शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

सामयिक

पर्यावरण और जलवायु परितर्वन
ए.के.गोस्वामी

प्रकृतिका उपहास उड़ाने की बेशर्म हरकत पेड़-पौधों, जंगल, नदियों, सागरों और हिमाच्छादित पर्वत श्रंृखलाआें को तहस- नहस कर रही है और तथाकथित सभ्य समाज सभ्यता और सामाजिक, दोनों की परिभाषा की हदें पार कर रहा है ।
पिछले दिनों यूरोप के कई देशोंमें भारी बर्फबारी ने सभी को चौंका दिया है । इससे जलवायु परिवर्तन से उपजे संकट को लेकर अनेक प्रश्न खड़े हो गए हैं । पूर्व में भी उठे ऐसे अनेक प्रश्नों का समाधान जलवायु परिवर्तन पर हुए कानकुन सम्मेलन तक नहीं खोजा जा सका और क्योटो प्रोटोकॉल तो विकसित देशोें की जिद का शिकार ही हो गया ।
पुराने जमाने से नागालैण्ड में धान के किसान अपनी फसल की हिफाजत के लिए चीटियों के भरोसे रहते आए हैं । वहां की जलवायु धान उगाने के लिए बढ़िया है सो नागालैण्ड के ज्यादातर किसान धान की खेती करते हैं । फसल कटने के बाद वे धान को सुखाने के लिए खुले में छोड़ने से पहले चीटियों पर नजर डालते हैं । अगर चीटियां अपने बिलों से बाहर घूमती दिखती हैं तो वे निश्चिंत होकर अपना धान खुले में सुखाने के लिए छोड़ देते हैं । क्योंकि उन्हें इस बात की गारंटी मिल जाती है कि हाल फिलहाल बरसात के आसार नहीं हैं, क्योंकि चीटियां बाहर हैं ।
भारत में कई जगह आम जनजीवन में पुराने समय से ही मौसम के बारे में कयास लगाने के अपने ही नायाब तरीके रहे है ं। पछुआ हवा चली, तो नहीं बरसेगा, पुरवा भिगोएगी या कोहरे के बादल ढंके हैं तो हैं तो ठिठुरन नहीं सताएगी आदि आदि । पर इधर पिछले कुछेक सालों से सारे हिसाब-किताब धरे के धरे रह जाते हैं और बिन मौसम के बरसात गर्मी में भी सर्द आबोहवा का झोंका आ जाए तो आश्चर्य नहीं । कुदरत रंग बदल रही है । वैश्विक ताप से धरती तप रही है और जलवायु परिवर्तन में ऋतुआें की युगों पुरानी चाल भी भारी फेरबदल कर दी है । दुनिया त्रस्त है क्योंकि मानव समाज ने विकास की अंधी दौड़ में जिस तेजी से भागना शुरू किया है उसने धरती को बुरी तरह आहत किया है, रौंदा
है । प्रकृतिका उपहास उड़ाने की बेशर्म हरकत पेड़-पौधों, जंगल, नदियों, सागरों और हिमाच्छादित पर्वत श्रंृखलाआें को तहस- नहस कर रही है और तथाकथित सभ्य समाज सभ्यता और सामाजिक, दोनों की परिभाषा की हदें पार कर रहा है ।
भारत में ६० करोड़ के आस-पास आबादी खेती पर निर्भर है । भारत के सकल घरेलूउत्पाद मे २० फीसदी की बड़ी भागीदारी वाली खेती पारंपरिक रूप से मौसम के मिजाज पर आधारित रही है, वैसी ही व्यवस्थाएं तंत्र भी बने हैं। लेकिन आज व
वैश्विक ताप से हुए जलवायु परिवर्तन ने मौसम की कालावधि में भारी अंतर पैदा कर दिए हैं । जाड़ों में जाड़े और गर्मियों में गर्मी कभी-कभी खो जाती है और नहीं खोती तो सीमाएं लांघकर त्राहि-त्राहि मचा देती है । गर्मी में पारा ५० तक पहुंचने को बेताब दिखता है तो जाड़े में गिर कर शून्य के आसपास मंडराता है । बारिश होती है तो मानों प्रलंयकारी होकर तबाही बरपा देती है । अभी पिछले दिनों तमिलनाडु और कर्नाटक में वे मौसम मूसलाधार बारिश ने लोगों को हैरान कर दिया । भारत में जहां औसतन सालाना बारिश १२० मिलीमीटर के आस-पास होती थी अब या तो आधी होती है या फिर थोढ़ी । कहीं भयंकर सूखा दिखता है तो कहीं नदियां हहराती अपने बांध तोड़ती दिखती हैं । पिछले मानसून में तो दिल्ली के डूबने का खतरा मुहबाएं खड़ा दिखता था ।
उधर यूरोप में बर्फबारी ने कोहराम मचाया हुआ है । कई बड़े शहर बर्फ की चादर से ढंक गए हैं । सड़क, रेल, हवाई यातायात ठप हो गया । कड़ाके की ठंड से हाहाकार मचा है । घरों, सड़क ों, राजमार्गोंा पर बर्फ की मोटी परत जीना मुहाल किए हैं । यूरोप और अमेरीका विकास की अंधी दौड़ में प्रकृतिका अपमान करने की सजा भुगत रहे हैं, पर भारत में भी जलवायु परिवर्तन के आंकड़े कम परेशान करने वाले नहींहैं । २०४५ में दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बनने जा रहे भारत की जलवायु परिवर्तन की भारी आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत चुकानी पड़ सकती है ।
विशेषज्ञों के अनुसार, मौसम के बदलते मिजाज के कुछ खास दुष्परिणाम इस प्रकार होंगे -बर्फ का आवरण घटेगा, जिससे बह्मपुत्र और गंगा जैसी ग्लेशियर पिघलने से जलाप्लावित होने वाली नदियों पर बुरा असर पड़ेगा, गंगा में गर्मियों में ७० फीसदी पानी बर्फ पिघलने से ही आता है । बरसात पर आधारित खेती प्रभावित होगी, तापमान में एक फीसदी बढ़त तक से ४० से ५० लाख टन अनाज कम पैदा होगा । समुद्रों का जलस्तर बढ़ेगा जिससे तटवर्ती इलाकों में रहने वाली बड़ी आबादी विस्थापित हो जाएगी । बाढ़ों की संख्या और बारम्बारता बढ़ेगी । भारत के ५० फीसदी जंगलोंकी प्रकृति मेंबदलाव आएगा । भारत की ७० फीसदी बिजली की आपूर्ति कोयले से होती है । हम अपनी ऊर्जा की जरूरतें पूरी करने के लिए विदेशों से जमीन के अंदर से निकलने वाला इंर्धन भारी मात्रा में लेते हैं जिसको जलाने से कुल कार्बन उत्सर्जन का ८३ फीसदी उत्सर्जन अकेले इसी से होता है ।
जलवायु परितर्वन ने एक अनिश्चितता पैदा की है । अनिश्चितता ने सारे आंकड़े धराशायी किए हैं, खेती चौपट हो रही है, पीने के पानी की किल्लत है और औसत इंसानी सेहत का आंकड़ा गिर रहा
है । ग्रामीण इलाकों में हमने अब तक अरबों रूपये खर्च करके जो बांध, कुंड, नहरें आदि बनाकर सिंचाई की व्यवस्था बनाई है वह सब मानसून के ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित करके बनाई है । लेकिन आज वह व्यवस्था असफल साबित हो रही है । कम वक्त मेंअधिक बारिश हो रही है जिसके पानी को एकत्र करने की हमारे यहां कोई व्यवस्था नहींहै । अर्थात पानी बेकार जा रहा है । पुराने जमाने से हमारे यहां बरसात के पानी के भण्डारण के जो तरीके अपनाए जाते रहे हैं, वे अब बेकार साबित हो रहे हैं । इस समस्या का गंभीर पहलु शहरों में भी दिखा है । जैसे मुम्बई में एकाएक घनी बारिश आती है और बाढ़ आ जाती है । चिंता की बात यह है कि शहरी योजनाआें को अब इस नजरिए से नए सिरे से बनाना होगा । जलवायु परिवर्तन का ये गंभीर दुष्परिणाम है । अनिश्चितता इतनी बढ़ गई है कि लोगों के आकलन गलत साबित हो रहे हैं । कब बारिश आएगी कब बर्फ गिरेगी, कब गर्मी होगी, कब सर्दी जाएगी, यह कोई भी निश्चित रूप से नहीं बता पा रहा है ।
लेकिन क्या कोई इस खतरे की गंभीरता से सुध ले रहा है ? कानकुन में जुटी पर्यावरण के प्रति चिंतनशील बिरादरी क्या सच में धरती के कोप को शांत करने के रास्ते तलाश रही थी या आंकड़ों और रेखांकनों के जरिए सब्जबाग देख रही थी ? ऐसे सम्मेलनों, संगोष्ठियों की रस्मों पर प्रदीप साहा कहते हैं दुर्भाग्य से, जलवायु परितर्वन के गंभीर नतीजे दिख रहे हैं, पर कोई यह मानने को तैयार नहीं है, क्योंकि अगर यह स्वीकारेंगे तो उन्हें उसको ठीक करने के लिए प्रयास करने पड़ेंगे । भारत में भी हरे जंगल खत्म हो रहे हैं, वहां के वनवासियों को विस्थापित करके वन खदान कंपनियों को सौंपा जा रहा है जो धरती को नीचे से खोखला करती जा रही है ।
सीधी सी बात है, हरियाली खत्म तो कार्बन खत्म तो कार्बन सोखने की क्षमता खत्म, तो प्रदूषण का स्तर ऊंचा, तो वातावरण गर्म, तो गर्मी और सर्दी में उतार-चढ़ाव । सब चीजें एक दूसरे से जुड़ी हैं । अंधाधुंध विकास और यूज एंड थ्रो का चलन चीजें खराब कर रहा है । अभी कानकुन (मैक्सिको) में जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन हुआ जिससे कुछ हासिल नहीं हुआ । ***

हमारा भूमण्डल

प्राकृतिक गैस से बदलते अमेरिकी समीकरण
भारत डोगरा

गैस परियोजना में होने वाले बदलावों में अभी कई अटकले हैं । अमेरिका की आदत है कि वह अपनी रणनीति को महान उद्देश्यों से जोड़ कर प्रस्तुत करता है । अत: वह इस परियोजना को भी मध्य एशिया व दक्षिण एशिया को नजदीक लाने व भारत-पाकिस्तान को नजदीक लाने जैसे शानदार प्रोजेक्ट के रूप में प्रस्तुत करेगा ।
मध्य एशिया से पाकिस्तान और भारत को गैस आपूर्ति हेतु बनने वाली पाइपलाइन परियोजना के न केवल आर्थिक-सामाजिक आशय है बल्कि इसके राजनीतिक आशय भी अत्यंत महत्वपूर्ण और सामयिक है । इस परियोजना की आड़ में अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया में अमेरिका और नाटो देश अपना प्रभाव बढ़ा सकते हैं । वहीं दूसरी ओर रूस और चीन अपनी घटती भूमिका को लेकर आक्रामक रूख अपना सकते हैं, जिसका सीधा असर भारत की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की मांग पर पड़ सकता
है ।
जहां एक ओर अफगानिस्तान के संदर्भ में व्यापक चर्चा यह है कि अमेरिका व नाटो की सेनाएं यहां से निकट भविष्य में वापसी का रास्ता तलाश कर रही हैं, वहीं अमेरिका व नाटो देश यहां एक अन्य तरह की अधिक स्थाई भूमिका भी तलाश रहे हैं । यह स्थाई भूमिका मध्य एशिया के गैस व खनिज भंडार के दोहन से जुड़ी है ।
इस नई भूमिका के कुछ संकेत १६०० कि.मी. की तर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तडद्धॅकमेंर्र्ण्ीं%ॅडीण्-ईर्र्त्र्गीण्ीं%ॅडीण्-र्र्त्त्ीकीं%ॅड पाइपलाइन परियोजना पाइपलाइन दौलताबाद (तुर्कमेनिस्तान) के समृद्ध भंडारोंकी गैस को भारत व पाकिस्तान तक पहुंचाएगी । यह संभावना बनी हुई है कि पाइपलाइन के अन्य गैस भंडारों को भी इससे जोड़ दिया जाए । फिलहाल इसका मार्ग कंधार और मुल्तान होते हुए फाजिल्का (भारत) मे पहुंचने का है । जानकार सूत्रोंके अनुसार क्वेटा (पाकिस्तान ) में एक उपशाखा ग्वादर बंदरगाह की ओर भी बढ़ सकती है, जहां से गैस भंडारों को आगे यूरोप या दुनिया के अन्य देशों तक भी समुद्री मार्ग से भेजा जा सकता है ।
इतना ही नहीं, जब इतनी बड़ी पाइपलाइन विकसित होगी तो उसके लिए सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम होगा । इसी के साथ-साथ अफगानिस्तान के अन्य मूल्यवान खनिजोंको भी बंदरगाह तक सड़क मार्ग से पहुंचाने की तैयारी हो सकती है । इस तरह यह पाइपलाइन परियोजना गैस के साथ अन्य खनिजोंके निर्यात में सहायता भी कर सकती है ।
इस समय तापी परियोजना अमेरिका की छत्रछाया में फल-फूल रही है व इसकी आरंभिक वित्तीय व्यवस्था एशियन
विकास बैंक की ओर से होने की संभावना है । एक समय सोवियत संघ व बाद में रूस का नाम भी इस परियोजना से जुड़ा था । कुछ समय पहले तक रूस ने इसमें दिलचस्पी दिखाई है । पर संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव में इसका नियोजन होने के बाद रूस फिलहाल इस परियोजना से बाहर है । रूस के लिए एक अन्य झटका यह है कि मध्य एशिया की गैस अब रूस की मध्यस्थता के बिना ही यूरोप तक पहुंच पाएगी । इस तरह तेल व गैस व्यापार व कीमतों पर उसकी पकड़ ढीली हो जाएगी ।
चीन भी अमेरिका की छत्रछाया में पल रही इस परियोजना से प्रसन्न नहीं है क्योंकि इससे क्षेत्र में अमेरिका का असर बहुत बढ़ सकता है । चीन ने पाकिस्तान के नए बंदरगाहों में काफी निवेश भी किया है । यदि उनका उपयोग अमेरिका की छत्रछाया में हो रहे व्यापार के लिए हो तो चीन निश्चय ही इससे नाराज होगा ।
फिलहाल अमेरिका के लिए यह परियोजना एक बड़ी कूटनीतिक जीत भी साबित हो सकती है व क्षेत्र की खनिज, गैस व तेल संपदा पर उसकी कंपनियों का नियंत्रण भी बढ़ सकता है । इस समय अमेरीकी व नाटो सेना की ओर से करजई को तालिबान के कुछ गुटोंसे समझौते के प्रयासों को समर्थन बढ़ने लगा है । इसके पीछे एक सोच यह भी है कि कम से कम कुछ लड़ाकू संगठनोंको अपनी ओर किया जा सके ।
तापी परियोजना का एक बड़ा हिस्सा अफगानिस्तान में हेरात, हेलमंत और कंधार जैसे संवेदनशील क्षेत्रों से गुजरने वाला है । इस क्षेत्र में गैस पाइपलाइन की सुरक्षा सबसे बड़ी चुनौती है । यदि इसमें उपशाखाएं जुड़ती हैं व अन्य खनिजों के परिवहन का कार्य जुड़ता है तो यह चुनौती और भी बड़ी होगी । इस सुरक्षा कार्य के लिए काफी पैसा भी उपलब्ध होगा । केवल मूल तापी पाइपलाइन परियोजना को देखें तो गैस गुजरने की ट्रांसिट फीस से अफगानिस्तान को प्रतिवर्ष ३० करोड़ डालर उपलब्ध हो सकते हैं ।
अत: एक योजना यह हो सकती है कि साल दर साल मिलने वाले इस धन के एक हिस्से का उपयोग कर कुछ लडाकुआें को इसकी सुरक्षा कार्य से जोड़ दिया जाए । पर निर्णायक भूमिका उनके हाथ में नहीं दी जा सकती है अत: नाटो इस नई पाइपलाइन की सुरक्षा की भूमिका में उतर सकता है व इसके लिए वह कुछ लड़कुआेंका सहयोग प्राप्त् करना चाहेगा । लेकिन यह सब नियोजन गड़बड़ भी हो सकता है । कुछ समस्याएं चीन और रूस की ओर से आ सकती हैं। तालिबान के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता कि उन्हें दी गई सीमित भूमिका से आगे निकलकर वे कब पूरी सत्ता हथियाने का प्रयास करने लगेंगे ।
यदि केवलआर्थिक हितों व खनिज दोहन को ध्यान में रखकर तालिबान से समझौते किए जाते हैं तो इनका मानवाधिकार व विशेषकर महिला अधिकारों पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है । जहां एक ओर तालिबानों की ताकत बढ़ेगी वहीं दूसरी ओर पूर्व में उनका बहादुरी से विरोध करने वाले व्यक्तियों व समुदायों पर अत्याचार भी हो सकता है । महिलाआें के अधिकार छीने जा सकते हैं व विरोध करने पर उन पर भीषण अत्याचार भी हो सकते हैं ।
अत: तापी परियोजना के पैटर्न पर होने वाले बदलावों में अभी कई अटकले हैं । अमेरिका की आदत है कि वह अपनी रणनीति को महान उद्देश्यों से जोड़ कर प्रस्तुत करता है । अत: वह इस परियोजना को भी मध्य एशिया व दक्षिण एशिया को नजदीक लाने व भारत-पाकिस्तान को नजदीक लाने जैसे शानदार प्रोजेक्ट के रूप में प्रस्तुत करेगा । लेकिन इस तरह की किसी व्यापक सफलता को प्राप्त् करने के लिए अभी बहुत से अन्य प्रयास करने होंगे व केवल एक परियोजना के माध्यम से इतनी पेचीदी समस्याएं नहीं सुलझ सकती हैं । ***

विशेष लेख

पर्यावरण संरक्षण और मानव विकास
एस.के.तिवारी

पर्यावरण के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाते हुए भारत ने अब तक अन्तराष्ट्रीय व्हेल नियम समझौता, जैव-विविधता संरक्षण समझौता, अंतराष्ट्रीय पादप संरक्षण समझौता, ओजोन परत को क्षीण करने वाले पदार्थोंा के बारे में मान्ट्रियल करार एवं मरूभूमि विस्तार नियंत्रण के लिए अंतराष्ट्रीय समझौता, अंटार्कटिका संधि जैसे विभिन्न करारों पर हस्ताक्षर किए हैं ।
पर्यावरण मनुष्य के शारीरिक, सामाजिक तथा आर्थिक विकास का महत्त्वपूर्ण पहलू है । आस-पास के इस महत्त्वपूर्ण पहलू की उपेक्षा का ही परिणाम है कि पर्यावरण की सुरक्षा आज विश्व के लिए चुनौती बनी हुई है ।
आज सम्पूर्ण मानव समाज तथा उसके सहयोगी जीव-जंतुआें, पेड़-पौधों, वायुमण्डल, खाद्यान्नों सभी क्षेत्रों में पर्यावरण का संकट व्याप्त् है । इस संकट का कारण भी मानव समाज है तथा परिणाम भी उन्हें ही भुगतने होंगे ।
जनसंख्या वृद्धि, गरीबी, बिगड़ती परिवहन व्यवस्था वनों की कटाई पर्यावरण के विनाश का प्रमुख कारण बने हुए हैं । आज
पर्यावरण के बिगड़ते हालात से सभी देश चिंतित हैं । स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सम्मेलनों, गोष्ठियों, सेमिनारों तथा कार्यशालाआें के माध्यम से पर्यावरण की सुरक्षा पर विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। पृथ्वी सम्मेलन, जलवायु सम्मेलन, दिल्ली सम्मेलन सहित दर्जनों अंतराष्ट्रीय सम्मेलनों में इस पर घोर चिंता व्यक्त की गई है ।
आज विश्व की बेलगाम बढ़ती जनसंख्या पर्यावरण पर बहुआयामी असर होता है । संसार की सारी क्रियाएँ मानव के लिए ही होती हैं । खाद्यान्न आपूर्ति के लिए खेतों में बेतरतीब ढंग से खाद तथा कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है जो एक साथ जल तथा वायु प्रदूषित करने के साथ खाद्यान्नों, फलों-सब्जियों के सहारे मानव जीवन में जहर घोलते हैं । साथ ही कृषि के लिए उपयोगी कीड़े-मकोड़ों को भी मार डालते हैं । जलावन तथा फर्नीचरों के लिए धडल्ले से वनों की कटाई की जा रही है । इतना ही नहीं जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव कृषि-योग्य भूमि को कम करने पर भी पड़ रहा है । विकास के लम्बे-चौड़े दावों के बावजूद आज भी विश्व की करीब ८ अरब जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा गरीबी तथा कुपोषण का शिकार है । इसके बावजूद जनसंख्या वृद्धि की प्रवृति जारी है जो पर्यावरण को बिगाड़ने में अहम भूमिका अदा करती हैं ।
जहाँ तक पीने के पानी का प्रश्न है, वह प्रत्यक्षत: मानव के स्वास्थ्य एवं जीवनचर्चा से जुड़ा है । मानव, समाज, जीव- जन्तु तथा पेड़-पौधों के जीवन की रक्षा हेतु
नि:शुल्क प्रदत्त जल स्रोतों तथा नदियों में भी भारी प्रदूषण जारी है । औद्योगिक विकास का नकारात्मक पहलू नदियों की दुर्दशा के रूप में देखा जा सकता है । अधिकांश औद्योगिक इकाइयों को नदियों के किनारे स्थापित कर उसके स्वच्छ जल में गंदा तथा जहरीला प्रदूषित जल छोड़ जाता है । इस प्रदूषित जल के कारण जल प्राणी संकट में पड़ गए हैं । नदियों के आस-पास के गांवोंमें जल प्रदूषण के अलावा वायु-प्रदूषण, मच्छर-मक्खियों के भयानक प्रकोप आदि के चलते विभिन्न प्रकार की बीमारियोंका भी प्रकोप बढ़ता जा रहा है । विशेषज्ञों का अनुमान हैं कि दुनिया के तथा साथ ही भारत के भी अधिकांश जलस्रोत प्रदूषित हो चुके हैं।
पर्यावरणविदों का मानना है कि पर्यावरण को असंतुलित करने में ५०प्रतिशत वायु प्रदूषण जिम्मेदार है जो वायुमण्डल में विभिन्न कल-कारखानों से निकलने वाले धुएँ, गैस,धूल कण तथा जलावन, कोयला पदार्थोंा से वायुमण्डल को प्रदूषित करता है । कभी-कभी जंगलों में लगने वाली आग भी बड़े पैमाने पर प्रदूषण पैदा करतीे हैं । वायुमण्डल में इस प्रदूषण से कार्बन- डाई - ऑक्साइड, कार्बन-मोनो-ऑक्साइड, सल्फर-डाई-ऑक्साइड, हाइड्रोजन, सल्फाइड, नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फर-डाई -ऑक्साइड इत्यादि गैस वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं तथा इन गैसों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है और इसके परिणामस्वरूप पृथ्वी का तापक्रम बढ़ता जा रहा है और दबाव समुद्रतल पर बढ़ रहा है । धातु प्रदूषण भी विभिन्न प्रकार के उद्योगोंका ही परिणाम है जो पर्यावरण में सीधा जहर घोल रहा है । रासायनिक गैस, सीसा, जींक, डिस्टीलरी पारा, क्रोमियम, आर्सेनिक, कैडमियम, आयुध, एस्बेस्टस से संबंधित औद्योगिक इकाइयाँ धातु-प्रदूषण फैलाकर पर्यावरण के संतुलन को तीव्र गति से बिगाड़ रही है ।
ध्वनि प्रदूषण की समस्या सम्पूर्ण विश्व खासकर भारत में विकराल रूप धारण किए हैं । इस प्रदूषण से अनिद्रा, हृदय रोग,मस्तिष्क रोग, अंधापन, चिड़चिड़ापन, श्रवणदोष जैसी अनेक बीमारियों का प्रकोप झेलने को मानव समाज विवश है । विशेषज्ञों तथा पर्यावरणविदों द्वारा लगातार सचेत किए जाने के बावजूद भी हम पर्यावरण की रक्षा के प्रति उदासीन है । इसी का परिणाम है कि भारत के मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई तथा दूसरे देशों जैसे स्वीडन, चेकोस्लोवाकिया, हालैण्ड, फिनलैण्ड सहित कई स्थानों पर अम्लीय वर्षा हो चुकी है और धीरे-धीरे इसका विस्तार हो रहा है ।
जहाँ तक पर्यावरण की सुरक्षा की बात है, इसमें वनों तथा पेड़-पौधों का विशेष महत्त्व है । वन, मानव तथा जीव-जन्तुआें की सुरक्षा में प्रमुख भूमिका निभाते हैं । वनों से एक ओर जहाँ कार्बन-डाई-ऑक्साइड का खतरा घटता है वहीं दूसरी ओर मनुष्य को ऑक्सीजन प्राप्त् होती है । वन आस-पास की जलवायु को नम बनाकर बादलों को आकृष्ट करते हैंजिससे बाढ़ नियंत्रण तथा आंधी-तूफान से जान-माल की तबाही रूकती है । भारत में वनों की अंधाधुध कटाई और वन भूमि का इतर उपयोग रोकने के लिए वन संरक्षण अधिनियम, १९८० बनाया गया
था । वैसे जल, जलजीव, वायु प्रदूषण की रक्षा के लिए भी ३० अधिनियम बनाए गए हैं ।
पर्यावरण के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाते हुए भारत ने अब तक अन्तराष्ट्रीय व्हेल नियम समझौता, जैव-विविधता संरक्षण समझौता, अंतराष्ट्रीय पादप संरक्षण समझौता, ओजोन परत को क्षीण करने वाले पदार्थोंा के बारे में मान्ट्रियल करार एवं मरूभूमि विस्तार नियंत्रण के लिए अंतराष्ट्रीय समझौता, अंटार्कटिका संधि जैसे विभिन्न करारों पर हस्ताक्षर किए हैं । इस प्रकार अंतराष्ट्रीय स्तर पर किए जाने वाले समझौतों तथा राष्ट्रीय स्तर पर किए जोन वाले निर्णयों तथा कार्यक्रमोंके व्यापक प्रचार-प्रसार में मीडिया की मुख्य भूमिका अवश्य रही है परन्तु अभी भी इसे जन-जन तक ले जाना आवश्यक है ।
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जनजीवन

हिंसक खेती से अशान्त होती धरती
सुश्री वंदना शिवा

धरती के खिलाफ युद्ध की शुरूआत वस्तुत: दिमाग से प्रारंभ होती है । हिंसक विचार हिंसक गतिविधियों को स्वरूप प्रदान करते हैं । हिंसक वर्ग ही हिंसक अस्त्र का औजार निर्मित करता
है । इसे सर्वाधिक स्पष्टता से औद्योगिक कृषि और भोजन उत्पादन प्रक्रिया में देखा जा सकता है ।
दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात सामग्रियोंका प्रयोग कृषि कार्य में लेने से कृषि का स्वरूप भी हिंसक हो गया है । हमारे यहां तो अनादिकाल से माना जाता है कि जैसा अन्न खाएंगे वैसा ही मन बनेगा । मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि कृषि की वर्तमान स्थिति हमें यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि किस प्रकार हम पुन: जैविक खेती की आरे लौटे और विश्व को शांति की राह दिखाएं ।
हम जब अपने समय के युद्धोंके बारे में सोचते हैं तो हमारा दिमाग इराक और अफगानिस्तान की ओर घूम जाता है । परंतु इससे बड़ा युद्ध तो हमारे ग्रह (पृथ्वी) के खिलाफ चल रहा है । इस युद्ध की जड़ें अर्थव्यवस्था में निहित हैं जो कि पर्यावरणीय और नैतिक सीमाआें, असमानता की सीमाआें, अन्याय की सीमाआें, लालच की सीमाआें और आर्थिक केंद्रीयकरण को समझने में असफल हो चुकी है । कुछेक निगम और शक्तिशाली राष्ट्र पृथ्वी के संसाधनों पर निंयत्रण कर इस ग्रह को एक ऐसे सुपर मार्केट में तब्दील कर देना चाहते हैं जहां पर कि सबकुछ बिक्री के लिए है । वे हमारा पानी, जीन्स, कोशिकाएं, शरीर के अंग, ज्ञान संस्कृति और यहां तक कि हमारे भविष्य को भी बेच देना चाहते
हैं ।
अफगानिस्तान और ईराक में निरंतर चल रहे युद्ध केवल तेल के लिए हत्या हेतु नहीं है । अब परत दर परत वास्तविकता सामने आ रही है ये भोजन के लिए हत्या जीन और जैव विविधता के लिए हत्या और पानी के लिए हत्या के लिए भी हैं। युद्ध की इस सैन्य औद्योगिक कृषि को मानसेंटो द्वारा बनाए जाने वाले खरपतवार नाशकों के नामों से भलीभांति समझा जा सकता है । इनमें से कुछ के नाम हैं राउण्ड अप (हांकना या गिरफ्तारी), मचेट (छुरा) एवं लासो (फाँसा) । ये तो युद्ध की भाषा है और धरती पर सुस्थिरता तो शांति पर ही आधारित है ।
धरती के खिलाफ युद्ध की शुरूआत वस्तुत: दिमाग से प्रारंभ होती है । हिंसक विचार हिंसक गतिविधियों को स्वरूप प्रदान करते हैं । हिंसक वर्ग ही हिंसक अस्त्र का औजार निर्मित करता है । इसे सर्वाधिक स्पष्टता से औद्योगिक कृषि और भोजन उत्पादन प्रक्रिया में देखा जा सकता है । युद्ध के समय जो कारखाने मनुष्यों को मारने के लिए विस्फोटक और जहर बनाने का कार्य करते थे युद्ध के बाद उन्हें कृषि रसायन बनाने वाले कारखानों में परिवर्तन कर दिया गया ।
सन् १९८४ ने मुझे इस बात को लेकर झकझोर दिया कि हम जिस तरह से अपना भोजन निर्मित करते है। उसमें जबरदस्त कमियां हैं । पंजाब में हुई हिंसा और भोपाल में हुआ विध्वंस कमोवेश युद्ध जैसा ही तो प्रतीत होता था । यही वह समय था जब मैंने हरित क्रांति की हिंसा के बारे में लिखा और इसीलिए जहर और जहरीले पदार्थोंा से रहित कृषि हेतु नवधान्य को एक आंदोलन के रूप में प्रारंभ किया ।
कीटनाशक, जो कि युद्धक रसायन के रूप में विकसित हुए थे, के माध्यम से कीटोंपर रोक असफल सिद्ध हो गई । जेनेटिक इंजीनियरिंग से उम्मीद थी कि वह जहरीले रसायनों का विकल्प प्रस्तुत करेगी लेकिन इसके बजाए उसने तो कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों के इस्तेमाल में वृद्धि कर जैसे किसानों के खिलाफ युद्ध ही छेड़ दिया । अत्यधिक लागत वाले बीजों और रसायनों ने किसानों को उधारी के जाल में जकड़ दिया और वे आत्महत्या करने को मजबूर हो गए । सरकारी आकंड़ों के हिसाब से देखेंतो सन् १९९७ से अब तक २ लाख से अधिक भारतीय किसान आत्महत्या कर चुके हैं। धरती के साथ शांति से रहना हमेशा ही नैतिक एवं पर्यावरणीय अनिवार्यता रही
है । परंतु अब तो हमारी कई प्रजातियां जिंदा रह पाने की राह ढूंढती नजर आ रहीं हैं ।
मिट्टी जैव विविधता, वातावरण, कृषि और किसानों के विरूद्ध हो रही हिंसा के फलस्वरूप युद्ध सदृष्य ऐसी खाद्य प्रणाली बन गई है जो कि लोगोंकी भूख शांत नहीं कर पा रही हैं । आज एक अरब लोग भूखे हैं और दो अरब लोग भोजन से संबंधित बीमारियों जैसे मोटापा, डाईबिटीज, उच्च रक्तचाप और केंसर से पीड़ित हैं ।
अस्थिर विकास में तीन स्तरों पर हिंसा का समावेश होता है । पहली है धरती के खिलाफ हिंसा, जिसकी अभिव्यक्ति पर्यावरण संकट के रूप में होती है । दूसरी तरह की हिंसा व्यक्तियों के खिलाफ होती है जिसे हम गरीबी,अभाव और विस्थापन के रूप में देख सकते हैं । तीसरी तरह की हिंसा युद्ध और संघर्ष के रूप में सामने आती है जिसमें कि शक्तिशाली अपने अंतहीन लालच के चलते उन संसाधनों पर कब्जा करने का प्रयास करते हैं जो कि दूसरे समुदाय या राष्ट्रों के होते हैं । जब जीवन का प्रत्येक आयाम ही व्यावसायिक हो जाता है तो भले ही लोग एक डॉलर प्रतिदिन से अधिक भी कमाएं तो भी वे गरीब ही बने रहते हैं ।
वहीं दूसरीे ओर लोग इस मौद्रिक अर्थव्यवस्था के बिना भी समृद्ध हो सकते
हैं । यदि उनकी पहुंच भूमि तक हो, उनकी मिट्टी उपजाऊ हो, उनकी नदियां साफ-सुथरे रूप में बहती हो, उनकी संस्कृति समृद्ध हो और उनकी सुदर घर और वस्त्र तथा सुस्वाद भोजन बनाने की परम्परा कायम हो । इसी के साथ उनसे सामाजिक सदभाव, एकता और सामुदायिक भावना बनी हुई हो ।
बाजार के शीर्ष पर बैठने और समाजों को संगठित रखने के सर्वाधिक ऊँचे स्थान के रूप में मुद्रा के मानव निर्मित पूंजी के रूप में स्थापित हो जाने से प्रकृ ति के सान्निध्य में सुस्थिर जीवन बने रहने की प्रक्रिया को कमतर समझा जाने लगा । हम जैसे-जैसे अमीर बनते जाते हैं वैसे-वैसे सांस्कृतिक और पारिस्थितिकी के संदर्भ में गरीब भी होते जाते हैं । धन में आंकी गई वृद्धि हमें भौतिक, सांस्कृति, पर्यावरणीय और आध्यात्मिक स्पर पर गरीबी की ओर ढकेल देती है ।
जीवन की सही मुद्रा तो जीवन स्वयंही है और इसी से यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि हम इस विश्व में स्वयं को किस तरह देखते हैं ? मनुष्य किस लिए है ? क्या हम महज धन बनाने वाली और संसाधनों को हड़प जाने वाली मशीन भर हैं ? या कि हमार कुछ उच्च उद्देश्य या उच्च लक्ष्य भी हैं? मेरा विश्वास है कि पृथ्वी का लोकतंत्र हमारी सोच को विस्तार देता है और वह एक ऐसा जीवंत लोकतंत्र निर्मित करता है जो कि सभी संस्कृतियों का पृथ्वी के महत्त्वपूर्ण संसाधनों पर न केवलन्यायोचित व बराबरी का अधिकार है बल्कि उन्हें पृथ्वी के इन संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर निर्णयों को भी साझा करना चाहिए ।
पृथ्वी का लोकतंत्र उस पर्यावरणीय प्रक्रियाकी सुरक्षा करता है जो कि जीवन चलाने के लिए आवश्यक है । इतना ही नहींवह मनुष्य के जीवित रहने के मौलिक अधिकार की भी रक्षा करता है जिसमेंकि पानी भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और जीविका का अधिकार भी शामिल हैं ।
अब हमें चुनाव करना होगा कि हम कारपोरेट लालच के हित में बनाए गए बाजार के कानूनोंका पालन करेंगे या पृथ्वी के इकोसिस्टम और इसकी जैवविविधता बनाए रखने वाले प्राकृतिक सिद्धांतोंका अनुपालन करेंगे ? व्यक्तियों की भोजन और पानी की आवश्यकता की पूर्ति तभी हो सकती है जबकि हम प्रकृतिद्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले भोजन व पानी की क्षमता की रक्षा कर पाएगें । मृत या निर्जीव मिट्टी और मृत नदियां हमें भोजन और पानी नहीं दे सकतीं । अतएव अपनी धरती माँ के अधिकारों की रक्षा करना हमारा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानवाधिकार और सामाजिक न्याय संघर्ष है । यह हमारे समय का सबसे व्यापक सामाजिक आंदोलन भी है ।
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प्रदेश चर्चा

म.प्र. : बांध की त्रासदी के पचास बरस
विमल भाई

चम्बल घाटी विकास परियोजना के सबसे बडे बांध गांधीसागर बांध के निर्माण के ५०वर्षोंा के बाद भी गांधीसागर बांध प्रभावित विस्थापितों की स्थिति बहुत ही निराशाजनक है । पुनर्वास स्थलों की स्थिति बद्तर है । विस्थापित कर्जे में हैं ।
पिछले दिनों गांधीसागर बांध की अर्द्ध शताब्दी पर इस बांध से विस्थापित समुदाय ने मूल्यांकन सम्मेलन का आयोजन मध्यप्रदेश के रामपुरा (जिला-मंदसौर) में किया । बांध का शिलान्यास और उद्घाटन दोनों ही तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किए थे । बांध निर्माण की शर्तोंा के कारण जहां एक ओर मध्यप्रदेश का मालवा क्षेत्र रेगिस्तान में बदल रहा है वहीं राजस्थान के एक क्षेत्र में प्रयोग के तौर पर धान की खेती प्रारंभ की गयी है ।
आज गांधीजी नजर नहीं आते वरना हम उनसे अपना दुख कहते और वे जवाहरलाल से मिलते तो उनसे कहते कि इस बांध को बम से उड़ा दो । बनड़ा पंचायत की दलित महिला डाली बाई का यह कथन गांधीसागर बांध प्रभावितों की संपूर्ण व्यथा को संक्षेप में बता देता है ।
चम्बल घाटी विकास परियोजना के सबसे बडे बांध गांधीसागर बांध के निर्माण के ५०वर्षोंा के बाद भी गांधीसागर बांध प्रभावित विस्थापितों की स्थिति बहुत ही निराशाजनक है । पनुर्वास स्थलों की स्थिति बद्तर है । विस्थापित कर्जे में हैं ।
ये स्थितियां इस दावे को झुठलाती हैं कि बांध से विस्थापितोंको भी लाभ मिला है । पुनर्वास स्थलों में दलित या पिछड़ी जाति के लोगों की स्थिति दंयनीय है । वे कर्ज में डूबे हैं जिसका कारण यह है कि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधाएं नहीं है । इनके स्वास्थ्य गिरे हुए हैं तथा शिक्षा का स्तर भी बेहद पिछड़ा हुआ है । यहां के समुदायों का पीढ़ियों से संचित ज्ञान के आधार पर अर्जित सम्मान - सम्पत्ति सबकुछ गांधीसागर बांध मेंसमा चुका है ।
बांध निर्माण के समय कोई व्यवस्थित पुनर्वास नीति भी नहीं थी । लोगों को जो भी मिला उन्होंने ले लिया । सिर्फ २२८ गांव में से ८ लोगों ने अदालत में अपील की तो उन्हें कुछ ज्यादा मिल पाया । पिछड़ वर्ग के जैसे घनगड़, बैरवाल आदि सदस्य तो मजदूर बनकर रह गये हैं । पुनर्वास स्थलों के खेत भी अब धीरे-धीरे बाहर के लोगोंके हाथ में आ गए हैं । इनका मूल स्वामी या तो मजदूर बन गया या अधिया पर जमीन लेकर काम करता है । कई लोगों ने जमीन के बदले जमीन तो मिली किन्तु इसमें से ज्यादातर जमीन पड़त या मालेडी थी । इसके आबंटन में भी धोखाधड़ी हुई । कुल७५५०० एकड़ जमीन को डूब में बताया गया और कहा गया कि ५४००० एकड़ जमीन विस्थापितों को उपलब्ध कराई गई । किन्तु आंकड़े बताते हैं कि वास्तव में मात्र १२००० एक ड़ जमीन ही विस्थापितों को मिली ।
पट्टे की कहानी - चूँकि मध्यप्रदेश शासन ने बांध को क्षमता से ऊँचा बना दिया है इसलिए यह पांच-छ: साल में एक बार ही भर पाता है । अतएव प्रतिवर्ष बांध की पूर्ण क्षमता व वास्तविक जलभराव के बीच की जमीनें विस्थापितों को पट्टे पर दी जाती हैं । पट्टा देने की यह कवायद काफी भ्रष्टाचार पूर्ण है । चूंकि पट्टे प्रतिवर्ष दिए जाते हैं और जमीन की नाप जोख से लेकर लगान तक के लिए विस्थापित को भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों की ओर ताकना पड़ता है । प्राय: यह कोशिश होती है कि पट्टे विस्थापितों को न देकर किसी बाहर के व्यक्ति को दिये जायें । कई मामलों में जिस गांव की जमीन खुलती है पट्टे उस गांव के विस्थापित को न देकर दूसरे गांव के विस्थापित को दे दिये जाते हैं । इस तरह विस्थापितों को आपस में ही लड़ाने की चाल होती है ।
खुलती जमीन की खास कर के आंशिक डूब के विस्थापितों का जीविका आधार है इसलिए जमीन को लेने के लिए हर तरह की कोशिशेंकी जाती है । वैसे तो मध्यप्रदेश के शासनादेश में लिखा है कि पट्टे एक वर्ष से दस वर्ष तक दिये जा सकते हैं । ऐसा भी होता है कि पट्टे किसी आदिवासी के नाम कर दिये जाते हैं लेकिन वास्तव में उसका मालिक कोई प्रभावशाली व्यक्ति होता है । पट्टे वितरण जनवरी में होते हैं और बुआई करनी पड़ती है अक्टूबर-नवंबर में । नतीजा होता है कि कई बार जो जमीन बोता है पट्टे उस के नाम न होकर किसी दूसरे के नाम होते हैं और वो खड़ी फसल काट के दूसरी बोता है । विस्थापित हर साल इन स्थितियों का सामना करते हैं । मुकदमें बनते हैं और लोग जेल जाते हैं ।
रामपुरा महाविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्राध्यापक डॉ.रामप्रताप गुप्त बताते हैंकि गांधीसागर बांध से मध्यप्रदेश निवासियों को पानी लेने पर पाबंदी थी फलस्वरूप वहां के तालाबों पर कब्जे हुए । तालाब उथले हुए, सिंचाई का कोई अन्य साधन न होने के कारण लोगों ने जमीन के नीचे पानी इस्तेमाल किया । इससे जलस्तर काफी नीचे चला गया है । आज भी लोगों को जलाशय से पानी लेने पर पाबंदी है । थोड़ा बहुत समझौता कर कुछ लोग दूर से पाइप द्वारा पानी ले भी लेते हैं ।
आंशिक डूब के गांव की स्थिति - अब डूब की खेती के लिए उन्हींविस्थापितों को पट्टा मिलता है, जो मंदसौर-नीमच जिले में ही बसे हैं । मंदसौर नीमच जिले में ही विस्थापितों की डूबी ७२००० एकड के बदले गांधी सागर बांध के अधिकारियों ने मात्र १२००० एकड की ही व्यवस्था की तो स्वाभाविक ही था कि विस्थापित जिले से बाहर जहां भी भूमि मिली वहीं जाकर बसे ।
मध्यप्रदेश से भी यह अन्याय है कि आवश्यकता से करीब दुगनी क्षमता वाले इस बांध की ऊँचाई १३१२ फूट रखी गई है । इसके कारण अनावश्यक विस्थापन हुआ
है । एक अनुमान के अनुसार अब भी ५० हजार एकड़ भूमि डूब से मुक्त हो सकती है । चम्बल परियोजना द्वारा दोहन किए जाने वाले कुल पानी का ८३ प्रतिशत भाग गांधीसागर बांध से प्राप्त् होता है । कुल परियोजना में मध्यप्रदेश का योगदान भी ८३ प्रतिशत है और राजस्थान का १७ प्रतिशत है ।
बांध की शर्तोंा के मद्देनजर मध्यप्रदेश के मालवा के आठों जिलों की ४० लाख आबादी सतही जल स्त्रोतों के दोहन से वंचित कर दी गई है । चम्बल परियोजना के अंतर्गत मध्यप्रदेश को गांधीसागर बांध के २२,५०० वर्ग कि.मी. क्षेत्र के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के दोहन के लिए छोटे-छोटे बांध, तालाब, रोक बांध आदि के निर्माण पर पाबंदी लगा दी गई थी । अतएव १९६० के बाद सरकार ने न तो नए तालाब आदि बनाए न पुरानोंकी देखभाल की । परिणामस्वरूप किसी समय पर धन धान्य से परिपूर्ण एवं अनाज आदि की मण्डियों से भरपूर मालवा का यह अंचल आज पानी की कमी झेल रहा है । पुराने किसान बताते हैं कि मालवा क्षेत्र का भूजल स्तर आज ३० से ८० फुट नीचे जा चुका है ।
जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के जल के दोहन पर लगाया गया प्रतिबंध गांधीसागर में पानी की आवक में वृद्धि करने अथवा उसे बनाए रखने के उद्देश्य को भी पूरा करने में असमर्थ रहा है । बांध के कारण मध्यप्रदेश से पानी का निर्यात हुआ और मालवा सूखा हुआ । पानी की कमी के कारण मिट्टी में आर्द्रता की कमी हुई जिससे मालवा की काली मिट्टी की पहली परत भूक्षरण के कारण धीरे-धीरे खत्म हो रही है ओर अब तो मालवा के मरूस्थल बनने की सम्भावना है । गांधीसागर बांध विस्थापितों पर पार्वती, कालीसिन्ध व चम्बल नदी जोड़ के संभावित दुष्परिणाम भी सामने आएंगे ।
यदि कालीसिन्ध व चम्बल नदी जोड़ का पानी गांधीसागर में डाला जाता है तो जलस्तर बढ़ जाएगा, जिससे हजारों एकड़ जमीन पूरी तरह स्थाई डूब में आ जायेगी और इस उपजाऊ जमीन पर आश्रित परिवार भी पूरी तरह कंगाली और बदहाली की स्थिति में पहुंच जायेंगे । इससे पलायन बहुत तेजी से बढ़ेगा । रामपुरा शहर जो आजादी से पहले स्थानीय राज्य की राजधानी हुआ करता था वह अब टप्पा तहसील बनकर रहा गया है । इस प्रक्रिया से तो वह समािप्त् की कगार पर ही पहुंच जायेगा ।
देवरान गांव के पूर्व सरपंच बद्रीलाल ने बहुत दु:ख से बताया कि यदि बांध पूरा भरता है तथा चंबल में अतिरिक्त पानी आता है तो गांधीसागर से खुलने वाली जमीन नहीं खुलेगी और हमारी स्थिति बहुत खराब हो जायेगी । क्योंकि हम खुलती जमीन पर ही आश्रित हैं । ऊपर मिली जमीन पहाड़ की जमीन है जिस पर सिर्फ घास पैदा होती है । आज पानी हमारे नीचे जलाशय में
भरा पड़ा है । अनेक गांव तीन तरफ पानी से घिरे हैं । इन गांवों की ७५ प्रतिशत जमीन पानी में डूब गई है और शेष २५ प्रतिशत ही बची है । लोटवास गांव के अमरलाल मेघवाल ने कहा कि अतिरिक्त पानी भरने से तो अच्छा है कि हमें तोप से उड़ा दो । क्या इसे ही हम विकास का मापदंड
मानेंगे ? नदी जोड़ की तथाकथित सुदंर कल्पना में क्या अमरलाल मेघवाल की व्यथा सुनी जाएगी ?
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जैव विविधता

प्रतिदिन लुप्त् होती चार सब्जियां
सुश्री ईलीना एनीरी

पिछली एक शताब्दी में हम अपनी ८० प्रतिशत जैव विविधता से हाथ धो बेठे हैं । हमारी मवेशी, भेड़ और सुअरों की एक तिहाई देशज किस्में यातो विलुप्त् हो चुकी हैं या विलुिप्त् की कगार पर हैं । इसी के साथ सब्जियों की भी करीब ३ लाख किस्में अब लुप्त् हो चुकी हैं और प्रत्येक ६ घंटे में एक सब्जी की दर से कम हो रही हैं ।
कृषि के औद्योगिक स्वरूप की असफलता ने एक बार हम सबका ध्यान पुन: पारम्परिक कृषि प्रणालियोंकी ओर दिलाया है । आज विश्व में १०० करोड़ से अधिक लोग भूखे हैं । इसे आधुनिक कृषि की असफलता ही माना जाएगा । वैसे इसी से जुड़ा प्रश्न बढ़ते रासायनिक कीटनाशकों और खादों का भी है जो कि हमारी भूमि की उत्पादकता और पर्यावरण को जबरदस्त नुकसान पहुंचा रहा है ।
स्लोफूड नामक संगठन विश्व भर में छोटे स्तर के खाद्य उत्पादन की सुरक्षा के लिए प्रयास कर रहा है । इस प्रक्रिया में वह पारम्परिक कृषि की समृद्ध जैव विविधता, जानवरों के गर्भाधान, मछली पालन के तरीकों, शिल्पकारों की प्रक्रिया और मौसमी भोजन और भोजन संस्कृति को बचाने के लिए भी प्रयत्नरत है । छोटे निर्माताआें (किसानों) को काम करते रहने देने के माध्यम से स्लो फूड उनके द्वारा शताब्दियों से निर्मित पर्यावास, जलवायु, पशुआें और पौधों को भी बचाना चाहता है । हमें स्वस्थ भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित कराने हेतु भी इस संबंध की निरंतरता अनिवार्य है । स्थानीय खाद्य सुरक्षा ही वास्तव में सभी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करा सकती है ।
स्लो फूड के संस्थापक और अध्यक्ष कार्लो पेट्रिनी का कहना है, अत्यधिक उत्पादन वाली औद्योगिक कृषि प्रणाली असफल सिद्ध हो चुकी है । यह हमारी पृथ्वी का पेट तो नहीं भर पाई परंतु इसके परिणामस्वरूप आज एक अरब से अधिक लोग भूखे हैं । औद्योगिक कृषि ने भूमि और जल को प्रदूषित कर दिया, सभी लोगों की सांस्कृतिक पहचान को भी नष्ट कर दिया और तेजी से हमारी जैव विविधता में भी कमी ला दी । दूसरी ओर छोटे स्तर पर खाद्य उत्पादन जो कि स्थानीय समुदाय पर आधारित है हमें बेहतर भविष्य दिखा सकता है । वे कहते हैं सार्वभौम खाद्य सुरक्षा ही स्लो फूड का ध्रुव तारा है ।
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार खाद्य सुरक्षा तभी अस्तित्वमान रहती है, जबकि सभी व्यक्तियों को सभी समय एक सक्रिय एवं स्वास्थ्यकर जीवन जीने हेतु एवं उनकी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु पर्याप्त्, सुरक्षित और पोषण भोजन हेतु उनकी शारीरिक, सामाजिक एवं आर्थिक पहुंच हो ।
वहीं स्लो फूड इस परिभाषा का विस्तार करते तर्क देता है कि सभी लोगों को ऐसे भोजन का अधिकार है जो कि अच्छा, साफ और अनुकूल हो । ये तीनों ही हमारी कृषि, खाद्य उत्पादन और स्वाद का निर्धारण कर सकते हैं । अच्छे से हमारा तात्पर्य है ऐसा ताजा और सुगंधमय भोजन जो कि हमारी स्थानीय संस्कृति से जुड़ा हो । साथ-सुथरे से आशय है ऐसा स्वाद जो कि पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य के अनुकूल हो तथा अनुकूल से आशय है ऐसा खाद्य जो कि उपभोक्ता की पहुंच में हो और छोटे उत्पादकों को अनुकूल परिस्थिति उपलबध कराए ।
स्लो फूड का विश्वास है जनता को इस बात का ज्ञान और स्वतंत्रता होना चाहिए कि वे कौन सी फसल उपजाएं और उसे किस तरह अपने भोजन में परिवर्तित करें । विकासशील देशों के लिए अपने समुदायों और संस्कृतिका स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए पारम्परिक कृषि परम्परा और ज्ञान को बचाए रखना बहुत जरूरी है । आज स्थानीय खाद्य उत्पादन करने वाले किसान बड़ी संख्या में अपने खेतों से बेदखल हो रहे हैं । इस मूल्यवान संसाधन को निर्यात या बायो इंर्धन उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है । इसी के साथ किसान अपनी सबसे मूल्यवान सम्पत्ति बीज से भी वंचित होते जा रहे हैं ।
पिछली एक शताब्दी में हम अपनी ८० प्रतिशत जैव विविधता से हाथ धो बेठे हैं । हमारी मवेशी, भेड़ और सुअरों की एक तिहाई देशज किस्में यातो विलुप्त् हो चुकी हैं या विलुिप्त् की कगार पर हैं । इसी के साथ सब्जियों की भी करीब ३ लाख किस्में अब लुप्त् हो चुकी हैं और प्रत्येक ६ घंटे में एक सब्जी की दर से कम हो रही हैं । कृषि की और जंगली किस्मों की जैव विविधता व स्थानीय मवेशियों की किस्मों को बचाने में हमारी असमर्थता से जहां हम स्थानीय अनुकूल विकल्पों से हाथ धो बैठेगें वहीं दूसरी ओर हम खाद्य सुरक्षा का सबसे बड़ा मौका भी गवां बैठेगें ।
टिकाऊ खाद्य उत्पादन पर निर्भर स्थानीय अर्थव्यवस्थाआें की मदद के लिए स्लो फूड ने टेरा मेडे सहित अनेक शिक्षात्मक कार्यक्रम शुरू किए हैं । ये विशेष तौर पर जैव विविधता, खाद्य एवं स्वाद जानकारी कार्यक्रम और उत्पादकों को उपभोक्ताआें से जोड़ने के बारे मेंे शिक्षित करते हैं । अभी यह नेटवर्क एशिया में बांग्लादेश, थाईलैंड, कंबोडिया, वियतनाम और फिलीपिंस में कार्यरत है । वैसे भारत में भी इसने सेवा संस्था के साथ कार्य करना प्रारंभ कर दिया है । इस परियोजना के तहत बुजुर्ग व्यक्तियों को नई पीढ़ी से बात करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है । जिससे नई पीढ़ी उत्साहित होकर अपने पारम्परिक भोजन में रूचि लेना प्रारंभ करें ।
स्लो फूड के शैक्षणिक कार्यक्रमों की नींव में है कि लोगों का दिमाग बदलने के लिए एक सांस्कृतिक क्रांति की तुरंत आवश्यकता है । इस हेतु ग्रामीण विद्यालय के छात्रों से लेकर शहरों के कामकाजियों तक से चर्चा प्रारंभ की गई ।
भारत में स्लो फूड ने नवदान्य ट्रस्ट द्वारा स्थापित देहरादून बासमती चावल प्रीसिडियम नामक स्थानीय गैर सरकारी संगठन के साथ बीच बचाने हेतु साझेदारी की है । इसके अंतर्गत देशी बीच किस्मों का संवर्धन एवं पारम्परिक भोजन संस्कृति की सुरक्षा और कृषि पेटेंट के खिलाफ संघर्ष की योजना बनाई गई है । इन दुरस्थ हिमालयी घाटी क्षेत्रों में कीटनाशकों के प्रयोग ने पर्यावरण को क्षति पहुंचाई है जिसके परिणामस्वरूप रसायन रोधी कीड़े विकसित हो गए हैं । आज इस अभियान में १७३ ऐसे उत्पादक शामिल हो गए हैं, जो कि बिना किसी कीटनाशक के बासमती चावल की खेती कर रहे हैं ।
हम शिक्षा तथा अपनी गतिविधियों से अपनी आंचलिक पहचान बनाए रख सकते हैं और स्थानीय समुदायों की अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य को भी सुधार सकते हैं । साथ ही हम अच्छे साफ- सुथरे व अनुकूल खाद्य हेतु अपनी सार्वभौमिकता के अधिकार और उसकी सुरक्षा की मांग कर सकते हैं । इस तरह हम इस भूमंडलीकरण के दौर में अपने पर्यावरण और कृषि को बचाते हुए अच्छे भोजन का आनंद भी ले सकेंगे । ***

पर्यावरण परिक्रमा

विकासशील देशों के लिए बनेगा क्लाइमेट फंड

पिछले दिनोंदों महिने की कशमकश के बाद आखिरकार कानकुन सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन पर सहमति बन गई । इसके तहत विकासशील देशोंकी मदद के लिए ग्रीन क्लाइमेट फंड बनाया जाएगा । मेक्सिको ने समझौते का मसौदा पेश किया जिसे बोलिविया की आपत्ति के बावजूद अनुमोदित कर दिया गया ।
मसौदे में कहा गया है कि कार्बन उत्सर्जन और कम करने की जरूरत है । जापान, चीन और अमेरिका ने सबसे ज्यादा विरोध जताया था लेकिन बाद में उन्होंने मसौदे को मंजूरी दे दी । वैसे सम्मेलन के आखिरी दिन प्रतिनिधियों को ज्यादा उम्मीद नहीं थी, लेकिन पर्दे के पीछे हुई कूटनीति रंग लाई जिससे एक ऐसा मसौदा तैयार हो सका जो सबको मंजूर था । रूस और जापान मसौदे मेंअपने हित से जुड़ी बात डलवाने में सफल रहे हैं । वहीं इस मसौदे में कहा गया है कि क्योटो संधि कारगार साबित होगी जो विकासशील देश चाहते थे ।
विशेष ग्रीन क्लाइमेट फंड का मकसद है कि २०२० तक १०० अरब डॉलर जुटाकर गरीब देशोंको दिए जाएं ताकि ये देश जलवायु परितर्वन के नतीजों से निपट सके और कम कार्बन उत्सर्जन की ओर बढ़ सके । पेड़ों की कटाई रोकने के लिए कदमों का प्रावधान है और जलवायु संरक्षण योजना बनाने वाले देशों की मदद एक विशेष समिति करेगी । साथ ही उत्सर्जन में कमी पर नजर भी रखी जाएगी । लेकिन विकासशील देशों में उत्सर्जन कटौती करने के कदमों की अंतराष्ट्रीय निगरानी तभी हो सकेगी जब कटौती के लिए पश्चिम देश पैसा देंगे ।
सम्मेलन के हुए समझोते पर भारत ने खुशी जाहिर की है । पर्यावरणमंत्री जयराम रमेश ने कहा कि भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और चीन २०० देशोंके जलवायु वार्ताकारोंद्वारा क्योटो प्रोटोकॉल पर और दीर्घकाल में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तैयार दस्तावेजों से बेहद खुश है । हालांकि १९३ देशोंद्वारा वितरित किए प्रारूप को औपचारिक रूप से अभी स्वीकार किया जाना है ।

जानवरों को भी सता रहा मोटापे का डर

क्या हमारे वातावरण में ही कुछ ऐसा हो रहा है कि इन्सान और जानवर सभी मोटे हो रहे हैं ? प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार , मोटापे में बड़े ही नाटकीय ढंग से वृद्धि हो रही है ।
यह किसी से छुपा नहीं है कि इंसानों में मोटापा अब महामारी का रूप ले चुका है । शोधकर्ताआें ने शरीरिक श्रम में कमी या अत्यधिक जंक फूड खाने की आदत जैसे सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि शायद पर्यावरण के किसी कारक को भी दोषी ठहराया जा सकता है, यूनिवर्सिटी ऑफ अलबामा बर्मिंगहम के डेविड एलियन और उनके सहकर्मियों ने उत्तरी अमेरिका की ८ अलग-अलग प्रजातियों की २४ बस्तियों के २०,००० से अधिक वयस्क जानवरों के शरीर के भार का अध्ययन किया ।
इसमें केवल उन स्तनधारियों को शामिल किया गया था जिनका पिछले ५० सालों में दो बार वजन नापा जा चुका था और साथ ही जिनके वजन में न तो शोधकार्य के दौरान जानबूझकर कोई छेड़छाड़ की गई थी और न ही वे किसी फीडिंग प्रोग्राम का हिस्सा थे इन २४ आबादियों में अनुसंधान कार्य के लिए सुरक्षित रखे गए प्राइमेट्स से लेकर बाल्टीमोर के जंगलोंमें पाए जाने वाले
जंगली चूहे तक शामिल थे इन सभी के वजन में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई ।
घरेलु जानवर भी इससे अछूते नहीं हैं, बिल्लियों के औसत वजन के प्रति दशक लगभग १० प्रतिशत की वृद्धि हुई और कुत्तों के वजन मेंहर दशक में ३ प्रतिशत की वृद्धि हुई, अध्ययन के दौरान ऐसे जीवों के शरीर के भार में भी बढ़ोतरी देखी गयी है जिनकी गतिविधि में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया था ।
एलियन कहते हैं कि इस प्रकार अगर आहार में परिवर्तन और ऊर्जा असंतुलन मोटापे के लिए जिम्मेदार नहीं है तो अवश्य ही कुछ पर्यावरणीय कारक इसके पीछे हो सकते हैं, हो सकता है कि इस शोध में शामिल जानवरों ने खाया अधिक और व्यायाम कम किया हो, जैसा कि अक्सर हम भी करते हैं, एलियन स्वीकार करते हैं कि ऐसा संभव हैं पर साथ ही वे कहते हैं कि वैज्ञानिक इस बात का पूरा रिकार्ड रखते हैं कि अनुसंधान कार्य में लगे जानवरों को आखिर क्या खिलाया गया था ।

मध्य प्रदेश की नदियों का कायाकल्प

मध्यप्रदेश में सालों से सूखी पड़ी नदियों के दिन फिर से अब बहुरने वाले हैं । कम वर्षा, पर्याप्त् रखरखाव का अभाव और अवैध रेत उत्खनन के चलते पानी धारण करने की क्षमता खो चुकी नदियों के लिए राज्य सरकार ने नदी पुनर्जीवित योजना के जरिए इन्हें फिर से आबाद करने की योजना बनाई है ।
योजना के पहले चरण में इंदौर संभाग के सात जिलों की ११ नदियों का कायाकल्प होगा । गौरतलब है कि प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में दो दशकों के दौरान कई बार पड़े सूखे के कारण प्रदेश की कई नदियां मैदान में तब्दील हो चुकी हैै । इसके अलावा रेत माफिया द्वारा किये गये अवैध उत्खनन के कारण नदियां पानी धारण करने की अपनी क्षमता खो चुकी हैं ।
योजना के तहत इंदौर की क्षिप्रा नदी को १५ करोड़ २८ लाख, धार की बागली, मान, माही और बेलवाली नदियों
के लिए ६१.५७ करोड़, झाबुआ की पद्मावती और नौगांव के लिए २४.२३ करोड़, खरगौन की रूप, कावटी, हाथिनी बरोड़ के लिए ८.३४ करोड़, बड़वानी की डेब के लिये ३४.१२ करोड़ और बुरहानपुर की मोहना और उतावली नदी के लिये ८.२२ करोड़ रूपये मंजूर किये गये हैं ।
राज्य सरकार ने अब नदियों की हालत सुधारने के लिये नदी पुनर्जीवित योजना बनाई है । इसके तहत प्रदेश की सूखी पड़ी नदियों को चिन्हित कर उनका कायाकल्प किया जायेगा । योजना के पहले चरण में इंदौर संभाग के सात जिलों की ग्यारह नदियों को संवारने का लक्ष्य रखाा गया है ।
राज्य शासन ने इसके लिए १८५ करोड़ रूपये मंजुर किये हैं । इस राशि से चुनी गई नदी को पुनर्जीवन दिया जायेगा । उनके बहने के रास्ते के साथ स्टाप डेम भी बनाये जायेंगे । इतना ही नहीं नदी में मिलने वाले नालों के बंद रास्ते खोले जायेंगे और उन्हें नया रूप दिया जायेगा ताकि नदियों में पर्याप्त् पानी आ सके । सरकार इस योजना के जरिये किसानों को सिंचाई के लिये पानी भी मुहैया करायेगी ।

गजराज दुष्चक्र में फंसकर गंवाते हैंजान

महाबली गजराज भी जब दुष्चक्र में फंसता है तो उसे भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है । हाल के वर्षोंा में देश में विभिन्न घटनाआें और शिकारियों के कारण कम से कम २५० हाथियों की मौत हो चुकी हैं ।
आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार गजराज की मौत जहर खाने, बिजली के करंट लगने, खाई में गिरने और रेल दुर्घटनाआें में होती हैं । इसके अलावा कीमती हाथी दांत को लेकर शिकारी इसका शिकार तो करते ही हैं । वर्ष २०१०-११ के आरंभ में ही कुल २१ हाथियोंकी मौत हो गई थीं । इनमें से ११ हाथी रेल हादसों का शिकार हुए थे जबकि छह की मौत बिजली के करंट लगने से हो गई थी । शिकारियों ने भी चार हाथियों पर अपना हाथ साफ
किया । इस वर्ष इसके अलावा बंगाल, असम और उत्तरांचल में रेल दुर्घटनाआें तथा अन्य हादसों में हाथयों की मौत हुई हैं ।
वर्ष २००७-०८ के दौरान कुल ७७ हाथियों की मौत हुई । इनमें से ४८ तो केवल बिजली के झटके के शिकार हुए । इसी वर्ष १२ हाथियों की मौत रेल दुर्घटनाआें में और छह की जहर खाने से हो गई । शिकारियों ने ११ हाथियों को मारा । इसके अगले वर्ष २००८-०९ के दौरान कुल ७४ हाथियोंकी मौत हुई । इस वर्ष केवल आठ हाथी रेल दुर्घटनाआें का शिकार हुए लेकिन दस हाथियों की जहर खाने से मौत हो गई । बिजली के झटके से ४३ हाथी मारे गए । जबकि १३ शिकारियोंने मार डाला ।
वर्ष २००९-१० के दौरान विभिन्न हादसोंमें सबसे अधिक ७८ हाथियों की मौत हुई । इस वर्ष सबसे अधिक १३ हाथी रेल दुर्घटनाआें में मारे गए जबकि पांच की जहर खाने से मौत हो गई । इस वर्ष ४५गजराजों की मौत बिजली के करंट लगने से हो गई हालांकि इस दौरान शिकारियों ने भी १५ हाथियों को अपना निशाना बनाया ।
प्राथमिक तौर पर हाथियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है । केन्द्र सरकार ने हाथियों की सुरक्षा का लेकर राज्य सरकारों को वित्तीय और तकनीकी सहायता उपलब्ध कराती है । केन्द्र सरकार की ओर से हाथियों की सुरक्षा को लेकर १९९२ में देश में हाथी परियोजना की शुरूआत की गई । इसके बाद से ही संबंधित राज्यों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जा रही है ।

ताज को विशेष लेप से निखारा जाएगा


अंतरराष्ट्रीय धरोहर ताजमहल की दमक आने वाले कुछ दिनोंमें और उजली होगी, क्योंकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) एक विशेष प्रकार के लेप से इसमेंनिखार लाने की योजना बना रहा है ।
एएसआई की रसायन शाखा के उपाधीक्षक पुरातत्ववेत्ता एमके समाधिया ने बताया कि ताजमहल को धूल, गंदगी और उसकी खूबसूरती को धुंधला करने वाले अन्य तत्वोंसे मुक्त कराने के लिए हमने इमारत पर एक विशेष प्रकार की मिट्टी का लेप करने की योजना बनाई है । इस बारे में एक प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है ।
उन्होंने कहा कि इस कवायद के तहत इस ऐतिहासिक इमारत की दीवारों तथा अंदरूनी हिस्से पर लेप किया जाएगा । हम ताजमहल के पास स्थित ताज मस्जिद पर यह लेप कर और खूबसूरत बनाने क ा काम कुछ दिन पहले ही पूरा कर चुके हैं। मुलतानी मिट्टी में धूल, गंदगी तथा रंगत को नुकसान पहुंचाने वाले अन्य तत्वों को साफ कर खूबसूरती निखारने की खासियत होती है ।उन्होंने कहा कि लेप लगाने के कुछ देर बाद इमारत को आसवित पानी से धोया जाता है ।
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विरासत

भारतीय गायों के अस्तित्व का प्रश्न
रवीन्द्र गिन्नोरे

गाय मानव जीवन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राणी है । भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और परम्परा में गाय को इसीलिए पूज्यनीय ही माना जाता है । हम भारतीय गोवंश को अपनाकर उन्हें गोशाल में संरक्षित, संवर्धित कर सकते हैं, जिसका सर्वाधिक लाभ भी हमें ही मिलेगा ।
अधिक दूध की मांग के आगे नतमस्तक होते हुए भारतीय पशु वैज्ञानिकों ने बजाए भारतीय गायों के संवर्धन के विदेशी गायोंव नस्लों को आयात कर एक आसान रास्ता अपना लिया है । परंतु इसके दीर्घकालिक प्रभाव बहुत ही हानिकारक हो सकते हैं । आज ब्राजील भारतीय नस्ल की गायों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है । क्या यह हमारे शर्म का विषय नहीं है ?
भारत में गाय को माता कहा जाता है । विश्व के दूसरे देशोंमें गाय को पूजनीय नहीं माना जाता । गोवंश मानव का पोषण करता रहा है, जिसका दूध, गोमूत्र और गोबर अतुलनीय है । सुख, समृद्धि की प्रतीक रही भारतीय गाय आज गौशालाआें में भी उपेक्षित हैं । अधिक दूध के लिए विदेशी गायों को पाला जा रहा है जबकि भारतीय नस्ल की गायें आज भी सर्वाधिक दूध देती
हैं । गोशाला में देशी गोवंश के संरक्षण, संवर्धन की परम्परा भी खत्म हो रही है । हमारी गोशालाएं डेयरी फार्म बन चुकी हैं, जहां दूध का ही व्यवसाय हो रहा है और सरकार भी इसी को अनुदान देती है । हमें देशी गाय के महत्व और उसके साथ सहजीवन को समझना जरूरी है । आज भारतीय गोशालाआेंसे भारतीय गोवंश सिमटता जा रहा है ।
गाय की उत्पत्ति स्थल भी भारत ही है । गाय का उद्भव बास प्लैनिफ्रन्स के रूप में प्लाईस्टोसीन के प्रथम चरण (१५ लाख वर्ष पूर्व) में हुआ । इस प्रकार इसका सर्वप्रथम विकास एशिया में हुआ । इसके बाद प्लाईस्टोसीन के अंतिम दौर ( १२लाख वर्ष पूर्व) गाय अफ्रीका ओर यूरोप मेंफैली । विश्व के अन्य क्षेत्र उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में तो १९वीं सदी में गोधन गया । गायों का विकास दुनिया के पर्यावरण, वहां की आबोहवा के के साथ उनके भौतिक स्वरूप व अन्य गुणोंमें परिवर्तित हुआ । भारतीय ऋषि-मुनियों ने गाय को कामधेनु माना, जो समस्त भौतिक इच्छाआें की पूर्ति करने वाली है । गाय का दूध अनमोल पेय रहा है । गोबर से ऊर्जा के लिए कंडे व कृषि के लिए उत्तम खाद तैयार होती है । गोमूत्र तो एक रामबाण दवा है, जिसका पेटेंट का हो चुका है ।
विदेशी नस्ल की गाय को भारतीय संस्कृति की दृष्टि से गोमाता नहीं कहा जा सकता । जर्सी, होलस्टीन, फ्रिजियन,
आस्ट्रियन आदि नस्ल की तुलना भारतीय गोवंश से नहीं हो सकती है । आधुनिक गोधन जिनेटिकली इंजीनियर्ड है । इन्हें मांस व दूध उत्पादन अधिक देने के लिए सुअर के जींस से विलगाया गया है ।
भारतीय नस्ल की गायें सर्वाधिक दूध देती थीं और आज भी देती हैं । ब्राजील में भारतीय गोवंश की नस्लें सर्वाधिक दूध दे रही हैं । अंग्रेजों ने भारतीयों की आर्थिक समृद्धि को कमजोर करने के लिए षडयंत्र रचा था । कामनवेल्थ लायब्रेरी में ऐसे दस्तावेज आज भी रखे हैं । आजादी बचाओ आंदोलन के प्रणेता प्रो.धर्मपाल ने इन दस्तावेजों को अध्ययन कर सच्चई सामने रखी है । खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट में कहा गया है- ब्राजील भारतीय नस्ल की गायोंे का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है । वहां भारतीय नस्ल की गायें होलस्टीन, फ्रिजीयन (एचएफ) और जर्सी गाय के बराबर दूध देती हैं ।
हमारे गोवंश की शारीरिक संरचना अदभूत है । इसलिए गोपालन के साथ वास्तु शास्त्र के अनुसार भारतीय गोवंश की रीढ़ में सूर्य केतु नामक एक विशेष नाड़ी होती है । जब इस पर सूर्य किरणों के तालमेल से सूक्ष्म स्वर्ण कणों का निर्माण करती है । यही कारण है कि देशी नस्ल की गायों का दूध पीलापन लिए होता है । इस दूध में विशेष गुण होता है । गाय के दूध, गोबर व मूत्र मेंअदभुत गुण हैं जो मानव जीवन के पोषण के लिए सर्वोपरि हैं ।
देशी गाय का गोबर व गोमूत्र शक्तिशाली है । रासायनिक विश्लेषण में देखें कि खेती के लिए जरूरी २३ प्रकार के प्रमुख तत्व गोमूत्र मेंपाए जाते हैं । इन तत्वों में कई महत्वपूर्ण मिनरल, लवण, विटामिन, एसिड्स, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेड होते हैं ।
गोबर में विटामिन बी-१२ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । यह रेडियोधर्मिता को भी सोख लेता है । हिदुआें के हर धार्मिक कार्योंा में सर्वप्रथम पूज्य गणेश उनकी माता पार्वती को गोबर से बने पूजा स्थल में रखा जाता है । गोबर खेती के लिए लाभकारी जीवाणु, बैक्टीरिया, फंगल आदि बड़ी संख्या में रहते हैं । गोबर खाद से अन्न उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि होती है ।
गाय मानव जीवन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राणी है । भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और परम्परा में गाय को इसीलिए पूज्यनीय ही माना जाता है । हम भारतीय गोवंश को अपनाकर उन्हें गोशाला में संरक्षित, संवर्धित कर सकते हैं, जिसका सर्वाधिक लाभ भी हमें ही मिलेगा । देशी गौवंश को हमारी गोशालाआें से हटाने की साजिश भी सफल हो रही हैं, जिस पर समय रहते ध्यान देना जरूरी है ।
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कविता

सर्दी की दो गजलें
अजहर हाशमी

सूरज का सेंसेक्स
ठिठुरन-सिहरन-कंपकंपी, सर्दी के अंदाज
पाला झपटा फसल पर, ज्यों चिड़िया पर बाज !

सर्दी ऐसे चुभ रही, जैसे चुभती कील
तन को ऐसे नोचती, जैसे नोचे चील ।

मौसम की मुंडेर पर, कोहरे का कौआ
बच्चे से बूढ़े तलक, जाड़ा हुआ हौआ ।

ओसामा लादेन-सा, जाडे का व्यवहार
किया अपहरण धूप का, सूरज है लाचार ।

जाड़ा हुआ सटोरिया, करती धुंध धमाल
सूरज का सेंसेक्स, नीचे पड़ा निढाल ।

ठंडा हो गया सूरज !
ठंड में जो ठिठुरन से ठंडा हो गया सूरज
ओढ़कर बादल की चादर सो गया सूरज ।

जेठ में जो कहकहे लू के लगाता था
पौष से पाला पड़ा तो रो गया सूरज ।

चाहता था धूप की खेती करे लेकिन
कांप के सर्दी से, कोहरा बो गया सूरज ।

एक पल जब ये निकलकर छिप गया फौरन
लोग बोल लो ! ये आया, बो गया सूरज

सर्द मौसम कुंभ का मेला हुआ जैसे
नभ से मेले में बिछुड़कर खो गया सूरज !

ज्ञान विज्ञान

ज्ञान विज्ञान
बीस हजार साल पुरानी जलवायु खोजेंगे

सबकुछ सही रहा तो जल्द ही दुनिया के सामने बीस हजार साल पुरानी जलवायु की तस्वीर स्पष्ट हो सकेगी । यह नायाब शोध कुमांयू विवि के वैज्ञानिकों के विशेष दल ने शुरू किया है । वैज्ञानिकों का लक्ष्य उत्तराखंड की विभिन्न दुर्लभतम गुफाआें में प्राकृतिक रूप से बने शिवलिंग को खोजकर उनके माध्यम ये अपने अध्ययन को लक्ष्य तक पहुंचाना है । अध्ययन के तहत कैल्शियम कार्बोनेट के माध्यम से बने शिवलिंगों की उम्र का पता लगाया जाएगा और फिर उस समय की जलवायु का आंकलन भी वैज्ञानिक तरीके से किया जाएगा । कुमायूं विवि के भूगर्भ विभाग के प्रोफेसर डॉ.बीएस कोटलिया ने बताया अत्यधिक ऊंचाई पर स्थित
गुफाओेंमेंें मिलने वाले प्राचीन शिवलिंग का
निर्माण चूने के पत्थर पर गिरने वाले कैल्शियम कार्बोनेट के साथ पानी की बूंदों से होता है । जिस क्षेत्र में चूने के पत्थर अधिक संख्या में होते हैं । वहीं इस तरह की दुर्लभ गुफाएं पाई जाती हैं । इनमें मानसून के दौरान पानी की बूंदें कैल्शियम कार्बोनेट के साथ जब गिरती है तभी ठोस पत्थर के रूप में शिवलिंग का निर्माण होता है । श्री कोटलिया ने बताया कि इस कार्य में आस्ट्रेलिया के मेलबर्न विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक माइक सेंडिफोर्ड उनकी मदद कर रहे हैं । वर्तमान में नैनीताल के चौखुटिया पिथौरागढ के चांडक और देहरादून के चकराता के गुफाआेंका अध्ययन किया जा रहा है ।

चार लाख साल पुराना मानव दांत मिला

गुफा की खोज करने वाले तेल अवीव विवि के अवि गाफेर और रैन बरकाई ने कहा कि चीन और स्पेन में मिले मानव अवशेष और कंकाल से हालांकि मानव की अफ्रीका में उत्पत्ति की अवधारणा कमजोर पड़ी थी, लेकिन यह खोज उससे भी महत्वपूर्ण है ।
तेल अवीव विवि ने अपनी वेबसाइट पर लिखा कि इस्रायली शहर रोश हाइन में एक गुफा में चार लाख पुराना दांत मिला है ।
यह प्राचीन आधुनिक मानव का सबसे पुराना प्रमाण है । वेबसाइट पर लिखा गया कि अब तक मानव के जिस समय काल से अस्तित्व मेंहोने की बात मानी जा रही थी, यह मानव उससे दोगुना अधिक समय पहले जीवित था । यह दांत २००० में एक गुफा में मिला था । इससे पहले आधुनिक मानव का सबसे प्राचीनअवशेष अफ्रीका में मिला था, जो दो लाख साल पुराना था । इसके कारण शोधार्थी यह मान रहे थे कि मानव कि उत्पत्ति अफ्रीका से हुई थी । सीटीस्कै न और एक्स-रे से पता चलता है कि यह दांत बिल्कुल आधुनिक मानवों जैसे हैं और इस्राइल के ही दो अलग जगहों पर पाए गए दांत से मेल खाते हैं । इस्राइल के दो अलग जगहों पर पाए गए दांत एक लाख साल पुराने हैं । गुफा में काम कर रहे शोधार्थियों के मुताबिक इस खोज से वह धारणा बदल जाएगी कि मानव की उत्पत्ति अफ्रीका मेें हुई थी ।

जटिल सॉफ्टवेयर निर्माण में सहायक होगी चींटी

अब तक आलसी लोगों को मेहनत का महत्व बताने के लिए सबसे बड़े उदाहरण के तौर पर उपयोग होने वाली चींटियों का एक नया गुण सामने आया है ।
वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि चींटियां गणित की जटिल पहेलियों को भी आसानी से हल कर सकती हैं ।
जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंट बायोलॉजी नामक साइंस मैग्जीन में प्रकाशित जानकारी के अनुसार वैज्ञानिकों के एक अंतराष्ट्रीय दल नवीन तकनीक का इस्तेमाल करते हुए वैज्ञानिकों ने गणित की जटिल पहेली टावर्स ऑफ हनोई को भुलभुलैया में तब्दील कर यह देखने की कोशिश की कि क्या चीटियां डाइनेमिक ऑप्टिमाइजेशन प्राब्लम का हल निकाल सकती हैं या नहीं ।
सिडनी विश्वविद्यालय के शोधकर्ता क्रिस रीड ने कहा कि हालांकि प्रकृति अप्रत्याशित बातों से भरी पड़ी हैं और एक हल सारी समस्याआें के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है । वैज्ञानिकों ने टावर्स ऑफ हनोई पहेली का तीन डिस्क संस्करण का इस्तेमाल कर चींटियोें की जांच करने की कोशिश की । इस पहेली के तहत खिलाड़ियों को डिस्क को रॉड के बीच बढ़ाना होता है । इस दौरान कुछ नियमों का पालन करना होता है । उन्होंने पहेली को एक भूल-भूलैया में तब्दील कर दिया । इसमें सबसे छोटा पथ हल के सदृश होता है । चींटियां दूसरे छोर पर खाद्य स्रोत को हासिल करने के लिए भूल-भूलैया के प्रवेश बिन्दु पर ३२ हजार ७६८ संभावित मार्गोंा को चुन सकती हैं । सिर्फ दो पथ सबसे छोटे पथ होते हैं इसलिए यह सर्वेश्रेष्ठ हल है ।
वैज्ञानिकांे के इस प्रयोग के बाद सामने आया है कि चींटियां गणित की सामान्य कंप्यूटरी कलन वाली समस्याआेंको हल करने में सक्षम हैं । इस नतीजों के बाद वैज्ञानिक यह जानने के लिए प्रयोग कर रहे हैं कि क्या चीटियां किसी जटिल साफ्टवेयर के निर्माण में सहयोग प्रदान कर सकती हैं ।

चिड़ियों की तरह चहचहाएंगे चूहे

चुपके से सुन, इस पल की धुन जापानी वैज्ञानिकों ने ऐसे चूहे तैयार किए हैं जो चिड़िया की तरह चहचहा सकते हैं । जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए तैयार किए गए ये चूहे इंसानी जबान के विकास को समझने में मददगार हो सकते हैं । ओसाका विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआें की टीम ने अपने इवॉल्व्ड माउस प्रोजेक्ट के तहत ये चूहा तैयार किए ।
इसके लिए जेनेटिकल मॉडिफाइड यानी ऐसे चूहे का इस्तेमाल किया गया जिन्हें अनुवांशिक गुणों में बदलाव करके तैयार किया गया । इन चूहों में बदलाव की प्रवृत्ति होती है । मुख्य शोधकर्ता अरिकुनी उचिमुरा बताते हैं कि बदलाव ही विकास की वजह बनता है । काफी समय से जेनेटिकली मॉडीफाइड चूहों को अन्य चूहों से ब्रीड कराया जाता है । श्री उचिमुरा ने बताया कि हमने नए तैयार हुए चुहों को एक एक करके परखा, एक दिन हमने पाया कि एक चूहा चिड़िया की तरह गा रहा था । श्री उचिमुरा ने साफ किया कि गाने वाला यह चूहा इत्तेफाक से पैदा हुआ है ।
अब इसके गुण कई पीढ़ियों तक रहेंगे । वे कहते हैं कि इस चूहे को देखकर वह हैरान रह गए । उन्होंने बताया कि मैं उम्मीद कर रहा था कि चूहों का शारीरिक आकार बदलेगा । इसी प्रोजेक्ट में हम ऐसे चूहे तैयार कर चुके हैं जिनके अंग बाकी चूहों से छोटे थे । ओसाका यूनिवर्सिटी की इस लैब में अब १०० से ज्यादा चहचहाते चूहे हैं । इन पर शोध को आगे बढ़ाया जा रहा है । वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इससे इंसानी जबान के विकास की प्रक्रिया को समझने में मदद मिलेगी । अन्य देशों में इसे समझने के लिए पक्षियों का अध्ययन किया जाता है । वैज्ञानिकों ने पाया कि पक्षी गाने या बोलने के लिए आवाज के अलग-अलग तत्वों का इस्तेमाल करते
हैं ।
वे इन तत्वों को वैसे ही एक साथ रखते हैं जैसे हम इंसान अलग-अलग शब्दों को जोड़कर भाषा बनाते हैं । यूं भी कहा जा सकता है कि पक्षियों की भाषा के भी कुछ नियम होते हैं । श्री उचिमुरा कहते हैं कि इस मामले में चूहे पक्षियों से बेहतर होते हैं क्योंकि वे स्तनधारी हैं । उनके मस्तिष्क की संरचना इंसानी संरचना जैसी ही होती है । वह वैज्ञानिक यह देख रहे हैं कि गाने वाले चूहों का सामान्य चूहों पर क्या असर होता है ।

अफ्रीका में मिली एक दुर्लभ मक्खी

अफ्रीका महाद्वीप के केन्या में वैज्ञानिकों ने दुनिया की एक बेहद दुर्लभ और अजीबोगरीब घने बालों वाली मक्खी को ढूंढ निकाला है । पीले बालों वाली ऐसी मक्खी को पहली बार १९३३ में देखा गया था । यह दुबारा १९४८ में दिखी और अब से लगभग छह खोजी दल थिक और गैरिसा के इलाको में इसकी खोज में लगे रहे ।
नैरोबी स्थित इनसेक्ट फिजियोलाजी एंड इकोलाजी के डॉ. राबर्ट कूपलैंड ने बताया कि इस मक्खी की शारीरिक संरचना ने वैज्ञानिकों को अचंभित कर दिया
है । वैज्ञानिक इस खोज में लगे हैं कि यह मक्खी टू फ्लाइज या डिप्टेरा की वंशावली में इसका उचित स्थान क्या है । डॉ. कूपलैंड ने बताया कि यह अपने जैविक परिवार की एक मात्र सदस्य हैं । कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मक्खी सिर्फ अफ्र ीका में ही पाई जाती है ।
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कृषि जगत

किसानों के हित में नहीं है अधिनियम
सुश्री ज्योतिका सूद

मूल कानून तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों की सुरक्षा के लिए ही बनाया गया था । इसीलिए तो फसल की असफलता या नुकसानी की स्थिति मेंबीज आपूर्तिकर्ता को इस कानून के अंतर्गत उत्तरदायी नहीं ठहराया गया था ।
प्रस्तावित बीज अधिनियम २०१० को लेकर व्यापक असंतोष सामने आने लगा है । अधिकांश राजनीतिक दल अब खुले रूप से यह कहने लगे हैं कि यह कानून बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों की सुरक्षा के नजरिए से ही लाया जा रहा है और इसमें भारतीय किसानों को बर्बादी से बचाने के लिए कोई प्रावधान नहीं किए गए हैं ।
पिछले छह वर्षोंा में बीज कानून का मसौदा कई बार तैयार किया जा चुका है । केन्द्रीय कृषि मंत्री को विश्वास था कि संसद के शीतकालीन सत्र में में यह कानून पारित हो जाएगा । वहीं दूसरी ओर विपक्षी दल एवं सत्तारूढ़ कांग्रेस के भी कुछ सांसद इस कानून का विरोध कर रहे हैं ।
बीज कानून २०१० का मसौदा सर्वप्रथम सन् २००४ में तैयार किया गया था । इसके अंतर्गत बीजोंके उत्पादन, वितरण और बिक्री, जिसमें आयात और निर्यात दोनों ही शामिल हैं, के नियमन के अतिरिक्त प्रत्येक बीज कंपनी से न्यूनतम गुणवत्ता बनाए रखने की अपेक्षा की गई
थी । मार्च में मंत्रीपरिषद की स्वीकृति के पश्चात इसे राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया। परंतु अनेक सांसदों, आंध्रप्रदेश सरकार और किसान समूहों द्वारा सुझाए गए १०० से अधिक संशोधनों के पश्चात मंत्रालय ने इसे पुन: तैयार करने क ा निश्चय किया । इस कानून को लेकर कुछ मुख्य आपत्तियां थींकि इसमें बीजों की कीमतों की निगरानी की व्यवस्था ही नहीं है और यह बीजों के नाकारा सिद्ध होने की स्थिति में कंपनियों को दोषी ठहराने और किसानों को पर्याप्त् मुआवजा दिये जाने के प्रावधानों पर भी मौन हैं ।
मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि वर्तमान मसौदा नागरिक संगठनों व किसान समूहों से कई बार हुए विचार-विमर्श के बाद सामने आया है और यह संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति की अनुशंसा पर आधारित है । परंतु विपक्षी भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता और राज्यसभा सदस्य प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि इसमें कई मुद्दों का संज्ञान ही नहीं लिया गया है । उनका कहना है कि वर्तमान मसौदे में दूरसंचार नियामक प्राधिकारी की तरह ही बीजों के व्यापार को लेकर किसी नियामक संस्था की व्यवस्था संबंधी लम्बे समय से चली आ रही मांग की भी अनदेखी की गई । श्री जावड़ेकर का कहना है कि जब तक मंत्रालय यह प्रावधान नहीं करता तब तक भाजपा इस कानून पर होने वाले मतदान में भाग नहीं लेगी ।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और लोकसभा सदस्य बासुदेव आचार्य का कहना है कि स्थायी समिति ने २००४ के मसौदा कानून की ८० प्रतिशत धाराआें में संशोधनों की अनुशंसा की है । मंत्रालय ने इन संशोधनों पर विचार तो किया लेकिन मूल्य नियंत्रण प्रक्रिया और किसानों को मुआवजा देने संबंधी परिवर्तनों पर कोई ध्यान नहीं दिया । उदाहरण के लिए कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिससे कि सरकार बीजों की कीमतों पर नियंत्रण रख सके या उनका निर्धारण कर सके । श्री आचार्य का कहना है कि जब तक सरकार के पास ये अधिकार नहींहोंगे तब तक बीजों की कीमतों पर कोई रोक नहीं लग पाएगी । अमेरिका की मोनसेंटो और ड्यूपाइंर्ट सहित केवल पांच कंपनियों का वैश्विक बीज बाजार पर पूर्ण नियंत्रण है ।
वास्तविकता तो यह है कि हमें परमाणु देयता कानून की तर्ज पर बीज देयता कानून लाने की आवश्यकता है । अपनी बात को विस्तार देते हुए उन्होंने कहा कि उनका दल तब तक इस कानून का विरोध करेगा जब तक कि संसदीय कृषि स्थायी समिति द्वारा सुझाई गई सभी अनुशंसाआें को इसमें शामिल नहीं कर लिया जाता । आचार्य का यह भी मानना है कि मूल कानून तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों की सुरक्षा के लिए ही बनाया गया था । इसीलिए तो फसल की असफलता या नुकसानी की स्थिति मेंबीज आपूर्तिकर्ता को इस कानून के अंतर्गत उत्तरदायी नहीं ठहराया गया था । वर्तमान मसौदे में बीज कंपनियों को कानून की परिधि में तो लिया गया है लेकिन मसौदे में यह उल्लेखित नहीं है कि बीजों की खराब किस्म की वजह से किसानों को होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति किस प्रकार होगी ?
राज्यसभा सदस्य एम.वी.मैसूर रेड्डी ने भी आचार्य की चिंताआें को वाजिब ठहराते हुए कहा है कि वर्तमान मसौदे में केवल उतनी ही राशि के मुआवजे का उल्लेख है जितनी की बीज की कीमत है । परंतु बीज बोते समय किसान खाद, पानी, खरपतवार, सफाई, कीटनाशकोंऔर मजदूरी पर भी तो खर्च करता है । बीज से होने वाले नुकसान की स्थिति में इन सबकी भी गणना की जानी चाहिए । परंतु प्रस्तावित कानून में तो बीज कंपनियों को केवलबीज के उगने तक के लिए ही जिम्मेदार ठहराया गया है ।
वहीं लोकसभा में तेलगुदेशम पार्टी के नेता का कहना है कि उस स्थिति में क्या होगा जबकि उगी हुई उपज ही नहीं निकलेगी ?बीजू जनता दल, जो कि ओडिशा में सत्तारूढ़ दल भी है, के लोकसभा सदस्य भृतहरि मेहताब का कहना है कि हमारी लंबे समय से मांग रही है कि बीजों पर नियंत्रण की प्रक्रियानिर्धारण का अधिकार राज्य सरकारों पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि कृषि राज्य का विषय है । मेहताब का कहना है कि हालांकि ने आश्वासन दिया है कि इन मुद्दों पर ध्यान दिया जाएगा परंतु वर्तमान मसौदे में इस पर ध्यान नहीं दिया गया है । उदाहरण के लिए मुआवजे की धारा के अंतर्गत पूरे अधिकार केन्द्र सरकार के हाथ मेंहैं । ऐसे में कितने किसान दिल्ली आकर अपने को हुई हानि की क्षतिपूर्ति का दावा कर पाएंगे ? मेहताब का कहना है हम संशोधन लाएंगें और उसके बाद ही तय करेंगे कि इस कानून पर मत देना है या नहीं ।
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बाल जगत

पेड़ोंे से बनते हैं जीवित पुल
(कार्यालय संवाददाता द्बारा)

पेड़ हमेशा से हमारे मित्र रहे हैं । इनका इस्तेमाल हम कई रूपों में करते हैं, लेकिन मेघालय के चेरापूंजी में पेड़ों का अनोखा प्रयोग किया जाता है । यहां पाए जाने वाले रबर ट्री की जड़ों से स्थानीय लोग नदी के ऊपर ऐसा मजबूत पुल बना देते हैं कि उस पर से एक साथ ५० लोग गुजर सकते हैं । इन्हें जीवित पुल कहते हैं ।
शहरों में ओवरब्रिज जरूर पत्थर, सीमेंट और कांक्रीट से बनाए जाते हैं। इनको बनाने में करोड़ों रूपये का खर्च आता है, लेकिन क्या आपने कभी किसी जीवित पुल के बारे में सुना है ? पेड़-पौधों में भी जीवन होता है तो अगर किसी पेड़ को काटे बिना उससे पुल बना दिया जाए तो उस पुल को ही जीवित पुल या प्राकृतिक पुल कहेंगे ।
हमारे देश के मेघालय राज्य में कई जीवित पुल हैं । इस राज्य के चेरापूंजी मेंतो जीवित पुलों की भरमार है । चेरापूंजी वही जगह है, जहां बहुत बारिश होती है । इस क्षेत्र में रबर ट्री नामक एक वृक्ष पाया जाता है, जिसका वानस्पतिक नाम फाइकस इलास्टिका होता है । यह बनयान ट्री यानी वटवृक्ष जैसा होता है । जिसकी शाखाएं जमीन को छूकर नई जड़ बना लेती हैं । इसी तरह इस पेड़ की अतिरिक्त जडें अलग दिशा में बढ़ सकती हैं । मेघालय में खासी जनजाति के लोग रहते हैं । ये लोग सैकड़ों साल में रबर ट्री की सहायता से कई जीवित पुल बना चुके हैं । दरअसल यहां पहाड़ों से अनेक छोटी-छोटी नदियां बहती हैं । इस नदियों के एक किनारे से दूसरे किनारे तक जाने के लिए जीवित पुल का ही उपयोग किया जाता है, जिन्हें यहां के लोग बनाते हैं । यहां की भाषा में इन पुलों को जिंग केंग इरो कहते हैं ।
जीवित पुल बनाने के लिए नदी के एक किनारे के पेड़ों की जड़ों को नदी के दुसरे किनारे की दिशा में बढ़ाने के प्रयास किए जाते हैं । ऐसा करने के लिए लोग सुपारी के पेड़ के खोखले तनोंका उपयोग करते हैं । तनों की सहायता से पहले पेड़ की जड़ को नदी के दूसरे तट तक ले जाया जाता है । जब जड़ वहां जमीन को जकड़ लेती है, तब उसे वापस पेड़ की ओर लाते हैं । इस तरह कई पेड़ों की जड़ें मिलकर एक पुल का निर्माण करती है । सुरक्षा के लिए इन पुलोंके नीचे की ओर पत्थर बिछाकर उपयुक्त रास्ता बना दिया जाता है और दोनोंओर लोहे या किसी अन्य प्रकार की जाली लगा दी जाती है ।
मेघालय में आर्द्रता यानी नमी अधिक होती है, जिस कारण यहां पेड़ों की जड़ें जल्दी बढ़ती है, लेकिन इनके बनने में५० से ६० साल या इससे भी ज्यादा का समय लग जाता है । इतनी लंबी अवधि में पेड़ की जड़ें मजबूत होती रहती हैं । उसके बाद जीवित पुल सैकड़ों वर्षोंा तक काम में आते हैं । हैरानी की बात यह है कि इस पुल पर एक बार में लगभग ५० लोग चल सकते हैं ।
चेरापूंजी में टिम्बर (पेड़ों को काटकर प्राप्त् लट्ठे) द्वारा बनाए पुल अधिक दिन तक नहीं चल सकते । वहां इतनी ज्यादा बारिश होती है कि पुल जल्द ही गलने लगते हैं, लेकिन इस प्रकार के प्राकृतिक पुल नहीं गलते । वहां कुछ पुल तो पांच शताब्दी पुराने भी हैं । पुल बनाने वाले पेड़ों की जड़ों को इस तरह से दिशा देते हैं कि वो एक दूसरे से उलझकर आगे बढ़े और पुल को मजबूती मिले । ऐसे ही एक प्राकृतिक पुल का नाम इबल-डेकर पुल है । इस पुल की विशेषता यह है कि एक बार पुल बनने के बाद उसकी जड़ों को ऊपर की ओर दोबारा मोड़कर दुसरा पुल भी बनाया गया था । विश्व में यह अपनी तरह का एकमात्र पुल है । ***

महिला जगत

गर्भनिरोधक का नया फंडा
अंकुर पालीवाल

जन आरोग्य अभियान के अनंत फड़के का कहना है पिछले एक दशक में ग्रामीण स्वास्थ्य अधोसंरचना में नाम मात्र का भी परिवर्तन नहीं आया है । हमारे यहां भी अभी भी पर्याप्त् अस्पताल नहीं हैं और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का तो बहुत ही बुरा हाल है ।
दुनियाभर में गर्भनिरोधक के जोखिम भरे सारे उपायोंके परीक्षण महिलाआें पर ही होते हैं । देश में १५ वर्ष के अंतराल के पश्चात इंजेक्शन के माध्यम से महिलाआें के शरीर मेंगर्भनिरोधक पहुंचाकर उन्हें खोखला बनाने के प्रयास पुन: प्रारंभ हो गए हैं । अंतर्राष्ट्रीय दानदाता एजेंसियां चेरिटी की आड़ में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियोंके हितोंको लगातार प्रश्रय देती रहती हैं । आज गर्भनिरोधक के अनेक हानिरहित उपायों की मौजूदगी के बावजूद हार्मोन आधारित इस इंजेक्शन को भारतीय परिवार नियोजन कार्यक्रम में सरकारी तौर पर शामिल किए जाने के प्रयास अनेक शंकाआें को जन्म दे रहे हैं ।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय अपने परिवार कल्याण (नियोजन) कार्यक्रम में एक बार पुन: इंजेक्शन के माध्यम से शरीर में प्रविष्ठ होने वाले गर्भ-निरोधकों को शामिल किये जाने पर विचार कर रहा है । मंत्रालय ने इस संबंध में औषधि तकनीकी सलाहकार समिति (डीटीएबी) से आग्रह किया है कि वह उसे डीपोट मेड्रोझायप्रोगेस्टीरोन एसीटेट (डीपीएमए) को अपने कार्यक्रम में शामिल करने की अनुमति दे । गौरतलब है कि पूर्व में इसे शामिल किए जाने के प्रयास को सन् १९९५ में सर्वोच्च् न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद वापस ले लिया गया था ।
इस गर्भनिरोधक के माहवारी का लोप एवं वजन का बढ़ना जैसे कई दुष्परिणाम भी हैं । इसके दीर्घकालिक दुष्परिणामों में ओस्टोफोरोसिस या हडि्डयों का क्षरण भी शामिल हैं । केन्द्रीय स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव का कहना है कि इस गर्भनिरोधक को शामिल किए जाने से संबंधित अधिकांश प्रक्रियाएं पूरी हो गई हैंऔर अब इस संबंध में सलाहकार समिति की अनुमति मिलना ही शेष है । वैसे इस बीच वे स्वयं रिटायर हो गई हैं ।
स्वास्थ्य कार्यकर्ता और महिला संगठन इसके विरूद्ध उठ खड़े हुए हैं । मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेता और राज्यसभा सदस्य वंृदा करात ने स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नदी आजाद को यह कहते हुए कि यह गर्भनिरोधक महिलाआें के स्वास्थ्य को हानि पहुंचाएगा, लिखा है कार्यक्रम को महज जनसंख्या नियंत्रण पर ही केंद्रित न होकर सुरक्षित गर्भनिरोध की ओर भी ध्यान देना चाहिए ।
दुष्परिणाम - महिला स्वास्थ्य समूहों ने औषधि तकनीकी सलाहकार समिति को भेजे गए ज्ञापन में अनुरोध किया है कि वह डीपीएमए को अमेरिकी कंपनी अपजॉन के ब्रांड नेम डेपो-प्रोवेरा के नाम से बेचने की स्वीकृति न दे, जिसे कि अब फाइजर ने खरीद लिया है । इस इंजेक्शन में प्रोगेस्टिन नामक हारमोन है, जिसे प्रत्येक तीन महीने में लगाया जाना होता है । यह डिम्बीकरण का निषेध कर एवं गर्भाशय की झिल्ली को मोटा करके इसमें शुक्राणुआें प्रवेश रोक देता है, जिसमें गर्भ नहीं ठहर पाता ।
दिल्ली के गंगाराम अस्पताल की स्त्रीरोग विशेषज्ञ माला श्रीवास्तव का कहना है कि अपने दुष्परिणामों की वजह से डीपीएमए भारत में लोकप्रिय नहीं हो पाया । उनका कहना है कि इसके बजाए कंडोम और जैल बेहतर विकल्प हैं क्योंकि इनसे यौन रोगों की संभावना में भी कमी आती है । भारत के दवा नियंत्रक ने सन् १९९३ में तीसरे चरण के अनिवार्य परीक्षण के बिना ही देश मे इस इंजेक्शन की बिक्री की अनुमति दे दी थी । दवा नियंत्रक ने अपजॉन से कहा था कि वह बिक्री के बाद ऐसा अध्यन कराए परंतु महिला संगठनों ने इसे अपर्याप्त् बताया और इसके बाद वे हस्तक्षेप के इरादे से सर्वोच्च् न्यायालय मे चले गए । सन् १९९५ में न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद डीटीएबी ने कहा था कि डेप्रो-प्रोवेरा को इसलिए अनुशंसित नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका इस्तेमाल करने वाली महिलाआें की सतत् निगरानी की आवश्यकता होती है और देश में इस हेतु आवश्यक मात्रा में यथोचित अधोसंरचना ही मौजूद नहीं है । इसके बावजूद डीटीएबी ने इसके बाजार में बिक्री की अनुमति दे दी । मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि अब इस इंजेक्शन के माध्यम से दिए जाने वाले गर्भनिरोधक की निगरानी हेतु पर्याप्त् अधोसंरचना मौजूद है ।
वहीं स्वास्थ्य कार्यकर्ता इस दावे को अस्वीकार कर रहे हैं । महाराष्ट्र के गैर सरकारी संगठन जन आरोग्य अभियान के अनंत फड़के का कहना है पिछले एक दशक में ग्रामीण स्वास्थ्य अधोसंरचना में नाम मात्र का भी परिवर्तन नहीं आया है । हमारे यहां भी अभी भी पर्याप्त् अस्पताल नहीं हैं और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का तो बहुत ही बुरा हाल है ।
वैसे कई गैर सरकारी संगठन डेपो-प्रोवेरा के इस्तेमाल की वकालत भी कर रहे हैं । डीकेटी इंटरनेशनल की मुंबई शाखा की निदेशक सांड्रा ग्रास का कहना है कि हमारा अनुभव बताता है कि डीएमपीए सुरक्षित है। चूंकि यह हारमोन आधारित इंजेक्शन है अतएव इसके कुछ दुष्परिणाम (साईड इफेक्ट) तो होंगे ही । परंतु वे इतने गंभीर नहीं हैं । वही बिहार स्थित जननी की मुख्य प्रबंधक नीता झा का कहना है माहवारी रूकने जैसे दुष्परिणाम अंतत: तो लाभकारी ही हैं क्योंकि ग्रामीण भारत की बड़ी संख्या में महिलाएं एनीमिक हैं अतएव यदि कुछ समय के लिए माहवारी रूकती है तो खून की हानि को रोका जा सकता है ।
परिवार सेवा संस्थान एवं फेमिली प्लानिंग एसोसिएशन जैसे कुछ न्य गैर सरकारी संगठन भी डीएमपीए को प्रोत्साहित कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर दिल्ली स्थित एक महिला संसाधन केन्द्र सहेली से जुड़ीं स्वास्थ्य कार्यकर्ता कल्पना का कहना है कि यूएसएड अमेरिका उत्पादों को बढ़ावा देता है और वह गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम के बड़े भाग का निजीकरण भी कर रहा है । इस दौरान गैर सरकारी संगठनों द्वारा डीटीएबी को एक ज्ञापन देकर डीपीएमए को प्रोत्साहित किए जाने वाले कार्यक्रमोंपर रोक लगाने की भी मांग की गई है । ***

विज्ञान जगत

बौद्धिक सम्पदा और पारम्परिक ज्ञान
कृष्ण रवि श्रीवास्तव

योग के कई उपकरणों व सामग्री को पेटेंट दिया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इससे हमारे इस पारम्परिक ज्ञान के दुरूपयोग व अंधाधुंध व्यावसायिक इस्तेमाल के द्वार खुल गए हैं। हकीकत तो यह है कि योग के किसी भी आसन के लिए कोई पेटेंट नहीं दिया गया है ।
योग मुद्राआेंऔर इसके आसनोंपर कॉपीराइट सम्बंधी दावों के बारे में अक्सर पढ़ने-सुनने को मिल जाता है । इसे प्राय: पारम्परिक ज्ञान के क्षेत्र में बौद्धिक सम्पदा अधिकारी की घुसपैठ के रूप में चित्रित किया जाता है । क्या यह वाकई घुसपैठ है ? अगर है तो यह इतनी चिंताजनक भी है ?
कुछ विषय ऐसे होते हैंजो विवादास्पद न होते हुए भी विवाद के केन्द्र में आ खड़े होते हैं । ताजा मामला योग सम्बंधी आसनों के कथित पेटेंट का है । यह विवाद न केवल पारम्परिक ज्ञान के क्षेत्र में बोद्धिक अधिकार के दुरूपयोग के प्रति चिंता दर्शाता है, बल्कि इसे लेकर कई भ्रांतियों का खुलासा भी होता है ।
सच तो यह है कि अब तक योग के एक भी आसन के लिए किसी को भी पेटेंट नहीं दिया गया है, लेकिन मीडिया में ऐसी खबरें खूब सुर्खियां बनीं । इस सम्बंध में विभिन्न राजनीतिक दलों व योग गुरूआें के बयानों ने भ्रम बढ़ाने का ही काम किया । इस मुद्दे को मीडिया ने जिस तरह पेश किया, उससे ऐसा आभास हुआ कि योग के आसनों का पेटेंट हो गया है और अब रायल्टी चुकाए बगैर कोई इन आसनों को नहीं कर सकता। इसी प्रकार अब श्लोकों का भी पेटेंट लिया जा सकता है । कुल मिलाकर मीडिया ने यह माहौल बनाने की कोशिश की कि पश्चिम के लोग भारत के पारम्परिक ज्ञान का दुरूपयोग करने पर आमादा हैं। इससे पहले नीम और हल्दी के पेटेंट को लेकर भी इसी प्रकार के विवाद और भ्रम की स्थिति पैदा हो चुकी है ।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अमेरिका में योग सम्बंधी सामग्री, उपकरणों और कुछ पाठ्यक्रमोंके सम्बंध मेंपेटेंट, कॉपीराइट और ट्रेडमार्क दिए गए हैं । ये पेटेंट व कॉपीराइट योग सम्बंधी किताबों, वीडियो और आसनों की मिलती-जुलती मुद्राआें के भी हैं । लेकिन इसका यह मतलब नहीं लगाया जा सकता कि भारत के पारम्परिक ज्ञान पर पश्चिम के देशों ने डाका डाल दिया है । कहीं पर भी पारम्परिक योग के आसन करने पर कोई किसी से रायल्टी की मांग नहीं कर सकता है ।
अमेरिका में योग के बढ़ते दायरे का सम्बंध व्यावसायिकता से ज्यादा है । वैश्विक बाजार में हर योग केन्द्र व योग गुरू अपने को अलग दिखाना चाहता है (जैसे आयंगर योग, श्री श्री योग इत्यादि) इसलिए वे योग का सामान्य हिस्सा बने रहने की बजाय चाहते हैं कि उनके योग की एक विशिष्ट ब्रांड इमेज बने जिससे उन्हें अलग पहचान मिल सके । ऐसे कई मान्यता प्राप्त् केन्द्र हैं जहां प्रशिक्षित शिक्षक अपने विशिष्ट योग का प्रशिक्षण देते हैं । प्राचीन काल में भी योग की विभिन्न शाखाएं मिलती हैं, जैसे बिहारी योग । आज अंतर केवल यही आया है कि अपने विशिष्ट योग केंद्रों के प्रचार के लिए कॉपीराइट और ट्रेडमार्क का इस्तेमाल किया जाने लगा है ।
इस पूरे मामले में पेंच यह है कि योग देशी सीमाआें से परे जा चुका है । वह वैश्विक बन चुका है । ऐसे में विभिन्न योग गुरूआें को अपने योग की भिन्न-भिन्न विधाआंे को एक-दूसरे से अलग भी दिखाना है और प्रामाणिकता के लिए मूल योग की जड़ों से जुड़ाव भी बताना है । ऐसी स्थिति में बौद्धिक सम्पदा अधिकार का प्रयोग बढ़ना स्वाभाविक है ।
देखा जाए तो योग का एक चेहरा पारम्परिक है जो प्रामाणिक और प्राचीन ज्ञान को बढ़ावा देता नजर आता है, तो दूसरा चेहरा उत्तर आधुनिक है । जिसने उपभोक्ताआें की उपयोगिता के अनुरूप अपने को ढाल रखा है । इस प्रकार योग के अलग-अलग सदर्भोंा में अलग-अलग मतलब निकाले जा सकते हैं । मकसद बदलते ही योग का अर्थ भी बदल जाता है । इस प्रक्रिया में उपभोक्ता समाज की जरूरतों के मद्देनजर योग की मार्केटिंग में बौद्धिक सम्पदा अधिकार एक अहम भूमिका निभाता है ।
रूस, थाईलैंड, कनाड़ा, चीन सहित कई देशों में योग चटाई और अन्य साधनों के पेटेंट के लिए आवेदन किए गए
हैं । इससे साफ है कि योग में लोगों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही है । इसके मद्देनजर अब एक ऐसी व्यवस्था बनाने की आवश्यकता भी महसूस की जाने लगी है जो इसकी प्रैक्टिस को सुव्यवस्थित कर सके । चूंकि योग की शिक्षा विभिन्न वर्गोंा के लोगों को उनकी अलग-अलग जरूरतों के हिसाब से दी जा रही है, इसलिए इसमें नवाचार की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता । योग के कई उपकरणों व सामग्री को पेटेंट दिया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इससे हमारे इस पारम्परिक ज्ञान के दुरूपयोग व अंधाधुंध व्यावसायिक इस्तेमाल के द्वार खुल गए हैं। हकीकत तो यह है कि योग के किसी भी आसन के लिए कोई पेटेंट नहीं दिया गया है । इसलिए योग उपकरणों व पाठ्यक्रमों को दिए गए पेटेंटों से भयभीत होने की कतई जरूरत नहीं है ।
यहां असली सवाल यह है कि ये नए-नए साधन कैसे योग को और लोकप्रिय बना सकते हैं । यह मानना नादानी होगी कि हमें पारम्परिक ज्ञान में संशोधन करने या उसमें नवाचार लाने की कोई जरूरत नहीं
है । अगर कोई नवाचार पेटेंट की आधारभूत पात्रता को पूरा करता है तो उसे पेटेंट देने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, बशर्ते वह योग की प्रैक्टिस में मदद करे । योग की प्राचीन व मूल कला को हम तब तक नहीं जान सकते जब तक कि इस क्षेत्र में हुए छोटे-बड़े नवाचारों और पिछले कई सालों के दौरान प्रचलन मेंआई नई विधियों तथा विचित्र योग गुरूआें व संस्थाआें द्वारा दिए गए योगदान का सर्वे व अध्ययन नहीं कर लिया जाता । केवलशास्त्रों में लिखी गई बातों से ही योग की प्राचीन व मूल कला का निर्धारण नहीं किया जा सकता । योग के दुरूपयोग को रोकने के लिए इसकी प्राचीन कला को जानना बेहद अहम है ।
योग के क्षेत्र में नवाचारों को दिए गए पेटेंट से योग अपनाने वालों को आसानी हुई है । आवश्यकता आविष्कार की जननी है, यह सूत्रवाक्य अक्सर दोहराया जाता है । कई बार यह साबित भी हो चुका है कि कई आविष्कारों की प्ररेणा शक्ति उनका इस्तेमाल करने वाले लोग ही होते हैं । हालांकि अभी यह साफ नहीं हो पाया है कि योग संबंधी नवाचारों में उसके उपयोगकर्ताआें का कितना योगदान रहा है, लेकिन माना जा सकता है कि इनमें वे भी एक अहम प्रेरणा शक्ति रहे होंगे ।
ये नए साधन अभी तो योग करने में मददगार साबित हो रहे हैं, लेकिन यह भी संभव है कि भविष्य में ये ही योग में बदल जाएंगे, अभी यह भविष्वाणी करना संभव नहीं है । यहां यह भी पूजा जा सकता है कि क्या भारत में योग सम्बंधी सहायक प्रणालियां पहले से ही मौजूद थीं ? अगर थीं तो उनका क्या हुआ ? इस सम्बंध में अगर कोई अध्ययन किया जाए तो उस समय के योग सम्बंधी कई नवाचारों के बारे में पता चल सकेगा।
योग पर कई पुस्तकों, सी.डी. और डी.वी.डी को कॉपीराइट मिला हुआ है । इन्हें कॉपीराइट देने का मतलब यह है कि इन पुस्तकों व सीडी-डीवीडी के संरक्षण के लिए पेटेंट दिया गया है, न कि उनमें बताए गए आसनों को । फीस्ट पब्लिके शंस इंकार्पोरेशन बनाम रूरल टेल सर्विस कंपनी के मामले में कहा गया था कि पुस्तक में वर्णित तथ्यों को कॉपीराइट नहीं दिया जा सकता, लेकिन उनका संग्रहण कॉपीराइट की पात्रता रखता है । यानी अगर किसी पुस्तक में किसी आसन का वर्णन किया गया है तो उसे व्यक्तिगत या सार्वजनिक तौर पर करना कॉपीराइट का उल्लंघन नहीं माना जाएगा । लेकिन उस पुस्तक की अनाधिकृत तौर पर प्रतियां बनाना या उन्हें बनाकर बेचना कॉपीराइट नियमों का उल्लंघन होगा । इसका मतलब यही है कि कॉपीराइट किसी विचार को व्यक्त करने के तरीकों का संरक्षण करता है, न कि उस विचार विशेष का ।
यहीं पर एक दिलचस्प सवाल भी उठता है - अगर कुछ आसनों को चुनकर उन्हें विशेष क्रम में संयोजित किया जाए और उन्हें विशेष परिस्थितियों में कुछ श्वास कसरतों के साथ करना तय कियाजाए तो क्या यह कॉपीराइट में आएगा ? क्या कॉपीराइट होल्डर से लाइसेंस लिए बगैर इन्हें सिखाना नियमों का उल्लंघन माना जाएगा ? इसे विक्रम योग मामले के जरिए समझा जा सकता है ?
विक्रम योग २६ योग मुद्राआेंऔर दो श्वास कसरतों का ऐसा संयोजन है जो एक कक्ष में १०५ फेरनहाइट डिग्री तापमान पर किया जाता है । विक्रम योग के संस्थापक विक्रम चौधरी ने इसके लिए कॉपीराइट हासिल किया है । उन्होंने इसके उल्लंघन पर कड़ी कार्यवाही की भी चेतावनी दी । वर्ष २००२ में उन्होंने अपने ही दो पूर्व छात्रों किम रेरिबर व मोरिसन के खिलाफ अदालत में मामला दायर किया । उनका आरोप था कि श्रेरिबर व मोरिसन ने योग नियम का पालन नहीं किया । बाद में यह मामला अदालत के बाहर सुलटा लिया गया । लेकिन इसके बाद कई अन्य योग स्टूडियो व योग केन्द्रों को भी बिक्रम चौधरी की ओर से कानूनी नोटिस दिए गए ।
अंतत: योग पै्रक्टीशनर्स, योग स्टूडियो, संस्थानों और विधिक प्रोफेशनल्स ने चौधरी की धमकियोंका सामना करने के लिए संगठन ओपन सोर्स योगा यूनिटि (ओएसवाइयू) का गठन किया । जुलाई २००३ मेंउन्होंने बौद्धिक सम्पदा नियमों की उल्लंघन सम्बंधी धमकियों से राहत पाने के लिए चौधरी के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया । ओएसवाईयू के मुताबिक उसका मिशन योग को सार्वजनिक सम्पत्ति बनाए रखने की दिशा में प्रयास करना है ताकि उस पर किसी एक व्यक्ति या संस्था विशेष का अधिकार न हो । लेकिन अचानक मई २००५ में दोनों पक्षों ने अदालत के बाहर एक समझौता कर लिया और उसके बाद ओएसवाईयू ने बिक्रम योग के कॉपीराइट की वैधता को चुनौती नहीं दी । उसका मिशन एक तरह से मजाक बनकर रह गया क्योंेकि योग की सार्वजनिकता को बनाए रखने में उसने अपनी ओर से कुछ नहीं किया । लेकिन योग के संबंध में बौद्धिक अधिकार की महत्ता से इंकार नहीं कियाजा सकता है । ***

सोमवार, 17 जनवरी 2011

विज्ञान जगत

बौद्धिक सम्पदा और पारम्परिक ज्ञानकृष्ण
रवि श्रीवास्तव

योग के कई उपकरणों व सामग्री को पेटेंट दिया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इससे हमारे इस पारम्परिक ज्ञान के दुरूपयोग व अंधाधुंध व्यावसायिक इस्तेमाल के द्वार खुल गए हैं। हकीकत तो यह है कि योग के किसी भी आसन के लिए कोई पेटेंट नहीं दिया गया है । योग मुद्राआेंऔर इसके आसनोंपर कॉपीराइट सम्बंधी दावों के बारे में अक्सर पढ़ने-सुनने को मिल जाता है । इसे प्राय: पारम्परिक ज्ञान के क्षेत्र में बौद्धिक सम्पदा अधिकारी की घुसपैठ के रूप में चित्रित किया जाता है । क्या यह वाकई घुसपैठ है ? अगर है तो यह इतनी चिंताजनक भी है ? कुछ विषय ऐसे होते हैंजो विवादास्पद न होते हुए भी विवाद के केन्द्र में आ खड़े होते हैं । ताजा मामला योग सम्बंधी आसनों के कथित पेटेंट का है । यह विवाद न केवल पारम्परिक ज्ञान के क्षेत्र में बोद्धिक अधिकार के दुरूपयोग के प्रति चिंता दर्शाता है, बल्कि इसे लेकर कई भ्रांतियों का खुलासा भी होता है । सच तो यह है कि अब तक योग के एक भी आसन के लिए किसी को भी पेटेंट नहीं दिया गया है, लेकिन मीडिया में ऐसी खबरें खूब सुर्खियां बनीं । इस सम्बंध में विभिन्न राजनीतिक दलों व योग गुरूआें के बयानों ने भ्रम बढ़ाने का ही काम किया । इस मुद्दे को मीडिया ने जिस तरह पेश किया, उससे ऐसा आभास हुआ कि योग के आसनों का पेटेंट हो गया है और अब रायल्टी चुकाए बगैर कोई इन आसनों को नहीं कर सकता। इसी प्रकार अब श्लोकों का भी पेटेंट लिया जा सकता है । कुल मिलाकर मीडिया ने यह माहौल बनाने की कोशिश की कि पश्चिम के लोग भारत के पारम्परिक ज्ञान का दुरूपयोग करने पर आमादा हैं। इससे पहले नीम और हल्दी के पेटेंट को लेकर भी इसी प्रकार के विवाद और भ्रम की स्थिति पैदा हो चुकी है । इसमें कोई दो राय नहीं है कि अमेरिका में योग सम्बंधी सामग्री, उपकरणों और कुछ पाठ्यक्रमोंके सम्बंध मेंपेटेंट, कॉपीराइट और ट्रेडमार्क दिए गए हैं । ये पेटेंट व कॉपीराइट योग सम्बंधी किताबों, वीडियो और आसनों की मिलती-जुलती मुद्राआें के भी हैं । लेकिन इसका यह मतलब नहीं लगाया जा सकता कि भारत के पारम्परिक ज्ञान पर पश्चिम के देशों ने डाका डाल दिया है । कहीं पर भी पारम्परिक योग के आसन करने पर कोई किसी से रायल्टी की मांग नहीं कर सकता है । अमेरिका में योग के बढ़ते दायरे का सम्बंध व्यावसायिकता से ज्यादा है । वैश्विक बाजार में हर योग केन्द्र व योग गुरू अपने को अलग दिखाना चाहता है (जैसे आयंगर योग, श्री श्री योग इत्यादि) इसलिए वे योग का सामान्य हिस्सा बने रहने की बजाय चाहते हैं कि उनके योग की एक विशिष्ट ब्रांड इमेज बने जिससे उन्हें अलग पहचान मिल सके । ऐसे कई मान्यता प्राप्त् केन्द्र हैं जहां प्रशिक्षित शिक्षक अपने विशिष्ट योग का प्रशिक्षण देते हैं । प्राचीन काल में भी योग की विभिन्न शाखाएं मिलती हैं, जैसे बिहारी योग । आज अंतर केवल यही आया है कि अपने विशिष्ट योग केंद्रों के प्रचार के लिए कॉपीराइट और ट्रेडमार्क का इस्तेमाल किया जाने लगा है । इस पूरे मामले में पेंच यह है कि योग देशी सीमाआें से परे जा चुका है । वह वैश्विक बन चुका है । ऐसे में विभिन्न योग गुरूआें को अपने योग की भिन्न-भिन्न विधाआंे को एक-दूसरे से अलग भी दिखाना है और प्रामाणिकता के लिए मूल योग की जड़ों से जुड़ाव भी बताना है । ऐसी स्थिति में बौद्धिक सम्पदा अधिकार का प्रयोग बढ़ना स्वाभाविक है । देखा जाए तो योग का एक चेहरा पारम्परिक है जो प्रामाणिक और प्राचीन ज्ञान को बढ़ावा देता नजर आता है, तो दूसरा चेहरा उत्तर आधुनिक है । जिसने उपभोक्ताआें की उपयोगिता के अनुरूप अपने को ढाल रखा है । इस प्रकार योग के अलग-अलग सदर्भोंा में अलग-अलग मतलब निकाले जा सकते हैं । मकसद बदलते ही योग का अर्थ भी बदल जाता है । इस प्रक्रिया में उपभोक्ता समाज की जरूरतों के मद्देनजर योग की मार्केटिंग में बौद्धिक सम्पदा अधिकार एक अहम भूमिका निभाता है । रूस, थाईलैंड, कनाड़ा, चीन सहित कई देशों में योग चटाई और अन्य साधनों के पेटेंट के लिए आवेदन किए गए हैं । इससे साफ है कि योग में लोगों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही है । इसके मद्देनजर अब एक ऐसी व्यवस्था बनाने की आवश्यकता भी महसूस की जाने लगी है जो इसकी प्रैक्टिस को सुव्यवस्थित कर सके । चूंकि योग की शिक्षा विभिन्न वर्गोंा के लोगों को उनकी अलग-अलग जरूरतों के हिसाब से दी जा रही है, इसलिए इसमें नवाचार की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता । योग के कई उपकरणों व सामग्री को पेटेंट दिया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इससे हमारे इस पारम्परिक ज्ञान के दुरूपयोग व अंधाधुंध व्यावसायिक इस्तेमाल के द्वार खुल गए हैं। हकीकत तो यह है कि योग के किसी भी आसन के लिए कोई पेटेंट नहीं दिया गया है । इसलिए योग उपकरणों व पाठ्यक्रमों को दिए गए पेटेंटों से भयभीत होने की कतई जरूरत नहीं है । यहां असली सवाल यह है कि ये नए-नए साधन कैसे योग को और लोकप्रिय बना सकते हैं । यह मानना नादानी होगी कि हमें पारम्परिक ज्ञान में संशोधन करने या उसमें नवाचार लाने की कोई जरूरत नहीं है । अगर कोई नवाचार पेटेंट की आधारभूत पात्रता को पूरा करता है तो उसे पेटेंट देने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, बशर्ते वह योग की प्रैक्टिस में मदद करे । योग की प्राचीन व मूल कला को हम तब तक नहीं जान सकते जब तक कि इस क्षेत्र में हुए छोटे-बड़े नवाचारों और पिछले कई सालों के दौरान प्रचलन मेंआई नई विधियों तथा विचित्र योग गुरूआें व संस्थाआें द्वारा दिए गए योगदान का सर्वे व अध्ययन नहीं कर लिया जाता । केवलशास्त्रों में लिखी गई बातों से ही योग की प्राचीन व मूल कला का निर्धारण नहीं किया जा सकता । योग के दुरूपयोग को रोकने के लिए इसकी प्राचीन कला को जानना बेहद अहम है । योग के क्षेत्र में नवाचारों को दिए गए पेटेंट से योग अपनाने वालों को आसानी हुई है । आवश्यकता आविष्कार की जननी है, यह सूत्रवाक्य अक्सर दोहराया जाता है । कई बार यह साबित भी हो चुका है कि कई आविष्कारों की प्ररेणा शक्ति उनका इस्तेमाल करने वाले लोग ही होते हैं । हालांकि अभी यह साफ नहीं हो पाया है कि योग संबंधी नवाचारों में उसके उपयोगकर्ताआें का कितना योगदान रहा है, लेकिन माना जा सकता है कि इनमें वे भी एक अहम प्रेरणा शक्ति रहे होंगे । ये नए साधन अभी तो योग करने में मददगार साबित हो रहे हैं, लेकिन यह भी संभव है कि भविष्य में ये ही योग में बदल जाएंगे, अभी यह भविष्वाणी करना संभव नहीं है । यहां यह भी पूजा जा सकता है कि क्या भारत में योग सम्बंधी सहायक प्रणालियां पहले से ही मौजूद थीं ? अगर थीं तो उनका क्या हुआ ? इस सम्बंध में अगर कोई अध्ययन किया जाए तो उस समय के योग सम्बंधी कई नवाचारों के बारे में पता चल सकेगा। योग पर कई पुस्तकों, सी.डी. और डी.वी.डी को कॉपीराइट मिला हुआ है । इन्हें कॉपीराइट देने का मतलब यह है कि इन पुस्तकों व सीडी-डीवीडी के संरक्षण के लिए पेटेंट दिया गया है, न कि उनमें बताए गए आसनों को । फीस्ट पब्लिके शंस इंकार्पोरेशन बनाम रूरल टेल सर्विस कंपनी के मामले में कहा गया था कि पुस्तक में वर्णित तथ्यों को कॉपीराइट नहीं दिया जा सकता, लेकिन उनका संग्रहण कॉपीराइट की पात्रता रखता है । यानी अगर किसी पुस्तक में किसी आसन का वर्णन किया गया है तो उसे व्यक्तिगत या सार्वजनिक तौर पर करना कॉपीराइट का उल्लंघन नहीं माना जाएगा । लेकिन उस पुस्तक की अनाधिकृत तौर पर प्रतियां बनाना या उन्हें बनाकर बेचना कॉपीराइट नियमों का उल्लंघन होगा । इसका मतलब यही है कि कॉपीराइट किसी विचार को व्यक्त करने के तरीकों का संरक्षण करता है, न कि उस विचार विशेष का । यहीं पर एक दिलचस्प सवाल भी उठता है - अगर कुछ आसनों को चुनकर उन्हें विशेष क्रम में संयोजित किया जाए और उन्हें विशेष परिस्थितियों में कुछ श्वास कसरतों के साथ करना तय कियाजाए तो क्या यह कॉपीराइट में आएगा ? क्या कॉपीराइट होल्डर से लाइसेंस लिए बगैर इन्हें सिखाना नियमों का उल्लंघन माना जाएगा ? इसे विक्रम योग मामले के जरिए समझा जा सकता है ? विक्रम योग २६ योग मुद्राआेंऔर दो श्वास कसरतों का ऐसा संयोजन है जो एक कक्ष में १०५ फेरनहाइट डिग्री तापमान पर किया जाता है । विक्रम योग के संस्थापक विक्रम चौधरी ने इसके लिए कॉपीराइट हासिल किया है । उन्होंने इसके उल्लंघन पर कड़ी कार्यवाही की भी चेतावनी दी । वर्ष २००२ में उन्होंने अपने ही दो पूर्व छात्रों किम रेरिबर व मोरिसन के खिलाफ अदालत में मामला दायर किया । उनका आरोप था कि श्रेरिबर व मोरिसन ने योग नियम का पालन नहीं किया । बाद में यह मामला अदालत के बाहर सुलटा लिया गया । लेकिन इसके बाद कई अन्य योग स्टूडियो व योग केन्द्रों को भी बिक्रम चौधरी की ओर से कानूनी नोटिस दिए गए । अंतत: योग पै्रक्टीशनर्स, योग स्टूडियो, संस्थानों और विधिक प्रोफेशनल्स ने चौधरी की धमकियोंका सामना करने के लिए संगठन ओपन सोर्स योगा यूनिटि (ओएसवाइयू) का गठन किया । जुलाई २००३ मेंउन्होंने बौद्धिक सम्पदा नियमों की उल्लंघन सम्बंधी धमकियों से राहत पाने के लिए चौधरी के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया । ओएसवाईयू के मुताबिक उसका मिशन योग को सार्वजनिक सम्पत्ति बनाए रखने की दिशा में प्रयास करना है ताकि उस पर किसी एक व्यक्ति या संस्था विशेष का अधिकार न हो । लेकिन अचानक मई २००५ में दोनों पक्षों ने अदालत के बाहर एक समझौता कर लिया और उसके बाद ओएसवाईयू ने बिक्रम योग के कॉपीराइट की वैधता को चुनौती नहीं दी । उसका मिशन एक तरह से मजाक बनकर रह गया क्योंेकि योग की सार्वजनिकता को बनाए रखने में उसने अपनी ओर से कुछ नहीं किया । लेकिन योग के संबंध में बौद्धिक अधिकार की महत्ता से इंकार नहीं कियाजा सकता है 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पर्यावरण समाचार

देश में ८२ पक्षी प्रजातियों पर विलुिप्त् का खतरा

बड़े पैमाने पर हो रही जंगलों की कटाई, बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप और शिकार के चलते भारत में पक्षियों की ८२ प्रजातियां विलुप्त् होने के कगार पर हैं । देश ही नहीं बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर के संगठन और पक्षी विज्ञानी भी प्रकृति के इन डाकियोंकी कम होती संख्या को लेकर चिंतित हैं । विलुप्त्प्राय जीव जंतुआें को लेकर काम करने वाले अंतरर्राष्ट्रीय संरक्षण संघ आइ्रयूसीएन : को रेड लिस्ट के मुताबिक भारत मेंपक्षियों की १२२८ प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से लगभग ८२ विलुप्त् होने के कगार पर हैं । इस सूची में कहा गया है कि सफेद सिर वाली बतख, ऑक्सीउरा, ल्यूसेफाला:, कैरिना स्कलचुलाटा, गे्रेट इंडियन बस्टर्ड, बंगाल फ्लोरिकन, लेजर फ्लोरिकन तथा गिद्ध प्रजातियों एजीपियस मोनाचुस,जिप्स बेंगालेंसिज, जिप्स इंडिकस, जैसे पक्षियों की बहुत सी प्रजातियों को आज अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा है । इनमें से बहुत से पक्षी तो अब देखने को भी नहीं मिलते जिससे पारिस्थितिकी असंतुलन का खतरा है । आईयूसीएन के अनुसार इन पक्षियों के विलुप्त् होने का कारण जहां जंगलों की तेजी से हो रही कटाई है, वहीं शिकार ओर प्राकृतिक आवासों में बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप भी इन्हें मौत की नींद सुलाने का काम कर रहा है । साइबेरियाई सारस, जेर्डन्स कासेर्सर, फॉरेस्ट ऑलेट, ओरियंटल स्टोर्क ग्रेटर एडयूटेंट प्रजाति के पक्षी भी धीरे-धीरे विलुप्त् होते जा रहे हैं। पक्षी विज्ञानियों का कहना है कि आज जिस तरह से पक्षियों का सफाया हो रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पारिस्थितिकी डगमगाने की आरे है जिसका मानव जीवन पर असर पड़ेगा । गिद्धों की मौत को लेकर अध्ययन करने वाले एचके प्रसाद का कहना है कि पशुआें के शवों को ठिकाने लगाने वाला यह पक्षी तेजी से विलुप्त् हो रहा है । इस पक्षी की मौत के लिए पशुआें को लगाया जाने वाला दर्द निवारक इंजेक्शन जिम्मेदार है जिसकी दवा पशुआें की मांसपेशियों में जमा हो जाती है ओर पशु के मरने पर जब गिद्ध उसे खातेहै तो यह दवा गिद्धों के शरीर में भी पहुंच जाती है । इस दवा के चलते गिद्धोंकी शारीरिक प्रणाली धीरे-धीरे काम करना बंद कर देती है और वे अकाल मौत मर जाते हैं । खेतोंमे इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशकों के चलते राष्ट्रीय पक्षी मोर के अस्तित्व पर भी संकट पैदा हो गया है । ***