जल जगत
वित्तीय संकट में ढकेलती नदी-जोड़ परियोजनाएं
रेहमत
हवा के बाद दूसरी जैविक जरूरत से लगाकर भविष्य के तीसरे विश्वयुद्ध तक सभी में आवश्यक रूप से मौजूद पानी कई तरह के आसमानी-सुल्तानी 'खेलों` में भी काम आने लगा है। आजकल पानी की कमी का डर दिखाकर बनाई जा रही 'नदी जोड़` परियोजनाएं भारी पूंजी काटने की ऐसी ही तजबीज साबित हो रही हैं।
आमतौर पर सरकारें बदलने पर पुराना ढर्रा बदलने के दावे किए जाते हैं,लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा, उलटे पिछली सरकार की अव्यावहारिक योजनाएं नए जोश से आगे धकेली जा रही है। पिछली सरकार ने 'नर्मदा-मालवा लिंक` के तहत क्षिप्रा, गंभीर, पार्वती और कालीसिंध नदियों को नर्मदा से जोड़ कर संपूर्ण मालवा को हरा-भरा करने का सब्जबाग दिखाया था। इन योजनाओं से मालवा के ३ लाख ८० हजार हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई का दावा भी किया गया था । अब नए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अभी २६ फरवरी २०१९ को सोनकच्छ (देवास) में 'नर्मदा-कालीसिंध रिवर लिंक परियोजना`के शिलान्यास के दौरान पिछली सरकार द्वारा किए गए इन्हीं दावों को फिर से अक्षरश : दोहरा दिया है।
करीब छह साल पहले, २९ नवंबर २०१२ को 'नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक योजना` की आधार-शिला रखते हुए दावा किया था कि इस योजना से मालवा के खेतों में सिंचाई होगी, उद्योगों और ७० शहरों व ३ हजार गाँवों को पानी मिलेगा और सबसे महत्वपूर्ण २०१६ में होने वाले कुंभ में स्नान, पेयजल और निस्तार के लिए पानी की भरपूर उपलब्धता रहेगी। इस अवसर पर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि इस योजना के बाद मालवा के किसानों को पानी की कोई कमी नहीं रहेगी, यह परियोजना मालवा का गौरव वापस लौटाएगी। आज हालत यह है कि ४३२ करोड़ रुपए की यह योजना तीज-त्यौहारों पर नहाने लायक पानी तक उपलब्ध नहीं करवा पा रही है।
अभी ४ जनवरी २०१९ की शनिश्चरी अमावस्या पर क्षिप्रा में पर्याप्त पानी नहीं होने का खामियाजा उज्जैन के कलेक्टर और कमिश्नर को अपने तबादलों से भुगतना पड़ा है। जाहिर है, एक तरफ यह पायलट योजना ही अपने दावों पर खरी नहीं उतरी तो दूसरी तरफ, इसी अनुभव को अनदेखा करते हुए नदी जोड़ने की अन्य योजनाओं को आगे बढ़ाने की सरकारी जिद जैसी-की-तैसी जारी है। साफ है कि भारी-भरकम लागत वाली इन योजनाओं के निर्माण भर में सबकी रुचि रहती है, बाद में भले ही इन्हें असहनीय संचालन लागत के कारण बंद करना पड़े।
निमाड के निचले इलाके से मालवा के ऊंचे पठार तक नर्मदा को लाने की, वित्तीय दृष्टि से अव्यावहारिक इन 'नदी जोड` परियोजनाओं को न्यायोचित ठहरानी के लिए 'नर्मदा जलविवाद न्यायाधिकरण`(नर्मदा पंचाट) की शर्तों की मनमाफिक व्याख्या की गई। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के बीच नर्मदा जल के बँटवारे हेतु गि त 'नर्मदा पंचाट` की शर्त के अनुसार इन राज्यों को आवंटित जल की मात्रा पर वर्ष २०२४ तक पुनर्विचार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस शर्त को मध्यप्रदेश सरकार ने कुछ इस तरह प्रचारित किया कि प्रदेश को आवंटित १८.२५ मिलियन एकड फीट (एमएएफ) पानी का उपयोग यदि निर्धारित समय सीमा में नहीं किया गया तो यह उसके हाथ से जाता रहेगा ।
कालीसिंध (दोनों चरण), पार्वती, गंभीर और क्षिप्रा लिंक परियोजनाओं की संयुक्त लागत १९,८४६ करोड़ रुपए होगी। इस भारी-भरकम स्थापना लागत के अलावा निमाड़ से मालवा के पार तक पानी 'लिट` करने से इनका संचालन-संधारण खर्च बहुत अधिक होगा। 'नर्मदा-कालीसिंध (प्रथम चरण) लिंक परियोजना` से एक लाख हेक्टर में सिंचाई करने का सालना खर्च ५७० करोड़ रुपए होगा यानी प्रति हेक्टेर ५७ हजार रुपए । इसी प्रकार 'नर्मदा-गंभीर लिंक परियोजना` से ५० हजार हेक्टर सिंचाई का सालाना खर्च ४०० करोड़ रुपए यानी ८० हजार रुपए प्रति हैक्टर होगा ।
विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने तीसरी दुनिया केदेशों को अपना राजकोषीय घाटा कम करने हेतु कल्याणकारी योजनाओं पर होने वाला खर्च कम करने तथा इन योजनाओं के संचालन-संधारण खर्च की वसूली लाभार्थियों से करने की हिदायत दी है। ऐसी योजनाओं को 'रिफार्म योजनाएँ` कहा जाता है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की इस सिफारिश को भारत के १३वें वित्त आयोग ने भी स्वीकार कर लिया है।
नर्मदा-मालवा लिंक में शामिल सारी योजनाएँ 'रिफार्म' श्रेणी की ही हैं इसलिए जाहिर है, इनके संचालन-संधारण का समूचा खर्च किसानों से वसूला जाना है। 'नर्मदा-गंभीर लिंक योजना` की २७ सितंबर २०१३ की सैद्धांतिक सहमति में राज्य सरकार आदेश जारी भी कर चुकी है । ऐसे में पहले से बदहाल किसान कैसे इस बढ़े हुए भारी खर्च को चुका पाएंगे? सिंचाई की मौजूदा दरें मात्र २५० से ८०० रुपए प्रति हेक्टर के बीच हैं, लेकिन इसकी भी वसूली नहीं हो पा रही है। १६ मार्च २०१८ को मध्यप्रदेश विधानसभा में प्रस्तुत जानकारी के अनुसार २०१५-१६ और २०१६-१७ में प्रदेश की सिंचाई परियोजनाओं के संचालन पर क्रमश: ५८१ और ५७३ करोड़ रुपए खर्च किए गए थे और राजस्व वसूली का लक्ष्य क्रमश: ३६ और १३ करोड़ रुपए रखा गया था। लेकिन इन दो वर्षों में अधिकतम वसूली मात्र ३ करोड़ रुपए ही हो पाई ।
गौरतलब है कि प्रदेश सरकार शासकीय स्त्रोंतों से ४० लाख हेक्टर से अधिक क्षेत्र में सिंचाई का दावा करती है, लेकिन इतनी सिंचाई के बदले साल में अधिकतम ३ करोड़ ही वसूल पाई है। ऐसे में सिर्फ'नर्मदा-कालीसिंध परियोजना` की एक लाख हेक्टर सिंचाई के बदले ५७० करोड़ रुपए कैसे वसूले जाएंगे ? यदि लाभार्थी किसान एक हेक्टर सिंचाई का ५७ हजार रुपए नहीं पटा पाया तो क्या प्रदेश सरकार इस स्थिति में है कि वह किसानों को सब्सिडी दे सके ?
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