बुधवार, 16 अगस्त 2017


प्रसंगवश
नर्मदा से हो सही विकास - मेधा पाटकर 
सरदार सरोवर को लेकर चिखल्दा (धार) में मेधा पाटकर एवं अन्य साथियों को अनशन के १२वें दिन ७ अगस्त २०१७ को प्रशासन द्वारा अनशन स्थल से जबरन हटाकर अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया । 
नर्मदा बचाआें आन्दोलन की नेत्री मेधा पाटकर के ३२ वर्ष के संघर्ष मेंयह उनका चौथा आमरण अनशन था, इसके पूर्व वे शेरकुंआ, भोपाल और दिल्ली मेंअनशन कर चुकी है । मेधाजी ने अपनी गिरफ्तारी के ठीक पहले कहा कि - आज मध्यप्रदेश सरकार हमारे १२ दिन के अनशन पर बैठे हुए १२ साथियों को मात्र गिरफ्तार करके जवाब दे रही है । ये कोई अहिंसक आन्दोलन का जवाब नहीं है । मोदीजी के राज में शिवराजजी के राज में आंकड़ों का खेल, कानून का उल्लघंन और केवल बल प्रयोग जो आज पुलिस लाकर और कल पानी लाकर करने की उनकी मंशा है । इसका उपयोग ये हम लोग इस देश में गांधी के सपनों की हत्या मानते हैं, बाबा साहेब के संविधान को भी न मानने वाले ये राज पर बैठे है । वे समाजों के, गांव के किसान, मजदूरोंऔर मच्छुवारों की कोई परवाह नहीं करते ।  यह इस बात से स्पष्ट हो रहा है । 
एक बाजू मुख्यमंत्री खुद कह रहे है कि ट्रिब्यूनल का फैसला जो कानून, उसका अमल पूरा हो चुका है । दूसरे बाजू बोल रहे अनशन तोड़ने के बाद ही चर्चा करेंगे । इसके साथ जिन मुद्दों पर सब तो रख चुके      हैं । तो अब यह चोटी पर जाना पड़ेगा, अहिसंक आन्दोलन और जवाब समाज ने देना पड़ेगा । नर्मदा घाटी के लोगों पर बहुत कहार मचाने जा रहे हैं । प्रकृति साथ दे रही हैं, गुजरात पानी से लबालब है, यहां पानी नहीं भरा है लेकिन कल क्या होगा कौन जाने ?
उनकी सरकार और उनकी पार्टी किस प्रकार से विकास को आगे धकेलना चाह रही है । इस देश के कोने-कोने में संघर्ष पे उतरे साथी कह रहे है, वही बात फिर अधूरिखित । हम इतना ही चाहते है कि नर्मदा से हो सही विकास, समर्थकों की यही है आस - यह हमारा नारा आज केवलनर्मदा घाटी के लिए नहीं है, देश में कोई भी अब विस्थापन के आधार पर विकास मान्य न करें । विकल्प वही तय करें । 
सम्पादकीय 
कीर्तिमान की दौड़ में हांफते पौधे 

पिछले कुछ वर्षो देश में पर्यावरण चेतना के विस्तार नेसमाज में प्रकृतिक संरक्षण और हरियाली बढ़ाने के प्रयासों को नया आयाम दिया  है । 
यह सुखद है कि देश में सरकारों के साथ ही अनेकव्यक्ति और संस्थाआें ने पौधे लगाने के काम में अपनी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी कर वानिकी चेतना का नया वातावरण बनाया है । इन दिनों देश भर में न केवल सामाजिक संस्थाएें अपितु राज्य सरकारें भी एक ही दिन या किसी निश्चित समयावधि में अधिकतम संख्या में पौधे लगाने की दौड़ में शामिल हो रही है । यह शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है । 
मध्यप्रदेश में भी राज्य सरकार ने पौधारोपण का एक जन आन्दोलन चलाया, यहां तक तो ठीक है लेकिन विश्व रिकार्ड के लिए एक दिन के रिकार्ड समय में करोड़ों पौधे लगाकर किसी निजी संस्थान से प्रमाण-पत्र हासिल करने के प्रयास कोकिसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है । 
आकाड़ों और कीर्तिमान की इस अंतहीन दौड़ में केवलआंकड़ों के एकत्रीकरण एवं संख्याबल के आधार पर विजेता बनने के प्रयासों में आयोजकों की सारी शक्ति लग रही है । पौधशाला से आये पौधों की स्थिति देखने, उनको ठीक से रोपित करने और रोपण के बाद की देखरेख का महत्वपूर्ण कार्य पीछे छूटता जा रहा है जो कि किसी भी पौधारोपण की सफलता का मुख्य आधार होता है । 
बेहतर होगा कि कीर्तिमानों की दौड़ छोड़कर सरकारें, संस्थाएें और पर्यावरण प्रेमी लोग पौधारोपण प्रक्रिया की शुरूआती दौर में और बाद में पौधों को पेड़ बनाने के पवित्र लक्ष्य को पूरा करने में अपनी क्षमता, दक्षता और योग्यता का उपयोग कर सके तो यह देश के लिए एवं पर्यावरण के लिए ज्यादा हितकर होगा । 
सामयिक
रॉकेट विज्ञान के शिखर पर भारत
चक्रेश जैन

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों की टीम ने ५ जून को श्री हरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से अभी तक निर्मित रॉकेटों में सबसे भारी और अत्यधिक शक्तिशाली रॉकेट जियोसिंक्रोनस सेटेलाइट लांच वेहिकल मार्क-३ का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया है । 
पूरी तरह देश में ही तैयार यह रॉकेट दो सौ वयस्क हाथियों के बराबर वजन का है । दरअसल यह पहला रॉकेटहै जिसमें देशी क्रोयोजेनिक इंजन लगाया गया है । क्रायोजेनिक इंजन बेहद शक्तिशाली होता है और अत्यधिक निम्न तापमान के विज्ञान पर काम करता है । इस प्रौघोगिकी में महारत हासिल करने में हमारे यहां के वैज्ञानिकों को लगभग पन्द्रह वर्ष लगे है । यह वही रॉकेट है, जिसकी पीठ पर सवार होकर जीसैट-१९ संचार उपग्रह को अंतरिक्ष मेंस्थापित किया गया है । 
इस उपग्रह का वजन ३२०० किलोग्राम है । इसकी मदद से देशी में दूरसंचार और प्रसारण सेवाआें को बेहतर बनाया जा सकेगा । एक बात और, भविष्य में हम अपनी ही धरती से अपने रॉकेट अथवा प्रक्षेपण यान के जरिए अंतरिक्ष में मानव को भेज सकेंगे । 
जीएसएलवी मार्क-३ का वजन ६४० टन और लम्बाई ४३ मीटर है । इस नए रॉकेट की लागत ३०० करोड़ रूपए है । यह पूरी तरह कार्यक्षम यानी फंक्शनल रॉकेट है, जिसके क्रायोजेनिक इंजन में प्रणोदकों के रूप में द्रव ऑक्सीजन और द्रव हाइड्रोजन का इस्तेमाल किया गया है । सी-२५ वास्तव में जीएसएलवी का वृहद ऊपरी चरण   है । यह रॉकेट का वह हिस्सा है, जिसका निर्माण सबसे मुश्किल और चुनौतीपूर्ण है । इसरों ने इसी वर्ष १८ फरवरी को सी-२५ का सफल परीक्षण किया था । देश में ही जीएसएलवी एमके-३ को विकसित करने में २५ वर्ष लगे है । इस अवधि में लगभग ११ उड़ानों और रॉकेट के विभिन्न घटकों का करीब दो सौ बार परीक्षण किया गया है । 
किसी भी देश के सामने शक्तिशाली रॉकेट अथवा प्रक्षेपण यान में प्रयुक्त क्रायोजेनिक इंजन का निर्माण एक बड़ी चुनौती है । हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों और प्रौघोगिकीविदों ने इसे स्वीकारते हुए अंतत: बड़ी सफलता प्राप्त् की है । बीते दशकों में हमने कई बार रॉकेट भेजे हैं, परन्तु हर बार सफलता नहीं मिली है । प्रश्न उठता है कि क्या हमें असफलताआें से हताश होकर अंतरिक्ष कार्यक्रम को स्थगित कर देना चाहिए । 
दरअसल शक्तिशाली रॉकेट अथवा प्रक्षेपण यान का विकास बेहद कठिन काम है क्योंकि आगे चलकर इससे विनाशकारी प्रक्षेपास्त्र का सृजन भी किया जा सकता है । लिहाजा, आम तौर पर रॉकेटो को विकसित करने में एक देश दूसरे देश की मदद नहीं करता है । यह गोपनीय मामला  माना जाता है । नए रॉकेटों के विकास में असफलता कोई असामान्य बात नहीं है । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी में वी-२ रॉकेट के तीनों आरंभिक परीक्षण विफल रहे थे । 
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने ६८ बार वी-२ रॉकेट का परीक्षण किया, जिसमें से २३ परीक्षण असफल रहे । हमारे एसएलवी-३ के चार परीक्षणों में से आधे परीक्षण असफल रहे । अंतरिक्ष विज्ञान के विशेषज्ञों का मानना है कि प्रक्षेपण यानों में सफलताआें की तुलना में विफलताआें से अधिक जानकारियां मिलती है । शक्तिशाली प्रक्षेपण यानों के अभाव में कई देशों का अंतरिक्ष कार्यक्रम प्रभावित हुआ है । 
देश में १९६२ में त्रिवेद्रम के निकट थुम्बा रॉकेट केन्द्र की स्थापना की गई थी । यहां शुरूआती दौर में छोटे-छोटे साउंडिग रॉकेट बनाए    गए । इस तरह के रॉकेटों का उद्देश्य वैज्ञानिक और प्रौघोगिकी सम्बंधी प्रयोग थे । भारत ने अपने पहले स्वदेशी रॉकेट का सफल परीक्षण २३ जनवरी १९६९ में किया था । इस रॉकेट का वजन १० किलोग्राम था, जो मुश्किल से ४.२ किलोमीटर की ऊंचाई तक ही पहुंच पाया था । विश्व के कुछ ही देश ऐसे प्रक्षेपण यानों का निर्माण कर पाए हैं, जिनसे उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा जा सकता है । अभी हाल तक भारत पराए देशों के प्रक्षेपण यानों से अपने संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजता रहा है । 
भारत का पहला उपग्रह प्रक्षेपण यान अथवा लांच वेहिकल एसएलवी-३ था, जिसने जुलाई १९८० में सफलतापूर्वक उड़ान भरी और ४० किलोग्राम वजनी रोहिणी उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुंचाया । दूसरा उपग्रह प्रक्षेपण यान एएसएलवी यानी आगमेंटेड सेटेलाइट लांच वेहिकल था, जिसे २० मई १९९२ को तीसरी विकासात्मक उड़ान के दौरान श्रोस-सी यानी स्ट्रेच्ड रोहिणी सेटेलाइट सीरीज के उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने में सफलता मिली । 
इसी प्रक्षेपण यान से ४ मई १९९४ को श्रोस-सी-२ उपग्रह को पृथ्वी की निम्न वृत्ताकार कक्षा में स्थापित किया गया । उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए और अधिक शक्तिशाली रॉकेटों के निर्माण का सिलसिला जारी रहा और हमारे वैज्ञानिकों ने पोलर सेटेलाइट लांच वेहिकल पीएसएलवी का निर्माण कर लिया । इस प्रक्षेपण यान के जरिए आईआरएस श्रेणी के सुदूर संवेदी उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाया   गया । पीएसएलवी में ठोस और द्रव दोनों प्रकार के ईधनों का इस्तेमाल किया गया है । 
अभी तक पीएसएलवी के जरिए ४६ स्वदेशी और १८० विदेशी उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा जा चुका है । स्वदेशी प्रक्षेपण यानों की विकास यात्रा के अंतिम दौर मेंजीएसएलवी अर्थात जियोसिक्रोनस सेटेलाइट लांच वेहिकल का विकास किया गया है । पृथ्वी से ३६००० किलोमीटर की ऊंचाई पर संचार उपग्रहों को स्थापित करने के लिए इसी तरह के प्रक्षेपण यानों की आवश्यकता है । जीएसएलवी में प्रणोदक के रूप में ठोस, द्रव और क्रायोजेनिक ईधन का इस्तेमाल किया गया है । जीएसएलवी मार्क -३ के पहले २०१० में जीएसएलवी मार्क -२ का प्रक्षेपण सफल रहा था, जिसमें क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया था । 
संचार उपग्रहों को धरती से ३६००० किलोमीटर की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में पहंुचाने के लिए बेहद शक्तिशाली प्रक्षेपण यानों की आवश्यकता है । अमेरिका, चीन और रूस के बाद अब इस बिरादरी में शामिल होने वाला भारत चौथा देश बन गया है । अब हम अपने ही बनाए रॉकेटों से स्वदेशी उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेज सकेंगे । भारत का अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता प्राप्त् करना बड़ी उपलब्धि है, जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती । 
हमारा भूमण्डल
समुद्री तेल रिसाव से मछलियों को खतरा
निम्मो बॉसी 

मछलियों का अत्यधिक शिकार और तेल उत्पादन से पश्चिम अफ्रीका में स्थानीय समुदायों की रोजी-रोटी पर संकट मंडराने लगा   है । 
अफ्रीकी समुद्री तटों पर दो बहुराष्ट्रीय कंपनियोंं के कारण प्राकृतिक वातावरण को नुकसान पहुँच रहा हैं । तेल फैलाव से समुद्री इकोसिस्टम्स को बुरी तरह हानि पहुँचने के साथ भूमि, दुर्लभ समुद्री जीवों को खतरे में डाल दिया । विश्व के सामने अफ्रीकी समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को बचाने की कड़ी चुनौती खड़ी है ।
अंंतरिक्ष से नीचे देखने पर पर्यवेक्षकों के मुताबिक गिनी की खाड़ी में अफ्रीका का आक्रमण तैयार हो रहा है। जहाजों के ऊपर तक पानी है । यहाँ क्या हो रहा है ? ये न तो कोई सैन्य अभ्यास है, बल्कि संसाधनों के लिए एक विनाशकारी दौड़ का नजारा है । यह काम दो तरीके से हो रहा है, एक तो समुद्री किनारों पर बड़े-बड़े तेल वाहक जहाज और दूसरे मछली पकड़ने के लिए विशालकाय ट्रालरों की आवाजाही । दोनों उद्योग संसाधनों पर निर्भर है-जीवाश्म संसाधन और जैविक संसाधनों पर । लेकिन इन दोनों में नाम के अलावा कोई समानता नहीं है । तेल कंपनियों की मछलियों की प्रजाति के आधार पर अपने समुद्रगामी क्षेत्रों में कुछ नाम देने की प्रवृत्ति है। उदाहरण के लिए `शेल` बोंगा फील्ड का परिचालन करती   है । `बोंगा` यहाँ की स्थानीय मछली की प्रजाति भी होती है ।
जैसा कहा जाता है दो हाथियों की लड़ाई में घास चौपट हो जाती है। वास्तव में अफ्रीकी समुद्री तटों, खासतौर पर पश्चिमी अफ्रीकी तट में दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों-एक तेल निगम और दूसरी औद्योगिक पैमाने पर मछली पकड़ने वाली कंपनी के कारण प्राकृतिक वातावरण को नुकसान पहुँच रहा हैं । 
मछली पकड़ने के लिए बड़े ट्रालर ज्यादातर एशिया और यूरोप से होते हैंऔर वे पश्चिमी अफ्रीका में मछलियों की प्रजातियों का भंडार खाली कर देते है । उनके कुछ व्यवसाय वास्तव में अवैध है पर उन्हें आम तौर पर कोई सजा नहीं   मिलती । उन्हें मछलियों के दाम ज्यादा मिलते है क्योंकि उन्हें सेनेगल और मॉरिटानिया जैसे प्रसंस्करण संयंत्रों व्दारा खरीदा जाता है । उदाहरण के लिए पशु आहार के लिए मछली खरीदना है तो वे अग्रणी देश एशिया और यूरोप के उद्योग फार्म से खरीदनी होगी । इसके पहले, जापान और यूरोपियन संघ के ट्रालर ज्यादा मायने रखते थे, लेकिन अब चीन और रूसी जहाज भी प्रासंगिक हो गए हैं ।  
पश्चिम अफ्रीका में मछली पकड़ने के काम में हजारों मछुआरे लगे हैं । संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ, २०१४) के मुताबिक मत्स्य कुटीर उद्योग के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे बड़ा योगदान घाना, मॉराटनिया, साओ तोम और प्रिंसाइप, सेनेगल, सिएरा लियोन, टोगो तथा अन्य देशों का रहा हैं । 
इस क्षेत्र में ज्यादातर लोग अपनी प्रोटीन की खपत के लिए मछली और समुद्रीय भोजन पर निर्भर करते हैं । यहाँ के स्थानीय मछुआरा समुदाय के लिए यह मत्स्य पालन ही नहीं है, बल्कि लोगों की खाद्य आपूत्ति दांव पर है । प्रकृति संरक्षण के लिए कार्यरत अंतर्राष्ट्रीय संघ आईयूसीएन २०१७ ने चेतावनी दी है कि समुद्री संसाधन, पश्चिम और मध्य के ४०० मिलियन लोगों की खाद्य सुरक्षा का आधार है । पश्चिमी अफ्रीकी समुद्र से कुछ मछलियों की प्रजाति लुप्त हो गई हैं । 
आईयूसीएन के मुताबिक, मछलियों की मेडेरिय सार्डिन और कसावा क्रॉकर प्रजाति पर खतरा    हैं । अवैध मत्स्याखेट से जोखिम बढ़ गया है। वैसे अवैध मत्स्याखेट कई देशों में होता हैं । सभी अवैध मत्स्याखेट विदेशी ट्रालरों द्वारा नहीं होता, बल्कि उसके बिना भी होता    है । मत्स्य संसाधनों के प्रबंधन में कुशलता करना जरूरी है, किन्तु यह नहीं हो पा रहा है । दुर्भाग्य से इसके अलावा जीवाश्म इंर्धन निकासी मामले को बदतर बना रही हैं ।  
इसका एक कारण तेल कुओं को सुरक्षा क्षेत्र की तरह रखा जाता है । मछली पकड़ने वाली बड़ी नौकाओं (ट्रालर) वहाँ वर्जित हैं, क्योंकि उनकी चमकदार रोशनी मछली को आकर्षित करती हैं । दरअसल, तेल उद्योगों के प्रतिष्ठान सामान्य रूप से समुद्री जीवन के केन्द्र होते हैं । इसके बावजूद समुद्री जीवन के किनारे ही तेल उद्योग स्थापित हैं । उच्च् तकनीक से संचालित उत्पादन, भंडारण और जहाजों से सामान उतारने जैसे काम होते हैं । विश्व के अन्य क्षेत्रों में मछुआ जन साधारण को संबंधित क्षेत्रों में काम करने की अनुमति है, लेकिन पश्चिम अफ्रीका में इस तरह के काम की नहीं है ।
दूसरी तरफ जीवाश्म ईंधन क्षेत्र पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुँचाते हैं । तेल का फैलाव मत्स्य पालन को तबाह करने वाला होता    है । न केवल लगे हुए समुद्री तट में बल्कि मुहाने पर और ऊपर की तरफ भी नुकसान होता है। पर्यावरणीय नुकसान से मेंग्रोव जंगल और प्रवाल भित्तियों कोरल रीफ को भी नुकसान पहुँचता है । ये दोनों समुद्री जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है-अंडे रखने के लिए और उनके हेबीटेट (रहने के लिए) के लिए । जहाजों की बढ़ती आवाजाही तो प्रदूषण बढ़ाता है, वहीं कुछ जहाज बड़ी नदियों के  ऊपर भी जा रहे हैं ।  
नाइजीरिया का इतिहास लंबा है-तेल फैलाव से नुकसान   का । २००१ में शैल ने ४० हजार बैरल कच्च तेल बोंगा प्लेटफार्म में फैल गया । उसी वर्ष में शेवरॉन के गैस कुआें में विस्फोट हुआ और उनमें एक माह तक आग लगी   रही । १९९८ में मोबिल ने अपने इडोहो प्लेटफार्म से ४० हजार बैरल तैल बिखर गया । सबसे बड़ी आपदा १९७९ में शेल के कारण हुई, जब फार्काडो में ५७०,००० बैरल तेल खुले समुद्र में गुम हो गया । दूसरे देशों की सरकारें, जहाँ तेल उद्योग की शुरूआत है, वहाँ वे वायदों करते है कि वे नाइजर डेल्टा के शिकार हुए दुर्घटनाओं से बचेंगे । हालाँकि घाना मामला निश्चित ही प्रोत्साहन जनक नहीं है, जहाँ कच्च्े  तेल   की पहली खेप का फैलाव जहाज पर माल लदाई के दौरान हो गया था ।
फिलहाल स्पष्ट तौर पर पश्चिमी अफ्रीकी मत्स्य पालन पर तेल फैलाव के प्रभाव का कोई स्पष्ट अध्ययन नहीं हुआ है। हालांकि हम जानते हैं कि एक्जोन वाल्देज तेल रिसाव के तीन दशक बाद भी अलास्का मत्स्य पालन से जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई नहीं हो सकी है ।
तेल कंपनियाँ, भूंकपीय पेट्रोलियम अन्वेषण के कारण समुद्री पारिस्थितिक तंत्र पर कोई प्रभाव पड़ता है, से इंकार करती   हैं । जबकि पर्यावरणविद् इसे रेखांकित करते हैं कि कुछ गतिविधियों से पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है । उदाहरण के  लिए घाना के तट पर मृत व्हेल मछलियाँ पाई जाना, इन्हीं घटनाओं से जुड़ा है। 
बहरहाल, तेल के क्षेत्र में मजदूर केन्द्रित काम नहीं है, इसलिए ज्यादा लोगों को रोजगार भी नहीं    है । क्योंकि तेल उत्पादन अत्यधिक स्वचालित है और उसकी प्रोसेसिंग अफ्रीका में नहीं होती लेकिन अन्य महाद्वीपों में होती है। नतीजन तेल कारोबार केवल कुछ अफ्रीकी लोगों को ही लाभ दे पाते है ।  
अफ्रीकी नीति निर्माता तेल उत्पादन से मिलने वाली कीमतों से जरूर उत्साहित हो सकते है, लेकिन वे मत्स्य कुटीर में लगे गरीब, ग्रामीणों की जरूरतों के बारे में ज्यादा चिंता नहीं करते है । यह रवैया दर्दनाक है। समृद्ध राष्ट्रों के आर्थिक हितों की समस्याएँ जटिल हो रही    है । गरीबों लोगों के बारे में सोचना जरूरी है । उनकी आजीविका को बचाना है, न कि खतरे में डालना । अफ्रीकी सरकारों को सभी लोगों के विकास के बारे में सोचना चाहिए । वे ही अपने देश के प्राकृतिक पर्यावरण को अनियंत्रित बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अंतरराष्ट्रीय शोषण से बचा सकते हैं । 

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
आत्मघाती विकास और पर्यावरण
जयन्त वर्मा
विकास की बाजार केन्द्रित सोच ने प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन को बढ़ावा दिया    है । आज भले ही देशवासियों की आमदनी बढ़ती दिख रही हो, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट चिंता बढ़ाने वाला है। वैसे विकास की संविधान में कोई परिभाषा नहीं है। `विकास` में पर्यावरण और प्रकृति को अड़ंगा माना जाता है । हमारी वर्तमान समस्याएँ हमारे अतीत के कर्मोंासे निर्मित हुई है और हमारा वर्तमान भविष्य की समस्याओं को जन्म  देगा ।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को उन्नति और विकास का पैमाना मानने वाली सरकारें भावी पीढ़ियों के लिए खतरनाक विरासत तैयार कर मानव मात्र के अस्तित्व को विनाश की ओर ढकेलने का काम कर रही हैं । 
विकास की बाजार केन्द्रित सोच ने प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन को बढ़ावा दिया है। संसार के प्राय: सभी देशों में कमोबेश यही हालात हैं । पेरिस के जलवायु समझौते में धरती का तापमान दो डिग्री से अधिक नहीं बढ़ने देने पर सहमति बनी थी । अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पेरिस समझौते से हटने की घोषणा करके जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने के संसार के अधिकांश देशों के साझा प्रयासों को कमजोर करने का काम किया है ।
वायुमण्डल में घुली कार्बन डाय-आक्साइड पराबैंगनी विकिरण के सोखने और छोड़ने से हवा, धरती और पानी गरम होते हैं। औद्योगिक क्रांति के दौर में कोयला, पेट्रोलियम अन्य जलाऊ  इंर्धन के धुँए ने वातावरण में कार्बन डाय-आक्साईड और दूसरी ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा बढ़ाने का काम किया है। सामान्यतया सौर किरणों के साथ आने वाली गर्मी का एक हिस्सा वायुमण्डल को आवश्यक ऊर्जा देकर अतिरिक्त विकिरण धरती की सतह से टकरा कर वापस अंतरिक्ष में लौटता है । 
वातावरण में मौजूद ग्रीन हाऊस गैसें लौटने वाली अतिरिक्त उष्मा को सोख लेती है, जिससे धरती की सतह का तापमान बढ़ जाता है । इससे वातावरण प्रभावित होता है और धरती तपती है, जो जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारण है। वैज्ञानिकोंका मानना है कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन ही इसका मूल कारण है ।
वर्षा जल वाले जंगलों की अत्यधिक कटाई से पराबैंगनी विकिरण को सोखने और छोड़ने का संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा    है । अनुमानत: प्रतिवर्ष लगभग तिहत्तर लाख हेक्टेयर जंगल उजड़ रहे हैं । खेती में रासायनिक खादों के बढ़ते उपयोग, अत्यधिक चारा कटाई से मिट्टी की सेहत बिगड़ रही है। जंगली और समुद्री जीवों का अनियंत्रित शिकार भी प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ता है । जनसंख्या विस्फोट इस आग में घी डालने का काम कर रहा है । आबादी बढ़ने की यही रफ्तार रही तो २०५० तक धरती की आबादी १० अरब हो जायेगी । विकासशील देशों की अधिकांश आबादी प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित है, संसाधन खत्म हो रहे    हैं । 
भारत में वन की परिभाषा तय नहीं है । भारतीय वन अधिनियम १९२७ में वन को परिभाषित नहीं किया गया है । सरकार इमारती लकड़ी के खेतों को वन कहती है । पर्यावरण का अंग होने के बावजूद वन में सागौन आदि के वृक्ष लगाए जाते हैं । पर्यावरण संतुलन बनाने में सहायक बरगद, पीपल, नीम, आम, जामुन आदि गर्मी में हरे-भरे रहने वाले फलदार वृक्ष लगाने का वन विभाग की कार्य योजना में कोई स्थान नहीं होता । उच्च्तम न्यायालय केन्द्र सरकार से वन की परिभाषा तय करने हेतु बार-बार आग्रह कर रहा है, किन्तु सरकार की इस दिशा में कोई रूचि नहीं है। पर्यावरण संतुलन बनाए रखना है तो देश की वन भूमि को उद्यान, आयुष, जनजाति कल्याण जैसे विभागों को सौंप दी जाना चाहिए ताकि समाज के  लिए उपयोगी वनोपज से नागरिकों को औषधि, पोषाहार तथा अन्य जरूरी चीजें मिले साथ ही पर्यावरण समृद्ध हो ।
विकास की संविधान में कोई परिभाषा नहीं है । सरकार ने निर्माण कार्योको विकास मान लिया है। निर्माण कार्योंा में पर्यावरण और प्रकृतिको अड़ंगा माना जाता है। औद्योगिक और कार्पोरेट घरानों को उदारता के साथ वन भूमि आबंटित की जा रही है । वन विभाग का अमला वन भूमि से खनिज संसाधनों के अवैध दोहन को बढ़ा कर अपनी जेबें भरने में संलग्न है । नेतागण भी इस गैरकानूनी उत्खनन में लगे हैं । प्राकृतिक संतुलन का तेजी से ह्रास हो रहा है । तात्कालिक लाभ के लिए भावी पीढ़ियों का अस्तित्व खत्म करने में लगा वर्ग सभी जगह सत्ता पर काबिज है । 
हम यह भूल जाते हैं कि हमारी वर्तमान समस्याएँ हमारे अतीत के कर्मों से निर्मित हुई है और हमारा वर्तमान भविष्य की समस्याओं को जन्म देगा । हम ऐसे त्रासदपूर्ण युग में जी रहे हैं, जिसमें उस डाल को ही काटने का काम हो रहा है, जिस पर समाज सवार है। यही वर्तमान की सबसे त्रासदपूर्ण परिघटना है ।
स्मृति-शेष 
प्रो. यशपाल : विज्ञान चेतना के अग्रदूत
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

विज्ञान की कठिन शब्दावलि को सरल शब्दों में जन-जन तक पहुंचाने वाले महान विज्ञान संचारक प्रो. यशपाल का पिछले दिनों (२५ जुलाई) को निधन हो गया । 
प्रोफेसर यशपाल का निधन एक ऐसे युगपुरूष का अंत है, जिसने करीब छह दशकों तक शिक्षा, विज्ञान, जनसंचार, अंतरिक्ष विज्ञान व वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिए उल्लेखनीय काम किया । वे भारत को एक आधुनिक और वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न राष्ट्र के रूप मेंदेखना चाहते थे । 
देश में अंतरिक्ष अनुसंधान की नींव रखने वालों में वह एक प्रमुख वैज्ञानिक थे । अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में वैज्ञानिक अनुसंधान कार्य शुरू किया, जहां वह १९८३ तक कार्यरत रहे । बाद में उन्होंने योजना आयोग और विज्ञान व प्रौघोगिकी मंत्रालय में महत्वपूर्ण पदों पर काम किया । 
वैज्ञानिक संस्थाआें के नेतृत्व और प्रशासन के साथ उनका एक बड़ा योगदान वैज्ञानिक संप्रेषण के क्षेत्र में था । वह सबसे ज्यादा चर्चा में आए दूरदर्शन पर लंबे समय तक चले वैज्ञानिक धारावाहिक टर्निग प्वॉइंट  से । उस कार्यक्रम में वे गूढ़ वैज्ञानिक रहस्यों को आम बोलचाल की भाषा में समझाते थे । आज देश में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिन्हें टर्निग प्वॉइंट में प्रोफेसरयशपाल के जरिए इन्द्रधनुष, सौर-गंगा व सौर ऊर्जा के रहस्यों को नई दृष्टि से समझने का अवसर मिला था । 
उनका एक बड़ा योगदान उच्च् शिक्षा में रहा, जहां उन्होंने अपने उदारतावादी विचारों की अमिट छाप छोड़ी, वे संस्थाआें में वैज्ञानिक मानसिकता, शैक्षणिक स्वायत्तता और जवाबदेही के पक्षधर थे । वर्ष १९८६ से १९९१ तक वे विश्वविघालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के रूप में समूचे देश की उच्च् शिक्षा के नियामक रहे । वर्ष २००९ में मानव संसाधन मंत्रालय ने उच्च् शिक्षा के पुनरोत्थान के लिए गठित समिति का  उन्हेंअध्यक्ष बनाया । इस समिति की रिपोर्ट में विश्वविद्यालयों के बारे में कहा गया है विश्वविद्यालय वह स्थान है, जहां नए विचारों के बीज अंकुरित होते हैं और जड़ें पकड़ते हैं। यह वह अनोखी जगह है, जहां रचनात्मक दिमाग मिलते हैं, एक-दूसरे से संवाद करते हैं और नई वास्तविकताआें के लिए भविष्य का रास्ता बनाते हैं । आज हमारे में विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत युवाआें और प्राध्यापकों को उनके विचार ज्योति पुंज की तरह नया रास्ता दिखाते हैं । 
प्रोफेसर यशपाल को एक साहसी शिक्षाविद् के रूप में भी जाना जाता है । सन् २००२ में छत्तीसगढ़ सरकार ने एक कानून पारित करके ११२ निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दे दी थी । ये विश्वविद्यालय निजी महाविद्यालयों के स्वामियों द्वारा मुनाफा कमाने के लिए प्रारंभ किए गए थे, जिनमें ज्यादातर के पास रायपुर में दो-तीन कमरों की जगह थी, जहां केवल कार्यालय खोला गया था । प्रोफेसर यशपाल ने सर्वोच्च् न्यायालय में याचिका दायर की और उस कानून को निरस्त करने की मांग की, जिसके तहत निजी विश्वविद्यालय बनाने का फर्जीवाड़ा चल रहा था । 
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी की तीन सदस्यीय पीठ ने याचिका को स्वीकार करते हुए ऐसे ११२ निजी विश्वविद्यालयों को बंद करने का आदेश दिया था । प्रोफेसर यशपाल अपनी भाषा-बोलियों के हिमायती थे क्योंकि वे मानते थे कि जबतक विज्ञान अपनी भाषाआें में नहीं पढ़ा जाएगा तब तक वह बहुत दूर तक नहीं पहुंचेगा । इसीलिए वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में भी लोकप्रिय हुए हैं जो आम आदमी की भाषा में विज्ञान की व्याख्या कर सकता है । प्रो. यशपाल ने भारतीय शिक्षा के बारे में लर्निग विदाउट बर्डन (बोझ के बिना शिक्षा) रिपोर्ट बनाई थी जिसमें बच्चें पर पढ़ाई का बोझ कम करने के अनेक सुझाव दिए थे । वे चाहते थे कि विज्ञान की शिक्षा सभी के लिए हो । उनका कहना था कि हमने विशाल ब्रह्माड को विज्ञान के जरिये ही जाना है विज्ञान हमें समझने में मदद करता है कि इस ब्रह्माड में हमारी हैसियत क्या है । 
जातिप्रथा में विश्वास नहीं करने के कारण प्रोफेसर यशपाल अपने नाम में कुल नाम नहींलगाते थे । १९७० के आसपास विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने की पूरे पद्धतियों को बदलने के लिए अनिल सदगोपाल के साथ वे किशोर भारती के होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम से भी जुड़े थे । प्रोफेसर यशपाल उन वैज्ञानिकों में से थे जो बच्चें की जिज्ञासा के बूते अनुसंधान में विश्वास करते हों । उनका कहना था कि बच्च्े पाठ्यक्रम बनाने वालों से कहीं ज्यादा नई जानकारी रखते हैं । मानव नया देखने, प्रयोग करने और समझने के लिए जन्मा है । लेकिन, प्राय: हमारी शिक्षा पद्धति हमारी इस मेधा को कुठित कर देती है । मैं यह मानता हॅू कि एक दिन हमें पढ़ाने और समझने का ऐसा तरीका अपनाना होगा जो मुख्य रूप से बच्चें द्वारा खोजे और पूछे गए प्रश्नों पर आधारित होगा । 
प्रो. यशपाल को उनके जीवनकाल में अनेक सम्मान/पुरस्कार मिले भारत सरकार द्वारा उन्हें १९७६ में पद्मभूषण और २०१३ में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था । वर्ष २००९ में विज्ञान को बढ़ावा देने और उसे लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें यूनेस्को द्वारा कलिंग सम्मान से सम्मानित किया था । उनके जीवन के अस्सी वर्ष पूर्ण होने पर विज्ञान प्रसार ने उनके जीवन एवं कार्यो पर एक पुस्तक का प्रकाशन किया एवं एक फिल्म का निर्माण भी किया था । 
समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने और शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व सुधारो के लिए दिए गए उनके योगदान को देश कभी नहीं भुला नहीं पायेगा । 
विशेष लेख
कैसे बचेगी जैव विविधता ?
भारत डोगरा
पौधों की विविधता धरती पर हर जगह एक-सी नहीं पाई जाती    है । विश्व में कुछ स्थान ऐसे हैं जहां प्राकृतिक  रूप से पौधों की विविधता बहुत अधिक है और कुछ स्थानों पर बहुत कम । पौधों की अत्यधिक विविधता की दृष्टि से समृद्ध स्थान ही बायोटेक्नॉलॉजी के लिए प्रकृति के बड़े खजाने हैं । पौधों की विविधता के  ये स्थान मुख्य रूप से गर्म जलवायु के देशों में है । आर्थिक दृष्टि से देखें तो पौधों की विविधता के येस्थान मुख्य रूप से गरीब या विकासशील देशों में है । 
यह बहुत दुख की बात है कि जैव विविधता की दृष्टि से बहुत सम्पन्न ऐसे अनेक देशों में जैव विविधता को बनाए रखने पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया व पिछले कुछ दशकों में तो  इस जैव विविधता का बहुत तेजी से विनाश हुआ है । इसका एक मुख्य कारण है बड़े पैमाने पर वनों की कटाई । कृषि की तकनीक में ऐसे बदलाव किए गए हैं जिनके कारण अनेक विविध किस्मों के स्थान पर बड़े-बड़े क्षेत्र में एक या दो किस्मों का ही प्रसार हुआ । या जिन किस्मों का प्रसार हुआ उनका जेनेटिक आधार एक सा था । 
तकनीक के इसी बदलाव से जुड़ी हुई एक अन्य बात यह थी कि कीटनाशक व खरपतवारनाशक दवाआें व अन्य रसायनों के उपयोग में बहुत वृद्धि हुई । इससे जैव विविधता को बहुत क्षति पहुंची और बहुत से ऐसे पौधों व जीवों का पतन हुआ जो कृषि की उत्पादकता व भूमि का उपजाऊपन बढ़ाने में सहायक हो सकते थे । जो पौधे अधिक मूल्यवान हैं या सीमित मात्रा में उपलब्ध रह गए हैं, उनकी तस्करी से भी पौधों की विविधता के पतन में तेजी आई है । 
वैज्ञानिक पीटर रेवन ने बताया है कि पौधों की विभिन्न किस्मों और जंतुआें की परस्पर निर्भरता के चलते होता यह है कि पौधे की हर किस्म के लुप्त् होने पर १०-३० पौधों या जन्तु किस्मों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है । 
पौधों की विविधता के इस तेज पतन को देखते हुए अनेक वैज्ञानिकों ने इस विविधता को बचाने का मुख्य उपाय यह सोचा कि इन किस्मों को या उनके जनन द्रव्य को प्रयोगशालाआें में या इस उद्देश्य के लिए बनाए गए विशेष संग्रहण गृहों (जिन्हें जीन बैंक कहा जाता है) में संरक्षित कर लिया जाए । पिछले कुछ दशकों में इस सोच को बहुत बल मिला है तथा दुनिया भर में विशेषकर अमीर देशों में जीन बैंक तेजी से स्थापित किए गए है । 
पर क्या पौधों की विविध किस्मों और उनके जनन द्रव्यों को प्रयोगशालाआें और जीन बैंकों में संग्रह कर लेने मात्र से पौधों की विविधता बच जाएगी ? अनुभव से पता चला है कि कभी लापरवाही के कारण, कभी बिजली देर तक गुल रहने से, कभी वातानुकूलन खराब होने से ठंडक न रहने के कारण, कभी आग लग जाने या ऐसी ही किसी दुर्घटना से प्रयोगशालाआें या जीन बैंकों में रखे ऐसे अमूल्य संग्रह कुछ ही समय में नष्ट हो गए । 
माइकेल पेरेलमन नामक लेखक ने बताया है कि तीन रेफ्रिजरेटर कम्प्रेसर खराब होने से ही पेरू देश में मक्का के जनन द्रव्य का एक मुख्य संग्रह नष्ट हो गया । इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राज्य अमरीका में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी ने अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि पौधों की विविधता को बचाने का एकमात्र विश्वसनीय उपाय उन्हें उनके प्राकृतिक परिवेश में बचाना है । 
फिलहाल जीन बैंकों और प्रयोगशालाआें पर ही जैविक विविधता  को बचाने की अधिक जिम्मेदारी डाली जा रही है जो अपने आप में एक असंतोषजनक है, क्योंकि जीन बैंको व प्रयोगशालाआें के संग्रह का बहुत बड़ा भाग अमीर देशों में है, वहां की सरकारों या बड़ी कंपनियों के नियंत्रण में है । इस तरह जहां एक ओर गरीब देशों की वनस्पति विविधता उनके अपने यहां के वनों व खेतों से विभिन्न कारणों से लुप्त् होती जा रही है वही जीन बैंकेों के माध्यम से अमीर देशों और वहां स्थित बड़ी कंपनियों को यही सम्पदा उसकी भरपूर जानकारी के साथ उपलब्ध है । 
पौधों की विविधता के क्षेत्र मुख्य रूप से गरीब देशों में होने के कारण प्राय: अमीर देशों के वैज्ञानिकों को यहां के पौधों की सम्पदा की सहायता लेनी पड़ी, ताकि वे अपने देश में फसल की ऐसी किस्में ला सकें जो खतरनाक बीमारियों, कीट-पतंगों आदि से बचने की क्षमता रखती हो । 
सन् १९७० के दशक में संयुक्त राज्य अमरीका के कृषि विभाग ने इस बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी कि गरीब देशों के पौधों की सम्पदा से वहां की कृषि को कितनी सहायता मिली है । खीरे की किस्में मुख्य रूप से कोरिया, बर्मा व भारत से ली गई तो फली की किस्में मेक्सिको, सीरिया व तुर्की से । मटर में बीमारी से बचाव के लिए पेरू और ईरान की पौध सम्पदा का सहारा मिला । वहां के पालक को महामारी के प्रकोप से बचाने के लिए भारत, ईरान और तुर्की के पौधों की सहायता मिली । तम्बाकू में एक भयानक बीमारी को इथिओपिया से प्राप्त् पौध सम्पदा से ही बचाया जा सका । 
यहां तक तो आपत्ति की कोई बात नहीं थी । यदि हमारे यहां के पेड़-पौधों से किसी और का भला हो जाए, तो इसमें हमारा क्या जाता है । किन्तु यह अस्वीकार्य है कि कोई आपको लूटना चाहे तो लूटने दो । जब बात यहां तक पहुंचने लगे तो जरूरी है कि हम सचेत हो जाएं और अपने हितों की रक्षा करें । 
वन विनाश और फसलों की पुरानी किस्मों को बड़े पैमाने पर हटाने वाली खेती की नई तकनीक के कारण अनेक गरीब देशों में प्राकृतिक तौर पर उपलब्ध पौधों की विविधता तेजी से सिमटती गई, पर इससे पहले ही पौधों की इस विविधता का संग्रहण अमीर देशों की प्रयोगशालाआें और जीन बैंक नामक विशेष संग्रहण गृहों में हो चुका था । अब दूसरों के यहां से लाई गई पौध सम्पदा के आधार पर वे नई किस्में और बीज प्राप्त् करने लगे तथा इसके लिए उन्हींदेशों से मोटे दाम मांगने लगे जहां से वे पोध सम्पदा को आरंभ मेंलाए थे । 
कीन्या से दालों व फलियों की कुछ किस्में ऑस्ट्रेलिया नि:शुल्क से जाई गई । बाद में इस पौध सम्पदा के आधार पर जो बीज ऑस्ट्रेलिया में विकसित किए गए, उन्हें वापिस कीन्या को व्यापारिक दरों पर बेचा गया । इसी तरह लीबिया से चारा फसल की किस्में ऑस्ट्रेलिया भेजी गई व बाद में इन पर आधारित बीज लीबिया को व्यापारिक दरों पर बेचे गए । संयुक्त राज्य अमेरिका ने पेरू से टमाटर की एक जंगली किस्म प्राप्त् की जिससे अमेरिका में टमाटर की चटनी जैसे खाद्य पदार्थ बनाने वाले उद्योग को ८० लाख डॉलर का लाभ हुआ, पर इस लाभ का कुछ भी हिस्सा पेरू को नहीं मिला । 
मैडागास्कर के पेरीविकल पौधे से संयुक्त राज्य अमेरिका में इतनी दवाइयां बनाई जाती है कि उनसे प्रति वर्ष १६ करोड़ डॉलर की आमदनी होती है । गरीब देशों के पौधों से बनाई कितनी ही दवाएं बहुत ऊंचेदामों पर वापिस गरीब देशों को बेची जाती है या इनकी बिक्री का मुनाफा, रॉयल्टी वगैरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अमीर देशों को वापिस भेजा जाता है । 
कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन ने संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग के संग्रहण गृहों में रखी गई गेंहूं की किस्मों का एक अध्ययन किया । यहां २७ देशों से एकत्रित गेंहू की किस्में पाई गई जिनमें से २२ गरीब देश थे । इनमें से १४ गरीब देश ऐसे थे जिनके यहां गेहू की कुछ किस्में यहां अमेरिका में तो उपलब्ध थी, पर इन देशों में ये किस्में अब उपलब्ध नहीं थी, कम से कम वहां के वैज्ञानिकों को आसानी से उपलब्ध होने वाले संग्रहित रूप में तो नहीं ही थी । 
एक ओर तो जीन बैंक में पौध सम्पदा का संग्रहण अपने आप में पौध सम्पदा को सुरक्षा नहीं दे सकता, क्योंकि रोग, दुर्घटना, लापरवाही आदि से यह संग्रह नष्ट हो जाता है । दूसरी ओर, गरीब देशों की स्थिति तो इस दृष्टि से विशेष रूप से संवेदनशील है, क्योंकि उन्हें यह भी पता नहीं है कि अन्तर्राष्ट्रीय संग्रहों में जितनी पौध सम्पदा उपलब्ध है वह आवश्यकता पड़ने पर उन्हें बेरोकटोक प्राप्त् हो सकेगी या नहीं । अधिक संभावना इसी बात की है कि अपने ही यहां की सम्पदा पर आधारित बीजों के लिए उन्हें मोटी रकम खर्च करनी होगी । गरीब देशों की इस स्थिति पर इस विषय के प्रख्यात लेखक पैटराय मूनी ने लिखा है कि किसी के लिए भी सब अंडे एक टोकरी में रखना उचित नहीं होता, तिस पर तीसरी दुनिया के देशोंको तो सब अंडे किसी दूसरे की टोकरी में रखने को कहा जा रहा है । 
कृषि में जैव विविधता कुछ वर्षो में कितनी तेजी से लुप्त् हुई है, इसके बारे में अब अनेक देशों से आश्चर्यजनक जानकारी मिल रही   है ।  वर्ष १९४९ में चीन में गेंहू की लगभग दस हजार किस्में उपलब्ध  थी । १९७० के दशक में इनमें से मात्र एक हजार किस्में ही खोजी जा सकी । दक्षिण कोरिया में १४ फसलों के बारे में अधिक व्यापक अध्ययन से बहुत चौंका देने वाले परिणाम मिले हैं । जिन खेतों में यह अध्ययन किया गया वहां १९८५ और १९९३ के बीच एक दशक से भी कम समय में इन फसलों की ७४ प्रतिशत किस्में लुप्त् हो गई । 
यदि इतिहास के पृष्ठों में हम कुछ और पीछे जाएं तो और भी चिंताजनक जानकारी मिलती है । संयुक्त राज्य अमेरिका में वर्ष १९०४ और १९०४ के बीच सेब की ७०९८ किस्मे उगाए जाने की जानकारी उपलब्ध है । इनमें से ८६ प्रतिशत किस्में अब सेब के बगीचों में तो क्या, लुप्त् हो रही प्रजातियों के लिए विशेष रूप से बनाए गए जीन बैंकों मेंे भी उपलब्ध नहीं है । इसी तरह बंदगोभी की ९५ प्रतिशत, मक्का की ९१ प्रतिशत, मटर की ९४ प्रतिशत और टमाटर की ८१ प्रतिशत किस्में लुप्त् हो चुकी है । 
ये आंकड़े संयुक्त राष्ट्र के कृषि व खाद्य संगठन के सचिवालय द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट से लिए गए है । 
आनुवंशिक विविधता के स्थान पर एकरूपता आने का उदाहरण बताते हुए रिपोर्ट कहती है कि एफ-१ संकरित धान की फसल १९७९ में चीन में पचास लाख हेक्टर पर फैली थी और १९९० में यह बढ़कर एक सौ पचास लाख हैक्टर तक पहुंच गई और इसका आनुवंशिक स्त्रोत एक सा है । इससे होने वाले नुकसान का उदाहरण देते हुए रिपोर्ट बताती है - कैलीफोर्निया (अमेरिका) में अंगूर की बेलों की आनुवंशिक एकरूपता के कारण उनमें एक गंभीर बीमारी इतनी तेजी से फैलने लगी कि इन्हें उखाड़कर दूसरी बेले लगाने में करोड़ों डॉलर खर्च करने पड़ रहे हैं । 
गैर सरकारी संगठनों के लीपजिंग (जर्मनी) में हुए एक सम्मेलन में किसानों द्वारा जैव विविधता बचाने पर एक दस्तावेज तैयार किया गया जिसमें कृषि और खाद्य क्षेत्र में पेटेट अधिकारों की कड़ी आलोचना की गई । इस दस्तावेज में कहा गया कि बौद्धिक संपदा अधिकारों के रूप में नई दीवारें खड़ी की जा रही है जो किसानों को जैव विविधता संबंधी अधिकारों से वंचित कर रही है । बौद्धिक संपदा अधिकारों से स्थानीय समुदाय और विश्व समुदाय स्तर पर जानकारी और संसाधनों के आदान-प्रदान में बाधा उत्पन्न होती है । जैव विविधता को केवलजीन बैंकों में कैद कर नहीं बचाया जा सकता । इसे तो किसान समुदाय अपने खेत-खलिहानों में ही ठीक तरह से संरक्षित कर सकते हैं । किसानों के इन प्रयासों में पेटेंट अधिकारों से बाधा पहुंचती है । बहुराष्ट्रीय कंपनियां सामूहिक संसाधनों का निजीकरण करने का प्रयास कर अनेक समुदायों में आपसी मतभेद उत्पन्न कर रही है । 
इस आलोचना के साथ गैर सरकारी संगठनों ने अपने लिए एक कार्यक्रम भी तैयार किया है जिसमें किसानों के अधिकारों को स्पष्ट कानूनी स्वीकृति दिलवाने, जीन बैंकों में बंद पौध संपदा तक किसानों की पहुंच सुनिश्चित करने, किसान और आदिवासी समुदायों के संरक्षण प्रयासों को प्रतिष्ठित करने और बौद्धिक संपदा अधिकारों के विकल्प खोजने को महत्व दिया गया है । 
जर्मनी में हुए इस सम्मेलन में जर्मनी के ही एक किसान जोजफ  एल्ब्रेट ने वर्तमान कानूनों को लेकर अपना कड़वा अनुभव बताया कि जब उन्होंने बाजार में बिक रहे बीजों से असंतुष्ट होकर पर्यावरण के प्रति अधिक अनुकूल बीज तैयार किए और इन बीजोंकी किसानों में लोकप्रियता देखते हुए उन्होंने इन्हें अनेक किसानों को देना आरंभकिया तो उन पर बीज संबंधी वर्तमान जर्मन कानूनों के अन्तर्गत रोक लगाई गई और जुर्माना भी किया गया । इस उदाहरण से पता चला कि बीजों और जैव विविधता के संरक्षण में किसानों की भूमिका की व्यापक स्वीकृति के बावजूद उनके द्वारा किए गए संरक्षण प्रयासों में वर्तमान कानूनों द्वारा कितनी बाधाएं उपस्थित की जा सकती है । 
इस तरह के उदाहरण बढ़ते जा रहे हैं जहां गरीब देशों से लाई गई पौध संपदा के आधार पर अमीर देशों की कंपनियां पेटेंट लेती जा रही हैं । पहले यह माना जाता था कि विकासशील देशों की जा संपदा प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय स्तर के जीन बैकों में रखी गई है, कम से कम वह मुनाफे के, दृष्टिकोण से पेटेंट से मुक्त रहेगी, पर अब यह उम्मीद भी खत्म हो रही    है । यह ठीक है कि ये जीन बैंक या इन्हें नियंत्रित कर रही संस्थाएं स्वयं इस पौध संपदा के आधार पर पेटेंट नहीं ले रही है पर विभिन्न अनुसंधानों के लिए इस संपदा को प्राप्त् कर इनका इस्तेमाल पेटेंट प्राप्त् करने के लिए किया जा सकता है । इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से इन अंतर्राष्ट्रीय स्तर के जीन बैंकों में गरीब देशों से लाई गई बहुत सी पौध संपदा का उपयोग अब इस तरह से करना संभव हो गया है कि बाद में इनके आधार पर इन गरीब देशों से ही मुनाफा वसूला जाएगा और अमीर देशों में पहुंचाया जाएगा । 
इस तरह जहां एक ओर जैव विविधता के लुप्त् होने का संकट है और उसके संरक्षण के लिए प्रयास करना जरूरी है, वहीं इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि संरक्षण के प्रयास पर कौन हावी हो रहा है और इसे अपने संकीर्ण हितों की ओर मोड़ने का प्रयास कर रहा है । वास्तव में संरक्षण के नाम पर मुनाफा कमाने के जबर्दस्तर, व्यापक प्रयास हो रहे है और इस कारण वास्तविक सही भावना से होने वाले संरक्षण कार्य को बहुत क्षति पहुंच रही है । अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में सभी संरक्षण की बात करते है पर शक्तिशाली निहित स्वार्थो का वास्तविक प्रयोजन मुनाफा होता है इसलिए कथनी और करनी में बहुत अंतर आ जाता है । 
पर्यावरण परिक्रमा
दो डिग्री बढ़ गया अंटार्कटिका का तापमान
अंटार्कटिका में (हिमचट्टान) लार्सेन सी का एक हिस्सा टूटकर अलग (क्रेक) हो रहा है । वैज्ञानिक इस हिमखंड के अलग होने का कारण कार्बन उत्सर्जन को बता रहे हैं । कार्बन उत्सर्जन से वैश्विक तापमान बढ़ रहा है, जिससे बर्फ पिघल रहा है । अंटार्कटिका पर अध्ययन करने वाले जियोलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (जीएसआई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब सवा सौ साल में अंटार्कटिका के तापमान मेंदो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई  है । फरीदाबाद के एनएच-४ स्थित जीएसआई के वैज्ञानिकों द्वारा पिछली दो शताब्दियों में अंटार्कटिका से एकत्र किए गए बर्फ के नमूनों से इस बात की जानकारी जुलाई माह में मिली  है । अंटार्कटिका में सीओटू ४५० पीपीएम हुआ तो समुद्री जलस्तर खतरनाक स्तर तक उठ जाएगा । वैज्ञानिकों के मुताबिक अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन और बढ़ते तापमान के कारण समुद्र तटीय देशों के डूबने का खतरा है । जीएसआई के पूर्व डायरेक्टर एचएस सैनी का कहना है कि यह बहुत खतरनाक घटना है । ग्लेशियर के इतने बड़े पार्ट पर के्रक आना बताता है कि ग्लोबल वार्मिंग का स्तर बढ़ रहा है । यह पूर्व में की गई गलतियों का नतीजा है । 
अंटार्कटिका में १०० मीटर नीचे तक के बर्फ के टुकड़ों से पता किया गया कि वहां कब-कब सीओटू की मात्रा कितनी थी । १९ झीलों के तलछट के ४२ नमूने निकाले गए   है । काल निर्धारण विधि से जांच  हुई जिससे वहां के ३२६५५ वर्ष पहले तक के जलवायु जानकारी मिली है ।
हिमखंड कार्बन उत्सर्जन की वजह से अलग हो रहे है । इससे तापमान बढ़ रहा है । समुद्री स्तर में बढ़ोत्तरी होने से अंडमान और निकोबार के कई द्वीप और बंगाल की खाड़ी में सुन्दरवन के हिस्से डूब सकते है । भारत की ७ हजार ५०० किलोमीटर लंबी तटीय रेखा को इससे खतरा है । 

दो बाघों को बचाने से ५२० करोड़ का फायदा
बाघों और मंगलयान की तुलना भले ही अजीब लगती है लेकिन एक नया जैव आर्थिक विश्लेषण बेहद दिलचस्प आंकड़े पेश करता है । इसके अनुसार दो बाघों का बचाने से होने वाला लाभ मंगलयान परियोजना पर आई लागत से कहीं ज्यादा है । भोपाल स्थित भारतीय वन प्रबंधन संस्थान के प्रोफेसर मधु वर्मा के नेतृत्व वाले भारतीय ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों के दल ने यह अनूठा विश्लेषण किया है, जिसकी रिपोर्ट मेकिग द हिडन विजिबल : इकनॉमिक वैल्यूएशन ऑफ टाइगर रिजर्व्ज इन इण्डिया शीर्षक से इकोसिस्टम सर्विसेस जर्नल में प्रकाशित हुआ है । 
इसमें कहा गया है कि दो बाघों को बचाने व उनकी देखभाल से होने वाला पूंजीगत लाभ करीब ५२० करोड़ रूपए है, जबकि इसरो की मंगल ग्रह पर मंगलयान भेजने की तैयारी की कुल लागत ४५० करोड़ रूपए है । अंतिम अनुमोदन के अनुसार, भारत में वयस्क बाघों की संख्या २,२२६ है, जिसका मतलब है कि कुल पूंजीगत लाभ ५.७ लाख करोड़ रूपए होगा । 

स्कूल में विद्यार्थी पौधे लगाएंगे तो नम्बर पाएंगे 
झारखंड के हजारीबाग जिले के हाईस्कूलों में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अनोखी पहल की गई है । यहां पौधरोपण को विद्यार्थियों के जन्मदिन और प्रदर्शन से जोड़कर अभियान को नई धार देने की कोशिश की गई है । इस व्यवस्था के तहत बच्च्े अपने जन्मदिन के मौके पर स्कूल मेंपौधरोपण करते हैं । इसके लिए उन्हें वार्षिक परीक्षा में अंक भी दिए जाएंगे । 
यह पहल जिला शिक्षा पदाधिकारी सरिता दादेल ने की है । वे बताती है कि स्कूलोंमें जो व्यवस्था बनाई गई है उसके तहत जन्मदिन पर लगाए गए पौधों की देखभाल के लिए कक्षा नौ में नामांकन लेने वाले विद्यार्थी इन्हें गोद लेंगे और शिक्षक इसकी निगरानी करेगे । जिला शिक्षा पदाधिकारी सरिता दादेल ने इसके लिए जिलास्तरीय प्रधानाचार्यो की बैठक में पिछले दिनों इसे ध्वनिमत से पारित कराने के बाद जिले में लागू कराया । 
जिले में कुल ११० उच्च् विद्यालय है, जहां यह योजना लागू की जा रही है । इन स्कूलों में २४१६७ विद्यार्थी पढ़ते है । वहीं जिला स्तर पर ऐसे बेहतरीन कार्य करने वाले १० विद्यार्थियों को शिक्षा विभाग सम्मानित भी करेगा । विद्यार्थियों को पौधा लगाने के सामाजिक विज्ञान में अंक निर्धारित किए गए है । 

अर्थी की बची सामग्री से बनाया ट्री गार्ड 
म.प्र. में विदिशा जिला मुख्यालय स्थित मुक्तिधाम में पर्यावरण संरक्षण के लिए अर्थी की बची सामग्री से ट्री गार्ड बनाने की अनूठी पहल की गई है । 
सूत्रों के अनुसार मुक्तिधाम में अर्थी की बची सामग्री से बड़ी संख्या में बनाए ट्री गार्ड से अनेक हरे भरे वृक्षों को बचाने की अनूठी पहल पर्यावरण प्रेमियों को एक नया संदेश दे रही है । पहले यहां लोहे के ट्री गार्ड चोरी हो जाते थे । इसलिए अर्थी के बांस और अर्थी बनाने वाले रस्सी से बनाए अनूठे ट्री गार्ड नए पौधों को बचाने से वरदान साबित हो रहे है । 
विदिशा के मुक्तीधाम में अर्थी की सामग्री से बने ट्री गार्ड को डर के मारे चोर भी नहीं चुराते । बगैर छुआछूत के नियमित श्रमदान करते विदिशा के चंद श्रमदानियों के अभिनव प्रयोग से सैकड़ों वृक्षों का संरक्षण और सम्वर्धन आसान हो गया है । हाल ही में प्रदेश सरकार ने पूरे प्रदेश में पौधरोपण कर प्रदेश को हराभरा बनाने की कोशिश की है जिसे कामयाब बनाने हेतु पौधरोपण के बाद उन वृक्षों का संरक्षण करने और सुरक्षित रखने की चिंता करते विदिशा के नागरिकों ने यह अनूठी पहल की है । खास बात यह है कि पर्यावरण संरक्षण को समर्पित विदिशा के मुक्तिधाम में वृक्षों के संरक्षण के लिए बिना किसी सरकारी सहायता और बिना खर्च के ये ट्री गार्ड बनाये है । इन नए ट्री गार्ड के ना तो चोरी होने का डर है और ना किसी के ले जाने का खतरा है । 

गंभीर जल संकट के कगार पर देश
पिछले दिनों आगरा जिले में पानी नहीं पहुंचने की शिकायत पर अधिकारी जांच को जाते हैं, तो गुस्साए किसान उन पर भी हमला कर देते हैं । 
आसन्न जल संकट की यह आहट भर है । पानी को लेकर न सिर्फ लोगों बल्कि राज्यों के बीच संघर्ष पनप रहा है । दूसरी ओर राज्य सरकारें जल को स्वच्छ और सहेजकर रखने के उत्तरदायित्व से बच रही है । जल पर राष्ट्रीय कानून व स्पष्ट नीति के अभाव में समस्या और विकराल होती जा रही है । साल प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता घटती जा रही है । केन्द्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) के अनुसार वर्ष २०५० में देश प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता घटकर ११४० घन मीटर रह जाएगी जबकि २०१० में यह १६०८.२६ घन मीटर थी । देश जब आजाद हुआ था उस समय प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता छह हजार घन मीटर से अधिक थी । 
विशेषज्ञों के मुताबिक, संकट इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि देश में पानी को लेकर न तो कोई राष्ट्रीय कानून है और न ही कोई स्पष्ट नीति है । इसराइल, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में जल पर राष्ट्रीय कानून है । भारतीय संविधान में जल राज्य का विषय है । जल आपूर्ति, सिंचाई, नहर, ड्रेनेज और जल संचयन जैसे विषयों पर नियम-कानून राज्य ही बना सकते है । केन्द्र को सिर्फ नदियों के विकास और नियमन का अधिकार है । 
जल पर स्वामित्व के लिए तो राज्य सरकारें आगे रहती है, लेकिन इसे स्वच्छ रखने के उत्तरदायित्व स्वीकारने से बचती है । इसका एक उदाहरण कानपुर शहर है, जिसकी आबादी करीब ५० लाख है और जो चमड़ा उद्योग का केन्द्र है । गंगा के किनारे बसे इस शहर में सीवेंज ट्रीटमेट की जितनी क्षमता होनी चाहिए, वह बनाने की जिम्मेदारी कभी उत्तरप्रदेश सरकार ने महसूस नहीं की । खुद कानपुर नगर निगम के कमिश्नर ने ८ मार्च, २०१७ को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के समक्ष माना कि शहर में १६६९ कालोनी है । इनमें से १५२ कालोनी अनियोजित है और ३९७ झुग्गियंा   है । झुग्गियां और अवैध कालोनी में सीवर नहीं है । शहर में जहां भी सीवर लाइनें है, उनमें से ७० प्रतिशत ब्लॉक है और सिर्फ ३० प्रतिशत ही चल रही है । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण् बोर्ड की रिपोर्ट भी बताती है कि शहरी क्षेत्रों से प्रतिदिन ६२००० मिलियन लीटर (एमएलडी) सीवेज निकलता है, लेकिन ट्रीटमेंट क्षमता मात्र २३२७७ एमएलडी ही है । इसमें भी जो एसटीपी चलते है, उनकी क्षमता काफी कम है । 
सीडब्ल्युसी के पूर्व अध्यक्ष एबी पांड्या कहते है कि जलप्रदूषण की रोकथाम की बारी आती है तो राज्य सरकारें सुस्त पड़ जाती है । राज्य सरकारें जल प्रदूषण रोकने के लिए कितनी गंभीर है इसका दूसरा उदाहरण यह है कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष २०१५ में इस कानून के तहत देश में सिर्फ १० मामले दर्ज हुए और मात्र १३ गिरफ्तारियां हुई । 
सामाजिक पर्यावरण
शिक्षा, शराब और सामाजिक चेतना
वीरेन्द्र पैन्यूली
एक ओर ऊत्तराख्ंाड उच्च् न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण आदेश जारी किया है कि जब तक उत्तराखंड के सरकारी विद्यालयों के लिए न्यूनतम भौतिक एवं शैक्षिक सुविधाओं की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक उत्तराखण्ड सरकार कोई महंगी चीज जैसे महंगी गाड़ियां, ए.सी., फर्नीचर, आदि नहीं खरीदेगी । वहीं दूसरी ओर बच्चें की बाल विधानसभा ने बच्चें में बढ़ती नशे के लत को रोकने के संबंध में प्रस्ताव पारित कर इसे लागू करने की मांग की है ।
नैनीताल हाईकोर्ट ने गंगा, यमुना नदियों को मानवीय दर्जा देने के बाद फिर एक अभूतपूर्व फैसला २२ जून २०१७ को दिया है । राज्य सरकार के कोर्ट में तलब उसके  शिक्षा व वित्त सचिवों के माध्यम से नैनीताल हाई कोर्ट ने सार में यह आदेश दिया है कि जब तक उत्तराखंड राज्य के स्कूलों की दशा न सुधरे तब तक सरकार लक्जरी सामान जैसे कार, ए सी, फर्नीचर, परदे आदि न खरीदे । आवश्यक सामानों की खरीद भी मुख्य सचिव के संज्ञान में उनकी अनुमति से खरीदी जाये। कोट उत्तराखंड की राज्य सरकार से कोई आकाश के तारे तोड़ने की माँग नहीं कर रहा है । उसकी माँग बहुत ही आधारिक है जैसे-हर स्कूल में पीने का साफ पानी, छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय, सुरक्षित कक्षाएँ, बै ने के फर्नीचर्स, कक्षाओं में ब्ल्ैाक बोर्ड, चौक, अध्यापक और बिजली । राज्य सरकार को इस आदेश की मंशा और निहितार्थ को भी समझने की आवश्यकता है। वित्तीय व्यय भार होने पर भी बच्चें के हित को उच्च् प्राथमिकता में भी रखने का यह संदेश है । 
बच्चें के हित पर जब कोर्ट का आदेश आये तभी काम हो ऐसा नहीं होना चाहिए । अंतरराष्ट्र्रीय स्तर पर बाल अधिकारों की सहमति पर, जिसे हमारे देश ने भी स्वीकारा है, स्पष्ट किया गया है कि जो निर्णय बच्चें को प्रभावित करें, उन पर बच्चें से विचार-विमर्श किया जाये व जो बच्चें के सर्वोत्तम हित में हो वही किया जाये । इसी में यह भी स्पष्ट किया गया है कि बच्चें के पास संगठन का अधिकार है ।
उत्तराखंड में १८ साल से कम आयु के बच्चें की संख्या लगभग चालीस प्रतिशत है । नवम्बर २००० में राज्य बनने के बाद से ही दशकों से बच्चें के साथ काम करने वाली संस्थाएँ श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम व प्लान इण्डिया ग्राम व ब्लाक स्तर पर बाल पंचायतें गठित करती रहीं  हैं । अब तक करीब पचास हजार सक्रिय लड़के-लड़कियाँ इन बाल पंचायतों से निकल चुके हैं । इन्हीं के  प्रतिनिधियों को लेकर पिछले ४ सालों से उत्तराखंड बाल विधान सभा का प्रयोग चल रहा है । 
इसमें भी उत्तराखंड राज्य विधान सभा की ही तरह ७० चुने हुए बाल विधायक होते हैं । इसमें भी नेता सदन, नेता प्रतिपक्ष व मंत्री होते हैं । विधान सभा अध्यक्ष होता हैं । प्रस्ताव विभिन्न मंत्रियों द्वारा अथवा अन्य सदस्यों द्वारा रखे जाते हैं व मतदान के बाद पारित किये जाते हैं। बच्चें के  साथ काम करती हुई संस्थाओं का कहना है कि उत्तराखंड बाल विधान सभा के सत्र कराने का मुख्य उद्देश्य बच्चेंं की आवाज को सार्वजनिक करना है। उनके पारित प्रस्तावों को सरकार तक पहुँचाना है तथा बच्चें की संसदीय परम्परा के प्रति संवेदनशील बनाना है ।
इस बार जब ८ व ९ जून को उत्तराखंड की चौथी बाल विधान सभा का सत्र देहरादून में आहूत था, उसी दौरान उत्तराखंड की चौथी विधान सभा का देहरादून में बजट सत्र चल रहा था । पिछली विधान सभा के अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल तो बाल विधान सभा के सत्रों में स्वयं मौजूद रहते थे । किन्तु इस बार ऐसा नहीं हो पाया । इस बार का सत्र इसलिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि ९ जून को उत्तराखंड की बाल मुख्यमंत्री कुमारी तानिया ने `क्या बच्च्े सचमुच नशा करने लगे हैं` जैसे मुद्दे पर जिला चमोली व उत्तरकांशी में बच्चें के द्वारा किये गये सर्वेक्षण का हवाला दिया । सर्वेक्षण से यह तथ्य उभर कर आया कि कभी न कभी नशा करने वाले बच्चें का प्रतिशत कम नहीं हैं । इनमें कुछ को यह लत लग जाती है। कुछ बच्च्े साथियों के साथ नशा करते हैं । तो कुछ बिल्कुल अकेले । नशे में शराब, सिगरेट, पेन्ट, गोली, वनस्पतियाँ, सूंधने वाले नशे आदि शामिल थे । 
गौरतलब है कि जिस समय बाल मुख्यमंत्री यह बता रही थीं, उस समय भाजपा के गंगोत्री विधान सभा क्षेत्र के विधायक व देवप्रयाग क्षेत्र के विधायक भी मौजूद थे । गंगोत्री के विधायक के क्षेत्र में भी यह सर्वेक्षण हुआ था । उन्हांेने भी परिवारों में शराब के बढ़ते चलन पर गंभीर चिन्ता व्यक्त  की । उत्तराखंड बाल विधान सभा की माँग थी कि नशे पर सीमित मात्रा पर नहीं बल्कि पूर्ण रोक हो । 
इसे दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना ही माना जायेगा कि जब राज्य की बाल विधान सभा राज्य में बच्चें के हित में पूर्ण नशाबंदी की माँग कर रही थी, उसी समय देहरादून में विधान सभा में यह माँग हो रही थी कि शराब की दुकानों का खुला रहने का समय बढ़ाया जाये ।
उत्तराखंड राज्य वर्षों के आन्दोलन से बना था । महिलाएँ, जो उत्तराखंड आन्दोलन की अगुवा थीं, उनका एक सपना था-नशामुक्त उत्तराखंड का । उनकी मुख्य चिन्ता अपने पतियों के शराब पीने से ज्यादा शराब के प्रसार से बच्चें के नशे के गिरफ्त में जाने की  थी । वह डर सही होता नजर आ रहा है। राज्य बनने के बाद ऐसी स्थितियों में बढ़ोत्तरी देख महिलाएँ जबरदस्त तरीके से खासकर बच्चें के भविष्य को सुरक्षित देखने के लिए सरकारी शराब की दुकानों के खुलवाने की हठधर्मिता के विरूद्ध खड़ी हो गई    हैं ।
किन्तु उत्तराखंड में सरकार लगातार शराब के व्यापार को बढ़ाने में लगी रहीं । महिलाएं, बच्चें व युवाओं के साथ भी शराब की दुकानों पर धरना दे रही हैं । विडम्बना है कि उनको इसलिए जबरदस्ती पुलिस उठा रही है कि वे शराब के दुकानों व ठेकों के व्यापार में अवरोध पैदा कर रही   हैं । 
किन्तु महिलाओं के लिए उत्साहजनक यह है बाल विधान सभा ने उनकी चिन्ता साझा की है । बाल विधान सभा ने आपदा आशंका वाले क्षेत्रों से स्कूलों को हटा कर सुरक्षित स्थानों पर स्थापित करने, बाल श्रम को रोकने, बच्च्यिों की सुरक्षा की माँग तथा बच्चें के कल्याणकारी कार्यक्रमों को वास्तव में धरातल पर उतारने की भी माँग की है। बाल सर्वेक्षकों ने आधिकारक रूप से अपना प्रस्तुतीकरण बाल संरक्षण से बाल हेल्पलाइन से जुड़े अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया है ।
अत: यदि सरकार हाईकोर्ट के आदेश का यदि मर्म समझ गई है, तो उसे शराब से मिलने वाले राजस्व का मोह त्याग कर बच्चें के हित में गाँव-गाँव शराब जबरदस्ती पहुँचाना रोकना चाहिए । खेदजनक तो यह है कि सरकारी अधिकारियों को शराब ठेकेदारोंके मदद के लिए ऐसी जगह तलाशने को कहा गया है, जहाँ इन दुकानों को खुलवाया जा सके । इतना जोर स्कूलों की स्थिति सुधारने में लगा होता तो नैनीताल हाईकोर्ट को २२ जून २०१७ वाला कड़ा आदेश शायद उत्तराखंड सरकार को न देना पड़ता ।
विज्ञान, हमारे आसपास
मनुष्य का स्मृति कोश विशाल होता है
नरेन्द्र देवांगन

किसी व्यक्ति विशेष से बात करने के लिए आपको उसके टेलीफोन नम्बर की आवश्यकता है । आप डायरेक्ट्री उठाते है और उसका नम्बर ढूंढते हैं । नम्बर पढ़कर आप डायल घुमाते हैं । जब आपको लाइन मिल जाती है, तब आप उस व्यक्ति विशेष से बात करने लगते हैं और उसका टेलीफोन नम्बर भूल जाते   हैं । 
यानी वह टेलीफोन नम्बर आपकी स्मृति में कुछ समय के लिए सुरक्षित रहा और जब आपका कार्य सिद्ध हो गया, तो वह नम्बर विस्मृत हो गया । कुछ समय बाद जब आपको उस व्यक्ति से फिर बात करनी होती है, तो आप फिर से डायरेक्ट्री की मदद लेते हैं । लेकिन आप अपना टेलीफोन नम्बर प्राय: नहीं भूलते । 
एक और उदाहरण लें । मान लीजिए आपको संख्या ८३ को संख्या ७ से गुणा करना है । इसके लिए पहले आपको दोनों संख्याआें को याद रखना पड़ेगा । इसके बाद आप ७ का पहाड़ा याद करेंगे, जो आपने बचपन में सीखा था । तब आप ७ गुणा ३ करके गुणनफल २१ निकालेंगे । अगले कदम के रूप में आप संख्या १ को याद रखेंगे और संख्या २ को हासिल के रूप में रखेंगे । फिर आप ८ को ७ से गुणा करके गुणनफल ५६ प्राप्त् करेंगे और उसमें २ जोड़  देंगे । इस प्रकार आपके पास उत्तर के रूप में जो संख्या आएगी, वह होगी ५८ । अब आप अपनी स्मृति से पहले गुणनफल की संख्या १ को संख्या ५८ के दाई और लगा कर अंतिम उत्तर निकालेंगे, जो ५८१ होगा । इस प्रक्रिया के बाद आप इस बात को भूल जाएंगे कि पहले गुणनफल का हासिल क्या था या गुणनफल की संख्या क्या थी । अब यदि आठ-दस दिन बाद आपसे इन्हीं संख्याआें का गुणनफल फिर से बताने को कहा जाए, तो आपको गुणा की सम्पूर्ण प्रक्रिया फिर से दोहरानी पड़ेगी । परन्तु ७ का पहाड़ा आप नहीं भूलेंगे, वह आपको आजीवन याद रहेगा । 
इन दो उदाहरणों से सिद्ध होता है कि हमारे मस्तिष्क में दो प्रकार की स्मृतियां होती हैं । पहली दीर्घ अवधि स्मृति और दूसरी अल्प अवधि स्मृति । निसंदेह यह सम्पूर्ण पशु जगत में होती है । वस्तुत: यह सूचनाएं एकत्र करने और आवश्यकता के समय उन्हें पुन: प्राप्त् करने की क्षमता है । इसी के आधार पर हम सोचने, बोलने, निर्णय लेने, अनुभवों के आलोक में प्रतिक्रिया करने, या यूं कहिए कि प्रत्येक काम करने में सक्षम होते है । स्मृति के बिना हमारा बौद्धिक अस्तित्व असंभव है । 
दीर्घ अवधि स्मृति में हम उन सूचनाआें को एकत्र करते है, जिनकी लम्बे समय तक हमें आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिए हम अपना नाम, अपने परिवार का विस्तृत परिचय, अपने मित्रों एवं अन्य सगे-संबंधियों के विषय में आवश्यक जानकारी, अपनी कार की पंजीकरण संख्या, अपनी भाषा, पहाड़े आदि को इसी स्मृति का अंग बनाते हैं । यह स्थायी होती है और सुगमता से मिटती नहीं है । 
दूसरी ओर अल्प अवधि तक रहने वाली स्मृति के साथ एकदम विपरीत स्थिति है । इसमें वे सूचनाएं एकत्र होती है, जिनकी आवश्यकता हमें अस्थायी रूप में होती है अथवा जिन्हें हम तुरन्त पुन: प्रािप्त् के लिए संजोते हैं । मौखिक गणनाआें को हम इसी श्रेणी में रखेंगे । जब हमारा कार्य सिद्ध हो जाता है तो यह स्मृति मिट जाती है और उसके स्थान पर नई सूचनाआें को एकत्र किया जा सकता है । इस बात का उत्तर देना सहज संभव नहीं है कि यह निर्णय कैसे किया जाता है कि कौन सी सूचना दीर्घ अवधि स्मृति में जाएगी और कौन सी अल्प अवधि स्मृति में । इस प्रक्रिया को कुछ सीमा तक ही समझ सकते है । 
पहला उदाहरण फिर से लेते है । जब आप व्यक्ति विशेष का टेलीफोन नम्बर पहली बार घूमाते हैं, तो वह अल्प अवधि स्मृति में एकत्र होता है । परन्तु यदि आप उसी नम्बर को प्रतिदिन घुमाएं तो वह उच्च् मस्तिष्कीय प्रक्रियाआें के माध्यम से दीर्घ अवधि स्मृति में पहुंच जाता है । अल्प अवधि स्मृति से दीर्घ अवधि स्मृति में स्थानांतरण का यह निर्णय आपका मस्तिष्क ही करेगा । 
इन दो स्मृतियों के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार की स्मृति भी होती है । इसे संवेदी स्मृति कहते है । इसे चलचित्र के उदाहरण से समझा जा सकता है । चलचित्र वास्तव में स्थिर चित्रों की एक श्रृंखला है जिसे एक निश्चित क्रम और अवधि में हमारी आंखों के आगे प्रस्तुत किया जाता  है । इस अवधि के दौरान क्रम के पहले चित्र को दूसरा चित्र आने तक स्मृति में रखना अनिवार्य है, जिससे हमारा मस्तिष्क दूसरे चित्र के साथ उसका संबंध स्थापित कर सके और इस प्रकार चित्रों की निरन्तरता को समझ सके । ऐसे ही अन्य उदाहरण हो सकते है, जैसे कपड़ा जलने की गंध, आम का स्वाद, तबले की थाप या वीणा की झंकार । हमारे मस्तिष्क में इन संवेदी बोधों काप एक स्मृति कोश होता है, जिससे हम अपने संवेदी अनुभवों का मिलान करते रहते हैं । 
मस्तिष्क के आकार को देखते हुए मनुष्य की स्मृति क्षमता अद्वितीय ही कही जाएगी । यदि हम बहुचर्चित पांचवी पीढ़ी के सुपर कम्प्यूटर से मनुष्य के मस्तिष्क की तुलना करें तो पाएंगे कि कम्प्यूटर की तुलना में मनुष्य का स्मृति कोश कहीं अधिक विशाला होता है, तथापि उसे मनुष्य अपनी आवश्यकतानुसार कम्प्यूटर के चुंबकीय टेप या डिस्क पर भरता है । परन्तु दूसरी ओर कम्प्यूटर में एक बार सूचना भर देने पर वह अपने आप मिटती नहीं, जबकि मनुष्य के स्मृति कोश का क्षय भी होता है । 
स्मृति कोश का क्षय क्यों होता है, इस विषय में दो सिद्धांत प्रचलित है । एक सिद्धांत के अनुसार हमारी स्मृति समय के अनुरूप मंद हो जाती है या नष्ट हो जाती है, जैसे धूप और पानी पड़ने पर रंग हल्के पड़ जाते है या नष्ट हो जाते हैं । दूसरे सिद्धांत के अनुसार हमारे स्मृति कोश की पूर्व एकत्र सूचनाएं इसलिए नष्ट हो जाती है क्योंकि नए अनुभवों के कारण नई सूचनाएं उन पर अंकित हो जाती है । अत: स्मृति कोश का क्षय हस्तक्षेप के कारण होता है । 
स्मृति कोश मेंएकत्र सूचनाआें के प्रयोग की अवधि और विस्मृति में गहरा संबंध है । प्रयोग की अवधि में जितना लम्बा अंतराल होगा, विस्मृति की आशंका उतनी ही अधिक होगी । हम कोई नई भाषा सीखते हैं, परन्तु लम्बे समय तक उस भाषा को पढ़ने-लिखने या बोलचाल में प्रयोग नहीं करते, तो उसे हम धीरे-धीरे भूल जाते हैं । यह विस्मृति प्रयोग अंतराल के कारण ही होती   है ।
कई बार ऐसा होता है कि हमारे मस्तिष्क में सूचना तो होती है, परन्तु समय पर स्मृति पटल पर वह उभरती नहीं है । ऐसी स्थिति में यदि कोई संकेत मिल जाए, तो वह वांछित सूचना तुरन्त उभर आती है । क्विज के समय इसके उदाहरण देखने में आते हैं । ऐसे समय कोई शब्द, कोई चित्र या कोई अन्य सम्बद्ध सूचना हमारे स्मृति कोश को अतिरिक्त रूप से सक्रिय करके खोज का क्षेत्र सीमित कर देती है और हम वांछित उत्तर खोज लेते हैं ।
कई बार इस स्मरण में कई कारणों से व्यवधान भी उपस्थित हो जाता है । यह व्यवधान भावनात्मक भी हो सकता है और संदेहात्मक  भी । भय, अतिरिक्त आत्मचेतना, मंचभीति आदि भावनात्मक व्यवधान के उदाहरण माने जाएंगे, जिनसे वाणी दोष या क्रिया दोष उत्पन्न हो जाता है । संदेह की स्थिति में दो स्मृतियां एक साथ उभरती है और एक-दूसरे में बाधा उत्पन्न कर देती हैं । ऐसा भी होता है कि व्यक्ति में अभिव्यक्ति के समय दो अभिव्यक्तियां एक साथ उभरती हैं और परिणामत: व्यक्ति हकलाने लगता है । सामने वाले व्यक्ति का नाम याद न आ पाने के पीछे भी एक दूसरी को काटती हुई दोहरी स्मृतियां होती हैं । ऐसी स्थिति में नाम याद करने का प्रयत्न यदि छोड़ दिया जाए तो कुछ देर में स्वयं नाम आ जाता है । इसी प्रकार का व्यवधान तब उपस्थित होता है, जब आधी स्मृति तो उभर आती है, लेकिन शेष आधी स्पष्ट नहीं हो  जाती । 
सूचनाआें का यह अंकन हमारी स्मृति में कैसे होता है, इसके विषय में एक और सिद्धांत प्रचलित है । इसके अनुसार जाग्रत अवस्था में हमारे अनुभव हमारी स्मृति में क्रमहीन रूप से एकत्र होते रहते हैं । क्रमहीन रूप से अंकित यही अनुभव हमारी गुप्तवस्था में पुनर्व्यवस्था की प्रक्रिया से गुजरते हैं और सूचनाएं मस्तिष्क में आवश्यकतानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर एकत्रित होती है । इन सूचनाआें में से व्यर्थ सूचनाएं स्वप्न के रूप में मस्तिष्क से निकल जाती हैं । स्वप्न के रूप में बाहर निकली सूचनाआें को हम शीघ्र ही विस्मृत कर देते हैं । 
वस्तुत: जाग्रत अवस्था में हमारी गतिविधि में निरन्तर परिवर्तन होता है । यदि हमारी प्रत्येक गतिविधि का संचालन बिन्दु हमारे मस्तिष्क में अलग-अलग हो, तो हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी और न ही इस बात की संभावना रहेगी कि एक क्रियादूसरी क्रिया की संरचना पर प्रभाव डाले । परन्तु हमारा मस्तिष्क स्वतंत्र संचालन बिन्दुआें के रूप में नहीं बल्कि संरचनाआें के रूप में काम करता है । अलग-अलग क्रियाआें में प्रयुक्त संरचनाएं एक-दूसरे को काट भी सकती हैं और एक-दूसरे के अनुरूप भी हो सकती है । अत: परस्पर हस्तक्षेप की संभावना बनी रहती है । 
एक क्रिया विशेष को याद करते हुए बनी मस्तिष्कीय संरचना दूसरी क्रिया के समय बनी संरचना से बिगड़ सकती है, खासकर जब दो क्रियाएं एक जैसी हो । पर्वत यात्रा के दृश्यों के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है । यदि हम अपनी यात्रा के प्रत्येक दृश्य को याद करने का प्रयत्न करें तो पाएंगे कि एक दृश्य ने दूसरे दृश्य को मिटा दिया है और हमें केवलप्रमुख दृश्य याद है । 
बाल जगत
बच्चें की सुरक्षा व सम्मान का सवाल
राजकुमार कुम्भज

दुनिया का सुनहरा भविष्य कहे जाने वाले तकरीबन ४३ करोड़ बच्च्े भारत में रहते हैं । जो भारत की कुल आबादी का एक तिहाई और दुनिया की कुल बच्चें का बीस फीसदी है । 
देश ने आज से पच्चीस बरस पहले संयुक्त राष्ट्र के बच्चें संदर्भित प्रोटोकॉल पर अपने हस्ताक्षर किए   थे । किन्तु तब से अब तक, भारत अलग से कोई बाल अधिकार व कल्याण मंत्रालय गि त नहीं कर सका है । इस दिशा में विचार करने से बच्चें की सुरक्षा व सम्मान को संदेहातीत बनाया जा सकता है ।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार दुनिया भर में तकरीबन इक्कीस करोड़ बच्च्े ऐसे हैं, जिनसे मजदूरी करवाई जाती है । भारत में बाल श्रमिकों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है । दरअसल गंभीर चिंता का विषय यह भी है कि हमारे देश में औसतन आठ बच्च्े प्रतिदिन आत्महत्या करते है और औसतन आठ मिनट में एक बच्च लापता हो जाता है । ऐसे बच्चें में असुरक्षा का भाव कुछ हद तक प्रभाव जमा लेता है कि लापता बच्चें में से तकरीबन पचपन फीसदी बच्च्े फिर कभी भी अपने घर नहीं लौट पाते हैं ।
हमारे देश में सामान्यत: ४४,००० बच्च्े प्रतिवर्ष घर से भागते हैं,जबकि गैर सरकारी संगठनों का दावा है कि घर से भागने वाले बच्चें की यह संख्या साठ  हजार से ज्यादा ही बैठती हैं । इन बच्चें का अपहरण होता हैं,उनसे भीख मंगवाई जाती हैं, उन्हें विकलांग बना दिया जाता है । उनसे वेश्यावृति तक करवाई जाती है। आज के दौर में बच्च्े न तो बालगृह मंे सुरक्षित हैं और न ही अपने घर-परिवार में । गरीब परिवारों के बच्च्े कच्ची उम्र में ही रोजी-रोटी कमाने के काम में लगा दिए जाते हैं । शोषणवश अवसाद का शिकार हो रहे बच्च्े नशा, अपराध और गैर कानूनी कामों की गिरफ्त में फँस जाते हैंं ।
बच्चें की ये शारीरिक और मानसिक समस्याएँ तो अलग से हैं, जो पैदाईशी होती हैं । कितु बच्चें से जु़़डी अपराध और शोषण की घटनाएँ बेहद चिंताजनक हैं । सही पोषण और बुनियादी शिक्षा के अभाव में बच्च्े न सिर्फ कमजोर व अशिक्षित रह जाते हैं, बल्कि मानवीय मूल्यों से भी वंचित रह जाते हैं । कुपोषण और नशे के शिकार बच्च्े खुद को बेहद असुरक्षित समझने लगते हैं । आंकड़े बताते हैं कि पाँच से बारह बरस की उम्र के ऐसे बच्चें की संख्या सर्वाधिक हैं, जो यौन-शोषण की चपेट में आ जाते हैं ।
अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में शिक्षा का अधिकार कानून लाए जाने की पूरी तैयारी कर ली गई थी और जब उक्त कानून का प्रारूप वर्ष २००४ में सामने लाया गया तो उसे भारी-भरकम बजट वाला बनाकर रद्द कर दिया गया । फिर आंदोलनरत स्वयंसेवी संगठनों के दबाव में वर्ष २००९ में वह एक शिक्षा का अधिकार कानून बना, जो सिर्फ चौदह बरस तक के बच्चें को ही शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है ।
इधर वर्ष २०१६ में जो बाल श्रम निरोधक कानून बनाया गया है, जिसमें चौदह बरस तक के बच्चें से श्रमिकों की तरह काम लेना प्रतिबंधित किया गया है । ताज्जुब है कि उक्त कानून में भी एक ऐसी महीन गुंजाईश छोड़ दी गई है, जिसका खुला दुरूपयोग किया जा सकता है। जिसमें रास्ता है कि कम उम्र के बच्च्े पारिवारिक काम-धंधों में अपने परिजनों को सहयोग कर सकेंगे ।
ऐसे में विचारणीय प्रश्न यही बनता है कि परिवारिक काम-धंधांे और अपने परिजनों को प्रश्नांकित करते हुए रेखांकित करने का विधि सम्मत व्यवहारिक आधार क्या   होगा ? बच्चें से काम करवाने वाले कोई भी नियोक्ता अपने व्यवसायिक स्वार्थवंश किसी भी बाल श्रमिक को क्या अपना पारिवारिक सदस्य बता देने की चतुराई नहीं दिखाएगा ? संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रोटोकॉल पर भारत के हस्ताक्षर क्या मात्र एक औपचारिकता भर साबित नहीं हुई   है ?
पच्चीस बरस पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रोटोकॉल पर भारत द्वारा हस्ताक्षर कर दिए जाने के बाद देश में बाल भिक्षा वृति घटना चाहिए थी, लेकिन क्या वह घटी ? नहीं । अलबता बढ़ जरूर गई। देश की गलियों में कूड़ा-कबाड़ और कचरे में से पॉलिथीन बीनने वाले बच्चें की संख्या घटना चाहिए थी, लेकिन क्या वह घटी ? नहंीं । अलबता बढ़ जरूर गई । देश के नशाखोर बच्चें और बाल अपराधी बच्चें की संख्या घटना चाहिए थी लेकिन क्या वह घटी ? नहीं । अलबता बढ़ जरूर गई । बच्चें की शिक्षा और सेहत का ग्राफ भी लगातार घटते गया, जबकि कुपोषण के शिकार होने वाले बच्चें की संख्या निरंतर बढ़ती गई ।
यह सच स्वीकारने में शक और शर्म नहीं होना चाहिए कि ड्रग्स, तस्करी और अवैध हथियारों की खरीदी बिक्री सहित माफिया व आतंकवादी संगठन भी बडे  पैमाने पर अपहरण किए गए बच्चें को बंधक बनाकर उनका गलत इस्तेमाल करने में जरा भी पीछे नहीं है ।
देशहित में सर्वाधिक सर्वोपरि सामाजिक आवश्यकता तो यही है कि कई-कई मंत्रालयों में बिखरे पड़े बाल-संदर्भित विषय एक रूपता के साथ किसी एक मंत्रालय में इकट्ठे किए जाएं जिसमें आंगनवाड़ी से लेकर माध्यमिक-शिक्षा, बाल-कल्याण, बाल विकास, बाल स्वास्थ्य, बाल श्रम, बाल अधिकार और बाल आयोग तक के सभी विषय शामिल रहें, ताकि बाल-शक्ति और बाल भविष्य सुनिश्चित हो सके । पहले किशोर न्याय अधिनियम में वंचित बच्चें के लिए यह प्रावधान रखा गया था कि उनकी खातिर देश के हर जिले में शेल्टर होम और बाल गृह बनेंगे । 
इसी तरह बच्चें को सुधारकर मुख्यधारा में लाने के लिए भी दो प्रकार के होम्स बनाने का प्रावधान किया गया था, किंतु खेद का विषय है कि देश में एक भी जिला ऐसा नहीं है, जहाँ इस प्रकार के प्रयास किए गए हों । बाल विकास मंत्रालय गुमशुदा बच्चें की बेवसाइट बनाकर अपनी कार्यमुक्ति समझ लेता है ।
भारत के गृह मंत्रालय की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २०११ से २०१४ के बीच घोषित तौर पर कुल सवा तीन लाख बच्च्े लापता हो गए थे। गैर सरकारी संगठनों की सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि हर बरस एक लाख बच्च्े लापता होते हैं जिसमें से आधे कभी भी नहीं मिलते हैं ।
ये बच्च्े कहाँ गायब हो जाते है या गायब कर दिए जाते हैं इसकी जानकारी किसी को भी नहीं हो पाती है। यहां तक कि सीबीआई भी इन लापता बच्चें का पता नहीं लगा पाती है। आंकड़े बताते हैं कि तकरीबन अस्सी हजार से एक लाख बच्च्े प्रतिवर्ष देश के रेल्वे स्टेशनों पर पहुँचते हैं और गुम हो जाते हैं । एक अकेले दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर आर पी एफ और एनजीओ ने लापता बच्चें के लिए जो शिविर बनाया हुआ है उसमें प्रति माह छ: सौ बच्च्े अपना घर बनाते हैं।
यूनिसेफ की मानें तो दिल्ली में रिकॉर्ड स्तर का उच्च् वायु प्रदूषण है, जो कि बच्चें में सांस की तकलीफ बढ़ा रहा है । यूनिसेफ द्वारा जारी शोध के मुताबिक दुनिया में तीस करोड़ बच्च्े ऐसे हैं जो दुनिया के सबसे प्रदूषित इलाकों में रहते हैं । इसकी वजह से उनकी सेहत और जिंदगी पर गंभीर खतरा बना हुआ है जबकि कुल दो अरब बच्च्े ऐसे स्थानों पर रहने को मजबूर हैं, जहाँ हवा की गुणवता विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू एचओ) द्वारा तय किए न्यूनतम वायु गुणवत्ता मानक से करें, अधिक खराब है ।
यह जानकर हैरानी होती है कि पाँच बरस से कम उम्र के  तकरीबन छ: लाख बच्च्े वायु प्रदूषण की वजह से मर जाते हैं इसमें मलेरिया और एच आईवी से मारने वाले बच्चें की संख्या शामिल नहीं की गई है । वर्ष २०५० तक यह आंकड़ा दो गुना होने की आशंका जताई जा रही है। इस बीच खुश खबर मात्र यही है कि भारत की वायु-गुणवत्ता सुधार के लिए यूरोपीय संघ ने अपनी सर्वश्रेष्ठ तकनीकी विशेषज्ञता देने की पेशकश की है, जिसमें दिल्ली को प्रथम स्थान दिया गया है । 
बच्चें की सुरक्षा व सम्मान का सवाल कानूनी से अधिक नैतिक, पारिवारिक और सामाजिक है जबकि माता-पिता अपने बच्चें की नकारात्मकता के लिए टी.वी. को जिम्मेदार ठहरा देते हैं । आखिर बच्च्े अपना अधिकार समय इन माध्यमों के साथ क्यों गुजारते हैं? 
ज्ञान-विज्ञान
औघोगिक क्रांति के ऊर्जा सम्राट कोयले की विदाई
प्रमाण बता रहे है कि कोयले की विदाई और नवीकरणीय ऊर्जा का स्वागत करने की बेला आ चुकी    है । दो सौ साल पहले ब्रिटेन से शुरू होकर औघोगिक क्रांति ऊर्जा के जिस स्त्रोत के दम पर फैली थी वह कोयला ही था । यह ऊर्जा का इतना सस्ता और आसानी से उपलब्ध स्त्रोत जो था । मगर अब एक बार फिर सब कुछ बदलने को है । 
      पिछले वर्ष यूके की कोयला खपत वर्ष १८०० के बाद न्यूनतम रही । अप्रैल में तो एक दिन ऐसा थी था जब यूके के किसी भी बिजली घर में कोयला जलाया ही नहीं गया । और तो और, पूरी दुनिया में कोयले की उपलब्धता भी घट रही है । दुनिया भर में प्रति वर्ष पहले से कम कोयले का खनन हो रहा है । कई देश कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों को अलविदा कह रहे है । 
इसके साथ ही नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों से बिजली उत्पादन में तेजी से वृद्धि हो रही है । इस क्षेत्र में पवन व सौर ऊर्जा अग्रणी है । आज पूरी दुनिया में कुल ऊर्जा में से ११.३ प्रतिशत इन्हीं नवीकरणीय स्त्रोतों से प्राप्त् हो रही है । मुख्य कारण यह है कि सौर व पवन ऊर्जा संयंत्र लगाने की लागत तेजी से कम हो रही है । 
      कुल 
मिलाकर  सारे संकेत बता रहे हैं कि दुनिया कोयले को छोड़कर नवीकरणीय स्त्रोतों की ओर बढ़ रही है और जलवायु पर इसका अच्छा असर होने की संभावना है । शायद हम अंतत: जलवायु परिवर्तन को थाम सकेंगे । 
मगर फिलहाल बहुत आशावादी होने की बेला नहीं आई   है । आज भी जीवाश्म ईधन ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोत बने हुए है । गैस और तेल की मांग बढ़ रही है और आज भी अधिकांश बिजली जीवाश्म ईधनों से ही बनाई जा रही है । आज भी परिवहन जिसमें सड़क, समुद्री और हवाई परिवहन शामिल है) के लिए हमारे पास जीवाश्म ईधन का कोई विकल्प नहीं है । 
अलबत्ता, इतना कहा जा सकता है कि ऊर्जा के संदर्भ में हवा का रूख बदलता है और विकल्पों की तलाश पहले से कहीं अधिक तेजी से की जा रही है । 

मलेरिया हडि्डयों को भी कमजोर करता है 
मलेरिया मच्छर द्वारा फैलाए जाने वाले एक परजीवी की वजह से होता है जिसका सबसे सामान्य लक्षण बुखार है । किन्तु मलेरिया का परजीवी लाल रक्त कोशिकाआें को नष्ट करता है, और कभी-कभी दिमाग को भी प्रभावित करता है । अब चूहों पर किए गए एक अध्ययन में पता चला है कि यह हडि्डयों की वृद्धि पर भी असर डालता है । 
मलेरिया का परजीवी शरीर में प्रवेश करने के बाद लीवर से होता हुआ लाल रक्त कोशिकाआें में प्रवेश कर जाता है । यहां वह हीमोग्लोबीन नामक महत्वपूर्ण रसायन को अपना भोजन बनाता है और अंत में लाल रक्त कोशिका को फोड़कर बाहर निकलता है । इस दौरान यह कई सारे हानिकारक रसायनों का निर्माण भी करता है ।
     यह तो पहले ही पता था कि  मलेरिया परजीवी अस्थि मज्जा में भी पहुंच जाता है किन्तु यह पता नहीं था कि वहां इसकी करतूते क्या होती है । इस बात का पता करने के लिए जापान के ओसका विश्वविद्यालय के स्नातक छात्र माइकल ली और प्रतिरक्षा वैज्ञानिक सिवेयिर कोबन ने मलेरिया परजीवी की दो प्रजातियां ली । उन्होंने अलग-अलग चूहों में ये परजीवी प्रविष्ट कराए और देखा कि दोनों प्रजातियां चूहों के कंकाल को प्रभावित करती है । उन्होंने पाया कि हडि्डयों के अंदर उपस्थित रंध्रमय पदार्थ विघटित होने लगा था और हडि्डयों टूटने लगी थी । रंध्रमय पदार्थ के रंध्र बड़े हो गए थे और वह वजन झेल पाता था । 
यह भी देखा गया था कि छोटे चूहों में हडि्डयों की वृद्धि भी धीमी हो गई थी । साइन्स कम्यूनिकेशन्स में शोधकर्ताआें ने बताया कि संक्रमित चूहों की जांघ की हडि्डयां सामान्य चूहों से १० प्रतिशत छोटी थी । परजीवी के इस असर को समझने के लिए ली और कोबन ने एक परिकल्पना बनाई जो अस्थि मज्जा मेंउपस्थित दो तरह की कोशिकाआें पर आधारित है । अस्थि मज्जा में एक तरह की कोशिकाएं होती है ऑस्टियोक्लास्ट जो हडि्डयों को गलाती है । इसके विपरीत ऑस्टियोब्लास्ट हडि्डयों का निर्माण करती है । शोधकर्ताआें ने पाया कि मलेरिया संक्रमित चूहों में दोनों तरह की कोशिकाएं काम करना बंद कर देती है । जब शरीर से परजीवी बाहर कर दिया जाता है तब दोनों प्रकार की कोशिकाएं अपना-अपना काम फिर से शुरू कर देती है । किन्तु हडि्डयां गलाने का काम ज्यादा गति से चलन लगता है । इसका मतलब है कि ऑस्टियोक्लास्ट ज्यादा काम कर रही है । 
ली और कोबन का मत है कि इन कोशिकाआें के कामबंद करने का कारण स्वयं परजीवी नहीं बल्कि परजीवी द्वारा बनाए गए रसायन हैं जो परजीवी के हट जाने के काफी समय बाद एक उपस्थित रहते हैं । इनमें से एक हीमोजाइन है जो परजीवी द्वारा हीमोग्लोबीन के नष्ट करने की क्रिया के दौरान बनता है । संक्रमण समाप्त् होने के दो महीने बाद भी हडि्डयों में हीमोजोइन पाया गया । जब शोधकर्ताआें ने अस्थि मज्जा की कोशिकाआें को हीमोजोइन व अन्य पदार्थो में पनपाया तो उनमें ऐसे पदार्थ बने जो ऑस्टियोक्लास्ट को बढ़ावा देते हैं । 
अच्छी बात यह है कि इस स्थिति का मुकाबला करना अपेक्षाकृत आसान है । शोधकर्ताआें ने पाया कि यदि मलेरिया संक्रमित चूहों को विटामिन डी जैसा एक पदार्थ (अल्फाकेल्सिडॉल) दिया जाए तो ऑस्टियोक्लास्ट को रोका जा सकता है और ऑस्टियोक्लास्ट को बढ़ावा दिया जा सकता है । अब सवाल सिर्फ यह है कि चूहों मे देखे गए येअसर क्या मनुष्यों में भी होते हैं । यदि ऐसा है तो अल्फाकेल्सिडॉल मलेरिया के इलाज का एक हिस्सा बन जाएगा । 

गुंजन बताता है, मधुमक्खी क्या कर रही है 
हाल ही में किए गए मैदानी प्रयोगों से पता चला है कि मधुमक्खियों का गंुजन किसानों को बता सकता है कि वे किन फूलों का परागण कर रही है और कितनी तादाद में । गौरतलब है कि परागण फसल उत्पादन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण क्रिया है । इस क्रिया में नर फूल के पराग कण मादा प्रजनन अंगों तक पहुंचते है और उनका निषेचन होकर फल तथा बीज बनते है । 
आम तौर पर कोई एक मधुमक्खी प्रजाति-विशिष्ट के फूलों का ही परागण सम्पन्न करती है । वैसे तो खेतों के आसपास मधुमक्खियों को देखकर बताया जा सकता है कि वे किन फूलों का परागण कर रही हैं । किन्तु वह प्रक्रिया काफी श्रमसाध्य होती है । अब कोलेरैडो में कुछ शोधकर्ताआें ने यही काम मधुमक्खियों के गुंजन की आवाज को रिकॉर्ड करके करने में सफलता प्राप्त् की है । सबसे पहले शोधकर्ताआें ने विभिन्न मधुमक्खी प्रजातियों के शरीर के लक्षणों का मापन किया - उनकी जीभ की लम्बाई, पंखों की लम्बाई, शरीर का आकार वगैरह और इससे   यह निष्कर्ष निकलकर आया । 
कविता
वर्षा गीत 
 प्रज्ञा गौतम

बादल, बन अमृत कलश
बूंद-बूंद क्षरा
तृप्त् हुई रूक्ष - केशिणी
पीत वसना धरा
झूमे डाली बूंदो की लय पर
पवन की थाप से पुष्प गये बिखर
गगन में शुभ्र रेखा सा पंछी दल
ताल किनारे उतरा
घटा घनघोर, दिनकर का तेज घटा
भर लिया जब मेघों ने अंक में
नन्हें बालक सा
बुझा कर तृषा धरा की 
पवन संग उड़ चली बदली
खिलखिलाये तारे 
रंगत अंबर की बदली
दिन संध्या का भेद मिटा 
नव दुल्हन सी आयी 
दबे पाव निशा
धुले-धुले श्वेत कपासी आकाश में
झीने - अभ्रावरण से
शशांक हंस पड़ा । ।