीजी का ध्येय था ।             गांधीजी अपने को भंगी, कातनेवाला, बुनकर और मजदूर कहते थे । वे स्वेच्छा से भंगी बने थे। (मेहतर शब्द भी महत्तर शब्द का अपभ्रंश है।) अस्पृश्यता-निवारण का प्रयत्न उनके  जीवन का अभिन्न अंग था । इस काम के लिए प्राण अर्पण करने तक वे तैयार थे । वे पुनर्जन्म नहीं चाहते थे, पर होना हो तो उनकी इच्छा थी कि अस्पृश्य का ही हो । सन् १९१६ में अहमदाबाद की सभा में मस्तक आगे करके और गर्दन पर हाथ रखकर अत्यंत गंभीरता के साथ उन्होंने घोषणा की थी कि `यह सिर अस्पृश्यता-निवारण के लिए अर्पित  है ।` इसलिए गांधीजी की दृष्टि में झाड़ू क्रांति की प्रतीक थी । उनका मानना था कि समता पर आधारित समाज द्वारा ही क्रांति लाई जा सकती है । वरना समाज किसी भी परतंत्रता या गुलामी से लड़ नहीं सकता । दलितों में सबसे दलित, वाल्मीकि   ही हैं। पुत्र के जीवन में मां का    जो स्थान है, वही समाज के जीवन में सफाई करने वाले कामगार का   है ।
    वे कहते थे, `मैं भंगी को अपनी बराबरी का मानता हूं और सबेरे उसका स्मरण करता हूं । अस्पृश्यता निवारण करने का अर्थ है अखिल विश्व पर प्रेम करना और उसकी सेवा करना । यह अहिंसा का ही एक अंग है । अस्पृश्यता समाप्त करने का मतलब है मानव समाज की भेदभाव की दीवारों को ढहा देना, इतना ही नहीं, जीवनमात्र की ऊंच-नीच को समाप्त करना । अस्पृश्यता हिंदू धर्म का कलंक है । अस्पृश्यता मानना कथित स्पृश्य लोगों का महापातक है। अस्पृश्यता के खिलाफ मेरी लड़ाई अखिल मानवजाति की अशुद्धि से लड़ाई है । कोई भी भंगी जिस दिन राष्ट्रसभा का कारोबार सम्हालेगा, तब मुझे सच्च आनंद होगा ।`
    `अंत्योदय से सर्वोदय` गांधीजी के आंदोलन की दिशा थी । उसमें दयाभाव के स्थान पर कर्त्तव्य भावना ही अधिक थी । इसी कारण तो उनके रचनात्मक कार्यक्रमों में `हरिजन सेवा` और सफाई को महत्वपूर्ण स्थान था । गांधीजी ने `हरिजन सेवा` को सवर्णों का कर्त्तव्य माना था और नवीनतम स्वच्छ भारत अभियान की भी यही भूमिका होना चाहिए ।
    गांधीजी की भगवान की प्रार्थना की भूमिका थी,
हे नम्रता के सागर !
दीन-दुखी (भंगी) की हीन कुटिया के  निवासी ।
गंगा, जमुना और ब्रह्मपुत्र के जलों से सिंचित
इस सुंदर देश में
तुझे सब जगह खोजने में हमें मदद दे
हमें ग्रहणशीलता और खुला दिल दे,
तेरी अपनी नम्रता दे,
हिंदुस्तान की जनता से
एकरूप होने् की शक्ति  और उत्कठा दे 
हे भगवान !
    नम्रता की यह भावना इस अभियान का अधिष्ठान होना   चाहिए ।
वन जगत
पहाड़, नदी और समाज का रिश्ता
सचिन कुमार जैन
    प्रकृति एक ऐसी श्रंृखला है, जिसका कोई ओर छोर नहीं है । संस्कृति के हमारे शब्दकोष में एक नई संस्कृति, पर्यटन की संस्कृति और दूसरी विकास की संस्कृति भी जुड़ गई है । आज भारत जैसे विशाल देश से लेकर ३ लाख की आबादी वाला दुनिया का सबसे छोटा देश पूर्वी तिमोर भी अपनी अर्थव्यवस्था को पर्यटन की बैसाखी से पटरी पर ले आना चाहता है ।
    परंतु पर्यटन से परे जंगल अपनी विराटता में एक गंभीरता को समेटे रहते हैं। यदि हममें मौन रहकर संवाद करने की इच्छा है तो जंगल से अच्छा कोई साथी नहीं हो सकता । 
     नेपाल का धौलागिरी अंचल, अन्नपूर्णा पर्वत का आधार है । यह प्रकृति और मानव समाज को समझने के लिए सबसे उम्दा विश्वविद्यालय   है । धौलागिरी शब्द की उत्पत्ति  `धवल` से हुई है, जिसका मतलब होता है बहुत चमकीला सफेद तथा `गिरी` यानि पर्वत । धौलागिरी पर्वत दुनिया का सातवां सबसे ऊँचा पर्वत  है । इसकी ऊंचाई ८१६७ मीटर है । इसे एक अंचल भी माना जाता है, जिसमें नेपाल के चार जिले शामिल हैं। बाग्लुंग इनमें से एक है ।
    हिमालयी पहाड़ों के हिमखंडों से निकल कर काली गण्डक नदी अपनी पूरी तीव्रता से प्रवाहित हो रही है। जंगल और नदी के रिश्ते हमें समझा रहे हैंकि वे संसार को बनाए रखना चाहते हैं। जब तक कोई जंगल पर आक्रमण करके उनका विनाश नहीं कर देता तब तक नदी अपना रास्ता नहीं बदलती । यूं तो जंगल केवल जमीन के ऊपर ही नहीं होता बल्कि जमीन के भीतर भी उतना ही घना और गहरा फैला होता है । जड़ें जमीन के अंदर फैल कर मिट्टी को थाम लेती हैं। यह छोटे-छोटे कण मिलकर मिट्टी को एक आधार बना लेते हैं। यह जड़ें ही इसे नदी में बह जाने से बचा लेती हैं।
    जंगल मूसलाधार और कभी-कभी कई दिनों तक होने वाली बारिश को भी अपने भीतर थाम लेता है । लंबी यात्रा करके यह नदी भारत के बिहार राज्य के  हरिहर क्षेत्र (सोनपुर) में गंगा नदी में मिल जाती है । गंगा जो उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में दूषित और बीमार होकर यहां पहुंचती है गण्डक से मिलकर स्वस्थ्य होकर पुनर्जीवन पा जाती है । इस नदी को अब तक बाँधा नहीं गया है । दुखद यह है कि भारत सरकार अब नेपाल को इस बात के  लिए प्रेरित कर रही है कि वह गण्डक सरीखी नदियों पर बाध बनाये और बिजली पैदा करे । इससे हिमालय के पहाड़ कमजोर होंगे और प्राकृतिक आपदाएं भी आएँगी ।
    दूसरी तरफ पहाड़ों में बसे जंगल एक योजना बनाकर कोने-कोने में रात भर हुई बारिश की बूंदों को समेटे ले रहे थे । कितनी व्यवस्थित है प्रकृति । जब तक आसमान का पानी जमीन से नहीं टकराता, तब तक वह बूंद बना रहता है। जमीन उसका रूप, आकार और प्रभाव बदलकर उसे धारा में बदल देती है । पता नहीं इन पहाड़ों का पेट कितना बड़ा है, जो बूंदों को धारा तो बना देता है, पर बाढ़ बनने से रोक देता है ।
    धौलागिरी हिमालयी पहाड़ों से ये धाराएँ निकलकर काली गण्डक नदी में समा जाती हैं। इसे एक धारा कहें या एक नदी, यह इंसान जानवरों, पेड़ों, पक्षियों, सरीसृपों, मछलियों और सूरज को उनका हिस्सा देती हुई चलती है । कोई उससे उसका प्रवाह, उसकी निर्मलता, उसकी तरलता छीनने की कोशिश नहीं  करता । उन्हें पता है, नदी के होने से जंगल है और जंगल के होने से नदी और पहाड़ । ये दीगर बात है कि इंसान नदी से भी उसके नदी होने का हक भी छीन लेना चाहता है। अब काली गण्डक में से भी खोदकर रेत निकाली जाने लगी है । बस यहीं से शुरुआत होती है, नदी के विनाश    क ी । क्योंकि इससे नदी की वो झिरें मिटने लगती हैंै, जिनसे आकर वह नदी में मिलती है ।
    शायद बादलों को भी अपने काम का अहसास है। मन में एक सवाल उठ रहा था कि जब हम अपनी दुनिया से निराश हो जाते हैंतो नदी-पहाड़ों और जंगल की त्रिकोणी दुनिया में ही क्यों आना चाहते हैं? यहाँ ऐसा क्या होता है जो हमारी निराशा को मिटा देता है ? कुछ तो है, जिसे हम सभी लोग हवा में, हजारों झींगुरों की एक साथ निकल रही अविकल धुन में, पहाड़ी झरनों में तथा पहाड़ों पर चढ़ते समय खुलते फेफड़ोंमें महसूस कर सकते हैं। बाग्लुंग के तातापानी मोहल्ले तक पंहुचने के लिए हमने डेढ़ घंटे की फेंफड़ा खडकाऊ चढ़ाई चढ़ी । हम मन में यह सवाल लेकर हम चढ़े थे कि यहां के लोगों का कितना कठिन जीवन है यहाँ के लोगों का ? इनके आसपास कुछ नहीं है ।
    इन्हें हर छोटी-मोटी जरूरत के लिए पहाड़ चढ़ना-उतरना पड़ता हैं। ६५ घरों की यह बस्ती पहाड़ से नीचे क्यों नहीं उतर आती ? इस सवाल का जवाब ६० साल की चूराकुमारी किसान (यहाँ रहने वाली एक दलित महिला) देती हैं। उसने बताया यह कोई पीड़ा नहीं है । जैसे कुछ लोग सपाट सड़क पर चलते हैं,वैसे ही हम पहाड़ पर और जंगल में चढ़ते हैं। हमारे रिश्ते केवल आपस में ही नहीं हैं,(जंगल और पहाड़ की तरफ देखते हुए कहती हैं) इनसे भी तो हैं। यहां पिछले कई सालों में एक भी महिला की मातृत्व मृत्यु नहीं हुई, कोई बच्च कुपोषण से नहीं मरा, एक भी बलात्कार नहीं  हुआ । बच्च्े पाठशाला जाते हैं। हमें दुख यह पहाड़ नहीं देते, अपना समाज देता है । जब काम-काज नहीं मिलता तो दूसरे शहर पलायन करना पड़ा । हर घर से कोई न कोई कतर, मलेशिया, जापान या भारत में जाकर काम कर रहा है। यहाँ जातिगत भेदभाव चुनौती पैदा करता है, जंगल या पहाड़ नहीं । हमें तो यहीं अच्छा लगता है बस ।
    इस इलाके के लगभग ७ हजार युवा प्रति वर्ष पलायन करते हैं,क्योंकि सामाजिक भेदभाव ने उनके स्थानीय अवसर छीन लिए हैं वरना उन्हें यहाँ काम मिल सकता  था । इसी बदहाली के पलायन की स्थिति को अब सरकारें अवसर के  रूप में पका रही हैं,ताकि इसे आधार बना कर यहाँ विकास के नाम पर बड़ी परियोजनाएं लाई जा सकें । उनके नजरें पहाड़ों के बीच की त्रिशूली और काली गण्डक नदी पर है । जंगल शायद इसलिए अब भी बचा हुआ है, क्योंकि ऊँचे पहाड़ों तक पहंुचना अब भी थोडा कठिन है या फिर इसलिए क्योंकि लोग इन्हें अपना आराध्य मानते हैं।
    धौलागिरी के लोगों ने अपने विश्वास के चलते इन्हें (पेड़ों-पहाड़ों) को अब तक मिटने नहीं दिया तो भी क्या इससे वे खुद संकट से बच जायेंगे ? बड़ा पेचीदा सवाल है क्योंकि हमारे घर को ठंडा रखने के  लिए जो गर्मी और जहर हम बाहर फेंक रहे हैं,वह किसी सीमा में बंधता नहीं है । वह धौलगिरी भी पहुच जाता है । वह हिमालय पर्वत श्रृंखला के बर्फ के पहाड़ों को भी पिघला रहा है। जब बर्फ के पहाड़ पिघलेंगे तो काली गण्डक में भी बाढ़ आएगी और विनाश आएगा ।
    दुनिया में एक व्यक्ति या एक समुदाय के कर्म दूसरे व्यक्ति, समुदाय और क्षेत्र को सीधे-सीधे प्रभावित करते हैं। यहाँ भी करेंगे । यही कारण है कि मैं धौलागिरी के  पहाड़ों के बीच बसे गांवों से खुद को अलग करके नहीं देख सकता, क्योंकि उनसे मेरा कुछ न कुछ रिश्ता तो है ही ।
विज्ञान, हमारे आसपास
डालडा बनाने का नोबेल पुरस्कार
डॉ. सुशील जोशी

    डालडा हमारे देश में एक घरेलू नाम है । रोचक तथ्य यह है कि पाकिस्तान में भी डालडा खूब बिकता है । डालडा चीज क्या है ? दरअसल डालडा वनस्पति तेलों में थोड़ा परिवर्तन करके बनाई गई चीज है । रसायन शास्त्र की भाषा में कहें तो यह वनस्पति तेलों का हाइड्रोजनीकरण करके बनाई गई वसा है । वनस्पति तेलों का हाइड्रोजनीकरण की विधि १९०१ में विल्हेल्म नॉर्मन ने खोजी थी । दरअसल यह तेल को घी में बदलने की एक तरकीब थी जो व्यापारिक दृष्टि से खूब कामयाब रही मगर सेहत की दृष्टि से विवादास्पद । 
   वसा हमारे भोजन का एक महत्वपूर्ण अंग है । वसा की पूर्ति के लिए हमारे पार दो प्रमुख स्त्रोत हैं - वनस्पति तेल और जंतु स्त्रोतों से प्राप्त् वसा । जंतु स्त्रोतों से प्राप्त् वसा में घी और मक्खन का नाम प्रमुखता से आता है । वनस्पति तेलों और मक्खन-घी में प्रमुख अंतर क्या    है ? अधिकांश वनस्पति तेल साल भर सामान्य तापमान पर तरल होते हैं (खोपरे का तेल एक अपवाद है जो जाड़े के दिनों में जम जाता है) । दूसरी ओर घी, मक्खन आदि सामान्य तापमान पर अर्धठोस अवस्था में रहते हैं और थोड़ा-सा गर्म करने पर पिघल जाते हैं ।
    घी और तेलों के भौतिक गुण में यह अंतर उनकी रासायनिक संरचना का परिणाम होता है । वसा दरअसल कार्बनिक अम्लों और ग्लिसरॉल की क्रियासे बने यौगिक होते हैं । वसा में जो कार्बनिक अम्ल पाए जाते हैं वे कार्बन की काफी लंबी श्रृंखला के बने होते हैं । अक्सर ये श्रृंखलाएं १६ से लेकर १८ कार्बन परमाणुआें से बनी होती हैं ।
    कार्बन एक तत्व है जिसकी अन्य तत्वों से क्रिया करने की क्षमता ४ है । इसे संयोजकता कहते है । जब कार्बन अन्य तत्वों से क्रिया करता है तो इसी संयोजकता के आधार पर करता है । जैसे हाइड्रोजन की संयोजकता १ है । तो हाइड्रोजन के चार परमाणु कार्बन के १ परमाणु से क्रिया कर लेंगे । इस तरह जो यौगिक बनेगा उसमें कार्बन का १ व हाइड्रोजन के चार परमाणु होंगे और इसे मीथेन कहते हैं । रासायनिक भाषा में इसे उक४भी लिखा जाता   है । इसी बात को लिखने का एक तरीका और है:

        क   उ   क
            क       

ध्यान दें कि इसमें हर रेखा एक बंधन की द्योतक है  ।
    कार्बन का एक और महत्वपूर्ण व अनोखा गुण है । कार्बन के परमाणु एक-दूसरे से जुड़-जुड़कर  लंबी-लंबी श्रृंखलाएं बना लेते हैं । और कार्बन इस तरह एक-दूसरे से जुड़ते समय कई तरह से जुड़ सकता है । दोनों कार्बन परमाणु आपस में जुड़ने के लिए अपनी एक-एक संयोजकता का उपयोग कर सकते हैं, दो-दो संयोजकताआें का उपयोग कर सकते हैं और यहां तक कि तीन-तीन संयोजकताआें का उपयोग भी कर सकते हैं । इन्हें क्रमश: इकहरा, दोहरा और तिहरा बंधना कहते हैं ।
    उ-उ
    उ-उ
    उ=उ
    जाहिर है कि दोहरा बंधन पर दोनों कार्बन परमाणुआें की दो-दो संयोजकताएं मुक्त हैं और दोनों परमाणु दो-दो संयोजकताएं मुक्त हैं और दोनों परमाणु दो-दो और बंधन बना सकते हैं । तिहरा बंधन बनने के बाद दोनों परमाणु एक-एक बंधन और बना सकते हैं ।
    जब कार्बन की लंबी-लंबी श्रृंखलाएं बनती हैं तो प्राय: कार्बन परमाणुआें के बीच इकहरे बंधन बनते हैं । मगर कभी-कभी दोहरे व तिहरे बंधन भी बन जाते हैं । यदि ऐसी श्रृंखला में सिर्फ कार्बन और हाइड्रोजन के परमाणु हों, तो इस तरह बने यौगिकों को हाइड्रोकार्बन कहते हैं । यदि इन श्रृंखलाआें में अन्य परमाणुआें का भी समावेश हो तो तरह-तरह के यौगिक बनते हैं । जब कार्बन श्रृंखला में अम्ल समूह हो तो वसीय अम्ल बनते हैं । कार्बनिक अम्लों में अम्ल समूह उजजक होता है ।
    तेल वाली वसा और घी वाली वसा के बीच प्रमुख अंतर कार्बन परमाणुआें के बीच बने बंधनों का होता है । जैसा कि ऊपर कहा गया है,  तेल और घी दोनों कार्बन की  १६-१८ परमाणुआें की श्रृंखला वाले वसीय अम्ल होते हैं ।
उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उजजक
    यह १८ कार्बन परमाणु वाला एक वसीय अम्ल है । इसमें मानकर चलते हैं कि कार्बन परमाणुआें की जो संयोजकता मुक्त है वहां हाइड्रोजन का परमाणु जुड़ा है । आप देख ही सकते हैं कि इस यौगिक में सारे कार्बन परमाणुआें के बीच इकहरे बंधन हैं । अब यदि कहीं दोहरा बंधन हो तो उसे निम्नानुसार दर्शाते हैं :-
उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उ-उजजक
    ये तो हैं वसीय अम्ल । अब इनकी ग्लिसरॉल से क्रियाहो जाए तो वसा का निर्माण होता है ।
    घी और तेल में मुख्य अंतर यह है कि जहां घी-मक्खन वगैरह में कार्बन श्रृंखला इकहरे बंधनों से बनी होती है वहीं तैलीय वसाआें में कार्बन श्रृंखला में कहीं-कहीं दोहरे बंधन भी पाए जाते हैं । इन्हीं दोहरे बंधनों की उपस्थिति की वजह से इन दो तरह की वसाआें के भौतिक गुणों में फर्क पड़ जाता है । खास तौर से गलनांक और क्वथनांक में काफी अंतर होता है ।
    मगर उससे क्या फर्क पड़ेगा, खासकर भोजन पकाने के माध्यम के रूप में क्या फर्क पड़ेगा ? दोहरे बंधन की एक विशेषता होती है । जिन कार्बन श्रृंखलाआें में ऐसे दोहरे बंधन पाए जाते हैं जाहिर है उनमें अभी और हाइड्रोजन (या अन्य परमाणु) जुड़ सकते हैं । इस मायने में ये दोहरे बंधन वाली श्रृंखलाएं अंसतृत्प हैं । मात्र इकहरे बंधन वाली श्रृंखलाएं संतृप्त् श्रृंखलाएं होती है ।
    चूंकि तेल की वसा में असंतृप्त् दोहरे बंधन होते हैं, इसलिए इनमें अन्य परमाणुआें से जुड़ने की प्रवृत्ति पाई जाती है । रखे-रखे ही इनके दोहरे बंधनों वाले स्थलों पर अन्य परमाणु, खासकर ऑक्सीजन के परमाणु जुड़ते रहते हैं । हवा में ऑक्सीजन प्रचुर मात्रा में पाई जाती है और यह एक क्रियाशील तत्व है । वैसे तो हवा में नाइट्रोजन भी काफी मात्रा में होती है मगर नाइट्रोजन अपेक्षाकृत अक्रिय तत्वहै।
    जब पकाने के लिए तेल को गर्म किया जाता है तो दोहरे बंधनोंपर ऑक्सीजन के जुड़ने की क्रिया थोड़ी तेज हो जाती हैं । दूसरी ओर, घी वगैरह में दोहरे बंधन नहीं होते (यानी जन्तु वसाएं संतृप्त् होती हैं) और इनके इस तरह ऑक्सीकरण का खतरा नहीं रहता।
    ऑक्सीकरण की क्रियासे तेल के गुण बिगड़ते हैं । इसलिए तेल में पकाए गए पदार्थो को रखे रखना ज्यादा लम्बे समय तक संभव नहीं होता । यानी संतृप्त् वसा में पकाए गए पदार्थो के मुकाबले इनकी शेल्फ लाइफ कम होती है ।
    लेकिन जन्तु वसा महंगी पड़ती है । तेल और घी के दामों में अंतर से तो आप वाकिफ ही हैं । यही पदार्पण होता है हाइड्रोजनीकरण की महत्वपूर्ण प्रक्रिया का । किसी तरह से यदि तेलों की वसा को भी संतृप्त् बना दिया जाए, तो उनमें जन्तु वसा जैसे गुण आ सकते हैं । उनमें पकाए गए खाद्य पदार्थो की शेल्फ लाइफ भी बढ़ सकती है । और दाम घी की तुलना में फिर भी कम ही रहेंगे ।
    यही हुआ था सबसे पहले उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक यानी १८९० के आसपास । पॉल सेबेटियर ने एक विधि खोजी थी जिसकी मदद से असंतृप्त् वसाआें का हाइड्रोजनीकरण करके संतृप्त् वसा बनाई जा सकती थी । सेबेटियर को इस खोज के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था । अलबत्ता, सेबेटियर की विधि सिर्फ वाष्प अवस्था में कारगर थी । यानी जिस तेल का हाइड्रोजनीकरण करना है, उसे पहले वाष्प में बदलना होता था और एक उत्प्रेरक की उपस्थिति में हाइड्रोजन के संपर्क में लाना पड़ता था ।
    फिर १९०१ में जर्मन वैज्ञानिक विल्हेल्म नॉर्मन ने तरल अवस्था में ही तेलों का हाइड्रोजनीकरण संभव बना दिया और अपनी विधि का पेटेंट भी हासिल कर लिया । १९०९ में इस विधि का औघोगिक उपयोग शुरू हुआ और पहले साल में कुल ३००० टन हाइड्रोजनीकृत वनस्पति तेल का उत्पादन हुआ । खास तौर से बेकरियों में इस वसा की खूब मांग थी । सबसे बड़ी बात यह थी कि इस विधि से लगभग किसी भी तेल को घीनुमा वसा में बदला जा सकता था।
    उदाहरण के लिए यूएस में प्रोटीन के एक स्त्रोत के रूप में सोयाबीन का आयात किया जाता   था । सोयाबीन खली तो सीधे पशु आहार के रूप में खप जाती थी मगर सोयाबीन तेल का क्या करें ? उस समय बाजार में मक्खन की बहुत कमी रहा करती थी । तो सोयाबीन तेल को नॉर्मन विधि से हाइड्रोजनीकृत करके बेचा जाने  लगा । हाइड्रोजनीकृत वसा का उत्पादन लगातार बढ़ता गया और १९६० तक इसने बाजार पर कब्जा जमा लिया । यह भी कहा गया कि यह घी वगैरह से ज्यादा स्वास्थ्यकर है ।
    डालडा इसी प्रकार की हाइड्रोजनीकृत वसा है । डालडा की कहानी १९३० के दशक में शुरू होती है । हाइड्रोजनीकृत वसा (वनस्पति) को देश में लाने का श्रेय डच व्यापारियों को जाता है । डाडा एण्ड कम्पनी नामक एक डच कम्पनी वनस्पति का आयात करती थी । जल्दी ही यह काफी लोकप्रिय हो गया । १९३० के दशक में हिन्दुस्तान वनस्पति मैन्युफेक्चरिंग  कंपनी (जिसे आप हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड के नाम से जानते हैं) इनका उत्पादन स्थानीय स्तर पर भारत में ही करने की इच्छुक थी । डाडा एण्ड कम्पनी का आग्रह था कि यहां उत्पादित वनस्पति के नाम में उनका योगदान झलकना चाहिए । तो हिन्दुस्तान लीवर ने अपने नाम का एल डाडा के बीच में फिट किया और नाम बन गया डालडा । भारत में डालडा और वनस्पति घी शब्द लगभग पर्यायवाची हैं ।
    यहां एक बात गौरतलब है क्योंकि उसका संबंध हमारी सेहत से है । शुरूआत में जब वनस्पति तेलों के हाइड्रोजनीकरण की विधि खोजी गई थी, तो उसमें वसा तेल में मौजूद सारे दोहरे बंधनों का हाइड्रोजनीकरण हो जाता था । यानी पूरी कार्बन श्रृंखला संतृप्त् हो जाती थी । पूर्ण संतृप्त् वसा पकाने के लिए अच्छा माध्यम नहीं  है । आगे चलकर एक ऐसी विधि खोजी गई जिससे वसा का अपूर्ण हाइड्रोजनीकरण संभव हो गया । इस विधि ने कई समस्याआें को जन्म दिया ।
    खैर, यह तो हुई डालडा बनाने की विधि के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त् होने की । मगर जल्दी ही डालडा के स्वास्थ्य पर असर को लेकर सवाल उठने लगे ।
    अपूर्ण हाइड्रोजनीकरण के जरिए आंशिक रूप से संतृप्त् वसा का निर्माण होता है । इसकी प्रक्रिया कुछ ऐसी है कि इसमें प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली संतृप्त् वसा नहीं बनती बल्कि उससे थोड़ी भिन्न किस्म की वसा बनती है ।
    हाइड्रोजनीकरण का अर्थ है कि कार्बन के परमाणुआें के बीच जो दोहरा बंधन है उन्हें खोलकर दोनों कार्बन परमाणुआें पर १-१ हाइड्रोजन का परमाणु जुड़ जाए । अधूरे हाइड्रोजनीकरण के दौरान होता यह है कि पहले हाइड्रोजन जुड़ती है, फिर हट जाती है । यानी कुछ दोहरे बंधन इकहरे बंधन में बदलकर वापिस दोहरे बंधन में बदल जाते हैं ।
    कुदरती जन्तु वसा में भी कुछ मात्रा में अंसतृप्त् वसा पाई जाती है मगर इस अंसतृप्त् वसा और उपरोक्त नॉर्मन विधि से बनी संतृप्त् वसा में एक अंतर होता ह्ै - रसायन शास्त्र की भाषा में कहते हैं कि कुदरती असंतृप्त् वसा सिस होती है जबकि नॉर्मन विधि से बनी असंतृप्त् वसा ट्रांस होती है ।
    ट्रांस वसा का सेहत पर असर अब काफी जाना-माना है । ट्रांस वसा से रक्त में बुरे कोलेस्ट्रौल की मात्रा बढ़ती है जबकि अच्छे कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम होती है । इस वजह से ट्रांस वसाआें के सेवन  से ह्दय रोग की आशंका बढ़ती है ।  यह बात १९५० के दशक में पता चल चुकी थी मगर इसे स्वास्थ्य की एक बड़ी समस्या मानते-मानते  ४ दशक और बीते तथा १९९० के दशक में अंतत: साफ प्रमाण मिल गए कि ह्वदय रोगों में वृद्धि का एक बड़ा कारण ट्रांस वसा का बढ़ा हुआ सेवन है ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश के मुताबिक भोजन में प्रतिदिन अधिकतम इतनी ट्रांस वसा होनी चाहिए कि उससे आपको अपनी ऊर्जा का १ प्रतिशत प्राप्त् हो । तुलना के लिए देखें कि कई कंपनियों द्वारा निर्मित  फास्ट फूड का एक बार का सेवन इससे कहीं ज्यादा ट्रांस वसा प्रदान करता है ।
    अब कई देशों में खाद्य उत्पादों पर यह सूचना देना अनिवार्य कर दिया गया है कि उनमें कितनी ट्रांस वसा है । कई देश तो खाद्य पदार्थो में ट्रांस वसा के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने पर भी विचार कर रहे है ।
पर्यावरण परिक्रमा
भारत में सबसे बड़ी युवा आबादी
    भारत विश्व में सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश हैं । संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल जनसंख्या के मामले में हालांकि, भारत चीन से पीछे है, लेकिन १० से २४ साल की उम्र के ३५.६ करोड़ लोगों के साथ भारत सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश हैं । चीन २६.९ करोड़ की युवा आबादी के साथ दूसरे स्थान पर है । इस मामले में भारत व चीन के बाद इंडोनेशिया (६.७ करोड़), अमेरिका (६.५ करोड़), पाकिस्तान (५.९ करोड़), नाइजीरिया (५.७ करोड़), ब्राजील ( ५.१ करोड़) व बांग्लादेश ( ४.८ करोड़) का स्थान आता है । संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की दुनिया की आबादी की स्थिति के बारे मेंरिपोर्ट में यह ब्यौरा दिया गया    है ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि अपनी बड़ी युवा आबादी के साथ विकासशील देशोंकी अर्थव्यवस्थाएं नयी ऊंचाई पर जा सकती है । बशर्ते युवा लोगों की शिक्षा व स्वास्थ्य में भारी निवेश करें और उनके अधिकरों का सरंक्षण करें । युवा आबादी में ६० करोड़ किशोरियां हैं जिनकी अपनी विशेष जरूरतें, चुनौतियां व भविष्य के लिए आकांक्षाएं हैं । द पावर ऑफ १.८ बिलियन (१.८ अरब की शक्ति) शीर्ष की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की २८ फीसद आबादी की उम्र १० से २४ साल हैं । इसमें कहा गया है कि सबसे निर्धन देशों में युवा जनसंख्या सबसे तेजी से बढ़ रही है । इस समय वैश्विक स्तर पर युवाआें की जनसंख्या अपने सर्वकालिक उच्च् स्तर पर हैं । संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में १.८ अरब आबादी १० से २४ साल के बीच की है । प्रत्येक १० में से नौ युवा अल्पविकसित देशों में रहते हैं ।    
    सुयंक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के कार्यकारी निदेशक बाबातुंडे ओसोटाइमहिम ने कहा कि आज १.८ अरब युवा आबादी का आंकड़ा भविष्य में बदलाव के लिए बड़ा अवसर पेश करता है । रिपोर्ट में कहा गया है कि युवा आबादी से अधिकतम लाभ लेने के लिए देशों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उन्हें रोजगार व आमदनी के अवसर मिलें । रिपोर्ट कहती है कि उचित नीतियों व मानव श्रम में निवेश से ये देश अपनी युवा आबादी को आर्थिक और सामाजिक विकास को आगे बढ़ाने के लिए सशक्त कर सकते हैं और प्रति व्यक्ति आय बढ़ा सकते हैं ।

कान्हा को पेंच से जोड़ने के लिए मिली हरी झण्डी
    मध्यप्रदेश में लगातार बढ़ रहे बाघों की संख्या के बाद उनके विचरण के लिए और ज्यादा जंगल क्षेत्र तैयार करने प्रदेश के सभी टाइगर रिजर्व को आपस मेंजोड़ा जा रहा है । बांधवगढ़-संजय व पन्ना टाइगर रिजर्व को आपस में जोड़ने का काम वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) देहरादून से स्वीकृत नक्शे के आधार पर हो रहा है । बांधवगढ़ और संजय टाइगर रिजर्व के बीच विकसित होने वाले सीसीएफ शहडोल सुनील अग्रवाल के अनुसार कान्हा को पेंच से जोड़ने के लिए १६० किलोमीटर लंबे और ढाई हजार हेक्टेयर जंगल को डिमार्ककेट किया गया है ।
    इस प्रोजेक्ट को राज्य शासन से हरी झंडी मिल जाने के बाद अगली मंजूरी के लिए केंद्र सरकार को भेजी गई है । बांधवगढ़ को संजय टाइगर रिजर्व से जोड़ने के लिए जयसिंहनगर-अमझोर रास्ते के अलावा अन्य दो रास्तों की रिपोर्ट बनाई जा रही है । जिसकी लंबाई ६० से ७५ किलोमीटर है ।
    टाइगर रिजर्व को आपस में जोड़ने वाले कॉरिडोर का चयन बाघों के मूत्र-मल  का सेंपल लेकर डीएनए के आधार पर तय किया जाता है । बाघ जिस रास्ते पर पहले कभी चले हैं, उसी क्षेत्र में कॉरिडोर तैयार    होगा । बाघों के आवागमन के लिए सुरक्षित माहौल बनाने घना जंगल तैयार किया जाएगा । करीब ३ किलोमीटर चौड़ाई वाले कॉरिडोर के बीच मेंकहीं भी गांव, सड़क , रेल्वे लाइन पड़ने पर जरूरी विस्थापन सहित दूसरे विकल्पों पर गौर किया जाएगा । कॉरिडोर से दूसरे वन्यप्राणियों का विचरण हो ऐसा वनक्षेत्र विकसित किया जाएगा ।

गंगा पर शोध के लिए खुलेगा अनुसंधान संस्थान
    गंगा की धारा को अविरल एवं निर्मल बनाने की पहल के तहत वैज्ञानिक आकलन और प्रभावी योजना  तैयार करने के साथ शोध को बढ़ावा देने के लिए सरकार वाराणसी मेंसेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन (सीडब्ल्यूपीआरएस) पुणे की शाखा खोलने पर विचार कर रही है । जल संसाधन एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि नदी मात्र जल निकाय नहीं होकर, तलछट, जल, वनस्पति, प्राणी समुच्च्य का जटिल तंत्र होती है । इसलिए यह जरूरी है कि इन्हें संरक्षित करने के  क्रम में नदी के सभी अवयवों सहित समस्त नदी समुच्च्य का अध्ययन किया जाए ।
    गंगा का प्रभाव क्षेत्र बनारस, पटना, पश्चिम बंगाल जैसे उत्तर भारत के क्षेत्र में है जिसकी लम्बाई करीब २५०० किलोमीटर है । ऐसे में मंत्रालय ने बनारस में  गंगा शोध संस्थान स्थापित करने के प्रस्ताव को आगे बढ़ाने की पहल की है । अधिकारी ने बताया कि इस पहल को आगे बढ़ाते हुए वाराणसी में सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन (सीडब्ल्यूपीआरएस) की शाखा खोलने का विचार किया जा रहा है । इसके तहत मंत्रालय में संयुक्त सचिव के स्तर पर इस पहल को आगे बढ़ाया जा रहा है ।
    सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन की एक शाखा दिल्ली में भी स्थापित किये जाने का प्रस्ताव है । हाल में दिल्ली में मंत्रालय की ओर से आयोजित गंगा मंथन कार्यक्रम में पारित प्रस्ताव में कहा गया कि विभिन्न संस्थाआें में गंगा नदी के संबंध मेंअनेक अनुसंधान किये गए हैं लेकिन ये सूचनाएं बिखरी हुई हैं । इसलिए गंगा नदी के बारे में सम्पूर्ण समग्र अनुसंधान, अध्ययन और अधिक नीतिगत हस्तक्षेप किये जाने की जरूरत हैं ।


 देश मेें साक्षरता दर मे वृद्धि
    शिक्षा पर जारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में ऐसे २४.८८ घर हैं जिसमें से ९.५६ करोड़ (३८.४२%) में कम से कम ४ सदस्य ऐसे है जो पढ़ना, लिखना जानते हैं । लेकिन देश में २.४२ करोड़ ( ९.७४%) घर हैं, जिनमें एक भी सदस्य साक्षर नहीं   है । साल २००१ की जनगणना से तुलना करने पर, ३५.२८% घरों में ४ साक्षर सदस्य और १४.४% घरों में एक भी नहीं था ।
    भारत में साक्षरता दर में (७ साल और उससे अधिक की जनसंख्या के बीच) एक प्रभावी छंलाग लगाई है । देश की साक्षरता दर अब ७४ फीसदी पर जा पहुंची है जो साल २००१ में ६४.८४ % फीसदी पर    थी । ग्रामीण इलाकों में, यह अब ६८ फीसदी है जबकि शहरी इलाकों में ८४ फीसदी है । साक्षरता दर की गणना एक गृहस्थ के संबंध मेंकी जाती है जिसे आमतौर पर साथ रह रहे समूह से जाना जाता है, जो रसोई से अपना भोजन ले रहे होते हैं, जबतक कि काम की अनिवार्यता उन्हें ऐसा करने से रोक दे । शास्त्र युनिवर्सिटी के डीन एस विद्यासुब्रह्मयम ने बताया कि बीते १० सालों में देश में व्यापक स्तर पर साक्षाराता दर में मिली कामयाबी की बडी वजह सर्व शिक्षा अभियान जैसी स्कीम और स्कूलों में अधिक नामांकन होना है ।

मंगलयान २०१४ के सर्वश्रेष्ठ आविष्कारोंमें शामिल
    अमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम पत्रिका ने भारत के मंगलयान को २०१४ के सर्वश्रेष्ठ आविष्कारों में शामिल किया है और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक ऐसी उपलब्धि बताया है जो भारत को अंतरग्रहीय अभियानों में पांव पसारने का मौका प्रदान    करेगी । टाइम ने मंगलयान को द सुपरमार्ट स्पेसक्राफ्ट की संज्ञा दी है ।
    पत्रिका ने कहा कोई भी मंगल ग्रह पर पहली कोशिश में नहीं   पहुंचा । अमेरिका नहीं कर सका, रूस नहीं कर पाया और न ही यूरोपीय देश कर पाये । लेकिन २४ सितंबर को भारत ने ऐसा कर दिखाया । ऐसा तब हुआ तब मंगलयन लाल ग्रह की कक्षा में प्रवेश कर गया, एक ऐसी उपलब्धि जो कोई अन्य एशियाई देश हासिल नहीं कर पाया । टाइम पत्रिका ने मंगलयान को २०१४ के २५ सर्वश्रेष्ठ आविष्कारों में शामिल किया है जो दुनिया को बेहतर, सुन्दर और कुछ मामलों में आनंददायक बनाने वाले हों । टाइम ने कहा कि मंगलयान पर जो पांच उपकरण लगाये गए हैं, उनके माध्यम से मंगल ग्रह पर मिथेन का आकलन करने और उसकी सतह की बनावट के बारे मेंजानकारी जुटायी जायेगी ।
    पत्रिका ने कहा, महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे भारत को अंतरग्रहीय अभियान में पांव पसारने में मदद मिलेगी जो देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम और विशेष तौर पर विज्ञान के क्षेत्र मेंबड़ी बात होगी । इस सूची में दो भारतीयों के आविष्कार भी शामिल है जो अलग थलग रखे   जाने वाले कैदियों को योग करने के लिए स्थान उपलब्ध कराने और   बच्चें के लिए खिलौना टेबलेट से जुड़ा है ।
विशेष लेख
एजुसैट : अंतरिक्ष से अध्यापन का एक दशक
चक्रेश जैन

    २० सितम्बर को अंतरिक्ष से अध्यापन कर रहे एजुसैट उपग्रह के दस साल पूरे हुए हैं । वास्तव में एजुसैट ने एक शिक्षक की भूमिका निभाई है । यह देश का पहला शैक्षणिक उपग्रह हैं, जो पूरी तरह विद्यार्थियों के ज्ञानवर्धन के लिए है । इसने महानगरों से लेकर सुदूर देहातों  के विद्यार्थियों की कक्षा में लेक्चर दिया और बाद में प्रश्नों का समाधान किया । एजुसैट ने एक दशक तक शिक्षण-प्रशिक्षण के साथ विज्ञान लोकप्रियकरण में भी भूमिका निभाई है । 
   २० सितम्बर २००४ भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में वह गौरवशाली दिन है, जब श्री हरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से वैज्ञानिकों और तकनीकी विशेषज्ञों ने एजुसैट को समारोहपूर्वक विदाई दी थी । एजुसैट का अनुमानित जीवनकाल सात वर्ष था लेकिन उसने इस अवधि को पूरा करते हुए दीर्घायु का वरण किया है और दसवीं वर्षगांठ मनाई है ।
    एजुसैट का एक और नाम जीसैट - ३ भी है । हालांकि यह नाम जनमानस के बीच लोकप्रिय नहीं हुआ है । सौर ऊर्जा चालित १९५० किलोग्राम वजनी एजुसैट उपग्रह पृथ्वी से ३६००० किलोमीटर की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में विराजमान है ।
    शैक्षणिक उपग्रह एजुसैट में मुख्य रूप से केयूबैंड ट्रांसपोंडर और विस्तारित सी बैंड ट्रांसपोेडर लगे हुए हैं । ट्रांसपोंडर वे इलेक्ट्रानिक उपकरण हैं, जो भू-केन्द्रों द्वारा भेजे गए विद्युत चंुंबकीय संकेतों को ग्रहण करते हैं और उनको आवर्धित करके फिर से प्रसारित करते हैं । इस विधि के जरिए ही किसी उपग्रह तक कार्यक्रम भेजा जाता है और उसका प्रसारण होता है । पृथ्वी पर दो प्रकार के टर्मिनल स्थापित किए गए हैं । वे टर्मिनल जा उपग्रहों से प्राप्त् संकेतों को केवल ग्रहण करते हैं, उन्हें रिसीव ओनली टर्मिनल (आरओटी) कहते हैं । दूसरे प्रकार के वेटर्मिनल हैं, जहां सकेतों को ग्रहण करने के साथ उनका प्रसारण भी किया जा सकता है ।
    हमारे यहां १९७५-७६ के दौरान पहली बार उपग्रह से शैक्षणिक कार्यक्रमों के प्रसारण का डेमो सफल रहा । इस कार्यक्रम का नाम सेटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपेरीमेंट यानी साइट था । यह अनूठा प्रयोग था । इसके लिए अमेरिकन एप्लीकेशंस टेक्नॉलॉजी सेटेलाइट एटीएस-६ का उपयोग किया गया था । साइट के जरिए ४५,००० अध्यापकों को भी प्रशिक्षित किया गया । इसके जरिए छह राज्यों के लगभग ढाई हजार गांवों में स्वच्छता, स्वास्थ्य और परिवार नियोजन के कार्यक्रम प्रसारित किए गए ।
    भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने अक्टूबर २००२ में एजुसैट प्रोजेक्ट यानी शिक्षा के लिए एक विशिष्ट उपग्रह पर विचार   किया । दरअसल शैक्षिक सेवाआें के लिए इनसैट श्रृंखला के उपग्रहों की सफलता को ध्यान में रखते हुए यह विचार सामने आया जो  बाद में साकार हो गया । एजुसैट का विकास विद्यालयों, महाविद्यालयों और उच्च् शिक्षण संस्थानों को परस्पर जोड़ने के लिए किया गया है । बीते वर्षो में भारत में दूरस्थ शिक्षा के प्रोत्साहन और विस्तार में एजुसैट ने शानदार भूमिका निभाई है । इसमें विकासात्मक संचार भी सम्मिलित है।
    हमारे देश के ग्रामीण और सुदूर देहात के विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती रहा है । ग्रामीण इलाकों में पर्याप्त् इन्फ्रास्ट्रक्चर और अच्छे अध्यापकों की आज भी कमी है । इस दृष्टि से देखा जाए तो एजुसैट ने अहम योगदान किया है । असल में इस उपग्रह के माध्यम से इन्फ्रास्ट्रक्चर से युक्त शैक्षणिक संस्थाआें को इन्फ्रास्ट्रक्चर रहित अर्ध-शहरी और ग्रामीण शैक्षणिक संस्थाआें से जोड़ा गया है । इस प्रणाली के माध्यम से अकेले एक अध्यापक ने देश के विभिन्न भागों में स्थित विद्यालयों और महाविद्यालयों में एक साथ  हजारों विद्यार्थियों को पढ़ाने का अभिनव इतिहास रचा है ।
    एजुसैट के माध्यम से टेलीविजन स्टुडियो में बैठे विशेषज्ञ प्राध्यापक व्याख्यान देते हैं, जिसका महाविद्यालयों में उपलब्ध कराई गई रिसेप्शन सुविधाआें के जरिए प्रसारण होता है । इस प्रसारण को सुनने और देखने का मौका विद्यार्थियों को मिला है । एक बात और एजुसैट में उपलब्ध द्विपक्षीय संवाद सुविधा से विद्यार्थियों को प्रश्नोत्तर का अवसर भी मिला   है । एजुसैट में क्षेत्रीय बीम होने का यह लाभ है कि अध्यापक ने अपनी क्षेत्रीय भाषा में कक्षा का संचालन किया । पूरे एक दशक के दौरान गुरूजी ने शैक्षिक जगत में नई पहचान बनाई है ।
    कर्नावट का विश्वेश्रैया तकनीकी विश्वविघालय (वीटीयू) देश का पहला विश्वविद्यालय है, जिसने एजुसैट उपग्रह आधारित ई-कक्षा के माध्यम से एक हजार कक्षाआें का सफल आयोजन किया । इस विश्वविघालय के अन्तर्गत ११८ इंजीनियरिंग कालेजों के विद्यार्थियों को कम्प्यूटर विज्ञान सहित इंजीनियरी की विभिन्न विधाआें में पढ़ाया गया । एजुसैट कार्यक्रम के अन्तर्गत कर्नाटक के ही चामराजनगर के ९०० प्राथमिक विद्यालयों के बच्चें को शिक्षण के अभिनव तरीके से जुड़ने का मौका मिला । इग्नू ने शुरू में ही एजुसैट की मदद से प्राथमिक और उच्च्तर माध्यमिक शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए एक कॉन्सेप्ट पेपर भी तैयार किया था ।
    एजुसैट ने शिक्षण-प्रशिक्षण के साथ विज्ञान लोकप्रियकरण के विराट मैदान में भी अपनी विलक्षण क्षमताआें का परिचय दिया है । विज्ञान प्रसार ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो की डेवलपमेंट एंड एजूकेशनल कम्युनिकेशन यूनिट डेकू के साथ एजुसैट नेटवर्क की स्थापना की है जिसका उद्देश्य विज्ञान लोकप्रियकरण है । विज्ञान प्रसार द्वारा एजुसैट नेटवर्क के माध्यम से पहले चरण मे ३ जनवरी २००६ से कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू किया गया है । वर्तमान में राज्यों की विज्ञान परिषदों के सहयोग से विज्ञान प्रसार के ५० सैटेलाइट इंटरेक्टिव टर्मिनल (एसआईटी) कार्यरत हैं । सैटेलाइट इंटरेक्टिव टर्मिनल (एसआईटी) नेटवर्क की विशेषता यह है कि इसमें सामान्य कार्यक्रमों के दौरान दर्शकों को अपने प्रश्नों का तत्काल समाधान मिल जाता है । विज्ञान प्रसार एजुसैट नेटवर्क का केन्द्र दिल्ली में है,ं जहां से कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता है । विज्ञान प्रसार के एजुसैट नेटवर्क द्वारा ग्रीष्मकालीन विज्ञान महोत्सव, लोकप्रिय विज्ञान व्याख्यानों, प्रश्नोतरी, प्रशिक्षण कार्यशालाआें आदि का प्रसारण किया गया है ।
    बीते वर्षो में एजुसैट उपग्रह ने अनेक तकनीकी संभावनाआें को साकार किया है, जिनमें रेडियो और टेलीविजन प्रसारण, वीडियो कॉन्फ्रेंसिग, ऑनलाइन शिक्षा, वेबकैम, डाटा प्रेक्षण, डीटीएच प्रणाली आदि सम्मिलित हैं । देश में एजुसैट के माध्यम से न केवल औपचारिक शिक्षा का सशक्तिकरण हुआ बल्कि विभिन्न सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूकता का प्रयास भी किया  गया । इनमें ऊर्जा संरक्षण, पर्यावरण चेतना एवं जन स्वास्थ्य सम्मिलित  है ।
    एजुसैट नेटवर्क ने प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को कंपनियों के साथ संवाद का अवसर प्रदान किया और उद्योग जगत को अपने व्यवसाय के लिए विश्वविद्यालयों से अच्छे विद्यार्थियों के चयन मेंअत्यधिक मदद मिली । एजुसैट उपग्रह से मिले लाभ भारत तक सीमित नहीं है । दक्षिण एशियाई देशों को भी इसका लाभ मिला है । सारांशत: कहा जा सकता है कि एक दशक में एजुसैट उपग्रह यानी गुरूजी ने दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में भारत को नेतृत्वकारी भूमिका में पहुंचा दिया है ।    
कविता
पारस पत्थर
डॉ. दिनेश देवराज
    कुछ लोग बात करते रहते हैं पारस की,
    जिसको छू कर लोहा कंचन हो जाता है ।
    पह पारस पत्थर कहाँगया इस धरती से,
    यह सोच सोच हर लोलुप मन ललचाता है ।।
    पारस पत्थर तो वह गोफन का ढेला है,
    जिससे किसान की बेटी खेत रखाती है ।
    पारस पत्थर तो उस खुरपी की धार जड़ा,
    जिससे बधुआ की बेटी खेत निराती है ।।
    पारस पत्थर तो वह कुदाल का टुकड़ा है,
    जिससे चट्टानी परतें तोड़ी जाती है ।
    जिसके दम पर पर्वत की चौड़ी छाती से,
    जल धाराएँ नहरों की मोड़ी जाती है ।।
    पारस पत्थर तो हल का है वह फाल जिसे,
    छूकर धरती पर नव फसलें लहराती हैं ।
    पारस पत्थर की भस्म छिपी गोधूली में,
    जो गोधन के खुर से गृह तक उड़ आती हैं ।।
    पारस पत्थर तो वह पत्थर का टुकड़ा है,
    जिस पर हंसिया की धार बनाई जाती है ।
    पारस पत्थर तो वह घूरे का गोबर है,
    जिससे धरती की सेज सजायी जाती है ।।
    पारस पत्थर तो वह माता की छाती है,
    जिसको छूकर हर शिशु पौरूष बल खाता है ।
    पारस पत्थर बैलों के खुर में जड़ा हुआ,
    जो बंजर को खेती योग्य बनाता है ।।
    पारस पत्थर तो वह किसान की गृहणी है,
    जो एक फटी धोती पाकर मुस्काती है ।
    पारस पत्थर तो वह ग्रामीण जवानी है,
    जिसके दम पर यह दुनियाँ रोटी पाती है ।।
    पारस पत्थर तो गाँव-गाँव में खिरा है,
    यह सभ्य नगर के लोग समझ कैसेंपायें ।
    पारस पत्थर तो वह गंवार खेतिहर ही हैं,
    जो छुए न तो ये शहर भूख से मर जायें ।। 
ज्ञान विज्ञान
बंदर विडियो देखकर उसकी तरह व्यवहार करते हैं

    मार्मोसेट (एक प्रकार का बंदर) पर किए गए अध्ययन से पता चला है कि वह केवल अपने परिवार के लोगों से ही नहीं सीखता है बल्कि वीडियो या स्क्रीनपर दिखाई देने वाले पात्रों से भी सीखता है । जंगली जीवों के व्यवहार को जानने के लिए इस तरह का वीडियो अध्ययन पहली बार किया गया है ।
    ऑस्ट्रिया के विएना विश्वविद्यालय की टीना गनहोल्ड और उनके साथियों ने मार्मोसेट पर एक अध्ययन किया । इसमें उन्होनें  मार्मोसेट  की एक फिल्म बनाई जब वह एक प्लास्टिक उपकरण में से जुगाड़ करके कोई खाने की चीज निकाल रहा था । इसके बाद उन्होनेंअटलांटिक जंगल में रहने वाले मार्मोसेट बंदरों को यह वीडियो दिखाया । 
    यह देखा गया हे कि युवा बंदर अपने ही सामाजिक समूह से सीखने में कुशलहोते है । मगर इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है कि क्या वे अजनबियों से भी सीख सकते हैं । मार्मोसेट इलाका बनाने वाले प्राणी हैं । इसलिए संभव है कि बाहर से आने वाले किसी अन्य प्राणी को बर्दाश्त न करें और हमला कर दें । यहां तक कि पर्दे पर दिखाए जाने वाले अजनबी से भी व्यवहार ऐसा ही हो सकता है ।
    गनहोल्ड का कहना है कि हम यह नहीं जानते थे कि मार्मोसेट वीडियो बॉक्स का क्या करेंगे, क्या उसे तोड़ देंगे ? लेकिन इसका उल्टा हुआ वे सब इसकी तरफ आकर्षित हुए । मार्मोसेट इस वीडियो को देखकर उसकी तरह व्यवहार करने की कोशिश कर रहे थे ।
    इस वीडियो बॉक्स के आसपास वयस्क बंदरों की अपेक्षा कम उम्र के बंदर ज्यादा मंडरा रहे   थे । और उनमेंसे एक ने तो वीडियो में दिखाए गए काम को अंजाम भी दे दिया ।  मगर एक बंदर ने जब यह काम वीडियो देखकर सीख लिया तो उसके बाद कहना मुश्किल है कि बाकियों ने यह काम वीडियो देखकर सीखा था या अपने साथियों से ।
    गनहोल्ड का कहना है कि इस तकनीक का उपयोग कई तरह से किया जा सकता है । जैसे उनके प्राकृतिक आवास मेंदेखा जा सकता है  कि क्या बंदर अपने से प्रभावी समूह की बजाय अपने अधीन समूह का वीडियो देखना ज्यादा पंसद करते हैं ।

कॉफी की बात ही कुछ और है
    कॉफी, चाय व कई अन्य स्फूर्तिदायक पेय पदार्थोंा में कैफीन पाया जाता है । पहले माना जाता था कि पौधों में कैफीन निर्माण की क्रियाविधि एक बार विकसित हुई और फिर वह कई पौधों में बनी रही। मगर अब कॉफी के जीनोम के विश्लेषण से पता चला है कि कॉफी और चाय में कैफीन निर्माण अलग-अलग रास्तों से होता है । यानी जैव विकास में कैफीन निर्माण कई बार स्वतंत्र रूप से विकसित हुआ है । 
     कॉफी लोकप्रिय पेय पदार्थ  है । एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में लगभग ११० लाख हैक्टर पर कॉफी उगाई जाती है और प्रतिदिन करीब २ अरब प्याले कॉफी पी जाती है । हम जो कॉफी पीते हैं वह दो प्रजातियों - कॉफी केनफोरा और कॉफी एरेबिका - के पौंधो के फलों को सड़ाकर, भूनकर  और पीसकर बनाई जाती है । प्रचलित भाषा में केनफोरा कॉफी  को रोबस्टा और दूसरी को अरेबिका कॉफी  कहते हैं । अरेबिका कॉफी में कैफीनकी मात्रा थोड़ी कम होती है ।
    हाल ही में वैज्ञानिकों ने कॉफी रोबस्टा के जीनोम का विश्लेषण पूरा कर लिया है । उन्होंने पाया कि रोबस्टा के पौधे में २५,००० जीन्स हैं जो प्रोटीन बनाने की क्षमता रखते हैं । अब उन्होंने यह देखा कि कैफीनबनाने वाले अन्य पौधों और कॉफी के बीच अंतर क्या हैं । यह साफ हो गया कि कॉफी के पौधे में कैफीनबनाने वाला एंजाइम और चाय व अन्य पौधों में कैफीनबनाने वाला एंजाइम अलग-अलग हैं । जब एंजाइम अलग-अलग है तो उनमें कैफीन निर्माण के रास्ते भी अलग-अलग होंगे ।
    इस शोध के मुखिया न्यूयॉर्क में बफेलो विश्वविघालय के विक्टर अलबर्ट का कहना है कि इससे स्पष्ट है कि कैफीन निर्माण की क्षमता का विकास वनस्पति जगत में कम से कम दो बार स्वतंत्र रूप से हुआ है ।
    तो इन पौधों के लिए कैफीन का ऐसा क्या महत्व है कि इसकी उत्पत्ति कई बार हुई ? एक तो कैफीन पौधों को कुछ सुरक्षा प्रदान करता   है । यह देखा गया है कि कॉफी के पौधे में सबसे ज्यादा कैफीन उसकी पत्तियों में पाया जाता है । ये पत्तियां जब जमीन पर गिरती हैं तो उस जगह अन्य पौधे नहीं उग पाते । शायद यह कॉफी के पौधों को चरने-कुतरने वाले जन्तुआें से भी बचाता है । मजेदार बात यह है कि जो कैफीन हमें स्फूर्ति प्रदान करता है वह प्रकृति मेंभी कुछ इसी तरह की भूमिका निभाता है । कॉफी के फूलोंका परागण कीट करते हैं । देखा गया है ये कीट कॉफी के नशे के आदी हो जाते हैं और उन पौधों पर बार-बार लौटना चाहते हैं । यही तो हम भी करते हैं ।

रास्ते का नक्क्षा बना, मधुमक्खियां लौटती हैं घर

    इस शोध ने मधुमक्खियों के विचारण को लेकर हमारी विचारधारा को और अधिक रोचक बना दिया है । फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ बर्लिन ने न्योरोलोजिस्ट रेनडोल्फ मेंजल ने कहा है कि यह कई लोगों के लिए आश्चर्य की बात हो सकती है कि इतने छोटे से सिर में इतनी ज्यादा स्मृतियां बन सकती है, जो काग्निटिव मैप कहलाती है ।
    इस शोध से यह बात सामने आई है कि मधुमक्खियों को उनके छत्ते तक पहुंचाने का एकमात्र साधन सिर्फ सूरज नहीं  है । इसके बदले में वह खास मानचित्र का सहारा लेती है, जो उनके दिमाग में स्थान का नक्शा तैयार कर देता है, जिसकी मदद से वह अपने घर वापस लौट आती है । इंसानों के दिमाग  में यह मानचित्र रोज बनता है । इंसान बिना खिड़की वाले दफ्तर  में भी अपने घर की दिशा बता सकते है । ईस्ट लैसिंग स्थित मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के व्यवहारिक जैव वैज्ञानिक फ्रेड डायर ने कहा है कि वे अपने घर की तरफ इशारा कर सकते हैं, जबकि इसे देख नहीं सकते । 
    अध्ययन यक बताता है कि मधुमक्खियों भी कुछ इसी तरह कर सकती हैं । शोधकर्ताआें ने इसका पता लगाने के लिए मधुमक्खियों और सूरज के बीच अवरोध उत्पन्न किया । उन्होनें कृत्रिम तरीके से मधुमक्खियों को निन्द्रा की अवस्था में पहुंचाया और जब वह नींद से जागी, मेंजल और उनके साथियों ने उन्हें मुक्त किए गए स्थान से सैकड़ों मीटर दूर उनके छत्ते तक उनकी चाल की हार्मोनिक रडार प्रणाली के जरिए रिकार्ड   किया । जब मधुमक्खियों को जब अनजाने स्थान पर मुक्त किया गया, पहले वह गलत दिशा में उड़ी । वे अपनी छत्ते से विपरीत दिशा में     उडी । जब उनके अपने उठने के समय में बदलाव हुआ उन्हें सुबह होने का अहसास हुआ, इसलिए वे सूरज की किरणों पर आधारित दिशा के अनुसार, गलत दिशा में उड़ी । मेंजल कहते हैं कि लेकिन जब उन्होनें उड़ान दोबारा शुरू की, उन्होनें सूरज से मिलने वाले संकेतों को दरकिनार कर दिया । वह उसके सहारे चल रही थी, जो काग्निटिव मैप थी ।
विशेष रिपोर्ट
नर्मदा संघर्ष यात्रा का रतलाम प्रवास
डॉ. पूूनम शर्मा

    रतलाम के लिए ३० नवम्बर का दिन सौभाग्यशाली  रहा । नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रणेता मेघा पाटकरजी के नेतृत्व मेें नर्मदा संघर्ष यात्रा २८ नवम्बर को बड़वानी से प्रारंभ होकर ३० नवम्बर को रतलाम होते हुए ०१ दिसम्बर को दिल्ली पहुंची ।  मेधाजी ने सवाल उठाया कि गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों के लिये जल आपूर्ति एवं औद्योगिक विकास के नाम पर म.प्र. की जीवन रेखा को खत्म करना कहॉ तक सही है । 
    नर्मदा घाटी दुनिया की सबसे पुरानी संस्कृतियों में से एक  है । नर्मदा पर ३० बड़े व १३५ छोटे बाँध बनाकर उसे तालाब में परिवर्तित किया जा रहा है ।
    सरदार सरोवर के एक ही बाँध को १२२ मीटर से १३९ मीटर तक बढ़ाने का सरकार का निर्णय है जिससे २४५ गाँव प्रभावित   होगे । घाटी के किनारे बसे आदिवासी पीढ़ियों से ही खेती पर आश्रित है, नदी से जुड़े मछुवारे, कुम्हार, कारीगर, व्यापारी जंगल, सब विनाश की कगार पर है ।
    किसानों की अमूल्य भूमि, उपजाऊ जमीन, हजारों पक्के घर, दुकान, शालाएँ, धर्मशालाएँ, घाट, लाखों पेड़, जंगल, हरी भरी खेती व प्राणियों का भविष्य सब डुबाया जाऐगा । किसान बेघर व बेरोजगार हो रहे है व हो जाऐगे । मध्यप्रदेश में नर्मदा पर बन चुके और बंध रहे बाँधों के पीछे निजी कपंनियों की परियोजनाआें को साकार करने के लिए पानी व जमीन दी जा रही है । बर्गी से मान बाँध तक और आेंकारेश्वर, इन्दिरा सागर नहरों से भी निजी कंपनियों के लिए क्षेत्र निश्चित व सुरक्षित किये जा रहे    है ।
    मध्यप्रदेश के विकास के लिए बड़वानी, धार, खरगोन, निमाड़ की उपजाऊ खेती की जमीन उद्योगों को देने के साथ नर्मदा का पानी पीथमपुर औघोगिक क्षेत्र तथा उज्जैन, नीमच, मन्दसौर और रतलाम का दिल्ली-मुम्बई कोरिडोर का हजारो हेक्टर का क्षेत्र उद्योगपतियों को देने के लिए शासन तैयार है । ४८ करोड़ रूपये खर्च से चलने वाली आेंकारेश्वर क्षिप्रा योजना उद्योगपतियों के लिए विकास के नाम पर सुरक्षित की जा रही है । शहर के लोगों तक इस पानी के पहुंचते ही पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र जैसी जमीने किसानों से ले ली जावेगी । यहाँ भी वैसा ही संघर्ष देखने को मिलेगा जैसा ३० सालों से नर्मदा घाटी में हो रहा है ।
    इन्दौर मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा शहर है और इसकी आबादी लगभग ३० लाख है । ९० प्रतिशत पानी की पूर्ति १०० किलोमीटर दूर नर्मदा के जल से होती है । ४० किलोमीटर दूर स्थित औद्योगिक नगर देवास पेयजल के लिए इन्दौर की जल योजना पर निर्भर है । देवास के औद्योगिक क्षेत्र के लिए नर्मदा के तट नेमावर से पानी लाया जा रहा है । महू भी नर्मदा के जल पर ही आश्रित है । पाइपों के माध्यम से नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ने को नदी जोड़ कहा गया है और इसके लिए शासन की ओर से २००० करोड से अधिक की राशि भी स्वीकृत हो चुकी है । जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले ३० वर्षो यानि सरदार सरोवर बाँध निर्माण के साथ ही नर्मदा नदी में पानी की असाधारण कमी आई है और आने वाला समय और भी खतरनाक साबित होगा ।
    अत: मध्यप्रदेश में बन रहे बाँधों के प्रति सचेत, सजग रहना होगा, वरना मध्यप्रदेश को रेगिस्तान में परिवर्तित होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा । जल ही जीवन है, जल हमारी राष्ट्रीय सम्पत्ति है, निजी    नहीं । जल के  बिना प्रत्येक प्राणी का जीवित रहना असंभव है, प्रत्येक प्राणी को जल मिलना चाहिए । कुदरत की इस अनमोल देन जल को हमेशा के लिए खत्म होने से बचाना हम सबका कर्तव्य है, तभी जल संकट का सामना किया जा सकता है । यदि आज हम जल बचाऐगे तो कल हमें जल बचाऐगा । आज हम किसान व उनकी भूमि बचाऐगे तो कल वो हमें भूख हत्या से बचाऐगे ।
    विगत ३० वर्षो से विख्यात, समाज सेविका मेधा पाटकर नर्मदा बचाओ आन्दोलन के माध्यम से जन कल्याण व जनहित में प्रयासरत है । आइये हम भी सर्वे भवन्ति सुखिन् की कामना करते हुए जनहित व लोक कल्याण के लिए जाग्रत होकर देश के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और युक्तियुक्त उपयोग की नीति बनाकर इन्हें जन सामान्य को सुलभ कराने में आन्दोलन के सहभागी बनें ।
    नर्मदा संघर्ष यात्रा के साथ सुश्री मेधा पाटकर के रतलाम प्रवास के चंद घण्टे पर्यावरणविद् डॉ. खुशालसिंह पुरोहित की सजगता से रतलामवासियों को एक अविस्मरणीय अवसर से लाभान्वित कर गये । मेधाजी का जन्मदिवस १ दिसम्बर है। वे ३० नवम्बर को रतलाम में थी, जन्मदिन की पूर्व संध्या जनसंवाद कार्यक्रम में अत्यन्त ही भावनात्मक माहौल में उपस्थित जनसमुदाय के बीच डॉ. पुरोहित ने फूलमाला, शाल एवं श्रीफल से षष्ठिपूर्ति पर अभिनंदन किया और पर्यावरण डाइजेस्ट की वार्षिक जिल्द भेंट की ।    
    सभागृह में सभी उपस्थितजनों ने खड़े होकर करतल ध्वनि कर मेधा पाटकर के ६०वें जन्मदिवस को ऐतिहासिक और विस्मरणीय बना दिया । अपने अभिनंदन से अभिभूत मेधाजी ने रतलाम प्रवास की अल्पावधि को महत्वपूर्ण बताते हुए भविष्य में शीघ्र ही रतलाम दौरे का आश्वासन  दिया । कार्यक्रम का सफल संचालन दिनेश शर्मा द्वारा किया गया । इस अवसर पर युवाम संस्थापक पारस सकलेचा सहित शहर के गणमान्य नागरिक बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
सामाजिक पर्यावरण
भौतिक विकास का नैतिक पक्ष
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    हम विकास की अविराम दौड़ में शामिल है । हम आर्थिक उन्नति कर रहे है । भौतिक सुविधाआें का (मेरी निगाह में असुविधाआें का) संसार रच रहे है । हमने शहरों का विस्तार किया । गगनचुम्बी इमारते बना रहे है । सड़को का जाल फैलाया और उनकी चौडीकरण किया । वाहन के बाजार में क्रांति है किन्तु सब ओर भ्रांति है क्योंकि आर्थिक उन्नति पाकर भी मन अशांत है । इसका कारण है भौतिक विकास में नैतिक पक्ष की अनदेखी ।
    हमने अपना ध्यान अशुभतापूर्ण समृद्धि की ओर किया । आखिर की कीमत पर कर रहे है   हम आर्थिक विकास ? क्या नहीं तोड़ा है हमने प्रकृति का विश्वास । भौतिक विकास वरणीय है किन्तु हमें ऐसी किसी भी भौतिक उन्नति की सीमा का निर्धारण अवश्य ही करना चाहिए जो प्रकृति एवं पर्यावरण को हानि पहुंचाती हो और अशांति लाती हो । 
     भौतिक सुख-सुविधाएं पाना हर किसी को अच्छा लगता है, उनमें मन रमता है । समृद्धि का पैमाना भी हमें चुनना है । समृद्धि के रूप पर भी हमें विचार करना होगा, हम किस समृद्धि की बात करें । वह समृद्धि जो बड़ी कीमत चुका कर हासिल हुई   हो । वह समृद्धि जो हमें अन्दर से खोखला करती हो । वह समृद्धि जो प्रकृति को लूट कर पाई हो या वह समृद्धि जो अपराध से पोषित होकर आई हा । उत्तर आधुनिकता के साथ समाज के लोगों में भौतिक वस्तुआें का संचयी भाव बढ़ा है । अनुत्पादक व अत्यधिक संग्रह से सामाजिक एवं प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है । पर्यावरण अवनयन होता है । परिवेश में विषमता एवं विषमयता व्याप्त् होती है । हमें आत्मिक रूप से मजबूत रहते हुए प्रमादपूर्ण सुविधाआें से दूर रहना होगा । अपनी सामरिक समृद्धि को और अधिक सुदृढ़ करना होगा । न्यूनतम उपभोग के दर्शन को अपनाना होगा । हम प्रकृति की कद्र करेंगे तो प्रकृति भी हरी भरी रहेगी । मैं यहाँ पर पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के कथन को उद्धरित कर रहा हॅूं -
     मैं यह नहीं मानता कि समृद्धि और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी है या भौतिक वस्तुआें की इच्छा रखना कोई गलत सोच है । उदाहरण के तौर पर, मैं खुद न्यूनतम वस्तुआें का भोग करते हुए जीवन बीता रहा हॅू । लेकिन में सर्वत्र समृद्धि की कद्र करता हॅूं क्योंकि समृद्धि अपने साथ सुरक्षा तथा विश्वास लाती है, जो अंतत: हमारी आजादी को बनाये रखने में सहायक है । आप अपने आस-पास देखेगे तो पाएंगे कि खुद प्रकृति भी कोई काम आधे-अधूरे मन से नहीं करती । किसी बगीचे में जाइए, मौसम में आपको फूलोंकी बाहर देखने को मिलेगी अथवा ऊपर की तरफ ही देखें, यह ब्रह्माण्ड आपको अनंत तक फैला दिखाई देगा । आपके यकीन से भी परे ।  
    यकीनन प्रकृति अपने उपादन हम पर भरपूर लुटाती है । क्षिति जल पावक, गगन और समीर यह पाँचो विभूतियों प्रकृति प्रदत्त ही तो है । परात्पर रहना ही प्रकृति की थाती    है । यहाँमैं महामहिम की बात के सूत्र के साथ अपनी बात भी कहना चाहता हॅूं कि बहारें तभी तो आयेगी जबकि बगीचे होंगे, फूल तभी तो खिलेगे जबकि पेड़-पौधों होंगे । फूलों में परागण तभी तो होगा जब भंवरे कीट एवं तितलियाँ जिन्दा  रहेगी । लहरों के बीच तभी तो मछलियों अठखेलियाँ करेगी जबकि सदानीरा स्वच्छ जल स्त्रोत होंगे । पंछी तभी तो अपने पंख फैलाकर उन्मुक्त उड़ सकेगे जब कि प्रदूषण एवं अवरोध मुक्त स्वच्छंद आकाश मिलेगा । चिंतनीय प्रश्न यही है कि हम प्रकृति के रूप को बिगाड़ रहे हैं । यह तो भारतीय दर्शन नहीं था । भारत सदैव विश्व में सिरमौर रहा क्योंकि यहाँ जीवन बोध है और उसी के बल पर हम विगत दिनों वैश्विक मंदी की मार से उबर सके ।
    आज सम्पूर्ण विश्व शांति की कामना करता है । शांति आती है सत्य, अहिंसा, प्रेम और संग्रह वृत्ति के परित्याग से । इसलिए प्रत्येक को आत्म संयम का परिचय देना    होगा । हम भौतिक सुविधाआें की इच्छा करें, कोई बुराई नहीं, किन्तु इस बात का ध्यान अवश्य रखें कि अपनी इच्छापूर्ति के कारण हम पर्यावरण का अहित तो नहीं कर रहे हैं । हम अपनी मूलभूत आवश्य-कताआें को जाने और तब तक एैश्वर्यपूर्ण आवश्यकताआें की पूर्ति की कामना कदापि न करें जब तक एक भी व्यक्ति उन मूलभूत आवश्यकताआें से वंचित है । सबके सुख में ही हमारा सुख निहित होता है ।
    यदि हम अमीर है तो हमें विचारों से भी अमीर होना चाहिए । हमारे आचार विचार और व्यवहार प्रकृति एवं पर्यावरण को प्रभावित करते हैं । हमें अपने से कमजोर की सहायता करनी चाहिए न कि उनपर अपना अधिपत्य जमाने की । हमारी पर्वोत्सव परम्पराएँ इसी बात की पोषक है कि हम समाज के हर तबके को साथ लेकर कंधे से कंधा मिलाकर चले । अपरिग्रह के दर्शन को चरितार्थ कर पर्यावरण संतुलन बनाने का प्रयास अवश्य करें । छोटे-छोटे पशु-पक्षी तक संचय नहीं करते, कहीं भंडार नहीं भरते है उनके पोषण की व्यवस्था भी प्रकृति करती है ।
    प्रकृति किसी को भूखा नहीं रखती है । उसकी स्वनियामक सत्ता में सबकी पोषण व्यवस्था है । सबकी मूलभूत न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति हेतु चक्रान्तरण व्यवस्था है वस्तुत: यही स्वास्तिक चिन्ह का मर्म है । यह स्वास्तिक चिन्ह शुभता का प्रतीक    है । हम शुभता बनाए रखें । शुभस्य शीघ्रम अर्थात शुभ के पालन में देरीन करें । आवश्यकता इस बात की है कि हम स्वयं के साथ समग्र की भी  सोचें । प्रकृतिके चक्र को न तोड़ें । भौतिकता से मुँह मोड़े, प्रकृति परक बने और रूठी हुई प्रकृति को     मनाएं । अपनी उस मनीषा पर हमें नाज हो जिसने हमें गौरवशाली अतीत एवं वर्तमान दिया तथा भविष्य भी हमें गुरूता प्रदान करेंगी । 
 पर्यावरण समाचार
भोपाल गैस त्रासदी पूरे हुए ३० साल
    दो और तीन दिसम्बर १९८४ की दरम्यानी रात को भोपाल में हुई विश्व की भीषणतम गैस त्रासदी के तीस साल बीत जाने के बावजूद प्रशासन न तो अभी तक इस कांड के मृतकों से जुड़े आंकड़े उपलब्ध करा सका है और न ही इस कांड के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड परिसर में रखे गये ३५० मीट्रिक टन कचरे को ही वहां से हटाया जा सका है । केन्द्रीय राज्य सरकारों की तरफ से अभी तक गैस कांड के कारण मृत ५२९५ व्यक्तियों के परिजन को मुआवजा दिया गया है । लेकिन दूसरी तरफ भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एेंड ऐक्शन की कार्यकर्ता रचना ढींगरा ने कहा कि पिछले तीस सालों में गैस कांड के चलते मरने वालों का आंकड़ा २५ हजार को पार कर गया है लेकिन मध्यप्रदेश सरकार द्वारा केवल ५२९५ को ही मुआवजा दिया गया है ।
    वर्ष २०१२ में जारी एक सरकारी विज्ञिप्त् के अनुसार, राज्य सरकार ने भोपाल गैस कांड को लेकर गठित मंत्री समूह से १५३४२ मृतकों के परिजनों को देने के लिए १०-१० लाख रूपये की सहायता राशि की मांग की थी ।
    भोपाल गैस कांड की ३०वीं बरसी पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पीड़ितों के परिजनों को नौकरी देने का ऐलान किया है । इससे पहले संसद में इस हादसे में मारे गये हजारों लोगों को  श्रद्धांजलि दी गई । लोकसभा में अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने त्रासदी का जिक्र करतेहुए कहा कि आज ही के दिन भोपाल को भीषण औद्योगिक दुर्घटना का सामना करना पड़ा था जिसमें हजारों लोगों की मृत्यु हो गई और अन्य अनेक लोग जानलेवा मिथाइल आइसो-साइनेट गैस के प्रभाव में आने के कारण अशक्त बना देने वाली गंभीर बीमारियों के शिकार हो गए ।

अब मध्यप्रदेश में बनेंगे स्मार्ट गांव  
    मध्यप्रदेश में पांच करोड़ से ज्यादा की आबादी गांवों में निवास करती है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आदर्श गांव बनाने की योजना के बाद मध्यप्रदेश सरकार अब प्रदेश के गांवों को स्मार्ट ग्राम बनाने की दिशा में आगे बढ़ रही है ।
    सूत्रों के अनुसार आदर्श ग्राम योजना तथा पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर द्वारा चलाई गई गोकुल ग्राम योजना से आगे बढ़कर अब केन्द्र के स्मार्ट सिटी की तरह स्थान पर प्रदेश सरकार स्मार्ट गांव बनाने की योजना पर काम कर रही है । यदि सबकुछ ठीक रहा तो प्रदेश के लगभग एक हजार गांवों में स्मार्ट ग्राम योजनाआें पर अमल की दिशा में कार्य शुरू होगा । प्रदेश के कुछ जिलों में प्रत्येक विकासखण्ड के १५-१५ गांवों को स्मार्ट ग्राम में तब्दील करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्यशुरू किया जाएगा । वहीं कुछ विकासखण्डों में २० से २५ गांवों को जनपदों के माध्यमों से स्मार्ट गांव के लिए बजट स्वीकृत कर कार्य प्रारंभ किया जाएगा । स्मार्ट गांव में स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास योजनाआें पर ग्रामीण क्षेत्र के नागरिकों की सहभागिता तथा सलाह को भी सरकार प्राथमिकता देगी ।
    वैसे तो सरकार प्रदेश के सभी गांवों को स्मार्ट ग्राम योजना के तहत विकसित करने की दिशा में कई योजनाएं ला रही है परन्तु पहले प्रत्येक जिले के एक दर्जन गांव में प्रयोग कर स्मार्ट ग्राम योजनाआें से परिपूर्ण कर सर्वसुविधा युक्त आदर्श ग्राम योजना जैसा बनाया जाएंगा । पीएम के निर्देश के बाद प्रत्येक संसदीय क्षेत्र में एक आदर्श ग्राम सांसद बना रहे हैं, वहीं मध्यप्रदेश सरकार प्रत्येक जिले में शुरूआती दौर में १० से १२ स्मार्ट ग्राम बनाकर चार कदम आगे बढ़ देश को विकसित प्रदेश का संदेश देना चाह रही है ।

जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करेगा नासा
    नासा अगले साल के शुरूआत में पांच यान पृथ्वी के वायुमण्डल में भेजेगा । इससे यह पता लगाया जाएगा कि व्यापक क्षेत्र में वायु प्रदूषण, समुद्री जल का गार्माना और अफ्रीका के जंगलों में आग लगने की घटनाआें से      कैसे हमारा पर्यावरण प्रभावित हो रहा है ?
    नासा के अर्थ वेंचर श्रृंखला का यह दूसरा अभियान है जिसे पृथ्वी की उपकक्षा में भेजा जाएगा । राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद् के कहनेपर नासा ने २००७ में इन परियोजनाआें पर काम शुरू किया था । नया अंतरिक्ष यान हमारी आंतरिक प्रक्रियाआें की जांच करेगा ।

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

प्रसंगवश   
प्रजातियों का अनदेखा विलोप
    इलिनॉय विश्वविघालय के पुराजीव वैज्ञानिक रॉय प्लॉटनिक एक अजीब विचार पर काम कर रहे हैं । आज हम जीवाश्म रिकॉर्ड के आधार पर जान पाते हैंकि कौन-सी प्रजातियां अतीत में पृथ्वी पर विचरती थी और कभी विलुप्त् हो गई । श्री प्लॉटनिक सोचने में लगे हैं कि आज जितनी प्रजातियां विलुप्त् हो रही है, उनमें से कितनी भविष्य में जीवाश्म रिकॉर्ड में नजर आएंगी ।
    जब कोई जीव मरता है तो कभी-कभी परिस्थितियां ऐसी होती है कि उसका शरीर सड़-गलकर पूरी तरह खत्म नहीं होता बल्कि अपनी कुछ छाप जोड़ जाता है । इस छाप को जीवाश्म कहते है । यह छाप कई रूपों में हो सकती है । विज्ञान इसी के आधार पर शोध को आगे बढ़ाता  है ।
    श्री प्लॉटनिक के मुताबिक हम इस वक्त प्रजातियों के छठे विलोप के युग में जी रहे हैं । यानी इससे पहले पांच बार प्रजातियों का महा-विलोप हो चुका है । श्री प्लॉटनिक ने अपना अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृतिसंरक्षण संघ की रेड लिस्ट के आधार पर किया है । यह रेड लिस्ट बताती है कि इस वक्त किन  प्रजातियों के विलुप्त् होने का खतरा साफ नजर आ रहा है । इस लिस्ट में से भी उन्होनें सिर्फ स्तनधारियों पर ध्यान केन्द्रित किया । सूची में ७१५ स्तनधारी शामिल है ।
    श्री प्लॉटनिक ने पाया कि इन ७१५ प्रजातियों में से मात्र ९० यानी १३ प्रतिशत ही जीवाश्म रिकॉर्ड में नजर आती है । इसका मतलब है कि शेष प्रजातियां बगैर कोई निशान छोड़े दुनिया से विदा हो रही है ।
    जब उनसे पूछा गया कि वे जीवाश्म रिकॉर्ड की इतनी चिंता क्यों कर रहे हैं, जबकि आजकल हम सारी प्रजातियों का इतना अच्छा रिकार्ड रखते हैं  तो उनका कहना था कि इंसानों द्वारा रखे जाने वाले रिकार्ड बहुत विश्वसनीय नहीं हैं । उदाहरण के लिए उन्होनेंं पूछा आज फ्लॉपी डिस्क को कितने लोग पढ़ सकते हैं । उनके विचार में चट्टानों में बनी छाप कहीं अधिक मजबूत और भरोसेमंद होती है जिसे अनेक वर्षो बाद भी अध्ययन का आधार बनाया जा सकता है ।
सम्पादकीय -   
समुदाय तय करता है पौधे का लिंग

    वनस्पति जगत में फर्न पौधों की एक किस्म होती है । इनमें पौधों का लिंग जन्म के साथ तय नहीं होता । हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र के मुताबिक जापानी लता फर्म लायगोडियम जेपोनिकम में नए फर्न पौधों का लिंग उसके समुदाय के लिंग अनुपात के आधार पर तय होता है ।
    फर्न वे पौधे होते हैं जिनमें प्रजनन के लिए बीज नहीं बल्कि बीजांड बनते हैं । इन बीजांड से पूरा पौधा विकसित होता है और यह पौधा नर हो सकता है, मादा हो सकता है या द्विलिंगी भी हो सकता है । इनमें से वह पौधा कौन सा रूप अख्तियार करेगा यह इस बात से तय होता है कि पिछली पीढ़ी में नर और मादा का अनुपात क्या था ।
    एक स्थिति यह होती है जब आसपास दूर-दूर तक उस प्रजाति का कोई अन्य पौधा नहीं है । इस स्थिति में नया पौधा द्विलिंगी बनेगा । इसका फायदा यह होता है कि नर व मादा अंग एक ही पौधे पर पाए जाते है और प्रजनन की क्रिया आगे बढ़ सकती है । हालांकि इसमें नुकसान यह होता है कि अगली पीढ़ी में बहुत अधिक विविधता नहीं बचती ।
    नगोया विश्वविघालय के माकोतो मात्सुओका ने पाया कि लायगोडियम जेपोनिका के मामले में होता यह है कि पुराने पौधे नए पौधों का लिंग तय करते है । यह प्रक्रिया एक हारमाने जिबरेलिन के माध्यम से चलती है ।
    प्रौढ़ फर्न मादा पौधों में से जिबरेलिन उत्सर्जन किया जाता है । विशेषता यह होती है कि इस जिबरेलिन में एक अतिरिक्त एस्टर समूह जुड़ा होता है । जिबरेलिन एस्टर जंगल की मिट्टी में फैलता है । एस्टर समूह जुड़ा होने का फायदा यह होता है कि नए पौधे इसका अवशोषण कर लेते हैं ।
    जिबरेलिन -एस्टर के अवशोषण की वजह से नए पौधों में जिबरेलिन  बनने लगता है और इसके प्रभाव से पौधा नर बन जाता है । यानी अगर पहली पीढ़ी में मादा पौधे ज्यादा हुए तो जिबरेलिन -एस्टर ज्यादा छोड़ा जाएगा और नए वाले ज्यादा पौधे नर पौधे बनेगे । लिंग अनुपात में नियंत्रण रखने का नायाब तरीका है यह
सामयिक
मधुमक्खियों पर मंडराते खतरे
डॉ. ओ.पी. जोशी

    फूल वाले पौधों में परागण एक जरूरी क्रियाहै । परागण क्रिया हवा, पानी, पक्षियों एवं कीट-पतंगों द्वारा की जाती है । इसमें मधुमक्खियों प्रमुख भूमिका निभाती हैं । दुनिया की लगभग १०० फसलों में मधुमक्खियों द्वारा ही परागण होता है । हमारे देश में पांच करोड़ हैक्टर फसलों का परागण मधुमक्खियों पर निर्भर है । दुनिया भर में मधुमक्खी परागित फसलों का मूल्य लगभग एक हजार अरब रूपए है ।
    दुर्भाग्यपूर्ण है कि कृषि के लिहाज से महत्वपूर्ण मधुमक्खियों पर कई प्रकार के खतरे मंडरा रहे   हैं । मधुमक्खियों की संख्या घटने के साथ-साथ उनके छत्तों की संख्या भी कम हो रही है । पिछले ६-७ वर्षोंा में दुनिया भर में लगभग एक करोड़ से ज्यादा छत्ते नष्ट हुए हैं । युरोप के कई देशों में छत्तों के नष्ट होने की दर ३० प्रतिशत आंकी गई है । 
     संख्या में लगातार आ रही कमी के कई भौतिक, रासायनिक व जैविक कारण हैं । कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग इनकी संख्या पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है । नियोनिकोटिनइड युक्त कीटनाशी संख्या घटाने में ज्यादा असरकारी साबित हुए हैं । यह रसायन प्रजनन को प्रभावित करता है और मधुमक्खियां भ्रमित होकर अपना रास्ता भूल जाती है । कीटनाशियों के प्रतिकूल प्रभाव का मामला यू.उस. की अदालत में मार्च २०१३ में चार मधुमक्खी पालकों ने दायर किया  है ।
    डिस्पोजेबल कप का उपयोग भी मधुमक्खियों की संख्या में कमी का एक कारण बन गया है । मदुरैकामराज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकां ने मई २०१० से एक वर्ष तक पांच कॉॅफी हाऊस में अध्ययन किया । इन कॉफी हाऊस में रोजाना १२०० से ज्यादा डिसपोजेबल कप फेंके जाते थे । शकरयुक्त पेय पदार्थोंा की थोड़ी मात्रा इनमें शेष रह जाती  थी । इससे मधुमक्खियां आकर्षित होकर उनका सेवन करती थी । सेवन के बाद या तो वे फूलों पर जाना भूल जाती थीं या वहीं चिपककर मर जाती थीं । चाय एवं कॉफी में उपस्थित कैफीन इन्हें भ्रमित भी करता हैै ।
    औद्योगिक कार्योंा, खनन एवं पेट्रोलियम शोधन के कामों में उपयोगी सेलेनियम के कारण भी इन पर विपरित प्रभाव हो रहा है । लार्वा अवस्था सेलेनियम के प्रति ज्यादा संवेदनशील देखी गई है । सेलेनियम के प्रभाव से लार्वा की परिवर्धन क्रिया धीमी हो जाती है एवं मोत भी संभावित है । सेलेनियम मधुमक्खियों में परागकण एवं मकरंद द्वारा पहंुचता है । छत्तों में भी सेलेनियम की उपस्थिति का आकलन किया गया है । एक अध्ययन के मुताबिक मोबाइल टॉवर्स एवं सेलफोन से पैदा विकिरण के प्रभाव से भी मधुमक्खियोंकी संख्या में गिरावट आई है । विकिरण के प्रभाव से मजदूर मक्खियों के छत्तों पर नहीं पहुंचने से वहां पनप रही अवयस्क मक्खियों की देखभाल नहीं हो पाती है जिस कारण वे मर जाती हैं ।
    कीटनाशियों के नियंत्रित उपयोग एवं विकिरण की रोकथाम के साथ-साथ बरगद एवं पीपल जेसे वृक्षों को बचाना भी जरूरी है जिन पर छत्तें बहुतायात में पाए जाते हैं । फरवरी २०१३ में बेंगलोर में आयोजित चौथी अंतर्राष्ट्रीय कीट विज्ञान कांग्रेस में ३५ देशों के वैज्ञानिकों ने एक पस्ताव पारित किया थ कि बैगलोर के आसपास के कुछ गावोें मे लगे बरगद एवं पीपल के उन वृक्षों को बचाया जाए जिन पर सैकडो़ छत्ते लगे है ।
हमारा भूमण्डल
गिद्ध कोषों के पंजोंमें निरीह राष्ट्र
मार्टिन खोर

    पूंजी का सर्वाधिक घृणास्पद रूप आज पूरे विश्व में `गिद्ध कोष` या वल्चर फंड के नाम से पहचाना जा रहा है । साथ ही इसके माध्यम से यह भी सामने आ गया कि पूंजी के सामने राष्ट्रों की सार्वभौमिकता का कोई अर्थ नहीं है ।
    यह खेल अब भारत में भी अन्य स्वरूप लेकर प्रारंभ हो गया है । अनेक रियल इस्टेट कंपनियां बैंकों से `बीमार ऋण` औने पौने दामों में खरीद रही है । ऐसी ही एक सुगबुगाहट मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी पर बांध बनाने वाली कंपनी के  बीमार ऋण को एक विदेशी कंपनी द्वारा संबंधित बैंक से खरीदने के मामले में उठी है।  
     विदेशी ऋण पुन: अपना घिनौना सिर उठा रहे हैं । अनेक विकासशील देशों के सामने निर्यात से घटती आमदनी और कम होते विदेशी कोष की समस्याएं सामने आ रही हैं, इसके बावजूद भुगतान अदायगी में चूक से बचने के लिए कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद नहींे लेना चाहता । इससे बरसों बरस तक मितव्ययता और अति बेरोजगारी का सामना करना पड़ेगा और संभावना है कि अंत में ऋण कीस्थिति और भी बद्तर हो जाए । साथ ही निम्न वृद्धि, मंदी, सामाजिक एवं राजनीतिक अशांति की प्रबल संभावनाएं हैं । अनेक अफ्रीकी और दक्षिण अमेरिकी देश विगत में यह भुगत चुके हैं और अनेक यूरोपीय देश वर्तमान में इसे भुगत रहे हैं ।
    जब कोई समाधान सामने नहीं आया तो कुछ देशों ने अपने ऋणों का पुननिर्धारण किया । ऋण से निपटने की कोई अंतरराष्ट्रीय पद्धति प्रचलन में न होने से राष्ट्रों को अपनी ओर से पहल करनी पड़ी। इसके परिणाम सामान्यतया बहुत ही अस्त-व्यस्त थे क्योंकि इससे उन्हें बाजार में प्रतिष्ठा की हानि और लेनदारों के गुस्से का सामना करना पड़ा । लेकिन देशों ने अपने यहां खलबली मचाने के बजाए इस कड़वी गोली को निगल लिया ।
    इस तरह का अनुभव अर्जेंटीना को हुआ । सन् २००२ में उसका सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का १६६ प्रतिशत हो गया था । अनेक वर्षों की गिरावट और राजनीतिक अस्थिरता के बाद सन् २००१ में अर्जेंटीना चूककर्ता (ऋण की अदायगी में असमर्थ) हो गया था । अर्जेंटीना ने दो बार सन् २००५ एवं २०१० में अपने ऋण परिवर्तित करने का प्रयास किया । इसमें उसने करीब ९३ प्रतिशत ऋणदाताओं के ऋणों का पुनर्निधारण किया जो कि अपने मूल ऋण से महज एक तिहाई लेने को राजी हो गए थे । लेकिन ७ प्रतिशत लेनदार जो कि `होल्ड आउट` (डटे रहने वाले) कहलाते हैं । इस पुनर्निधारण हेतु तैयार नहीं हुए। कुछ प्रभावशाली हेज फण्ड धारक (जो कि कुल लेनदारों का महज १ प्रतिशत ही थे) जिन्होंने द्वितीयक बाजार (सेकेण्डरी मार्केट) से कुछ ऋण बहुत सस्ते में खरीद लिया था ने न्यूयार्क (जहां पर मूल ऋण को लेकर अनुबंध हुआ था) में न्यायालय से यह आदेश चाहा कि उन्हें पूरा भुगतान किया  जाए ।
    इस तरह के अनेक कोष जिन्हें अब `वल्चर फंड` (गिद्ध कोष) कहकर पुकारा जाता है कि विशेषज्ञता इस बात में है कि वे संकटग्रस्त ऋणों को बहुत कम कीमत (मूल लागत का १० प्रतिशत) पर खरीद लेते हैं  और न्यायालय के माध्यम से ब्याज सहित पूरे ऋण की अदायगी का दबाव बनाते हैं । यह गिद्ध की तरह ऊपर चक्कर लगाते रहते हैं और मृत या मृत पाए शरीरों पर झपट्टा मारकर अपना भोजन नोंच लेते हैं । इस मामले में मृत देह के रूप में देश हैं और उनसे कहा जा रहा है कि वे इन गिद्ध कोषों को भुगतान करने के लिए अपनी पहले से ही कुम्हलाई  अर्थव्यवस्था को और निचोड़ें ।  यह कुछ-कुछ पत्थर से खून निकालने जैसा है ।
    अमेरिकी न्यायपालिका की लंबी प्रक्रिया जो कि सर्वोच्च् न्यायालय तक पहुंची थी, ने कुछ महीनों पहले तय किया कि इस मुकदमे को चलाने वाले होल्ड आऊट हेज फंड धारकों को ब्याज सहित पूरा भुगतान किया    जाए । इतना ही नहीं अपने निर्णय में न्यायालय ने उन ९३ प्रतिशत लेनदारों को जो काफी छूट देने को तैयार हो गए थे, को भी भुगतान करने पर रोक लगा दी । क्योंकि उनके हिसाब से `गिद्ध कोषों` को उसी समय पूरा भुगतान किया जाना अनिवार्य है । न्यूयार्क के न्यायाधीश ने निर्णय पर पहुंचने के लिए पारी-पासू सिद्धांत (कि सभी लेनदारों को एक जैसा माना जाए) को आधार बनाया । ये गिद्ध कोष तो अपना हिस्सा चाहते हैं ।  इसमें से मुख्य कोष एनएमएल, केपिटल अनुमानत: १८०० प्रतिशत लाभ कमाएगा ।
    अर्जेंटीना की राष्ट्रपति क्रिस्टीना किर्चनेर ने इन कोषों के सामने झुकने से इंकार कर दिया । अगर वह झुकतीं तो देश को लेनदारों को पूरी रकम का भुगतान करना पड़ता और वह करीब १२० अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर होता । वैसे भी इतना भुगतान कर पाना असंभव था । घटनाक्रम के इस अविश्वसनीय परिवर्तन  को अनेक सार्वजनिक हित समूहों ने घृणास्पद करार दिया है और विकासशील देशों की सरकारें गुस्से से भर गई हैं ।
    बोलीविया में इस वर्ष में जी-७७ के दक्षिण सम्मेलन ने इन गिद्ध कोषों की निंदा की गई थी और एक व्यवस्थित वैश्विक ऋण पुनर्निर्धारण प्रणाली की मांग की है । विकसित देशों के वित्तमंत्री भी इसे लेकर चिंतित हैं क्योंकि वे भी इसके प्रभाव में आएंगे ।   कुछ वर्ष पूर्व ग्रीस भी ऋण पुनर्निर्धारण से गुजरा है जिसके अंतर्गत निजी लेनदार हानि उठाने को तैयार हुए थे ।
    न्यायालय के निर्णय को एक नई नजीर मानने से देशों के लिए अपने ऋणोंका पुनर्निर्धारण असंभव हो जाएगा, क्योंकि अब यह निर्लज्ज गिद्ध कोष इसे अपने चंगुल में लेकर रोक देंगे । फाइनेंशियल टाइम्स के प्रभावशाली प्रवक्ता मार्टिन वोल्फ ने गिद्ध कोषों से हो रही इस लड़ाई में अर्जेंटीना का समर्थन किया है । वोल्फ ने तो इस हद तक कहा कि वास्तविक गिद्धों को होल्ड आउट का नाम देना भी अनुचित है चूंकि वास्तविक गिद्ध कम से कम एक महत्वपूर्ण कार्य तो कर ही रहे हैं । पिछले दिनों स्विट्जरलैंण्ड इंटरनेशनल केपिटल मार्केट एसोसिएशन, जो कि बैंकरों और निवेशकर्ताओं का समूह है ने कुछ नए मानक तय किए हैं जिनका लक्ष्य है ऋण पुनर्निर्धारण में होल्ड आऊट निवेशकों की क्षमता को कम किया जा सके ।
    पिछले दिनों जी-७७ समूह जो कि विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व करता है ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्तावा को बढ़ाने में सफलता है । जिसके अंतर्गत प्रावधान है कि संकटग्रस्त ऋणों का राज्य द्वारा पुनर्निर्धारण किए जाने में हेज कोष अपने लाभ कमाने हेतु रुकावट न डाल पाएं । साधारण सभा के इस प्रस्ताव के पक्ष में १२४, विरोध में ११ मत पड़े और ४१ देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया । इसके अलावा यह भी तय हुआ है कि सन् २०१४ के अंत तक सार्वभौमिक ऋण पुनर्निर्धारण हेतु एक ऐसा बहुस्तरीय कानूनी ढांचा तैयार किया जाएगा जिससे की अंतरराष्ट्रीय विंत्तीय प्रणाली को स्थिरता प्राप्त हो सके ।
    अंतरराष्ट्रीय ऋण पुनर्निर्धारण प्रणाली एक व्यवस्थित हल भी है । इसके माध्यम से देश किसी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय या प्रणाली द्वारा ऋण समस्या से समाधान पा सकेंगे और उन्हें स्वयं ऋण पुनर्निर्धारण की उथल-पुथल से मुक्ति  मिलेगी । वैसे इस प्रस्ताव का क्रियान्वयन भी टेढ़ी खीर है, क्योंकि इस पर आपत्ति उठाने वाले प्रमुख देश अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन हैंजो कि वैश्विक वित्त के बड़े खिलाड़ी हैं । 
    अर्जेंटीना की पहल पर एक और प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद् विचार कर रही है ।  इसका लक्ष्य है गिद्ध कोषों को रोकने के लिए एक कानूनी ढांचा तैयार करना और सार्वभौमिक ऋण पुननिर्धारण । एक और अच्छी बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ जो कि एक वैश्विक इकाई है और इसके अंतर्गत निर्णय प्रक्रिया में विकासशील देशों की भी सुनवाई होती है, के केन्द्र में अब ऋण संबंधी विमर्श के केन्द्र में हैं । भविष्य के समझौते अत्यंत कठोर तो होंगे लेकिन वह बहुमूल्य भी साबित होंगे, क्योंकि ऋण संकट को रोकना और उसका प्रबंधन अधिक से अधिक देशों की प्राथमिकता बनती जा रही   है ।