गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

सामयिक
पृथ्वी की बोझा ढोने की सीमा
विनींता विश्वनाथन 
भूविज्ञान की दृष्टि से हम होलोसीन युग में हैं जो पिछले हिमयुग से चला आ रहा है । हर युग के कुछ ख्रास गुण होते हैं और इस युग में हमारे ग्रह पर काफी स्थिर परिस्थितियां बनी रही हैं । शायद यही कारण है कि मनुष्य इतनी सफलता से पृथ्वी पर चारों और फैल पाए । 
किसी भी प्रजाति या आबादी का अपने पर्यावरण पर कुछ-न-कुछ असर तो होता ही है, लेकिन मनुष्यों के कारण कुछ सदियोंसे हमारा ग्रह कुछ ज्यादा ही बदल रहा है । हमारी बढ़ती आबादी, उसके द्वारा संसाधनों का बढ़ता उपयोग और हमारे विभिन्न कार्योंा से उत्पन्न प्रदूषण के कारण हम अपने पर्यावरण में कई ऐसे परिवर्तन ला रहे हैं जो हमारे लिए ही नहीं, अन्य जीवों के लिए भी असहनीय साबित हो रहे हैं । इनमें से कई बदलाव ऐसे हैं जिन्हें पलटा नहीं जा सकता और ऐसे में हमारे लिए एक निर्वाह-योग्य जीविका मुश्किल लग रही है । 
बदलावों को एकदम से रोकना आसान नहीं है । इसमें काफी मेहनत और धन लगाना होगा और साथ ही अपने व्यवहार, अपनी जीविकाआें को भी बदलना होगा । ऐसे में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हम कितना बदलाव लाकर भी पृथ्वी को सुरक्षित परिस्थितियों में रख सकते हैं, होलोसीन को जारी रख सकते हैं ? 
इस सवाल के जवाब में २००९ में २८ वैज्ञानिकों के एक समूह ने ९ प्रक्रियाआें को चिन्हित किया था जो हमारे लिए सूचक बन सकती है । ये प्रक्रियाएं है - जलवायु परिवर्तन, जमीन व समुद्रोंमें जैव विविधिता विनाश की दर, नाइट्रोजन व फॉस्फोरस चक्र में फेरबदल, समतापमंडल में ओजोन की कमी, समुद्रों का अम्लीकरण, वैश्विक स्तर पर मीठे पानी का उपयोग, भूमि उपयोग में बदलाव, रासायनिक प्रदूषण और वायुमण्डल में निलंबित कणों की मात्रा ।
समूह ने इन प्रक्रियाआें की दहलीज, यानी वे मात्राएं जिनको पार करना हमारे लिए खतरनाक साबित हो सकता है, का भी आकलन   किया । इन प्रक्रियाआें की दहलीज को ग्रह की सीमाएं कहते हैं । ये हमारे लिए एक किस्म के सुरक्षित परिचालन के दायरे हैं जिसमें हम कई पीढ़ियों तक कुशलतापूर्वक रह सकते हैं । और २००९ में ही वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि इनमें से तीन (जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता नाश की दर और नाइट्रोजन चक्र) की दहलीजें हम पार चुके    हैं । 
जब ग्रह की सीमाएं प्रस्तावित हुई थी तो कई लोगों ने उनका स्वागत किया था । शायद यह एक तरीका था यह जानने का कि विकास की अपनी आकांक्षाआें को हम सीमित संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए कैसेसहारा दे सकते हैं, लेकिन कुछ आलोचनाएं भी थीं । इनमें से एक थी कि वैश्विक स्तर पर के आंकड़ों को हम स्थानीय स्तर पर कैसे समझे । उदाहरण के लिए, वैश्विक स्तर पर जैव-विविधता विनाश की दर या प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर हमेंस्थानीय स्तर पर होने वाली प्रक्रियाआें के बारे मेंज्यादा कुछ बताती नहीं है । 
कुछ लोगों को एक दिक्कत यह थी कि ये आंकड़े-अत्यन्त दृढ़ता से पेश किए जा रहे थे - उनकी निश्चयात्मकता पर चर्चा होनी चाहिए । और फिर जरूरी नही है कि हर प्रक्रिया की कोई दहलीज हो । कई प्रक्रियाएं ऐसी भी हो सकती हैं कि हर स्तर पर उनका कुछ-न-कुछ असर होता है ।
इन सब और अन्य कमियों को ध्यान में रखते हुए २०१५ में वैज्ञानिकों ने अपने शोध को अपडेट किया और उनके नतीजोंमें एक महत्वपूर्ण बात यह निकली कि किसी भी जगह पर १० प्रतिशत से ज्यादा प्रजातियों को खोना स्थानीय इकोसिस्टम के लिए दिक्कतें पैदा कर सकता है । इसके बाद २०१६ में आज तक का सबसे व्यापक विश्लेषण किया गया, जिसमें ३९ हजार प्रजातियों के १८ करोड़ से भी ज्यादा रिकॉर्डस को शामिल किया गया । इसका निष्कर्ष है कि पृथ्वी की ५८ प्रतिशत भूमि स १० प्रतिशत से ज्यादा प्रजातियां विलुप्त् हो चुकी  है । इन प्रजातियों के साथ इकोसिस्टम में उनकी क्रियात्मक भुमिकाएं खत्म हो सकती है । किसी इकोसिस्टम में हरेक प्रजाति कोई ने कोई भूमिका निभाती है - जैसे फसलों व जंगली पौधों का परागण, कीटों का सफाया इत्यादि । रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि किसी भी दहलीज को पार करने का मतलब नहीं है कि तुरन्त ही सब कुछ तबाह हो जाएगा लेकिन स्थिति गडबडाने की संभावना काफी बढ़ जाती है । 
ऐसे शोध से हमें सटीक आंकड़े शायद न मिले, लेकिन मात्र इस वजह से हमें इन नतीजों को नजरअंदाज कदापि नहीं करना  चाहिए । ये वैज्ञानिक चाहते हें कि सभी देशों के नीति निर्माता इस शोध को तवज्जों दें और गंभीरता से सोंचे कि भूमि और अन्य संसाधनों का कैसे इस्तेमाल किया जाए । 

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