बाल जगत
बच्चें की सुरक्षा व सम्मान का सवाल
राजकुमार कुम्भज
दुनिया का सुनहरा भविष्य कहे जाने वाले तकरीबन ४३ करोड़ बच्च्े भारत में रहते हैं । जो भारत की कुल आबादी का एक तिहाई और दुनिया की कुल बच्चें का बीस फीसदी है ।
देश ने आज से पच्चीस बरस पहले संयुक्त राष्ट्र के बच्चें संदर्भित प्रोटोकॉल पर अपने हस्ताक्षर किए थे । किन्तु तब से अब तक, भारत अलग से कोई बाल अधिकार व कल्याण मंत्रालय गि त नहीं कर सका है । इस दिशा में विचार करने से बच्चें की सुरक्षा व सम्मान को संदेहातीत बनाया जा सकता है ।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार दुनिया भर में तकरीबन इक्कीस करोड़ बच्च्े ऐसे हैं, जिनसे मजदूरी करवाई जाती है । भारत में बाल श्रमिकों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है । दरअसल गंभीर चिंता का विषय यह भी है कि हमारे देश में औसतन आठ बच्च्े प्रतिदिन आत्महत्या करते है और औसतन आठ मिनट में एक बच्च लापता हो जाता है । ऐसे बच्चें में असुरक्षा का भाव कुछ हद तक प्रभाव जमा लेता है कि लापता बच्चें में से तकरीबन पचपन फीसदी बच्च्े फिर कभी भी अपने घर नहीं लौट पाते हैं ।
हमारे देश में सामान्यत: ४४,००० बच्च्े प्रतिवर्ष घर से भागते हैं,जबकि गैर सरकारी संगठनों का दावा है कि घर से भागने वाले बच्चें की यह संख्या साठ हजार से ज्यादा ही बैठती हैं । इन बच्चें का अपहरण होता हैं,उनसे भीख मंगवाई जाती हैं, उन्हें विकलांग बना दिया जाता है । उनसे वेश्यावृति तक करवाई जाती है। आज के दौर में बच्च्े न तो बालगृह मंे सुरक्षित हैं और न ही अपने घर-परिवार में । गरीब परिवारों के बच्च्े कच्ची उम्र में ही रोजी-रोटी कमाने के काम में लगा दिए जाते हैं । शोषणवश अवसाद का शिकार हो रहे बच्च्े नशा, अपराध और गैर कानूनी कामों की गिरफ्त में फँस जाते हैंं ।
बच्चें की ये शारीरिक और मानसिक समस्याएँ तो अलग से हैं, जो पैदाईशी होती हैं । कितु बच्चें से जु़़डी अपराध और शोषण की घटनाएँ बेहद चिंताजनक हैं । सही पोषण और बुनियादी शिक्षा के अभाव में बच्च्े न सिर्फ कमजोर व अशिक्षित रह जाते हैं, बल्कि मानवीय मूल्यों से भी वंचित रह जाते हैं । कुपोषण और नशे के शिकार बच्च्े खुद को बेहद असुरक्षित समझने लगते हैं । आंकड़े बताते हैं कि पाँच से बारह बरस की उम्र के ऐसे बच्चें की संख्या सर्वाधिक हैं, जो यौन-शोषण की चपेट में आ जाते हैं ।
अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में शिक्षा का अधिकार कानून लाए जाने की पूरी तैयारी कर ली गई थी और जब उक्त कानून का प्रारूप वर्ष २००४ में सामने लाया गया तो उसे भारी-भरकम बजट वाला बनाकर रद्द कर दिया गया । फिर आंदोलनरत स्वयंसेवी संगठनों के दबाव में वर्ष २००९ में वह एक शिक्षा का अधिकार कानून बना, जो सिर्फ चौदह बरस तक के बच्चें को ही शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है ।
इधर वर्ष २०१६ में जो बाल श्रम निरोधक कानून बनाया गया है, जिसमें चौदह बरस तक के बच्चें से श्रमिकों की तरह काम लेना प्रतिबंधित किया गया है । ताज्जुब है कि उक्त कानून में भी एक ऐसी महीन गुंजाईश छोड़ दी गई है, जिसका खुला दुरूपयोग किया जा सकता है। जिसमें रास्ता है कि कम उम्र के बच्च्े पारिवारिक काम-धंधों में अपने परिजनों को सहयोग कर सकेंगे ।
ऐसे में विचारणीय प्रश्न यही बनता है कि परिवारिक काम-धंधांे और अपने परिजनों को प्रश्नांकित करते हुए रेखांकित करने का विधि सम्मत व्यवहारिक आधार क्या होगा ? बच्चें से काम करवाने वाले कोई भी नियोक्ता अपने व्यवसायिक स्वार्थवंश किसी भी बाल श्रमिक को क्या अपना पारिवारिक सदस्य बता देने की चतुराई नहीं दिखाएगा ? संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रोटोकॉल पर भारत के हस्ताक्षर क्या मात्र एक औपचारिकता भर साबित नहीं हुई है ?
पच्चीस बरस पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रोटोकॉल पर भारत द्वारा हस्ताक्षर कर दिए जाने के बाद देश में बाल भिक्षा वृति घटना चाहिए थी, लेकिन क्या वह घटी ? नहीं । अलबता बढ़ जरूर गई। देश की गलियों में कूड़ा-कबाड़ और कचरे में से पॉलिथीन बीनने वाले बच्चें की संख्या घटना चाहिए थी, लेकिन क्या वह घटी ? नहंीं । अलबता बढ़ जरूर गई । देश के नशाखोर बच्चें और बाल अपराधी बच्चें की संख्या घटना चाहिए थी लेकिन क्या वह घटी ? नहीं । अलबता बढ़ जरूर गई । बच्चें की शिक्षा और सेहत का ग्राफ भी लगातार घटते गया, जबकि कुपोषण के शिकार होने वाले बच्चें की संख्या निरंतर बढ़ती गई ।
यह सच स्वीकारने में शक और शर्म नहीं होना चाहिए कि ड्रग्स, तस्करी और अवैध हथियारों की खरीदी बिक्री सहित माफिया व आतंकवादी संगठन भी बडे पैमाने पर अपहरण किए गए बच्चें को बंधक बनाकर उनका गलत इस्तेमाल करने में जरा भी पीछे नहीं है ।
देशहित में सर्वाधिक सर्वोपरि सामाजिक आवश्यकता तो यही है कि कई-कई मंत्रालयों में बिखरे पड़े बाल-संदर्भित विषय एक रूपता के साथ किसी एक मंत्रालय में इकट्ठे किए जाएं जिसमें आंगनवाड़ी से लेकर माध्यमिक-शिक्षा, बाल-कल्याण, बाल विकास, बाल स्वास्थ्य, बाल श्रम, बाल अधिकार और बाल आयोग तक के सभी विषय शामिल रहें, ताकि बाल-शक्ति और बाल भविष्य सुनिश्चित हो सके । पहले किशोर न्याय अधिनियम में वंचित बच्चें के लिए यह प्रावधान रखा गया था कि उनकी खातिर देश के हर जिले में शेल्टर होम और बाल गृह बनेंगे ।
इसी तरह बच्चें को सुधारकर मुख्यधारा में लाने के लिए भी दो प्रकार के होम्स बनाने का प्रावधान किया गया था, किंतु खेद का विषय है कि देश में एक भी जिला ऐसा नहीं है, जहाँ इस प्रकार के प्रयास किए गए हों । बाल विकास मंत्रालय गुमशुदा बच्चें की बेवसाइट बनाकर अपनी कार्यमुक्ति समझ लेता है ।
भारत के गृह मंत्रालय की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २०११ से २०१४ के बीच घोषित तौर पर कुल सवा तीन लाख बच्च्े लापता हो गए थे। गैर सरकारी संगठनों की सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि हर बरस एक लाख बच्च्े लापता होते हैं जिसमें से आधे कभी भी नहीं मिलते हैं ।
ये बच्च्े कहाँ गायब हो जाते है या गायब कर दिए जाते हैं इसकी जानकारी किसी को भी नहीं हो पाती है। यहां तक कि सीबीआई भी इन लापता बच्चें का पता नहीं लगा पाती है। आंकड़े बताते हैं कि तकरीबन अस्सी हजार से एक लाख बच्च्े प्रतिवर्ष देश के रेल्वे स्टेशनों पर पहुँचते हैं और गुम हो जाते हैं । एक अकेले दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर आर पी एफ और एनजीओ ने लापता बच्चें के लिए जो शिविर बनाया हुआ है उसमें प्रति माह छ: सौ बच्च्े अपना घर बनाते हैं।
यूनिसेफ की मानें तो दिल्ली में रिकॉर्ड स्तर का उच्च् वायु प्रदूषण है, जो कि बच्चें में सांस की तकलीफ बढ़ा रहा है । यूनिसेफ द्वारा जारी शोध के मुताबिक दुनिया में तीस करोड़ बच्च्े ऐसे हैं जो दुनिया के सबसे प्रदूषित इलाकों में रहते हैं । इसकी वजह से उनकी सेहत और जिंदगी पर गंभीर खतरा बना हुआ है जबकि कुल दो अरब बच्च्े ऐसे स्थानों पर रहने को मजबूर हैं, जहाँ हवा की गुणवता विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू एचओ) द्वारा तय किए न्यूनतम वायु गुणवत्ता मानक से करें, अधिक खराब है ।
यह जानकर हैरानी होती है कि पाँच बरस से कम उम्र के तकरीबन छ: लाख बच्च्े वायु प्रदूषण की वजह से मर जाते हैं इसमें मलेरिया और एच आईवी से मारने वाले बच्चें की संख्या शामिल नहीं की गई है । वर्ष २०५० तक यह आंकड़ा दो गुना होने की आशंका जताई जा रही है। इस बीच खुश खबर मात्र यही है कि भारत की वायु-गुणवत्ता सुधार के लिए यूरोपीय संघ ने अपनी सर्वश्रेष्ठ तकनीकी विशेषज्ञता देने की पेशकश की है, जिसमें दिल्ली को प्रथम स्थान दिया गया है ।
बच्चें की सुरक्षा व सम्मान का सवाल कानूनी से अधिक नैतिक, पारिवारिक और सामाजिक है जबकि माता-पिता अपने बच्चें की नकारात्मकता के लिए टी.वी. को जिम्मेदार ठहरा देते हैं । आखिर बच्च्े अपना अधिकार समय इन माध्यमों के साथ क्यों गुजारते हैं?
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