शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

प्रदेश चर्चा

म.प्र. : बांध की त्रासदी के पचास बरस
विमल भाई

चम्बल घाटी विकास परियोजना के सबसे बडे बांध गांधीसागर बांध के निर्माण के ५०वर्षोंा के बाद भी गांधीसागर बांध प्रभावित विस्थापितों की स्थिति बहुत ही निराशाजनक है । पुनर्वास स्थलों की स्थिति बद्तर है । विस्थापित कर्जे में हैं ।
पिछले दिनों गांधीसागर बांध की अर्द्ध शताब्दी पर इस बांध से विस्थापित समुदाय ने मूल्यांकन सम्मेलन का आयोजन मध्यप्रदेश के रामपुरा (जिला-मंदसौर) में किया । बांध का शिलान्यास और उद्घाटन दोनों ही तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किए थे । बांध निर्माण की शर्तोंा के कारण जहां एक ओर मध्यप्रदेश का मालवा क्षेत्र रेगिस्तान में बदल रहा है वहीं राजस्थान के एक क्षेत्र में प्रयोग के तौर पर धान की खेती प्रारंभ की गयी है ।
आज गांधीजी नजर नहीं आते वरना हम उनसे अपना दुख कहते और वे जवाहरलाल से मिलते तो उनसे कहते कि इस बांध को बम से उड़ा दो । बनड़ा पंचायत की दलित महिला डाली बाई का यह कथन गांधीसागर बांध प्रभावितों की संपूर्ण व्यथा को संक्षेप में बता देता है ।
चम्बल घाटी विकास परियोजना के सबसे बडे बांध गांधीसागर बांध के निर्माण के ५०वर्षोंा के बाद भी गांधीसागर बांध प्रभावित विस्थापितों की स्थिति बहुत ही निराशाजनक है । पनुर्वास स्थलों की स्थिति बद्तर है । विस्थापित कर्जे में हैं ।
ये स्थितियां इस दावे को झुठलाती हैं कि बांध से विस्थापितोंको भी लाभ मिला है । पुनर्वास स्थलों में दलित या पिछड़ी जाति के लोगों की स्थिति दंयनीय है । वे कर्ज में डूबे हैं जिसका कारण यह है कि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधाएं नहीं है । इनके स्वास्थ्य गिरे हुए हैं तथा शिक्षा का स्तर भी बेहद पिछड़ा हुआ है । यहां के समुदायों का पीढ़ियों से संचित ज्ञान के आधार पर अर्जित सम्मान - सम्पत्ति सबकुछ गांधीसागर बांध मेंसमा चुका है ।
बांध निर्माण के समय कोई व्यवस्थित पुनर्वास नीति भी नहीं थी । लोगों को जो भी मिला उन्होंने ले लिया । सिर्फ २२८ गांव में से ८ लोगों ने अदालत में अपील की तो उन्हें कुछ ज्यादा मिल पाया । पिछड़ वर्ग के जैसे घनगड़, बैरवाल आदि सदस्य तो मजदूर बनकर रह गये हैं । पुनर्वास स्थलों के खेत भी अब धीरे-धीरे बाहर के लोगोंके हाथ में आ गए हैं । इनका मूल स्वामी या तो मजदूर बन गया या अधिया पर जमीन लेकर काम करता है । कई लोगों ने जमीन के बदले जमीन तो मिली किन्तु इसमें से ज्यादातर जमीन पड़त या मालेडी थी । इसके आबंटन में भी धोखाधड़ी हुई । कुल७५५०० एकड़ जमीन को डूब में बताया गया और कहा गया कि ५४००० एकड़ जमीन विस्थापितों को उपलब्ध कराई गई । किन्तु आंकड़े बताते हैं कि वास्तव में मात्र १२००० एक ड़ जमीन ही विस्थापितों को मिली ।
पट्टे की कहानी - चूँकि मध्यप्रदेश शासन ने बांध को क्षमता से ऊँचा बना दिया है इसलिए यह पांच-छ: साल में एक बार ही भर पाता है । अतएव प्रतिवर्ष बांध की पूर्ण क्षमता व वास्तविक जलभराव के बीच की जमीनें विस्थापितों को पट्टे पर दी जाती हैं । पट्टा देने की यह कवायद काफी भ्रष्टाचार पूर्ण है । चूंकि पट्टे प्रतिवर्ष दिए जाते हैं और जमीन की नाप जोख से लेकर लगान तक के लिए विस्थापित को भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों की ओर ताकना पड़ता है । प्राय: यह कोशिश होती है कि पट्टे विस्थापितों को न देकर किसी बाहर के व्यक्ति को दिये जायें । कई मामलों में जिस गांव की जमीन खुलती है पट्टे उस गांव के विस्थापित को न देकर दूसरे गांव के विस्थापित को दे दिये जाते हैं । इस तरह विस्थापितों को आपस में ही लड़ाने की चाल होती है ।
खुलती जमीन की खास कर के आंशिक डूब के विस्थापितों का जीविका आधार है इसलिए जमीन को लेने के लिए हर तरह की कोशिशेंकी जाती है । वैसे तो मध्यप्रदेश के शासनादेश में लिखा है कि पट्टे एक वर्ष से दस वर्ष तक दिये जा सकते हैं । ऐसा भी होता है कि पट्टे किसी आदिवासी के नाम कर दिये जाते हैं लेकिन वास्तव में उसका मालिक कोई प्रभावशाली व्यक्ति होता है । पट्टे वितरण जनवरी में होते हैं और बुआई करनी पड़ती है अक्टूबर-नवंबर में । नतीजा होता है कि कई बार जो जमीन बोता है पट्टे उस के नाम न होकर किसी दूसरे के नाम होते हैं और वो खड़ी फसल काट के दूसरी बोता है । विस्थापित हर साल इन स्थितियों का सामना करते हैं । मुकदमें बनते हैं और लोग जेल जाते हैं ।
रामपुरा महाविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्राध्यापक डॉ.रामप्रताप गुप्त बताते हैंकि गांधीसागर बांध से मध्यप्रदेश निवासियों को पानी लेने पर पाबंदी थी फलस्वरूप वहां के तालाबों पर कब्जे हुए । तालाब उथले हुए, सिंचाई का कोई अन्य साधन न होने के कारण लोगों ने जमीन के नीचे पानी इस्तेमाल किया । इससे जलस्तर काफी नीचे चला गया है । आज भी लोगों को जलाशय से पानी लेने पर पाबंदी है । थोड़ा बहुत समझौता कर कुछ लोग दूर से पाइप द्वारा पानी ले भी लेते हैं ।
आंशिक डूब के गांव की स्थिति - अब डूब की खेती के लिए उन्हींविस्थापितों को पट्टा मिलता है, जो मंदसौर-नीमच जिले में ही बसे हैं । मंदसौर नीमच जिले में ही विस्थापितों की डूबी ७२००० एकड के बदले गांधी सागर बांध के अधिकारियों ने मात्र १२००० एकड की ही व्यवस्था की तो स्वाभाविक ही था कि विस्थापित जिले से बाहर जहां भी भूमि मिली वहीं जाकर बसे ।
मध्यप्रदेश से भी यह अन्याय है कि आवश्यकता से करीब दुगनी क्षमता वाले इस बांध की ऊँचाई १३१२ फूट रखी गई है । इसके कारण अनावश्यक विस्थापन हुआ
है । एक अनुमान के अनुसार अब भी ५० हजार एकड़ भूमि डूब से मुक्त हो सकती है । चम्बल परियोजना द्वारा दोहन किए जाने वाले कुल पानी का ८३ प्रतिशत भाग गांधीसागर बांध से प्राप्त् होता है । कुल परियोजना में मध्यप्रदेश का योगदान भी ८३ प्रतिशत है और राजस्थान का १७ प्रतिशत है ।
बांध की शर्तोंा के मद्देनजर मध्यप्रदेश के मालवा के आठों जिलों की ४० लाख आबादी सतही जल स्त्रोतों के दोहन से वंचित कर दी गई है । चम्बल परियोजना के अंतर्गत मध्यप्रदेश को गांधीसागर बांध के २२,५०० वर्ग कि.मी. क्षेत्र के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के दोहन के लिए छोटे-छोटे बांध, तालाब, रोक बांध आदि के निर्माण पर पाबंदी लगा दी गई थी । अतएव १९६० के बाद सरकार ने न तो नए तालाब आदि बनाए न पुरानोंकी देखभाल की । परिणामस्वरूप किसी समय पर धन धान्य से परिपूर्ण एवं अनाज आदि की मण्डियों से भरपूर मालवा का यह अंचल आज पानी की कमी झेल रहा है । पुराने किसान बताते हैं कि मालवा क्षेत्र का भूजल स्तर आज ३० से ८० फुट नीचे जा चुका है ।
जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के जल के दोहन पर लगाया गया प्रतिबंध गांधीसागर में पानी की आवक में वृद्धि करने अथवा उसे बनाए रखने के उद्देश्य को भी पूरा करने में असमर्थ रहा है । बांध के कारण मध्यप्रदेश से पानी का निर्यात हुआ और मालवा सूखा हुआ । पानी की कमी के कारण मिट्टी में आर्द्रता की कमी हुई जिससे मालवा की काली मिट्टी की पहली परत भूक्षरण के कारण धीरे-धीरे खत्म हो रही है ओर अब तो मालवा के मरूस्थल बनने की सम्भावना है । गांधीसागर बांध विस्थापितों पर पार्वती, कालीसिन्ध व चम्बल नदी जोड़ के संभावित दुष्परिणाम भी सामने आएंगे ।
यदि कालीसिन्ध व चम्बल नदी जोड़ का पानी गांधीसागर में डाला जाता है तो जलस्तर बढ़ जाएगा, जिससे हजारों एकड़ जमीन पूरी तरह स्थाई डूब में आ जायेगी और इस उपजाऊ जमीन पर आश्रित परिवार भी पूरी तरह कंगाली और बदहाली की स्थिति में पहुंच जायेंगे । इससे पलायन बहुत तेजी से बढ़ेगा । रामपुरा शहर जो आजादी से पहले स्थानीय राज्य की राजधानी हुआ करता था वह अब टप्पा तहसील बनकर रहा गया है । इस प्रक्रिया से तो वह समािप्त् की कगार पर ही पहुंच जायेगा ।
देवरान गांव के पूर्व सरपंच बद्रीलाल ने बहुत दु:ख से बताया कि यदि बांध पूरा भरता है तथा चंबल में अतिरिक्त पानी आता है तो गांधीसागर से खुलने वाली जमीन नहीं खुलेगी और हमारी स्थिति बहुत खराब हो जायेगी । क्योंकि हम खुलती जमीन पर ही आश्रित हैं । ऊपर मिली जमीन पहाड़ की जमीन है जिस पर सिर्फ घास पैदा होती है । आज पानी हमारे नीचे जलाशय में
भरा पड़ा है । अनेक गांव तीन तरफ पानी से घिरे हैं । इन गांवों की ७५ प्रतिशत जमीन पानी में डूब गई है और शेष २५ प्रतिशत ही बची है । लोटवास गांव के अमरलाल मेघवाल ने कहा कि अतिरिक्त पानी भरने से तो अच्छा है कि हमें तोप से उड़ा दो । क्या इसे ही हम विकास का मापदंड
मानेंगे ? नदी जोड़ की तथाकथित सुदंर कल्पना में क्या अमरलाल मेघवाल की व्यथा सुनी जाएगी ?
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