पुण्य स्मरण
वृक्ष मानव विश्वेश्वरदत्त सकलानी
( विशेष संवाददाता द्वारा)
थोड़े धीरज और ध्यान से देखें तो हमारे समाज में ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो भले ही पर्यावरण संरक्षण जैसे आधुनिक शब्दों, अवधारणाओं से परिचित न हों, लेकिन अपनी तरह से प्रकृति को बचाने, संवारने में लगे हैं । हाल में हमेशा के लिए विदा हुए विश्वेश्वरदत्त सकलानी ऐसे ही एक बिरले इंसान थे।
हमारे देश में आमतौर पर मीडिया से लगभग नदारद रहने वाले पर्यावरणविदों की कोई कमी नहीं है। इस साल की शुरुआत में, १८ जनवरी २०१९ को हमसे सदा के लिए विदा हुए ९६ साल के विश्वेश्वरदत्त सकलानी इसी तरह के लोगों में शुमार थे।
जंगल बचाने, विकसित करने वालों को भांति-भांति के पुरस्कार देकर प्रोत्साहित करने वाली सरकार तक उन सकलानीजी पर भूमि-अतिक्रमण का मुकदमा दायर करने में नहीं हिचकी जिसने तन, मन, धन से बंजर भूमि पर जीवनभर हरियाली फैलायी । एक आंकलन के अनुसार विश्वेश्वरदत्तजी ने अपने जीवनकाल में १२०० हेक्टर भूमि पर ५० लाख के लगभग पेड़ लगाये। वर्ष १९८६ में उन्हें 'इंदिरा गांधी वृक्ष-मित्र पुरस्कार` तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने प्रदान किया था। ऋषिकेश के 'शिवानंद आश्रम` ने उन्हें 'पर्यावरण संरक्षक सेवक` की उपाधि प्रदान की थी और 'बीबीसी` तथा 'नेशनल ज्योग्राफिक` पत्रिका द्वारा उन्हें 'वृक्ष-मानव` की उपाधि से नवाजा गया ।
श्री सकलानी का जन्म ०२ जून १९२२ को टिहरी-गढ़वाल की सकलाना पट्टी के गांव पूज्याद में हुआ था। बचपन से वे गांव के आसपास की उजाड़ भूमि को देखते एवं उसे हरा-भरा बनाने की सोचते थे। इस सोच को उन्होंने आठ वर्ष की अल्पायु में ही मूर्त रूप दिया और अपने दादाजी के साथ पौधे लगाने में जुट गए । इस कार्य ने सकलानीजी को पेड़-पौधों की दुनिया से नजदीकी से जोड़ दिया। वह अंग्रेजी राज का ऐसा दौर था जब कई स्थानों पर अक्सर उनका विरोध होता रहता था।
टिहरी रियासत में भी अंग्रेजी शासन के विरोध की लड़ाई में विश्वेश्वरदत्त के बड़े भाई श्री नागेन्द्र सकलानी ११ जनवरी १९४८ को शहीद हो गये थे। भाई के बिछोह से दुखी विश्वेश्वरदत्त ने पागलों की तरह एकांत में उजाड़ पहाड़ियों पर घूमते हुए भाई की याद को चिरस्थायी बनाने का संकल्प लिया । इस निमित्त उन्होंने पौधे लगाना एवं उनकी देखभाल करना शुरु किया। हर मौसम में वे फावड़ा-कुदाली लेकर सुबह से पौधे रोपने निकलते एवं शाम को वापस लौटते । इसी दौरान वर्ष १९५८ में तपेदिक की बीमारी से उनकी पत्नी शारदा देवी का निधन हो गया। इस दुख को कम करने के लिए उन्होंने पत्नी की याद में ही पौधों का रोपने का अभियान आगे बढ़ाया ।
सकलानीजी का दूसरा विवाह भगवती देवी से हुआ और इस शुभ अवसर को भी उन्होंने पौधे लगाकर यादगार बना दिया। पौध-रोपण में अब उनकी पत्नी ने भी हाथ बटाना शुरु किया। अपनी बेटी के विवाह के दिन सकलानीजी ने पहले पौधे रोपे एवं फिर विवाह की रस्में पूरी की । जीवन के हर सुख एवं दुख के दौर में वे लोगों को पौधे रोपने हेतु प्रेरित करते रहे । उनका विश्वास था कि सभी लोग पौधे लगायें तो एक समय पूरी दुनिया पेड़ों से आच्छादित हो जाएगी और मानव जाति के सबसे खतरनाक दुश्मन प्रदूषण को हमेशा-हमेशा के लिए इस धरती से समाप्त किया जा सकेगा ।
सलो गांव के पास उन्होंने बेकार भूमि पर अपने अथक प्रयासों से ५० हजार पेड़ों का एक जंगल खड़ा कर दिया । जिसमें पहाड़ी पेड़ बांज एवं बुरांस की अधिकता थी। यहां अपने भाई की स्मृति में उन्होंने एक स्मारक भी बनाया जिसे 'नागेन्द्र क्रांति-वन` नाम दिया गया । इस वन का लोकार्पण जनवरी १९५४ में 'चिपको आंदोलन` के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा की उपस्थिति में हुआ था।
इस लोकार्पण की खबरें जब स्थानीय एवं राष्ट्रीय समाचार पत्रों की सुर्खियों में प्रकाशित भी हुई तो राज्य के वन विभाग की भारी किरकिरी हुई थी । वन विभाग अपने बड़े बजट और भारी-भरकम लवाजमे के बावजूद इतना बड़ा वन नहीं लगा पाया था जितना विश्वेश्वरदत्तजी ने अकेले, बगैर किसी सरकारी, गैर-सरकारी सहायता के खड़ा कर दिया था।
वन विभाग ने अपनी इस असफलता की खीज में सकलानी जी पर वन भूमि के अतिक्रमण का मुकदमा दायर कर दिया। इस मुकदमे के कारण कुछ समय तक उन्हें पौधों को रोपने का प्रिय कार्य छोड़कर कोर्ट के चक्कर लगाने पड़े । इसके पीछे वन विभाग की मंशा थी कि सकलानीजी 'नागेन्द्र क्रांति वन` से भाई का स्मारक हटा लें ताकि वन विभाग इसका श्रेय ले सके ।
पेड़ों के प्रति उनमें इतनी दीवानगी थी कि कुछ वर्षांे पूर्व पौधा रोपण करते समय कीचड़ के साथ कंकर लग जाने से उनकी आंखों की ज्योति चली गयी थी, परन्तु फिर भी उन्होंने अपना कार्य जारी रखा । वे अक्सर गुन-गुनाते रहते थे-'वृक्ष मेरे माता पिता, वृक्ष मेरी संतान, वृक्ष ही मेरे सगे साथी, वृक्ष हैंमहान ।
पेड़ों का महत्व वे अपनी स्थानीय भाषा में इस प्रकार समझाते थे कि 'पेड़ अपने लिए कुछ नहीं मांगता, उसके पास जो कुछ भी है सब दूसरों को देने के लिए । धरती को उपजाऊ बनाने में इसका योगदान होता है, सुंदर आब-ओ-हवा देता है, मिट्टी व पानी के स्त्रोत बनाना, बारिश बुलाना-इसका ही काम है, काटो तो रोता नहीं, सींचो तो हंसता नहीं, अंत:करण से यही कहता है, हे प्राणी, मैं तेरी सेवा के लिए धरती पर आया हूं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें