गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

प्रसंगवश
लगता है त्रासदी कल की ही बात है 
 घनश्याम सक्सेना 
पिछले दिनों भोपाल गैस त्रासदी की ३२वीं बरसी मनायी गई । यह अवधि इतनी होती है कि इसमें एक पूरी पीढ़ी युवा हो जाती है । अत: भोपाल को अभी तक अपने जख्म भूल जाने चाहिए थे, पर गैस-पीड़ितो की पीड़ा देखो तो लगता है, त्रासदी अभी कल ही की बात है । यह इसलिए कि उनके पुनर्वास के वैसे प्रयास नहींकिए गए, जैसे होने चाहिए थे । 
हम दोष भी किस-किस को दें ? मृतकों के लिए अमेरिकी मानदंडों से मुआवजा मांगना तो दूर, हमने तो ४५०० करोड़ रूपए के दावे के बजाय मात्र ४७ करोड़ डालर यानी ७१५ करोड़ रूपए का प्रस्ताव सर्वोच्च् न्यायालय को दे दिया और वह भी त्रासदी के पांच साल बाद । अदालतेंबनाने और मुआवजा तय करने में इतनी लंबी अवधि लगी कि अमेरिका से मिलने वाले धन के संदर्भ  में देखें, तो डालर उछलता गया, रूपया निरंतर गिरता   गया । अत: जो मिला  उसकी कीमत भी कम हो गई । 
इस प्रकार, कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका, तीनों ने मिलकर गैस-पीड़ितों के प्रति घोर अन्याय किया । जो गैस-पीड़ित आज जीवित हैं, उनका पुनर्वास पूरी व्यवस्था को कोस रहा है । फिर, त्रासदी के प्रसंग में अनेक सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं । मसलन-यूनियन कार्बाइड जैसी विषैली गैस की फैक्ट्रीको लगाने की अनुमति आखिर क्यों दी गई ? पर्यावरण की सुरक्षा के मानदंड सुनिश्चित क्यों नहीं किए गए और समय-समय पर इस उपक्रम की निगरानी क्यों नहीं की गई ? प्रारंभ में यह फैक्ट्रीनगर के बाहर थी, मगर कुनियोजित विस्तार के नतीजतन बस्ती को उसके पास तक पहुंचने की अनुमति आखिर क्योंदी गई ? यदि वहां तक बस्ती पहुंच गई थी तो फैक्ट्री को क्यों स्थानांतरित नहीं किया गया, नगर से बाहर ? फिर, त्रासदी की उस रात आपदा प्रबंधन की व्यवस्था क्यों फेल थी ? कार्बाइड के शीर्षस्थ प्रबंधक वारेन एंडरसन को भोपाल से क्योंजाने दिया गया ? अब तो जिन तत्कालीन प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव को जवाबदार बताया जा रहा है, वे स्वर्गवासी हो चुके  है । मुआवजे के मामले में अदालतों के गठन, राशि-निर्धारण व वितरण में अत्याधिक देरी क्यों की गई ? ऐसे अनेक सवाल है ।         

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