गुरुवार, 22 दिसंबर 2016


प्रसंगवश
लगता है त्रासदी कल की ही बात है 
 घनश्याम सक्सेना 
पिछले दिनों भोपाल गैस त्रासदी की ३२वीं बरसी मनायी गई । यह अवधि इतनी होती है कि इसमें एक पूरी पीढ़ी युवा हो जाती है । अत: भोपाल को अभी तक अपने जख्म भूल जाने चाहिए थे, पर गैस-पीड़ितो की पीड़ा देखो तो लगता है, त्रासदी अभी कल ही की बात है । यह इसलिए कि उनके पुनर्वास के वैसे प्रयास नहींकिए गए, जैसे होने चाहिए थे । 
हम दोष भी किस-किस को दें ? मृतकों के लिए अमेरिकी मानदंडों से मुआवजा मांगना तो दूर, हमने तो ४५०० करोड़ रूपए के दावे के बजाय मात्र ४७ करोड़ डालर यानी ७१५ करोड़ रूपए का प्रस्ताव सर्वोच्च् न्यायालय को दे दिया और वह भी त्रासदी के पांच साल बाद । अदालतेंबनाने और मुआवजा तय करने में इतनी लंबी अवधि लगी कि अमेरिका से मिलने वाले धन के संदर्भ  में देखें, तो डालर उछलता गया, रूपया निरंतर गिरता   गया । अत: जो मिला  उसकी कीमत भी कम हो गई । 
इस प्रकार, कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका, तीनों ने मिलकर गैस-पीड़ितों के प्रति घोर अन्याय किया । जो गैस-पीड़ित आज जीवित हैं, उनका पुनर्वास पूरी व्यवस्था को कोस रहा है । फिर, त्रासदी के प्रसंग में अनेक सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं । मसलन-यूनियन कार्बाइड जैसी विषैली गैस की फैक्ट्रीको लगाने की अनुमति आखिर क्यों दी गई ? पर्यावरण की सुरक्षा के मानदंड सुनिश्चित क्यों नहीं किए गए और समय-समय पर इस उपक्रम की निगरानी क्यों नहीं की गई ? प्रारंभ में यह फैक्ट्रीनगर के बाहर थी, मगर कुनियोजित विस्तार के नतीजतन बस्ती को उसके पास तक पहुंचने की अनुमति आखिर क्योंदी गई ? यदि वहां तक बस्ती पहुंच गई थी तो फैक्ट्री को क्यों स्थानांतरित नहीं किया गया, नगर से बाहर ? फिर, त्रासदी की उस रात आपदा प्रबंधन की व्यवस्था क्यों फेल थी ? कार्बाइड के शीर्षस्थ प्रबंधक वारेन एंडरसन को भोपाल से क्योंजाने दिया गया ? अब तो जिन तत्कालीन प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव को जवाबदार बताया जा रहा है, वे स्वर्गवासी हो चुके  है । मुआवजे के मामले में अदालतों के गठन, राशि-निर्धारण व वितरण में अत्याधिक देरी क्यों की गई ? ऐसे अनेक सवाल है ।         
सम्पादकीय 
देश में बाघों की संख्या में ३० फीसदी की बढ़ोतरी  
दुनिया में बाघों की आबादी घट रही है लेकिन हमारे देश में बढ़ रही है । भारत में दुनिया के कुल ७० फीसदी बाघ रहते हैं । देश में बाघों को सुरक्षित रखने के दुनिया के सबसे अच्छे तरीके अपनाए जा रहे हैं। 
भारत में बाघों की तादाद बढ़ी है । पिछले चार वर्षोंा में भारत में बाघों की संख्या में ३० फीसदी की वृद्धि हुई है । दुनिया में अब सिर्फ ३२०० बाघ बचे हैं और उनमें आधे से ज्यादा भारत में हैं । बाघों की गिनती करने वाले अधिकारियों का कहना है कि २०१० में भारत में १७०६ बाघ थे लेकिन अब उनकी संख्या बढ़कर २२२६ हो गई है । तेज आर्थिक विकास चाह रहा भारत जंगली जानवरों के अवैध शिकार के अलावा जंगलोंके कम होने और जंगली जानवरोंके रहने की जगह खत्म होने की समस्या का भी सामना कर रहा है । देश में विलुप्त् होने के खतरे मेंपड़े जानवरों को शिकारियों और तस्करों से बचाने के लिए अभियानों में तेजी आयी है । 
दुनिया भर में तेजी से घटते बाघों का आधा से ज्यादा हिस्सा भारत में रहता है । एक अनुमान के अनुसार सौ साल पहले दुनिया में १००००० से ज्यादा बाघ थे जो अब ३२०० ही रह गया हैं । भारत ने राष्ट्रीय पशु की रक्षा के लिए कार्यक्रम शुरू किए हैं ताकि उन्हें विलुप्त् होने से बचाया जा सके ।बाघों की गिनती के लिए ९७०० कैमरे लगाए गए थे । अधिकारियोंके मुताबिक बाघों की आबादी वाले १८ राज्यों में ३७८००० वर्ग किलोमीटर इलाके में सर्वेक्षण किया गया । यहां बाघों की १५४० तस्वीरें ली गई । देश में कर्नाटक, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु और केरल में बाघों की संख्या बढ़ी हैं । इसके बावजूद भारत अभी भी २००२ के ३७०० के आंकड़े  को छू नहीं पाया है । अनुमान है कि भारत की आजादी के समय १९४७ में देश में बाघों की संख्या ४०००० के करीब थी । भारत में हर चार साल पर बाघों की संख्या का आंकलन किया जाता है । बेहतर सुरक्षा की वजह से टाइगर रिजर्वोंा में बाघों के प्रजनन के मामलों में वृद्धि हुई है ।  
सामयिक
पृथ्वी की बोझा ढोने की सीमा
विनींता विश्वनाथन 
भूविज्ञान की दृष्टि से हम होलोसीन युग में हैं जो पिछले हिमयुग से चला आ रहा है । हर युग के कुछ ख्रास गुण होते हैं और इस युग में हमारे ग्रह पर काफी स्थिर परिस्थितियां बनी रही हैं । शायद यही कारण है कि मनुष्य इतनी सफलता से पृथ्वी पर चारों और फैल पाए । 
किसी भी प्रजाति या आबादी का अपने पर्यावरण पर कुछ-न-कुछ असर तो होता ही है, लेकिन मनुष्यों के कारण कुछ सदियोंसे हमारा ग्रह कुछ ज्यादा ही बदल रहा है । हमारी बढ़ती आबादी, उसके द्वारा संसाधनों का बढ़ता उपयोग और हमारे विभिन्न कार्योंा से उत्पन्न प्रदूषण के कारण हम अपने पर्यावरण में कई ऐसे परिवर्तन ला रहे हैं जो हमारे लिए ही नहीं, अन्य जीवों के लिए भी असहनीय साबित हो रहे हैं । इनमें से कई बदलाव ऐसे हैं जिन्हें पलटा नहीं जा सकता और ऐसे में हमारे लिए एक निर्वाह-योग्य जीविका मुश्किल लग रही है । 
बदलावों को एकदम से रोकना आसान नहीं है । इसमें काफी मेहनत और धन लगाना होगा और साथ ही अपने व्यवहार, अपनी जीविकाआें को भी बदलना होगा । ऐसे में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हम कितना बदलाव लाकर भी पृथ्वी को सुरक्षित परिस्थितियों में रख सकते हैं, होलोसीन को जारी रख सकते हैं ? 
इस सवाल के जवाब में २००९ में २८ वैज्ञानिकों के एक समूह ने ९ प्रक्रियाआें को चिन्हित किया था जो हमारे लिए सूचक बन सकती है । ये प्रक्रियाएं है - जलवायु परिवर्तन, जमीन व समुद्रोंमें जैव विविधिता विनाश की दर, नाइट्रोजन व फॉस्फोरस चक्र में फेरबदल, समतापमंडल में ओजोन की कमी, समुद्रों का अम्लीकरण, वैश्विक स्तर पर मीठे पानी का उपयोग, भूमि उपयोग में बदलाव, रासायनिक प्रदूषण और वायुमण्डल में निलंबित कणों की मात्रा ।
समूह ने इन प्रक्रियाआें की दहलीज, यानी वे मात्राएं जिनको पार करना हमारे लिए खतरनाक साबित हो सकता है, का भी आकलन   किया । इन प्रक्रियाआें की दहलीज को ग्रह की सीमाएं कहते हैं । ये हमारे लिए एक किस्म के सुरक्षित परिचालन के दायरे हैं जिसमें हम कई पीढ़ियों तक कुशलतापूर्वक रह सकते हैं । और २००९ में ही वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि इनमें से तीन (जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता नाश की दर और नाइट्रोजन चक्र) की दहलीजें हम पार चुके    हैं । 
जब ग्रह की सीमाएं प्रस्तावित हुई थी तो कई लोगों ने उनका स्वागत किया था । शायद यह एक तरीका था यह जानने का कि विकास की अपनी आकांक्षाआें को हम सीमित संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए कैसेसहारा दे सकते हैं, लेकिन कुछ आलोचनाएं भी थीं । इनमें से एक थी कि वैश्विक स्तर पर के आंकड़ों को हम स्थानीय स्तर पर कैसे समझे । उदाहरण के लिए, वैश्विक स्तर पर जैव-विविधता विनाश की दर या प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर हमेंस्थानीय स्तर पर होने वाली प्रक्रियाआें के बारे मेंज्यादा कुछ बताती नहीं है । 
कुछ लोगों को एक दिक्कत यह थी कि ये आंकड़े-अत्यन्त दृढ़ता से पेश किए जा रहे थे - उनकी निश्चयात्मकता पर चर्चा होनी चाहिए । और फिर जरूरी नही है कि हर प्रक्रिया की कोई दहलीज हो । कई प्रक्रियाएं ऐसी भी हो सकती हैं कि हर स्तर पर उनका कुछ-न-कुछ असर होता है ।
इन सब और अन्य कमियों को ध्यान में रखते हुए २०१५ में वैज्ञानिकों ने अपने शोध को अपडेट किया और उनके नतीजोंमें एक महत्वपूर्ण बात यह निकली कि किसी भी जगह पर १० प्रतिशत से ज्यादा प्रजातियों को खोना स्थानीय इकोसिस्टम के लिए दिक्कतें पैदा कर सकता है । इसके बाद २०१६ में आज तक का सबसे व्यापक विश्लेषण किया गया, जिसमें ३९ हजार प्रजातियों के १८ करोड़ से भी ज्यादा रिकॉर्डस को शामिल किया गया । इसका निष्कर्ष है कि पृथ्वी की ५८ प्रतिशत भूमि स १० प्रतिशत से ज्यादा प्रजातियां विलुप्त् हो चुकी  है । इन प्रजातियों के साथ इकोसिस्टम में उनकी क्रियात्मक भुमिकाएं खत्म हो सकती है । किसी इकोसिस्टम में हरेक प्रजाति कोई ने कोई भूमिका निभाती है - जैसे फसलों व जंगली पौधों का परागण, कीटों का सफाया इत्यादि । रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि किसी भी दहलीज को पार करने का मतलब नहीं है कि तुरन्त ही सब कुछ तबाह हो जाएगा लेकिन स्थिति गडबडाने की संभावना काफी बढ़ जाती है । 
ऐसे शोध से हमें सटीक आंकड़े शायद न मिले, लेकिन मात्र इस वजह से हमें इन नतीजों को नजरअंदाज कदापि नहीं करना  चाहिए । ये वैज्ञानिक चाहते हें कि सभी देशों के नीति निर्माता इस शोध को तवज्जों दें और गंभीरता से सोंचे कि भूमि और अन्य संसाधनों का कैसे इस्तेमाल किया जाए । 
हमारा भूमण्डल
राष्ट्रों को श्रीहीन करते कारपोरेशन
निका नाइट
कारपोरेटों (बहुराष्ट्रीय निगमों) की बढ़ती ताकत और आकार राष्ट्रों को अर्थहीन बनाते जा रहे हैं । यदि समय रहते इन पर लगाम न लगाई गई तो यह राष्ट्रों की संप्रभुता को नष्ट कर देंगे एवं एक बार पुन: दुनिया पर ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का राज हो जाएगा ।
ब्रिटेन स्थित ``ग्लोबल जस्टिस नाऊ`` द्वारा जारी किए गए नए आंकड़ों के अनुसार कारपोरेशन (निगम) ही इस दुनिया को चला रहे हैं। इस आर्थिक एवं सामाजिक न्याय पैरवी समूह ने पाया कि सबसे बड़े १०(दस) कारपोरेशन विश्व के अधिकांश देशांे को यदि एक साथ मिला दिया जाए तो उनसे भी ज्यादा समृद्ध हैं। ग्लोबल जस्टिस नाऊ आंदोलन की नीति अधिकारी, आएशा डोडवेल ने लिखा है, ``यदि आज दुनिया की सबसे समृद्ध १०० आर्थिक इकाइयों का मूल्यांकन करेंगे तो हम पाएगंे कि अब उनमें से ६९ बड़े कारपोरेशन हैंऔर महज ३१ देश हैं। पिछले साल यह अनुपात ६७ : ३७ था । अगर यह अंतर इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो एक पीढ़ी (करीब ३० वर्ष) के अंदर इस पूरी दुनिया पर इन विशाल कारपोरेशनों का पूरा आधिपत्य हो जाएगा । 
वस्तुत: शैल, एप्पल और वालमार्ट जैसी महाकाय बहुराष्ट्रीय कंंपनियों में से प्रत्येक का राजस्व विश्व के १८० ``निर्धनतम`` देशों से अधिक है । इन देशों में संयुक्त रूप से आयरलैंड, ग्रीस, दक्षिण अफ्रीका और कोलंबिया शामिल हैं। इन दस सर्वोच्च् कंपनियों का संयुक्त मूल्य २.९ अरब डॉलर है जो कि चीन की अर्थव्यवस्था से भी ज्यादा है। वालमार्ट जो कि विश्व का सबसे बड़ा कारपोरेट है की कुल कीमत ४८२ अरब डॉलर है जो कि इसे स्पेन, आस्ट्रेलिया व नीदरलैंड (अलग-अलग) से अधिक अमीर बना देती है ।
ग्लोबल जस्टिस नाऊ के निदेशक निक डियरडेन का कहना है, कारपोरेशन (निगमों) की अथाह संपदा और ताकत ही विश्व की अनेक समस्याओं की जड़ में है। अल्पावधि की लाभ की आकांशा इस ग्रह पर निवास कर रहे करोड़ों लोगों के मानवाधिकार से खिलवाड़ कर रही है। आंकड़े बता रहे हैंकि स्थितियां दिनोंदिन बद्तर होती जा रही हैं। हमें इस बात को लेकर चिंतित होना चाहिए कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन क्षेत्रों में भी अत्याधिक प्रभुत्व जताती जा रही हैंजिन्हें कि पांरपरिक तौर पर राज्य का प्राथमिक क्षेत्र माना जाता था । 
एक ओर वे शिक्षा से स्वास्थ्य तक और सीमाओं के नियंत्रण से लेकर जेलखानों तक का निजीकरण कर रहे हैंवहीं दूसरी ओर अपने लाभ को आफशोर (बाहरी देशांे) गुप्त खातों में जमा करते जा रहे हैं। इतना ही नहीं निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी असाधारण पहुंच बन गई है और वे गुप्त न्यायालय बनाकर उस पूरी न्याय प्रक्रिया की अनदेखी कर रहे हैं, जो कि सामान्य लोगों पर लागू है । उनकी इस असाधारण वृद्धि के परिणामस्वरूप पर्यावरण विध्वंस हो रहा है और जलवायु परिवर्तन सामने आ रहा है। किसी कारखाने में गुलामों जैसी कार्य परिस्थितियां से लेकर बी पी (ब्रिटिश पेट्रोलियम) के तेल कुंओं में रिसाव से लोगों के घर की बर्बादी, जैसी कारपोरेशनों की मनमानियों की कहानियां हम अक्सर पढ़ते हैं।
ग्लोबल जस्टिस नाऊ का कहना है, ``इस समय इन आंकड़ों को इसलिए जारी किया गया है जिससे ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाला जा सके कि इक्वाडोर की अध्यक्षता में सं रा. कार्यसमूह द्वारा प्रस्तावित रिपोर्ट में वह इस तरह की बाध्यकारी संधि की स्थापना हेतु दबाव डाले जिससे कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह बहुराष्ट्रीय कारपोरेशन इस संधि से बाध्य होकर मानव अधिकारों की पूरी जवाबदेही को स्वीकारें । वैसे ब्रिटेन ने कभी भी इस प्रक्रिया का समर्थन नहीं किया है और पूर्व में बार-बार इस प्रस्ताव पर वीटो करता रहा है और इस प्रस्ताव का विरोध भी किया है । डीयरडेन का कहना है,`` ब्रिटिश सरकार ने करों के ढ़ांचे, व्यापार समझौतों और बड़े व्यापारियों की मदद हेतु कार्यक्रमों के माध्यम से कारपोरेशन की ताकत बढ़ाने में मदद ही की है । 
अमेरिका-यूरोप ट्रांस-अटलाटिंक ट्रेड एवं इन्वेस्टमेंट पार्टनरशिप (टी टी आई पी) सरकार द्वारा बड़े व्यापारों को मदद पहुंचाने का नवीनतम उदाहरण है। इतना ही नहीं उसने बहुत ही अगरिमापूर्वक ढंग से नियमित तौर पर सं. राष्ट्र संघ में विकासशील देशों के उन प्रस्तावों का विरोध किया है जिनमें उन्होंने कारपोरेशनों द्वारा अपने यहां पर मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात कही गई थी । 
साथ साथ नवीनतम आंकड़ें दर्शाते हैंकि कारपोरेशनों ने किस हद तक इस पूरे विश्व में अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है । ग्लोबल जस्टिस नाऊ  ने अब एक याचिका जारी की है जिसमें ब्रिटिश सरकार से कहा गया है कि वह संयुक्त राष्ट्र संघ को एक ऐसी बाध्यकारी संधि को अपनाने में मदद करे जो कारपोरेशनों को इस बात के लिए बाध्य कर सके कि वे विश्वभर में मानवाधिकारों का सम्मान करें । यह संधि १२ अक्टूबर के ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के नेताओं को सौंप दी गई है । डोडवेल का कहना है, ``हालांकि कारपोरेट ताकत के खिलाफ लड़ाई बहुआयामी है और सं. राष्ट्र संधि उसका केवल एक हिस्सा है । 
ठीक इसी समय यह भी आवश्यक है कि हम अपनी आवश्यकताओं से संबंधित वस्तुओं को तैयार करने, वितरण करने एवं सेवाओं संबंधी वैकल्पिक रास्ते विकसित करें । हमें इस धारणा को तोड़ना होगा कि केवल विशाल कारपोरेशन ही अर्थव्यवस्था और समाज को ``सुचारु रूप से चला`` सकते हैं । विल्पि यह है कि हम उस कारपोरेट ताकत जिसे अब तक चुनौती नहीं दी गई है, के आत्मघाती विचार को चुनौती दें । \
विशेष लेख
पीने योग्य शक्तिवर्धक पानी कैसाहो ?
डॉ. चंचलमल चौरड़िया

हवा के पश्चात् शरीर में दूसरी सबसे बड़ी आवश्यकता पानी की होती है । पानी के  बिना जीवन लम्बे समय तक नहीं चल सकता ।  
शरीर में लगभग दो तिहाई भाग पानी का होता है । शरीर के अलग-अलग भागों में पानी की आवश्यकता अलग-अलग होती है । जब पानी के आवश्यक अनुपात में असंतुलन हो जाता है तो, शारीरिक क्रियाएँ प्रभावित होने लगती है ।
हमारे शरीर में जल का प्रमुख कार्य भोजन पचाने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं में शामिल होना तथा शरीर की संरचना का निर्माण करना होता है। जल शरीर के भीतर विद्यमान गंदगी को आंखों से आंसुओं, नाक से श्लेषमा, मुँह से कफ, त्वचा से पसीने एवं आंतों से मल-मूत्र द्वारा शरीर से बाहर निकालने में सहयोग करता है । शरीर में जल की कमी से कब्ज, थकान, ग्रीष्म ऋतु में लू आदि की संभावना रहती है। जल के कारण ही हमें, छ: प्रकार के रसों-मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा, तीखा और कषैला आदि   का अलग-अलग स्वाद अनुभव होता है । 
शरीर का तापक्रम नियन्त्रित होता है। शारीरिक शुद्धि के लिए भी जल आवश्यक होता है । शरीर के निर्माण तथा पोषण में अपनी अति-महत्वपूर्ण भूमिका के कारण किसी भी परिस्थिति अथवा रोग में पानी पीना वर्जित नहीं होता है। अत: हमें यह जानना और समझना आवश्यक है कि हम कैसा पानी पीये और कैसा पानी न पीये । पानी का उपयोग   हम कब और कैसे करे ? पानी कितना, कैसा और कब पीये ?   पानी का उपयोग कब और कैसे न करें ?
पानी अपने सम्पर्क में आने वाले विभिन्न तत्वो को सरलता से अपने अन्दर समाहित कर लेता है। चुम्बक, पिरामिड के प्रभाव क्षेत्र में पानी को कुछ समय तक रखने से उसमें चुम्बकीय और पिरामिड ऊर्जा के गुण आ जाते है । सोना, चांदी, तांबा, लोहा आदि बर्तनों अथवा धातुओं के सम्पर्क  में पानी को कुछ अवधि तक रखने से पानी संबंधित धातु के गुणों वाला बन जाता है। रंगीन बोतलों को पानी से भरकर सूर्य की धूप में रखने से पानी संबंधित रंगों के स्वास्थ्यवर्धक गुणों से परिपूर्ण होने लगता है। इसी प्रकार मंत्रों द्वारा मंत्रित करने, रत्नों एवं क्रिस्टल के सम्पर्क से पानी उनसे प्रभावित हो जाता है । 
अत: यथासंभव पीने के पानी के उपयोग में आने वाले पानी को मिट्टी केे बर्तनों में संग्रह करना चाहिए । आजकल शुद्ध पानी के नाम से वितरित बोतल बंद मिनरल पानी प्राय: प्लास्टिक बोतलों अथवा पाउचों में उपयोग में लेने से पूर्व बहुत दिनों तक संग्रहित रहता है। ऐसा पानी प्लास्टिक के हानिकारक रसायनिक तत्वों से प्रभावित न हो असंभव ही लगता है। जिसका अन्धानुकरण कर ऐसा पानी पीने वालों को दुष्प्रभावों के प्रति सजग करना चाहिए ।  स्वास्थ्य मंत्रालय से भी जनहित में इस विषय पर सम्यक् स्पष्टीकरण अपेक्षित है ।
पानी शुद्ध एवं स्वच्छ, हल्का, छाना हुआ, शरीर के तापक्रम के अनुकूल पानी जनसाधारण के पीने हेतु उपयोगी होता है । अत: यदि पानी गंदा हो तो पीने से पूर्व किसी भी विधि द्वारा पानी को शुद्ध करना चाहिए । रोगाणुओं एवं जीवाणुओं से रहित ऐसा पानी ही प्राय: पीने योग्य होता है । शुद्ध पानी में भी जलवायु एवं वातावरण के अनुसार निश्चित समय पश्चात् जीवों की उत्पत्ति की पुन: संभावना रहती है। अत: उपयोग लेते समय इस तथ्य की छानबीन कर लेनी चाहिए एवं आशंका होने पर पीने से पूर्व पुन: छानकर ही पीना चाहिए । 
इसी कारण हमारे यहाँ प्रतिदिन पीने के पानी को छानने का प्रचलन था । परन्तु पश्चिम के अन्धानुकरण एवं भ्रामक विज्ञापनों से प्रभावित होने के कारण आज हम हमारी मौलिक स्वास्थ्यवर्धक जीवनशैली से दूर होते जा रहे हैैं । बहुत दिनों से संग्रहित अनछना बोतलों और पाउचों में बंद पुराने पानी को प्राय: पीने से पूर्व नहीं छानते । अत: ऐसा पानी जीवाणुओं से मुक्त नहीं हो सकता । फलत: अहिंसक साधकों के लिए ऐसा पानी पीने हेतु निषेध होता है ।
पानी की दूसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता उसके अम्ल-क्षार के अनुपात की होती है। जिसको कि के आधार पर मापा जा सकता है । पानी का कि जब ७ होता है तो इसमें अम्ल एवं क्षार तत्व बराबर मात्रा में होते   हैैं । कि यदि ७ से कम होता है तो पानी अम्ल की अधिकता वाला और ७ से अधिक कि वाला पानी क्षार गुणों वाला होता है ।
स्नायु एवं मज्जा के पोषण हेतु शरीर में अम्ल तत्व की बहुत कम मात्रा की आवश्यकता होती है । रक्त में आवश्यकता से अधिक अम्ल होने से रक्त विषाक्त बन अनेक रोगों का कारण बन जाता है । शरीर में अधिकांश विजातीय तत्वों के जमाव एवं रोगों में अम्ल तत्व की आवश्यकता से अधिक उपलब्धता भी प्रमुख कारण होती है । हमारे शरीर में गुर्दो का मुख्य कार्य अम्ल की अधिकता को बाहर निकालना एवं शरीर में अम्ल एवं क्षार का संतुलन बनाए रखना होता है ।
शरीर में क्षार तत्व की कमी के कारण शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होने लगती है एवं रक्त में सफेेद कोशिकाएँ कम होने लगती है। हडि्डयाँ कमजोर होने लगती है । अम्लपित्त, गैस, जोड़ों में दर्द एवं कब्जियत जैसे रोगों की संभावना बढ़ने लगती है। जिससे शरीर को सुचारू रूप से संचालित करने वाला सारा तंत्र अनियन्त्रित होने लगता है तथा शरीर रोगों का घर बन जाता    है । ऐसी स्थिति में प्रकृति शरीर के अन्य तन्तुओं से क्षार तत्व खींचकर अपना पोषण करने लगती है। परिणाम स्वरूप शरीर के  वे अवयव जिसमें से क्षार तत्व शोषित कर लिए जाते हैं, नि:सत्व, निर्बल एवं रोगी हो जाते हैं ।  
डॉ. शेरी रोजर्स, डॉ. इंगफ्रेइड हॉबर्ड, टोकियो जापान की पानी संस्था के निदेशक डॉ.हिडेमित्सु हयासी, डॉ. डेविड कारपेन्टर, डॉ. मुशीक जोन, डॉ. विलियम केली, डॉ. नीताबेन गोस्वामी, डॉ. जयेशभाई पटेल, जमशेदपुर के वैज्ञानिक डॉ. जीवराजजी जैन आदि पीने योग्य पानी पर शोधकर्ताआेंके अनुसार क्षारीय पानी नियमित पीने से समय के पूर्व वृद्धावस्था के लक्षण प्रकट नहीं होते । हडि्डयां का घनत्व बढ़ता है तथा अम्लपित्त, गैस, कब्जी,  जोड़ों का दर्द जैसे रोगों की संभावनाएँ अपेक्षाकृत कम रहती है । हमारे आहार में २० प्रतिशत अम्लीय एवं ८० प्रतिशत क्षारीय पदार्थ होने  चाहिए । परन्तु आजकल अधिकांश व्यक्तियों के भोजन में अम्ल तत्व बहुत ज्यादा और क्षार तत्वों की बहुत कमी होती है । 
वर्तमान में चटपटा, फास्टफूड, आम्लिक जैसा आहार अधिकांश लोगों द्वारा किया जाता है, उससे ऐसे रोगों की संभावनाएँ बहुत अधिक हो गई है । शरीर में अम्ल की अतिरिक्त मात्रा को दूर करने के लिए नियमित क्षारीय पानी पीना सबसे सहज, सरल, सस्ता, दुष्प्रभावों से रहित, अहिंसक, स्वावलम्बी प्रभावशाली विकल्प है ।
आज सरकार द्वारा आवश्यक पीने योग्य शुद्ध पानी की उपलब्धता न करवा पाने के कारण चन्द प्रक्रियाओं द्वारा शुद्ध किया हुआ पानी गत चन्द वर्षो से बाजार में महंगे मिनरल पानी के नाम से वितरित हो रहा है। आज देश में ऐसे पानी का अरबों रुपयों का व्यापार हो रहा है और जिसमें प्रतिवर्ष ४० से ५० प्रतिशत की वृद्धि हो रही है ।
आज मानव की रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी न होने के कारण आधुनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ मिनरल पानी पीने हेतु विशेष प्रेरणा देते हैं। अत: हमें इस तथ्य पर चिन्तन करना होगा कि हमारी रोग निरोधक क्षमता क्यों क्षीण होती है और उससे कैसे स्वयं को सुरक्षित रखा जा सकता है ? बाल्यकाल में लगाये जाने वाले रोग निरोधक इंजेक्शनों, गर्भावस्था एवं उसके बाद में ली जाने वाली आधुनिक दवाइयों से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होने लगती है । भारत में लगभग दो प्रतिशत जनता ही बोतल बंद पानी का सेवन करती है । यद्यपि इन दो प्रतिशत लोगों की भी रोग प्रतिरोधक क्षमता इतनी कमजोर नहीं होती परन्तु मिनरल जल के भ्रामक, लुभावने विज्ञापनों के कारण वे अपने स्वास्थ्य से कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहते परन्तु आत्मविश्वास की कमी, स्वयं की क्षमता के प्रति नासमझी के कारण लोग मिनरल पानी का सेवन करते हैं । 
बोतल बंद पानी का सेवन करने वाले भी अधिकांश व्यक्ति कुल्ला करने के लिए तो प्राय: नल के पानी का ही उपयोग करते हैं, परन्तु इससे इनको किसी प्रकार का प्राय: संक्रमण नहीं होता, जबकि घूंट भर दूषित पानी में ही इतने विषाणु होते हैंकि वे हमें अपनी चपेट में ले सकते हैं ।
सरकार की उपेक्षावृत्ती के कारण मन चाहे दामों पर शुद्ध पानी के नाम से भोली-भाली जनता का शोषण किया जा रहा है। प्रतिदिन शादियों एवं सामूहिक आयोजनों में ऐसे महंगे पानी का जो अपव्यय होता है, उससे गरीब व्यक्ति को न चाहते हुए भी अन्धानुकरण एवं प्रतिष्ठा के नाम पर हजारों रुपयों का अनावश्यक खर्च पानी के लिए करने हेतु विवश होना पड़ रहा हैं,जिस पर सम्यक् चिन्तन आवश्यक है, ताकि कम से कम राष्ट्र की भोली-भाली जनता को तो सामूहिक आयोजनों में पानी के नाम पर होने वाले अपव्यय से राहत मिल सके ।
क्या मिनरल पानी न पीने वाले सभी व्यक्ति वायरस से प्रभावित होते हैं? चन्द वर्षो पूर्व जब मिनरल जल का प्रचलन नहीं था, तो क्या जनसाधारण वायरस से ग्रस्त था ? वास्तव में मिनरल जल का उपयोग आज पैसों की बर्बादी एवं सम्यक् चिन्तन के अभाव का प्रतीक है ।
आज व्यावसायिक स्थलों एवं सामूहिक आयोजनों में जिन जारों में पानी वितरित किया जाता है, उनकी स्वच्छता भी पूर्णतया उपेक्षित होती   है । अत: ऐसा पानी कैसे स्वास्थ्यवर्धक हो सकता है ? मिनरल पानी के बढ़ते व्यवसाय से पानी पीने के पश्चात् जिन खाली प्लास्टिक बोतलों एवं पाउचों को फैंक दिया जाता है उससे पर्यावरण एवं प्रदुषण की समस्या विकराल रूप ले रही है फिर भी सरकार का ध्यान उस ओर क्यों नहीं जा रहा है चिन्तन एवं चिंता का विषय है ।
शुद्ध पानी पीने के लिए आज  एक्वागार्ड एवं आरो जैसे विकल्पों का प्रचलन बढ़ रहा है । जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया गया है कि पानी को चुम्बक, पिरामिड, रत्नों, धातुओं, धूप की किरणों में रंगीन बोतलों में पानी को रखने अथवा विभिन्न रंगों की किरणों से उसे स्वास्थ्यवर्धक एवं दवा के रूप में तैयार किया जा सकता है, परन्तु यह जनसाधारण के लिए संभव नहीं है । अत: ऐसे विकल्प की आवश्यकता है जो जनसाधारण बिना किसी अन्य समस्या के सहजता से अपना सके । 
आयुर्वेद में रोगोपचार हेतु विविध प्रकार की भस्मों का उपयोग होता आ रहा है । स्वच्छ पानी में गाय के गोबर की राख सही अनुपात में मिला दी जाए तो शुद्ध शक्तिवर्धक रोगनाशक पीने योग्य पानी घर-घर में सहजता से उपलब्ध हो सकता है । राख मिश्रित पानी पीने से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है । संक्रामक रोगों से बचाव होता है। पानी बैक्टिरिया रहित बन जाता है । आवेश नियन्त्रित होते हैं । शरीर में रक्त कणों के संख्या में वृद्धि होती है । मधुमेह, यकृत, गुर्दे एवं अन्य रोगों में जल्दी राहत मिलती है ।
उपयोग में आने योग्य पानी को आवश्यकतानुसार छानकर उसमें गाय के गोबर को जलाने से बनी राख इतनी मात्रा में ही मिलाए ताकि पानी में घुलने के पश्चात् राख पानी के बर्तन में नीचे जमने लगे । इस पानी को निथार कर उपयोग हेतु अन्य बर्तन में संग्रहित कर लें । यह पानी राख के गुणों वाला स्वास्थ्य के लिए उपयोगी, क्षारीय गुणों वाला शक्तिवर्धक रोगनाशक बन जाता    है । ऐसा पानी सहजता से कहीं भी तैयार किया जा सकता है । ऐसे पानी में चंद घण्टों तक पुन: जीवोत्पत्ति भी नहीं होती । 
अनादिकाल से जैन व्रतधारी साधकों में ऐसे धोवन पानी के नाम से विख्यात पानी पीने का प्रचलन   है । ऐसा क्षारीय जल आवश्यकतानुसार गरीब भी अपने घरों में तैयार कर सकते हैं । अत: राख मिश्रित पानी पीने से सहज ही पानी से होने वाले रोगों से राहत मिल सकती है। आवश्यकता है दृढ़ मनोबल एवं भ्रामक विज्ञापनों से भ्रमित हो अन्धानुकरण न कर तथ्यानुसार पानी के सही उपयोग करने की है ।
स्वास्थ्य मंत्रालय एवं चिकित्सा से जुड़े चिकित्सकों से सविनय अनुरोध है कि वे जनता का सही मार्गदर्शन कर, गरीब जनता को पानी के कारण होने वाले रोगों से सुरक्षा हेतु गोबर की राख मिश्रित पानी के लाभ से परिचित करावें तथा उसका सम्यक् उपयोग करने हेतु जनता को प्रेरित करें । सामूहिक आयोजनों में मिनरल पानी के स्थान पर ऐसे पानी के प्रयोग को प्रोत्साहित किया जाए ।
वातावरण
वैश्विक तपन : कारण और निवारण
रितेन्द्र अग्रवाल
पृथ्वी के चारो ओर २०० मील चौड़ा वायुमण्डल का कवच    है ।  इसी कवच के कारण पृथ्वी पर जीवन है । ऐसा कवच अभी तक अन्य किसी ग्रह पर नहीं मिला है, इसलिए पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर जीवन भी नहीं । यही वायुमण्डल जो ब्राह्मण्ड है, एक अनमोल सौगात है । 
इस वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइटे्रस आक्साईड आदि गैसों की परत है जिन्हे ग्रीन हाउस गैसों की परत कहा जाता है । वायुमण्डल में ही ओजोन परत है । ये वायुमण्डलीय गैसों की परत ही पृथ्वी को अंतरिक्ष की खतरनाक विकिरणों से सुरक्षा प्रदान करती है और तापमान को जीवन के अनुकूल बनाती है । अत: वायुमण्डल हम सभी के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है । 
अगर वायुमण्डल न हुआ या बिगड़ा गया तो पृथ्वी भी अन्य ग्रहों की तरह जीवन निर्वहन स्थिति में आ जायेगी । अनेक वैज्ञानिकों के शोध ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पृथ्वी की जलवायु में बदलाव आ रहा है । तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है । मौसम के रंग-ढंग बढ़ रहे हैं । गर्मियां लम्बी, सर्दियां छोटी हो रही   है । यही है जलवायु परिवर्तन । 
ग्रीन हाउस गैसों की परत का कार्य सूर्य की ऊर्जा को सोख कर पृथ्वी पर पहुंचा कर उसे जरूरत के अनुसार तापमान उपलब्ध कराती है । अगर ग्रीन हाउस परत न होती तो पृथ्वी ३०० सेल्सिशस से ज्यादा ठण्डी होती और जीवन नहीं होता । पृथ्वी का औसत तापमान १५० सेल्सिशस है और यह बढ़ रहा है । 
आजकल मानवजनित गतिविधियों से दो गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन हो रहा है ये गैस पहले से ही ग्रीन हाउस परत में है अत: इनसे ग्रीन हाउस परत मोटी हो रही है । सूर्य के ताप को अधिक सोखकर पृथ्वी को जरूरत से ज्यादा तापमान देकर ज्यादा गर्म कर खतरा उत्पन्न कर रही है । अत: ग्रीन हाउस परत मोटी होकर ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रही है । 
अत: वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) पृथ्व के वातावरण के तपमान में निरन्तर हो रही वृद्धि को कहते है । वैश्विक तपन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार मनुष्य और उसकी गतिविधियां है क्योंकि मानव आबादी निरन्तर बढ़ रही है । पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधन २ अरब मानव को पोषित करने की है और आबादी चार गुना से भी ज्यादा है । 
अत: मानव अपनी क्षुधा पूर्ति के लिए संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग कर रहा है जिससे वन समाप्त् हो रहे है । जल स्त्रोत दम तोड़ रहे है, समुद्र के दोहन से जैव विविधता घट रही है जिसके कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रोजन आक्साईड आदि ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि हो रही है और गैसों का आवरण या परत सघन हो रही है । 
अगर सुधार नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी भी शुक्र ग्रह के समान हो जायेगी, जहां तापमान अधिक हो जाने से एसिड की बारिश होती है ।
वैश्विक तपन के प्रभाव
(१) वातावरण का तापमान बढ़ेगा - पिछले दस वर्षो में ०.३० से ०.६० सेल्सियस तक बढ़ गया है । ऐसी संभावना है इसमें और बढ़ोत्तर होगी । 
(२) समुद्र तल में बढ़ाव - धरती का तापमान बढ़ने से ग्लेशियर की बर्फ पिछले कई स्थानों पर बर्फ पिघलनी शुरू हो चुकी है । इस पिघलाव से समुन्द्रों में पानी की मात्रा बढ़ेगी और जल स्तर बढ़ेगा जिससे तटीय इलाकों के डूबने का खतरा होगा । बहुत से लोग बेघरबार हो जायेगे । 
(३) स्वास्थ्य पर प्रभाव - वैश्विक तपन से हो रहे बदलाव से सबसे ज्यादा प्रभावित मानव स्वास्थ्य ही होगा । ऐसा समय भी आ सकता है जब पीने के लिए स्वच्छ जल, खाने के लिए ताजा भोजन न मिले ।   सांस लेने के लिए शुद्ध हवा तक न मिले । 
(४) पशु-पक्षियों और वनस्पतियों पर प्रभाव - इसका पशु-पक्षियों तथा वनस्पतियों पर भी प्रभाव पड़ेगा । तापमान बढ़ने से कुछ पशु पक्षी उत्तर या पहाड़ों की ओर प्रस्थान कर सकते है और कुछ अपना अस्तित्व भी खो सकते है । 
(५) शहरों पर प्रभाव - यह सही है कि गर्मी तो बढ़ेगी तो गर्मी उत्पन्न करने तथा ठण्ड कम करने के लिए ऊर्जा का उपयोग कम होगा लेकिन गर्मी बढ़ने पर इसे कम करने के लिए ऊर्जा का उपयोग ए.सी. के माध्यम से होगा और वैश्विक तपन में इजाफा होगा । 
बचाव के रास्ते - इसके लिए मात्र विचार या फिर किसी एक के प्रयासों से काम नहीं चलेगा, वरन् मिलजलुकर संयुक्त प्रयास करने   होंगे -  
(१) सभी देश क्योटो संधि का पालन करे । इसके अन्तर्गत गैसों के उत्सर्जन को कम करे । 
(२) मात्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं सब मिलजुलकर सहयोग करे । पेट्रोल, डीजल का उपयोग कम करे, ताकि उत्सर्जन कम हो । 
(३) जंगलों की कटाई पर रोक - जंगलों की कटाई कम हो, अधिक से अधिक पेड़ लगाये जाये । इससे भी उत्सर्जन कम   होगा । 
(४) टैक्नीकल विकास - हम ऐसे ए सी व मशीनरियां बनाये कि उत्सर्जन कम से कम या कहे न के बराबर हो आदि । 
निष्कर्षत: धरती पर फिर खतरा मंडरा रहा है । ऐसा भी नहीं कि आजकल में ही अनिष्ट होने वाला है । लेकिन जो संकेत मिल रहे है उसे हम सब महसूस तो कर रहे है लेकिन चेत नहीं रहे । अतएव अब चते जाने का समय आ गया है ।  \
जीव जगत
जैव विकास सीधी रेखा में नहीं चलता 
डॉ. अरविन्द गुप्त्े 
जीवशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों में प्रजाति (स्पीशीज) की परिभाषा यह दी जाती है कि एक प्रजाति के नर और मादा ही आपस में प्रजनन कर सकते हैं, दो अलग-अलग प्रजातियों के नहीं कर सकते । जीवशास्त्र की एक अन्य अवधारणा 
यह है कि जैव विकास के दौरान मौजूदा प्रजातियों से नई प्रजातियां बनती हैं, किन्तु इस प्रक्रिया में हजारों लाखों वर्ष लग जाते हैं और यह प्रक्रियासौ-दो वर्षो में नहीं हो जाती । 
कनाड़ा में एक ऐसा रोचक उदाहरण सामने आया है जिसने इन दोनों अवधारणाआें को चुनौती दी    है । इस देश का ओन्टारिओ प्रदेश घने जंगलों से ढंका होता था । इस प्रदेश के दक्षिणी भाग में बाहर से आकर लोग बस गए और खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हुई । 
इसके फलस्वरूप इन जंगलोंमें रहने वाले भेड़ियों के सामने दोहरा संकट खड़ा हो गया । एक तो उनके प्राकृतिक आवास नष्ट होने लगे और दूसरे इस क्षेत्र में बसने वाले किसानों ने उन्हें मारना शुरू कर दिया ।
इसके विपरीत, इसी क्षेत्र में रहने वाली कोयोटी नामक भेड़ियों से मिलती-जुलती प्रजाति के लिए यह फायदेमंद साबित हुआ । उन्होंने न केवलभेड़ियो के खाली स्थानों में फैलना शुरू किया, बल्कि मनुष्य की बस्तियों में घुसकर पालतु पशुआें का शिकार करना भी शुरू कर दिया । मांसाहारी होने के अलावा फल, सब्जियां, कूडे में पड़ी जूठन आदि भी खा लेते हैं । वे आकार में भेड़ियों से छोटे होते हैं और इनका व्यवहार लोमड़ियों से काफी मिलता-जुलता   है । 
मनुष्य के साथ कुत्ते भी इस क्षेत्र में आ गए । इस प्रकार, इस क्षेत्र में केनिस जीनस (वंश) की तीन प्रजातियां रहने लगी । किन्तु भेडियों के सामने अस्तित्व बचाने के अलावा एक और संकट खड़ा हो गया - यह था मादाआें की कमी । लगभग सौ दो सौ वर्षो पहले इसका हल उन्होंने यह निकाला कि नर भेड़ियों ने कोयोटी और कुत्तों की मादाआें के साथ प्रजनन करना शुरू कर दिया । 
जीव जगत की यह विशेषता है कि इसमें भौतिक शास्त्र या रसायन शास्त्र के समान कठोर नियम नहीं होते । आप कोई भी नियम बनाइए और प्राय: उसका अपवाद निकल आता है । यही हाल प्रजाति की परिभाषा का है । पौधों में तो विभिन्न प्रजातियों का आपस में प्रजनन आम बात है, किन्तु जन्तुआें में भी इसके अपवाद मिल जाते हैं । खच्च्र का उदाहरण तो सबको पता है जो दो अलग-अलग प्रजातियों - घोड़े और गधे के आपस में प्रजनन करने से बनता है । ऐसी संतान को वर्णसंकर (हाइब्रिड) कहते हैं । 
किन्तु आम तौर पर जंतुआें के वर्णसंकर बंध्य होते हैं यानी वे प्रजनन नहीं कर सकते, जैसे    खच्च्र । किन्तु भेडिए, कुत्तेऔर कोयोटी के डीएनए के मिश्रण से बना यह जन्तु अपवाद निकला और प्रजनन करने की क्षमता होने के कारण उत्तरी अमेरिका के पूर्वी भाग में इतनी तेजी से फैला कि अब उसकी संख्या लाखों में पहुंच गई   है । इस जंतु को कोयवुल्फ नाम दिया गया है । कभी-कभी इसे वोयोटी भी कहा जाता है । कोयवुल्फ में भेडिए का बड़ा आकार और साथ में अधिक मजबूत जबड़े और पेशियां होती हैं और यह बहुत तेज भाग सकता है । अत: इनका झंुड बड़े हिरन का भी शिकार कर सकता है । यह कोयोटी के समान खुले में शिकार कर सकता है और भेड़िए के समान घने जंगल में भी । 
अमेरिका के पेपरडाइन विश्वविघालय के प्रोफेसर हावीएर मोन्जो ने कोयवुल्फ का आनुवंशिक विश्लेषण करके यह पाया कि इस जंतु का अधिकांश डीएनए कोयोटी का होता है जबकि दस प्रतिशत कुत्ते का तथा एक-चौथाई भेड़िए का होता है । इस मिश्रण के कारण कोयवुल्फ को कई लाभदायक गण मिल गए  हैं । उनमें कोयोटी की चालाकी और शाकाहारी और मांसाहारी दोनो प्रकार के भोजन खा सकने की क्षमता होती है । इसी प्रकार, मनुष्य के समीप रह सकने और ध्वनि प्रदूषण सह सकने के कुत्ते के गुण भी आ गए है । भेडिए आम तौर पर मनुष्य से दूर रहना पसंद करते हैं और उनमें शोर सहने की क्षमता भी कम होती है । इन गुणों के कारण कोयवुल्फ बड़े शहरों में भी घुसपैठ कर लेते हैं । वे यह भी सीख गए हैं कि सड़क पार करते समय दोनों तरफ देखना चाहिए । 
अमेरिका के नॉर्थ केरोलिना स्टेट विश्वविघालय के डॉ. रोलां केज का मानना है कि नई प्रजाति बनने का यह अनोखा नाटक हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है, यद्यपि कोयवुल्फ को एक नई प्रजाति माना जाए या नहीं इसके बारे में अभी विवाद है । प्रजाति की रूढ़िगत परिभाषा के अनुसार भिन्न प्रजातियां आपस में प्रजनन नहीं कर सकती, किन्तु जिस प्रकार से कोयवुल्फ कुत्तों और कोयोटी के साथ प्रजनन कर रहे हैं, उन्हें अलग प्रजाति नीं माना जा सकता । 
इसके विपरीत, यदि भेड़ियों ने कोयोटी और कुत्तों के साथ प्रजनन करना शुरू किया तो क्या इन तीनों को एक ही प्रजाति माना जाए ? इस सबके चलते फिलहाल कोयवुल्फ को एक अलग प्रजाति का नाम नहीं दिया गया है - इसे लरळिी र्श्रीिीर्ी ु लरळिी श्ररींीरिी कहा जाता है । इस उदाहरण से यह प्रमाणित होता है कि जैव विकास पूरी तरह सख्त नियमों से बंधी एकदम सीधी सरल प्रक्रियानहीं होती । 
पर्यावरण परिक्रमा
मन्दसौर मेंहै दुनिया के सबसे पुराने शैल चित्र
शैल चित्र कला के विशेषज्ञों का कहना है कि म.प्र. के मन्दसौर जिले में भानपुरा के पास दर की चट्टान के शैल चित्र (कप मार्क्स) दुनिया के सबसे पुराने ज्ञात शैल चित्र है और ये २ से ५ लाख वर्ष पुराने   है । दुनिया से सबसे पुराने शैल चित्र के काल की गणना के लिये वैज्ञानिकों ने मन्दसौर जिले की दर की चट्टान में २ नवम्बर २३ नवम्बर २०१६ तक एक सफल अभियान पुरा किया है । इस अभियान का नेतृत्व रॉक सोसायटी ऑफ इण्डिया के महासचिव प्रोफेसर गिरीराज कुमार और आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक राबर्ट जी बेडनारिक ने संयुक्त रूप से  किया ।
श्री कुमार ने बताया कि बेडनारिक शैल कला क्षेत्र में दुनिया के शीर्ष वैज्ञानिक हैं तथा इंटरनेशनल  फेडरेशन ऑफ रॉक आर्ट ऑर्गनाइजेशन के संयोजक भी है । आगरा के दयालबाग शैक्षणिक संस्थान के कला संकाय में रॉक आर्ट साइंस के प्रोफेसर कुमार ने दावा किया कि मन्दसौर में भानपुरा के पास दर की चट्टान की शैल कला दुनिया में अब तक के सबसे पुरानी है । यह दो से पांच लाख वर्ष पुराने है । उन्होनेंकहा कि वर्ष २००२ में अनुसंधान के दौरान दर की चट्टान में गुफा की एक दीवार पर ५३० से अधिक कप मार्क्स मिले । 
श्रीकुमार के अनुसार इस क्षेत्र में अनुसंधान के दौरान के दौरान पांच लाख साल पुराने हथौड़े भी मिलते है । उन्होनें अभियान की जानकारी देते हुए कहा कि मन्दसौर में जमीनी स्तर पर कार्य सम्पन्न हुआ है । इस अभियान का उद्देश्य दर की चट्टान में पाए गए शैल चित्रों के कालखंड की गणना करना है । इसके लिए यहां से नमूने और तथ्य एकत्रित किए गए है । शैल चित्रों की विशेषता यह है यह दुनिया में ज्ञात सबसे पुराने एवं भारत में पाई गई रॉक आर्ट की दो जगहों में से एक   है ।
इस जटिल अभियान की सफलता के लिए इस प्रोजेक्ट ने भारत, आस्ट्रेलिया एवं यूरोप से कई शोधकर्ताआें को शामिल किया गया है । इन शैल चित्रों में से एक क्वार्टजाइट गुफा में पेटेरोग्लिफ शामिल है । कुछ साल से यह चर्चा थी कि ये दुनिया में पाए गए सबसे पुराने शैल चित्र है, लेकिन अब तक वैज्ञानिकों ने इनके बारे में यह नहीं बताया था । 
अब ज्वार से होगा कैंसर और लकवा का इलाज
म.प्र. में राजमाता विजयाराजे सिंधिया एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने १० साल की मेहनत के बाद कैंसर, लकवा और गुर्दे की बीमारियों के इलाज के लिए ज्वार की संकर किस्म राजविजय इक्रिशिफ्ट सार्गव हाईग्रेड ज्वार की नई किस्म पैदा की है । इसकी खासियत यह है कि इसे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में बड़ी आसानी उगाया जा सकता है । ज्वार की पिछली किस्मों से करीब ५ गुना अधिक उत्पादन देती है । साथ ही इसमें पोषक तत्वों की मात्रा ६० गुना अधिक है ।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस नई संकर किस्म को किसान और दवा इंडस्ट्री के उपयोग के हिसाब से तैयार किया गया है । ज्वार की पिछली किस्मों में जहां किसानों को १.१८ टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से उत्पादन मिलता था, वहीं अब नई संकर किस्म में यह उत्पादन बढ़कर ६.५ से लेकर ७.० प्रति टन    मिलेगा । इस किस्म को सूखा ग्रसित क्षेत्रों में भी उगाया जा सकेगा । इसके साथ ही वैज्ञानिकों ने पशुआें के चारे के लिए राजविजय ज्वार १८६२ का आविष्कार भी किया है, जो ११० दिनों में पक जाती है । 
ज्वार की नई किस्म राजविजय हाईगे्रड में १७ प्रतिशत शुगर की मात्रा होने के कारण एनर्जी का प्रतिशत बढ़ जाता है । वैद्य पदमसिंह के अनुसार इसका उपयोग आमातिसार, ज्वर, भगंदर, धतूरे का विष उतारने के साथ मूत्रविंडो के विकार दूर करने के लिए किया जाता है । नई किस्म में औषधीय गुण अधिक होने के कारण पिछली किस्मों से नई फिल्म बेहतर है । 
चीन से ज्यादा भारत में है प्रदूषण 
भारत में वायु प्रदूषण से चीन से ज्यादा लोग मर रहे हैं । यह हकीकत ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजिज की रिपोर्ट से सामने आई है । रिपोर्ट के अनुसार २०१५ में चीन से ज्यादा लोग भारत में प्रदूषण से मरे हैं । ग्रीनपीस ने इससे निपटने के लिए तत्काल कार्यनीति बनाने की मांग की है । अध्ययन से पता चलता है कि १९९० से अब तक लगातार भारत में होने वाले असामयिक मौत की संख्या में बढ़ोतरी हुई है । 
हाल के आंकड़े बताते हैं कि २०१५ में भारत में रोजाना १६४० लोगों की असामयिक मौत हुई है जबकि इसकी तुलना में चीन में १६२० लोगों की मौत हुई  थी । पहले चीन में दूषित हवा से मरने वालों की संख्या ज्यादा थी, चीन में हर साल १४ लाख लोग समय से पहले मरते थे और वहीं भारत में इसकी तादाद ७ लाख थी, लेकिन अब भारत में प्रदूषण से मरने वालों की संख्या भारत में बढ़ गई है । 
पिछले दिनों जर्मनी में एक शोध हुई थी, जिसमें साफ कहा गया है कि अगर हवा को साफ करने के लिए कुछ किया नहीं गया तो साल २०५० तक सालाना ६० लाख से ज्यादा लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हो सकती है । शोध में कहा गया है कि एशिया में वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा मौतें होती हैं, दुनियाभर में हर साल ३० लाख से ज्यादा लोगों की वायु प्रदूष्ण से मौत होती है । 
ग्लोबल वर्डन ऑफ डिजिज (जीबीडी) एक क्षेत्रीय और वैश्विक शोध कार्यक्रम है, जो गंभीर बीमारियों चोटों और जोखिम कारकों से होने वाले मौत और विकलांगता का आंकलन करता है । 
नैनो तकनीक से होगी मिनटों में जंग की छुट्टी
राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला (एनएमएल), जमशेदपुर के वैज्ञानिकों ने नैनो तकनीक का इस्तेमाल करते हुए एक ऐसा पदार्थ तैयार किया है जिससे लोहे पर लगा जंग और एल्युमिनियम, पीतल तथा काँसे पर से काले दाग पांच मिनट में ही निकल जायेंगे । साथ ही उन्होंने ऐसा पारदर्शी पेंट भी तैयार किया है जो भविष्य में उनमें जंग नहीं लगने देगा । 
इन जगरोधी उत्पादोंं  को यहां प्रगति मैदान में चल रहे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में प्रदर्शन के लिए रखा गया है । इनकी तकनीक झारखंड के जमशेदपुर स्थित एक कंपनी को हस्तांतरित की गई है तथा एक से डेढ़ महीने में इन उत्पादों के बाजार में आने की उम्मीद है । एनएमएल के वैज्ञानिक डॉ. आर.क.े साहू ने बताया कि कंपनी रब्ज क्लीन नाम से यह जेल बाजार में लगा रही है । इसे जंग लगे सामान पर लगाकर पांच मिनट छोड़ देना होता है । इसके बाद किसी कपड़े से पोछने पर जंग बिल्कुल साफ हो जाता है । आम तौर पर कांसे या पीतल के बर्तन पर काले दाग पड़ जाते है जिन्हें हटाने के लिए बाजार मेंउपलब्ध मौजूदा रसायन लगाने के बाद उसे काफी देर तक रगड़ना पड़ता है । इसे तैयार करने में किसी हानिकारक पदार्थ का उपयोग नहीं किया गया   है । इसे नैनो तकनीक से प्राकृतिक पदार्थोंा और मेटल ऑक्साइड से तैयार किया गया है । 
जंग हटाने के बाद भविष्य में भी इन्हें सुरक्षित बनाने के लिए ग्रेफाइन पेंट तैयार किया गया है । इसके पारदर्शी होने के कारण पीतल, काँसे या एल्युमिनियम के सामान अपने वास्तविक रंग में ही रहते है । साथ ही एक बार इसकी परत चढ़ा देने पर आम तौर पर १० साल तक यह सामान को जंग से बचाता है । यदि सामान घर के अंदर रखा गया  है तो और ज्यादा समय तक सुरक्षित रह सकता है । 
अमेरिका में जी.एम. मच्छर छोड़ने की योजना
जेनेटिक रूप से परिवर्तित यानी जीएम जीव पिछले वर्षो में विवाद के केन्द्र में रहे हैं । खास तौर से मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण पर इनके संभावित असर को लेकर काफी शंकाएं हो रही है । अब यूएस के फ्लोरिडा प्रांत के एक क्षेत्र कीवेस्ट में जीएम मच्छर छोड़ने की योजना बनाई गई है । 
इन मच्छरों का विकास यूके की एक कंपनी ऑक्सीटेक ने किया है और इनमें से नर मच्छरों की विशेषता यह है कि इनकी संतानें जल्दी ही मर जाती है । ये संतानें प्रजनन के लिए तैयार हो ही नहीं पाती । इसका मतलब हुआ कि पर्यावरण में इन जीएम नर मच्छरों को छोड़ने पर कई सामान्य मादा मच्छर इनके साथ समागम करेगी और संतानें पैदा करेगी जो प्रौढ़ होने से पहले ही मर जाएंगी । इस तरह से उम्मीद है कि मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण हासिल हो पाएगा । 
मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण खास तौर से मलेरिया, जीका और डेंगू जैसे रोगों पर अंकुश लगाने के मकसद से किया जा रहा है । ये रोग मच्छरों के माध्यम से ही फैलते है । इससे पहले ब्राजील के पिरासिकाबा क्षेत्र में ऐसे जीएम मच्छरों का परीक्षण किया जा चुका है । इनके उपयोग से उस इलाके मेंडेंगू के मामलों में ९० प्रतिशत की कमी आई थी । 
प्रदेश चर्चा 
महाकाल और अहिल्या की नगरियों को बचाओ
आचार्य सत्यम्
विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के  २० सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में से १३ भारत के हैं, जिनमें देश की राजधानी भी शामिल है। फिर भी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और पूर्व विश्वगुरू भारत की राजधानी में कथित योगऋषि ने देश के प्रधानमंत्री के माध्यम से योग का प्रचार करते हुए विश्व योग दिवस मनाया था । क्या कोई भी योगी जहरीली हवाओं में योगाभ्यास की अनुमति दे सकता है ?
   कविवर बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का सम्पूर्ण वन्दे मातरम् गीत एक प्रतिशत हिन्दुस्तानियों को भी कंठस्थ नहीं है । हम वन्दे मातरम् गाने के लिए आपस में लड़ रहे हैं । हमारा यक्ष प्रश्न है, मातृभूमि को उपरोक्त विश्ववन्द्य स्वरूप में लाने के लिए उसके कितने बेटे-बेटियां संकल्पित   हैं ? 
सन्त कबीर का ''मालव धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर'' भी स्वतंत्र भारत में अदृश्य हो चुका है। हमारी मातृभूमि का यह हृदय प्रदेश, जिसे इसके नाम के अनुरूप ही मा-लव अर्थात् लक्ष्मीजी का निवास कहा गया है, आज वीरान होकर मरूस्थल में परिवर्तित हो रहा है। प्रदेश की औद्योगिक राजधानी के निवासी अपनी नगरी को विश्व की महानतम् और आदर्श शासक, प्रजामाता देवी अहिल्या की नगरी कहलाते हुए इठलाते हैं । नंदीवंश, गोवंश तथा वसुंधरा के पर्यावरण की रक्षार्थ देवाधिदेव महादेव तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिन कथित राक्षसों को परमधाम् पहुंचाया, उनका मुख्य अपराध प्रकृति और पर्यावरण के दैवीय स्वरूप का विनाश ही था ।
धन्वन्तरि, चरक, सुश्रुत और वराहमिहिर जैसी विभूतियों का देश आज अपनी प्राकृतिक सम्पदा से अनजान है । बुद्धिजीवी तथा जानकार पारिजात का नाम सुनते ही चौंक जाते हैं और जिन्हें पारिजात के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, वे दर्शन को लालायित हो उठते हैं । स्वर्ग के वृक्षों में कल्पवृक्ष की अगली श्रेणी का दैवीय वृक्ष पारिजात भगवान शंकर के नाम से हरश्रृंगार के रूप में भी जाना जाता है, जिसका अपभ्रंश स्वरूप हारसिंगार है । योगेश्वर श्रीकृष्ण का भी यह सर्वप्रिय वृक्ष है, कदम्ब इसके अगले क्रम में आता है । फिर भी हम हिन्दुस्तानी पारिजात की महत्ता के  ज्ञान से वंचित हैं, यह हमारा दुर्भाग्य है । 
देवी अहिल्या का ही प्रताप था कि उनके आराध्य मल्हारी मार्तण्ड (शिव शंकर) जिनके नाम से वे विश्व और अपनी प्रजा के कल्याणार्थ शासन करती थी, उनका प्रिय वृक्ष उनके राज्य में बहुतायत से पाया जाता था । वनस्पतिशास्त्रज्ञों और आयुर्वेदज्ञों के अनुसार पारिजात पर्वतराज हिमालय के साथ नेपाल और बर्मा तथा गोदावरी बेसिन में पाया जाता है । विंध्य पर्वतमालाओं में उसकी बहुतायत में उपस्थिति खोज का विषय हो सकती है । देवी अहिल्या ने समूचे देश में देवस्थानों और सभी धर्मों के उपासना स्थलों पर अनुकरणीय और अद्भुत निर्माणों के साथ ही मालवा और निमाड़ अंचल के अपने राज्य की सीमा में पिण्डारियों और उन्हीं की तरह के अशिक्षित अपराधी गिरोहों को भी कृषि और पर्यावरण संरक्षण के मानवीय कार्य के लिए प्रेरित किया था । 
इसीलिए उनके पश्चात् की मुगल और अंग्रेज सल्तनतें शबे मालवा की दीवानी और संरक्षक    थीं । लेकिन आज जनता के जाये शासकों और नौकर प्रशासकों के रहते मालवा की अनुपम और अद्भुत पारिजात हिल्स भी खतरे में है । पारिजात हिल्स देवी अहिल्या की कर्मभूमि में महेश्वर और इन्दौर के बीच इन्दौर-खण्डवा मार्ग पर बड़वाह से पहले ग्राम गवालू में स्थित हैं । यहां दो ऊँची पहाड़ियों पर बाबा मकबूलशाह कलंदर और खजांची बाबा के रूप में विख्यात सूफी संतों का आस्ताना है । 
सैंकड़ों पारिजात वृक्षों का उपवन इन्हीं पहाड़ियों पर स्थित है, जिसका संरक्षण प्रदेश का वन विभाग नहीं कर पा रहा है। मालवांचल की अनुपम और अद्भुत पारिजात हिल्स और पारिजात की महत्ता तथा औषधीय गुणों के सम्बन्ध में हमारे लेख इन्दौर और हस्तिनापुर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के उपरान्त भी मध्यप्रदेश शासन का वारिस वन विभाग नहीं जागा है । नंदी वंश के संरक्षक बाबा महाकालेश्वर और श्रीकृष्ण गोपाल की गुरूकुल नगरी उज्जयिनी तथा प्रजामाता की नगरी इंदौर का दम घुटने को है, लेकिन दोनों नगरियों के नगर निगम भी स्मार्ट सिटी का झुनझुना बजाकर प्राणवायु के संकट के प्रति बेखबर हैं । 
उधर हस्तिनापुर में जब बाबाजी ने बोट क्लब प्रयोग किया और जगद्गुरू बनकर सारी दुनिया को दमघोटू माहौल में योगासन कराया तो हमने कहा था प्रदूषित वातावरण में योग आत्मघात है बाबा को समझ में आया और न ही सरकार को । जब देश की राजधानी का दम घुटा तो सभी त्राहि-त्राहि कर रहे हैं । क्या मध्यप्रदेश सरकार और उसके स्थानीय निकाय हमें भी एन.जी.टी. का दरवाजा खटखटाने को बाध्य करेंगे ? जैसे श्री श्री ने भगवती यमुना की छाती पर रोलर चलाकर हजारों ढोल बजाकर हस्तिनापुर के पर्यावरण प्रेमियों को मजबूर किया था और ५ करोड़ रूपयों के दण्ड का प्रसाद पाया था । 
हमने लगातार भारत और मध्यप्रदेश की सरकारों को देश के पर्यावरण और गोवंश की रक्षा के  लिए संतों और हमारे सत्याग्रहों के माध्यम से जगाने का प्रयास किया, मार्च २०१२ में शिप्रा रक्षा एवं श्रृंगार सम्मेलन उज्जयिनी के पूर्व हमें सिंहस्थ  २०१६ के पूर्व शिप्रा और गोवंश रक्षा का लिखित वचन कलेक्टर उज्जैन के माध्यम से शिवराज सरकार ने   दिया । ठीक मालवा और उज्जयिनी का पर्यावरण भी ''ग्रीन सिंहस्थ - ग्रीन उज्जैन''के सैंकडों करोड़ के सरकारी विज्ञापनों के बावजूद और अधिक प्रदूषित हो गया और आज हालत यह है कि बढ़ते प्रदूषण से महाकाल और देवी अहिल्या की नगरियों का दम घुट रहा है । 
देश की सरकार हस्तिनापुर ही नहीं बचा पा रही है, काले धन के खिलाफ महाभारत रच रही सरकार काले धुंए को बढ़ने से नहीं रोक पा रही है । देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के राक्षसी मुनाफे के खातिर वाहनों से निकलने वाला काला जहर सरकारी प्रदूषण निवारण मण्डल रूपी सफेद हाथियों की खाल भी काली कर रहा है । शिप्रा, कहान, चम्बल आदि नदियों को प्रदूषणमुक्त करने के लिए हमने उच्च् न्यायालय में जनहित याचिकाएं भी प्रस्तुत कीं, लेकिन सरकार ने झूठे शपथ-पत्रों के माध्यम से भी न्यायदान का मार्ग अवरूद्ध कर दिया । मोक्षदायिनी शिप्रा, पौराणिक महानदी नर्मदा और चम्बल का अस्तित्व भी खतरे में    है । 
गोपाल के देश में गोवंश को आवारा हमारी दोनों नगरियों में भी वर्षों पूर्व घोषित किया जा चुका है । हम जर्सी, होलस्टिन, फ्रिजीयन और आस्ट्रियन गायों के नाम पर परिवर्तित सुअरनियों का दूध पीने और संतवेशधारी बाबाओं/दुकानदारों के माध्यम से भी इन्हीं गायों का घी खाने को अभिशप्त हैं। गावो विश्वस्य मातर: अब केवल धर्मशास्त्रों की शोभा मात्र रह गया है । 
हमने महाकाल की नगरी में सिंहस्थ २००४ के पूर्व से पर्यावरण एवं गोसंरक्षण का अनुष्ठान निरंतर जारी रखा है । सप्तसागरों की रक्षा के लिए हम भैरवगढ़ जेल की काल कोठारी में भी रहे हैं । उज्जयिनी में थोड़ा बहुत जन-जागरण हुआ है। अब हम देवी अहिल्या की नगरी के वासियों को जगाने और अपनी मातृभूमि तथा महान विरासत की रक्षा के लिए शीघ्र ही जन-जागरण, सत्याग्रह और रचनात्मक अनुष्ठान प्रारंभ करने जा रहे हैं । 
हमारा मालव रक्षा अनुष्ठान इंदौर जिले में स्थित उज्जैनिया, शिप्रा उद्गम पर वर्षों से सक्रिय है । हम आशा करते हैं कि मालववासी अपने अंचल और भारतमाता के ह्दय प्रदेश का संरक्षण कर पूरे देश और दुनिया में पर्यावरण संरक्षण का ऐतिहासिक संदेश अपने सद्कर्मों के माध्यम से देने हेतु   आगे आएंगे और मालवांचल की नगरियों को पारिजात की महक से महकाएंगे ।
ज्ञान-विज्ञान
 त्वचा से पानी पीती है कंटीली छिपकली 
ऑस्ट्रेलिया के रेगिस्तान में एक छिपकली पाई जाती है जिसका नाम है कंटीली शैतान । इसके पूरे शरीर पर कांटे पाए जाते हैं । जीव वैज्ञानिक इसे चश्रिलिह हिीळीर्वीी कहते हैं । इसकी एक विशेषता यह है कि यह अपने पूरे शरीर से पानी पीती है । एक मायने यह इसकी मजबूरी भी है । इसके मुंह की रचना खास तौर से चीटियां खाने के लिए बनी है । इसके चलते यह मुंह से सीधे पानी नहीं पी सकती । 
जर्मनी के आर.डब्लू.टी.एच.   आचेन विश्वविद्यालय के फिलिप कोमैन्स ने ऐसी पांच छिपकलियों का अध्ययन करके जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी में बताया है कि यह अपनी पूरी त्वचा से पानी को सोखकर उसे मंुह की ओर भेजती है जहां इसे निगल लिया जाता है । दरअसल उन्होंने पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया से पांच कंटीली शैतान पकड़ीं और उनका अध्ययन अपनी प्रयोगशाला में किया । 
जब इन छिपकलियों को पानी के बीच में रखा गया तो १० सेकंड के अंदर ही इनका मुंह खुलने और बंद होने  लगा । देखा गया कि पूरी त्वचा से पानी बारीक नालियों से होकर मुंह तक पहुंच रहा है । मगर कोमैन्स की टीम को लगा कि यह तो उनकी प्राकृतिक स्थिति नहीं है । रेगिस्तान में इन्हे ऐसे पानी भरे ग े कहां मिलेंगे । तो उन्होंने प्रयोगशाला में रेगिस्तान की परिस्थिति निर्मित की । 
रेगिस्तान में ओस के कारण रेत में काफी नमी हो जाती है । जब इन छिपकलियों को ऐसी गीली रेत में रखा गया तो इन्होंने खुद की पीठ पर वह रेत बिछा ली । अब इनके शल्कों के बीच जो जगह थी वह नालियों के समान काम करने लगी । एक मायने में शल्कों के बीच की यह जगह स्ट्रॉ की भूमिका अदा कर रही थी । मगर मात्र गीली रेत पर पड़े रहने से काम नहीं बनता । यदि सिर्फ पैर और पेट वाला हिस्सा ही गीली रेत के संपर्क में रहे तो त्वचा पर उपस्थित सारी नालियां पानी से नहीं भर पाती । इसलिए कंटीली शैतान को रेत अपनी पीठ पर भी बिछाना होती है । 
कोमैन्स को लगता है कि कंटीली शैतान की पानी पीने की इस विचित्र विधि को समझकर कई उपयोगी उत्पाद बनाए जा सकते    हैं । जैसे इस विधि से हम रेगिस्तान में पानी इकट्ठा करने की जुगाड़ जमा सकते हैं । इस विधि का उपयोग हायजीन उत्पादों के निर्माण के अलावा इंजिनों के लुब्रिकेशन को बेहतर बनाने के लिए भी किया जा सकता है ।
फुल न हों तो मधुमक्खी क्या करेगी ?
मधुमक्खी और उनका छत्ता हमारे दिमाग मेंएक ही तस्वीर के दो हिस्से हैं । मगर इस प्रचलित तस्वीर के विपरीत अधिकांश मधुमक्खियोंबस्तियों में नहीं बल्कि अकेलीही रहती हैं । वे अपना छोटा-सा घोंसला बनाती हैं और उसमें अपनी संतानों का पालन-पोषण करती हैं । मगर इनके सामने एक समस्या आती हैं । 
बड़े-बड़े छत्ते बनानी वाली मधुमक्खियों के लिए तो शक्कर बना रहता है । आसपास फूल न हों या फूल देर से खिलेंतो भी वे कुछ समय तक काम चला सकती हैं । मगर अकेली मधुमक्खियोंके पास ऐसी कोई जमा पूंजी नहींहोती । फिर वे प्रतिकूल परिस्थितियोंमें क्या करती हैं ?
फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के जोन माइनर्स इसी सवाल के जवाब की तलाश मेंथे । उनको पता था कि अकेली रहने वाली मधुमक्खियों की संतानें वसंत में प्रौढ़ होकर निकलती हैं, भोजन (यानी पराग और मकरंद) तलाशती हैं, बच्च्े पैदा करती हैं और मर जाती हैं । अब यदि वे वसंत से थोड़े पहले ही निकल पड़ें, जब फूल न खिले हों, तो ?
कैलिफोर्निया के पिनेकल राष्ट्रीय उद्यान मेंमाइनर्स और उनके साथियोंने देखा कि कई झाड़ियों पर फफंूदलगी है और इस फफूंद के साथ शर्करा भी है । उन्होंने सोचा कि शायद इस फफूंद मेंही कुछ सुराग मिलेगा । माइनर्स ने यह भी देखा कि वसंत के शुरू में जब बहुत कम फूल खिले होते हैं, मधुमक्खियां इन फफूंद-लगी झाड़ियों पर खूब मंडराती हैं । 
माइनर्स ने एक काम तो यह किया फफंूद-रहित झाड़ियों पर या तो शर्करायुक्त पानी छिड़क दिया या सादा पानी छिड़क दिया । माइनर्स ने सोचा कि यह भी तो हो सकता है कि मधुमक्ख्यिां फफूंद लगी झाड़ियों पर शर्कराकी तलाश में नहीं किसी और वजह से जा रही    हों । तो उन्होंने कुछ फफूूंद लगी झाड़ियों पर एक कीटनाशक का छिड़काव किया जिससे शर्कराका उत्पादन बंद हो गया मगर फफूंद यथावत रही । 
यह देखा गया कि जिन झाड़ियों पर शर्करायुक्त पानी का छिड़काव किया गया था उप पर १०० मधुमक्खियोंं का आगमन हुआ जबकि मात्र पानी वाली झाड़ियों पर १० मधुमक्खियां ही पहुंची । दूसरी ओर फफूूंद युक्त शर्करा विहीन झाड़ियों पर भी मात्र १५ मधुमक्खियों ने ध्यान दिया । इससे तो लगता है कि मधुक्खियां फफूंद द्वारा एकत्रित शकरा को भोजन के स्त्रोत के रूपमें इस्तेमाल करती हैंं । 
मगर एक सवाल का जवाब अभी शेष है । फूलोंके रंग और गंध तो मधुमक्खियोंके लिए संकेत होते हैं कि भोजन कहां मिलेगा । फफूंद और शर्करा का पता कैसे चलता है ? माइनर्स का विचार है कि शायद संयोगवश कोई मधुमक्खी वहां पहुंचती है और फिर देखा-देखी अन्य मधुमक्खियां भी पहुंचने लगती हैं । अब इस विचार की जांच की   जाएगी । 
दूसरी बात यह है कि मधुमक्खियों का काम सिर्फ शर्करा से नहीं चल सकता । उन्हें पराग भी चाहिए क्योंकि वह प्रोटीन का स्त्रोत होता है । तो एक सवाल यह भी है कि प्रोटीन की पूर्ति कैसेहोगी । ये सवाल जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बदली हुई जलवायु में फूलों की देर से खिलने की आशंका है ।

कुदरती उड़ान की रफ्तार का रिकॉर्ड 
ब्राजील के एक चमगादड़ के बारे में दावा किया गया है कि वह जंतु जगत में सबसे तेज उड़ाका है । वह पक्षियों से भी तेज रफ्तार से उड़ सकता है । इस अध्ययन केे मुखिया टेनेसी विश्वविद्यालय के गैरी मैकक्रेकन ने दावा किया है कि उन्होंने इस चमगादड़ को १६० कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ते रिकॉर्ड किया है और यह पक्षियों की सबसे तेज गति से ज्यादा  है । आज तक यह माना जाता था कि एक अबाबील सबसे तेज उड़ता है और उसकी रफ्तार ११२ कि.मी. प्रति घंटा रिकॉर्ड की गई थी । 

अलबत्ता मैकक्रेकन की टीम का यह दावा आते ही इस पर विवाद शुरू हो गया है । दरअसल, मैकक्रेकन की टीम ने सात चमगादड़ों पर वह यंत्र लगाया जो हवाई जहाजों की निगरानी के कामआता है । यह एक मानक प्रक्रिया है । इसके आधार पर उन्होंने देखा कि इन चमगादड़ों को उड़कर जमीनी दूरी तय करने में कितना समय लगता है । देखा गया कि सामान्यत: तो ये चमगादड़ एक औसत ढंग से उड़ते हैं मगर बीच-बीच में वे तेज गति से उड़ने लगते हैं और अधिकतम १६० कि.मी. प्रति घंटे की गति हासिल कर लेते हैं । 
मगर पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि उनके मापन में कई समस्याएं हैं । जैसे एक ता यह बात सामने आई है कि मैकक्रेकन की टीम ने इस बात का कोई ख्याल नहीं किया कि हवा किस गति से चल रही थी । 
सामाजिक पर्यावरण
खनन पर नियंत्रण : गोआंचि माटी घोषणा पत्र
राहुल बसु 

गोवा के नागरिक समूहों ने मिलकर एक घोषणापत्र तैयार किया है, जिसके अनुसार गोवा में हो रहे अवैध खनन को न केवल नियमित व नियंत्रण किया जाएगा बल्कि गोवा का प्रत्येक नागरिक खनन से प्राप्त लाभों का हिस्सेदार होगा । साथ ही खनिज संपदा को भावी पीढ़ियों को उपलब्ध करवाने का संकल्प भी लिया गया है ।
गोवा में खनन बेहद विभाजनकारी है । अतएव खनन पर अपना दृष्टिकोण बनाते समय हमने अत्यंत सावधानीपूर्वक सभी भागीदारों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखा है और कुछ सिद्धांन्तों के आधार पर ठोस कदम उठाए हैं जिससे कि सभी पक्ष लाभान्वित हो सकें । खनन पर निर्भर व्यक्तियों को लाभ हो - खनन से प्रभावित व्यक्तियों को लाभ हो  - गोवा की राज्य सरकार लाभान्वित हो - गोवा के नागरिक लाभान्वित हों - गोवा के भविष्य के नागरिक लाभान्वित हों - खननकर्ता २० प्रतिशत तक लाभार्जन कर सकते हैं परंतु अब वे लूट नहीं सकते । 
संविधान के अन्तर्गत (अनुच्छेद २९५) गोवा के खनिज का स्वामित्व गोवा राज्य का है। परंतु सार्वजनिक ट्रस्ट सिद्धांत (डाक्ट्रिन) अनुच्छेद २१,जीवन का अधिकार, के अनुसार राज्य सरकार विशेषकर भविष्य की पीढ़ी के संदर्भ में प्राकृतिक संसाधनों की महज ट्रस्टी  है । दूसरे शब्दों में कहंे तो खनिज गोवा के निवासियों की साझा संपत्ति है । इसके अतिरिक्त आनुवांशिक समता सिद्धांत (इंटरजनरेशनल इक्विटी प्रिसिंपल) (अनुच्छेद २१ जीवन का अधिकार) के अनुसार, हमें तो खनिज विरासत में मिले हैं हम महज इनके अभिरक्षक हैंऔर हमें हर हाल में इन्हें अपनी भविष्य की पीढ़ियों को हस्तांतरित करना    है । 
खनन लीज होल्डर जमीन के नीचे दबे खनिजों के मालिक या स्वामी नहीं हैं । उनके पास महज वैध खनन करने की लीज है । वह वास्तव में केवल कच्ची धातु निकाल सकते हैं । यदि उन्होंने केवल कच्ची धातु के लिए ही भुगतान किया हो तो क्या इससे उन्हें कच्ची धातु पर स्वामित्व भी प्राप्त हो जाता है ?
गोवा की अर्थव्यवस्था में खनन का बहुत बड़ा हिस्सा है। हालांकि यह जी एस डी पी के ७.५ प्रतिशत से अधिक भी नहीं रहा । इससे रोजगार प्राप्त होता है और यह राज्य सरकार को थोड़ा बहुत राजस्व भी प्रदान करता है । परंतु खनन गोवा की सबसे बड़ी पर्यावरणीय एवं सामाजिक समस्या भी है। इसने हमारे खेत, खदान एवं नदियों को नष्ट कर दिया और मछली करी और चावल के स्त्रोतों को भी नुकसान पहुंचाया । इसने खनन क्षेत्र में निवास कर रहे लाखों लोगों के फेफड़ों को क्षति पहुंचाई है और यह असंख्य मौतों के लिए भी जिम्मेदार है ।
खनन गोवा में भ्रष्टाचार का एकमात्र सबसे बड़ा स्त्रोत है और इसकी वजह या जड़ है गोवा की निकृष्ट प्रशासनिक व्यवस्था । सर्वोच्च् न्यायालय ने स्वयं अपने निर्णय में कहा है कि प्रतिबंध लगाने के पहले पांच साल तक हुआ खनन पूरी तरह से अवैध था यानी १०० प्रतिशत अवैध । इसके अलावा भी अवैधानिक खनन को लेकर तमाम रिपोर्ट सामने आ चुकी हैं । जिनमें शामिल हैं (१) पी ए सी रिपोर्ट (२) शाह आयोग रिपोर्ट १ एवं २ (३) सी ई सी रिपोर्ट (४) पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को प्रस्तुत ई ए सी रिपोर्ट, (५) ई आई ए पर सी ई ई/गाडगिल रिपोर्ट (६) शाह आयोग रिपोर्ट-३ (७) १७ चार्टर्ड अकांउटंेट (सी ए) द्वारा प्रस्तुत   रिपोर्ट । इसके अलावा एस आई टी, लोकायुक्त एवं प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जांचें जारी हैं । 
सबसे बदत्तर बात यह है कि, ऐसा अनुमान लगाया गया है कि खनन की लीज देने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हमारे खनिजों के मूल्यों में ९५ प्रतिशत से अधिक ही हानि हो जाती है। और जो क्षुद्र सी धनराशि प्राप्त भी होती है, वह भी खर्च हो जाती है और उसे भविष्य के लिए संभाल कर या जमा करके नहीं रखा जाता । कुल मिलाकर यह जबरदस्त नुकसान था । गणना करें तो इससे राज्य के राजस्व को करीब दोगुना घाटा हुआ है या प्रति व्यक्ति आय के २५ प्रतिशत या गरीबी रेखा से तीन गुना घाटा हुआ है । इस घाटे को प्रति व्यक्ति कर के रूप में भी सभी में विभाजित किया जा सकता है । कुछ लोग हमारे बच्चें की विरासत से अमीर बन गए अतएव यह कोई मान्य स्थिति नहीं है ।
भाजपा सरकार को खनन मुद्दा सुलझाने का स्वर्णिम अवसर मिला था । १०,००० करोड़ रु. से अधिक की कच्ची धातु व इकट्ठा सामग्री राज्य की संपत्ति बन गई   थी । कोई भी खनन लीज वैध नहीं थी और उनके पास इस पूरी प्रणाली को नए सिरे से तैयार करने का मौका था । परंतु सरकार ने ८८ लीजों का नवीनीकरण कर दिया । इनमें से तमाम को एक हफ्ते के अंदर मंत्रीमंडल की स्वीकृति एवं अध्यादेश जारी होने के मध्य नवीनीकृत कर दिया गया । 
ओडिशा की तरह न होते हुए गोवा में पिछले दिनांक से भी इन्हें नवीनीकृत कर दिया गया । फलस्वरूप हमारा दावा ही खत्म हो गया । चूंकि यह ९५ प्रतिशत नुकसान वाली पुरानी प्रणाली पर आधारित है अतएव इसके परिणामस्वरूप हमें ७९००० करोड़ रु. का अतिरिक्त घाटा   होगा । यह कुल मिलाकर १,४४,००० करोड़ रु. बैठेगा यानी प्रति व्यक्ति करीब १० लाख रु.। इसे हर हाल में रोकना ही होगा ।
हम इस लीज को तुरंत रद्द करने के सभी वैधानिक तरीके ढूंढेगंे और अपने अधिकार एवं बकाया राशि भी प्राप्त करेंगें । हम शून्य हानि खनन (जीरो लॉस खनन) की नीति जीरो वेस्ट माइनिंग का क्रियान्वयन करवाएंगे और इससे प्राप्त धनराशि को गोवांचि माटी परमानेंट फंड (स्थायी कोष) में जमा करेंंगे तथा केवल वास्तविक आमदनी को नागरिक लाभांश के रूप में वितरित करेंगे ।
खनन पर आगे बढ़ने से पूर्व हम सर्वप्रथम यह सुनिश्चित करेंगे कि हमारी भविष्य की पीढ़ी के पास खनन हेतु यथोचित खनिज उपलब्ध रहें । इसके पश्चात हम यह सुनिश्चित करेंगे कि सभी पर्यावरणीय एवं कानूनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो । तीसरा यह कि नए खनन प्रारंभ के पूर्व हम वहां पर जो पहले से पड़ा है उसे निपटाएंगे । इससे स्थायी कोष (परमानेंट फंड) के लिए धन इकट्ठा होगा और यह दो पर्यावरणीय समस्याओं, वहां पर इकट्ठा धातु एवं खाली छोड़ दिए गए गड्ढ़ों से भी निपटने में सहायक होगा । चौथा, नए खनन हेतु हम एकाग्र (कन्सन्ट्रेटेड) खनन का प्रस्ताव दे रहे हैं । 
इसमें केवल एक या दो खदानों को लीज पर दिया जाएगा जो कि व्यापक विध्वंस को न्यूनतम करेगा और इससे हमारे नियंत्रण में वृद्धि होगी । पांचवा, यह कि जिला खनन फेडरेशन, खनन प्रभावितों के साथ पारस्परिक भागीदारी बजट प्रक्रिया के तहत अपनी योजनाएं विकसित करेंगे ।
जीवन शैली
बढ़ता शोर प्रदूषण
प्रो. कृष्णकुमार द्विवेदी
वर्तमान समय में तीव्र नगरीकरण तथा आधुनिक जीवनशैली के कारण ध्वनि प्रदूषण निरन्तर दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है । शोर प्रदूषण मुख्य रूप से नगरों व महानगरों की प्रमुख समस्या बनती जा रही है । 
वस्तुत: ध्वनि जब एक सीमा से अधिक हो जाती है तो वह मानव तथा अन्य जीव जन्तुआें के लिए घातक हो जाती है, तब वही ध्वनि या शोर प्रदूषण कहलाती है । सामान्यत: ध्वनि एक यांत्रिक तरंग है जो घर्षण और संघटय से उत्पन्न होती है । हमारे कान इनमें से कुछ विशिष्ट आवृत्ति की तरंगों को ही सुन पाते है । कानों द्वारा ग्राहय तरंगों को ध्वनि कहा जाता है । ध्वनि की आवृत्ति मापने की इकाई हट्र्ज होती है । आर्वतकाल के व्यत्क्रम को आवृत्ति कहते है । आवृर्त्ति के आधार पर ध्वनि का वर्गीकरण होता है । वैसे ध्वनि ऊर्जा का ही एक रूप है क्योंकि ध्वनि की निर्भरता गति पर होती है । गति ऊर्जा से संबंधित है । 
सामान्य रूप से ३० डेसिवल से अधिक तीव्रता वाली ध्वनियां शोर कहलाती है । वैसे भी सभी ध्वनियां शोर प्रदूषण के अन्तर्गत आती है जो मन को अशांत या बेचैन करती है । वास्तविकता में पर्यावरण में उत्पन्न होने वाली कोई भी अवांछित आवाज जिसका जीवों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, शोर प्रदूषण है । 
दैनिक जीवन में हमें विभिन्न तीव्रता वाली ध्वनियां सुनाई देती है जिनका ध्वनि स्तर १० से लेकर १०० डेसीबल तक होता है । वैज्ञानिकों ने मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हुए अधिकतम ध्वनिसीमा निर्धारित की है जो विभिन्न देशों में ७५ से लेकर ८५ डेसीबल तक है । 
उल्लेखनीय है कि आयु में वृद्धि के साथ शोर प्रदूषण की सहनशीलता में भी अंतर आता है । भारतीय मानक संस्थान ने विभिन्न क्षेत्रों के लिये अधिकतम ध्वनि सीमा ५० से ७० डेसीबल निर्धारित की गयी है । इससे अधिक ध्वनि होने पर शोर प्रदूषण मानी जाती है । शोर प्रदूषण के कारण या स्त्रोत दो वर्गो में विभाजित है - प्रथम प्राकृतिक स्त्रोत इसके अन्तर्गत मेधों की गड़गड़ाहट बिजली की कड़कडाहट, तुफानी, चक्रवात, ज्वालामुखी विस्फोट, भूकम्प, भूस्खलन तथा तीव्रगति से गिरते जल आते है । इनका प्रभाव सीमित क्षेत्र में तथा सीमित समय के लिये होता है इसीलिए ये हानिकारक नहीं होते है क्योंकि ये अल्पकारिक होने के कारण ध्वनि की तीव्रता अधिक होते हुए भी इससे हानि बहुत कम होती है । 
द्वितीय ध्वनि प्रदूषण के स्त्रोत मानवीय स्त्रोत / कारक होते जिनमें प्रमुख रूप से उद्योगों में प्रयुक्त मशीनों से उत्पन्न ध्वनि, परिवहन के साधनों में बस, ट्रक, कार, मोटरसाइकिल, स्कूटर, वायुयान आदि वाहनों की ध्वनियों के साथ-साथ मनोरंजन के साधनों में लाउड स्पीकर से उत्पन्न तीव्र ध्वनि से उत्पन्न प्रदूषण का दुष्प्रभाव अत्यधिक पड़ता है । 
अत्यधिक शोर का सर्वाधिक प्रत्यक्ष हानिकारक प्रभाव कानों पर ही पड़ता है और श्रवण शक्ति स्थायी या अस्थायी तौर पर समाप्त् हो जाती है । कई बार तो अत्यधिक शोर से कान के परदे तक फट जाते है । १८० डेसीबल की तीव्रता वाले शोर के संपर्क मेंरहने पर तो मनुष्य की मृत्यु तक हो सकती है । शोर प्रदूषण से रक्त दाब बढ़ता है । ह्दय की धड़कन तीव्र होती है । पाचक रसों  के निर्माण में कमी आती है । आंखों की पुतलियों का प्रसार होने लगता   है । 
तीव्र शोर से शारीरिक स्वास्थ्य की अपेक्षा मानसिक स्वास्थ्य को भी अत्यधिक हानि पहुंचती है । तीव्र शोर से नींद में बाधा पड़ती है । अनिद्रा से मानवीय कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । व्यक्ति चिड़चिड़ा, बैचेनु, क्रोधी, क्लांत तथा तनावग्रस्त हो जाता है और तो ओर अत्यधिक शोर के कारण न्यूरोटिक व्यक्ति तो पागल तक हो जाता है । शोर प्रदूषण का शिशुआें तथा स्त्रियों पर अत्यधिक दुष्प्रभाव पड़ता है, कई बार तो उच्च् वेग वाली ध्वनि से तो स्त्रियों का गर्भपात भी हो जाता है अथवा गर्भस्थ शिशु के ह्दय की धड़कन बंद हो जाती तथा शिशु के सम्पूर्ण आचार व्यवहार में ही परिवर्तन आ सकता है । बच्च्ें भुलक्कड़ प्रवृत्ति के हो जाते है । 
शोर प्रदूषण से मानव के साथ-साथ जीव जन्तु एवं वनस्पतियों पर भी अत्यधिक हानिकारक प्रभाव देखा जाता है । लगातार होने वाले शोर के कारण पशु-पक्षी अपने आवास छोड़कर अन्यत्र चले जाते    है । खनन क्षेत्रों तथा सघन सड़क मार्गो के निकट वन क्षेत्रों से वन्य जीव पलायन कर जाते है ।  तीव्र ध्वनि तरंगों के कारण पक्षीगण अण्डे देना बंद कर देते है । तीव्र ध्वनि से अनेक सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते है जिससे अपशिष्ट पदार्थो के अपघटन में बाधा पड़ती है । शोर प्रदूषण के कारण पालतू पशुआें पर दुष्प्रभाव पड़ता है, जैसे उनका अशांत हो जाना, दूध की मात्रा में कमी आना । 
इसी प्रकार ध्वनि प्रदूषण से वनस्पति का विकास ही अवरूद्ध हो जाता, पेड़-पौधों के फल-फूल मुरझा जाते है, कई बार तो सूख भी जाते    है । तीव्रतर ध्वनि से भवनों की खिड़कियों के शीशे टूट जाते है, छतें हिल जाती है और उनमें दरारें पड़ जाती है । खनन क्षेत्रों में होने वाले विस्फोटों ने तो कई बार बहुमंजिलें इमारते धराशायी हो जाती है । जेट विमानों से उत्पन्न तीव्र ध्वनितरंगे से तो उंची इमारते धराशायी हो जाती   है । 
जेट विमानों से उत्पन्न तीव्र ध्वनितरंगें से तो उंची इमारतों, बांध, पुलों आदि में दरारें पड़ जाती है । परमाणु विस्फोटों के कारण उत्पन्न ध्वनि प्रदूषण का दुष्प्रभाव तो सैकड़ों किलोमीटर दूरी तक होता है जिससे स्थायी एवं सुदृढ़ अधो-संरचनाएं हिल जाती है और उनके धराशायी होने का खतरा भी बढ़ जाता है । पर्वतीय, हिम एवं पहाड़ी क्षेत्रों में चट्टाने के खिसकने, हिम स्त्राव तथा भूस्खलन की घटनायेंबढ़ने लग जाती है । 
शोर प्रदूषण के व्यापक दुष्प्रभाव को देखते हुए उन पर नियंत्रण के उपाय भी किये जाने आवश्यक हो गये है । प्रमुख रूप से शोर प्रदूषण उत्पन्न करने वाले कलकारखानों की स्थापना बस्तियों, वन, अभ्यारण्य एवं पर्वतीय क्षेत्रों से बहुत दूर की जानी चाहिए । औघोगिक भवनों में ध्वनि अवशोषक यंत्रों के साथ सम्पूर्ण परिसर में पर्याप्त् सघन वृक्षारोपण करना चाहिए । इसी प्रकार वाहनों के उचित रखरखाव के साथ-साथ तीव्र ध्वनि वाले हार्न पर प्रतिबंध के साथ उन्नत तकनीक वाले साईलेंसर का प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाए । 
खनन क्षेत्रों, हवाई अड्डों से कम से कम २० किलोमीटर दूर की परिधि में बस्तियां नहीं बसानी  चाहिए । बहुमंजिली इमारतों के निर्माण में ध्वनि अवशोषक एकोस्टिक टाईल्स का प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना    चाहिए । पर्वतीय, वन एवं खनन क्षेत्रों में विस्फोटकों का प्रयोग बंद होना चाहिए । धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक आयोजनों में उच्च् शक्ति के ध्वनि विस्तारक, डी.जे. आदि के प्रयोग को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए । शोर प्रदूषण के निवारण में सघन वृक्षावली अत्यन्त उपयोगी होती है । सघन वृक्षावली उच्च् ध्वनि तरंगों को सहजता से अवशोषित करने के साथ-साथ उन्हें वायुमण्डल में विक्षेपित करने के भी सहायक होती है । 
अत: नगरों, राजमार्गो, औघोगिक बस्तियों को वृक्षों की हरति पटि्ट्यों से पूर्ण आबद्ध करना    चाहिए । बढ़ता शोर प्रदूषण मानव, जीव जंतु, वनस्पतियों आदि के स्वास्थ्य, कार्यक्षमता और क्रियशीलता के साथ-साथ पर्यावरण अनुकूलन और पर्यासंतुलन के लिए भी अत्यन्त हानिकारक है इस पर नियंत्रण किया जाना अब आवश्यक हो गया है इसके लिए जन-जन को जागरूक भी होना होगा । 
कविता
नर्मदा गीत 
महेश श्रीवास्तव 
मात नर्मदा के प्रति हमको अपना फर्ज निभाना है । 
करें प्रदूषण मुक्त, तटों पर चादर हरी उगाना है ।। 

शिव के तप से बहा स्वेद, हर प्राणी का कल्याण हुआ । 
भुक्ति, मुक्ति, आनन्द धार का दिव्य नर्मदा नाम हुआ ।। 
पापनाशिनी, पुण्यदायिनी, मोक्ष प्रदाता है मैया । 
सदियों से तन, मन, जीवन की तृिप्त् प्रदाता है मैया ।। 

हमको माँ के उपकारों का अब कुछ कर्जचुकाना हैै ।
जलधारा को शुद्ध, पुन: अमृत की तरह बनाना है ।। 
मात नर्मदा के प्रति ....

माँ पयस्विनी, प्यास बुझाती खेत सींचती है अपने । 
देती ज्योति, उर्जा देती, सच करती सुख के सपने ।। 
सोचे जिससे पाया सब कुछ, उसे दिया है क्या हमने । 
नगर-गांव का कचरा डाला, छीन लिये वन के गहने ।। 

जगंल से है नदी, नदी से हम, हमने यह जाना है । 
स्वच्छ नर्मदा करके अब अपना अस्तित्व बचाना है ।। 
मात नर्मदा के प्रति ....

नर्मदा यात्रा
नर्मदा : आस्था से आजीविका तक 
प्रदीप पाण्डेय
भारत धार्मिक पर्व एवं त्यौहारों का देश है । अनादिकाल से परम्परा, आस्था और विश्वास समाज की पूंजी है । धर्म एवं भाषा अलग-अलग होते हुए भी मूल्य आधारित जीवन सृष्टि एवं पर्यावरण से लगाव यहाँ की जीवन पद्धति है । 
ऐसा ही एक सृष्टि और प्रकृति से जुड़ा प्रयास है नमामि देवि नर्मदे नर्मदा सरंक्षण यात्रा - २०१६ । हमारे मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान द्वारा मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी माँ नर्मदा को लेकर सृष्टि एवं मानव के कल्याण के लिए नमामि देवी नर्मदा सेवा यात्रा - २०१६ का संकल्प लिया है । 
यात्रा में देश धर्मध्वजा को लेकर चलने वाले संत-महात्मा, पूज्य शंकराचार्य जी, प्रवचनकार, साहित्यकार, पर्यावरणविद्, सामाजिक संगठन, देश के शीर्ष नेतागण, जल संरक्षण पर कार्य करने वाले विशेषज्ञ एवं इस माटी को माँ मानकर प्रणाम करने वाले सभी बन्धु एवं भगिनी इस पुनीत कार्य को समाज जागरण के साथ सफल बनाने का प्रयास करेगेंइस यात्रा में प्रति सप्तह मुख्यमंत्री जी एक दिन पदयात्रा में सम्मिलित होंगे । संत, समाज और सरकार के सहयोग से  चलने वाली यात्रा में पग-पग चलकर नर्मदा नदी के सभी पवित्र घाटों पर सेवारूपी कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त् होगा । 
हमें जो यह सौभाग्य प्राप्त् हो रहा है, उसकी कार्य योजाना प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक वर्ष पूर्व ही बना ली थी । उनके चिंतन में, मनन में माँ नर्मदा की तस्वीर विराजमान थी कि कैसे हमें हमारी नर्मदा को संरक्षित एवं संवर्धित करना है । उनके द्वारा माँनर्मदा को लेकर सृष्टि एवं मानव के कल्याण के लिए नमामि देवि नर्मदा सेवा यात्रा २०१६ का संकल्प लिया गया है । 
यह यात्रा माँनर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से ११ दिसम्बर २०१६ को प्रारंभ होकर मध्यप्रदेश के लगभग १६ जिलों के ५१ विकासखण्ड के ९७८ ग्रामों में कुल २०७७ कि.मी. (नदी के दोनों तटों पर) की यात्रा १४४ दिन में सम्पन्न होने जा रही है । उनकी इस संकल्पना का साकार रूप प्रदान करने में हमें पूरे तन-मन से सहयोग देना है । नमामि देवि नर्मदा नर्मदा सेवा यात्रा २०१६ के आयोजन से हमारे प्रदेश की जीवनदायिनी माँ नर्मदा को स्वच्छ औश्र वनाच्छादित करना है । समाज की सहभागिता और सार्वभौमिकता के आधार पर होने वाले इस ऐतिहासिक कार्य में न केवल हमारी जीवन रेखा नर्मदा नदी संरक्षित होगी बल्कि हमारे मानुष धर्म का एक कर्तव्य भी पूर्ण होगा । 
जन मानस की धार्मिक आस्था के अनुरूप यात्रा के बहुउद्देश्य सृष्टि एवं प्रकृति के लिये आने वाले समय में प्रेरणा देने का कार्य   करेगी । जन अभियान परिषद की टीम की मेहनत और लगन से परोपकार का यह अद्भूत कार्य सम्पन्न होगा । इस यात्रा के बाद भविष्य में जो परिणाम निकलेंगे उससे दुनिया में देश और प्रदेश की संस्कृति का वैभव बढ़ेगा । सेवा के इस कार्य से जुड़कर हम न केवल हमारा वर्तमान सुधारेगे अपितु हमारी भावी पीढ़ियों के लिये भी नया संदेश दे सकेंगे । 
इस यात्रा में समस्त जन प्रतिनिधि, मध्यप्रदेश के मंत्री, सांसद, विधायकगण, स्थानीय शासन संस्थाआें, जिला पंचायत, जनपद पंचायत, पार्षद, सरपंच सभी से सहयोग की अपेक्षा है । देश और दुनिया में यह यात्रा जन आन्दोलन के रूप में समाज और सरकार की जनभागीदारी के द्वारा एक मिशाल स्थापित करेगी । इससे हम सबका जीवन धन्य होगा । मानव एवं प्राणी के कल्याण का सपना साकार    होगा । 
यात्रा में मध्यप्रदेश शासन के सभी प्रशासनिक विभागों के अधिकारी सहयोग करते हुए आओ बनाये अपना मध्यप्रदेश के ९ बिन्दुआें (सबके लिये शिक्षा, सबसे लिये स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण, नशामुक्ति, जल संरक्षण, ऊर्जा संरक्षण, महिला सशक्तिकरण, समग्र स्वच्छता एवं कृषि को लाभकारी बनाना) के माध्यम से समाज में जन जागरण करेंगे । माँ नर्मदा की स्वच्छता दोनो तटों पर हरियाली चुनरी (फलदार वृक्ष) एवं धार्मिक महत्व को समाज के बीच स्थापित करेंगे । 
हमारे शास्त्रों में उल्लेखित है कि जल ही जीवन है । इस बात के महत्व को समझते हुए यह मात्रा दुनिया में विशाल बनेगी ।