ज्ञान विज्ञान
सौर मण्डल के दूरस्थ पिंड की खोज
अधिकांश लोगों के लिए ठंड का समय काफी अनुत्पादक होता है । लेकिन कुछ लोग इस मौसम का इस्तेमाल सौर मण्डल में दूरस्थ पिंडों की खोज के लिए करते हैं । कार्नेगी इंस्टीट्यूशन फॉर साइंस के खगोलशास्त्री स्कॉट शेपर्ड ने शहर में हो रही भारी बर्फबारी के चलते इस मौके का फायदा उठाया । खराब मौसम के चलते एक सार्वजनिक व्याख्यान कुछ देर स्थगित होने के कारण उन्होंने दूरबीन से प्राप्त् सौर मंडल के सीमांत दृश्यों को देखना शुरू किया । उनकी टीम पहले से ही परिकल्पित नौवें विशालकाय ग्रह की खोज में लगी थी ।
दूरबीन के दृश्यों को देखते हुए उन्होंने १४० खगोलीय इकाई की दूरी पर एक धुंधला पिंड देखा । गौरतलब है कि खगोलीय इकाई पृथ्वी से सूर्य की दूरी के बराबर होती है। यह पिंड हमारे सौर मंडल का अभी तक ज्ञात सबसे दूरस्थ पिंड है जो प्लूटो से लगभग ३.५ गुना अधिक दूर है। शेपर्ड ने २१ फरवरी को बताया कि यदि इस पिंड की पुष्टि हो जाती है, तो यह दिसंबर में खोजे गए १२० खगोलीय इकाई दूर स्थित बौने ग्रह की खोज का रिकॉर्ड तोड़ देगा । उस बौने ग्रह को फारआउट (अत्यंत दूर) नाम दिया गया था तो हो सकता है इसे फारफारआउट (अत्यंत-अत्यंत दूर) कहा जाए।
पिछले एक दशक में शेपर्ड और उनके सहयोगियों - नॉर्थ एरिजोना विश्ववि-द्यालय के चाड ट्रजिलों और हवाई विश्व-विद्यालय के डेव थोलेन ने दुनिया के कुछ सबसे शक्तिशाली और विस्तृत परास वाली दूरबीनों की मदद से रात के आकाश को व्यवस्थित रूप से छाना है। उनके प्रयासों से सूर्य से ९ अरब किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित पिंडों में से ८० प्रतिशत को ताड़ लिया गया है ।
यह सिर्फ सूची को बढ़ाते जाने की बात नहीं है। इनकी मदद से नौवे ग्रह के प्रभाव को जाना जा सकता है । फारआउट की तरह, फारफारआउट की कक्षा भी अभी तक ज्ञात नहीं है। जब तक इसकी कक्षा के बारे में जानकारी नहीं मिलती तब तक यह बता पाना मुश्किल है कि ये पिंड कब तक सौर मंडल में दूर रहकर अन्य विशाल ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण बल से मुक्त रहेंगे। यदि ऐसा होता है, तो ये दोनों शेपर्ड की हालिया खोजों में से एक गोबलिन के समकक्ष हो सकते हैं ।
कीटों की घटती आबादी और प्रकृति पर संकट
हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक कीटों की जनसंख्या में तेजी से गिरावट आ रही है और यह गिरावट किसी भी इकोसिस्टम के लिए खतरे की चेतावनी है। सिडनी विश्वविद्यालय के फ्रांसिस्को सांचेज -बायो और बेजिंग स्थित चायना एकडमी ऑफ एग्रिकल्चरल साइन्सेज के क्रिस वायचुइस द्वारा बॉयो-लॉजिकल कंजर्वेशन पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक ४० प्रतिशत से ज्यादा से ज्यादा कीटों की संख्या घट रही है और एक-तिहाई कीट तो विलुिप्त् की कगार पर पहुंच चुके हैं । कीट का कुल द्रव्यमान सालाना २.५ प्रतिशत की दर से कम हो रहा है, जिसका मतलब है कि एक सदी में ये गायब हो जाएंगे।
रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है कि धरती छठे व्यापक विलुप्त्किरण की दहलीज पर खड़ी है। कीट पारिस्थितिक तंत्रों के सुचारू कामकाज के लिए अनिवार्य हैं । वे पक्षियों, सरिसृपों तथा उभयचर जीवों का भोजन हैं । इस भोजन के अभाव में ये प्राणि जीवित नहीं रह पाएंगे। कीट वनस्पतियों के लिए परागण की महत्व-पूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। इसके अलावा वे पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण भी करते हैं ।
शोधकर्ताओं का कहना है कि कीटों की आबादी में गिरावट का सबसे बड़ा कारण सघन खेती है। इसमें खेतों के आसपास से सारे पेड़-पौधे साफ कर दिए जाते हैं और फिर नंगे खेतों पर उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल किया जाता है। आबादी में गिरावट का दूसरा प्रमुख कारण कारण जलवायु परिवर्तन है। कई कीट तेजी से बदलती जलवायु के साथ अनुकूलित नहीं हो पा रहे हैं।
सांचेज-बायो का कहना है कि पिछले २५-३० वर्षों में कीटों के कुल द्रव्यमान में से ८० प्रतिशत गायब हो चुका है।
इस रिपोर्ट को तैयार करने में कीटों में गिरावट के ७३ अलग-अलग अध्ययनों का विश्लेषण किया गया । तितलियां और पतंगे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं । जैसे, २००० से २००९ के बीच इंगलैंड में तितली की एक प्रजाति की संख्या में ५८ प्रतिशत की कमी आई है। इसी प्रकार से मधुमक्खियों की संख्या में जबरदस्त कमी देखी गई है। ओक्लाहामा (यूएस) में १९४९ में बंबलबी की जितनी प्रजातियां थीं, उनमें से २०१३ में मात्र आधी बची थीं। १९४७ में यूएस में मधुमक्खियों के ६० लाख छत्ते थे और उनमें से ३५ लाख खत्म हो चुके है ।
वैसे रिपोर्ट को तैयार करने में जिन अध्ययनों का विश्लेषण किया गया वे ज्यादातर पश्चिमी युरोप और यूएस से सम्बंधित हैंऔर कुछ अध्ययन ऑस्ट्रेलिया से चीन तथा ब्राजील से दक्षिण अफ्रीका के बीच के भी हैं । मगर शोधकर्ताओं का मत है कि अन्यत्र भी स्थिति बेहतर नहीं होगी।
एक इंजेक्शन से अंधेरे में देख सकेंगे
कुछ पशुआें की तरह जल्द ही इंसान भी रात के अंधेरे मेंदेख सकेंगे । वैज्ञानिकों ने एक ऐसा इंजेक्शन तैयार किया है जो इंसानों में इंफ्रा-रेड लाइट (अवरक्त किरणों) देखने की क्षमता विकसित करेगा । वैज्ञानिकों के मुताबिक जिस इंसान को यह इंजेक्शन दिया जाएगा वह आम तौर पर अदृश्य वस्तुआें को भी देखने में सक्षम होगा ।
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सेना व सुरक्षा में तैनात लोगों के लिए काफी सहायक होगा, जिन्हें अंधेरे में दुश्मनों को खोज निकालने में मुश्किलें आती हैं । दृष्टिदोष से पीड़ित लोगों के लिए भी यह वरदान होगा ।
वैज्ञानिकों के मुताबिक इंजेक्शन का आंखों की रेटिना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । हो सकता है कि कुछ देर के लिए जिसे इंजेक्शन लगाया जाए, उसे कुछ देर के लिए धुंधला दिखाई देने लगे, लेकिन यह ज्यादा दिनों तक नहीं रहेगा, हफ्ते भर के भीतर साइड इफेक्ट खत्म हो जाएगा । चूंकि चूहे और इंसानोंकी आंखों में कोई खास अंतर नहीं होता है, ऐसे में उम्मीद है कि इंसानों में भी यह प्रयोग सफल होगा ।
मैसाचुसेट्स मेडिकल विवि के वैज्ञानिकोंने इसे चूहों पर इस्तेमाल किया । परीक्षण में पाया गया कि आंखों में मौजूद प्रकाश का पता लगाने वाली कोशिकाआें को शंकु के रूप बदल दिया । इससे आंखों में इंफ्रा-रेड लाइट का पता लगाने की क्षमता का विकास हुआ । अध्ययन को पूरा करने वालों में से एक जिन बाओ के मुताबिक प्रयोग में पाया गया कि नैनो कणों ने इंफ्रा-रेड किरणों को ९८० नैनोमीटर के आसपास तरंग दैर्ध्य में अवशोषित कर लिया । बाद की प्रतिक्रियाआें में इंफ्रा-रेड किरणों का रंग हरा पाया गया, जो अंधेरे में देखने की क्षमता प्रदान करेगा ।
मंकीजी सॉफ्टवेयर रोकेगा दवा का साइड इफेक्ट
कई बार दवाइयोंमें मौजूद अनचाहे केमिकल की मौजूदगी के कारण शरीर की बीमारी तो ठीक हो जाती है । मगर उसके दुष्परिणाम भी समाने आते हैं। वजह, केमिकल की प्योर फोर्म का निर्धारण नहीं होना है । बहुत सारे ऐसे रसायन हैं, जिनके नाम एक जैसे होते हैं । ऐसे में सही रसायन के साथ गलत रसायन भी दवाइयों के माध्यम से हमारे शरीर में चले जाते हैं । लेकिन, अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि इसको रोकने के लिए मंकीजी सॉफ्टवेयर बना लिया गया है ।
भटिंडा स्थित पंजाब सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक एवं हिसार के हरिता गांव निवासी डॉ. महेश कुलड़िया ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार किया है जो हर केमिकल का अलग नाम ढूंढता है । दवाई को कैसे संगठित किया जाए, यह सॉफ्टेवयर बिलकुल सही तरीके से बता सकता है । ध्यान रहे कि दुनियाभर के वैज्ञानिक इस पर काम कर रहे हैं लेकिन अब तक ऐसा कोई सॉफ्टवेयर नहींबना पाए हैं । डॉ. महेश के अनुसार ऐसी कई दवाइयां हैं, जिन्हें खाने से नुकसान होता है ।
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