सोमवार, 18 मार्च 2019

विज्ञान जगत
भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरूआत
डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

  पिछले कुछ हफ्तों में इस बात पर महत्वपूर्ण चर्चा और बहस चली थी कि भारत में प्राचीन समय से अब तक विज्ञान और तकनीक का कारोबार किस तरह चला है। 
अफसोस की बात है कि कुछ लोग पौराणिक घटनाओं को आधुनिक खोज और आविष्कार बता रहे थे और दावा कर रहे थे कि यह सब भारत में सदियों पहले मौजूद था। इस संदर्भ में, इतिहासकार ए. रामनाथ (दी हिंदू, १५ जनवरी २०१९) ने एकदम ठीक लिखा है कि भारत में विज्ञान के इतिहास को एक गंभीर विषय के रूप मेंदेखा जाना चाहिए, न कि अटकलबाजी की तरह । लेख में रामनाथ ने इतिहासकार डेविड अरनॉल्ड के कथन को दोहराया है। अरनॉल्ड ने चेताया था कि भले ही प्राचीन काल के ज्ञानी-संतों के पास परमाणु सिद्धांत जैसे विचार रहे होंगे मगर उनका यह अंतर्बोध विश्वसनीय उपकरणों पर आधारित आधुनिक विज्ञान पद्धति से अलग है ।
ऐसा लगता है कि अंतर्बोध की यह परंपरा प्राचीन समय में न सिर्फ भारत में बल्किअन्य जगहों पर भी प्रचलित थी। किंन्तु आज  आधुनिक विज्ञान  या बेकनवादी विधि (फ्रांसिस बेकन द्वारा दी गई विधि) पर आधारित विज्ञान किया जाता है। आधुनिक विज्ञान करना यानी  सवाल करें या कोई परिकल्पना बनाएं, सावधानी पूर्वक प्रयोग या अवलोकन करें, प्रयोग या अवलोकन के आधार पर परिणाम का विश्लेषण करें, तर्क पूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचे, अन्य लोगों द्वारा प्रयोग दोहरा कर देखे जाएं और निष्कर्ष की जांच की जाए, और यदि अन्य लोग सिद्धांत की पुष्टि करते हैं तो सिद्धांत या परिकल्पना सही मानी जाए । ध्यान दें कि नई खोज, नए सिद्धांत आने पर पुराने सिद्धांत में बदलाव किए जा सकते हैं, उन्हें खारिज किया जा सकता है। 
वर्ष१४९० के दशक में, वास्को डी गामा, जॉन कैबोट, फर्डिनेंड मैजीलेन और अन्य युरोपीय खोजकर्ताओं के  ईस्ट इंडीज  (यानी भारत) आने के साथ भारत में  आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति  उभरना शुरू हुई । इनके पीछे-पीछे इंग्लैंड, फ्रांस और युरोप के कुछ अन्य हिस्सों के व्यापारी और खोजी आए। इनमें से कई व्यापारियोंऔर पूंजीपतियों ने भारत और भारत के पर्यावरण, धन और स्वास्थ्य, धातुओं और खनिजों को खोजा और अपने औपनिवेशिक लाभ के लिए लूटना शुरू कर दिया । 
ऐसा करने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक तरीकों को अपनाया । इसके अलावा, उनमें से कई जो समकालीन विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कृषि और चिकित्सा विज्ञान का कामकाज करते थे, उन्होंने इस ज्ञान को यहां के मूल निवासियों में भी फैलाया ।
यह औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत थी। इस विषय पर एक लेख इंडियन जर्नल ऑफ हिस्ट्री ऑफ साइंस के दिसंबर २०१८ अंक में प्रकाशित हुआ था । इस अंक के संपादन में आई.आई. एस.सी. बैंगलुरूके भौतिक विज्ञानी प्रो. अर्नब रायचौधरी और जेएनयू के प्रो.दीपक कुमार अतिथि संपादक रहे। प्रो. रायचौधरी विज्ञान इतिहासकार भी हैं और  पश्चिम देशों के बाहर पश्चिमी विज्ञान: भारतीय परिदृश्य में निजी विचार  पर उनका पैना विश्लेषण आज और भी ज्यादा प्रासंगिक है। उनका यह विश्लेषण जर्नल ऑफ सोशल स्टडीज ऑफ साइंस के अगस्त १९८५ के  अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रो. दीपक कुमार जे.एन.यू. के जाने-माने इतिहासकार हैं । उन्होंने भारत में विज्ञान के इतिहास पर दो किताबें साइंस एंड दी राज (२००६) और टेक्नॉलॉजी एंड दी राज (१९९५) लिखी हैं।
जर्नल के इस अंक का संपादकीय लेख डॉ. ए.के. बाग ने लिखा था। यह लेख विद्वतापूर्ण, अपने में संपूर्ण और शिक्षाप्रद है। डॉ. बाग भारत में प्राचीन और आधुनिक विज्ञान के इतिहासकार हैं । उन्होंने भारत-युरोप संपर्क और उपनिवेश-पूर्व और औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की विशेषताओं का पता लगाया था। 
जर्नल के इस अंक में ३० अन्य लेख भी हैंजो इस बारे में बात करते हैं कि कैसे बंगाल पुनर्जागरण हुआ और ब्रिटिश भारत की पूर्व राजधानी कलकत्ता ने बंगाल (कलकत्ता/ढाका) को भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रारंभिक राजधानी बनने में मदद की । वैसे तो विज्ञान से जुड़े अधिकतर लेख जे.सी. बोस, सी.वी. रमन, एस.एन. बोस, पी.सी. रे और मेघनाद साहा पर केन्द्रित होते हैं ।किंतु डॉ. राजिंदर सिंह ने इन  तीन विभूतियों  (सी.वी. रमन, एस.एन. बोस और एम.एन. साहा) के इतर प्रो. बी.बी.रे,  डी.एम. बोस और एस.सी. मित्रा पर लेख लिखा है। 
डॉ. जॉन मैथ्यू द्वारा लिखित लेख: रोनाल्ड रॉस टू यू.एन. ब्राहृचारी : मेडिकल रिसर्च इन कोलोनियल इंडिया बताता है कि कैसे प्रो. ब्रहृचारी की दवा यूरिया स्टिबामाइन ने कालाजार नामक रोग से हजारोंलोगों की जान बचाई थी । संयोग से, ब्रहृचारी ने भी १९३६ में इंदौर में आयोजित २३वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में इस बारे में बात की थी । ऑर्गेनिक केमिस्टस ऑफ प्री-इंडिपेंडेंस इंडिया नामक लेख में प्रो. सलीमुज्जमान सिद्दीकी का विशेष उल्लेख है । प्रो. सलीमुज्जमान सिद्दीकी ने नीम के पेड़ से एजेडिरैक्टिन और सर्पगंधा से रेसरपाइन जैसी महत्वपूर्ण औषधियां पृथक की थीं। विभाजन के समय उन्हें पाकिस्तान आने का न्यौता मिला था। पहले उन्होंने पाकिस्तान आने से मना कर दिया था, लेकिन वर्ष १९५१ में वे पाकिस्तान चले गए । वहां उन्होंने पाकिस्तान के सीएसआईआर और परमाणु ऊर्जा प्रयोगशालाएं शुरू  करने में मदद की । साथ ही उन्होंने उत्कृष्ट कार्बनिक रसायन विज्ञान की शुरुआत भी की जो आज भी बढ़िया चल रहा है। इस तरह उन्हें एक नवोदित देश (पाकिस्तान) में विज्ञान की नींव रखने वाले की तरह याद जा सकता है।
तीन और लोगों के योगदान उल्लेखनीय हैं । उनमें से पहले हैं दो भारतीय पुलिस अधिकारी । सोढ़ी और कौर ने अपने लेख  दी फॉरगॉटन पायोनियर्स ऑफ फिंगरिंप्रट साइंस : फालऑउट ऑफ कोलोनिएनिजम में दो भारतीय पुलिस अधिकारियों, अजीजुल हक और हेमचंद्र बोस के बारे में लिखा है। इन दोनों अधीनस्थ पुलिस कर्मियों ने कड़ी मेहनत और विश्लेषणात्मक पैटर्न विधि की मदद से फिंगर प्रीटिंग को मानकीकृत किया था, लेकिन उनके काम का सारा श्रेय उनके बॉस पुलिस महानिरीक्षक एडवर्ड हेनरी ने ले लिया ! अजीजुल हक ने ५ साल बाद अपने काम को राज्यपाल को फिर से प्रस्तुत किया । उन्हें ५,००० और बोस को १०,००० रुपए का मानदेय दिया गया ।
दूसरा नाम है नैन सिंह रावत का। उन्होंने ताजिकिस्तान सीमा से लगे हिमालय से नीचे तक फैले पूरे हिमालयी पथ का सफर किया। इस सफर के दौरान उन्होंने सावधानी-पूर्वक नोटस लिए और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ऊपरी रास्ते का नक्शा तैयार करने में मदद की। बाद में इससे सर्वे  ऑफ इंडिया को काफी मदद मिली ।
और तीसरा नाम है कलकत्ता के राधानाथ शिकधर का है। उन्होंने गणना करके पता लगाया था कि चोटी एक्सवी २९,०२९ फीट ऊंची है। यह हिमालय पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटी है, और विश्व की भी । हालांकि भारतीय स्थलाकृतिक सर्वेक्षण के प्रधान अधिकारी के नाम पर बाद में इस चोटी का नाम माउंट एवरेस्ट रख दिया गया । डॉ. बाग ने अपने संपादकीय लेख में इन दो खोजों का उल्लेख किया है और बताया है कि कैसे भारत सरकार ने नैन सिंह रावत और राधानाथ शिकधर के सम्मान में २००४ में डाक टिकट जारी किया ।
यहां हमने जर्नल के कुछ ही लेखों पर प्रकाश डाला है। जर्नल का पूरा अंक भारत में आधुनिक विज्ञान के जन्म और विकास पर केन्द्रित लेखों का संग्रह है। सारे लेख सावधानी पूर्वक किए गए शोध पर आधारित छोटे-छोटे और आसानी से पढ़ने-समझने योग्य हैं। और ये लेख विज्ञान की आदर्श शिक्षण और शोध सामग्री बन सकते हैं ।  

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