सोमवार, 18 मार्च 2019



सम्पादकीय
पराली जलाने से दो लाख करोड़ का नुकसान
 उत्तर भारत में खेतों में पराली जलाने के कारण होने वाले प्रदूषण से भारत को सालाना करीब २.१ लाख करोड़ रूपए का नुकसान हो रहा है । यह प्रदूषण खासतौर पर बच्चें में सांस संबंधी गंभीर बीमारियों का बड़ा कारण भी है । अमेरिका के इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है । 
अध्ययन में प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य एवं अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान का अनुमान लगाया गया है । अध्ययन के मुताबिक ,खेत मेंफसलों के अवशेष जलाने से पांच साल से कम उम्र के बच्चें में सांस संबंधी संक्रमण का खतरा सबसे ज्यादा रहता है । 
अध्ययनकर्ता सैमुअल स्कॉट ने कहा, हवा की खराब गुणवत्ता दुनियाभर मे लोगों की सेहत पर मंडरा रहा सबसे बड़ा खतरा है । दिल्ली की हवा प्रदूषण कणों की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ओर से तय सुरक्षित स्तर से २० गुना ज्यादा है । दिल्ली की खराब हवा के लिए अन्य कारणों के साथ-साथ हरियाणा और पंजाब के किसानोंद्वारा खेतमें पराली जलाने की भी अहम भूमिका है । पराली से प्रभावित इलाकों व अन्य इलाकों के बीच तुलनात्मक अध्ययन के लिए शोधकर्ताआेंने अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के सेटेलाइट डाटा का इस्तेमाल किया । इसी तरह स्वास्थ्य संबंधी असर को जानने के लिए अस्पतालोंमें सांस की बीमारी के इलाज के लिए आने वालोंके आंकड़े जुटाए गए । 
अध्ययन में कहा गया है कि वायु प्रदूषण के कारण किसी क्षेत्र विशेष में  रहने वालों की काम करने की क्षमता पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है । अमेरिका की वांशिगटन यूनिवर्सिटी की सुमन चक्रवर्ती ने कहा उत्तर भारत में सर्दी के दिनों में गंभीर वायु प्रदूषण से सेहत की दृष्टि से आपात स्थिति बन जाती है । अगर कदम नहीं उठाए गए तो फसल जलाने से प्रदूषण और बढ़ेगा तथा स्वास्थ्य सेवाआें पर होने वाले खर्च में इजाफा होगा । अध्ययन में वायु प्रदूषण के अन्य कारणों को भी शामिल किया गया है । इसके मुताबिक पटाखों से होने वाले प्रदूषण से सालाना करीब सात अरब डॉलर (करीब ५० हजार करोड़ रूपए) का नुकसान होता है ।
प्रसंगवश
देश में २०२० तक ५२ लाख टन होगा ई-कचरा
डिजिटल क्रांति और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मेंलगातार हो रहे बदलाव के कारण वर्ष २०२० तक देश मेंई-कचरा का उत्पादन बढ़कर ५२ लाख टन तक हो सकता है । वर्ष २०१६ में देश का कुल ई-कचरा २० लाख टन था । 
उद्योग संगठन एसोचैम और ईवाई के संयुक्त अध्ययन के मुताबिक, सामाजिक और आर्थिक विकास, डिजिटल बदलाव, तेजी से उन्नत होती प्रौद्योगिकी और विकसित देशोंद्वारा विकासशील देशों तथा अविकसित देशों में इलेक्ट्रिकल तथा इलेक्ट्रॉनिक कचरा डाले जाने के कारण देश में ई-कचरा बड़ी तेजी से बढ़ रहा है । 
सबसे अधिक ई-कचरा उत्पादित करने वाले दुनिया के पांच देशों में भारत भी शामिल है । अन्य चार देश चीन, अमेरिका, जापान और जर्मनी हैं । देश में सबसे अधिक ई-कचरा महाराष्ट्र में उत्पादित होता है । देश में उत्पादित कुल ई-कचरा में महाराष्ट्र का योगदान १९.८ प्रतिशत हैं, लेकिन यह हर साल मात्र ४७,८१० टन ई-कचरे की रिसाइकलिंग करता है । तमिलनाडु का योगदान १३ प्रतिशत है और यह ५३,४२७ टन की रिसाइकलिंग करता है । 
ई-कचरा सभी प्रकार के इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रिॉनिक उपकरणों से उत्पादित होता है, जैसे टीवी, कम्प्युटर, लेपटॉप, टेबलेट, मोबाइल फोन, टेलीकम्युनिकेशन उपकरण, इलेक्ट्रॉनिक मशीन आदि । घातक रसायनों और धातुआें जैस पारा, कैडमियम, क्रोमियम, शीशा, पीवीसी, ब्रोमिनेटेड फ्लेम, रिटार्डेटस बेरिलियम, एंटीमोनी और थैलेट्स आदि की उपस्थिति के कारण ई-कचरा हानिकारक होता है । 
इसके अलावा कुल ई-कचरे मेंउत्तरप्रदेश का योगदान १०.१ प्रतिशत का है और यह करीब ८६,१३० टन कचरे की रिसाइकलिंग करता है । पश्चिम बगाल का योगदान ९.८ प्रतिशत, दिल्ली का का ९.५ प्रतिशत, कर्नाटक का ८.९ प्रतिशत, गुजरात का ८.८ प्रतिशत तथा मध्यप्रदेश का ७.६ प्रतिशत है । रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर मेंवर्ष २०१६ में ४.४७ करोड़ टन ई-कचरा उत्पादित हुआ और इसके हर साल ३.१५ प्रतिशत की दर से बढ़ने का अनुमान है । ई-कचरा जितनी तेजी से बढ़ रहा है, उसके मुताबिक वर्ष २०२१ तक यह ५.२२ करोड़ टन हो जाएगा । 
सामयिक
संकटग्रस्त दुनिया को गांधीजी की जरूरत
भारत डोगरा
थोड़े ध्यान और धीरज से देखें तो दुनिया का मौजूदा संकट प्रकृति और प्राकृतिक  संसाधनों से लगातार बिगड़ते इंसानी रिश्तों और नतीजे में पनपती, बढ़ती हिंसा में देखा जा सकता है। दुनियाभर के विचारकों में गांधी अकेले हैं जो इन संकटों को देख-समझ पाते हैं और उनसे निपटने का रास्ता भी दिखाते हैं । 
महानता की एक बड़ी कसौटी यह है कि विश्व की बुनियादी समस्याओं के समाधान में किसी व्यक्ति के जीवन व विचारों की उपयोगिता कितनी देर तकबनी रहती है। इस दृष्टि से देखें तो महात्मा गांधी के विचार इक्कीसवीं शताब्दी के बड़े सवालों से जूझने के लिए आज भी बहुत प्रासंगिक नजर आ रहे हैं और विश्वस्तर पर उनकी चर्चा है।
महात्मा गांधी के अपने जीवनकाल में यह स्थिति व सोच सामने नहीं आई थी कि एक दिन धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं भी खतरे में पड़ सकती हैं । पर आज २१ वीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में यह स्थिति ही विश्व की सबसे गंभीर चुनौती के रूप में सामने आ रही है। इस तेजी से उभरती स्थिति में गांधीजी की समग्र सोच पहले से और भी अधिक प्रासंगिक हो गई है।
धरती की जीवनदायिनी क्षमता खतरे में पड़ने के दो मुख्यपक्ष हैं। इन दोनों संदर्भों में ही समाधान प्राप्त करने के लिए गांधीजी की सोच बहुत सार्थक, उपयोगी, मौलिक व मूल्यवान है।
धरती की जीवनदायिनी क्षमता के संकटग्रस्त होने का पहला पक्ष यह है कि प्रकृति के प्रति आधिपत्य का संबंध रखने, प्राकृतिक संसाधनों (विशेषकर जीवाष्म ईंधन व वनसंपदा) का अत्यधिक दोहन करने के कारण आज ऐसे अनेक पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हो गए हैंजो धरती पर तरह-तरह के जीवन के पनपने की मूलस्थितियों को ही संकट में डालते हैं । इसमें जलवायु बदलाव का संकट, जल संकट, वायुप्रदूषण, समुद्रों का प्रदूषण, जैव-विविधता का तेज ह्ास अधिक चर्चित हैं, पर इतने ही अन्य गंभीर संकट भी हैंजो अभी चर्चा में कम ही आए  हैं ।
इन सभी संकटों के अपने-अपने विशिष्ट कारण व समाधान भी हैं, पर किसी-न-किसी स्तर पर इनका एक सामान्य कारक यह रहा है यह प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से जुड़े हैं व इसके लिए अनियंत्रित उपयोग, भोग-विलास व उपभोक्तावाद जिम्मेदार हैं । टालस्टॉय जैसे कुछ अन्य आधुनिक विचारकों के साथ महात्मा गांधी ने बुनियादी तौर पर सादगी और सादगी आधारित संतोष को एक अति महत्वपूर्ण जीवन-मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया । गांधीजी की सादगी की सोच अपने ऊपर बहुत परेशानी से नियंत्रण रखने में नहीं है, अपितु एक सहज, स्वाभाविक सोच है जो आसानी से संतोष व बंधनमुक्ति  के अहसास की ओर ले जाती है। इस सोच की सही समझ बने तो अधिक लोगों द्वारा अपनाई जा सकती है।
जीवनदायिनी क्षमता के संकट में पड़ने की दूसरी वजह युद्ध व अति-विनाशक हथियार हैं । इस संदर्भ में गांधीजी की सोच तो और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उन्होंने हिंसा को मूलत: जीवन के हर एक पक्ष से हटाने के लिए कहा था। युद्ध और हथियारों की दौड़ कितने विनाशक हो चुके हैं, हर कोई जानता है पर उनका नियंत्रण नहीं हो पा रहा है क्योंकि समाज में ऊपर से नीचे तक हिंसा की सोच जगह-जगह हावी है। इस हिंसा की सोच को जीवन के हर पक्ष से हटाने का एक बड़ा जन-आंदोलन विश्वस्तर पर मजबूत होना चाहिए । नीचे से ऊपर तक लोगों की आवाज हर तरह की हिंसा दूर करने के लिए पहुंचेगी तो इससे युद्ध, हथियारों की दौड़, महाविनाशक हथियारों पर रोक लगवाने में बहुत मदद मिलेगी ।
धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं को बचाने का प्रयास इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे सार्थक और जरूरी प्रयास है और इसे लोकतंत्र व न्याय की सोच के दायरे में ही प्राप्त करना है। इस प्रयास में विचारों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। इन विचारों के संघर्ष में गांधीजी की सोच बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होगी ।
गांधीजी के जीवनकाल में पूंजीवाद और साम्यवाद का टकराव चर्चा में था। उनमें यह वैचारिक साहस था कि उन्होंने इन दोनों व्यवस्थाओं से अलग अपने मौलिक विचारों को सामने रखा। उन्होंने धार्मिक कट्टरता, तरह-तरह के भेदभाव, उन पर आधारित वैमनस्य को पूरी तरह नकारा । उनके विचारों की बुनियाद पर न्याय व सद्भावना आधारित ऐसी व्यवस्था बन सकती है जिसमें इक्कीसवीं शताब्दी की बड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए लोग व्यापक एकता व एकजुटता से, गहरी निष्ठा व सहयोग से प्रयासरत हो सकें ।  
सबकी जरूरतों को पूरा करने वाली अर्थव्यवस्था, पर्यावरण की रक्षा व अमन-शांति के तीन प्रमुख उद्देश्यों में नजदीकी अंर्तसम्बंध है । इसे पहचानने व इस आधार पर एक समग्र सोच स्थापित करने की जरूरत है जिससे इन तीनों उद्देश्यों की राह पर एक-साथ आगे बढ़ा जा सके । गांधीजी की सोच में यह समग्रता मिलती है। यह मौजूदा कठिन दौर के लिए बहुत मूल्यवान है।
हमारा भूमण्डल
दुनिया मेंबढ़ रहे हैं पर्यावरण संरक्षण के प्रयास
डॉ. ओ.पी. जोशी

पिछले साल दुनियाभर में पर्यावरण संरक्षण को लेकर कई महत्वपूर्ण प्रयास हुए हैं । इन प्रयासों में एक है, करीब बारह हजार साल पुराना जर्मनी का हम्बख जंगल, जहां ४० से  अधिक नस्लों के पक्षी पाये जाते हैं । इस जंगल में पाये जाने वाले कोयले को निकालकर बिजली बनाने हेतु सरकार ने एक कम्पनी आरडब्ल्यूई को १९७८ में अधिकार दे दिया था जिसने पिछले ४० वर्षों में कोयला निकालने के लिए करीब ८० प्रतिशत जंगल काट डाले हैं । शेष बचे जंगल को बचाने की खातिर वहां के ग्रामीणों ने कम्पनी के विरूद्ध वर्ष २०१२ से संघर्ष प्रारंभ किया था जिसने २०१८ तक विशाल रूप ले लिया । 
जंगल बचाने हेतु डेढ़ से दो सौ लोग पिछले कुछ वर्षों से पेड़ों पर ही घर बनाकर रह रहे हैं । ९ सितम्बर १८ को जब पुलिस ने इन लोगों को पेड़ों से हटाने का प्रयास किया, तो इसका भारी विरोध हुआ । हजारों लोग वहां पहुंचे और प्रतिकार में पेड़ों पर अपना आशियाना बनाया । भारी विरोध को देखकर न्यायालय ने भी पेड़ों को काटकर कोयला निकालने पर अस्थायी रोक लगाने के आदेश जारी किये । लंदन में जर्मन दूतावास के सामने 'ग्रीन-पीस` संस्था के कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन कर कम्पनी का अनुबंध निरस्त करने की       मांग की ।
कम्बोडिया के रोवेग क्षेत्र के बेंग वन्यजीव-अभयारण्य में लकड़ी के तस्करों ने पिछले कुछ वर्षांे में ३३ प्रतिशत जंगल काटकर समाप्त कर दिये हैं । सरकार जब इन तस्करों के विरूद्ध कोई ठोस कार्यवाही नहीं कर पायी तो वहां के गांववासी जंगल को बचाने आगे आये । गांववासियों ने एक सेना बनाकर जंगल में कई स्थानों पर चौकियां कायम की और वहां रहकर निगरानी का कार्य किया । घूम-फिरकर निगरानी करने हेतु एक पेट्रोलिंग-टीम भी बनायी गयी । गांव के लोगों के इन प्रयासों से डरकर तस्करों ने हाथ पीछे खींच लिए। इस पूरे कार्य में कहीं कोई संघर्ष नहीं हुआ ।
मंगोलिया में इसी तरह घास के मैदान बचाए गये। पिछले कुछ वर्षों में घास के मैदानों के आसपास रहने वाले चरवाहे तथा घुमंतू जाति के लोग रोजगार के लिए शहरों में जाकर बस गये थे। पिछले वर्ष सरकार ने इन लोगों को वापस बुलाकर घास के मैदानों में पुन: बसाने का कार्यक्रम तैयार किया । इन लोगों को टेंट, जानवर और दूसरी सुविधाएं प्रदान की गयीं ताकि वे पहले की तरह जीवन व्यापन कर सकें । इन लोगों की वापसी से घास के मैदान सुधरने लगे एवं पर्यटकों की संख्या भी बढ़ने लगी । सरकार आगामी वर्षों में २० लाख लोगों को वापस लाने की योजना पर काम कर रही है।  
जंगलों को बढ़ाने हेतु पौधारोपण का एक सघन प्रयास कनाड़ा में किया गया है जहां चार करोड़ हेक्टर में फैले जंगल समाप्त हो गये थे। यहां देश के ६००० लोगों ने पिछले वर्ष ५० करोड़ पौधे रोपे जिनमें युवाओं की भागीदारी ज्यादा थी। पौध-रोपण के लिए अनुकूल मौसम में जंगलों में शिविर लगाये जाते हैं । सरकार एक पौधा लगाने पर १० सेंट देती है। एक सक्रिय युवा एक दिन में पांच से छह हजार पौधे रोप देता है। कई युवाओं ने पौधा रोपण से प्राप्त राशि से अपनी पढ़ाई का ऋण तक चुका दिया। कनाड़ा सरकार ने ९० प्रतिशत जंगलों की देखभाल की जिम्मेदारी भी जनता को सौंप रखी है जिसे जनता भी ईमानदारी से निभाती है।
दुबई के फैजल -मोहम्मद-अल-शिमारो ने कोई सघन पौधारोपण नहीं किया परंतु नार्वे के एक वैज्ञानिकी विधि से रेगिस्तान में टमाटर एवं भिन्डी की फसल तैयार   की । इस विधि में ५० प्रतिशत पानी कम लगता है। समुद्री जल साफ करने एवं जल प्रदूषण रोकने के दो प्रयास भी उल्लेखनीय है। न्यूयार्क में समुद्र के किनारे रोजाना एक दर्जन से ज्यादा संस्थाओं के सदस्य डेढ़-दो फीट गहरे पानी में जाकर सीप छोड़ते हैं। 
इसका कारण यह है कि सीप केवल जैविक रत्न मोती ही नहीं बनाती, अपितु पानी को साफ एवं कीटाणु-मुक्त भी रखती है। अभी तक इस तरह करीब तीन करोड़ सीप डाली जा चुकी हैंएवं वर्ष २०३५ तक एक अरब सीप डालने का लक्ष्य रखा गया है। न्यूयार्क निकासी सीप डालकर पानी साफ  कर रहे हैं तो दूसरी ओर नार्वे की एक जहाज कम्पनी हर्टिगुटन मरी हुई मछलियों से जहाज चलाने हेतु प्रयासरत है। मृत मछलियों से पैदा मिथेन गैस का उपयोग इस कार्य में किया जायेगा । जहाजों में जीवाश्म ईंधन के प्रयोग से प्रदूषण होता है एवं जलीय जीवों पर विपरीत प्रभाव । कम्पनी ने कहा है कि वर्ष २०१९ में मृत मछलियों से चलने वाला पहला जहाज तैयार हो जायेगा ।
यूरोप के प्रदूषित शहरों में १३ वां स्थान पाने वाले पेरिस में २०१८ में कारों की बिक्री लगभग १० प्रतिशत घट गयी है और वर्ष २०२४ तक डीजल वाहनोंको यातायात से हटाने की प्रक्रिया भी प्रारंभ कर दी गयी है। नम्बरों की 'ऑड-ईवन` व्यवस्था के साथ हर माह का पहला रविवार कारों से मुक्त किया गया है। पैदल व सायकल को बढ़ावा देने के लिए कई क्षेत्रों में प्रात: १० से शाम ६ बजे तक कारों का प्रवेश रोका गया है। 
जर्मनी में सार्वजनिक परिवहन में यात्रा करने पर कोई टिकिट नहीं लिया जाता । इससे लोग निजी वाहन छोड़कर ट्रेनों, बसों में ज्यादा यात्रा कर रहे हैं ताकि वायुप्रदूषण कम होने के साथ-साथ यातायात भी सुधर जाए । इटली के बोलोग्ना शहर में सायकल चलाने वालों को मुत में सिनेमा के टिकिट, आइस्क्रीम तथा बीयर दी जा रही है। यह सारा कार्य एक एप की मदद से अभी फिलहाल अप्रैल से सितम्बर तक किया गया जिसका लाभ हजारों लोगों ने लिया। 
'बिल गेट्स फाउन्डेशन` की ४० करोड़ की सहायता से कनाड़ा की कार्बन इंजीनियरिंग संस्था ने नौ वर्षों में ७० करोड़ रूपये से वेंकुवर शहर के  पास एक ऐसा संयंत्र तैयार किया है जो वायुमंडल से कार्बन-डाय-ऑक्साइड सोखकर ईंधन में बदल देता है। एक टन कार्बन-डाय -ऑक्साइड से ईंधन बनाने का खर्च महज ६५०० रूपये होता है।
प्लास्टिक प्रदूषण कम या समाप्त करने के 'विश्व पर्यावरण दिवस` पर किये गये वायदे को मानकर कई देशों ने इस ओर कदम बढ़ाये हैं। एक बार उपयोग के बाद फेंकी जाने वाली प्लास्टिक की वस्तुओं की रोकथाम पर ज्यादा ध्यान दिया गया है। यूरोपीय संघ के  २८ देशों में एक बार उपयोग में आने वाली प्लास्टिक की वस्तुओं के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने के संसद के प्रस्ताव को मंजूरी प्रदान की गई है। ताईवान की होटलों में भी इसी प्रकार के नियम लागू किये गये हैं। 
ब्रिटेन में डिस्पोजेबल कप पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया गया है। वहां की संसदीय समिति ने सुझाव दिया है कि प्रत्येक कप पर ०.५ पेंस (२२रूपये) का कर लगाया जाए एवं इससे प्राप्त राशि ज्यादा-से-ज्यादा रिसायकलिंग पर खर्च की जाए । नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम में एक सुपर मार्केट (इकोप्लाजा) ने अपनी एक शाखा प्लास्टिक रहित बनायी है। यहां ७०० प्रकार के खाद्य पदार्थोका बगैर प्लास्टिक के पैकिंग किया जाता     है। इस मार्केट के देश मेंे ७४ स्टोर्स     है जहां यह प्रयोग अपनाया जाएगा । 
चीन ने प्रदूषण की रोकथाम हेतु ना सिर्फ १९ हजार करोड़ की योजना बनायी है अपितु पर्यावरण के मानकों का उल्लंघन करने पर ५२८ करोड़ का जुर्माना भी लगाया है। प्रदूषण के प्रति लापरवाही के अपराध में चार हजार अधिकारियों को जेल की सजा दी गयी है। जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए नवम्बर में लंदन में हजारों लोगों ने प्रदर्शन किया। इन प्रदर्शनों से लंदन के पांच बड़े पुलों पर यातायात अवरूद्ध हुआ एवं सेन्ट्रल लंदन में भी घंटों जाम की स्थिति रही। कुल मिलाकर वर्ष २०१८ में विदेशों में पर्यावरण संरक्षण के लिए किये गये प्रयास सराहनीय, अनुकरणीय रह े।               
महिला दिवस पर विशेष 
समाज में स्त्रियों की अदृश्य भूमिका
शंपा शाह

ऐसे समय में जब देश के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत करीब ९४ फीसदी महिलाओं के आर्थिक योगदान को नकारा जाता हो, 'सकल घरेलू उत्पाद` यानि जीडीपी में उनकी भूमिका अनदेखी की जाती हो या उनके काम को कम करके आंका जाता हो, महिलाओं की कुछ अनूठा रचने, गढ़ने की क्षमताओं को अलग से देखा जाना चाहिए । 
छोटे-छोटे, अनजाने-से आम-फहम घरेलू काम दरअसल महिलाओं की रचनात्मकता को उजागर करते हैं। यह रचनात्मकता महिलाओं को उनकी हंसी, जिजीविषा और व्यापक दृष्टि देती है।    
कल्पना कीजिए एक स्त्री की जो स्वेटर बुन रही है या सिलाई कर रही है। उसके हाथ लगातार बुन रहे हैं और ठीक उसी समय कोई अदृश्य हाथ उसे उधेड़ता जा रहा है। स्त्रियों के अधिकांश कामों के साथ रोज ऐसा ही होता है। वह बर्तन मांजकर उन्हें चमचमा देती है और कुछ ही घंटों बाद उस जगह फिर जूठे बर्तनों का ढ़ेर होता है। वह घर बुहारती है, पानी भरती है, बच्चें को नहलाती है, खाना पकाती है। मगर इनमें से कोई भी काम, कभी भी पूरा नहीं होता। काम पूरा करने का संतोष क्या होता है, यह स्त्रियां बहुत कम जान पाती हैं । सुबह की रसोई से निपटे, लेकिन शाम की रसोई बाकी है। सुबह झाड़ू लगाई, घर सहेजा, लेकिन शाम तक पैरों के नीचे धूल है और घर अस्त-व्यस्त है।
ऐसे काम जो उसे खुद ही कभी पूरे हुए नहीं दिखते, उन्हें वह दूसरों को कैसे दिखाए ? ये वे काम हैं जिन्हें हर दिन, साल-दर-साल, लगभग एक ही तरह से बार-बार किया जाना है। इन्हें दिमागी काम नहीं माना जाता । बल्कि सच पूछिए तो ये दिमाग को कुंद कर देते हैं। दिमाग इन छोटे-छोटे कामों के भंवर जाल में चक्कर खाता रहता है। स्त्री जीवन का हर दिन पिछले दिन जैसा है। उसमें कुछ भी नया नहीं बस एक पैटर्न या नमूना है, जो खुद को दुहराते रहता है।
इससे मन में अचानक यह बात आई कि क्या इसीलिए स्त्रियों को कढ़ाई, बुनाई, क्रोशिया, चौक-मांडने-रांगोली पसंद हैं,क्योंकि उनमें पैटर्न्स हैं जिन्हें दुहराना होता है। कई बार तो ये नमूने इतने जटिल होते हैं और उनमें इतना जोड़-घटाना रहता है कि समझ ही नहीं आता कि जो स्त्री कभी स्कूल नहीं गई, जिसने गणित नहीं पढ़ा वह ये नमूने कैसे याद रख रही है, या बना रही है? जो किसी कला विद्यालय नहीं गई, उसे आकारों, रंगों के तालमेल के बारे में ऐसा ज्ञान कहां से मिला ? और फिर ये रांगोली, ये रंग-बिरंगे मोती के तोरण, ये बचे हुए ऊन से बने स्वेटर, ये बचे हुए कपड़ों और धागों से बने झबले व फ्राक इतने सुंदर भी तो लगते हैं । ये नीरस काम तो नहीं लगते ? अगर ये नीरस काम ही बने रहते तो वे स्त्रियाँ जो इन्हें करती आई हैं, उनका हाल क्या होता? वे क्या कभी हंसती, गुनगुनाती दिखाई  देतीं ?
लेकिन स्त्रियों की सबसे खास पहचान ही यह है कि वे खिलखिला कर हंसती हैं और बात-बात पर और बिना बात के भी हंसती हैं। इस हंसी का स्त्रोत कहां है? सोचने पर लगता है कि इसके दो स्त्रोत हैं ।  सब्जी, आचार, मिठाइयों में जो असंख्य स्वादों की, गोदड़ी, फ्राक, स्वेटर, बांस की डलिया, गोदने-मांडने के अनंत रंगों और नमूनों को सिरजने में जो कल्पना लगती है वह इसका स्त्रोत है। सृजन की शक्ति । कुछ नया गढ़ने की शक्ति ।  
लेकिन तब प्रश्न उठता है कि यह सब बनाने, गढ़ने की इच्छा ही क्यों होती है? इस इच्छा-शक्ति का स्त्रोत क्या हैं  ? यदि हम हिंदी के स्त्री-वाचक शब्दों या स्त्री भाव को व्यक्त करने वाले शब्दों की सूची बनाए तो उसका जो सबसे प्रकट रूप निकल कर आता है वह कामधेनु या अन्नपूर्णा यानी हर इच्छा पूरी करने वाली का है। वह भूमा,पृथ्वी, अंबा, शक्ति,सरिता,सविता,समिधा, वसुंधरा है । वह श्री, भारती, शाश्वती  है । वह हर करने, सोचने लायक काम की 'भूमिका` है ।
यह अपने आप में कितनी विचित्र बात है कि जो समाज अपनी भाषा में उसे `भूमिका` कहकर बुलाता है, उसी समाज व संस्कृति को खुद के निर्माण और विकास में स्त्रियों की कोई भूमिका दिखाई नहीं देती । अब जरा हर दिन के बिंबों में स्त्री को याद करिए-सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती हुई, बगल में बच्च और सिर पर इंर्ट, लकड़ी का गट्ठर ढोती हुई, बुवाई, गुड़ाई, निंदाई, कटाई करती हुई, फटकती, छानती, बीनती, समेटती हुई, जंगल से घास, टहनियां, बीड़ी-पत्ता, कंदमूल लाती, कचरे के ढेर से पन्नी-बोतल बीनती, बेचती, छोटी-सी बांस की डलिया से मछली पकड़ती, नाचती, गाती, जमीन, कपड़ों, मटकों पर चित्र बनाती हुई छवियां। इन असंख्य कामों को करते हुए भी मूलत: उसकी चिन्ता और भूमिका-अन्नपूर्णा की यानी, लालन-पालन करने की है। 
मां होने के नाते सबका पेट भरने, सबको बीमारी या तरह-तरह की मुसीबतों से बचाने, उनके मंगल की, खुशहाली की कामना से वह भरी रहती है। उसके लिए कोई भी काम इतना छोटा नहीं हो सकता (कचरे के ढेर में घुसकर पन्नी-लोहा बीनना भी नहीं), यदि वह बच्चें की भूख मिटाने के लिए दो-चार रुपए दे सकता है। बड़े स्वप्न देखने का यहां मौका ही कहां है। वह सुकून भरा समय जिसमें दिमाग कोई गहरी, बड़ी बात सोच सके, ऐसा समय कहां है, एक कामगार स्त्री के पास ?
जब एक स्त्री एक स्वेटर या डलिया- चटाई-सूपा-झाडू बनाती है तो उन्हें घर में या अपने आसपास के लोगों के इस्तेमाल के लिए बना रही होती है । इन अपने लोगों के लिए बनाते हुए उस काम से रिश्ता प्यार का, अपनत्व का होता है। इसलिए ये काम थकाऊ और नीरस होने से बच जाते हैं । प्रेम की सिंचाई इन सारे कामों को रचनात्मक ऊर्जा से भर देती है। इन सारी चीजों का  व्यवसायीकरण अभी हाल-हाल में शुरू हुआ है।
स्त्री का संसार चूंकि घर के  चारों ओर घूमता है, इसलिए यह एक भ्रम है कि उसकी देश के आर्थिक-सामाजिक विकास में कोई भूमिका नहीं होती । तथ्य इससे बिल्कुल विपरीत हैं । उसके हल चलाने पर मनाही है, पर वे खेती के तमाम अन्य कामों में सबसे अधिक जुड़ी हैं । उसके बड़े-बड़े जाल समुद्र में फेंकने पर मनाही है, पर वह इतनी मछलियां जरूर पकड़ती है जिससे घर का चूल्हा जल पाए ।
अधिकांश लोग इस तथ्य को नहीं जानते कि हमारे देश में खेती के  बाद दूसरे सबसे अधिक रोजगार कुटीर उद्योग या हस्तशिल्प से आते हैं । देश के पच्चीस करोड़ परिवार अपने हाथ केहुनर या कलाकारी से ही रोजगार पाते हैं। देश के निर्यात राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा यहीं से आता है। यह बात लाउड-स्पीकरों पर एलान करके बताने लायक है कि इस देश की अर्थव्यवस्था को हमारे हुनरमंद हाथ चला रहे हैंजिनमें स्त्रियों की भूमिका पुरुषों से अधिक नहीं, तो बराबर अवश्य है।
इससे भी अधिक छुपा हुआ, न दिखने वाला तथ्य यह है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ स्वरोजगार है, यानी जो खुद अपना छोटा-मोटा, खेती, कुटीर उद्योग या मजदूरी जैसा काम करते हैं वे लोग हैं। न कि चंद गिने-चुने अंबानी या टाटा परिवार । हमारे देश में सरकारी और निजी दोनों को मिलाकर कुल सात प्रतिशत नौकरियां हैं। बाकी सब खुद काम करते हैं, भले ही वह अक्सर उनकी मर्जी का नहीं होता ।
स्त्रियों के मामले में ये आंकड़े और भी भयानक रूप ले लेते हैं। पूरे देश में सिर्फ छह प्रतिशत स्त्रियां ही नौकरी करती हैं । बाकी ९४ प्रतिशत स्त्रियां, यकीन मानिए, खाली नहीं बैठी हैं। वे स्वरोजगार से जुड़ी हैं । इन स्वयंसेवी स्त्रियों के काम करने की गिनती रखने वाला देश में कोई रजिस्टर नहीं है। इला बहन और उनके द्वारा स्थापित बहनों की स्वयंसेवी संस्था 'सेवा` (सेल्फ एम्लॉयड वीमेन्स एसोसिएशन) इस नाते विलक्षण है। वह देश की इन असंख्य अकेले काम कर रही स्त्रियों को एक साथ जोड़कर उन्हें संगठित करती है। उन्हें एक-दूसरे के साथ होने की गरमाहट, कामकाजी, आत्मनिर्भर नागरिक होने का एहसास करवाती हैं। 'सेवा` महिलाओं की रचने, गढ़ने की क्षमताओं और उनकी हैसियत का अहसास भी करवाती हैं। और शायद रोजगार और कमाई के साथ-साथ कुछ विशिष्ट रचने का यही अहसास महिलाओं को एक खास दर्जे पर स्थापित भी करता है।          
वातावरण
ई-कचरे के विरूद्ध सार्थक अभियान
प्रमोद भार्गव

दुनिया भर में  उपयोग करो और फेंको  संस्कृति, जो कई टन कचरे को जन्म देती है, के विरुद्ध शंखनाद हो गया है। 
दरअसल पूरी दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक कचरा (ई-कचरा) बड़ी एवं घातक समस्या बन गया है। इससे निजात पाने के लिए युरोपीय संघ और अमेरिका के पर्यावरण संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वाली कंपनियों की मनमानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वे राइट-टु-रिपेयर यानी मरम्मत का अधिकार की मांग कर रहे हैं । इस अभियान के भारत समेत पूरी दुनिया में फैलने की उम्मीद है। भारत को तो विकसित देशों ने ई-कचरा का डंपिंग ग्राउंड माना हुआ है। इस कचरे को नष्ट करने के जैविक उपाय भी तलाशे जा रहे हैं, लेकिन इसमें अभी बड़ी सफलता नहीं मिली है । 
अमेरिका एवं युरोप के कई देशों के पर्यावरण मंत्री कंपनियों को यह सुझा चुके हैं कि वे ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाएं, जो लंबे समय तक चलें और खराब होने पर उनकी मरम्मत की जा सके । भारत में भी कई गैर-सरकारी संगठनों ने आवाज  बुलंद की है। 
दुनिया के विकसित देश अपना ज्यादातर कचरा भारतीय समुद्र में खराब हो चुके जहाजों में लादकर बंदरगाहों के निकट छोड़ जाते हैं । इससे भारतीय तटवर्ती समुद्रों में कचरे का अंबार लग गया है। इस ई-कचरे में कम्प्यूटर, टीवी स्क्रीन, स्मार्टफोन, टैबलेट, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, इंडक्शन कुकर, एसी और बैटरियां होते हैं । इस अभियान के बाद अमेरिका में १८ राज्य राइट-टु-रिपेयर कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं । 
एक शोध के मुताबिक २००४ में घरेलू कामकाज की ३.५ फीसदी इलेक्ट्रॉनिक मशीनें पांच साल बाद खराब हो रही थीं। २०१२ में इनका अनुपात बढ़कर ८.३ प्रतिशत हो गया । रिसाइक्लग केंद्रों पर दस फीसदी से ज्यादा ऐसे उपकरण आए, जो पांच साल से पहले ही खराब हो गए थे। कम्प्यूटर, लेपटॉप, टैबलेट और मोबाइल के निरंतर नए-नए मॉडल आने और उनमें नई सुविधाएं उपलब्ध होने से भी ये उपकरण अच्छी हालत में होने के बावजूद उपयोग के लायक नहीं रह जाते। 
लिहाजा ई-कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक २०१८ में दुनिया भर में पांच करोड़ टन ई-कचरा इकट्ठा हुआ । इस कचरे एक जगह जमा किया जाए तो माउंट एवरेस्ट से भी ऊंचा पर्वत बन जाएगा अथवा ४५०० एफिल टावर बन जाएंगे। ई-कचरा पैदा करने में भारत दुनिया का पांचवां बड़ा देश है । भारतीय शहरों में पैदा होने वाले ई-कचरे में सबसे ज्यादा कम्प्यूटर और उसके सहायक यंत्र होते हैं । ऐसे कचरे में ४० प्रतिशत सीसा और ७० प्रतिशत भारी धातुएं होती हैं । कई लोग इन्हें निकाल कर आजीविका भी चला रहे हैं ।
आज ई-कचरा, जिसमें बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी शामिल हैं, नष्ट करना भारत व अन्य देशों के लिए मुश्किल हो रहा है। इसे जैविक रूप से नष्ट करने के उपाय तलाशे जा रहे हैं। इस कचरे का एक सकारात्मक पहलू सोना व अन्य उपयोगी धातुओं की उपस्थिति है। हाल ही में ऐपल कंपनी ने बेकार हो चुके कचरे को पुनर्चक्रित करके ई-कचरे से २६४ करोड़ का सोना निकाला  है । इसके अलावा करीब ५८० करोड़ का इस्पात, एल्यूमि-नियम, ग्लास और अन्य धातुई तत्व निकालने में कामयाबी हासिल की   है । 
ऐपल के इस रचनात्मक खुलासे  के बाद अच्छा होगा कि हमारी सरकारें युवाओं को ई-कचरे से सोना एवं अन्य धातुएं निकालने का प्रशिक्षण दें और स्टार्टअप के तहत इस तरह के संयंत्र लगाने को प्रोत्साहित करें।  इलेक्ट्रानिक उपकरणों के  उत्पादन और उनके नष्ट होने की प्रक्रिया निरंतर चलने वाली है, इसलिए यदि ये संयंत्र देश के कोने-कोने में लग जाते हैं तो इनके संचालन में कठिनाई आने वाली नहीं है। बेकार हो चुके उपकरणों के रूप में कच्च माल स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएगा और पुनर्चक्रण के बाद जो सोना-चांदी, इस्पात, जस्ता, तांबा, पीतल, एल्यूमीनियम आदि धातुएं निकलेंगी उनके खरीददार भी स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएंगे। 
वैसे भी ये धातुएं और इनसे बनी वस्तुएं रोजमर्रा के जीवन में इतनी जरूरी हो गई हैं कि इनकी आवश्यकता बनी ही रहती है। इन संयंत्रों के लगने से धरती व जल प्रदूषित होने से बचेंगे। यदि कचरा बिना कोई उपचार किए धरती में गड्ढे खोद कर दफना दिया जाता है तो इससे खतरनाक गैसें निकलती हैं जो धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक हैं ही, इलेक्ट्रानिक उपकरणों के लिए भी हानिकारक है।
इलेक्ट्रानिक उपकरण विशेषज्ञों का मानना है कि औसतन एक स्मार्टफोन में ३० मिलीग्राम सोना होता है। साफ है, समस्या बने ई-कचरा पुनर्चक्रण में बड़े पैमाने पर युवाओं को रोजगार मिलेगा और देश बड़े स्तर पर इस कचरे को नष्ट करने के झंझट से भी मुक्त होगा । इसलिए इस कचरे को रोजगार उपलब्ध कराने वाले संसाधन के रूप में देखने की जजरूरत है। 
औसतन एक टन ई-कचरे के टुकड़े करके उसे यांत्रिक तरीके  से पुनर्चक्रित किया जाए तो लगभग ४० किलो धूल या राख जैसा पदार्थ तैयार होता है। इसमें अनेक कीमती धातुएं रहती हैं। इन धातुओं के  पृथक्करण की प्रक्रिया में हाथों से छंटाई, चुंबक से पृथक्करण, विद्युत-विच्छेदन, सेंट्रीफ्युज और उलट परासरण जैसी तकनीकें शामिल हैं। लेकिन ये तरीके मानव शरीर और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले हैं, इसलिए इस हेतु बायो-हाइड्रो मेटलर्जिकल तकनीक कहीं बेहतर है। 
इस तकनीक को अमल में लाते वक्त सबसे पहले बैक्टीरियल लीचिंग प्रोसेस का प्रयोग करते हैं। इसके  लिए ई-कचरे को बारीक पीसकर उसे जीवाणुओं के साथ रखा जाता है। बैक्टीरिया में मौजूद एंजाइम कचरे में उपस्थित धातुओं को घुलनशील यौगिकों में बदल देते हैं। बायो-लीचिंग की विधि में जीवाणु कुछ विशेष धातुओं को अलग करने में मदद करते हैं । हालांकि ऐपल द्वारा ई-कचरे से सोना निकालने की जानकारी आने के पहले से ही कई प्रकार के जीवाणुओं और फफूंद का उपयोग प्रिटेंड सर्किट बोर्ड से सीसा, तांबा और टिन को अलग करने के लिए किया जाता रहा है। 
यदि ई-कचरे को छीलन में बदलकर ५-१० ग्राम प्रति लीटर की सांद्रता में घोलकर कुछ खास बैक्टीरिया के साथ रखा जाए तो कुछ तांबा, जस्ता, निकल और एल्यूमीनियम ९० प्रतिशत से अधिक निकाले जा सकते हैं । इसी प्रकार से कुछ फफूदों की मदद से ६५ प्रतिशत तक तांबा और टिन अलग किए जा सकते हैं। इसके अलावा कचरे की छीलन की सांद्रता १०० ग्राम प्रति लीटर रखी जाए तो यही फफूंदें  एल्यूमीनियम, निकल, सीसा और जस्ते में से भी ९५ प्रतिशत धातु को अलग करने में सक्षम सिद्ध होती हैं।  ये सभी उपयोगी धातुएं हैं। 
पुनर्चक्रण के लिए भौतिक-रासायनिक और ऊष्मा आधारित तकनीकें भी उपलब्ध हैं,किन्तु जैविक तकनीक की तुलना में इनकी सफलता कम आंकी गई है। हालांकि भारत में ई-कचरे के पुनर्चक्रण के संयत्र दिल्ली, मेरठ, बैंगलुरू,  मुबंई, चैन्नई और फिरोजाबाद में लगे हुए हैं, लेकिन जिस पैमाने पर ई-कचरा पैदा होता है, उसे देखते हुए ये संयंत्र ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं ।
इसलिए ई-कचरे के पुनर्चक्रण संयंत्र लगाने की जबावदेही ई-कचरा उत्पादन कंपनियों को भी सौंपने की जरूरत है। यदि पुनर्चक्रण के ये संयत्र स्थान-स्थान पर स्थापित कर दिए जाते हैं तो कचरे का निपटारा तो होगा ही, कच्च्े माल की कीमत कम होने से वस्तुओं के दाम भी कमोबेश सस्ते होंगे। साथ ही पृथ्वी, जल और वायु प्रदूषण मुक्त रहेंगे। 
विज्ञान जगत
भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरूआत
डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

  पिछले कुछ हफ्तों में इस बात पर महत्वपूर्ण चर्चा और बहस चली थी कि भारत में प्राचीन समय से अब तक विज्ञान और तकनीक का कारोबार किस तरह चला है। 
अफसोस की बात है कि कुछ लोग पौराणिक घटनाओं को आधुनिक खोज और आविष्कार बता रहे थे और दावा कर रहे थे कि यह सब भारत में सदियों पहले मौजूद था। इस संदर्भ में, इतिहासकार ए. रामनाथ (दी हिंदू, १५ जनवरी २०१९) ने एकदम ठीक लिखा है कि भारत में विज्ञान के इतिहास को एक गंभीर विषय के रूप मेंदेखा जाना चाहिए, न कि अटकलबाजी की तरह । लेख में रामनाथ ने इतिहासकार डेविड अरनॉल्ड के कथन को दोहराया है। अरनॉल्ड ने चेताया था कि भले ही प्राचीन काल के ज्ञानी-संतों के पास परमाणु सिद्धांत जैसे विचार रहे होंगे मगर उनका यह अंतर्बोध विश्वसनीय उपकरणों पर आधारित आधुनिक विज्ञान पद्धति से अलग है ।
ऐसा लगता है कि अंतर्बोध की यह परंपरा प्राचीन समय में न सिर्फ भारत में बल्किअन्य जगहों पर भी प्रचलित थी। किंन्तु आज  आधुनिक विज्ञान  या बेकनवादी विधि (फ्रांसिस बेकन द्वारा दी गई विधि) पर आधारित विज्ञान किया जाता है। आधुनिक विज्ञान करना यानी  सवाल करें या कोई परिकल्पना बनाएं, सावधानी पूर्वक प्रयोग या अवलोकन करें, प्रयोग या अवलोकन के आधार पर परिणाम का विश्लेषण करें, तर्क पूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचे, अन्य लोगों द्वारा प्रयोग दोहरा कर देखे जाएं और निष्कर्ष की जांच की जाए, और यदि अन्य लोग सिद्धांत की पुष्टि करते हैं तो सिद्धांत या परिकल्पना सही मानी जाए । ध्यान दें कि नई खोज, नए सिद्धांत आने पर पुराने सिद्धांत में बदलाव किए जा सकते हैं, उन्हें खारिज किया जा सकता है। 
वर्ष१४९० के दशक में, वास्को डी गामा, जॉन कैबोट, फर्डिनेंड मैजीलेन और अन्य युरोपीय खोजकर्ताओं के  ईस्ट इंडीज  (यानी भारत) आने के साथ भारत में  आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति  उभरना शुरू हुई । इनके पीछे-पीछे इंग्लैंड, फ्रांस और युरोप के कुछ अन्य हिस्सों के व्यापारी और खोजी आए। इनमें से कई व्यापारियोंऔर पूंजीपतियों ने भारत और भारत के पर्यावरण, धन और स्वास्थ्य, धातुओं और खनिजों को खोजा और अपने औपनिवेशिक लाभ के लिए लूटना शुरू कर दिया । 
ऐसा करने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक तरीकों को अपनाया । इसके अलावा, उनमें से कई जो समकालीन विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कृषि और चिकित्सा विज्ञान का कामकाज करते थे, उन्होंने इस ज्ञान को यहां के मूल निवासियों में भी फैलाया ।
यह औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत थी। इस विषय पर एक लेख इंडियन जर्नल ऑफ हिस्ट्री ऑफ साइंस के दिसंबर २०१८ अंक में प्रकाशित हुआ था । इस अंक के संपादन में आई.आई. एस.सी. बैंगलुरूके भौतिक विज्ञानी प्रो. अर्नब रायचौधरी और जेएनयू के प्रो.दीपक कुमार अतिथि संपादक रहे। प्रो. रायचौधरी विज्ञान इतिहासकार भी हैं और  पश्चिम देशों के बाहर पश्चिमी विज्ञान: भारतीय परिदृश्य में निजी विचार  पर उनका पैना विश्लेषण आज और भी ज्यादा प्रासंगिक है। उनका यह विश्लेषण जर्नल ऑफ सोशल स्टडीज ऑफ साइंस के अगस्त १९८५ के  अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रो. दीपक कुमार जे.एन.यू. के जाने-माने इतिहासकार हैं । उन्होंने भारत में विज्ञान के इतिहास पर दो किताबें साइंस एंड दी राज (२००६) और टेक्नॉलॉजी एंड दी राज (१९९५) लिखी हैं।
जर्नल के इस अंक का संपादकीय लेख डॉ. ए.के. बाग ने लिखा था। यह लेख विद्वतापूर्ण, अपने में संपूर्ण और शिक्षाप्रद है। डॉ. बाग भारत में प्राचीन और आधुनिक विज्ञान के इतिहासकार हैं । उन्होंने भारत-युरोप संपर्क और उपनिवेश-पूर्व और औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की विशेषताओं का पता लगाया था। 
जर्नल के इस अंक में ३० अन्य लेख भी हैंजो इस बारे में बात करते हैं कि कैसे बंगाल पुनर्जागरण हुआ और ब्रिटिश भारत की पूर्व राजधानी कलकत्ता ने बंगाल (कलकत्ता/ढाका) को भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रारंभिक राजधानी बनने में मदद की । वैसे तो विज्ञान से जुड़े अधिकतर लेख जे.सी. बोस, सी.वी. रमन, एस.एन. बोस, पी.सी. रे और मेघनाद साहा पर केन्द्रित होते हैं ।किंतु डॉ. राजिंदर सिंह ने इन  तीन विभूतियों  (सी.वी. रमन, एस.एन. बोस और एम.एन. साहा) के इतर प्रो. बी.बी.रे,  डी.एम. बोस और एस.सी. मित्रा पर लेख लिखा है। 
डॉ. जॉन मैथ्यू द्वारा लिखित लेख: रोनाल्ड रॉस टू यू.एन. ब्राहृचारी : मेडिकल रिसर्च इन कोलोनियल इंडिया बताता है कि कैसे प्रो. ब्रहृचारी की दवा यूरिया स्टिबामाइन ने कालाजार नामक रोग से हजारोंलोगों की जान बचाई थी । संयोग से, ब्रहृचारी ने भी १९३६ में इंदौर में आयोजित २३वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में इस बारे में बात की थी । ऑर्गेनिक केमिस्टस ऑफ प्री-इंडिपेंडेंस इंडिया नामक लेख में प्रो. सलीमुज्जमान सिद्दीकी का विशेष उल्लेख है । प्रो. सलीमुज्जमान सिद्दीकी ने नीम के पेड़ से एजेडिरैक्टिन और सर्पगंधा से रेसरपाइन जैसी महत्वपूर्ण औषधियां पृथक की थीं। विभाजन के समय उन्हें पाकिस्तान आने का न्यौता मिला था। पहले उन्होंने पाकिस्तान आने से मना कर दिया था, लेकिन वर्ष १९५१ में वे पाकिस्तान चले गए । वहां उन्होंने पाकिस्तान के सीएसआईआर और परमाणु ऊर्जा प्रयोगशालाएं शुरू  करने में मदद की । साथ ही उन्होंने उत्कृष्ट कार्बनिक रसायन विज्ञान की शुरुआत भी की जो आज भी बढ़िया चल रहा है। इस तरह उन्हें एक नवोदित देश (पाकिस्तान) में विज्ञान की नींव रखने वाले की तरह याद जा सकता है।
तीन और लोगों के योगदान उल्लेखनीय हैं । उनमें से पहले हैं दो भारतीय पुलिस अधिकारी । सोढ़ी और कौर ने अपने लेख  दी फॉरगॉटन पायोनियर्स ऑफ फिंगरिंप्रट साइंस : फालऑउट ऑफ कोलोनिएनिजम में दो भारतीय पुलिस अधिकारियों, अजीजुल हक और हेमचंद्र बोस के बारे में लिखा है। इन दोनों अधीनस्थ पुलिस कर्मियों ने कड़ी मेहनत और विश्लेषणात्मक पैटर्न विधि की मदद से फिंगर प्रीटिंग को मानकीकृत किया था, लेकिन उनके काम का सारा श्रेय उनके बॉस पुलिस महानिरीक्षक एडवर्ड हेनरी ने ले लिया ! अजीजुल हक ने ५ साल बाद अपने काम को राज्यपाल को फिर से प्रस्तुत किया । उन्हें ५,००० और बोस को १०,००० रुपए का मानदेय दिया गया ।
दूसरा नाम है नैन सिंह रावत का। उन्होंने ताजिकिस्तान सीमा से लगे हिमालय से नीचे तक फैले पूरे हिमालयी पथ का सफर किया। इस सफर के दौरान उन्होंने सावधानी-पूर्वक नोटस लिए और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ऊपरी रास्ते का नक्शा तैयार करने में मदद की। बाद में इससे सर्वे  ऑफ इंडिया को काफी मदद मिली ।
और तीसरा नाम है कलकत्ता के राधानाथ शिकधर का है। उन्होंने गणना करके पता लगाया था कि चोटी एक्सवी २९,०२९ फीट ऊंची है। यह हिमालय पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटी है, और विश्व की भी । हालांकि भारतीय स्थलाकृतिक सर्वेक्षण के प्रधान अधिकारी के नाम पर बाद में इस चोटी का नाम माउंट एवरेस्ट रख दिया गया । डॉ. बाग ने अपने संपादकीय लेख में इन दो खोजों का उल्लेख किया है और बताया है कि कैसे भारत सरकार ने नैन सिंह रावत और राधानाथ शिकधर के सम्मान में २००४ में डाक टिकट जारी किया ।
यहां हमने जर्नल के कुछ ही लेखों पर प्रकाश डाला है। जर्नल का पूरा अंक भारत में आधुनिक विज्ञान के जन्म और विकास पर केन्द्रित लेखों का संग्रह है। सारे लेख सावधानी पूर्वक किए गए शोध पर आधारित छोटे-छोटे और आसानी से पढ़ने-समझने योग्य हैं। और ये लेख विज्ञान की आदर्श शिक्षण और शोध सामग्री बन सकते हैं ।  
पर्यावरण परिक्रमा
खेती की कम होती जमीन और जैव विविधता 
पौधों, जानवरों और सूक्ष्मजीवों पर हुए संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के पहले अध्ययन के अनुसार जैव विविधता की रक्षा में विफलता के कारण खाद्य उत्पादक भूमि की क्षमता कम हो रही है । जैव-विविधता जीवों के बीच पाई जाने वाली विभिन्नता को कहते है । यह एक ऐसा विषय है जिस पर जलवायु परिवर्तन जितना ध्यान कभी नहीं गया । 
संयुक्त राष्ट्र (यूएन) से जुड़े खाद्य और कृषि संगठन के वैज्ञानिकोंने अपने ताजा अध्ययन में इस संबंध में चेतावनी जारी की     है । रिपोर्ट के मुताबिक परागण में सहायक भौरों आदि का अस्तित्व खतरे में है । इसके अलावा पिछले दो दशकों में दुनिया की २० प्रतिशत खेती योग्य जमीन कम हो गई है । 
शोध के मुताबिक, ज्यादातर देशों ने कहा है कि जैव विविधता के नुकसान का मुख्य कारक भूमि रूपांतरण । इसमें खेतों के लिए जंगलों की कटाई, शहरों और सड़कों के लिए घांस के मैदानों को कंक्रीट से ढका जाना शामिल है । पानी की अति खपत, प्रदूषण, एक ही साल में कई फसलें और जलवायु परिवर्तन भी जैव विविधता के क्षरण के लिए जिम्मेदार हैं। 
शोधकर्ता बताते हैं कि दुनिया पहले की तुलना में अधिक खाद्य का उत्पादन कर ही है, लेकिन इसकी वजह मोनोकल्चर कृषि में एक ही प्रकार की फसल को बहुत बड़े क्षेत्र में बोया जाता हैं । दो तिहाई फसल उत्पादन सिर्फ नौ प्रजातियों से होता है । इनमें गन्ना, मक्का, चावल, गेंहू, आलू, सोयाबीन और चुकंदर शामिल है । शेष ६,००० प्रजातियों में से कई तेजी से विलुप्त् हो रही है । 
भारतीय थर्मल पावर प्लांट सबसे ज्यादा नुकसानदेह 
चीन और अमेरिका में कोयले से सबसे ज्यादा बिजली बनती है, लेकिन स्वास्थ्य पर इसके असर की बात की जाए तो कोयले से चलने वाले भारतीय बिजलीघर सबसे ज्यादा नुकसानदेह हैं । वैश्विक पैमाने पर किए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में यह दावा किया गया हैं । 
स्वि्टजरलैंड स्थित ईटीएच ज्यूरिख के शोधकर्ताआें ने कहा कि कोयला से चलने वाले बिजलीघर कार्बन डाई ऑक्साइड के अलावा कई अन्य खतरनाक गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जो वैश्विक तापमान बढ़ाने (ग्लोबल वार्मिंग) के लिए जिम्मेदार हैं । 
ईटीएच ज्यूरिख के इंस्टीट्यूट ऑफ एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग के स्टीफेन हेलवेग ने कहा कि मध्य यूरोप, उत्तरी अमेरिका और चीन में सभी बिजलीघर आधुनिक हैं, लेकिन पूर्वी यूरोप, रूस और भारत में अब भी बिजलीघर फ्लू गैस से निपटने में सक्षम नहीं हैं । शोध की अगुवाई हेलवेग ने ही की । 
रिसर्च में यह पता लगाने के लिए कि कहां तत्काल कदम उठाने की जरूरत है, शोधकर्ताआें ने दुनियाभर में कोयले से चलने वाले ७,८६१ बिजलीघरों का स्वास्थ्य पर असरका आकलन किया । नेचर सस्टेनेबिलिटी नाम की पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार चीन और अमेरिका कोयला से सर्वाधिक बिजली पैदा करते हैं, लेकिन स्वास्थ्य पर इसके असर के मामले मेंभारत के कोयला आधारित बिजलीघर सर्वाधिक नुकसानदायक पाए गए । 
रिपोर्ट के अनुसार कोयला जलने से सल्फर डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और पारा जैसे पदार्थ एवं तत्व निकलने हैं । ये चीजें स्वास्थ्य को नुकसान पहंुचाती हैं । 
रिपोर्ट के मुताबिक भारत स्थित कोयला आधारित बिजलीघर प्रदूषण फैलाने वाले कुछ ही तत्वोंको हटा पाने में कामयाब हैं । इसके अलावा इन बिजलीघरों में प्राय: खराब क्वालिटी के कोयले का इस्तेमाल किया जात है । 
अध्ययन करने वाली टीम के प्रमुख सदस्य क्रिस्टोफर आबर्स-चेल्प ने कहा कि आधे से अधिक स्वास्थ्य संबंधी समस्या के लिए इस तरह के बिजलीघर जिम्मेदार हो सकते हैं । ऐसे में स्वास्थ्य के लिहाज से खतरनाक इन बिजली घरों को तत्काल या तो उन्नत बनाया जाना चाहिए या फिर उसे बंद किया जाना चाहिए । 
अमेरिकी किसानों की सूखी धरती पर खेती की ड्राई फार्मिग
अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत में भीषण सूखे के बीच करीब २.७५ लाख एकड़ जमीन पर बिना सिंचाई खेती की जा रही है । यह कैलिफोर्निया का खेती की जमीनोंका एक फीसदी हिस्सा है । इसमें टमाटर , आलु, फल्लियां, भुट्टा, कुम्हड़ा और अंगुर उगाए जा रहे हैं । बिना सिंचाई की इस खेती को ड्राईफार्मिंग कहा जा रहा है । इससे किसानों को पहले की तुलना में ३० प्रतिशत ज्यादा मुनाफा हो रहा है । 
कैलिफोर्निया के जिम लीप ने पहली बार यह तकनीक अपने शहर संजुआ बाउटिशा मेंलगाई थी । लीप का परिवार ८ साल से ड्राई फार्मिंग कर रहा है । लीप का कहना है कि ड्राई फार्मिंग कम बारिश वाले इलाकों में उपयोगी है । जमीन की नमी बनाए रखना ड्राई फार्मिंग का आधार है । इसके लिए जमीन की गहरी जुताई की जाती है, ताकि वाष्पीकरण रूके । ऐसी फसल लगाते हैं, जो कम नमी और कम समय में उगे । यह तकनीक १९वीं सदी में इटली और स्पेन में इस्तेमाल की जाती थी । धीरे-धीरे लोग इसे भूल गए । साल २०१४ से इसका इस्तेमाल कैलिफोर्नियामें बढ़ा, क्योंकि यहां बारिश कम होने लगी । इसी साल यहां वाटर मैनेजमेंट एक्ट आया । खेती के लिए पानी की सप्लाई सीमित की गई । दरअसल, यहां उपलब्ध पानी का ८० फीसदी खेती पर खर्च हो रहा था । 
यूएई के रेतीले क्षेत्रों में किनोआ की खेती शुरू की गई है । इसमें बड़ी मात्रा में प्रोटीन होता है । किनोआ की खेती को बढ़ावा देने के लिए दुबई मे इंटरनेशनल सेंटर फॉर बायोसलाइन एग्रीकल्चर (आईसी बीए) का सम्मेलन हुआ । इसमें दुनिया के १०० से अधिक बड़े किसानों, व्यवसासियों, वैज्ञानिकों, रिसर्चरों और सरकारों के प्रतिनि-धियों ने किनोआ की खेती पर विचार-विमर्श किया । 
जमीन से निकले तेल की मालिकी का सवाल 
गुजरात के मेहसाणा जिले के एक किसान खुमन सिंह चौहान ने अपनी जमीन से निकाले जा रहे पेट्रोलिय पदार्थोंा पर मालिकाना हक का दावा करते हुए हाई कोर्ट में अर्जी दायर की है । किसान ने याचिका में कहा है कि ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन (ओएनजीसी) ने कुछ सालों पहले उनकी जमीन का अस्थाई अधिग्रहण किया था और अब तक उसकी जमीन वापस नहीं की गई है । ऐसे में वर्तमान में उसकी जमीन से निकलने वाले तेल का मालिकाना हक उसे देदिया जाए । 
मेहसाणा के कैयल गांव के निवासी खुमन सिंह का कहना है कि साल २००७ में ओएनजीसी ने उसकी जमीन को यहां मौजूद तेल के उत्खनन के लिए अस्थाई रूप से अधिगृहित किया था । उन्होंने ने दलील दी कि ओएनजीसी बिना स्थायी अधिग्रहण किए लगातार उनकी जमीन से तेल निकाल रही है, जो कि अस्थाई अधिग्रहण की शर्तोंा का उल्लंघन है । 
किसान ने याचिका में यह मांग की है कि कोर्ट सरकार और ओएनजीसी को उनकी जमीन लौटाने का आदेश जारी करे । इसके साथ ही चौहान ने यह आग्रह भी किया है कि अगर ऐसा नहीं  हो सकता तो या तो उनकी जमीन से निकलने वाले तेल का मालिकाना हक उन्हे दे दिया जाए या फिर जमीन का स्थायी रूप से अधिग्रहण कर सभी शर्तेंा पूरी कर दी जाएं । चौहान के वकील सलीम सैयद ने हालांकि कोर्ट में माना है कि किसी कानून या नियमावली में जमीन से निकलने वाले तेल का मालिकाना हक जमीन मालिक को दिए जाने का प्रावधान नहीं है । 
जस्टिस एपी ठाकुर और जस्टिस हर्षा देवानी की बेंच ने मामले की सुनवाई करते हुए ओएनजीसी और राज्य सरकार को इस संबंध में अपना हलफनामा दायर करने के आदेश दिए हैं । इसी के साथ कोर्ट ने मामले की अगली सुनवाई के लिए १३ मार्च की तारीख तय कर दी है । ओएनजीसी ने इस मामले पर यह दलील दी है कि चूंकि यह स्पष्ट नहीं है कि किसान की जमीन से तेल का उत्खनन कब तक हो सकता है इस कारण जमीन का स्थायी अधिग्रहण नहीं किया जा सकता । वहीं खुमन सिंह का कहना है कि अगर जमीन का स्थायी अधिग्रहण नहीं हो सकता तो अस्थाई अधिग्रहण के समझौते को भी खत्म किया जाए ।
गाजर घास एक विनाशकारी खरपतवार 
खेतों के आसपास उगी गाजर घास न केवल इंसानों को नुकसान पहुंचाती है, बल्कि दूसरी फसलों को भी नुकसान पहुंचाती है । यह खरपतवारों में सबसे विनाशकारी खरपतवार है, क्योंकि यह कई तरह की समस्याएं पैदा करता है । इसकी वजह से फसलों की पैदावार ३०-४० प्रतिशत कम हो जाती है, इसलिए इसका नियंत्रण बहुत जरूरी है । इस खरपतवार में ऐस्कयुटरपिन लेक्टोन नामक विषाक्त पदार्थ पाया जाता हैं, जो फसलों की अंकुरण क्षमता और विकास पर विपरीत असर डालता है । इसके परागकण, पर-परागित फसलोंके मादा जनन अंगोंमें एकत्रित हो जाते हैं, जिससे उनकी संवेदनाशीलता खत्म हो जाती है और बीज नहीं बन पाते हैं ।             
नमभूमि
वेटलैंड एक महत्वपूर्ण इकोसिस्टम 
डॉ.दीपक कोहली
जीव-जन्तु विभिन्न प्रकार के प्राकृतवासों में रहते हैं। इन्हीं में से एक है वेटलैंड यानी नमभूमि । सामान्य भाषा में वेटलैंड ताल, झील, पोखर, जलाशय, दलदल आदि के नाम से जाने जाते हैं । 
सामान्यतया वर्षा ऋतु में ये पूर्ण रूप से जलमग्न हो जाते हैं। वेटलैंड्स का जलस्तर परिवर्तित होता रहता है। कई वेटलैंड वर्ष भर जल प्लावित रहते हैंजबकि कई गीष्म ऋतु में सूख जाते हैं । 
वेटलैंड एक विशिष्ट  प्रकार का पारिस्थितिक तंत्र है तथा जैव विविधता का महत्वपूर्ण अंग है। ज़मीन व जल क्षेत्र का मिलन स्थल होने के कारण वेटलैंड समृद्ध पारिस्थितिक तंत्र होता है । वेटलैंड न केवल जल भंडारण का कार्य करते हैं, अपितु बाढ़ की विभीषिका कम करते हैं और पर्यावरण संतुलन में सहायक हैं।
वेटलैंड्स को जैविक सुपर मार्केट कहा जाता है। इनमें विस्तृत खाद्य जाल पाया जाता है। इन्हें धरती के गुर्देभी कहा जाता है, क्योंकि ये जल को शुद्ध करते हैं । ये मछली, खाद्य वनस्पति, लकड़ी, छप्पर बनाने व ईंधन के रूप में उपयोगी वनस्पति एवं औषधीय पौधों के उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
वेटलैंड्स असंख्य लोगों को भोजन (मछली व चावल) प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । वेटलैंड्स कार्बन अवशोषण व भूजल स्तर में वृद्धि जैसी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। ये पक्षियों और जानवरों, देशज पौधों और कीटों को आवास उपलब्ध कराते हैं । 
   भारत के अधिकांश  वेटलैंड्स गंगा, कावेरी, कृष्णा, गोदावरी और ताप्ती जैसी प्रमुख नदी तंत्रों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं । एशियन वेटलैंड्स कोश के अनुसार वेटलैंड्स का देश के क्षेत्रफल (नदियों को छोड़कर) में १८.४ प्रतिशत हिस्सा है, जिसके ७० प्रतिशत भाग में धान की खेती होती है। भारत में वेटलैंड्स का अनुमानित क्षेत्रफल ४१ लाख हैक्टर है, जिसमें १५ लाख हैक्टर प्राकृतिक और २६ लाख हैक्टर मानव निर्मित है। तटीय वेटलैंड्स का क्षेत्रफल ६७५० वर्ग किलोमीटर है और यहां मुख्यत: मैंग्रोव  पाए जाते हैं । 
वर्तमान में प्रदूषण और औद्योगीकरण के कारण वेटलैंड्स पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं ।   आजकल वेटलैंड्स के किनारे कूड़ा डम्प किया जा रहा है जिसके कारण ये प्रदूषित हो रहे हैं। कई जगहों पर वेटलैंड्स कोपाटकर उन पर कांक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं। वेटलैंड्स के संकटग्रस्त होने के कारण वहां रहने वाले पशु, पक्षी एवं वनस्पतियों का अस्तित्व भी संकट में है। 
उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल के दलदली क्षेत्र में पाया जाने वाला दलदली हिरण कम हो रहा है। इसी प्रकार तराई क्षेत्र में पाई जाने वाली फिशिंग कैट पर भी बुरा असर पड़ रहा है। गुजरात के कच्छ क्षेत्र में जंगली गधा भी खतरे में है। असम के काजीरंगा का एक सींग वाला भारतीय गैंडा भी संकटग्रस्त प्राणियों की श्रेणी में शामिल है। इसी प्रकार ओटर, गंगा डॉल्फिन, डूगोंग, एशियाई जलीय भैंस जैसे वेटलैंड से जुड़े अनेक जीव खतरे में हैं।
वेटलैंड संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास में  रामसर संधि  प्रमुख है। यह एक अन्तर-सरकारी संधि है, जो वेटलैंड्स और उनके संसाधनों के संरक्षण और बुद्धिम-त्तापूर्ण उपयोग के लिए राष्ट्रीय कार्य और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का ढांचा उपलब्ध कराती है। १९७१ में देशों ने ईरान के रामसर में विश्व के वेटलैंड्स के संरक्षण हेतु एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इस दिन विश्व वेटलैंड्स दिवस का आयोजन किया जाता है । 
वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में २२०० से अधिक वेटलैंड्स हैं, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के वेटलैंड्स की रामसर सूची में शामिल किया गया  है । रामसर कन्वेंशन में शामिल होने वाले देश वेटलैंड्स को पहुंची हानि और उनके स्तर में आई गिरावट को दूर करने के लिए सहायता प्रदान करने हेतु प्रतिबद्ध हैं। 
वेटलैंड्स संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रयास किए गए  हैं । १९८६ में केन्द्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों के सहयोग से राष्ट्रीय वेटलैंड संरक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके अन्तर्गत संरक्षण और प्रबंधन के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा देश में ११५ वेटलैंड्स की पहचान की गई थी । 
वर्ष २०१७ में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वेटलैंड्स के संरक्षण से सम्बंधित नए नियम अधिसूचित किए गए थे। नए नियमों में वेटलैंड्स प्रबंधन के प्रति विकेन्द्रीकृत दृष्टिकोण अपनाया गया है, ताकि क्षेत्रीय विशिष्ट आवश्य-कताओं को पूरा किया जा सके और राज्य अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित कर सकें ।  
उल्लेखनीय है कि देश में मौजूद २६ वेटलैंड्स को ही संरक्षित किया गया है, लेकिन ऐसे हज़ारों वेटलैंड्स हैं जो जैविक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण तो हैं लेकिन उनकी कानूनी स्थिति स्पष्ट नहीं है।
वेटलैंड परितंत्र के अदृश्य अर्थतंत्रका आकलन करने वाली संस्था दी इकॉनॉमिक्स ऑफ  इकोसिस्टम एंड बायोडायवर्सिटी सर्विसेज के अनुसार समाज के  हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए वेटलैंड जीवन रेखा है। वेटलैंड्स की सेवाओं को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
(१) जीवन-यापन के स्त्रोत उपलब्ध कराना ताकि इन क्षेत्रों में निवास करने वाले गरीब लोगों को कमाई का अवसर मिल सके । वेटलैंड से शुद्ध पेयजल, भोजन, रेशे, इंर्धन, जेनेटिक संसाधन, जैव रसायन, प्राकृतिक औषधियां आदि प्राप्त् होते हैं।
(२) स्थानीय जलवायु विनियमन, ग्रीनहाउस गैसों के नियंत्रण हेतु एक वृहद कार्बन सिंक, जलीय चक्र को रेगुलेट करना और भूमिगत जल के स्तर को नियंत्रित करना भी वेटलैंड के लाभ के अन्तर्गत आता है। आपदा जोखिम को कम करना, खासकर बाढ़ और आंधी से बचाव । 
मृदा सृजन और मृदा अपरदन का नियंत्रण, सतही और भूमिगत जल में उपस्थित जैव रसायन और आर्सेनिक, लेड, आयरन फ्लोरीन आदि का उपचार । वेटलैंड्स जल का शुद्धिकरण करते हैं और प्राकृतिक संतुलन बनाने में भूमिका निभाते हैं । 
(३) वेटलैंड्स सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आस्था का केन्द्र माने जाते हैं । ग्रामीण अंचल में लोग इनकी पूजा करते हैं। आजकल वेटलैंड्स को इकोटूरिज्म के विशेष केन्द्र के तौर पर देखा जा रहा है। इकोटूरिज्म के साथ-साथ शिक्षा और वैज्ञानिक-शोध के केन्द्र के तौर पर भी इन्हें विकसित किया जा रहा है।
(४) वेटलैंड्स को जैव विविधता का स्वर्ग भी कहा जाता है। ये शीतकालीन पक्षियों और विभिन्न जीव-जन्तुओं का आशय स्थल होते हैं। विभिन्न प्रकार की मछलियों और जन्तुओं के प्रजनन के लिए भी ये उपयुक्त होते हैं।
वेटलैंड्स से हमारा जीवन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। वेटलैंड्स बचाए बगैर न तो वैश्विक तापमान में वृद्धि रोकी जा सकती है और न ही जलवायु परिवर्तन की मार से बचा जा सकता है। अत: अपने स्वार्थ के लिए सही, अब जरूरी हो गया है कि वेटलैंड्स को  बचाएं।   भारत के प्रमुख वेटलैंड्स -
भितरकनिका (उड़ीसा), चिलिका (उड़ीसा), भोज ताल (मध्य प्रदेश), चंद्रताल (हिमाचल प्रदेश), पोंग बांध झील (हिमाचल प्रदेश),  रेणुका नमभूमि (हिमाचल प्रदेश), डिपोल बिल (असम), पूर्वी कोलकाता नमभूमि (पश्चिम बंगाल), हरिका झील (पंजाब), कंजली (पंजाब), रोपर (पंजाब), सांभर झील (राजस्थान), केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (राजस्थान), कौलुरू झील (आंध्र प्रदेश), लोकटक झील (मणिपुर), नलसरोवर पक्षी अभयारण्य (गुजरात), पाइंट कैलियर पक्षी विहार (तमिलनाडु), रूद्रसागर झील (त्रिपुरा ), ऊपरी गंगा नदी (उत्तर प्रदेश), अष्टमुडी (केरल), वायनाड-कोल नमभूमि (केरल), साथामुकोटा झील (केरल), सौमित्री (जम्मू एवं कश्मीर), सुरिनसर-मान्सर झील (जम्मू एवं कश्मीर), होकेरा (जम्मू एवं कश्मीर) तथा वूलर झील (जम्मू एवं कश्मीर)।
प्रमुख जीव-जन्तु और वनस्पतियां - 
गैंडा हिस्पिड हेअर (खरगोश), हिरण, ऊदबिलाव, गंगा डॉल्फिन, बारहसिंघा, बंगाल  फ्लोरिकन, सारस, ककेर, घड़ियाल, मगर, फ्रेशवाटर टर्टल्स, पनकौआ, ब्लैक नेक्ड स्टॉर्क, संगमरमरी टील आदि । वनस्पतियों में सरपत, मूंज, नरकुल, सेवार, तिन्नाधान, कसेरू, कमलगट्टा, मखाना, सिंघाड़ा आदि प्रमुख हैं । 
प्रदेश चर्चा 
म.प्र. : आर्थिक संभावनाआें के द्वार खोलती गौशाला
के.जी. व्यास
  पिछले दिनों मध्यप्रदेश की नयी सरकार ने हर पंचायत में गोशाला खोलने का प्रशासनिक निर्णय लिया है। इस निर्णय के कारण प्रदेश में २२,८२४ गोशालायें खुलेंगी। 
प्रदेश का हर गांव इसके  फायदों के दायरे में आयेगा। लगता है नई सरकार का यह कदम कुछ नई संभावनाओं का द्वार भी खोल सकता है। आवश्यकता सही 'रोड-मैप` बनाने और उस पर अमल करने की होगी । 
गोशाला खोलने का काम पंचायतों को करना है। जाहिर है पंचायतें इस काम के लिए अतिरिक्त बजट चाहेंगी । गायों की देखभाल के लिए अमला चाहेंगी। गायों के इलाज के लिए पशु चिकित्सक और दवाओं के लिए धन की मांग करेंगी । यह सामान्य मांगें हैं, मिलना भी चाहिए, लेकिन क्या यह कदम कुछ उजली आर्थिक संभावनाओं तथा स्वावल-म्बन का द्वार खोलता है ? यदि हाँ, तो वह पक्ष बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है।
माना जा सकता है कि पंचायतें गोशाला खोलने के लिए स्थान का आसानी से इंतजाम कर लेंगी, लेकिन गोचर खत्म होने के कारण गायों को चराने तथा उन्हें पूरे साल चारा उपलब्ध कराने की बड़ी समस्या हो सकती है। ऐसे में जंगलों में पैदा होने वाली घास पंचायतों को उपलब्ध कराई जाए तो चारे की समस्या से निपटा जा सकता है। इसमें कुछ योगदान नहरों के आसपास पैदा होने वाली घास का भी हो सकता है। इस व्यवस्था से गोशालाओं में चारे की अच्छी-खासी आवश्यकता पूरी हो सकती है। चारा खरीदने से पंचायतों को निजात दिलाने वाली इस व्यवस्था से समय तथा धन की बचत होगी और पंचायतों को केवल भंडारण और घास की सुरक्षा का इन्तजाम भर करना होगा ।
गोशाला में दूध केउत्पादन से आय प्राप्त की जा सकती है। इस काम में मध्यप्रदेश के दुग्ध संघ से आवश्यक अनुबंध करना होगा। यह प्रशासनिक निर्णय है जिसे लागू करने में कठिनाई का प्रश्न नहीं उठता । इस कदम से दूध के उत्पादन में वृद्धि होगी । गाय के गोबर से देशी खाद और गोमूत्र से कीटनाशक दवाओं को बनाया जा सकता है। 
इसे करने के लिए ग्राम स्तर पर इच्छुक युवक-युवतियों से अनुबन्ध किया जा सकता है। यदि ऐसा होता है तो लगभग पचास हजार युवक-युवतियों की ऊर्जा का उपयोग किया जा सकता है। इस काम के लिए पंचायत को आवश्यक ढांचा उपलब्ध कराना होगा जिसे अनुदान के  जरिए सरलता से खडा किया जा सकता है। जरूरी ढांचा मिल जाने के बाद ग्रामीण युवा देशी खाद और देशी कीटनाशक दवाओं का उत्पादन कर सकेंगे और उनके माध्यम से किसानों को देसी खाद और दवा उपलब्ध कराई जा सकेगी। देसी खाद और दवाओं की कीमत यूरिया और रासायनिक कीटना-शकों की कीमत का आधा रखा जा सकता है। बिक्री से प्राप्त राशि का ५० प्रतिशत अनुबंधित युवक-युवतियों को सेवा शुल्क के रूप में दिया जा सकता है। यह कदम नगरों की ओर होने वाले पलायन को कम करने में भी सहायक हो सकता है। बाकी ५० प्रतिशत पंचायत की आय होगी। इस आय से गायों  की देखभाल, इलाज इत्यादि संभव हो सकता है।
लघु तथा सीमान्त किसान देसी खाद और दवा का नगद भुगतान नहीं कर पाते तो पंचायत की सहमति से उसका भुगतान फसल आने के वक्त भी कर सकते हैं। पंचायतें चाहें तो लघु तथा सीमान्त किसानों को अनाज के रूप में भी भुगतान करने की सुविधा दे सकती हैं। इस तरह से प्राप्त अनाज अन्न बैंक में रखा जा सकेगा। पंचायत इस अन्न बैंकका उपयोग उन कामों के बदले भुगतान में कर सकेगी जिनके लिए प्रावधान नहीं हैं। 
यह सुविधा रासायनिक खाद तथा महंगे कीटनाशकों पर होने वाले व्यय में कमी लाएगी, किसान की लागत कम होगी और हानिकारक रसायनों के उपयोग से बचा जा सकेगा ।  इससे पानी और धरती के प्रदूषण को भी बढ़ने से रोका जा सकेगा ।  
उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश के मालवा इलाके में कीटनाशकों के बेतहाशा उपयोग के कारण कैंसर का तेजी से प्रसार हो रहा है। इसे नियंत्रित करने की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि पंचायत स्तर पर प्रारंभ की जाने वाली गोशालायें कैंसर से बचाव में उल्लेखनीय योगदान दे सकती हैं। वे देशी खाद उपलब्ध करा कर खेतों की मिट्टी की सेहत सुधरवा सकती हैं। उत्पादन वृद्धि में सहयोग दे सकती है। असमतल खेतों तक की मिट्टी की पानी नमी जमा करने की क्षमता में सुधार करा सकती हैं। 
खेतों की मिट्टी की कठोरता कम करा सकती हैं। खेती में पानी की मांग कम करा सकती हैं। फसल में कीटनाशकों की बढ़ती मात्रा में कमी करा सकती हैं। आर्गेनिक अनाज पैदा कर उत्पादों को निरापद बना सकती हैं। बीमारियों का खतरा कम करा सकती हैं। यही वे कतिपय संभावनायें हैं जो आर्थिक उन्नति का द्वार खोलती हैं।           
लघु कथा
उम्मीद की जीत
सुश्री प्रज्ञा गौतम
विद्यालय में समाजोपयोगी उत्पादककार्य (एस यू पी डब्ल्यू) शिविर चल रहा था । विद्यालय इंचार्ज श्री शंकर लाल जी विद्यालय- परिसर के बीचों -बीच खड़े अपनी रोबीली आवाज में छात्रों को दिशा निर्देश दे रहे थे आज सफाई का दिन था । छात्र, परिसर से कागज और टहनियाँ चुन रहे थे सभी अध्यापक अपने -अपने छात्र समूहों के साथ खड़े होकर मुस्तैदी से कार्य करवा रहे थें । 
शंकरलाल जी इसी क्षेत्र के स्थानीय निवासी थे और विद्यालय पर उनका प्रभुत्व था । चलो, आज इन पेड़ों की छंटाई भी कर देते हैं, बहुत फैल  गए हैं ये पेड़े उन्होंने कहा तो छात्र भण्डार से कुल्हाड़ियाँ ले आये और वृक्षों पर चढ़ गयें कुल मिलाकर विद्यालय के उदासीन वातावरण में नवीन ऊर्जा का संचार हो गया था बिना नख- दंत के वृद्ध सिंह की तरह, मुखखमंडल पर स्थायी असहायता का भाव लिए अपने कक्ष में बैठे रहने वाले हमारे प्रधानाचार्य जी भी बाहर निकल आये और विद्यालय की दीवारों पर पड़े, हाल ही में हुई पुताई के छींटों को सा? करवाने में जुट गये ।
मैं भी छात्रों के साथ प्रयोगशाला की सफाई करने चली गयी कुछ समय पश्चात जब मैं प्रयोगशाला से निकल कर बाहर आई तो वहां का दृश्य देखकर दंग रह गयीें एक लड़का, विद्यालय के बरामदे से सटे एक तरुण वृक्ष के तने पर अपनी कुल्हाड़ी से प्रहार कर रहा थों मेरे पैर स्वत: ही उस दिशा में दौड़ गये, अरे, यह क्या कर रहा है त ू? इस पेड़ को क्यों काट रहा है ? लड़के के हाथ रुक गयें । अरे काट, काट क्यों रूक गया शंकर लाल जी अपनी दबंग आवाज में बोलेें लड़के ने मेरी तरफ देखा तो उन्होंने उसके हाथ से कुल्हाड़ी छीन ली और स्वयं पूरी शक्ति से उसके तने पर प्रहार करने लगेें । 
मैडम, पेड़ के आगे से हटो, नहीं तो यह आप पर गिरेगों   मैं नहीं हटी तो भी उनके प्रहार जारी रहेंमैं बदहवास सी परिसर में खड़े अन्य सभी अध्यापकों के पास गयी । देखिये यह बिलकुल हरा पेड़  है, इसको कटने से रोकियें, सभी लोग बिना एक शब्द बोले निर्लिप्त् भाव से अपने कार्य में लगे रहे मुझे कुछ नहीं सूझा तो मैंने एक पर्यावरण प्रेमी पत्रकार महोदय को सूचना दे दी । एक घंटे के भीतर क्षेत्र के के तहसीलदार महोदय की गाड़ी विद्यालय में आ  गयी । शंकर लाल जी, प्रधानाचार्य जी और अन्य अध्यापक उनका स्वागत करने बढ़े । क्या बात है भाई, कौन सा पेड़ काट दिया ? हमें सूचना मिली है... 
हे हे, देखिये यह पेड़ हैं विद्यालय की दीवार को क्षति पहुंचा रहा था तो हमने काट दिया ।  वैसे भी यह सूखने ही वाला था । चापलूसी हंसी के साथ शंकर लाल जी बोलेें । 
किसने दी पेड़ के काटने की सूचना ? तहसीलदार महोदय बोले । जी, मैंने । मैं धीमी आवाज में बोली यह जंगली पेड़ शिरीष हैं आपकोपता है इसको काटने के लिए अनुमति की आवश्यकता नहीं होती । वे मुझे घूर कर बोलेें जी, मैं इतना जानती हूँ कि किसी भी हरे पेड़ को काटना अपराध हैं, मैं विनम्रता से बोलीें । आपको ज्यादा पता है या मुझे ? वे दहाड़ेें, हम तो एक जरूरी मीटिंग में थें ऊपर से फोन आया तो हमें कार्यवाही करने आना पड़ा । वे बोले जब्त कर लो पेड़ को ।
वे साथ आये कर्मचारी की तरफ मुखातिब हुएें परिसर में कुर्सिया लग गयी । चाय -नाश्ता आ गया । अब देखिये हम भी क्या करें, ऊपर से फोन आ गया तो आना ही पड़ा ।  लिखवाइए क्या लिखवाना है...  हे हे लिखिए, पेड़ की टहनियाँ टूट -टूट कर गिरती थीं, बच्चें को नुकसान पहॅुंच सकता था । पेड़ में बीमारी लग गयी थी । ......  
अब देखिये सर,यहग्राउंड में नीम का पेड़ । परेड वाले दिन बहुत बुरा लगता है जब बीच में आता है । उस दिन एडीएम् साहब से कहा था मैंने, तो बोले- कटवाने की अनुमति तो नहीं दे सकते । धीरे -धीरे काटकर  खत्म कर देना हे हेहे । 
नहीं, नहीं नीम का पेड़ मत काटनों यदि ऊपर  से कार्यवाही हुई तो हम भी कुछ नहीं कर पाएंगेें इस पेड़ की क्षतिपूर्ति के लिए भी आठ- दस नए पेड़ लगवा देना । जी, बिलकुल सर । गाड़ी लौट  गयी ।  विद्यालय का स्टाफ मुझ से कट गया । विद्यालय परिवार के एक सदस्य के साथ मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था । मुझ से गंभीर अपराध हुआ था । 
एक सप्तह में मुझे व्यवस्थार्थ बालिका विद्यालय में भेज दिया गया । जाते -जाते मैंने देखा कि परिसर के बीच में खड़ा वह नीम का कद्दावर वृक्ष अपनी शाखाएं फैलाये मुझे दुलार रहा था ।  शिरीष का पेड़ नहीं बच सका पर उम्मीद है कि नीम बच जायेगा ।  और यही मेरी जीत थी । 
कविता
पानी है अनमोल 
डॉ. अर्चना रानी वालिया

पानी है अनमोल, मोल सब, इसका जानो रे । 
बिन पानी सब सून-सून, सब सच्ची मानो रे ।।
पानी है अनमोल ।।
उत्तर से दक्षिण तक हर सागर है खारा जल,
जीवन जल से होता जाता खाली भू-अँचल । 
पानी पर कल विश्वयुद्ध की रक्खी नींव गयी तो,
उसका ही भूजल होगा, जिसके भुज है बल ।। 
पानी है अनमोल ।।
जल ही जग का जीवन लेकिन मोल न समझा भैया,
धरती का जल पीकर चलता प्रगति वाला पहिया । 
बूँद-बूँद को सफल सृष्टि कल तरसेगी रे हाय,
कहे सूखती झीलें, नदियें, कुइया, ताल तलैया ।।
पानी है अनमोल ।।
बादल जब-जब, घिर-घिर आवै, मीठा जल बरसावै,
बारिश वाला अमृत - जल क्यों, वाहक व्यर्थ गवावैं । 
उठो कि भूजल भंडारण, संरक्षण की ले कसमें,
जितना धरती को लौटावै, उतना तू कल पावैं ।।
पानी है अनमोल ।।
ज्ञान विज्ञान
सौर मण्डल के दूरस्थ पिंड की खोज 
अधिकांश लोगों के लिए ठंड का समय काफी अनुत्पादक होता है । लेकिन कुछ लोग इस मौसम का इस्तेमाल सौर मण्डल में दूरस्थ पिंडों की खोज के लिए करते हैं । कार्नेगी इंस्टीट्यूशन फॉर साइंस के खगोलशास्त्री स्कॉट शेपर्ड ने शहर में हो रही भारी बर्फबारी के चलते इस मौके का फायदा उठाया ।    खराब मौसम के चलते एक सार्वजनिक व्याख्यान कुछ देर स्थगित होने के कारण उन्होंने दूरबीन से प्राप्त् सौर मंडल के सीमांत दृश्यों को देखना शुरू किया । उनकी टीम पहले से ही परिकल्पित नौवें विशालकाय ग्रह की खोज में लगी थी ।
             दूरबीन के दृश्यों को देखते हुए उन्होंने १४० खगोलीय इकाई की दूरी पर एक धुंधला पिंड देखा । गौरतलब है कि खगोलीय इकाई पृथ्वी से सूर्य की दूरी के बराबर होती है। यह पिंड हमारे सौर मंडल का अभी तक ज्ञात सबसे दूरस्थ पिंड है जो प्लूटो से लगभग ३.५ गुना अधिक दूर है। शेपर्ड ने २१ फरवरी को बताया कि यदि इस पिंड की पुष्टि हो जाती है, तो यह दिसंबर में खोजे गए १२० खगोलीय इकाई दूर स्थित बौने ग्रह की खोज का रिकॉर्ड तोड़ देगा । उस बौने ग्रह को फारआउट (अत्यंत दूर) नाम दिया गया था तो हो सकता है इसे फारफारआउट (अत्यंत-अत्यंत दूर) कहा जाए। 
     पिछले एक दशक  में शेपर्ड और उनके सहयोगियों - नॉर्थ एरिजोना विश्ववि-द्यालय के चाड ट्रजिलों और हवाई विश्व-विद्यालय के डेव थोलेन ने दुनिया के कुछ  सबसे शक्तिशाली और विस्तृत परास वाली दूरबीनों की मदद से रात के आकाश को व्यवस्थित रूप से छाना है। उनके प्रयासों से सूर्य से ९ अरब किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित पिंडों में से ८० प्रतिशत को ताड़ लिया गया है ।
यह सिर्फ सूची को बढ़ाते जाने की बात नहीं है। इनकी मदद से नौवे ग्रह के प्रभाव को जाना जा सकता है । फारआउट की तरह, फारफारआउट की कक्षा भी अभी तक ज्ञात नहीं है। जब तक इसकी कक्षा के बारे में जानकारी नहीं मिलती तब तक यह बता पाना मुश्किल है कि ये पिंड कब तक सौर मंडल में दूर रहकर अन्य विशाल ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण बल से मुक्त रहेंगे। यदि ऐसा होता है, तो ये दोनों शेपर्ड की हालिया खोजों में से एक गोबलिन के समकक्ष हो सकते हैं ।  
कीटों की घटती आबादी और प्रकृति पर संकट 
हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक कीटों की जनसंख्या में तेजी से गिरावट आ रही है और यह गिरावट किसी भी इकोसिस्टम के लिए खतरे की चेतावनी है। सिडनी विश्वविद्यालय के फ्रांसिस्को सांचेज -बायो और बेजिंग स्थित चायना एकडमी ऑफ एग्रिकल्चरल साइन्सेज के क्रिस वायचुइस द्वारा बॉयो-लॉजिकल कंजर्वेशन पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक ४० प्रतिशत से ज्यादा से ज्यादा कीटों की संख्या घट रही है और एक-तिहाई कीट तो विलुिप्त् की कगार पर पहुंच चुके हैं । कीट का कुल द्रव्यमान सालाना २.५ प्रतिशत की दर से कम हो रहा है, जिसका मतलब है कि एक सदी में ये गायब हो जाएंगे।
रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है कि धरती छठे व्यापक  विलुप्त्किरण की दहलीज पर खड़ी है। कीट पारिस्थितिक तंत्रों के सुचारू कामकाज के लिए अनिवार्य हैं । वे पक्षियों, सरिसृपों तथा उभयचर जीवों का भोजन हैं । इस भोजन के अभाव में ये प्राणि जीवित नहीं रह पाएंगे। कीट वनस्पतियों के लिए परागण की महत्व-पूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। इसके अलावा वे पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण भी करते हैं । 
    शोधकर्ताओं का कहना है कि कीटों की आबादी में गिरावट का सबसे बड़ा कारण सघन खेती है। इसमें खेतों के आसपास से सारे पेड़-पौधे साफ कर दिए जाते हैं  और फिर नंगे खेतों पर उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल किया जाता है। आबादी में गिरावट का दूसरा प्रमुख कारण कारण जलवायु परिवर्तन है। कई कीट तेजी से बदलती जलवायु के साथ अनुकूलित नहीं हो पा रहे हैं।
सांचेज-बायो का कहना है कि पिछले २५-३० वर्षों में कीटों के कुल द्रव्यमान में से ८० प्रतिशत गायब हो चुका है। 
इस रिपोर्ट को तैयार करने में कीटों में गिरावट के ७३ अलग-अलग अध्ययनों का विश्लेषण किया गया । तितलियां और पतंगे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं । जैसे, २००० से २००९ के बीच इंगलैंड में तितली की एक प्रजाति की संख्या में ५८ प्रतिशत की कमी आई है। इसी प्रकार से मधुमक्खियों की संख्या में जबरदस्त कमी देखी गई है। ओक्लाहामा (यूएस) में १९४९ में बंबलबी की जितनी प्रजातियां थीं, उनमें से २०१३ में मात्र आधी बची थीं। १९४७ में यूएस में मधुमक्खियों के  ६० लाख छत्ते थे और उनमें से ३५ लाख खत्म हो चुके है । 
वैसे रिपोर्ट को तैयार करने में जिन अध्ययनों का विश्लेषण किया गया वे ज्यादातर पश्चिमी युरोप और यूएस से सम्बंधित हैंऔर कुछ अध्ययन ऑस्ट्रेलिया से चीन तथा ब्राजील से दक्षिण अफ्रीका के  बीच के भी हैं । मगर शोधकर्ताओं का मत है कि अन्यत्र भी स्थिति बेहतर नहीं होगी। 
एक इंजेक्शन से अंधेरे में देख सकेंगे 
कुछ पशुआें की तरह जल्द ही इंसान भी रात के अंधेरे मेंदेख  सकेंगे । वैज्ञानिकों ने एक ऐसा इंजेक्शन तैयार किया है जो इंसानों में इंफ्रा-रेड लाइट (अवरक्त किरणों) देखने की क्षमता विकसित करेगा । वैज्ञानिकों के मुताबिक जिस इंसान को यह इंजेक्शन दिया जाएगा वह आम तौर पर अदृश्य वस्तुआें को भी देखने में सक्षम होगा । 
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सेना व सुरक्षा में तैनात लोगों के लिए काफी सहायक होगा, जिन्हें अंधेरे में दुश्मनों को खोज निकालने में मुश्किलें आती हैं । दृष्टिदोष से पीड़ित लोगों के लिए  भी यह वरदान होगा । 
वैज्ञानिकों के मुताबिक इंजेक्शन का आंखों की रेटिना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । हो सकता है कि कुछ देर के लिए जिसे इंजेक्शन लगाया जाए, उसे कुछ देर के लिए धुंधला दिखाई देने लगे, लेकिन यह ज्यादा दिनों तक नहीं रहेगा, हफ्ते भर के भीतर साइड इफेक्ट खत्म हो जाएगा । चूंकि चूहे और इंसानोंकी आंखों में कोई खास अंतर नहीं होता है, ऐसे में उम्मीद है कि इंसानों में भी यह प्रयोग सफल होगा । 
मैसाचुसेट्स मेडिकल विवि के वैज्ञानिकोंने इसे चूहों पर इस्तेमाल किया । परीक्षण में पाया गया कि आंखों में मौजूद प्रकाश का पता लगाने वाली कोशिकाआें को शंकु के रूप बदल दिया । इससे आंखों में इंफ्रा-रेड लाइट का पता लगाने की क्षमता का विकास हुआ । अध्ययन को पूरा करने वालों में से एक जिन बाओ के मुताबिक प्रयोग में पाया गया कि नैनो कणों ने इंफ्रा-रेड किरणों को ९८० नैनोमीटर के आसपास तरंग दैर्ध्य में अवशोषित कर लिया । बाद की प्रतिक्रियाआें में इंफ्रा-रेड किरणों का रंग हरा पाया गया, जो अंधेरे में देखने की क्षमता प्रदान करेगा । 
मंकीजी सॉफ्टवेयर रोकेगा दवा का साइड इफेक्ट
कई बार दवाइयोंमें मौजूद अनचाहे केमिकल की मौजूदगी के कारण शरीर की बीमारी तो ठीक हो जाती है । मगर उसके दुष्परिणाम भी समाने आते हैं। वजह, केमिकल की प्योर फोर्म का निर्धारण नहीं होना है । बहुत सारे ऐसे रसायन हैं, जिनके नाम एक जैसे होते हैं । ऐसे में सही रसायन के साथ गलत रसायन भी दवाइयों के माध्यम से हमारे शरीर में चले जाते हैं । लेकिन, अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि इसको रोकने के लिए मंकीजी सॉफ्टवेयर बना लिया गया है । 
भटिंडा स्थित पंजाब सेन्ट्रल  यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक एवं हिसार के हरिता गांव निवासी डॉ. महेश कुलड़िया ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार किया है जो हर केमिकल का अलग नाम ढूंढता है । दवाई को कैसे संगठित किया जाए, यह सॉफ्टेवयर  बिलकुल सही तरीके से बता सकता है । ध्यान रहे कि दुनियाभर के वैज्ञानिक इस पर काम कर रहे हैं लेकिन अब तक ऐसा कोई सॉफ्टवेयर नहींबना पाए हैं । डॉ. महेश के अनुसार ऐसी कई दवाइयां हैं, जिन्हें खाने से नुकसान होता है ।            
पुण्य स्मरण
वृक्ष मानव विश्वेश्वरदत्त सकलानी 
( विशेष संवाददाता द्वारा)
थोड़े धीरज और ध्यान से देखें तो हमारे समाज में ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो भले ही पर्यावरण संरक्षण जैसे आधुनिक शब्दों, अवधारणाओं से परिचित न हों, लेकिन अपनी तरह से प्रकृति को बचाने, संवारने में लगे हैं । हाल में हमेशा के लिए विदा हुए विश्वेश्वरदत्त सकलानी ऐसे ही एक बिरले इंसान थे। 
हमारे देश में आमतौर पर मीडिया से लगभग नदारद रहने वाले पर्यावरणविदों की कोई कमी नहीं है। इस साल की शुरुआत में, १८ जनवरी २०१९ को हमसे सदा के लिए विदा हुए ९६ साल के विश्वेश्वरदत्त सकलानी इसी तरह के लोगों में शुमार थे। 
जंगल बचाने, विकसित करने वालों को भांति-भांति के पुरस्कार देकर प्रोत्साहित करने वाली सरकार तक उन सकलानीजी पर भूमि-अतिक्रमण का मुकदमा दायर करने में नहीं हिचकी जिसने तन, मन, धन से बंजर भूमि पर जीवनभर हरियाली फैलायी । एक आंकलन के अनुसार विश्वेश्वरदत्तजी ने अपने जीवनकाल में १२०० हेक्टर भूमि पर ५० लाख के लगभग पेड़ लगाये। वर्ष १९८६ में उन्हें 'इंदिरा गांधी वृक्ष-मित्र पुरस्कार` तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने प्रदान किया था। ऋषिकेश के 'शिवानंद आश्रम` ने उन्हें 'पर्यावरण संरक्षक सेवक` की उपाधि प्रदान की थी और 'बीबीसी` तथा 'नेशनल ज्योग्राफिक` पत्रिका द्वारा उन्हें 'वृक्ष-मानव` की उपाधि से नवाजा गया ।
श्री सकलानी का जन्म ०२ जून १९२२ को टिहरी-गढ़वाल की सकलाना पट्टी के गांव पूज्याद में हुआ था। बचपन से वे गांव के आसपास की उजाड़ भूमि को देखते एवं उसे हरा-भरा बनाने की सोचते थे। इस सोच को उन्होंने आठ  वर्ष की अल्पायु में ही मूर्त रूप दिया और अपने दादाजी के साथ पौधे लगाने में जुट गए । इस कार्य ने सकलानीजी को पेड़-पौधों की दुनिया से नजदीकी से जोड़ दिया। वह अंग्रेजी राज का ऐसा दौर था जब कई स्थानों पर अक्सर उनका विरोध होता रहता था। 
टिहरी रियासत में भी अंग्रेजी शासन के विरोध की लड़ाई में विश्वेश्वरदत्त के बड़े भाई श्री नागेन्द्र सकलानी ११ जनवरी १९४८ को शहीद हो गये थे। भाई के बिछोह से दुखी विश्वेश्वरदत्त ने पागलों की तरह एकांत में उजाड़ पहाड़ियों पर घूमते हुए भाई की याद को चिरस्थायी बनाने का संकल्प लिया । इस निमित्त उन्होंने पौधे लगाना एवं उनकी देखभाल करना शुरु किया। हर मौसम में वे फावड़ा-कुदाली लेकर सुबह से पौधे रोपने निकलते एवं शाम को वापस लौटते । इसी दौरान वर्ष १९५८ में तपेदिक की बीमारी से उनकी पत्नी शारदा देवी का निधन हो गया। इस दुख को कम करने के लिए उन्होंने पत्नी की याद में ही पौधों का रोपने का अभियान आगे बढ़ाया । 
सकलानीजी का दूसरा विवाह भगवती देवी से हुआ और इस शुभ अवसर को भी उन्होंने पौधे लगाकर यादगार बना दिया। पौध-रोपण में अब उनकी पत्नी ने भी हाथ बटाना शुरु किया। अपनी बेटी के विवाह के दिन सकलानीजी ने पहले पौधे रोपे एवं फिर विवाह की रस्में पूरी की । जीवन के हर सुख एवं दुख के दौर में वे लोगों को पौधे रोपने हेतु प्रेरित करते रहे । उनका विश्वास था कि सभी लोग पौधे लगायें तो एक समय पूरी दुनिया पेड़ों से आच्छादित हो जाएगी और मानव जाति के  सबसे खतरनाक दुश्मन प्रदूषण को हमेशा-हमेशा के लिए इस धरती से समाप्त किया जा सकेगा । 
सलो गांव के  पास उन्होंने बेकार भूमि पर अपने अथक प्रयासों से ५० हजार पेड़ों का एक जंगल खड़ा कर दिया । जिसमें पहाड़ी पेड़ बांज एवं बुरांस की अधिकता थी। यहां अपने भाई की स्मृति में उन्होंने एक स्मारक भी बनाया जिसे 'नागेन्द्र क्रांति-वन` नाम दिया गया । इस वन का लोकार्पण जनवरी १९५४ में 'चिपको आंदोलन` के प्रणेता  सुंदरलाल बहुगुणा की उपस्थिति में हुआ था।
इस लोकार्पण की खबरें जब स्थानीय एवं राष्ट्रीय समाचार पत्रों की सुर्खियों में प्रकाशित भी हुई तो राज्य के वन विभाग की भारी किरकिरी हुई थी । वन विभाग अपने बड़े बजट और भारी-भरकम लवाजमे के बावजूद इतना बड़ा वन नहीं लगा पाया था जितना विश्वेश्वरदत्तजी  ने अकेले, बगैर किसी सरकारी, गैर-सरकारी सहायता के खड़ा कर दिया था। 
वन विभाग ने अपनी इस असफलता की खीज में सकलानी जी पर वन भूमि के अतिक्रमण का मुकदमा दायर कर दिया। इस मुकदमे के कारण कुछ समय तक उन्हें पौधों को रोपने का प्रिय कार्य छोड़कर कोर्ट के चक्कर लगाने पड़े । इसके पीछे वन विभाग की मंशा थी कि सकलानीजी 'नागेन्द्र क्रांति वन` से भाई का स्मारक हटा लें ताकि वन विभाग इसका श्रेय ले सके ।   
पेड़ों के प्रति उनमें इतनी दीवानगी थी कि कुछ वर्षांे पूर्व पौधा रोपण करते समय कीचड़ के साथ कंकर लग जाने से उनकी आंखों की ज्योति चली गयी थी, परन्तु फिर भी उन्होंने अपना कार्य जारी रखा । वे अक्सर गुन-गुनाते रहते थे-'वृक्ष मेरे माता पिता, वृक्ष मेरी संतान, वृक्ष ही मेरे सगे साथी, वृक्ष हैंमहान । 
पेड़ों का महत्व वे अपनी स्थानीय भाषा में इस प्रकार समझाते थे कि 'पेड़ अपने लिए कुछ नहीं मांगता, उसके पास जो कुछ भी है सब दूसरों को देने के लिए । धरती को उपजाऊ बनाने में इसका योगदान होता है, सुंदर आब-ओ-हवा देता है, मिट्टी व पानी के  स्त्रोत बनाना, बारिश बुलाना-इसका ही काम है, काटो तो रोता नहीं, सींचो तो हंसता नहीं, अंत:करण से यही कहता है, हे  प्राणी, मैं तेरी सेवा के लिए धरती पर आया हूं ।                          
जल जगत
वित्तीय संकट में ढकेलती नदी-जोड़ परियोजनाएं
रेहमत

हवा के बाद दूसरी जैविक जरूरत से लगाकर भविष्य के तीसरे विश्वयुद्ध तक सभी में आवश्यक रूप से मौजूद पानी कई तरह के आसमानी-सुल्तानी 'खेलों` में भी काम आने लगा है। आजकल पानी की कमी का डर दिखाकर बनाई जा रही 'नदी जोड़` परियोजनाएं भारी पूंजी काटने की ऐसी ही तजबीज साबित हो रही हैं।
आमतौर पर सरकारें बदलने पर पुराना ढर्रा बदलने के दावे किए जाते हैं,लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा, उलटे पिछली सरकार की अव्यावहारिक योजनाएं नए जोश से आगे धकेली जा रही है। पिछली सरकार ने 'नर्मदा-मालवा लिंक` के तहत क्षिप्रा, गंभीर, पार्वती और कालीसिंध नदियों को नर्मदा से जोड़ कर संपूर्ण मालवा को हरा-भरा करने का सब्जबाग दिखाया था। इन योजनाओं से मालवा के ३ लाख ८० हजार हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई का दावा भी किया गया था । अब नए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अभी २६ फरवरी २०१९ को सोनकच्छ (देवास) में 'नर्मदा-कालीसिंध रिवर लिंक परियोजना`के शिलान्यास के  दौरान पिछली सरकार द्वारा किए गए इन्हीं दावों को फिर से अक्षरश : दोहरा दिया है।
करीब छह साल पहले, २९ नवंबर २०१२ को 'नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक योजना` की आधार-शिला रखते हुए दावा किया था कि इस योजना से मालवा के खेतों में सिंचाई होगी, उद्योगों और ७० शहरों व ३ हजार गाँवों को पानी मिलेगा और सबसे महत्वपूर्ण २०१६ में होने वाले कुंभ में स्नान, पेयजल और निस्तार के लिए पानी की भरपूर उपलब्धता रहेगी। इस अवसर पर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि इस योजना के बाद मालवा के किसानों को पानी की कोई कमी नहीं रहेगी, यह परियोजना मालवा का गौरव वापस लौटाएगी। आज हालत यह है कि ४३२ करोड़ रुपए की यह योजना तीज-त्यौहारों पर नहाने लायक पानी तक उपलब्ध नहीं करवा पा रही है। 
अभी ४ जनवरी २०१९ की शनिश्चरी अमावस्या पर क्षिप्रा में पर्याप्त पानी नहीं होने का खामियाजा उज्जैन के कलेक्टर और कमिश्नर को अपने तबादलों से भुगतना पड़ा है। जाहिर है, एक तरफ यह पायलट योजना ही अपने दावों पर खरी नहीं उतरी तो दूसरी तरफ, इसी अनुभव को अनदेखा करते हुए नदी जोड़ने की अन्य योजनाओं को आगे बढ़ाने की सरकारी जिद जैसी-की-तैसी जारी है। साफ है कि भारी-भरकम लागत वाली इन योजनाओं के निर्माण भर में सबकी रुचि रहती है, बाद में भले ही इन्हें असहनीय संचालन लागत के कारण बंद करना पड़े।
निमाड के निचले इलाके से मालवा के ऊंचे पठार तक नर्मदा को लाने की, वित्तीय दृष्टि से अव्यावहारिक इन 'नदी जोड` परियोजनाओं को न्यायोचित ठहरानी के लिए 'नर्मदा जलविवाद न्यायाधिकरण`(नर्मदा पंचाट) की शर्तों की मनमाफिक व्याख्या की गई। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के बीच नर्मदा जल के बँटवारे हेतु गि त 'नर्मदा पंचाट` की शर्त के अनुसार इन राज्यों को आवंटित जल की मात्रा पर वर्ष २०२४ तक पुनर्विचार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस शर्त को मध्यप्रदेश सरकार ने कुछ इस तरह प्रचारित किया कि प्रदेश को आवंटित १८.२५ मिलियन एकड फीट (एमएएफ) पानी का उपयोग यदि निर्धारित समय सीमा में नहीं किया गया तो यह उसके हाथ से जाता  रहेगा ।
कालीसिंध (दोनों चरण), पार्वती, गंभीर और क्षिप्रा लिंक परियोजनाओं की संयुक्त लागत १९,८४६ करोड़ रुपए होगी। इस भारी-भरकम स्थापना लागत के अलावा निमाड़ से मालवा के पार  तक पानी 'लिट` करने से इनका संचालन-संधारण खर्च बहुत अधिक होगा। 'नर्मदा-कालीसिंध (प्रथम चरण) लिंक परियोजना` से एक लाख हेक्टर में सिंचाई करने का सालना खर्च ५७० करोड़ रुपए होगा यानी प्रति हेक्टेर ५७ हजार रुपए । इसी प्रकार 'नर्मदा-गंभीर लिंक परियोजना` से ५० हजार हेक्टर सिंचाई का सालाना खर्च ४०० करोड़ रुपए यानी ८० हजार रुपए प्रति हैक्टर होगा ।
विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने तीसरी दुनिया केदेशों को अपना राजकोषीय घाटा कम करने हेतु कल्याणकारी योजनाओं पर होने वाला खर्च कम करने तथा इन योजनाओं के संचालन-संधारण खर्च की वसूली लाभार्थियों से करने की हिदायत दी है। ऐसी योजनाओं को 'रिफार्म योजनाएँ` कहा जाता है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की इस सिफारिश को भारत के १३वें वित्त आयोग ने भी स्वीकार कर लिया है। 
नर्मदा-मालवा लिंक में शामिल सारी योजनाएँ 'रिफार्म' श्रेणी की ही हैं इसलिए जाहिर है, इनके संचालन-संधारण का समूचा खर्च किसानों से वसूला जाना है। 'नर्मदा-गंभीर लिंक योजना` की २७ सितंबर २०१३ की सैद्धांतिक सहमति में राज्य सरकार आदेश जारी भी कर चुकी है । ऐसे में पहले से बदहाल किसान कैसे इस बढ़े हुए भारी खर्च को चुका पाएंगे? सिंचाई की मौजूदा दरें मात्र २५० से ८०० रुपए प्रति हेक्टर के  बीच हैं, लेकिन इसकी भी वसूली नहीं हो पा रही है। १६ मार्च २०१८ को मध्यप्रदेश विधानसभा में प्रस्तुत जानकारी के अनुसार २०१५-१६ और २०१६-१७ में प्रदेश की सिंचाई परियोजनाओं के संचालन पर क्रमश: ५८१ और ५७३ करोड़ रुपए खर्च किए गए थे और राजस्व वसूली का लक्ष्य क्रमश: ३६ और १३ करोड़ रुपए रखा गया था। लेकिन इन दो वर्षों में अधिकतम वसूली मात्र ३ करोड़ रुपए ही हो पाई । 
गौरतलब है कि प्रदेश सरकार शासकीय स्त्रोंतों से ४० लाख हेक्टर से अधिक क्षेत्र में सिंचाई का दावा करती है, लेकिन इतनी सिंचाई के बदले साल में अधिकतम ३ करोड़ ही वसूल पाई है। ऐसे में सिर्फ'नर्मदा-कालीसिंध परियोजना` की एक लाख हेक्टर सिंचाई के बदले ५७० करोड़ रुपए कैसे वसूले जाएंगे ? यदि लाभार्थी किसान एक हेक्टर सिंचाई का ५७ हजार रुपए नहीं पटा पाया तो क्या प्रदेश सरकार इस स्थिति में है कि वह किसानों को सब्सिडी दे सके ?