मंगलवार, 30 नवंबर 2010

सामयिक

पहाड़ों पर चढ़ता विकास का भूत
चण्डीप्रसाद भट्ट

इस वर्ष उत्तराखंड में आई बाढ़ ने एक बार पुन: विकास की नई अवधारणा के यंत्रों जैसे सड़क व बिजली व पानी के न्यायोचित इस्तेमाल की ओर इशारा किया है। उत्तराखंड एवं अन्य पहाड़ी क्षेत्रों को मैदानी प्रभावी तबका दुधारू गाय की तरह दुहता रहता है । पहले यहां के पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को अपने उपयोग में लाकर और बची कुची कसर यहां पर छुटि्टयां बिताने के लिए होटल और मनोरंजन केन्द्र बनाकर पूरी कर लेता है । धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले पहाड़ी क्षेत्र अब शोषण के प्रतीक बन कर रह गए हैं ।
इस वर्ष पहाड़ों से लेकर मैदानों तक लगातार नदियों में आयी बाढ़ से डूब क्षेत्रों का विस्तार हुआ है । २५ अगस्त की सुबह दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय बस अड्डे सहित यमुना नदी के किनारे की बस्तियों एवं गांवों में पानी घुसने के समाचार प्रमुखता से प्रसारित होते रहे । इससे पूर्व पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के कई गांव और क्षेत्र बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए थे । इस वर्ष बारिश कुछ ज्यादा हुई है जिससे इन क्षेत्रों में जो छोटे-बड़े बांध तथा ताल-तलैया हैं उनमें आवश्यकता से अधिक पानी भर गया है । इस खतरे को देखते हुए उनसे अधिक पानी छोड़े जाने से कई राज्यों में बाढ़ की स्थिति पैदा हुई । दिल्ली-हरियाणा तथा पंजाब में तो यही कुछ देखा
गया । हरियाणा के हथिनीकुण्ड बैराज से लाखों क्यूसेक पानी लगातार छोड़े जाने से तो ऐसा लगा था कि दिल्ली में युमना के तटवर्ती इलाके अब डूबे कि तब डूबे ।
मुम्बई, दिल्ली सहित कई बड़े-बड़े शहरों मेंे बारिश के पानी के समुचित निकास एवं अपशिष्ट आदि का ठीक से प्रबन्ध न होने को भी पानी के भराव का एक कारण गिनाया जा रहा है । दिल्ली-मुम्बई में तो यह अब हर वर्ष की समस्या बन गई है । संबंधित लोग जिम्मेदारियों से बचने के लिए एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं । जैसे ही बारिश थमती है तो फिर साल भर के लिए चैन की सांस ले लेते हैं ।
सन् १९९० के जुलाई के तीसरे हफ्ते में, मैं जब मुम्बई में था तो भायकला से गोरेगांव
गया । उस दौरान लगातार मुसलादार बारिश हो रही थी । तीन घन्टे की बारिश के बाद भी सड़क जाम एवं जलभराव जैसे स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा । लेकिन एक दशक से वहां पर जलभराव की बात लगातार सुनने को मिलती है । यही हाल दिल्ली का था पहले तिलक ब्रिज एवं मिन्टों ब्रिज के नीचे जरूर जलभराव देखा जाता था । अत्यधिक बारिश के बाद स्कूटरों एव छोटे तिपहियों वाहनों को परेशानी होती थी, पर बड़े वाहन सहजता से निकल जाते थे परन्तु जाम की जैसी स्थिति कम ही होती थी ।
आज दिल्ली-मुम्बई ही नहीं देश के कई छोटे-बड़े शहरों एवं नगरों में अनियंत्रित ढंग से निर्माण हो रहा है । उसमें पानी के निकास के प्रति बहुत ही लापरवाही बरती जा रही है । जिसके कारण जलभराव की समस्या दिनों-दिन विकराल रूप धारण कर रही है । लेकिन पहाड़ों में इसका स्वरूप अलग है । पहाड़ों में अनियोजित ढंग से जो निर्माण हो रहे हैं उसके कारण समस्या दिनों-दिन विकट होती जा रही है । यहां भूमि की भारवहन क्षमता, कमजोर एवं अस्थिर क्षेत्रों में निर्माण एवं पानी के निकास को ध्यान में न रखकर जो छोटे-बड़े निर्माण हो रहे हैं उससे कई छोटे-बड़े निर्माण हो रहे हैं उससे कई छोटे-बड़े नगरों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है । भूस्खलन एवं भू-घसाव की चपेट में कई नगर और बस्तियां हैं जिनकी संख्या हर वर्ष बढ़ती ही जा रही है ।
जहां तब बारिश के पानी से जलभराव की बात है इसमें सरकार और नागरिक समय से सावधानी बरतेंगे तो इस समस्या को पूरी तरह से समाप्त् तो नहीं किया जा सकता, किन्तु इसकी विकरालता को अवश्य ही कम किया जा सकता है ।
आज मुख्य समस्या यह है उफनती नदियों का वेग कैसे कम करें। बारिश तो कम ज्यादा होती रहती है और होती रहेगी । इसके चक्र को हमें पूरी तरह से समझना होगा । हमारे देश की गंगा, सिन्धु, एवं ब्रह्मपुत्र की सहायक धाराएं हिमालय क्षेत्र से ही नहीं अपितु इनकी कई धाराएं भूटान, नेपाल के पहाड़ों के साथ-साथ तिब्बत से भी निकलती हैं । इसी प्रकार गोदावरी, नर्मदा आदि अनेकों नदियां पूर्वी घाट, पश्चिमी घाट या देश के छोटे-बड़े पहाड़ों एवं जंगलों से निकलती है ।
हिमालय से लेकर सहयाद्रि तक और उससे भी आगे सागर के छोर तक बेइंतिहा छेड़-छाड़ की जा रही है । इनके पणढ़ालों में वनों का विनाश,खनन तथा विशाल विद्युत एवं सिंचाई परियोजनाआें के लिए धरती को अविवेकपूर्ण ढंग से खोदा जा रहा है । इन इलाकों में योजनाआें के लिये सड़कों का विस्तार किया जा रहा है इस से थोड़ी सी बारिश में भी ये नदियां अपना रौद्र रूप दिखाने लग गयी हैं । नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में जो, लाखों टन मिट्टी एवं कंकड़ खोदकर मलबे के ढेर लगाया गया है वह भी नदियों में बह रहा है । साथ ही नये-नये भूस्खलनों का मलबा भी नदियों में आने से इनका तल भी ऊपर उठ रहा है । दूसरी ओर नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों तक आबादी का विस्तार हो गया है ।
हमारे यहां एक कहावत थी, नदी तीर का रोखड़ा जत-कत शोरों पार लेकिन अब इस मुहावरे को कोई मायनें नहीं रह गये
हैं । इस प्रकार आबादी नदियों के विस्तार क्षेत्र में सहज रूप से आ गई है । इसलिए नदियों का कोप भाजन व केवल इनके बेसिन के अंतर्गत आने वाले मैदानी शहर ही नहीं अपितु पहाड़ी शहर और गांव भी हो रहे हैं । अभी पिछले दिनों अलकनंदा का बहाव श्रीनगर (गढ़वाल) की बस्ती में भी देखा गया है ।
यह स्थिति अब दिनोें-दिन विकराल रूप धारण करने वाली है । बिगाड़ तो बहुत हो चुका है इसलिए अब आवश्यकता है बिगाड़ पर आगे रोक लगाने की । अतएवं सम्पूर्ण हिमालय के अत्यंन्त संवेदनशील क्षेत्रों में प्रस्तावित बड़ी परियोजनाआें का मोह छोड़ कर उन्हें तत्काल बन्द कर दिया जाना चाहिए । जो परियोजनाएं बन चुकी हैं उनके द्वारा निकाली गयी मिट्टी और बालुरेत के ढेरों का समुचित निस्तारण अति प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए । ऐसे क्षेत्रों में मोटर मार्गोंा का निर्माण पत्थरों की दीवाल बनाकर आधा कटान के आधार पर किया जाना चाहिए । काटी गई मिट्टी निचले क्षेत्रों में फेंकना प्रतिबन्धित किया जाए । सड़कों का निर्माण ढाल में किया जाए, जिससे बार-बार भूस्खलन न हो, पानी के समुचित निकास का प्रबन्ध हो, नदियों के वृक्षविहीन क्षेत्रों को अति प्राथमिकता के आधार पर हरे आवरण से भरा जाना चाहिए । इसमें न केवल बड़े वृक्ष बल्कि छोटी वनस्पति का आवरण भी आवश्यक है । नदियों में बहने वाली गाद की जो मात्रा है उसे यदि प्राथमिकता के आधार पर नहीं रोका गया तो आगे इसके भयंकर दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं । ***

हमारा भूमण्डल

वैश्विक गर्मी और जलवायु शरणार्थी
रिचर्ड महापात्र

वैश्विक तापमान में वृद्धि के परिणामस्वरूप समुद्र का स्तर बढ़ता जा रहा
है । इस वृद्धि से भारत के सर्वाधिक प्रभावित होने की आशंका जताई जा रही है । हमें यह समझना होगा कि महज आखें बन्द कर लेने से समस्या हल नहीं हो जाएगी । आवश्यकता इस बात की है कि विश्व के सारे देश आपसी मतभेद भुलकर इस समस्या से छुटकारा पाने का प्रयत्न करें ।
पश्चिम बंगाल के संुदरबन मेंस्थित सागर द्वीप का निवासी बिप्लब मण्डल पिछले २५ वर्षोंा से एक शरणार्थी की तरह दिल्ली की गोविन्दपुरी नामक गंदी बस्ती में रह रहा है । पिछली बातों को याद करते हुए वह कहता है कि मैं जब भी समुद्र को देखता था तो मुझे लगता था कि जैसे वह मेरे गांव में घुस
आएगा । वह १९९२ में दिल्ली में बस गया और दिहाड़ी पर काम करने लगा । साथ ही दिल्ली में बसने के लिए उसने मकान खरीदने के लिए बचत भी प्रारंभ कर दी । १७ वर्ष बाद बिप्लब की आशंका सही साबित हुई । उसके रिश्तेदारों ने बताया कि समुद्र ने धीरे-धीरे मेरे घर को डुबोना प्रारंभ कर दिया है और अब वहां घर जैसा कहने को कुछ भी नहींबचा है ।
सन् २००९ में उसने गोविन्दपुरी में ७० हजार में एक अवैध झोपड़ी खरीद ली । अब उसका कहना है कि मेरी झोपड़ी अवैध जरूर है परंतु वह डूबेगी नहीं । पिछले ३० वर्षोंा में सुंदरबन के अनेक द्वीप डूब गए हैं और अनेक लोग दिल्ली, कोलकाता और मुंबई में जाकर बस गए हैं । बिप्लब और उसके जैसे अनेक अब जलवायु शरणार्थीहो रहे थे । आने वाले वर्षोंा में मुंबई, चेन्नई और अन्य बड़े समुद्र तटीय शहरों के निवासी भी समुद्र की मार से जलवायु शरणार्थी बनने लगेंगे ।
दिल्ली के दिहाड़ी मजदूर बाजार में देश के तटीय इलाकों के निवासी बड़ी संख्या में दिखाई देते हैं । सभी जगह पलायन की परिस्थितियां एक सी है तूफान, सूखा, समुद्र का रहवासी इलाकों में प्रवेश और खेती के लिए शुद्ध पानी का अभाव । उड़ीसा का केन्द्रपाड़ा जिला जो कि १९९९ के भयानक तूफान में सर्वाधिक प्रभावित था, के निवासी जगन्नाथ साहू का कहना है कि मेरे पिता १९७१ के तुफान बाद कोलकता चले गए थे क्योंकि वह हमारे ६ लोगों के परिवार का पोषण नहीं कर पा रहे थे । वे कभी गांव वापस नहीं लौटे । मैंने अपनी थोड़ी सी कृषि भूमि के साथ १९९९ तक संघर्ष किया । परंतु उस भयानक समुद्री तुफान ने मेरी पुरी जमीन को क्षारीय कर
दिया । अभी १५ गांवों में समुद्र प्रवेश कर गया है जिससे आव्रजन एकदम से बढ़ गया
है ।
भारत की ८००० कि.मी. लम्बी समद्री सीमा में नौ राज्य और द्वीपों के दो समूह आते हैं । वास्तव में वैश्विक तापमान वृद्धि से समुद्र का स्तर बढ़ गया है जिसके कारण समुद्री तट के किनारे बसने वाली भारत की २५ प्रतिशत आबादी के लिए यह महज वैज्ञानिक सिद्धांत भर नहीं बल्कि जिन्दा बचे रहने का सवाल है । इसके परिणामस्वरूप भारत के अन्य इलाकों में प्रवासियों की बाढ़ आ जाएगी । कभी उम्मीदों की द्वीप कहे जाने वाले मुंबई, चेन्नई और कोलकता जैसे शहरों को अब और अधिक प्रवासियों को अपने अंदर समेटना
होगा । इसका सीधा सा अर्थ है वर्तमान उपलब्ध सुविधाआें पर अतिरिक्त भार । इससे आपसी संघर्षोंा में भी वृद्धि होगी ।
गत वर्ष एक आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक ने रहस्योद्घाटन किया कि समुद्र का बढ़ता जलस्तर नई पीढ़ी को जन्म लेने से पहले ही मार देगा । उन्होंने अंदेशा जताया कि इसकी वजह से लोगों को मजबूरन खारा पानी पीना पड़ेगा । जिससे तटीय इलाकों में रह रही गर्भवती महिलाआें में गर्भपात की संख्या बढ़ जाएगी । कई अन्य वैज्ञानिक भी इससे सहमत हैं । ब्रिटिश वैज्ञानिकों के एक दल जिसने बांग्लादेश में तटीय गर्भवती महिलाआें पर बढ़ते समुद्री जलस्तर के प्रभाव का सर्वेक्षण किया है, का कहना है कि भारत में परिस्थितियां इससे भिन्न नहीं होंगी ।
उष्मीय विस्तारण की वजह से समुद्र का पानी गरम होने से उसके आकार में वृद्धि होती है । सन् १९६१ के प्रयोग बताते हैं समुद्र ३००० मीटर तक गर्म हो चुका हैं और यह वातावरण में मौजूद ८० प्रतिशत गर्मी को सोख लेता है । इसकी वजह से पानी का फैलाव होता है साथ ही ग्लेशियर के पिघलने से भी स्तर बढ़ता है । समुद्र का स्तर बढ़ने के बहुआयामी प्रभाव पड़ते हैं । इससे समुद्र तटीय बसाहटें जलमग्न होती हैं, बाढ़ की भयावहता में वृद्धि, तट का टूटना, आगे की बसाहटों पर विपरित प्रभाव पड़ना, बड़ी मात्रा में भूमि का बंजर होना और पानी के स्त्रोतों का खारा होना भी शामिल है । संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर अन्तर मंत्रीय समिति का कहना है बढ़ते जलस्तर से एशिया और अफ्रीका के सर्वाधिक घने बसे तटीय शहर प्रभावित होंगे जिनमें मुंबई, चैन्नई एवं कोलकता भी शामिल हैं । समिति के अनुसार भारत में २.४ मि.मी. प्रतिवर्ष के हिसाब से समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा जो कि २०५० में कुल ३८ सें.मी. हो जाएगा ।
संयुक्त राष्ट्र की एक दूसरी समिति के अनुमान से यह ४० सें.मी. होगा क्योंकि हिमालय व हिन्दुकुश श्रंृखला के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इसके परिणामस्वरू भारत के तटीय इलाकों में रहने वाले ५ लाख लोग तत्काल प्रभावित होंगे तथा सुंदरबन सहित तटीय इलाकों के पानी में खारापन भी बढ़ जाएगा । समिति का यह भी आकलन है कि सन् २१०० तक भारत व बांग्लादेश के तटीय इलाकों में रह रही ८ करोड़ अतिरिक्त जनसंख्या प्रभावित होगी । वहीं ग्रीन पीस का तो कहना है कि सदी के अंत तक स्तर में ३ से ५ मीटर एवं वैश्विक तापमान में औसतन ४ से ६ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से इन्कार नहीं किया जा सकता ।
भारत में लाखों लोग तट से ५० कि.मी. की परिधि में रहते हैं । समुद्र तट से १०
मीटर तक की ऊँचाई वाला इलाका निम्न ऊँचाई समुद्री क्षेत्र कहलाता है । यह सबसे पहले डूबेगा । इस क्षेत्र में ग्रामीण व शहरी आबादी बराबर है । इससे भारत का ६००० वर्ग कि.मी. क्षेत्र डुब में आ जाएगा । अनेक अध्ययन बताते हैं कि समुद्री जलस्तर बढ़ने से भारत और बांग्लादेश में सन् २१०० तक करीब १२ करोड़ लोग बेघर हो जाएगें । संयुक्त राष्ट्र विश्व विद्यालय के कोको वार्नर का कहना है जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप ऐसा विशाल मानव अप्रवास होगा जैसा पहले कभी नहीं देखा गया ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान में २.४ करोड़ व्यक्ति जलवायु शरणार्थी बन चुके हैं। श्री वार्नर का कहना है कि भारत इससे सर्वाधिक प्रभावित हो सकता है । जलवायु परितर्वन के मानव प्रभाव रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन का आगामी २० वर्षोंा में अधिक प्रभाव पड़ेगा । इसके अनुसार बढ़ता समुद्री जलस्तर जो अभी कम लोगों पर असर डाल रहा है, भविष्य में अधिक आबादी पर असर पड़ेगा । पानी गरम होने में समय लेता है, अतएव अगले कुछ वर्षोंा में समुद्र का तापमान बढ़ने से इसके आकार में वृद्धि होगी तथा इसका परिणाम अधिक विध्वंस ही
होगा । ***

दीपावली पर विशेष

कौन सुनेगा गजराज की आवाज
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

जल और जंगल का साथी है, हाथी यह बच्चें से लेकर बूढ़ों तक सबको प्रिय तभी तो प्रेम से गुनगुनाते हैं । चल-चल मेरे हाथी ......ओ मेरे साथी..... । धरती पर विशालतम जीवंत प्राणी हाथी है । भोजन करने में हाथी पूर्णतया शाकाहारी धर्म निभाता है । गन्ना हाथियों को बहुत भाता है । जल क्रीड़ा करने में हाथियों को बहुत मजा आता है । यह शुंड युक्त प्राणाी झुण्ड बनाकर समूह में रहता है । यद्यपि हाथी की ज्ञानेन्द्रियां शरीर के आकार के अनुपात मेंछोटी होती है । किन्तु फिर भी हाथी की पहचान एक अति संवेदनशील प्राणी के रूप में होती है । हाथी के व्यवहार में धीरता एवं वीरता का अदभुत समन्वय देखा जाता
है ।
हाथियों में सामाजिकता भी देखी जाती है । अपने किसी साथी की मृत्यु पर हाथी उसके मृत्यु स्थल पर शोक मनाते हैं । हाथी को हम लोक जीवन एवं पर्वोत्सवों पर अपने नजदीक पाते हैं । किसी भी शोभा यात्रा में प्रथमत: हाथी ढोल नगाड़ों की आवाजों के साथ प्रदर्शित किये जाते हैं । हाथी प्रकृति ही नहीं हमारी संस्कृति का भी अभिन्न अंग हैं । युगों-युगों से हाथी ऐश्वर्य और समृद्धि का सूचक रहा है । प्राचीन समय में राज सत्ताआें की शक्ति का अनुमान इसकी सेना के हाथियों एवं घोड़ों की संख्या से किया जाता था । हाथियों के प्रति आकर्षण को इस सुभाषित से समझा जा सकता है ।
गोधन गजधन बाजिधन और रतन धन खान ।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान ।।
प्राकृतिक रूप से जंगलोंेमेंरहने वाला हाथी अपनी धीरता एवं गम्भीरता के कारण ही लोक जीवन से जुड़ा रहा है । जो चिड़िया घरों तथा सर्कस आदि में लोकानुरंजन का साधन भी है । प्रथम पूज्य देव पौराणिक आख्यान है । अत: हाथी हमारे लिए श्रृद्धा एवं सम्मान का पात्र और संस्कृतिक से जुड़ा है । संस्कृति ही नहीं मौसम विज्ञान के भी मिथक गजराज से जुड़े हैं । वृष्टि हमारी कृषि से जुड़ी है । वृष्टि समृद्धि की भी सूचक
है । दीपावली पर लक्ष्मी पूजा के लिए लक्ष्मी-
गणेश के चित्रांकन पर हाथियों को सूँड द्वारा वृष्टि पात करनते हुए चित्रित किया जाता है । वस्तुत: यह मिथकीय चित्रांकन मेघ विज्ञान पर आधारित है ।
भारतीय ऋतुविज्ञान में हस्तिकर अथवा हाथी सूँड की अवधारा जल स्तम्भ से सम्बन्धित है । जब वायुवेग या अन्य ऋत्विक, मौसमी अथवा भौतिक स्थिति के कारण जल स्त्रोतों का जल वाष्पित होकर स्तम्भ रूप में धनीभूत वाष्प समूह बनाता है तो यह जल स्तम्भन की वृष्टि प्रक्रिया कहलाती है । जिस प्रकार से हाथी अपनी सूँड द्वारा जल राशियों से जल वाष्प ग्रहण करते हैं । इसीलिए उन्हें हस्तिकर (हस्ति शुण्ड) कहा जाता है । ब्रह्मवेतर्त पुराण में कहा गया है -
हस्ति समुद्रादाय करेण जल भीप्सितम् ।
तद्याद धनाप तद तद्याद् वार्तन प्रेरितं धन: ।।
(ब्रह्म वेर्त पुराण २१/१/५)
हाथी को उष्णकटिबंधीय तथा समशीतोष्ण जलवायु पसंद है । आँकड़ों के मुताबिक पूरी दुनिया में कुल ४,७०,००० हाथी मौजूद हैं । अफ्रीका में पाये जाने वाले हाथी १० फीट ६ इंच लम्बा होता है । तथा इसका वजन ७ टन होता है ।
केवल एशिया में ६०,००० हाथी हैं । जिनमें से २५००० हाथी भारत में रहते हैं । यह एशियन हाथी, जिसे भारतीय हाथी के रूप में जाना जाता है, का प्राणी वैज्ञानिक नाम हैं एलिफास मैक्सिमस (एश्रशहिरी ारुर्ळाीी) । भारत में यह हाथी उत्तर प्रदेश से मेघालय तक हिमालय की तराई के अलावा बिहार, उड़ीसा एवं दक्षिणी राज्यों कर्नाटक, केरलएवं तमिलनाडु में मिलता है । भारतीय हाथी, अफ्रीकी हाथी से कई मायनों में भिन्नता रखता है ।
भारत में पाये जाने वाले ३५०० हाथी मंदिरों, मठों, सर्कस या चिड़ियाघरों मे रहते हैं अथवा कहा जाये कि पालित हैं । शेष अपने प्राकृतिक निवासों में संरक्षित अथवा असंरक्षित क्षेत्रों में रहते हैं । संरक्षित क्षेत्रों में वन्य जन्तु उद्यान एवं वन्य जन्तु अभयारण्य आते हैं । हाथियों के निवास के रूप में केरल राज्य में ७७७ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तारित पेरियार वाइल्ड लाइफ सेंचुरी प्रसिद्ध है । यह सेंचुरी सन् १९४० से पेरियार नदी के परिक्षेत्र में स्थित है । यहाँ नदि के गहरे जल में हाथी तैरने का अभ्यास भी करते हैं ।
अभी एक अच्छी खबर मिली है कि हाथी को राष्ट्रीय धरोहर पशु के रूप में घोषित किया गया है । हाथियों को बचाने के लिए राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की तर्ज पर हब हाथी संरक्षण प्राधिकरण गठित किया
जाएगा । दरअसल हाथियों को लेकर डॉ. महेश रंगराजन की अध्यक्षता में गठित टास्क फोर्स ने इस प्राधिकरण के गठन की सिफारिश सरकार से की है । केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने रिपोर्ट की सिफारिशों पर अमल का न सिर्फ ऐलान किया है वरन् वह गम्भीरता के साथ इस कार्य मेंजुट भी गए हैं ।
प्रश्न यह उठता है कि जंगल की आन बान शान के प्रतीक गजराज को संरक्षण की दरकार क्योंहुई ? अपने नैतिक पतन के कारण थोड़े से लालच में आदमी दरिंदा हो गया है । वह निरीह जीव-जन्तुआें को बेतहाशा मारने लगा है । हजारों प्रजातियां या तो विलुप्त् हो गई हैं या विलुप्त् होने के कगार पर हैं । हाथी को उसके दाँतों के लिए मारा जाता है । लोक शैली में कहा जाता है जिन्दा तो जिन्दा, मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का भारत में हाथी सदियों से संरक्षित रहा, पूजनीय रहा और पालतू भी रहा । जंगल में शिकार करने हेतु जाने के लिए भी शिकारियोंे ने हाथी को प्रशिक्षित किया । मालवाहक के रूप में तथा शान की सवारी के रूप में भी हाथी प्रयोग होते हैं । हाथी को मारना अपराध माना जाता है । हाथी अवध्य है । किन्तु केवल दाँतों के लिए हाथी मार दिये जाते हैं । बड़े ही अमानुषिक तरीके से तस्कर इनको जहरीला इंजेक्शन लगाते हैं।
तस्कर एवं शिकारी ही हाथी को नहीं मार रह हैं वरन् हाथियों के प्राकृतिक निवास नष्ट होते जा रहे हैं । वनों का व्यापक विनाश हुआ है जो भारत में ३३ प्रतिशत भू भाग से घटकर ३ प्रतिशत भू भाग पर रह गए हैं । ऐसे में हाथी भी कैसे निरापद रह सकते हैं । मोटर मार्गोंा का विस्तार एवं रेल पथों का विस्तार भी जिम्मेदार हैं । अनेक हाथी चलती ट्रेनों की चपेट में आकर मारे जाते हैं । पोषक तत्वों की कमी के चलते हाथी कुपोषण का शिकार भी हुए हैं ।
हाथी संरक्षण हेतु टास्क फोर्स ने जो रिपोर्ट दी है उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रकृति को इस अनमोल धरोहर को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने हेतु यह जरूरी है कि नए सुरक्षित क्षेत्र हाथियोंके निवास हेतु निर्धारित किये जाये । इन क्षेत्रों को बचाने हेतु उनके पुराने कॉरीडोर भी खोलने होंगे । उत्तराखण्ड में यमुना से शारदा नदी के बीच बंद हो चुके एलीफेंट कॉरीडोर को खोलने की सिफारिश की गई है । ताकि हाथी निर्भय होकर राजाजी पार्क से कोटद्वार, जिम कार्बेट पार्क और तराई के जंगलों से होकर नेपाल के सीमावर्ती जंगलोंें एवं उत्तरप्रदेश में दुधवा पार्क तक निरापद विचरण कर सके ।
हाथियोंके प्रति सरकार की हमदर्दी स्वागत योग्य है । देर आयद दुरूस्त आयद आखिरकार हाथियों की सुध तो आई । प्रकृति ने एक जीवन कृति भी ऐसी नहीं बनाई कि जिसका हमारे जीवन के लिए महत्व हो, हमारे अस्तित्व से सरोकार न हो । वस्तुत: पृथ्वी पर जीवंत जैव विविधता ही हमारे जीवन का आधार है । उन्ही के सहारे प्रकृति ने जीवन निर्वाही तंत्र का निर्माण किया हुआ है । अत: हमको भी व्यक्तिगत रूचि लेकर सरकार के काम में हाथ बंटाना होगा । पर्यावरण प्रेमियों के साथ कदमताल में आना होगा ।
हाथी संरक्षित एवं सुरक्षित होंगे इस खुशफहमी को कुछ समय भी नहीं बीता कि हाथियों के साथ हादसा हो गया । दिनांक २४ पिछले दिनों को पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में बरेनहाट रेलवे स्टेशन
के समीप रेलवे ट्रेक पर चलती मालगाड़ी से टकरा कर एवं कटकर सात हाथियों की मौत हो गई । रेलवे ट्रेक पर पहले भी ऐसी दुर्घटनाएं हुई हैं । किन्तु वर्तमान घटना को सबसे बड़ा बतलाया गया है । संयोग से जलपाईगुड़ी क्षेत्र हाथियों के गलियारे (कॉरीडोर) के रूप में पूर्व घोषित है । यहाँरेलवे को यह सख्त हिदायत है कि सुरक्षित क्षेत्र से गुजरते हुए ट्रेनों की गति धीमी रखी जाए ताकि कोई हादसा न हो ।
अब जब हादसा हो गया तो कौन सुनेगा गजराज की आवाज ? कहाँ मिलेगा उस विशालतम जीवंत प्राणी को न्याय, जिसके सामने आदमी का लालच और भी अधिक विशाल है ? ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति रोकने हेतु रेलवे विभाग को सख्त उपाय करने होंगे और जनता को वन्य जीवन रक्षा के संकल्प को मजबूती से लागू करवाने की आवश्यकता है । ***

जनजीवन

प्रगति की होड़ से उठता विप्लव
भारत डोगरा

प्रगति की आधुनिक परिभाषा ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर रही है जिससे मानवता विध्वंस की ओर अग्रसर हो रही है । आवश्यकता इस बात की है कि प्रगति की वास्तविक परिभाषा, जिसके अंतर्गत मानवता को सहेज कर आगे बढ़ने की बात सोची गई है, को पुर्नस्थापित किया जाए ।
आज जहाँ एक ओर महानगरों की चमक-दमक बढ़ रही है व चंद लोगों के लिए भोग-विलास, आधुनिक सुख-सुविधाएं पराकाष्ठा पर पहुच रही है, वहां दूसरी ओर बड़ी संख्या में लोग साफ हवा, पेयजल व अन्य बुनियादी जरूरतों से वंचित हो रहे हैं । पशु-पक्षी, कीट-पतंगे व अन्य जीव जितने खतरों से घिरे हैं उतने (डायनासोरों के लुप्त् होने जैसे प्रलयकारी दौर को छोड़ दें तो) पहले कभी नहीं देखे गए । इस स्थिति में यह जानना बहुत जरूरी है कि प्रगति क्या है और विकास क्या
है ? इस पर गहराई से विचार किया जाए और उसके बाद ही सही दिशा तलाश कर आगे बढ़ा जाए ।
उदाहरण के लिए १०० वर्ग किमी. के महानगरीय चमकदार क्षेत्रों के बारे में यदि हम जान सकें कि आज से लगभग १०००० वर्ष पहले वहां की स्थिति कैसी थी तो हम तब और अब की स्थिति की तुलना कर सकते हैं । अधिक संभावना यही है कि हमें पता चलेगा कि आज से दस हजार वर्ष पहले यह क्षेत्र मुख्य रूप से एक वन-क्षेत्र था । तब यहां एक हजार के आसपास मनुष्य रहते होंगे, जो तरह-तरह के कंद-मूल, फल आदि एकत्रित कर व शिकार कर अपना पेट भरते थे ं आज यहां एक हजार के स्थान पर संभवत: बीस लाख लोग रह रहे हैं । पर शेष सभी जीवोंकी संख्या बहुत कम हो गई हैं । पहले यहां के वन-क्षेत्रोंेंं जितने जीव भरे रहते थे, उनकी संख्या संवत: करोड़ों में थी जो अब बहुत ही सिमट गई है । पहले इन सभी जीवों को साफ हवा-पानी, रहने के अनुकूल स्थितियां उपलब्ध थीं पर अब जो थोड़े से जीव बचे हैं उनके लिए भी प्रदूषण की
अधिकता व हरियाली की कमी बड़ी समस्या बन गई हेैं । वृक्षों की संख्या व विविधता में बहुत ही कमी आई है ।
मनुष्यों की संख्या जहां बहुत बढ़ गई है, वहीं दूसरी और उनके बीच विषमता और भी अधिक बढ़ गई है । उनमें से अनेक बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती हैं । अनेक लोग तरह-तरह के दुख दर्द से त्रस्त
हैं। आपसी संबंध अच्छे नहीं हैं । पारिवारिक संबंधों तक में टूटन व अन्याय है । जो थोड़े से लोग बहुत वैभव की जिंदगी जी रहे हैं, उनका जीवन दूसरों से छीना-छपटी व अन्याय पर आधारित है । इतना ही नहीं सीमित संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर व ग्रीनहाऊस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन कर यह थोड़े से लोगों की जीवन-शैली भावी पीढ़ियों को खतरे में भी डाल रही है ।
इस स्थिति में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि यहां दस हजार वर्षोंा से जो बदलाव हुआ उसे प्रगति माना जाए कि नहीं ? बहुत से लोग कहेंगे कि यह निश्चय ही प्रगति है क्योंकि पहले जहां जंगल था वहां अब गगनचुंबी इमारते खड़ी हैं । बहुत से नए अविष्कार हो चुके हैं । कार, हवाई जहाज, टीवी, एयरकंडीशनर, सिनेमा सब मौजूद हैं । पर अधिकांश जीव-जंतु , पेड़-पौधे उजड़ चुके हैं या उजड़ रहे हैं । जिन्हें वैभव मिला है वे इसका उपयोग ऐसे कर रहें हैं जिससे भविष्य में हर तरह का जीवन ही संकट में पड़
जाएगा । अत: प्रगति न तो अधिकांश जीव-जन्तुआें की है, न पेड़-पौधों की है । अधिकांश मनुष्यों और साथ ही भावी पीढ़ियों का जीवन भी संकटग्रस्त हो गया है । तो इसे प्रगति कैसे माने ?
यदि मनुष्य अन्य जीवों, पेड़-पौधों भावी पीढ़ियों व अपने साथियों के प्रति अधिक संवेदनशील होता, तो फिर वह एक दूसरी तरह की दुनिया बना सकता था जिसमें सभी मनुष्य छोटे-छोटे घरों में रहते व सादगी की जीवन शैली से जीते पर अपने पास बहुत हरियाली को पनपने देते । इस हरियाली में सब तरह के जीव-जन्तुआें को शरण मिलती व भोजन मिलता । इससे हवा-पानी की बुनियादी जरूरतें सबके लिए ठीक से पूरी होने में मदद मिलती । सादगी का जीवन सब अपनाते तो विषमता, लालच, छीना-झपटी की बुराईयों से बचते । मनुष्य का जीवन समता व सद्भावना पर आधारित होता तो उसमें दुख-दर्द भी कम
होता ।
यह राह भी संभव है यदि मनुष्य अपनी बढ़ती संख्या के बावजूद अपनी क्षमताआें व सुबुद्धि के बल पर ऐसी दुनिया बनाए जिसमें वह अन्य जीवों को पनपने के लिए पर्याप्त् स्थान दे,अपने साथियों में खुशियां बांटे व भावी पीढ़ी की रक्षा सुनिश्चित करें । जब मनुष्य यह सच अपनाएगा तो इसे प्रगति कहा जाएगा, क्योंकि इसमें सभी मनुष्यों, सभी जीव-जन्तुआें व भावी पीढ़ियों की भलाई बढ़ रही है । इस तरह अभी तक के मानव इतिहास को प्रगति नहीं कहा जा सकता है । हालांकि इतिहास में कुछ वर्षोंा के लिए प्रगति अवश्य हुई जब तरह-तरह के सद्भाव, सादगी, सह-अस्तित्व व सबकी भलाई के संदेशों ने जोर पकड़ा । सही प्रगति की राह वह है जिसमें मनुष्य अपने साथियों से प्रगाढ़ सद्भावना के संबंध बनाकर सभी मनुष्यों, सभी जीवों, पेड़-पौधों व भावी पीढ़ियों की रक्षा के लिए सक्रिय होते हैं । प्रगति की इस सही राह को अपना कर ही धरती की व इसके विविधता भरे जीवन की रक्षा हो सक ती है ।
यदि हमने सब जीवों की भलाई पर आरंभ से ध्यान दिया होता, तो ऐसी सभ्यता विकसित होती जो हरियाली से घिरी रहती । इस सभ्यता में ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन की अधिकता से जुड़ा जलवायु बदलाव का संकट कभी उत्पन्न ही न होता । इस तरह सब जीवों की भलाई पर ध्यान देना हमारे अपने जीवन की रक्षा का सबसे बड़ा उपाय बन सकता था । अभी भी हम चाहें तो अपनी गलतियों को सुधार कर अपनी तथा अन्य जीवों दोनों की रक्षा कर सकते हैं ।
***

५ प्रदेश चर्चा

झारखंड : लौहा नहीं अनाज चाहिए
कुमार कृष्णन

झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता के पीछे की परिस्थितियों को समझने के लिए बहुत जटिल मनन की आवश्यकता नहीं है । प्रत्येक मुख्यमंत्री के कार्यकाल में हस्ताक्षरित एम.ओ.यू. और मधु कौड़ा के राज में हुआ भ्रष्टाचार सब कुछ आसानी से समझा देता है । आदिवासियोंके नाम पर गठित इस राज्य में आदिवासियों की बेदखली निर्बाध जारी है ।
औद्योगिकीकरण की एक नई आंधी जिसे विकास और गरीबी निवारण की ओट में थोपने की कोशिश की जा रही है अब झारखंड की एक बड़ी आबादी को विस्थापित करने की चेतावनी दे रही है । ये सारे इलाके जिनकी पहचान खनन, धातुशोधन बांध और ऊर्जा संयंत्र हेतु आदर्श जगहों के रूप में बन रही है वस्तुत: आदिवासियों के रिहायशी स्थल हैं । देश में औद्योगिकरण की वजह से तकरीबन ६ करोड़ लोग पहले ही विस्थापित हो चुके
हैं । इसी ब्रिटिशकालीन जनविरोधी कानून के गर्भ से विस्थापन का जन्म हुआ । ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट होता है कि भू-अर्जन अधिनियम १८९४ के माध्यम से झारखंड के किसानों की खूंट कटी एवं कोडकर-भूमि पर कब्जा कायम किया गया । इस भूमि का मूल मकसद था झारखंड में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विस्तार करने के लिए अर्जित भूमि का इस्तेमाल
करना ।
इसी भूमि लूट के विरोध में १८९५ में बिरसा मुंडा का उलगुलान आरंभ हुआ । बिरसा का यह उलगुलान कोल विद्रोह (१८३१), भूमिज विद्रोह (१८३२) एवं मुल्की विद्रोह (१८५७) से ज्यादा उग्र था, क्योंकि इस उलगुलान में भूमि लूट से क्षति का सवाल, स्वशासन की वापसी का सवाल एवं अस्मिता की क्षति का सवाल एक साथ जुड़े थे । इस उलगुलान का एक नारा था-हमारी जमीन, जल एवं जंगल हमारे सिंगबोंगा की देन है । हमने अपना खून-पसीना बहाकर जंगल और झाड़ी काटकर भूमि को खेती योग्य बनाया है । अत: हम जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे ।
आजादी के बाद विकास ने लाखों झारखंड वासियों को विनाश और बर्बादी के गर्त में धकेल दिया । इस विकास के क्रम में हटिया परियोजना, बोकारो परियोजना, डीबीसी, कोनाल बांध तिलैया बांध, टाटा टिस्को कारखाने के नाम ३२ लाख झारखंडियों
को घर से बेघर बना दिया और उन्हें दाई धांगर एवं रेजा-कुली बनना पड़ा । इन सरकारी और गैर सरकारी विकास परियाजनाआें में ५ फीसदी से भी कम विस्थापितों के लिए अभिशाप बन गया । झारखंड की आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में आदिवासी मूलनिवासियों के पास इतनी जमीन हुआ करती थी कि वह घर आंगन और बाड़ी बना सके । औद्योगिकरण के इस दौर में झारखंड की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था की इस विशेषता को खत्म कर दिया गया ।
आदिवासी जमीन के गैरकानूनी हस्तांतरण रोकने के लिए बिहार शेड्युल एरिया रेग्यूलेशन एक्ट १९६९ बनाया गया । इसके तहत इन मामलों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालय की व्यवस्था की गई तथा उपायुक्तों को विशेष अधिकार दिये गये । इसका आलम यह रहा कि वर्ष २००१-०२ तक ८५७७७.२ एकड़ जमीन से संबंधित ६०४६४ मामले दर्ज किये गये । इनमें ४६७९६.३६ एकड़ से संबंधित ३४६०८ मामलों की सुनवाई की गयी तथा शेष ३८९७९.८६ एकड़ से संंबंधित २५८५६ मामले खारिज कर दिये गये । न्यायालय में सुनवाई किये गये मामलों में सिर्फ २१४४५ मामलों में कुल २९८२९.०७ एकड़ जमीन पर रैयतों को कब्जा दिलाया गया और शेष जमीन पर गैरआदिवासियों का कब्जा बरकरार रहा । भू-हस्तांतरण का पेचीदा खेल यहीं खत्म नहीं होता है । स्पेशल एरिया रेग्यूलेशन न्यायालय में आदिवासी जमीन के गैरकानूनी हस्तांतरण के मामलों में लगातार इजाफा होता जा रहा है ।
ग्रामीण विकास मंत्रालय के प्रतिवेदन के मुताबिक देश में आदिवासी भूमि हस्तांतरण के मामले में झारखंड सबसे आगे हैं । राज्य में आदिवासी भूमि हस्तांतरण के १,०४,८९३ एकड़ जमीन से संबंधित मामले दर्ज किये गये हैं । दूसरी तरफ विकास परियाजनाआें की बात की जाय तो १९५१ से लेकर अब तक १५,४६,७४४ एकड़ जमीन का अधिग्रहण बाघ, उद्योग, खनन कार्योंा एवं विकास परियाजनाआें के लिए किया गया । इसमें ३,४८,६२८ एकड़ सामान्य जमीन ८,५२,०३३ एकड़ जमीन एवं ३,४५०८३ एकड़ वन भूमि शामिल है ।
यहां पैसा कानून भी कारगर साबित नहीं हो सका । सूबे के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने राज्य में औद्योगिकरण का रास्ता बनाते समय छोटा नागपुर एवं संथाल परगना काश्तकारी कानूनों पर हमला बोला । वहीं
राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने पूरे झारखंड का ही सौदा कर डाला । कानून के रखवालों ने कॉरपोरेट विकास के मॉडल को जारी रखते हुए आदिवासी भूमि रक्षा कानूनों का भरपूर दुरूपयोग किया । झारखंड में सौ सालसे राज कर रहे टाटा औद्योगिक घराने को फिर से सस्ते दामों में अधिसूचित क्षेत्र की जमीन दे दी गई । नवीनतम लीज के मुताबिक टाटा स्टील को जमशेदपुर में २८ रूपये से लेकर ४०० रूपये प्रति एकड़ की दर से ६४ वर्ग किलोमीटर जमीन अगले ३० वर्षोंा के लिए दे दी गई है ।
झारखंड सरकार ने अब तक १०५ कंपनियों के साथ एमओयू किया है । इससे आदिवासियों का भविष्य खतरे में है । इन उद्योगों की स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर जमीन चाहिए । ये एमओयू स्टील, सीमेंट, अल्यूमिनियम आदि क्षेत्रों में हस्ताक्षरित किये गये हैं । एक मोटे अनुमान के अनुसार इस हेतु १०,५०,००० एकड़ जमीन की आवश्यकता होगी । इसके अलावा इससे १५ लाख लोगों को विस्थापित होना होगा । ये कंपनियां नौकरी, मुआवजा और सामाजिक सरोकार के कार्यक्रम के तहत भविष्य संवारने की बात कह रही है लेकिन इनके दावोंमें कोई दम नहीं है ।
जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो.अरूण कुमार के मुताबिक टाटा स्टील का उत्पादन
करती थी तब वहां ७० हजार लोग काम करते थे । स्टील उत्पादन में सात गुणा इजाफा हुआ लेकिन २० हजार लोगों को ही रोजगार
मिला । इस प्रकार एचईसी में प्रारंभ में २३ हजार लोग काम करते थे, वहां अब तीन हजार लोग ही काम करते हैं । जहां तक स्टील एवं अल्यूमिनियम उत्पादन का सवाल है तो इसमें सबसे ज्यादा बिजली और पानी की खपत होती है । साथ ही प्रदूषण भी अधिक होता है । लोग भी अब कहने लगे हैं लोहा नहीं अनाज चाहिए, खेती का विकास चाहिए ।
दरअसल में विस्थापन का मसला राष्ट्रव्यापी मसला बना है और पुनर्वास एवं पुर्नस्थापन नीति का प्रारूप भी तैयार किया गया है । विकास की प्रचलित अवधारणा पर लगातार बहस की जा रही है लेकिन आदिवासी कैसा विकास चाहता है ऐसा मॉडल न तो तैयार किया गया है, न इस दिशा में प्रयास किये
गये ।
दरअसल में झारखंड में विकास करना है तो जमीन की अवधारणा को बदल कर कृषि को उद्योग का दर्जा दिया जाना चाहिए, छोटे उद्योग लगाये जाएं । पद्मश्री डॉ.रामदयाल मुडा का मानना है कि सूबे में औद्योगिकरण का जो रूप प्रकट हुआ है वह भयानक है । उनका कहना है, ऐसे उद्योग चाहिए जो जनहित में हो । ***

६ पर्यावरण परिक्रमा

टेस्ट ट्यूब बेबी के प्रणेता को नोबल पुरस्कार

फिजियोलाजिस्ट डॉ.राबर्ट एडबर्ड्स को इस वर्ष चिकित्सा क्षेत्र के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है । उनके अध्ययन से ही दुनिया में पहली टेस्ट ट्युब बेबी (परखनली शिशु) का जन्म संभव हुआ था ।
नोबेल पुस्कार प्रदान करने वाले स्वीडन के कैरोलिन्सका इंस्टीट्यूट ने स्टाकहोम में यह जानकारी दी । डॉ.एडवर्ड्स को एक करोड़ स्वीडिश क्रोन (१५ लाख डालर) की राशि प्रदान की जाएगी ।
संस्थान की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि डॉ.एडवर्ड्स की उपलब्धियों के कारण प्रजनन अक्षमता का इलाज संभव हुआ । दुनिया के १० फीसद से ज्यादा दंपति इस अक्षमता से पीड़ित है ।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे पचासी वर्षीय डॉ.एडवर्ड्स १९५० के दशक में आईवीएफ तकनीक पर शोध कार्य शुरू किया था । उन्होंने अंडाणु कोशिकाआें को शरीर से बाहर निषेचित कर गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर शिशु जन्म कराने में सफलता पाई थी । इस काम में प्रसूति सर्जन पैट्रिक स्टेपटोए ने सहयोग किया था ।
दुनिया की सबसे पहली परखनली शिशु लुईस ब्राउन का जन्म ब्रिटेन में २५ जुलाई, १९७८ को हुआ था । इस समय ३२ वर्षीय ब्राउन ब्रिस्टाल में डाक विभाग में कार्यरत हैं और उन्होंने वर्ष २००७ में एक लड़के को भी जन्म दिया । दुनिया में अब तक करीब चालीस लाख परखनली शिशु का जन्म हो चुका है ।

प्रदूषण दूर करेगा सुजल चूर्ण

एमिटी विश्वविद्यालय नोएडा के प्रोफेसर आरएन दुबे ने वनस्पतियों के अर्क और रासायनिक पदार्थोंा के मिश्रण से एक ऐसा पदार्थ विकसित किया है, जो नालों एवं तालाबों में बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रित करने में कारगर साबित होगा ।
प्रो.दुबे ने बताया कि इसका नाम सुजल तकनीक रखा है और यह पूर्णतया वैदिक चिंतन पर आधारित है । नदियों के संगम को निर्मल रखने के लिए हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों और व्यवस्थाकारों ने काशी में तालाबों व कुड़ों का विधिवत निर्माण किया था ताकि गंगा सहित अन्य नदियाँ प्रदूषित न हों । लेकिन कालांतर में स्थिति बिलकुल बदल गई है । अब तो गंगा के साथ ही साथ तालाब एवं कुंड प्रदूषित हो गए हैं उनका पानी न ही नहाने और न ही आचमन के लायक बचा है । मुख्य रूप से घरेलु मल-जल एवं औद्योगिक कचरे से नदियोंका जल प्रदूषित होता है ।
प्रो.दुबे ने बताया कि जगह-जगह बहने वाले नालों को बंदकर सुजल चूर्ण का छिड़काव कर प्रदूषण को आसानी से दूर किया जा सकता है । सुजल चूर्ण बहुत ही सस्ता है । इस विधि द्वारा शोधित जल कृषि कार्य के लिए सामान्य जल की तरह उपयोग मेंलाया जा सकता है । इसके इस्तेमाल से पानी पीने योग्य भी बनाया जा सकता है लेकिन अभी इस पर अनुसंधान चल रहा है ।

विलुिप्त् की कगार पर है गौरैया

गौरैया देश की लुप्त् होती पक्षी बनती जा रही है । फुर्तीली और चहलकदमी करने वाली गौरैया को हमेशा शरदकालीन फसलों के दौरान खेत-खलिहानों में अनेक छोटे-छोटे पक्षियों के साथ फुदकते देखा जाता रहा है, लेकिन सर्वपरिचित, सर्वव्यापी गौरेया पूरे विश्व मेंतेजी से दुर्लभ होती जा रही है । वैज्ञानिकों की मानें तो गौरैया के लुप्त् होने के विभिन्न कारण हैं, मसलन सीसारहित पेट्रोल का उपयोग जिसके जलने पर मिथाइल नाइट्रेट नामक यौगिक तैयार होता है । यह यौगिक छोटे जंतुआें के लिए काफी जहरीला है ।
इसके अलावा खर-पतवार की कमी या गौरैया को खुला आमंत्रण देने वाले ऐसे खुले वानों की कमी, जहां वे अपने घोंसले बनाया करती थी, के कारण भी वे लुप्त् हो रही हैं । आधुनिक युग के पक्के मकान, लुप्त् होते बाग-बगीचे खेतोंमें कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा भोज्य-पदार्थोंा की उपलब्धता में कमी प्रमुख कारक हैं, जो इनकी घटती आबादी के लिए जिम्मेवार हैं । गौरैया फसलों को नुकसानप पहुँचाने वाले कीटों को समाप्त् करने में सहायक होती है । गौरैया एक बुद्धिमान चिड़िया है, जिसने घोंसला स्थल, भोजन तथा आश्रय परिस्थितियों में अपने को उनके अनुकूल बनाया है । इन्हीं विशेषताआें के कारण विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली वह चहचहाती चिड़िया बन गई । बसंत के मौसम मे फूलोंकी प्रजातियाँ घरेलु गौरैया को ज्यादा आकर्षित करती हैं ।
गौरैया देश में अनेक नामों से लोकप्रिय है । गुजरात में चकली, मराठी में चिमानी, पंजाबी में चिड़ी, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, तमिलनाडु तथा केरल में कूरूवी, तेलगु में पिच्च्ूका, कन्नड़ में गुब्बाच्ची, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी तथा उड़िसा में घरचटिया कहते हैं जबकी उर्दू भाषा में इसे चिड़िया तथा सिन्धी भाषा में इसे झिरकी कहा जाता है ।
गौरैया का प्रमुख आहार जमीनपर बिखरे अनाज के दाने हैं । अगर अनाज उपलब्ध न हो तो कीटों को भी खा लेती है और घरों से बाहर फेंके गए, कूड़े -करकट मे भी अपना आहार ढूँढ लेती है । इनके घोंसले भवनों की सुराखों या चट्टानों, घर या नदी के किनारे, समुद्र तट या झाड़ियों या प्रवेशद्वारों जैसे विभिन्न स्थानों पर होते हैं ।
इनके घोंसले घांस के तिनकों से बने होते हैं और इनमें पंख भरे होते हैं । इनके अंडे अलग-अलग आकार और रंग के होते हैं। अंडे को मादा गौरैया सेती है । गौरैया की अंडा सेने की अवधि १०-१२ दिनों की होती है जो सभी चिड़ियों की अंडे सेने की अवधि से सबसे छोटी है ।
विलुिप्त् के कगार पर पहुँचीगौरैया आज झाड़ियों में उछलना और घर के बाहर अब उसका चहचहाना किसी को शायद ही दिखाई पड़ता हो । कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ियाँ गौरैया को सिर्फ चित्रों में देखें । इसके लिये इसको बचाने के प्रयास तेज करने होंगे ।

कैसे नष्ट हो सकती है गाजर घांस

देश भर में समस्या बन गई गाजरघास नष्ट करने के लिए राउंटअप नामक एक केमिकल है । इसे डालने से इसका प्रभाव नष्ट किया जा सकता है । हालाँकि इसमें कुछ खामियाँ हैं, लेकिन गाजरघास को खाने वाला एक कीड़ा भी आता है । साथ ही गाजरघास से खाद भी बनाई जा सकती है ।
यह बात कृषि वैज्ञानिक दिलीप सूर्यवंशी ने कही । उन्होंने बताया कि केमिकल डालने के लिए सिर्फ उसी जगह का उपयोग किया जाता है, जहाँ सड़क किनारे गाजरघास उगी हो । यदि इसका प्रयोग खेतों में किया गया तो यह गाजरघास के साथ फसल भी नष्ट कर देगा क्योंकि यह केमिकल फसलों के लिए भी हानिकारक है ।
श्री सूर्यवंशी ने बताया कि भारतीय खरपतवार अनुसंधान केन्द्र जबलपुर ने एक जैविक उपाय भी खोज निकाला है । इसके तहत गाजरघास को खाने वाला एक कीड़ा आता है, जिसे बड़ी संख्या में खेतों में छोड़ दिया जाए तो गाजरघास खत्म हो सकती है । यह कीड़ा केवल गाजरघास ही खाता है ।
गाजरघास का उपयोग खाद बनाने में भी किया जा सकता है । इसे सावधानी से उखाड़कर खेत से दूर एक ग े में डाला जाना चाहिए । इसमें मिट्टी व पानी आदि डालकर उसे जैविक खाद के रूप में विकसित किया जा सकता है ।
श्री सूर्यवंशी ने बताया कि गाजरघास के पौधों में फूल आने से पहले ही उन्हें नष्ट करना जरूरी हैं । यदि फूल आ गए तो इसका प्रभाव बढ़ जाएगा और यह मानव स्वास्थ्य सहित फसलों के लिए बेहद हानिकारक हो जाएगी । इसका बीज बहुत ही हल्का होता है और यह हजारों मीलों तक हवा में उड़कर पहुँच सकता है । साथ ही पानी मे बहकर भी इसके बीज दूर तक फैल सकते हैं । वर्तमान में यह समस्या पूरे विश्व में है ।

अब कचरे पर है सबकी नजर

गाँवों और शहरों की गलियों में घूमने वाले कबाड़ियों का आजकल ग्लोबल बिजनेस हो गया है और कचरे को रीसायक्लिंग करने का काम तेजी से बढ़ रहा है । इलेक्ट्रो कचरे की तो बात ही कुछ और है क्योंकि इसके मुकाबले और कोई कचरा कीमती नहींहोता ।
योरप में कचरा रीसायक्लिंग करने वाली सबसे बड़ी कंपनी रेमोडिस के प्रवक्ता मिशाएल श्नाइडर का कहना है कि हर मोबाइल फोन मेंऔसतन २३मिलीग्राम सोना होता है । उनकी इस बात से स्पष्ट होता है कि आखिर कचरे को लेकर इतना मोह क्यों उपजा ! दुनियाभर में हर साल करीब १.३ अरब मोबाइल फोन बनते हैं और इनमें से सिर्फ १० फीसद मोबाइल रिसायक्लिंग के लिए आते हैं । इसका मतलब है कि हर साल कम से कम बीस-बाईस टन सोना लोग कचरे मे फैंक देते हैं ।
सोने के बारे में तो सब जानते हैं कि यह एक मूल्यवान धातु है । लेकिन ऐसी भी कई धातुएँ हैं जो दुनिया में बहुत कम हैं और तेजी से खत्म हो रही हैं । उदाहरण के लिए इंडियम जो टच स्क्रीन बनाने के लिए सबसे अहम पदार्थ हैं । जानकार कहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा अगले दस साल में इंडियम दुनिया से खत्म हो जाएगा । अब जब टच स्क्रीन के टीवी, मोबाइल कम्प्यूटर सब कुछ बाजार में है तो सोचा जा सकता है कि इस पदार्थ की भविष्य में कितनी जरूरत होगी । दुनिया की आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है, उतनी तेजी से कचरा और कचरे का व्यापार भी बढ़ रहा
है ।
जर्मनी के रीसायक्लिंग संगठन के योर्ग लाखर कहते हैंकि खनिज खत्म होने वाले पदार्थ हैं । ये खनिज पदार्थोंा की बढ़ती कीमत से भी समझ में आता है । कीमत बढ़ने का कारण माँग में बढ़ोतरी है । इस माँग के बढ़ने का कारण विकासशील देशों में तेजी से हो रहा विकास है । इस कारण रिसायक्लिंग से बनने वाले उत्पादों की माँग धीरे-धीरे बढ़ेगी ।
जर्मनी में भी कचरे का धंधा एक बड़ा कारोबार हो गया है । पानी, प्लास्टिक, काँच, धातुएँ सभी की रिसायक्लिंग यहाँ होती है । शुरू में जब जर्मनी ने कचरा अलग-अलग करने के लिए अलग-अलग रंग की थैलियाँ बनाई तो उसकी हँसी उड़ाई गई थी । लेकिन अब धीरे-धीरे पूरे योरप में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है । श्नाइडर बताते हैं कि इस कचरे के तहत अलग-अलग उत्पाद हैं ।
रिमोंडिस योरप की सबसे बड़ी कंपनी है जो रीसायक्लिंग के क्षेत्र में हैं और लिपनवर्क का इसका रीसायक्लिंग कारखाना योरप का सबसे बड़ा और आधुनिक है । इससे पर्यावरण को भी फायदा है । विकासशील देशों को गैरकानूनी तरीके सेनिर्यात होने वाले इलेक्ट्रो कचरे को यही रीसायकल किया जा सकता है । जानकारोंका मानना है कि अगले बीस साल में कुछ धातुआें की माँग तिगनी हो जाएगी । लीथियम, इंडियम, जर्मेनियम की माँग बढ़ जाएगी, क्योंकि हाईटेक तकनीक के लिए इनकी जरूरत है । दूसरा कचरे की रीसायक्लिंग से पर्यावरण को भी नुकसान कम होगा ।
कंपनी के एक प्लांट मेंबायोडीजल भी बनाया जाता है । प्लास्टिक के कचरा भी यहाँरीसायकल किया जाता है । इसके अलावा एक और कारखाना है जहाँ पुरानी लकड़ियाँ जलाई जाती है । ये लकड़ियाँ इस तरह से जलाई जाती है कि कार्बन डाईऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों का उत्सर्जन नहीं होता ।
जानकारों का कहना है कि ताँबा तीस साल में खत्म हो जाएगा तो कच्चा तेल अगले ६०-७० साल में खत्म होने की आशंका है । कबाड़ और कचरे की रीसायक्लिंग विकास की दौड़ में तेजी से भाग रहे हैं, प्राकृतिक संसाधनों के जरिए उनकी और बाकी ुदुनिया की जरूरतें तो पूरी की नहीं जा सकती है, इसलिए इस तरह की रीसायक्लिंग का भविष्य उज्जवल है ।
***

७ जन स्वास्थ्य

स्टीविया : मिठास पर तीखी बहस
अंकुर पालीवाल

शून्य कैलोरी वाली प्राकृतिक मिठास स्टीविया को भारतीय बाजार से बाहर रखे जाने की साजिश बता रही है कि इस खुले औद्योगिक, भूमंडलीकरण वाले विश्व में हम सब कुछ कंपनियों के इशारे पर अपनी प्राथमिकताएं तय करने को अभिशप्त् हैं । आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय किसान को भी इस विमर्श में शामिल किया जाए और उपभोक्ता मंचों की भी इसमें सक्रिय भागीदारी हो । इसी के पश्चात् कोई निर्णय लिया जाए ।
वे लोग जो स्टीविया को शीतल पेयों एवं संसाधित खाद्य पदार्थोंा में एक यौगिक तत्व के रूप में शामिल करने की वकालत कर रहे हैं, का मुंह अधिकारियों के पक्षपातपूर्ण रवैये से कड़वा हो गया है । पेरूग्वे में जन्मा स्टीविया पौधा (जिसका वानस्पतिक नाम स्टीविया रिबाऊडायना है) सूरजमुखी परिवार का सदस्य है जिसमें स्टीविओसाइड नामक रसायन पाया जाता है जो कि शक्कर से ३०० गुना मीठा है ।
भारतीय स्टीविया संघ के प्रमुख सुभाष अग्रवाल का कहना है कि वे अचम्भित हैं कि सरकार स्टीविया को जो न केवलप्राकृतिक है बल्कि सुरक्षित भी है, अनुमति नहीं दे रही है वहीं दूसरी ओर उसने सुरक्षित सिद्ध करने के अपर्याप्त् आंकड़ों के बावजूद कृत्रिम मिठास को अनुमति दे रखी
है । व इस संबंध में २००४ से अब तक कई बार भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण से संपर्क भी कर चुके हैं। परंतु मई २००९ में प्राधिकरण ने स्टीविओसाइड को अनुमति न देने का खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण के अधिकारी सीधा सा कारण बता रहे हैं । इसके सहायक निदेशक धीर सिंह का कहना है कि खाद्य अपमिश्रण अधिनियम १९५४ में जड़ी बूटी वाली मिठास का कोई जिक्र नहीं है । और कृत्रिम मिठास वाले अवयवों का इसमें उल्लेख है । अधिकारियों ने हाल ही में शीतल पेयों में एसीसल्फेम पोटेशियम एवं सुक्रॉलोस को मिलाने की अनुमति दे दी है ।
भारत मधुमेह की राजधानी बन चुका है । अनुमान है कि भारत मेंं १० से २० प्रतिशत व्यक्ति मधुमेह से पीड़ित हैं और यदि मोटे और वजन के लिए जागरूक व्यक्तियों को भी इसमें जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा २५ प्रतिशत तक पहुंच जाता है । इन सबको कम कैलोरी वाली कृत्रिम मिठास की आवश्यकता है । खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण के अलावा अन्य विभागों की स्टीविया में निहित संभावनाआें में रूचि है । राष्ट्रीय औषधीय वनस्पति बोर्ड उन किसानों को २० प्रतिशत की सब्सिडी देता है जो इसकी खेती करते हैं । बोर्ड के मुख्य कार्यपालक अधिकारी बालाप्रसाद का कहना है कि स्टीविया की फसल वर्ष में ३ से ४ बार तक ली जा सकती है ।
किसान स्टीविया के पत्तोंसे प्रति किलोग्राम ७० से १२० रू. तक कमा सकते हैं और इसे २०० से २५०रू. प्रति किलो के हिसाब से निर्यात भी किया जा सकता है । बोर्ड की योजनाआें के अन्तर्गत देश के विभिन्न स्थानों पर करीब १८०० एकड़ में स्टीविया लगाया जाता है । वही बालाप्रसाद का कहना है कि बोर्ड ने इस मामले को प्राधिकरण के सम्मुख उठाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन भी किया है ।
स्टीविया की व्यावसायिक खेती करने वाली कंपनी सन फ्रुटस लि. के निदेशक शिवराज भोंसले का कहना है कि खाद्य, पेय, कृषि, औषधि, पशु आहार और त्वचा की रक्षा करने वाले ऐसे सारे उत्पाद जिन्हें सुक्रोज की आवश्यकता होती है कि मिठास वाले उत्पादों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । वर्तमान में वैश्विक वैकल्पिक शक्कर बाजार में स्टीविया की हिस्सेदारी महज एक प्रतिशत है । वहीं बाजार सर्वेक्षण समूह मिटेल का अनुमान है कि इसका बाजार जो २००८ में २१ मिलियन अमेरिकी डॉलर था वह २०११ तक बढ़कर २१०० मिलियन अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान है । श्री अग्रवाल का कहना है कि यदि सरकार मदद करे तो हमारे देश में भी मिठास (स्वीटनर) के बाजार में उछाल आ सकता है। तमिलनाडु स्थित ग्रामोटर बायोटेक लि. के निदेशक एन.भारती का कहना है कि जहां ०.४ हेक्टेयर में बोए गए गन्ने से ४ टन शक्कर प्राप्त् होती है वहीं स्टीविया के माध्यम से उतने ही बड़े खेत में ६० टन शक्कर के बराबर की मिठास प्राप्त् की जा सकती है ।
भारत में स्टीविया के सीमित बाजार के पीछे एक वजह है- देश में इसे तैयार करने की प्रक्रियागत सुविधाआें का अभाव । सरकार द्वारा हिमाचलप्रदेश के पालमपुर में संचालित संस्थान हिमालयन बायोसोर्स टेक्नोलॉजी दिल्ली के निकट देश की प्रथम पर्यावरण अनुकूल पेटेंट की गई निर्माण इकाई डाल रहा है । परन्तु इसकी क्षमता बहुत अधिक नहीं है और यह संयंत्र एक दिन में ३०० किलो पत्तियों का ही उपयोग कर पाएगा । संस्थान के जैव तकनीकी विभाग के प्रमुख अनिल सूद का कहना है कि आयातित स्टीविया में स्टोविओसाईड के सत की मात्रा बहुत कम
है । यह सामान्य तौर पर एक तरह के शक्कर अल्कोहल मेन्नीटॉल, स्टीविओसाइड और अन्य शक्कर अणुआें का मिश्रण है और मेन्नीटॉल इसमें यौगिक का कार्य करता है जो कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मानव स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है । उन्हें उम्मीद है कि सरकार इसे शक्कर के विकल्प के रूप में मान्यता दे
दे । लेकिन खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण टस से मस नहीं हो रहा है । वही स्टीविया उद्योग का विचार है कि कृत्रिम मिठास उत्पाद तैयार करने वालों की लॉबी भारत में स्टीविया की उम्मीदों से सेंध लगा रही है।
कृत्रिम मिठास तो विवादों के घेरे में ही है । इनमें से कई कैंसरजन्य तक माना गया है । कोलकता विश्वविद्यालय के एक
अध्ययन में पाया गया है इसके तत्व डी.एन.ए. को भी प्रभावित कर सकते हैं । इस खतरे के चलते चिकित्सक और आहार विशेषज्ञ कृत्रिम मिठास की अनुशंसा करते समय चौकस रहते हैं । विशेषज्ञों का मानना है कि प्रकृति ने जो कुछ हमें दिया है उसकी उद्योगों के बने किसी भी उत्पाद से भरपाई नहीं हो सकती । साथ ही यह दावा भी किया जा रहा है कि सेकरीन से स्मृति दोष तक हो सकता है । अतएव वनस्पति आधारित मिठास उत्पाद सुरक्षित हैं । कोची (केरल) स्थित जैव विज्ञान एवं जैव तकनीकी शोध एवं विकास संस्थान के निदेशक सी. मोहनकुमार का कहना है, शरीर के प्रतिकिलो वजन के हिसाब से २००० मि. ग्राम तक स्टीविओसाइड देने के बावजूद शरीर के सभी अंगों को पूर्णतया ठीक-ठाक पाया गया ।
कुछ समस्यामूलक अध्ययनों में पाया गया कि स्टीविओसाईड से कैंसर हो सकता है । और यौन इच्छाआें में कमी आती है, परंतु इन्हें नकार दिया गया । बेसलाइन हेल्थ फांउडेशन के जान बॅरोन का कहना है ये सभी समस्यामूलक अध्ययन चूहोंऔर गले की थैलियों वाले चूहों पर किये गये हैं और उन्हें यह बहुत अधिक मात्रा में दिया गया था ।
परन्तु सभी इस बात से संतुष्ट नहीं है कि स्टीविया सुरक्षित है । हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान के वैज्ञानिक सुदर्शन राव का कहना है यह आवश्यक नहीं है कि सभी प्राकृतिक वस्तुएं अच्छी ही हों । उनका कहना है कि पश्चिम मे विषैले तत्वों संबंधी परिक्षण के पश्चात इन्हें बहुत कम मात्रा में देने की अनुशंसा की गई है । दो कृत्रिम मिठास उत्पाद शुगर फ्री गोल्ड (अस्पारटेम) एवं शुगर फ्री नेचुरा (सुक्रालोस) बनाने वाली कंपनी जाइडस केेडिला के एक अधिकारी का कहना है, स्टीविया को खाने के बाद पत्ती जैसा स्वाद आता है और उत्पाद के विकास में स्वाद का बहुत महत्व है । इसे शक्कर के अधिकाधिक समीप आना होगा । उद्योग के प्रतिनिधियोंका कहना है कि स्टीविओसाइड का सत् निकालना बहुत फायदेमंद नहीं है क्योंकि पत्ति में सिर्फ १० से १५ प्रतिशत तक स्टीविओसाइड होता है और पत्तियों की हमेशा ही कमी बनी रहती है । स्टीविया के विरोध को देखते हुए भारत मे इस मिठास का आगमन अनिश्चित ही दिखता है । ***

८ विज्ञान जगत

पर्यावरण के विविध आयाम
डॉ. वींरेन्द्र सिंह यादव

पृथ्वी के अन्दर मानव द्वारा जब खनन का कार्य किया गया तब उसे नहीं मालूम था कि वह ऐसा कार्य कर रहा है जो उसके अपने लिए भी घातक सिद्ध हो सकता है अर्थात् यह मानव का पर्यावरण प्रदूषण के प्रति छेड़छाड़ का प्रथम प्रयास था, जिससे पर्यावरण को प्रदूषित करने की प्रक्रिया आरम्भ हुयी थी । तत्पश्चात मानव ने जानवरों से रक्षा एवं अपने भोजन को प्राप्त् करने के लिए पत्थरोंेे को तोड़कर हथियार बनाये तो यह भी प्रकृति से छेड़छाड़ का दूसरा प्रयास हुआ । इसके साथ ही मानव ने जैसे ही आग जलाने की कला सीखी तो वायु प्रदूषण प्रारम्भ हो गया ।
खाद्य आवश्यकताआें व आवास की तलाश में जब उसने वनस्पतियों का दोहन शुरू किया तो, प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ाने लगा । खाने की वस्तुआें की तलाश में मानव ने लकड़ी को जैसे ही जलाना शुरू किया तो वायुमंडल असुरक्षित हो गया और वनों के लगातार कटने से अब कुछ अव्यवस्थित सा हो गया । भौतिकता की दौड़ एवं तकनीकी तथा प्रौद्योगिकी के विकास ने विभिन्न तरह के प्रदूषणों को जन्म दिया । बड़े उद्योंगों के बढ़ने से उसने निकलने वाले धुंए से वायुमंडल प्रदूषित तो हुआ ही इसके साथ ही उससे निकलने वाले कचरे से मिट्टी तथा उत्सर्जित जल से जल संसाधनों पर खतरा मंडराने
लगा । इतना ही नहीं नित नूतन औद्योगिक इकाईयांे के शुरू होने सेउससे निकलने वाले इलैक्ट्रॉनिक कचरे से नाभिकीय प्रदूषण, समुद्री प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण व वायु प्रदूषण (जहरीली गैंसें, धुंए व उड़ी राख) तेजी से अपनी विनाश लीला फैला रहे हैं और अब ऐसा लगने लगा है कि अचानक बाढ़, सूखा, मृदा अपरदन, अम्ल वर्षा जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ने के साथ ही वर्तमान में मानवता भी सुरक्षित नहीं प्रतीत हो रही है ।
प्रदूषण को अंग्रेजी शब्द झश्रिर्श्रीींळिि कहा जाता है जो लेटिन भाषा के झश्रिर्श्रीशीश शब्द से बना है । प्रदूषण का शाब्दिक अर्थ हुआ प्रकृष्ट रूप से दूषित करने
की क्रियास । व्यापक अर्थोंा में इसकी चर्चा करें तो इसे विनाश अथवा विध्वंश अथवा नाश होने के अर्थ से जोड़ा गया हैं वहीं अंग्रेजी का पाल्यूशन शब्द पल्यूट क्रिया से बना है जिसका बेवस्टर (थशलीींशी) शब्दकोष में गंदा करना (ढि ारज्ञश िी ीशविशी र्ीलिश्रशरि) अपवित्र करना (ढि वशषळशि), दूषित करना (ऊशीशलीरींश), अशुद्ध करना (झीषिरशि) मिलता है । ई.पी. ओडम के अनुसार - हवा, जल और मृदा के भौतिक, रसायनिक, जैविक गुणांे के ऐसे अवांछनीय परिणामोंसे जिससे मनुष्य स्वयं को तथा सम्पूर्ण परिवेश प्राकृतिक, जैविक और सांस्कृतिक तत्वों को हानि पहुँचाता है, प्रदूषण कहते हैं ।
डिक्सन के अनुसार वे सभी सचेतन तथा अचेतन मानवीय तथा पालतू पशुआें की क्रियायें एवं उनके परिणाम जो मानव को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लघुकाल या दीर्घकाल में उनके पर्यावरण आनन्द तथा उससे पूर्ण लाभ प्राप्त् करने की योग्यता से वंचित करती है । प्रदूषण कहलाती हैं । राथम हैरी ने पर्यावरण प्रदूषण को इस तहर से परिभाषित किया है वह यह कि पर्यावरण, प्रदूषण जो मानवीय समस्याआें को प्रकृति के ताने-बाने तक पहुँचाता है, स्वमेव, सामान्य सामाजिक संकट का प्रमुख अंग है । यदि सभ्यता को लौटकर बर्बर सभ्यता तक नहीं लाना है तो उस पर विजय प्राप्त् करना अत्यावश्यक हैं । वहीं संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी की मानेें तो प्रदूषण की समस्या संसाधनों के स्थानांतरण की समस्या है । संसाधनों का अधिकांश भाग एक तंत्र में तथा अल्पांश दूसरे तंत्र में रहता है । यही समस्या की जड़ है किसी तंत्र मे विद्यमान अनुपयुक्त संसाधन उस तंत्र में एक अप्राकृतिक उत्तेजना एवं दबाव उत्पन्न करता है । ये उत्तेजना कुछ जैविक प्रक्रियाआें का अन्त कर देती हैं । तथा नवीन जैविक प्रक्रियाएं प्रारम्भ कर देती है । ये नवीन प्रक्रिया में परितंत्र की दक्षता में परिवर्तन कर देती हैं । वहीं संयुक्त राष्ट्रसंघ के पर्यावरण सम्मेलन में संसाधनों को हानि पहुँचाने वाले पदार्थोंा को प्रदूषण के अन्तर्गत माना गया है । प्रदूषण वायु, जल और स्थल की भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताआें का अवांछनीय परिवर्तन है जो मनुष्य और उसके लिए नुकसानदायक है । दूसरे जन्तुआें पौधों, औद्योगिक संस्थानों एवं कच्च्े माल आदि को किसी भी रूप में हानि पहुँचाता है । अवांछित तत्वों की मौजूदगी पर्यावरण प्रदूषण कहलाती है । उपर्युक्त परिभाषाआें से स्पष्ट होता है कि पर्यावरण की समस्या मानवीय प्रक्रियाआें के उपरांत ही जन्म लेती है क्योंकि मानव ने अपनी आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए पर्यावरण की ओर ध्यान न देते हुए इसका जरूरत से ज्यादा उपयोग किया, हानि पहुँचायी । वही व्यापक प्रदूषण सम्बन्धी समस्या को भारतीय
संदर्भ में एकलव्य चौहान की टिप्पणी की ओर ध्यान दें तो बात काफी कुछ स्पष्ट हो जाती है- निर्धनता और अल्प-विकास भारत की मुख्य प्रदूषण सम्बन्ध की समस्याएं हैं जो देश में बड़े पारिस्थैतिक असंतुलन तथा मानव पर्यावरण की निर्धन गुणवत्ता के मूल कारण हैं ।

पर्यावरण के घटक एवं उनके मुख्य प्रदूषक तत्व एवं स्त्रोत

क्र.सं. घटक प्रदूषक तत्व स्त्रोत
१. वायु कार्बन डाई-आक्साइड, सल्फर आक्साइड, कोयला, पेट्रोल,
नाइट्रोजन आक्साइड,हाइड्रोजन, अमोनिया, डीजल जलाना
लेड एल्डिहाइड्स, एस्बेस्टस तथा ठोस अवशिष्ट
बेरीलियम सीवर आदि
२. जल घुले तथा लटकते ठोस पदार्थ अमोनिया, सीवर नालियाँ
यूरिया, नाइट्रेट एवं नाइट्राइट, क्लोराइड, नगरीय प्रवाह,
फ्लोराइड उद्योगों के कार्बोनेटस, तेल जहरीले प्रवाह
ग्रीस, कीटनाशक टेनिन, कोली फार्म और खेतों तथा अणु
सल्फेटस, सल्फाइड, भारी धातुएं शीशा- संयंत्रों के प्रवाह
आरसेनिक, पारा मैंगनीज तथा रेडियोधर्मी
पदार्थ
३. मिट्टी मानव एवं पशु निष्कासित पदार्थ वायरस अनुचित मानव क्रियायें
एवं बैक्टीरीया, कूड़ा करकट उर्वरक, अशोधित औद्योगिक
कीटनाशक क्षार फ्लोराइड, रेडियोधर्मीपदार्थ व्यर्थ पदार्थ, उर्वरक एवं
कीटनाशक
४. ध्वनि शोर (सहन सीमा से उच्च् ध्वनि स्तर) हवाई जहाज स्वचालित
वाहन औद्योगिक क्रियायें, लाउडस्पीकर आदि

पर्यावरण पदूषण के प्रकार :
पर्यावरण में संतुलन बनाये रखने के लिए प्रकृति से कुछ तत्व हमें उपहार स्वरूप मिले हुए हैं । ये सभी तथ्व (घटक) एक निश्चित मात्रा में हमारे वातावरण में उपस्थित रहते हैं । इन पर्यावरणीय घटकों की मात्रा कभी-कभी या तो आवश्यकता से अधिक हो जाती है या कम अथवा हानिकारक तत्व पर्यावरण में प्रविष्ट होकर इसे प्रदूषित कर देते हैं जो जीवधारियों के जीवन के लिए घातक एवं हानिकारक सिद्ध होता है । यही रूप पर्यावरण प्रदूषण कहलाता है । इन्हीं तत्वों में जो तत्व पर्यावरण में प्रतिकूल परिवर्तन लाता है अर्थात् जहाँ मनुष्य निवास करता है उनके आस-पास के क्षेत्र को प्रदूषित करता है । सर फ्रेड्रिक वार्नर
के शब्दों में कहे तो कोई भी पदार्थ सामान्यता
प्रदूषक माना जाता है यदि वह प्रजातियों की वृद्धि दर में परिवर्तन द्वारा पर्यावरण में प्रतिकूल परिवर्तन कर देता है, भोज्य श्रृंखला को बाधा उपस्थिति करता है, जहरीला अथवा स्वास्थ्य, आराम सुविधाआें तथा लोगों की सम्पत्ति के मूल्यों में बाधा उपस्थित करता है । वार्नर साहब की व्याख्या से स्पष्ट है कि प्रदूषक तत्व शहरी अथवा ग्रामीण क्षेत्रों के द्वारा उत्सर्जित वे पदार्थ हैं जिसका संकेन्द्रण जल प्रवाह, अवशिष्ट दुर्घटना-जन्य प्रवाह, उद्योगों के उप-उत्पादों तथा अनेकानेक मानव क्रियाआें द्वारा होता
है । प्रत्यक्ष प्रदूषक तत्वों में प्रमुख चिमनी धुंआ, कूड़ा-करकट, अपशिष्ट जल आदि । अदृश्य तत्वों में भ्रष्टाचार एवं अपराध, शोर तथा बैक्टीरिया प्रमुख हैं ।

पर्यावरण प्रदूषण का वर्गीकरण

प्रकृति जन्य प्रदूषण मानव जन्य प्रदूषण

वायु प्रदूषण जल प्रदूषण मिट्टी प्रदूषण

कृषि प्रदूषण ध्वनि प्रदूषण औद्योगिक प्रदूषण सामाजिक प्रदूषण मानसिक प्रदूषण

स्पष्ट है कि पर्यावरण के प्रमुख प्रकार वायु, जल, भूमि मिट्टी के साथ-साथ मानवजनित सामाजिक प्रदूषण हैं । घरेलू लकड़ी, वाहनों से उत्सर्जित धुंआ, कूड़ा करकट, शक्ति उत्पादक इंर्धन से निकली आग से धुंआ वायुमंडल में जाता है । वह वायु प्रदूषण कहलाता है ं उद्योगों एवं अन्य लोगों से अनेक जहरीले पदार्थ जल में मिलकर उसे जहरीला बना देते हैं जिससे जल प्रदूषण हो जाता है । अत्यधिक कीटनाशकों एवं भारी मात्रा में उर्वरकों तथ अवशिष्ट पदार्थोंा को भूमि पर फेंकने से भूमि प्रदूषण होता है । छोटे-बड़े वाहनों के चलने, रेलों, हवाई जहाज, लाउडीस्पीकर तथा जेट विमानों से निकलने वाली आवाज से ध्वनि प्रदूषण होता है । मानव जनित प्रदूषण में जुंआ, शराब, नैतिक अध: पतन तथ चोरी आदि आते हैं ।
***

९ ज्ञान विज्ञान

बंकर में बना बीज बैंक

किसान अपनी फसल का एक हिस्सा अपनी फसल के लिए बीज के तौर पर अलग रख देते हैं । आज यह चिंता सताने लगी है कि अगर युद्ध, प्राकृतिक विपदा या जलवायु परिवर्तन के कारण बीज की कोई नस्ल खत्म हो जाए, तब क्या होगा । ऐसी स्थिति से निपटने के लिए उत्तरी धु्रव से लगभग १५०० किलोमीटर दूर स्प्जिबैंर्गेन नाम के आर्कटिक द्वीप पर बर्फ के नीचे जमीन की गहराई में एक बंकर बनाया गया है । यहाँ बीजों की पाँच लाख से अधिक नस्लों को भविष्य के लिए सरक्षित रखा गया ।
सन् २००८ में यहाँ बीज रखने का काम शुरू किया गया था । नार्वे की सरकार और ग्लोबल क्रॉप डाइवर्सिटी ट्रस्ट नामक संस्था की ओर से संयुक्त रूप से इसे चलाया जाता है । वहाँ दो दरवाजे लगाए गए हैं । पहले दरवाजे से घुसकर उसे बंद कर दिया जाता है, फिर लगभग सौ मीटर लंबी सुरंग के बाद दूसरा दरवाजा खोला जाता है । यहाँ जाने के लिए शरीर को गरम रखने वाला थर्मो सूट पहनना पड़ता है । क्योंकि, तापमान शून्य से काफी नीचे होता है । दिवारों पर बर्फ जमी रहती है । इस दूसरे या मुख्य दरवाजे के पीछे बीजों का भंडार है ।
बीजोें के के भंडार को एक विशाल डीप फ्रीजर कहा जा सकता है । यहाँ बाहर से कोई गर्मी नहीं आने दी जाती । इसके पहले कक्षा में आर्कटिक क्षेत्र की तलना में तापमान कुछ अधिक है, शून्य से ५-६ डिग्री नीचे । जब अंदर का मुख्य हॉल भर जाएगा, तब यहाँ भी बीज रखे जाएँगे ।
स्वीडन के कृषि विश्वविद्यालय में प्लांट जेनेटिक्स के प्रो. रोलांड फॉन बोथमर का कहना है कि यहाँ डेनमार्क और नई दिल्ली से लाए गए बीजों के नमूने भी हैं, जिन्हें वैक्यूम पैक किया गया है । उन्हें सुखाकर नमी की मात्रा ५ से ६ प्रतिशत से नीचे लाई गई है । मुख्य हॉल मे तापमान शून्य से १७ डीग्री नीचे है, जहाँ बीजों को स्थायी रूप से रखा जाता है । महत्वपूर्ण यह है कि डुप्लीकेट के रूप में इन्हें सुरक्षित रखा जाए, ताकि असली बीज नष्ट हो जाने पर उनके मालिकों को इन्हें लौटाया जा सके । सारी दुनिया में इस सिलसिले मे समस्याएँ हो सकती हैं । प्रो.बोथमर की राय में ऐसी विपदाआें के बिना भी बीजों की नस्लें खत्म हो सकती हैं । वे कहते हैं कि दस हजार साल से प्राकृतिक चयन की इंसानी प्रक्रिया जारी है । हर जगह बीजों की ऐसी नई नस्लें विकसित हो रही हैं, जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हो । जब किसान आधुनिक ढंग से खेती करना चाहते हैं, तो बीजों की पंरपरागत नस्लें अक्सर धीरे-धीरे खत्म हो जाती हैं । जलवायु परिवर्तन के कारण भी यह आवश्यक हो गया है, कि बीजों की नस्लों की बहुतायत बनाए रखी जाए ।

पूर्णिमा के दिन ज्यादा आते हैं भूकम्प भूकम्प वैज्ञानिकों का मानना है कि जैसे-जैसे चाँद पृथ्वी के नजदीक आएगा या फिर पूर्णिमा होगी, भूकम्प की घटनाएँ
बढ़ेंगी । भाभा परमाणु शोध केन्द्र (बीएआरसी) के वैज्ञानिकों ने यह खुलासा किया है ।
बीआरएसी का कहना है कि बड़े भूकम्प तब ज्यादा आए हैं, जब पूर्णिमा या प्रतिपदा पर चंद्रमा पृथ्वी के नजदीक हो ( यानी पेरीगी की स्थिति हो) जबकि जब चंद्रमा पृथ्वी से अधिकतम दूरी पर हो (अपोगी) तो ऐसी स्थिति नहीं होती । चंद्रमा पृथ्वी के नजदीक हो और पूर्णिमा हो तो रिक्टर पैमाने पर ६.० की तीव्रता वोल भूकम्प आते हैं । बीएआरसी वैज्ञानिक विनायकजी कोलवन्कर ने यह खुलासा किया है । वे वरिष्ठ भूकम्प विज्ञानी हैं । उनके शोध-पत्र न्यू कंसेप्ट इन ग्लोबल टेक्टानिक्स न्यूजलैटर और जर्नल ऑफ इंडियन जियोफिजिक्स यूनियन में प्रकाशित हुए हैं । यह भी बताया है कि पूरी दुनिया मंे अधिकांश भूकम्प स्थानीय समय के अनुसार रात के समय ही आए हैं । दिन में कम ही
आए । दोपहर ३ से ४ के बीच बहुत कम भूकम्प आए, लेकिन मध्यरात्रि मे अधिकांश आए
हैं । समय, मौसम, रेखांश और गहराई के लिहाज से भी इस तथ्य में कोई खास अंतर नहीं आता है । दिन के समय भूकम्प के न आने की वजह भूमध्य रेखा से इसकेे अक्षांश के हिसाब से होती है । कई वैज्ञानिकों ने भूकम्प के ३६ साल के आँकड़ों का अध्ययन करने के बाद यह नतीजा निकाला है । चाँद पृथ्वी के सबसे नजदीक है । यह पृथ्वी पर सबसे ज्यादा गुरूत्वाकर्षण बल पैदा करता है । चाँद पर होने वाले कम्पन के लिए भी पृथ्वी की स्थिति ही कारण होती है । विशेष रूप से तब जय चाँद पृथ्वी के बेहद करीब हो । फिर भी भूकम्प के आने मेंचाँद की भूमिका का पूरी तरह से खुलासा नहीं हुआ ।
पूर्णिमा से प्रतिपदा तक आते हुए भूकम्पों की संख्या घटती जाती है । एक पखवाड़े में यह स्थिति बदलती है व भूकम्पों की संख्या में ५ से ६ प्रतिशत इजाफा हुआ है । इसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर ६ तक आँकी है । भूकम्प अपोगी-पेरीगी-अपोगी के चक्र के संबंध रखते हैं । अपोगी से पेरीगी की स्थिति बनते हुए भूकम्पों की संख्या बढ़ती है । सन् १९७३ से लेकर १९८५ और १९९६ से लेकर २००८ तक यहीं देखने में आया है ।

वैज्ञानिकों ने बनाया मानव लीवर वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में मानव लीवर विकसित कर महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है । इसे मानव अंग प्रत्यारोपण की दिशा में एक बड़ा कदम बताया जा रहा है । शोध कार्य से जुड़े वैज्ञानिकों का दावा है कि प्रायोगिक रूप से विकसित इस लीवर का आकार अखरोट के बराबर है और इसे आगे चलकर प्रत्यारोपण के लिए लीवर तैयार किए जा सकते हैं । अमेरिका के नार्थ कै रोलिना स्थित वैक फॉरेस्ट इंस्टिटयूट फॉर रीजेनेरेटिव मेडिसिन मे वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने मानव काशिकाआें को पशुआें के लीवर के खोल में प्रत्यारोपित कर नन्हें मानव लीवर तैयार किए हैं । प्रयोग के दौरान वैज्ञानिकों ने अविकसित मानव लीवर कोश्किा को एक बायो लीवर सामान्य मानव अंग की तरह विकसित होकर काम करने लगा । कृत्रिम रूप से विकसित लीवर को दवाआें के परीक्षण या फिर मरीजों में प्रत्यारोपण के लिए उपयोग किया जा सकेगा । दल के सदस्य डॉ. पैड्रो बैपटिस्टा ने कहा कि हम उम्मीद करते हैंकि एक बार इस अंग को प्रत्यारोपित करने के बाद यह शरीर मेंही विकसित होकर काम करने लगेगा ।
इस शोध को बोस्टन स्थित अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ लीवर डिजीजेज की सालाना बैठक में प्रस्तुत किया गया । हॉलाकि इन लीवर को प्रयोगशाला से अस्पतालों तक पहुंचने में पांच साल से ज्यादा समय लग सकता है । परियोजना के निदेशक प्रोफेसर शॉय सोकेर ने कहा कि भविष्य मे ऑर्डर करने पर यह साथ लाखों लीवर तैयार कर सकते हैं, लेकिन उससे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि यह अंग मरीजों के लिए सुरक्षित साबित हो ।
गौरतरलब है कि इस साल के आरंभ में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने चूहे का लीवर विकसित करने मे सफलता पाई थी । इसे
प्रत्यारोपित करने के बाद चूहा कई घंटे तक जिंदा रहा । भविष्य में मरीज की स्टेम कोशिका से भी लीवर को विकसित किया जा सकेगा । इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि इस अंग को शरीर को प्रतिरक्षा तंत्र स्वीकार नहीं कर पाएगा, जो अबतक सबसे बड़ी समस्या थी । इसे हेपेटाइटिस सी से क्षतिग्रस्त लीवर प्रत्यारोपण आसानी से किया जा सकेगा ।
एक अनुमान के मुताबिक ब्रिटेन में हर साल १६ हजार से अधिक लोगों की मौत लीवर में खराबी के कारण हो जाती है । यह आंकड़ा डायबिटीज और सड़क दुर्घटना में मारे गए लोगों से अधिक है । वैज्ञानिकों का कहना है कि लीवर के कारण मरने वालोें की संख्या लगातार बढ़ रही है और वर्ष २००५ से इस संख्या में १२ प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई
है । लीवर ट्रांसप्लांट कराने वालों की प्रतीक्षा सूची काफी लंबी जाती जा रही है ।
***

१० कविता

हाय रे पानी
प्रेमसिंह

कैसे सोवें, सोने नहीं देता, टूटी छत से टपकता पानी
कैसे जले चुल्हा, दो दिन से नहीं आया नल में पानी

ठौर दूर है, तपती दुपहरिया, पास नहीं है पानी
यूँही प्यास से मरन जाउँ, हाय रे पानी हाय रे पानी

घूंघट मुख पे गिराय,घट मुख में गिराय
गाँव की गोरी नदी की ओर, चली है भरने अनमोल पानी
सोचे जाती जाती, इसी आने जाने में
चली न जाए यूँ ही , अनमोल जवानी
हाय रे पानी हाय रे पानी

पानी भरी है काया, या फिर पानी ही है काया
मैं ही तन हूँ, मैं ही मन हूँ , कैसे मुझे बिसराओगे
क्योंकि पानी ही तो जीवन है, तरे दुख दर्द और आप
दूर बहाय पानी, हाय रे हाय रे पानी

निश्चल शरीर के अन्तिम स्पन्दन तक
अधीर बनाता उसकी प्रतिक्षा का धैर्य
दीवाने पन की पराकाष्ठा है यह
या अक्षुण प्रेम की नादानी
लेकिन पपीहे को तो बस चाहिए
स्वाती नक्षत्र की बूँद का पानी
हाय रे पानी हाय रे पानी

११ भू-प्रबंध

पेड़ नहीं घास बचाएगी रेगिस्तानीकरण से
सुश्री रूही कंधारी

हड़बड़ी में किया गया कार्य कभी-कभी अच्छी भावना से किए गए कार्य को भी संदेह के घेरे में ले आता है । राजस्थान में रेगिस्तानीकरण को रोकने के लिए पेड़ों की बागड़ का विचार भी ऐसा ही एक कदम है । आवश्यकता इस बात की है कि पारंपरिक ज्ञान का सहारा लेकर और भूजल आधारित खेती को समाप्त् कर रेगिस्तानीकरण रोकने की नई रणनीति बनाई जाए ।
भारत का विशाल रेगिस्तान थार फैलता ही जा रहा है और प्रतिवर्ष करीब १२००० हेक्टेयर उपयोगी भूमि को या तो निगल रहा है या उसे खराब कर रहा है । इससे सचेत होकर राजस्थान सरकार ने राज्य प्रदूषण निवारण बोर्ड से पूछा है कि भूमि को खराब होने और भू क्षरण से कैसे रोका जा सकता है । बोर्ड द्वारा सुखी धरती पर जलवायु परितर्वन से संबंधित २०० शोध पत्रों के अध्ययन के पश्चात् यह सुझाव दिया गया कि राज्य में व्यापक स्तर पर पेड़ों की बागड़ लगाई जाए । परंतु कुछ वैज्ञानिकों को डर है कि यह कदम रेगिस्तान के संवेदनशील पर्यावरण को और अधिक बिगाड़ेगा ।
आई.आई.टी खडगपुर एवं भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलुर के वैज्ञानिकों की सहायता से तैयार की गई समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है कि ये बागड़ें धूल के तूफान के वेग में अवरोध पैदा करेंगी, भूमि का क्षरण कम करेगी तथा रेत के टीलों के जगह बदलने को सीमित करेगी । सिंग का कहना है कि पेड कार्बन सिंक (संग्रहण) का भी कार्य करेंगे ।
बोर्ड की अनुशंसाएं उन शोध पत्रों पर आधारित हैं जिनमें बीकानेर से लेकर रामगढ़ तक का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पौधारोपण के पश्चात् इस इलाके की जलवायु में सुधार आया है । सन् १९६० से वन विभाग ने यहां की सड़कों, रेल पटरियों और नहरों के किनारे ३६००० कि.मी. लम्बी बागड़ लगाई है । बोर्ड ने इस संदर्भ में चीन में गोबी रेगिस्तान को रोकने के लिएवन पट्टियों के रूप में बनाई गई चीन की हरी दीवार का भी अध्ययन किया है । इस परियोजना के अन्तर्गत सन् १९७८ से २००९ तक ५ करोड़ हेक्टेयर इलाके पर रोपण किया जा चुका है । समीक्षा सत्र में दावा किया गया है कि इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र मेंधूल के तूफान आना कम हो गए हैं ।
राजस्थान स्थित स्कूल आफ डेजर्ट साइंस के एस.एम.महनोत का कहना है कि महान हरी दीवार (ग्रेट ग्रीन वाल) की तरह बागड़ लगाने की परियोजनाएं उचित नहीं हैं क्योेंकि इस तरह की परियोजनाआें में एक ही तरह के पेड़ (मोनोकल्चर) लगाए जाते हैं । जिससे उस इलाके के वनों की जैव विविधता कम हो जाती है तथा स्थानीय पौधे और पशु भी प्रभावित होते हैं । उनका कहना है कि यदि स्थानीय पौधों की प्रजातियां भी लगाई जाती हैं तो भी सूखी भूमि का नाजुक पर्यावरण इतने विशाल पैमान पर पौधों की वृद्धि को सहन ही नहीं कर सकता ।
श्री महनोत का कहना है चरागाह और वर्षा आधारित खेती के स्थान पर भूमि का उपयोग बोर वेल आधारित अधिक सिंचाई वाली कृषि भूमि में करने से भी रेगिस्तानीकरण बढ़ा है । कृषि का विकास तो होना चाहिए लेकिन उन्हीं फसलों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिनमें पानी की खपत कम हो । श्री महनोत का मानना है कि रेगिस्तानीकरण को रोकने के लिए रेगिस्तान के पारंपरिक ज्ञान को महत्व दिया जाना चाहिए । इन संबंध में सुझाव देते हुए उन्होंने इंगित किया कि अधोसंरचना विकास और खनन राजस्थरान मेंं भूमि के हास के दो प्रमुख कारण हैं।
थार रेगिस्थान स्थित रेत के टीलों का पिछले ३० वर्षोंा से अध्ययन कर रहे आर.एस. मेढ़तिया भी इस बात से सहमत हैं । अपने सहयोगी प्रियब्राटा सांट्रा के साथ मिलकर उन्होंने राजस्थान स्थित केन्द्रीय सूखी भूमि क्षेत्र
शोध संस्थान (सेंट्रल आरिड जोन रिसर्च इंस्टिट्यूट) के माध्यम से राजस्थान के दो प्रमुख चरागाहों, जैसलमेर और चंदन का अध्ययन किया है । गर्मियों के चार महिनों में जैसलमेर मेंें अत्यधिक चराई से और चंदन जहां पर न्यूनतम चराई होती है के मुकाबले चार गुना अधिक भूमि का नुकसान हुआ । शोधकर्ताआें ने १३ मई के इलोलिअन रिसर्च के आनलाइन संस्करण में बताया है कि भारत के थार मरूस्थल का ८० प्रतिशत हिस्सा चरागाह है । नियंत्रित चराई के माध्यम से इन्हें सुरक्षित कर धूल के तूफानों से होने वाला भूमि हास और मिट्टी का क्षरण रोका जा सकता है । मेढ़तिया और सांट्रा ने यह सुझाव दिया है कि घास की पारंपरिक किस्म सीवान का क्षेत्र बढ़ाने से भूमि को क्षरण से रोका जा सकता है ओर इससे जानवरों को चारा भी उपलब्ध हो जाएगा ।
***

१२ भूजल विकास

आवश्यक है भूजल भण्डारों का पुनर्भरण
डॉ.राम प्रताप गुप्त

आज सिंचाई सुविधाएं कृषि के विकास की अनिवार्य शर्त बन गई हैं। चाहे सिंचाई के लिए हो या अन्य उपयोग के लिए हो, वर्षा पानी की आपूर्ति का अंतिम स्त्रोत होती है । मनुष्य वर्षा जल को या तो नदियों पर बांध बनाकर अथवा तालाबों में संग्रहित करता है, अथवा उसे रिसन के जरिए भूजल भण्डारों में पहुंचने देकर, उसका उद्वहन करके उपयोग करता है ।
पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता दिनों दिन कम होती जा रही है । ऐसे में पानी की आपूर्ति का वह तरीका श्रेष्ठ माना जाएगा जो पानी के उपयोग में मितव्ययता को संभव बनाए । मितव्ययता की दृष्टि से तालाबों और बांधों की तुलना में कुआें, नलकूपों के माध्यम से पानी का उपयोग ३०-४० प्रतिशत बेहतर होता है । बाधों और तालाबों के पानी को नहरों के माध्यम से खेतों तक पहुंचाने की प्रक्रिया में वाष्पीकरण और रिसन के कारण पानी पहुंचाने की प्रक्रिया में वाष्पीकरण और रिसन के जरिए पानी अधिक बरबाद नहींहोता है । फिर कुआें, नलकूपों के माध्यम से सिंचाई में किसान फसल की आवश्यकता के अनुरूप सिंचाई कर सकता है, जबकि नहरों से सिंचाई में पानी की आपूर्ति का समय सिंचाई अधिकारियों द्वारा तय किया जाता है ।
नहरों, तालाबों से सिंचाई की तुलना में कुआें, नलकुपों से सिंचाई कई दृष्टि से बेहतर होने के बावजूद आजादी के बाद सरकार केवल नदियों पर बांध बनाकर और उनमें नहरें निकालकर सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य करती रही हैं । सरकार की नीति जो भी रही हो, किसान नहरों की तुलना में कुआें, नलकूपों से सिंचाई की श्रेष्ठता से परिचित रहे हैं और उन्होंने आजादी के बाद, विशेषकर सन् १९७० के बाद से कुआें, नलकूपोंमें भारी निवेश करके सिंचित क्षेत्र में वृद्धि की है । आज स्थिति यह है कि कुल सिंचित क्षेत्र में वृद्धि की है । आज स्थिति यह है कि कुल सिंचित क्षेत्र का ६३ प्रतिशत भाग इनसे ही सिंचित होता है ।
मध्यप्रदेश में नहरों और तालाबों के कुल सिंचित कुल क्षेत्र की तुलना मेंकुआें, नलकूपों से सिंचित क्षेत्र दुगने से भी अधिक
हैं । यह किसानों के अपने प्रयासों का ही परिणाम हैं । भूजल विशेषज्ञों का कहना है कि किसी क्षेत्र में उपलब्ध भूजल भण्डारोंें के ७० प्रतिशत भाग का दोहन ही संपोषणीय होता है अर्थात इतनी मात्रा का वर्ष दर वर्ष दोहन किया जा सकता है क्योंकि वर्षा के जरिए उसका पुनर्भरण संभव होता है । इससे अधिक भाग के दोहन, अर्थात ७० से ९० प्रतिशत भाग के दोहन को सेमीक्रिटिकल ९० से १०० प्रतिशत भाग के दोहन को क्रिटिकल एवं १०० प्रतिशत से अधिक दोहन को अतिदोहन की व्यवस्था का प्रतीक माना जाता है ।
भूजल भण्डारों के दोहन की दृष्टि से प्रदेश में काफी विषमताएं पाई जाती हैं । प्रदेश के सिंचाई मंत्रालय के भूजल संभाग से सन् २००४ में प्रदेश में जिला स्तर तथा विकास खण्ड स्तर पर भूजल संसाधनों के दोहन के स्तर के आंकड़े प्रकाशित किए थे । इन आंकड़ों के अनुसार जहां शहडोल जिले में भूजल संसाधनों के दोहन का स्तर मात्र
७ प्रतिशत, डिंडोरी जिले ८ प्रतिशत और उमरिया जिले में ९ प्रतिशत ही है, वहीं भोपाल एवं बुरहानपुर में ७९ प्रतिशत, बैतूल में ८४ प्रतिशत, नीमच में ९२ प्रतिशत, धार में १०० प्रतिशत, इन्दौर में १०४ प्रतिशत, मंदसौर और उज्जैन में १०९ प्रतिशत, शाजापुर में ११४ प्रतिशत और रतलाम में ११७ प्रतिशत है । इस प्रकार प्रदेश का रतलाम जिला भूजल के सर्वाधिक अतिदोहन का शिकार है । जैसा कि ऊपर बताया गया, भूजल भण्डारों के ७० प्रतिशत भाग का ही दोहन सम्पोषणीय होता है । लेकिन उपरोक्त जिन १२ जिलों में भूजल के भण्डारों का दोहन ७० प्रतिशत से भी अधिक होता है, उनकी क्षतिपूर्ति वर्षा के दौरान नहीं हो पाती और उनमें भूजल स्तर वर्ष दर वर्ष नीचे जाता रहता है ।
प्रदेश में उपरोक्त १२ जिलों में, जहां भूजल भंडारों का दोहन ७० प्रतिशत या अधिक है, भूजल का स्तर वर्ष दर वर्ष नीचे जाता जा रहा है । ऐसे में किसान को भूजल के उद्वहन में अधिक विद्युत खर्च करनी पड़ती है, सेंट्रीफ्यूगल पंपों के स्थान पर अधिक मंहगे सबमर्सिबल पंप लगाने पड़ते हैं आवश्यकता से अधिक दोहन के कारण भूजल स्तर के नीचे जाने के कारण मिट्टी में आर्द्रता हो जाती है और उस स्थिति में उसमें वनस्पतियों का पनपना कठिन हो जाता है । खेतों में सिंचाई की आवश्यकता बढ़ जाती है जो भूजल भण्डारों के और दोहन का कारण बन सकती है । भूजल स्तर के नीचे जाने के कारण प्रकृति की वह व्यवस्था भी भंग हो जाती है जिसके अंतर्गत वर्षाकाल मेंनदियों में जलस्तर ऊंचा होने पर वे भूजल भण्डारों का पनुर्भरण करने में मदद करती हैं, और गर्मियों में जब नदियों मंे जब जलस्तर नीचे चला जाता है, तब वे भूजल से पानी प्राप्त् कर बारहमासी बनती हैं । परंतु जब भूजल स्तर बहुत नीचे चले जाता है तो गर्मियों में उससे नदियों में पानी आना बाधित हो जाता है और उनमें पानी का प्रवाह प्रतिकूल प्रभावित हो जाता है । ऊपर बताया गया था कि भोपाल, बुरहानपुर, खरगोन, राजगढ़, बैतुल, नीमच, धार, इंदौर, मंदसौर, उज्जैन, शाजपुर और रतलाम जिले मेंं भूजल भण्डारों के अतिदोहन के शिकार हैं । उनमें से बैतूल को छोड़ दिया जाए तो शेष सभी जिले पश्चिमी मध्यप्रदेश में स्थित हैं । इन जिलों में प्रदेश का मालवा क्षेत्र भी शामिल है जिसके बारे में कभी कहा जाता था कि मालवा धरती गहन गंभीर, पग पग रोटी, डग डग नीर । भूविशेषज्ञों का कथन है कि अगर मालवा में भूजल भण्डारों के अतिदोहन की प्रक्रिया इसी तरह जारी रही तो वह दिन दूर नहींजबकि मालवा मरूस्थल में परिवर्तित हो जाएगा ।
मध्यप्रदेश के इन १२ जिलों को भूजल के अतिदोहन के दुष्परिणामों से बचाना आवश्यक है । इस हेतु हमें दो स्तरों पर कार्य करना होगा । चूंकि भूजल भण्डारों के ९० प्रतिशत से अधिक दोहन कृषि में सिंचाई के उद्देश्य से होता है, अत: एक ओर से कृषि में सिंचाई हेतु पानी की आवश्यकता कम करना होगा, वहीं दूसरी ओर भूजल भण्डारों की क्षमता में वृद्धि के प्रयास भी करने होंगे । कृषि में सिंचाई हेतु पानी की मांग में कमी के उद्देश्य से सिंचित क्षेत्र में कमी लाने के प्रयास तो व्यावहारिक होने से सफल नहींहो सकते हैं । किसान सिंचाई के माध्यम से ही अपनी कृषि को फायदेमंद व अर्थक्षम बना सकते हैं । अत: वे सिंचित क्षेत्र में कमी के लिए किसी भी स्थिति में तैयार नहीं होंगे ।
सौभाग्यवश हमारे पास सिंचाई में पानी की खपत को कम करके भी कृषि की उत्पादकता को बनाए रखने की तकनीकें उपलब्ध हैं । सिंचाई की टपक एवं फव्वारा विधियों का उपयोग कर हम सिंचाई में पानी की खपत को ५० प्रतिशत कम कर सकते हैं । भारत के तमिलनाडु और महाराष्ट्र राज्य में इन विधियों का उपयोग बड़े पैमाने पर हुआ है, जिसके चलते उन क्षेत्रों में सिंचाई में प्रति हैक्टेयर प्रयुक्त पानी की मात्रा में तो कमी आई ही है, साथ ही फसलोंे की उत्पादकता भी बढ़ी है । सिंचाई की पद्धतियों के उपयोग हेतु प्रारंभ में काफी निवेश करना होता है जो किसानों के लिए संभव नहीं होता । सरकार को यह देखना होगा कि सिंचाई की टपक और फव्वारा विधियांे के लिए पर्याप्त् अनुदान की व्यवस्था तो हो ही, साथ ही इस क्षेत्र के किसानों को ये सरलता से उपलब्ध भी हो सकें । अगर बहुसंख्यक किसानों द्वारा सिंचाई की पद्धतियों का उपयोग किया जाने लगे तो न केवलभूजल भण्डारों के अतिदोहन की स्थिति से मुक्ति मिल सकेगी बल्कि सिंचित क्षेत्र मेंवृद्धि की संभावनाएं भी निर्मित हो सकेंगी ।
सिंचाई हेतु टपक और फव्वारा विधियों को प्रोत्साहन के साथ-साथ रिक्त हो रहे भूजल भण्डारों के पुनर्भरण की दिशा मेंकिसानों एवं सरकार दोनों को मिलकर प्रयास करने होंगे । किसान अपने स्तर पर भूजल भण्डारों के पनुर्भरण हेतु वर्षा के पानी के उपयोग हेतु कुआें में आवश्यक संरचनाआें का निर्माण कर व अपने खेतों में छोटे पोखरों का निर्माण कर सकते हैं । इस हेतु तकनीकी मार्गदर्शन की व्यवस्था करना होगी और इस प्रक्रियामें कुआेंमें जमने वाली गाद को निकालने हेतु मदद भी देना होगा । इन संरचनाआें के निर्माण हेतु पर्याप्त् अनुदान देकर सरकार किसानों को इस दिशा में प्रोत्सोहित कर सकती है । इस हेतु एक समयबद्ध कार्यक्रम अपनाना होगा ताकि इन १२ जिलोंं में हर किसान के द्वारा टपक अथवा फव्वारा विधियों का उपयोग होन
लेगे ।
किसानों द्वारा इस दिशा में उठाए कदमों के साथ-साथ सरकार भी रिसन तालाबों का निर्माण तथा चेक डैम, स्टॉप डैम, भूमि के नीचे सबसर्फेस डाइक्स आदि का निर्माण कर सकती है । इन संरचनाआें की देखरेख मरम्मत आदि के लिए स्थानीय जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना होगी । इनके निर्माण तथा देखरेख के लिए स्वैच्छिक संस्थाआें को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।
मध्यप्रदेश के इन १२ जिलों में भूजल भण्डारों के पुनर्भरण के प्रयासों का इस क्षेत्र में बने बांधों के अधिकारियों द्वारा यह कहकर विरोध किया जाता है कि इनसे बांधों में आने वाला वाले पानी की मात्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । इन क्षेत्र में बहने वाली नदियों में चंबल, माही और नर्मदा प्रमुख हैं । चंबल पर तो सन् १९६० में ही मध्यप्रदेश और राजस्थान की संयुक्त परियोजना चंबल घाटी विकास परियोजना के अंतर्गत गांधीसागर बांध का निर्माण हो चुका है । गांधीसागर जलाशय में चंबल परियोजना द्वारा दोहन किए गए पानी का ८३ प्रतिशत भाग संग्रहित होता है । चंबल नियंत्रण मण्डल की बैठकों में राजस्थान हमेशा आवाज़ उठाता रहा है कि मध्यप्रदेश चंबल के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के संग्रहण हेतु तालाब, स्टॉप डैम आदि का निर्माण कर रहा है और वह इसी आधार पर गांधीसागर में मध्यप्रदेश के हिस्से में कटौती की मांग करता रहा है । इसी तरह धार जिले में वर्षाजल को संग्रहित करने तथा भूजल भण्डारों के पुनर्भरण में उसका उपयोग करने पर माही बांध के अधिकारियों द्वारा उसमें पानी आवक के प्रतिकूल प्रभावित होने की बात उठाई जा सकती है । तर्क दिया जा सकता है कि गांधीसागर, माही बांध आदि के निर्माण पर भारी खर्च हो चुका है अत: इनमें पानी की आवक प्रतिकूल प्रभावित हो ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए ।
अर्थशास्त्र की भाषा में इसे संक कॉस्ट वर्क कहाजाता है । परंतु वास्तव में दिनों दिन गिरती पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता की पृष्ठभूमि में पानी के उपयोग से उस तरीके को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जो पानी में मितव्ययितापूर्ण उपयोग को संभव बनाता है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि
सतही स्त्रोतों से सिंचाई की तुलना में भूजल स्त्रोतों से सिंचाई में पानी का उपयोग मितव्ययिता पूर्ण होता है । इस क्षेत्र में भूजल भण्डारांे के पुनर्भरण के प्रयासों की वजह से बांधों में पानी की आवक के प्रतिकूल प्रभावित होने की बात तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं । फिर भूजल स्त्रोतों तक पहुंचने की प्रक्रिया में पानी मिट्टी से छनकर शुद्ध हो जाता है और गुणात्मकता की दृष्टि से सतही जल की तुलना में भूजल बेहतर साबित होता है ।
एक तर्क जो प्राय: भूजल से पानी के दोहन के प्रतिकूल जाता है, वह यह है कि भूजल के दोहन में ऊर्जा-बिजली, डीज़ल आदि - की आवश्यकता होती है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि प्रदेश में भूजल से सिंचित क्षेत्र का आकार नहरों और तालाबों से सिंचित क्षेत्र के दुगने से भी अधिक है और अगर हम भूजल भण्डारोंके पुनर्भरण द्वारा भूजल स्तर को ऊंचा उठाते हैं तो ऐसी स्थिति में उसके उद्वहन में प्रयुक्त विद्युत, डीज़ल की मात्रा तो पूर्व की तुलना में कम हो जाएगी जिसके अनुकूल पर्यावरणीय एवं आर्थिक प्रभाव होंगे । मध्यप्रदेश में बिजली की आपूर्ति मांग की तुलना में कम है । इस पृष्ठभूमि में वर्षा के पानी से भूजल स्त्रोतों का पुनर्भरण एक बेहतर उपाय सिद्ध होता है ।
***

पर्यावरण समाचार

पटाखों से स्वास्थ्य को खतरा

दीपावली खुशियाँ एवं रौशनी का त्यौहार है लेकिन इस दौरान छोड़े जाने वाले तेज आवाज के पटाखे पर्यावरण पर कहर बरपाने के अलावा जन स्वास्थ्य के लिए खतरे पैदा कर सकते हैं। पटाखों एवं आतिशबाजी के कारण दिल के दौरे, रक्तचाप, दमा एलर्जी, बोकाइटिस और निमोनिया जैसी स्वास्थ्य समस्याआें का खतरा बढ़ जाता है । इसलिए दमा एवं दिल के मरीजों को खास तौर पर सावधानियां बरतनी चाहिए ।
पिछले कई सालों से यह देखा जा रहा है कि दीपावली के बाद अस्पताल आने वाले हृदय रोगों, दमा, नाक की एलर्जी, ब्रोकाइटिस और निमानिया जैसी बीमारियों से ग्रस्त रोगियों की संख्या अमूमन दोगुनी हो जाती है । साथ ही जलने, आंख को गंभीर क्षति पहुंचने और कान का पर्दा फटने जैसी घटनाएं भी बहुत होती है ।
दीपावली के दौरान पटाखों के कारण वातावरण में आवाज का स्तर १५ डेसीबल बढ़ जाता है जिसके कारण श्रवण क्षमता प्रभावित होने, कान के पर्दे फटने, दिल के दौरे पड़ने, सिर दर्द, अनिद्रा और उच्च् रक्तचाप जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती है । तेज आवाज करने वाले पटाखों को चलाने का सबसे अधिक असर बच्चें गर्भवती महिलाआें और दिल तथा सांस के मरीजों पर पड़ता है ।
दीपावली के दौरान छोड़े जाने वाले पटाखों के कारण वातावरण में हानिकारक गैसों तथा हवा में तैरते कणों का स्तर बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण फेफड़े, गले तथा नाक संबंधी गंभीर समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं । दीपावली से पहले अधिकतर घरों में रंग-रोगन कराया जाता है, घरों की सफाई की जाती है । लेकिन पेंट की गंध, घरों की मरम्मत और सफाई से निकलने वाली धूल दमा के रोगियों के लिए घातक साबित होते हैं । इसलिए दीपावली के दिन और उसके बाद के कुछ दिनों में भी दमा के रोगियों को धूल और पटाखों से दूर रहना
चाहिए ।
अध्ययनों से पता चला है कि दमा का संबंध हृदय रोगों एवं दिल के दौरे से भी है इसलिए दमा बढ़ने पर हृदय रोगों का खतरा बढ़ सकता है ।
***