मंगलवार, 18 मार्च 2014


सोमवार, 17 मार्च 2014

प्रसंगवश
दुनिया का सर्वाधिक प्रदूषित शहर है दिल्ली
    भारत में प्रदूषण निरन्तर बढ़ता जा रहा है । चिंता की बात यह है कि वैश्विक पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक २०१४ में हमारा देश ३२ पायदान और नीचे खिसक कर १५५ वें स्थान पर पहुंच गया है और देश की राजधानी दिल्ली का नाम दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल हो गया है ।
    पिछले दिनों अमेरिका के येले यूनिवर्सिटी के द्वारा पर्यावरण के नौ पैमानों के आधार पर १७८ देशों का तुलनात्मक अध्ययन जारी किया है । यह अध्ययन प्रदर्शित करता है कि दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा हमारा पर्यावरण के मोर्चेपर फिसड्डी है । सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि भारत में प्रदूषण का स्तर यहां के नागरिकों के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डाल रहा है । दूषित पर्यावरण के कारक मानव स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान से सुरक्षा के मामले में भारत का प्रदर्शन बहुत खराब है । वन, मात्सियिकी एवं जल संसाधनों को छोड़कर वर्ष २०१४ के लिए निर्धारित सभी नीतिगण मुद्दों में भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा । भारत में प्रदूषण का स्तर यहां के नागरिकों के जीवन पर घातक प्रभाव डाल रहा है ।
    अध्ययन में यह बताया गया है कि भारत का वायु प्रदूषण दुनिया में सबसे खराब स्थिति में है । यदि चीन की जनसंख्या के साथ तुलना की जाए तो यहां वायु प्रदूषण का औसत स्तर बहुत ज्यादा है । नासा के उपग्रह के द्वारा एकत्रित आंकड़ों का गहराई से अवलोकन करने पर यह पता चलता है कि दिल्ली में हवा में प्रदूषित कणों का स्तर २.५ है, इसके बाद बीजिंग का स्थान आता है । दिल्ली में ८१ लाख पंजीकृत वाहन है, जोकि हवा में प्रदूषक तत्व छोड़ते रहते है । दिल्ली को अपनी चपेट में लेने वाले घने कोहरे का प्रमुख कारण यहां के वाहनों एवं उद्योगों द्वारा उत्सर्जित किया जाने वाला प्रदूषण है । इस मामले में बीजिंग का कोहरा भी काफी चर्चा में रहता है जिसके कारण यहां की सरकार को इस ओर ध्यान देने के लिए बाध्य होना पड़ता है लेकिन दिल्ली में इसके खतरे को नजरअंदाज किया जाता है । हार्वर्ड इंटरनेशनल रिव्यु के अध्ययन के अनुसार दिल्ली के हर पांच में से दो व्यक्ति को श्वसन संबंधी बीमारियों से जूझना पड़ रहा है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी गतवर्ष वायु प्रदूषण को कैंसर फैलने का एक प्रमुख कारण बताया था । हवा मेंउपस्थित २.५ माइक्रॉन्स से छोटे कण सांस के साथ शरीर मेंपहुंच कर फेफड़े व ब्लड टिश्यू को नुकसान पहुंचाता है जिसके कारण ह्दयाघात से लेकर फेफडे के कैंसर जैसी बीमारियां हो   जाती है ।
सम्पादकीय
प्रकृति को भी चाहिये जीवन का अधिकार

    हमारा अस्तित्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से है । भारतीय चिंतन मेंजीवन के ये पांच महाभूत है । सभी प्राणी इन्हीं पर निर्भर है । संविधान ने हमें अनेक मौलिक अधिकार है, लेकिन प्रकृति को जीवन का भी मौलिक अधिकार नहीं है । नदिया जल प्रवाह हैं, यह नदियों का स्वभाव है, पर विकास के नाम पर उनका जल प्रवाह बाधिक है । वायु प्राण है । वायु में तरह-तरह के प्रदूषण है । ओजोन परत भी असुरक्षित है । प्रकृति में कई जीव है । पर्यावरण बनाए रखने में सबकी भूमिका है । पर्यावरण चक्र पर मनुष्य के अलावा दूसरा कोई जीव हमला नहीं करता है, मगर कीट पतिंगों सहित सभी जीवों के अस्तित्व पर संकट हैं ।         मनुष्य अपनी संस्कृति पर गर्व करता है मगर आधुनिकता में अपने मौलिक अधिकार के अलावा दूसरे के अस्तित्व का स्वीकार भी नहीं है । कोई मनुष्य अकेले रहकर ही सभ्य नहीं होता । विचार करे तो अधिकारवाद में केवलअपनी ही चिंता है और कर्तव्यबोध में अन्य सभी की ।
    भारतीय जीवन दर्शन में कर्तव्य पर जोर रहा है । नदी, वन, समुद्र, पर्वत, पशु, जगत व कीटपतिंगों के प्रति भी हमारे कुछ कर्तव्य है । यह और बात है कि पशुआेंसहित कई प्राणी वनस्पतियां हमारे लिए उपयोगी भी हैं । वे उपयोगी न हों, तो भी उन्हें जीवन के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता । पेड़-पौधों की संवेदनशीलता से वे मनुष्य को दूर से ही पहचान लेते है । गाय,बैल, भैंस, बकरियां भी संवेदनशील हैं, पर उन्हें काटा जाता है । पशु जगत के पास जीवन का अधिकार नहीं है । प्राणी को जीवन से वंचित करना कहां का न्याय है ?
    जीवन का अधिकार प्राकृतिक है । प्रकृति की उमंग का विस्तार जीवन है । एक निश्चित समय पर प्रकृति ही जीवन को वापस लेती है । हर पौधा, पशु, पक्षी या कोई भी जीवन और नदी, सबके सब प्रकृति की सृजन शक्ति का ही विस्तार है । विचार अभिव्यक्ति का अधिकार खूबसूरत है । हम सब इसका सदुपयोग दुरूपयोग की हद तक करते हैं। सृष्टि के हरेक जीव, वनस्पति और रूप आकार के मौलिक अधिकार का संरक्षण होना चाहिए क्योंकि प्रकृति को भी जीवन का अधिकार है ।    
सामयिक
नदी कटान से बेघर होते समुदाय
भारत डोगरा

    विकास की आधुनिक अवधारणा का  प्रभाव अब नदियों के प्रवाह पर भी पड़ने लगा है । इसके फलस्वरूप उत्तरप्रदेश केकई विकासखंडों में बड़े पैमाने पर हो रहे कटाव से नदी किनारे बसे समुदायों के  खेत खलिहानों के  साथ ही साथ उनके घर भी नष्ट हो रह हैं ।  आवश्यकता इस बात की है कि इस गंभीर समस्या से तुरंत निपटा जाए ।
    हाल के वर्षों  में नदियों  में  प्रदूषण और खनन जैसी समस्याएं बहुत तेजी से बढ़ी हैं  । अनेक नदियां का बहाव बहुत कम हुआ है व कुछ नदियां तो लुप्तप्राय हो गई हैं । इन गंभीर समस्याओं का असरदार समाधान चाहे न हुआ हो पर कम से  कम यह समस्याएं निरंतर चर्चा में बनी रही हैं ।  उम्मीद है कि इससे समाधान की दिशा में कुछ प्रगति जरूर होगी ।
    पर इस विमर्श की एक बड़ी कमी यह रही है कि इसमें नदियों के  आसपास रहने वाले लोगों की   समस्याआें  पर समुचित ध्यान नहीं  दिया गया है । नदियों  के आसपास रहने वाले किसानों, मछुआरों, मल्लाहों आदि की समस्याएं दिनोंदिन बढ़ रही हैं ।  जहां बड़े व मध्यम बांधों द्वारा नदियों का  पानी बड़े पैमाने पर मोड़ा गया है वहीं नीचे किसानों, मछुआरों, नाविकों सभी की आजीविका उजड़ रही है । जिन स्थानों पर नदियां में खनन कार्य बड़े पैमाने पर हुआ है, वहां रहने वाले गांववासियों के  खेतों, चरागाहों, जल-स्त्रोतों आदि पर प्रतिकूल असर पड़ा है ।
     इनसे भी कहीं अधिक समस्याएं अनेक नदियों के कटान से पीड़ित लोगों की हैं ।  इस वजह से इनकी महज आजीविका ही नष्ट नहीं हो रही है अपितु उनके आवास भी उजड़ रहे हैं, और उनका जीवन खतरे में पड़ गया    है । इसका एक ज्वलंत उदाहरण उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले में देखा जा सकता है । यहां गंगा नदी के कटान से उजड़े हुए गांववासी बड़ी संख्या में सर्द रातों में खुले में रहने को मजबूर हैं । एक ओर पूर्व में हुए कटान से विस्थापित हुए परिवार अभी अपना आशियाना नहीं बना सके थे, वहीं इस वर्ष नए सिरे से बहुत से परिवार कटान से विस्थापित हो गए हैं ।
    अनेक परिवारों को बंधों के ऊपर व सड़कों पर बंजारों जैसा जीवन बिताना पड़ रहा है । राहत शिविर में अनेक लोग बीमार पड़ रहे हैं । राहत शिविर के बाहर सड़कों या बंधों पर रह रहे लोग राहत सामग्री से वंचित हैं वहीं दूसरी ओर शिविरों में भी सहायता उचित मानकों के आधार पर न मिलने से लोग परेशान हैं । बार-बार दिए गए आश्वासनों को पूरा नहीं किया गया है ।
    बहराईच जिला भी नदी कटान से बुरी तरह प्रभावित है । नदी के कटान से अनेक परिवार बेघर हो चुके हैंव तटबंधों पर शरण लिए हुए हैं । खेती की जमीन उजड़ गई हैं, इस पर घर भी नहीं बचा, तो जीवन कैसे बिताएं ? बच्च्े कहते हैं कि हमें यहां नहीं रहना, घर जाना है तो मां की आंखों में आंसू आ जाते हैं । वजह स्पष्ट है कि जब घर बचा ही नहीं तो किस घर में जाएं । 
    फखरपुर ब्लाक के सिलौटा गांव के लोगों ने बताया कि उनका गांव कटान से बहुत बुरी तरह तबाह हुआ है । यहां पर लोगों के घर व कृषि भूमि कटान से नष्ट हो गई है । घाघरा नदी ने हाल में कुछ मार्ग बदल कर उनकी पहले वाली भूमि को छोड़ा है । यहांं के लोगों को  उम्मीद है कि वे इस पर पुन: खेती कर सकेंगें । अत: वे चाहते हैं कि इसकी पैमायश (नप्ती) कर दी जाए । वैसे भी वे अपनी जमीन के नजदीक बने रहना चाहते हैं । 
    फखरपुर ब्लाक की ही अटोडर पंचायत के लोगों की कृषि भूमि व आवास बाढ़ व कटाव में बुरी तरह नष्ट हो गए । लोगों ने बहुत अभाव की स्थिति में तटबंध पर शरण ली । अपने दुख-दर्द, भूख, अभाव की स्थिति बताते हुए महिलाओं की आंखों में आंसू आ गए । प्रश्न उठता है कि अब प्रशासन यदि उनसे तटबंध से भी हटने को कहता है तो वे कहां जाएंगे ।
    मुन्सारी गांव (ब्लाक महसी) पूरी तरह कटान की चपेट में आ गया   है । इस तरह यह खुशहाल गांव तबाह हो गया व यहांं के लोग अब महसी ब्लाक के कोढ़वा गांव में बसे हुए हैं । यहां के  अधिकांश परिवार कटान के  कारण तीन बार विस्थापित हो चुके हैं । अब वर्तमान रहवास कोढ़वा में भी कटान होने लगा है । लोग भीषण अभाव की स्थिति में रह रहे हैं और उन पर कर्जा भी हो गया है । अत: इन लोगों ने एक प्रस्ताव यह रखा है कि उन्हें गैर आबाद हो चुके उनके  पुराने मुन्सारी गांव में पुन: बसा दिया जाए । कटान से बुरी तरह प्रभावित मुरौवा गांव (ब्लाक महसी) के दो तिहाई परिवार अपनी मूल बस्ती को छोड़ चुके हैं । इनमें से अनेक परिवार अब करहना पंचायत व कुछ परिवार फलेपुरवा पंचायत में रह रहे हैं । यह सब गांव महसी ब्लाक में आते हैं ।
    नदी-कटान से प्रभावित लोगों के बारे में एक ऐसी समग्र नीति बननी चाहिए जिससे तय हो सके कि उनकी राहत व पुनर्वास का कार्य किस आधार पर किया जाएगा । इतना ही नहीं जब तक प्रशासन द्वारा उनका ठीक से पुनर्वास नहीं होता है, तब तक उन्हें प्रतिकूल मौसम व भूख से बचाने के  समुचित प्रयास किए जाने चाहिए । प्रभावित लोगों से विमर्श नदी कटान की बढ़ती समस्या के संबंध में समझ बनानी चाहिए तथा इसी समझ के आधार पर रोकथाम के उपायों में सुधार लाना चाहिए । इसके साथ पहले से नदी कटान से प्रभावित लोगों को राहत पहुंचाने का कार्य उचित मानकों के आधार पर करना चाहिए ।
    नदी-कटान की समस्या के  अतिरिक्त नदियों के आसपास रहने वाले अन्य लोगों की समस्याओं जैसे खनन व प्रदूषण के असर, मछलियों की संख्या में तेजी से कमी आई एवं पानी को ऊपरी क्षेत्र में अत्यधिक मात्रा में मोड़ देने से आई समस्याओं पर भी समुचित ध्यान देने की जरूरत है ।
हमारा भूमण्डल
विकृतता और मौतों में समानता
एंड्रयू वास्ले

    पशुआेंको जीएम चारा खिलाने से उनमें विकृतता और असामान्यता बढ़ती जा रही है । इसी के साथ उनकी मृत्युदर भी बढ़ रही है । लेकिन हमारे वैज्ञानिकोंका एक वर्ग इसे एक नई सामान्यता की निगाह से देखता है । जीएम चारे पर निर्भर पशुओं के  माध्यम से निर्मित मानव भोजन पदार्थ भी स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक हैं । लेकिन इन महाकाय बीज कंपनियों के आगे तो जैसे सारी मानवता ही लाचार है । 
    पहली निगाह में लगेगा कि ये पारंपरिक रूप से कटा-छटा मांस है, लेकिन हॉलैंड के सुअर फार्म किसान इब पेडेरसन जब फ्रीजर से उसे निकालते हैं तो जाहिर होता है कि यह तो पूरे के  पूरे साबुत सुअर हैं । इनमें से कुछ बुरी तरह से विकृत हैंया उनमें कई तरह की असामान्यताएं दिखाई पड़ती हैं । पेडरसन का दावा है कि यह जानवरों के भोजन में दिए गए जीनांतरित (जीएम) खाघान्नों का परिणाम है । अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि यह सब कुछ जीएम सोया और विवादास्पद खरपतवारनाशक ग्लायफॉसेट के छिड़काव का परिणाम है । वह प्रतिवर्ष १३००० सुअर का उत्पादन कर उन्हें यूरोप में बेचते हैं लेकिन जानवरों में विकृतता, बीमारी, मृत्यु और निम्न उत्पादकता के बढ़ते स्तर को लेकर वह चिंतित हैं । अतएव उन्होंने पशुओं के  भोजन को जीएम से गैर जीएम किए जाने का प्रयोग आरंभ कर दिया है ।
     उनका कहना है कि इसके जबर्दस्त परिणाम सामने आए हैं । वे कहते हैं, `जब मैं जीएम चारा इस्तेमाल करता था तो मुझे पशुओं में सूजन, पेट में छाले, दस्त की अत्यधिक दर और बढ़ी मात्रा में विकृतता लिए सुअरों  के  जन्म के लक्षण दिखाई देते थे । लेकिन जब  से मैंने गैर जीएम चारा इस्तेमाल करना आरंभ किया तो कुछ ही दिनों  में मुझे इन समस्याओं से निजात मिल गई ।
    इतना ही नहीं इसमें जानवरांे के  स्वास्थ्य में सुधार होने के साथ ही मेरे लाभ में भी वृद्धि हुई । इसकी वजह थी दवाइयों का कम इस्तेमाल और अधिक उत्पादकता । इतना ही नहीं गर्भपात के  मामलों में कमी आई, एक बार में अधिक बच्चें का जन्म हुआ तथा पैदा हुए जानवरों की उम्र लंबी हुई । इससे मानव श्रम घंटों में भी कमी आई, क्योंकि कम सफाई करना पड़ती थी और बीमारियों में भी कमी आई ।
    पेडरेसन का विश्वास है कि विकृतता और अन्य समस्याओं का  आंशिक कारण जीनांतरित (जीएम) सुअर चारे में खरपतवारनाशक ग्लायफोसेट की उपस्थिति ही है। गौरतलब है कि पारंपरिक फसलों की अपेक्षा जीएम फसलों में इनका अत्यधिक प्रयोग होता है । इस तरह के  खरपतवारनाशकों को यूरोपीय संघ ने सन् १९९६ में स्वीकृति दी थी । लेकिन आयातित चारे में इनकी मात्रा तयशुदा से २०० गुना तक अधिक रहती है । इस प्रकार से यह जानवरों एवं मनुष्यों दोनों के लिए घातक हो जाती है । वे यह भी मानते हैं कि उनका कार्य किसी  वैज्ञानिक आधार पर आधारित नहीं बल्कि प्रायोगिक है, लेकिन लोगों को अब सचेत हो जाना चाहिए । क्योंकि अधिकांश लोगों को इस प्रकार की कोई जानकारी ही नहीं है ।
    पेडरसन के इस प्रयोग से हॉलैंड के कृषि जगत में हंगामा खड़ा हो गया । इससे यह बात उभरकर आई कि पूर्ववर्ती प्रतिबंधित (कृषि में) कीटनाशक डीडीटी के छिड़काव की बनिस्बत वर्तमान में होने  वाली मौतें व विकृतता कहीं अधिक हैं ।  आलोचकों ने उनके इस प्रयास को अवैधानिक बताते हुए कहा है कि यदि यह सच होता तो अन्य हजारों किसान/पशुपालक चुप क्यों बैठे  रहते ? लेकिन इसके बावजूद हॉलैड सुअर शोध केन्द्र ने तत्परता से जांच प्रारंभ कर दी है । हालांकि इसके परिणामों का प्रकाशन अभी नहीं हुआ है ।
    जीएम के खिलाफ अभियान चलाने वाले इस खोज के बारे में दावा कर रहे हैंकि तथ्यों की स्थापना बजाए प्रयोगशाला के वास्तविक खेत/फार्म पर हुई है । वैसे इस दावे का समर्थन वहां के पशु विशेषज्ञोंने भी किया है । लीइप्झ विश्वविद्यालय का कहना है कि इस बात के प्रमाण मिलेहैं कि जीएम खाद्यान्नों मनुष्य एवं पशुओं दोनों के लिए ही खतरनाक हैं । शोध बताता है कि इस तरह का खाद्यान्न डेरी के  पशुओं को जहर परोसता है और इससे पशुओं में सड़ी सब्जियों से प्राप्त होने वाले विष से सड़ा हुआ मांस जैसा आभास मिलता है । अतएव इससे `निजात` पाना आवश्यक है। इससे पहले जीएम खाद्यान्न से चूहों की मौत का मामला भी सामने आ चुका है । इस बीच जीएम खाद्यान्न को लेकर हुए अनेक विश्वसनीय अध्ययनों को जीएम बीज उत्पादक कंपनियां नकार चुकी हैं ।    
    यूरोप में प्रतिवर्ष सुअरों, मुर्गियों, गायों, डेरी पशुओं और इसी के  साथ मछलियों (खेती की गई) के  भोजन हेतु तीन लाख करोड़ टन जीएम पशु चारे का आयात किया जाता है । ब्रिटेन अनुमानत: प्रतिवर्ष १,४०,००० टन जीएम सोया और ३,००,००० टन तक जीएम मक्का का आयात पशु चारा हेतु है । अभियानकर्ताओं का कहना है कि इसका अर्थ हुआ बाजार में बिकने वाले मांस एवं  डेरी उत्पादों में से अधिकांश जीएम चारा खाने वाले पशुओं के माध्यम से ही उत्पादित होता है । प्रयोग में लाई गई अधिकांश सोया एवं मक्का दक्षिण अमेरिकी देशों ब्राजील अर्जेंटीना और पेराग्वे में उत्पादित होती है ।
    वहीं ब्रिटेन में मानव भोज्य पदार्थ में मौजूद जी.एम. पदार्थ को चिन्हित किया जाना आवश्यक  है। जबकि जीएम चारा खाए पशुओं से प्राप्त मानव भोजन जैसे मांस, मछली दूध, एवं डेयरी उत्पाद को चिन्हित करने की आवश्यकता नहीं है । इसी गफलत का फायदा उठाकर उपभोक्ताआें को परोक्ष रूप से जीएम खाद्यान्न खिलाया जा रहा है । दि सॉइल एसोसिएशन का कहना है कि इस प्रकार के आयातित खाद्यान्नों के बारे में ६७ प्रतिशत उपभोक्ताआें का मत है कि जीएम चारे से निर्मित पदार्थों को चिन्हित करना आवश्यक है ।
    वहीं फ्रांस के विशाल खुदरा श्रृंखला केरीफोर ने सन् २०१० में खाद्य पदार्थोंा को चिन्हित करने की योजना प्रारंभ की जिसके अंतर्गत ग्राहकों को जानकारी दी गई थी कि भोज्य पदार्थ उत्पादित करने में प्रयोग में आए पशुओं को जीएम चारे से पोषित नहीं किया गया है । इस तरह के ३०० उत्पाद अब इस सुपर बाजार में उपलब्ध हैं । साथ ही यह भी पाया गया है कि ६० प्रतिशत ग्राहक यह पाए जाने पर कि पशुओं को जीएम चारा खिलाया गया है, ऐसे उत्पादों को खरीदना बंद कर देते हैं । इसी तरह की योजनाएं अन्य बड़ी यूरोपीय खुदरा श्रृंखलाओं ने भी अपना ली है ।
    टेस्को, सेंसबरी, दि को. ऑप. एवं मार्क एवं स्पेंसर द्वारा यह घोषणा किए जाने से कि वे इस बात की ग्यारंटी नहीं दे सकते कि उनके द्वारा बेचे जाने वाले उत्पाद जीएम मुक्त हैं, ब्रिटेन में तनाव बढ़ गया है । इन खुदरा व्यापारियों का कहना है कि इससे उनके आपूर्तिकर्ताओं के सामने संकट खड़ा हो जाएगा । वैसे भी जीएम मुक्त उत्पाद अब दिवास्वप्न  की तरह हैं ।
    ब्रिटेन के खाद्य व्यापारियों ने पर्यावरण पत्रिका दि इकोलाजिस्ट से कहा कि जीएम को अब सफलतापूर्व किसानों पर थोप दिया गया है और अब किसानों के  पास कोई विकल्प नहीं बचा है । इतना ही नहीं यदि आयातक को जीएम चारे से दिक्कत नहीं है तो हमें परेशान होने की क्या आवश्यकता है। वैसे भी जीएम चारा काफी सस्ता पड़ता है । उधर दूसरी ओर सहकारिता समूहों का कहना है कि हम सन् २००३ से       इस बात के लिए प्रयासरत हैं किगैर जीएम उत्पादों की उपलब्धता में वृद्धि की  जाए । लेकिन यह दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है । इसकी वजह है कि गैर जीएम खाद्य पदार्थों का उत्पादन दिनों दिन घटता जा रहा है । इससे साफ जाहिर  है कि साफ व स्वच्छ खाद्य पदार्थ मिलने की संभावनाएं भी कम हो रही   हैं ।
विश्व महिला दिवस पर विशेष
मनरेगा और लैंगिक उत्पीड़न
सचिन कुमार जैन


    भारत में सर्वाधिकरोजगार देने वाले मनरेगा के कार्यस्थलों में महिलाओं का लैंगिक शोषण आम हो चला है। पुरुषवादी सोच के चलते भाषायी अश्लीलता और व्यवहारगत कदाचरण से महिलाओं को लगातार दबाया और डराया जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि मनरेगा कार्यस्थलों पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम-२०१३ सख्ती से लागू किया जाए ।
    सर्वोच्च् न्यायालय ने वर्ष १९९७ में कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न को रोकने के मकसदसे विशाखा दिशा-निर्देश दिए थे । इसके आठ  साल बाद भारत की संसद ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून पारित किया। २ फरवरी को इस कानून को अस्तित्व में आए आठ  साल हो गए हैं । भारत में सबसे ज्यादा महिलाएं काम करती हैं । मनरेगा को दुनिया में अपनी तरह का बहुत विशेष कानून माना जाना चाहिए । क्योंकि जिस दौर में `राज्य` तेजी से अपनी नैतिक और राजकीय जिम्मेदारियों से अलग होकर निजीकरण और खुले व्यापार को बढ़ावा दे रहे थे, तब भारत में एक ऐसा कानून बना जो गांव में रहने वाले लोगों को साल भर में कम से कम १०० दिन के  रोजगार की कानूनी गारंटी देता था ।
   लेकिन किसी को नहीं पता कि इस रोजगार गारंटी कानून में काम करने वाली महिलाओं के क्या हालात  हैं ? समाज में बोलचाल की भाषा में आमतौर पर लैगिक सूचकों का बेतहाशा उपयोग किया जाता है । लैंगिक उत्पीड़न रोकने वाले कानून के मुताबिक अब  इसे भी स्त्री के खिलाफ होने वाला अपराध माना जाएगा । इस नजरिए से मनरेगा के कार्यस्थल बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं । समय से मजदूरी दिए जाने के मामलों को भी कई बार इन्हीं सूचकों के माध्यम से दबा दिया जाता  है ।
    पिछले एक साल में लैंगिक शोषण के खिलाफ चले संघर्ष के  परिणामस्वरूप भारत सरकार ने २२ अप्रैल २०१३ को महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध एवं प्रतितोषण) अधिनियम २०१३ बना दिया । भारतीय दंडसंहिता के तहत पहले दर्ज होने वाले मामलों और इस कानून में किए गए प्रावधानों में सबसे बुनियादी अंतर `प्रक्रिया` का है । पहले के कानून में पुलिस की केंद्रीय भूमिका थी । अब इस कानून के अनुसार पुलिस तक जाने से पहले आंतरिक समिति (प्रत्येक कार्यस्थल पर नियोजक यानी संस्था या विभाग के भीतर हर स्तर पर बनेगी, जिसकी पीठासीन अधिकारी उस कार्यालय की वरिष्ठ महिला कर्मचारी होगी) जो प्रकरण का संज्ञान  लेगी और उसे जांच करने का पूरा अधिकार      होगा ।
    इस कानून में काम के बारे में कोई भी वचन कह कर उत्पीड़न करने, उत्पीड़न के लिए महिला के काम को प्रभावित करने, उत्पीड़न के लिए धमकी, लैंगिक उत्पीड़न के लिए उसे कमतर साबित करना या स्वास्थ्य या सुरक्षा समस्याओं से जुड़ा अपमानजनक आचरण भी शामिल है । कानून में स्पष्ट है कि इसमें शारीरिक संपर्क करना या व्यवहार की सीमाएं लांघना, लैंगिक स्वीकृति के लिए मांग या अनुरोध करना, अश्लील साहित्य दिखाना या लैंगिक प्रकृति का कोई शाब्दिक या अशाब्दिक आचरण करना भी शामिल है ।
    भारत में असंगठि त क्षेत्र में १५ करोड़ महिलाएं कार्यरत हैं । महत्वपूर्ण यह है कि यह नया कानून असंगठित क्षेत्र के कार्यस्थलों पर भी लागू होता है । अत: कानूनन वहां पर भी  समिति बनना चाहिए । यदि सरकार असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को संविधान के १४, १५ और २१वें अनुच्छेद के बारे में समझाना चाहती है तो उसे मनरेगा में इस कानून को लागू करने की पहल करना होगी । वैसे भी इसे लागू हुए नौ माह गुजर चुके हैं और नियम भी बन चुके हैं । परन्तु मनरेगा जैसी योजनाओं में इस कानून के अंतर्गत क्या व्यवस्था बनेगी, उसकी निगरानी कैसे होगी और महिलाओं को संरक्षण कैसे दिया जाएगा, इसके बारे में इस कानून के  नियम बहुत कमजोर हैं । महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न कानून और मनरेगा के परस्पर सह-सम्बन्धों पर कोई बात शुरु ही नहीं हुई है ।
    इसके पहले भी अन्य सरकारी विभागों में विशाखा के तहत व्यवस्था नहीं बनी थी और वहां लैंगिक शोषण जारी था । इसके बावजूद सात सालों तक यह सवाल ही नहीं उठा कि मनरेगा का कार्यस्थल भी इस व्यवस्था के तहत आना चाहिए । जब २००५-०६ में रोजगार का कानून और नियम बने, तब भी विशाखा के बारे में कोई संज्ञान नहीं लिया गया । कलेक्टरों से लेकर पंचायत के सरपंचों और सचिवों तक के लिए देश भर में १६७२० (अगस्त २०१३ तक) प्रशिक्षण शिविर आयोजित हो चुके हैं । पर यह विषय कहीं भी शामिल नहीं था कि मनरेगा के तहत काम करने वाली ३७४.५ लाख महिलाओं को कार्यस्थल पर लैंगिक शोषण के  खिलाफ कानूनी अधिकार प्राप्त होगा । मनरेगा में गर्भवती और धात्री महिलाओं और छोटे बच्चें के लिए झूलाघर का प्रावधान है । परंतु इसे पूर्णरूपेण इसलिए लागू नहीं किया गया, क्योंकि स्त्री को उसके इन हकों की स्वतंत्रता वह वर्ग नहीं देता, जिससे हमारे कलेक्टर और सरपंच-सचिव या मैट आते हैं ।
    व्यावहारिक तौर पर महिला मजदूर भी समान श्रम करती हैं । परंतु आखिर में उन्हें पुरुषों की तुलना में १८ प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है । क्या यह एक किस्म से लैंगिक शोषण नहीं  है ? रोजगार के इस कानून के तहत कुल ७९५.९ लाख श्रमिक काम करते हैं, जिनमें से ४७.०९ प्रतिशत महिलाएं हैं । यानी मनरेगा भारत में सबसे बड़ा कार्यस्थल है, यहां सबसे ज्यादा महिलाएं काम करती हैं और जो कहीं न कहीं उनके शोषण का सबसे बड़ा स्थान भी  है । यहां मांगने पर भी काम न देने और काम करवा लेने के बाद मजदूरी न देने, कम मजदूरी देने, स्त्रियों के साथ लैंगिक भेदभाव तक की बेतहाशा आशंकाएं हैं ।
    मनरेगा में वेतन और मजदूरी के बारे में कई अध्ययन हुए पर लैंगिक शोषण के स्थिति के बारे में एक भी अध्ययन सरकारी या गैर सरकारी संस्था ने नहीं किया है। इसी कानून में पहली बार सामाजिक अंकेक्षण को स्थान मिला, पर सामाजिक अंकेक्षण में स्त्रियों के  साथ होने वाले व्यवहार का आंकलन नहीं होता । इसमें केवल यह देखा जा रहा है कि कितनी महिलाओं को काम मिला, जबकि अब यह देखने का समय है कि समानता और गरिमा से जीवन जीने के अधिकार के तहत उन्हें लैंगिक उत्पीड़न से मुक्त सुरक्षित वातावरण का अधिकार भी मिलता है कि नहीं ! इस कानून का सही क्रियान्वयन इसलिए जरूरी है ताकि बेटियों के माता-पिता को यह विश्वास हो सके कि समाज में उनकी ५ साल की बेटी के साथ बलात्कार नहीं होगा । ज्यादातर मजदूर गांव में झूलाघर के  अभाव में अपने साथ अपने बच्चेंको काम पर ले जाते हैं ।
    लैंगिक उत्पीड़न निवारण अधिनियम कहता है कि जिस भी असंगठित क्षेत्र में कम से कम १० कर्मकार या श्रमिक हैं, वहां इस कानून के प्रावधान लागू होंगे । मनरेगा का कानून भी कहता है कि जहां कम से कम १० लोग काम मांगेंगे, वहीं पर नया काम खुलेगा (यानी वह एक नया कार्यस्थल होगा)। वर्ष २०११-१२ में भारत में ५३.२ लाख व  वर्ष २०१२-१३ में ८०.३ लाख कार्य प्रारंभ हुए हैं और वर्ष २०१३-१४ में मनरेगा के तहत ९७.२ लाख कार्य होंगे, जिसमें अनिवार्य रूप से  एक तिहाई महिलाएं होंगी । 
    लैंगिकउत्पीडन रोकने वाला कानून का प्रभावी होना महज इसलिए महत्वपूर्ण नहीं होगा कि इसमें कितने मामले दर्ज होते हैं, बल्कि यदि इसकी प्रक्रिया सही ढंग से चलाई जाए तो यह करोड़ों महिलाओं को शोषण के खिलाफ मानसिक और भावनात्मक रूप से तैयार कर देगा । हमें मनरेगा दिशा-निर्देशों, नियमों, मूल्यांकन के तौर-तरीकों और सामाजिक अंकेक्षण में भी कार्यस्थल पर लैंगिक शोषण की रोकथाम के लिए एक सक्रिय व्यवस्था बनाना होगी ।
विशेष लेख
आर्सेनिक विषाक्तता का प्रभाव
आचार्य ईश्वरचन्द्र शुक्ल/वीरेन्द्रकुमार/ओमप्रकाश यादव

    आजकल हम सभी प्रदूषण से ग्रस्त हैं । वायु, जल, मृदा, खाद्य पदार्थ तथा अन्य सभी वस्तुएं प्रदूषित हो रही   है । हम स्वयं इन प्रदूषणों को बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं फिर भी सचेत नहीं हो रहे हैं ।
    रासायनिक प्रदूषणों में सबसे घातक है आर्सेनिक विषाक्तता । एक विषद शोध में यह पाया गया कि विश्व में अनेक देशों जैसे - अर्जेन्टाइना, आस्ट्रेलिया, बंगलादेश, कनाड़ा, चीली, चीन, ग्रीस, हंग्री, भारत, जापन, मैक्सिको, मंगोलिया, न्यूजीलैण्ड, दक्षिण अफ्रीका, फिलीपीन्स, ताइवान, थाइलैण्ड, अमेरिका तथा रूस मुख्य रूप से प्रभावित हैं, यद्यपि सरकार तन्त्र द्वारा इस पर नियंत्रण लगाने का प्रयास हो रहा है फिर भी अधिक सफलता नहीं मिल रही हैं ।
    आर्सेनिक का प्रयोग सदियों से औषधि, जहर तथा कल कारखानों में हो रहा है । इसके प्रभाव को बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही जान लिया गया था लेकिन लगभग आधी शताब्दी बाद इस ओर विशेष ध्यान दिया गया । इसका प्रभाव थोड़ी मात्रा में होने पर शीघ्र दिखाई नहीं पड़ता लेकिन अधिक दिनां तक या अधिक मात्रा में प्रयुक्त होने पर जानलेवा हो सकता है । ऐसा कहा जाता है कि विश्व प्रसिद्ध नैपोलियन की मृत्यु आर्सेनिक देने से ही हुई थी । आर्सेनिक लवण सामान्यत: गंधरहित, स्वाद रहित तथा रंगहीन होते हैं अत: इसका प्रयोग आसानी से किया जा सकता है । अकार्बनिक लवण अधिक हानिकारक होते हैं तथा शरीर पर धीरे-धीरे कार्य करते हैं । सबसे घातक आर्सेनिक आक्साइड होता है । 

     अमेरिकन पर्यावरण संरक्षण संस्थान द्वारा यह बताया गया है कि अनेकों रोग आर्सेनिक युक्त पानी पीने से होते हैं । मुख्यत: फेफड़ों, त्वचा, पौरूष ग्रंथि, गुर्दे, नाक, यकृत आदि में कैंसर की संभावना रहती है । इतना ही नहीं आर्सेनिक की अधिकता स्थायी रूप से आनुवांशिक क्षति पैदा करती है । अधिकतर यह पता लगाना कठिन होता है कि आर्सेनिक विषाक्तता प्राकृतिक पदार्थो से अथवा हमारी कुव्यवस्था से  पैदा हुई । प्राकृतिक रूप से पैदा हुई विषाक्तता को रोकना उतना आसान नहीं होता लेकिन अधिकतर कल कारखानों से पैदा कुप्रभाव को रोकने  में हमारी लापरवाही तथा कुप्रबन्धन ही है  । मानव द्वारा प्रदत्त प्रदूषण अधिक हानिकारक है जिसके लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गई ।
    अमेरिका जैसे विकसित देश में आर्सेनिक की उपस्थिति भौम जल में भी देखी गयी । सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र नेवादा कैलीफोर्निया तथा एरीजोना राज्य है । ज्वालामुखी वाले क्षेत्रों में जलोद तथा सरोवरी निक्षेप आर्सेनिक के मुख्य स्त्रोत है । इसके अतिरिक्त कल कारखानों का अपशिष्ट, खनिज उत्पाद कारखाने, कीटनाशकों का अनियत्रित प्रयोग तथा पृष्ट जल भी आर्सेनिक विषाक्तता प्रदान करते हैं । प्राकृतिक विषाक्तता तो सीमित है लेकिन मानव निर्मित विषाक्तता अधिक भयावह हैं । अत: इसके रोकने के सार्थक प्रयास की आवश्यकता है । जहाँ भी कारखानों की अधिकता है वहां पर भौम तथा पृष्ट जल दोनों ही प्रभावित होते रहे हैं । वह चाहे अमेरिका हो या आस्ट्रेलिया अथवा अन्य देश ।
    आर्सेनिक विषाक्तता कितनी मात्रा तक हानिकारक नहीं होगी इसका मापदण्ड बदलता रहता है । कुछ समय पहले पीने वाले पानी में ५० आर्सेनिक का होना सुरक्षित माना जाता था लेकिन ताइवान में इस प्रकार के पानी से कई हजार लोग बीमार हो गये । अत: विश्व स्वास्थ्य संगठन को यह मानक २ करना पड़ा इससे अधिक मात्रा कैंसर तथा अन्य हानिकारक प्रभावों को पैदा करती हैं । वर्तमान में केवल अमेरिका में एक-डेढ़ करोड़ लोग ही इस मानक का पानी पी रहे हैं ।
    अन्य देशों की तुलना में बांग्लादेश में अकार्बनिक विषाक्तता पा्रकृतिक स्त्रोतों से आ रही है । अनिवार्य समस्या सरकार की अदूरदर्शिता तथा लापरवाही के कारण अधिक हो रही है । उदाहरणार्थ विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानकों को न मानकर वहाँ अभी ५० लीटर का पानी प्रयोग किया जा रहा है । लगभग पाँच से छ: करोड़ लोग १० लीटर आर्सेनिक युक्त जल तथा लगभग चार करोड़ लोग ५० लीटर आर्सेनिक युक्त जल का प्रयोग कर रहे हैं । इस प्रकार लगभग नौ करोड़ लोग आर्सेनिक विषाक्तता से ग्रसित है । कहीं-कहीं तो इसकी मात्रा ३०००-१०००० लीटर तक पहुँच गई है जो कि अत्यन्त हानिकारक है ।
    बांग्लादेश सरकार ने वैज्ञानिकों की सलाह न तो मानी और न ही कोई निर्णय लिया । वहाँ पर कुल आर्सेनिक नदियों से आता है लेकिन मुख्यत: भूगर्भ से प्राप्त् होता है । इसका कारण बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र में जमा आर्सेनिक का अवसदी सतहों पर जमा होना तथा बाद में भूजल में मिल जाना होता है । इस देश का अधिकतर भाग होलीसीन तथा प्लीस्टोसीन - पिलोसीन युग का है जो कि ३०-२७० मीटर गहराई तक जाता है । अत: अधिकतर भागों में २५० मीटर से नीचे का जल पीने योग्य होता है लेकिन सामान्य कुएँ इस गहराई के नहीं है अत: आर्सेनिक संदूषण बना रहता है ।
    बांग्लादेश की असफल आंतरिक नीति के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाआें ने भी आर्सेनिक बढ़ाने में सहयोग दिया है उदाहरणार्थ अस्सी के दशक में ब्रिटिश भूवैज्ञानिक निरीक्षण ने नलकूप के पानी में आर्सेनिक संदूषण का परीक्षण ही नहीं किया । इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र ने भी पिछले कुएँ खोदने तथा सतही पानी के प्रयोग को वर्जित किया लेकिन आर्सेनिक संदूषण का परीक्षण नहीं किया । परिणाम स्वरूप १९९० के आसपास आर्सेनिक संबंधित रोग जैसे त्वचा संक्रमण, कैंसर आदि फैलने लगे ।
    सामान्य धारणा यह है कि बांग्लादेश का आर्सेनिक संदूषण प्राकृतिक देन है लेकिन उसका कोई उपयुक्त हल निकलना आसान नहीं है । समस्या की गंभीरता वहाँ की अति गरीबी ने और बढ़ा दी है लेकिन मानव संदूषण को कम करना तथा जनता को उपस्थित संदूषण से बचाकर इस समस्या का कम किया जा सकता है । अंतत: औषधीय व्यवस्था का विकास किया जाये जिससे आर्सेनिक प्रभावित व्यक्तियों का उपचार किया जा सके । जिस क्षेत्र में आर्सेनिक विषाक्तता है वहाँ पर कृषि कार्य न किया जाए अन्यथा उत्पादों में आर्सेनिक की मात्रा चली जायेगी । इस प्रकार वातावरण में आर्सेनिक विषाक्तता बहुत हद तक कम की जा सकती है ।
    जहाँ भी आर्सेनिक संदूषण है विशेषत: ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी में जल शुद्धिकरण की विधियाँ बतायी जायें तथा जनता को जागरूक किया जाये । प्रयोगों द्वारा पाया गया है कि सक्रिय एल्युमिनियत तथा आयन आक्साइड की परत युक्त बालू से पानी छानने  से आर्सेनिक विषाक्तता ५ लीटर तक कम की जा सकती है । नदी के पानी को साधारण बालू से छानकर भी आर्सेनिक की मात्रा को कम किया जा सकता है । यह विधि असुविधाजनक हो सकती है अत: छानक पात्रों का निर्माण किया गया है । जिससे पानी शुद्ध हो जाता है लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार नहीं । सबसे उचित विधि तो यह है कि समय-समय पर नलकूपों का परीक्षण किया जाय तथा गहरें कुएँ खोदे जायें ।
    आर्सेनिक प्रभावित  देशों की सरकार को चाहिए कि सस्ते जल शोधक उपकरण प्रदान करे तथा बड़े संयंत्र लगाकर जल शुद्ध करवायें । इन संयंत्रों में आर्सेनिक + ३ को आर्सेनिक + ५ में हाइड्रोजन परमाणु या क्लोरीन द्वारा बदला जाता है । इसके उपरांत विपरीत रसाकर्षण तथा एनायन विनिमय या सक्रिय एल्यूमिना पर अधिशोषित किया जाता है इसके पश्चात् छानने से आर्सेनिक मात्रा समाप्त् हो जाती है ।
    आजकल जीवाणुआें द्वारा पानी के अंदर आर्सेनिक का प्रक्षेपण किया जा रहा है । ये सभी क्रियाएं महंगी है अत: सरकार को विश्व स्तर पर जल शुद्धि का प्रयास करना चाहिए इसके अतिरिक्त औषधीय सुविधाआें का भी विकास करना चाहिए जिससे आर्सेनिक संक्रमित रोगियों का उपचार सफलतापूर्वक किया जा सके । खोज द्वारा यह पाया गया कि प्रतिदिन ४०० लीटर फालिक अम्ल की खुराक रक्त में आर्सेनिक की मात्रा को १४ प्रतिशत तक कम कर सकती है । अन्य उपचार जैसे कीलेशन द्वारा भी शरीर में व्याप्त् आर्सेनिक को कम किया जा सकता है ।
    बांग्लादेश में अभी भी अधिकांश लोग आर्सेनिक युक्त पानी पी रहे हैं । अनुमानत: आगामी पन्द्रह वर्षो तक यह समस्या रहेगी जिससे लोग बीमार होंगे या मृत्यु होगी । इस आपत्ति को बचाना आवश्यक है लेकिन बचाव या उपचार हेतु वहन करने योग्य साधन बहुत कम हैं । अत: वृहत शोध की आवश्यकता है साथ ही साथ जागरूकता भी पैदा करनी चाहिए । इसके लिए विश्व की अग्रणी संस्थाआें द्वारा साधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं जो कि सराहणीय है । विश्व बैंक ने लगभग पाँच करोड़ डॉलर की राशि इस समस्या को सुलझाने हेतु प्रदान की है जो कि बढ़ाकर लाखों में की जा सकती है ।
    आर्सेनिक विषाक्तता का प्रभाव केवल बांग्लादेश में ही नहीं है भारत में भी इसका प्रकोप जारी है । बांग्लादेश से लगे क्षेत्रों में सर्वाधिक प्रभाव देखा गया है । अभी हमारे यहाँ इतनी जागरूकता नहीं पैदा की गई और न ही कोई विशेष उपाय किये गये । समय रहते ही लोग विदेशों में हो रहे अनुसंधानों तथा संयंत्रों का उपयोग प्रारंभ कर दें तो इस विभिषिका से निजात पा सकते हैं । अन्यथा हमारे यहाँ भी आर्सेनिक विषाक्तता महामारी का रूप धारण कर लेगी । इसमें सरकार तन्त्र की जागरूकता तथा उचित प्रबन्धों की आवश्यकता है ।
जनजीवन
हमारे हित में है संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग
सीताराम गुप्त
    कुछ दिन पहले एक विवाहोत्सव में जाना हुआ । भव्य आयोजन था । खाना शुरू करने से पहले हाथ धोने के  लिए पानी की तलाश की लेकिन कहीं पर भी पानी नहीं रखा गया था जहाँ सुविधापूर्वक हाथ धोए जा सकें । सब कुछ था सिवाय पानी के ।
    पानी कहीं किसी जग या टंकी में उपलब्ध नहीं था लेकिन पानी की प्लास्टिक की बोतलें जरूर रखी थीं । २०० मिलिलीटर पानी से लेकर दो लीटर पानी तक की प्लास्टिक की बोतलें पर्याप्त संख्या में कई काउण्टरों पर सजी थीं । जिसको हाथ धोने होते वो सुविधानुसार हाथ बढ़ाकर कोई एक बोतल उठाता, ढक्कन की सील तोड़ता और हाथों पर कुछ पानी डालकर शेष पानी से भरी बोतल वहीं रखे बड़े-बड़े टबों में फेंक देता था ।
    टबों में ही नहीं चारों तरफ ढेर लगा था आंशिक रूप से प्रयुक्त पानी की बोतलों का । उनमें से निकल-निकल कर पानी चारों तरफ फैल रहा था और कीचड़ भी हो रही थी । आजकल जहाँ जाओ कमोबेश यही स्थिति दिखलाई पड़ती है । पानी और पीने योग्य पानी का ये हश्र देखकर जी दुखी हो जाता है । क्या पानी की इस बर्बादी, इस अविवेकपूर्ण उपयोग को रोका नहीं जा सकता? क्या हाथ धोने के लिए सामान्य स्वच्छ जल टोटी लगे जग अथवा टंकियों में उपलब्ध नहीं कराया जा सकता ? यह असंभव नहीं लेकिन इसके संभव न होने के पीछे कई कारण हैं जो भयंकर हैं । 
     पेय जल का तो दुरुपयोग होता ही है साथ ही प्लास्टिक की बोतलों का भी बेतहाशा इस्तेमाल किया जा रहा है । हाथ धोने हैं तो एक बोतल, कुल्लाकरना है तो दूसरी बोतल, भोजन के बीच में पानी पीना है तो तीसरी बोतल, भोजनोपरांत हाथ साफ करने हैं या पानी पीना है तो चौथी व पाँचवीं बोतल...... इस तरह एक आदमी के लिए पाँच-सात बोतलों का अत्यल्प प्रयोग अथवा दुरुपयोग करना सामान्य सी बात है । प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों का प्रयोग करना न केवल पर्यावरण के लिए घातक है अपितु इस्तेमाल करने वाले के लिए भी अस्वास्थ्यकर है इसीलिए प्लास्टिक के उपयोग को हतोत्साहित किया जाना चाहिये । 
    आज हर जगह प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों में बंद पानी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। आज प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों पर कहीं भी कोई रोक-टोक नहीं । प्लास्टिक की बोतलों व गिलासों में बंद पानी के  प्रयोग को प्रतिष्ठा का प्रतीक या स्टैंडर्ड माना जा रहा है । प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्रों को प्रतिष्ठित किया जा रहा है । हर कार्यक्रम में कई-कई टैंपों या ट्रक भरकर प्लास्टिक की पानी की बोतलें व गिलास तथा प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्र प्रयोग में लाए जाते हैं । कार्यक्रम खत्म होते-होते इस घातक कचरे के ढेर लग जाते हैं। यह कचरा वजन  में अत्यंत हल्का होता है अत: इधर-उधर उड़ता-फिरता रहता है ।
    शहरों, कस्बों, गाँवों व समस्त पृथ्वी के सौंदर्य पर कलंक-सा यह कचरा सचमुच त्याज्य है । आज बड़े-बड़े शहरों में ही नहीं कस्बों और गाँवों तक में कूड़े का सही ढंग से निपटारा करना एक बड़ी समस्या हो गई है । कुछ आर्थिक व औद्योगिक विकास की आवश्यकता तथा कुछ बढ़ते बाजारबाद के कारण आज हमारे उपभोग की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है । वस्तुओं की संख्या और मात्रा दोनों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है । यूज़ एण्ड थ्रो संस्कृति के कारण तो स्थिति और भी भयावह होती जा रही है । बढ़ते औद्योगीकरण के  कारण संसाधनों का अपरिमित दोहन किया जा रहा है जो हमारे परिवेश और प्राकृतिक संतुलन के लिए घातक है ।
    क्या प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्रों की जगह धातु, चीनी मिट्टी अथवा काँच के सुंदर व टिकाऊ, खाने-पीने में सुविधाजनक बर्तनों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता ? क्या प्लास्टिक, थर्मोकोल अथवा एल्युमीनियम फॉयल से निर्मित यूज एण्ड थ्रो पात्रों की जगह प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्तोंसे निर्मित पत्तल व दोनों का प्रयोग संभव नहीं ? क्या पत्तों से निर्मित पत्तल व दोनों का प्रयोग परिवेश के लिए अनुकूल व सुरक्षित   नहीं ? क्या इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का सृजन संभव नहीं ? क्या इससे प्रकृतिक संसाधनों के दोहन में कमी द्वारा औद्योगीकरण के दुष्परिणामों को कम करना संभव नहीं ? क्या इससे अजैविक अथवा नष्ट न होने वाले कूड़ें-कचेर  के अंबार से मुक्ति संभव नहीं ? कुछ भी असंभव नहीं यदि संतुलित दृष्टि व नेक इरादे से कार्य किया जाए ।
    क्या प्लास्टिक की बोतलों या गिलासों में बंद पानी की जगह टोटीवाले जगों या टंकियों में शुद्ध पेय जल उपलब्ध नहीं कराया जा सकता ? कराया जा सकता है लेकिन दो सौ, तीन सौ या हद से हद पाँच सौ रुपये के पानी के बीस-पच्चीस हजार रुपये तो नहीं बनाए जा सकते । ये घोर बाजारवाद, औद्योगीकरण व व्यावसायीकरण का परिणाम है जिसके कारण लगभग बिना कीमत वाला पानी सौ गुना से ज्यादा कीमत पर बेचा जा रहा है अपितु पानी जैसे बेशकीमती पदार्थ की बर्बादी व प्रदूषण के स्तर में बेतहाशा वृद्धि हो रही है और लोगों के स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ किया जा रहा है ।
    कई बार शुद्ध स्वच्छ जल अथवा मिनरल वॉटर के नाम पर जो बोतलबंद पानी परोसा जाता है वास्तव में वह पीने के योग्य भी नहीं होता । उसमें से न केवल दुर्गंध आती है अपितु कई बार खारापन अथवा स्वाद भी अजीब-सा होता है । शुद्ध  स्वच्छ जल तो गंधहीन, रंगहीन व किसी भी प्रकार के स्वाद से रहित तथा पारदर्शी होता है । शुद्ध जल अथवा मिनरल वॉटर के नाम पर प्राय: बोतल में बंद पानी ही होता है जिसकी गुणवत्ता कोई भरोसा नहीं । कई बार सीधे जमीन का कच्च पानी जो पीना तो दूर अन्य प्रयोग के लिए भी उचित नहीं होता बोतलों में भर दिया जाता है । कई बार बोतलबंद पानी इतना खराब होता है कि जो भी बोतल या गिलास खोलकर घूँट भरता है वह उसे गले से नीचे उतारने में असमर्थ होता    है । वह न केवल भरी बोतल या गिलास डस्ट बिन में फैंकने को विवश होता है ।
 कविता
 पेड़
किशनलाल शर्मा
न जाने, पेड़ों से,
क्या दुश्मनी है
आदमी को, जो
किसी ने किसी बहाने
काट ही देता है, पेड़ों को
पेड़ मानव जीवन का ही
आधार नहीं है,
पशुआें का भोजन
और पक्षियों का बसेरा
भी है, पेड़ों से ही
वसुन्धरा हरी भरी
नजर आती है, राहगीर
को शीतल छाया देते है
और बरसात भी पेड़ों
पर निर्भर है, फिर भी
आदमी पेड़ों को मिटाकर
कंकरीट के महल खड़े
कर रहा है, अगर
पेड़ नहीं रहेगे, तो
जीवनदायिनी, प्राण-वायु
कहाँ से मिलेगी ?
पशुआें को भोजन
कहाँ से आयेगा ?
और पक्षी अपना घर
कहाँ बनायेगें ?   
पेड़ों को घरा से
मिटाकर, हम
अपने ही विनाश को
न्यौता क्यों दे रहे हैं ?
पर्यावरण परिक्रमा
पत्रकारों के लिए असुरक्षित देश है भारत
    दुनियाभर के पत्रकारों की सुरक्षा के लिए और उनके काम करने के माहौल पर अध्ययन करने वाली संस्था इंटरनेशनल न्यूज सेफ्टी इंस्टीटयूट ने अपनी ताजा रिपोर्ट में भारत को पत्रकारों की दुनिया में चौथी खतरनाक जगह माना है । संस्थान ने ११ देशों को पत्रकारों के काम करने के लिए असुरक्षित माना है । इस सुची में सीरिया पत्रकारों के लिए लगातार दूसरी बार सबसे खतरनाक देश के रूप में कायम है ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि २०१३ में २९ देशों के १३४ पत्रकारों को मौत के घाट उतारा गया है । सीरिया में २०, इराक में १६, फिलीपीन्स में ४, भारत में १३, पाकिस्तान में ९, सोमालिया में ८, ब्राजील और इजिप्ट में ६, कोलंबिया, मैक्सिको और नाइजीरिया में ४ पत्रकारों की हत्या की गई । रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि विभिन्न देशों के अंदर चल रहे सशस्त्र विद्रोह में ६३ पत्रकारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा । वही अंतरराष्ट्रीय सशस्त्र विद्रोह में २ पत्रकारो को जान गवानी पड़ी ।
    चौंकाने वाली खबर में कहा गया है कि जो देश ना ही गृहयुद्ध में झुलस रहे है और ना ही अंतरराष्ट्रीय सशस्त्र संघर्ष में उलझे है ऐसे सात देशों में भ्रष्टाचार और अपराध की खबरों को सामने लाने पर सबसे ज्यादा ६९  पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया गया है ।
    इंटरनेशनल न्यूज सेफ्टी इंस्टीटयूट ने अपने शोध में कहा है कि मीडिया के विभिन्न माध्यमों में काम कर रहे पत्रकारों में सबसे ज्यादा असुरक्षित प्रिंट मीडिया के पत्रकार हैं और सबसे ज्यादा ४५ हत्याए प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की हुई है, इसके बाद रेडियो में ३५, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ३३, समाचार एजेन्सी के १२, ऑनलाइन के ६ और अन्य में काम कर रहे ३ पत्रकारों की हत्या की गई है ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि २०१२ की तुलना में २०१३ में पत्रकारों की हत्याआें की संख्या में १२ प्रतिशत की कमी आई है । २०१२ में १५२ पत्रकारों को मौत के घाट उतारा गया था । रिपोर्ट में जिन ११ देशों को खतरनाक माना गया है वहां की सरकारे पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर गंभीर नहीं हैं ।

भारत में कृषि पर निर्भर आबादी ५० फीसदी
    वर्ष १९८० से लेकर २०११ के बीच भारत में रोजी-रोटी के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर आबादी ५० प्रतिशत  बढ़ी है । इस अवधि में दुनियाभर के किसी भी देश मेंकृषि निर्भर लोगोंकी तादाद इस कदर नहीं बढ़ी है ।
    पिछले तीन दशकों के दौरान चीन में कृषि क्षेत्र पर निर्भर आबादी ३३ प्रतिशत बढ़ी, जबकि अमेरिका में ऐसे लोगों की संख्या ३७ प्रतिशत कम हुई । अमेरिका में खेती-बाड़ी पर निर्भर आबादी घटने की एक बड़ी वजह बड़े पैमाने पर मशीनों का इस्तेमाल            रही । वर्ल्डवॉच इंस्टिटयूट की तरफ से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है, वर्ष १९८० से लेकर २०११ के बीच भारत मेंआर्थिक रूप से सक्रिय कृषि आबादी ५० प्रतिशत बढ़ी, जबकि चीन में ऐसे लोगों की संख्या में ३३ प्रतिशत इजाफा हुआ । इसकी एक बड़ी वजह समग्र आबादी में बढ़ोतरी रही ।
    इस रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में आर्थिक तौर पर सक्रिय कृषि आबादी ३७ प्रतिशत कम हुई है । व्यापक मशीनीकरण, फसलों की उन्नत किस्मों का इस्तेमाल, उर्वरकों एवं कीटनाशकों का ज्यादा इस्तेमाल और संघीय सबसिडी इसके बड़े कारण बताए गए हैं ।
    वैश्विक पैमाने पर कृषि क्षेत्र पर निर्भर आबादी ऐसे लोगोंको शामिल किया जाता है, जो जीवनयापन के लिए खेती-बाड़ी, शिकार, मछली पकड़ने और जंगलों से उपयोगी चीजें जुटाकर उन्हें बेचने पर निर्भर होते हैं । वर्ष २०११ तक दुनियाभर में ऐसी आबादी ३७ प्रतिशत से ज्यादा थी । इससे बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं ।
    वैश्विक कृषि आबादी के मामले में वर्ष २०११ के दौरान १९८०के मुकाबले १२ प्रतिशत गिरावट आई । वर्ष १९८० तक दुनियाभर की कृषि आबादी और गैर-कृषि आबादी लगभग बराबर थी । हालांकि १९८० से लेकर २०११ के बीच दुनिया की कुल आबादी में कृषि क्षेत्र पर निर्भर लोगों की हिस्सेदारी (प्रतिशत में) घटी है, लेकिन ऐसे लोगों की तादाद में इजाफा हुआ है ।वर्ल्डवॉच के सीनियर फेलो सोफी वेंजलाऊ के मुताबिक इस अवधि में कृषि क्षेत्र पर निर्भर लोगों की संख्या २.२ अरब से बढ़कर २.६ अरब हो गई ।

डीजल जेनसेट पर रोक लगाने की तैयारी
    कच्च्े तेल के आयात को कम करने के लिए सरकार अब डीजल जेनरेटरों पर अंकुश लगाने की तैयारी मेंहै । यह तैयारी एक विस्तृत नीति के तौर पर है । इसके तहत डीजल चालित जेनरेटरोंसे बिजली पैदा करने वाले उद्योगों या अन्य निकायों को गैस आधारित पावर प्लांटों से बिजली की आपूर्ति की जाएगी । बिजली मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राज्यों के बिजली मंत्रियों की बैठक इस महत्वकांक्षी योजना का प्रस्ताव       किया ।
    बिजली मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक देश मेंअमूमन बिजली कटौती के दौरान जेनरेटरों से ७२ हजार मेगावाट बिजली हर वर्ष बनाई जाती है । इसकी लागत औसतन १४ से १५ रूपए प्रति यूनिट आती हैं । वहीं, आयातित गैस आधारित बिजली प्लांट से महज आठ रूपए प्रति यूनिट की दर से बिजली दी जा सकती है । डीजल जेनसेट के इस्तेमाल का खामियाजा ज्यादा कच्च्े तेल (क्रुड) के आयात के तौर पर उठाना पड़ता है । क्रुड आयात पर अभी सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा खर्च हो रही है जो चालू खाते का घाटा बढ़ा रहा है ।
    केन्द्र सरकार ने अगले तीन से चार वर्षोंा के भीतर चालू खाते के घाटे (देश में विदेशी मुद्रा के आने व बाहर जाने का अंतर) को मौजूदा ४.८ फीसदी से घटाकर २.५ फीसदी करने का लक्ष्य है । ऐसे में डीजल जेनसेट को रिप्लेस करने से घाटे को काबू करने में भी मदद मिलेगी । सूत्रों के मुताबिक श्री सिंधिया को देशभर से डीजल जेनसेट के खात्मे के लिए राज्यों से भरपूर सहयोग    चाहिए । सबसे पहले देश में उन क्षेत्रों का चयन करना होगा जहां बिजली बनाने के लिए डीजल जेनरेटर का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है । फिर इन क्षेत्रों       के आसपास गैस आधारित छोटे प्लांट लगाने होंगे । डीजल जेनसेट को गैस आधारित बिजली प्लांट से ही रिप्लेस किया जा सकता है क्योंकि गैस पावर प्लांट को मांग के मुताबिक कभी भी ऑन और ऑफ किया जा सकता है ।
म.प्र. में २०१५ तक ३७८७ मेगावाट बिजली पैदा होगी
    नवकरणीय  ऊर्जा के क्षेत्र में मध्यप्रदेश २०१५ तक अनुमानित ३८४७ मेगावाट बिजली पैदा कर सकेगा जो देश की नवकरणीय ऊर्जा के कुल उत्पादन की २१ प्रतिशत होगी । मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल और नई सोच के कारण तीन वर्ष पहले ही नवकरणीय ऊर्जा विभाग प्रदेश मेंअस्तित्व में आया है । विभाग के अपर मुख्य सचिव एस.आर. मोहन्ती ने यह बात कही ।
    श्री मोहन्ती ने बताया कि मात्र तीन साल पहले जारी नवकरणीय ऊर्जा नीति के कारण नवकरणीय ऊर्जा उत्पादन दो साल के अंदर (अप्रैल २०१२) ४३८.२४ मेगावाट से बढ़कर अप्रैल २०१४ में १०६५ मेगावट होना अनुमानित है । इसमें पवन ऊर्जा का उत्पादन ३१४.८९ मेगावाट से बढ़कर लगभग ४७३ मेगावाट हो जायेगा और सौर ऊर्जा से उत्पादन दो मेगावाट होने की सम्भावना है ।
    नवकरणीय ऊर्जा नीति इस क्षेत्र से जुड़े सभी सम्बन्धितों से मशविरा करने के बाद  ही बनायी गयी है । नीति में भूमि आवटंन और पर्यावरण स्वीकृति के नियमों का सरलीकरण किया गया है । नीति में लाल फीताशाही को कम करने और परियोजना स्वीकृति को पारदर्शी बनाने के साथ ही स्थानीय प्रशासन से परियोजना के निर्माण कार्योंा के लिए किसी भी प्रकार की स्वीकृति लेने की जरूरत अब नहीं होगी । निर्धारित नीति के अनुसर आगामी १० साल तक उक्त परियोजना के लिए मुफ्त बिजली और किसी प्रकार का कोई कर नहीं लगेगा । नई नीति लागू होने के बाद प्रदेश् में इस क्षेत्र में लगभग २७५ परियोजना चल रही है जिनसे ४६६५ मेगावाट ऊर्जा उत्पन्न होने की सम्भावना है । सौर ऊर्जा के क्षेत्र में ११८ परियोजनाएँ चल रही हैं । पवन  र्जा के क्षेत्र में ८१ और शेष बायोमास और जल विद्युत के क्षेत्र में हैं ।
बैटरी की जगह हवा से चलेगी हाइब्रिड कर
    फ्रांस की कार निर्माता कंपनी प्यूजो ने दुनिया की पहली हवा से चलने वाली हाइबिड कार हाइब्रिड एयर से पर्दा उठाया है । मौजूदा हाइब्रिड कारों में बैटरियोंं का इस्तेमाल होता है । इस कार में हाइब्रिड एयर इंजन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया है । रफ्तार कम होते ही कार एयर इंजन से बंद हो जाएगा । इस दौरान कार कम्प्रेस हवा का इस्तेमाल करेगी । कंपनी का दावा है कि अगले साल वह इस कार को बाजार में लॉन्च करेगी ।
    अभी हाइब्रिड कारों में बैटरियों का इस्तेमाल होता है । वक्त के साथ इनकी क्षमता मोबाइल-लैपटॉप की बैटरियों की तरह घट जाती है । इन्हें बदलना भी काफी खर्चीला होता है ।
विज्ञान जगत
प्रयोगशाला में बना इंसानी दिमाग
संध्या रायचौधरी
    ऑस्ट्रियन एकेडमी ऑफ साइंसेज में इंस्टिट्यूट ऑफ मॉलिक्यूलर बायोटेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों ने स्टेम कोशिकाआें का इस्तेमाल करके प्रयोशाला में इंसानी दिमाग का छोटा रूप तैयार करने का दावा किया है ।
    इन वैज्ञानिकों ने टेस्ट ट्यूब में उस स्तर के दिमाग को तैयार करने में सफलता हासिल की है जो नौ सप्तह के भू्रण में दिमाग का स्तर होता है । प्रयोगशाला में तैयार दिमाग इंसानी दिमाग से बस इस मायने में अलग है कि इसमें सोचने समझने की शक्ति नहीं है । लेकिन यह सफलता का पहला चरण है इसलिए यह मानकर चला जा रहा है कि आने वाले सालों में जो दिमाग तैयार होगा उसमें यह शक्ति भी होगी ।
    वैसे प्रयोगशाला में पहले भी वैज्ञानिक दिमागी कोशिकाएं बनाने में सफल रहे हैं लेकिन इस बार उन्होनें चार मि.मी. आकार का दिमाग बनाने में सफलता हासिल की है जो अब तक प्रयोगशाला में बना सबसे बड़ा दिमाग है । कहा जा सकता है कि यह कृत्रिम दिमाग के विकास मेंमहत्वपूर्ण उपलब्धि है । 
     टेस्ट ट्यूब में इस दिमाग को बनाने के लिए भ्रूण की स्टेम कोशिका या वयस्क त्वचा कोशिका का उपयोग किया गया । इसे दो महीने तक बायो रिएक्टर में पोषक तत्वों और ऑक्सीजन की मौजूदगी में विकसित किया गया । वैज्ञानिकों ने देखा कि कोशिकाएं स्वयं ही विकसित होकर दिमाग के विभिन्न हिस्सों के रूप में खुद को संगठित करने में सफल रही हैं । जैसे सेरेब्रल कॉर्टेक्स, रेटिना और हिपोकैम्पस जो बाद में इंसानों में स्मृति के विकास में महत्वपूर्ण होता है ।
    वैज्ञानिक फिलहाल कह रहे हैं अभी हम वास्तविक दिमाग बनाने से काफी दूर हैं । शोधकर्ताआें में से एक डॉक्टर जुरजेन नोबिलिच ने कहा भी है, प्रयोगशाला में बना दिमाग, दिमाग के प्रतिरूप के विकास के लिए और दिमाग में होने वाली बीमारियों के अध्ययन के लिए अच्छा मॉडल है । नोबिलिच के मुताबिक अंतत: हम अधिक आम बीमारियों जैसे शिजोफे्रनिया या ऑटिज्म की ओर बढ़ना चाहेंगे । हालांकि ये बीमारियां वयस्कों में ही दिखती हैं लेकिन यह पाया गया है कि इनसे संबंधित विकृतियां दिमाग के विकास के समय ही पैदा हो जाती हैं ।
    वैज्ञानिक प्रयोगशाला में बने इस दिमाग को और अधिक विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं । हालांकि उन्होनें एक साल तक इस दिमाग को टेस्ट ट्यूब में रखा लेकिन यह चार मि.मी. से ज्यादा नहीं बढ़ा । मतलब यह कि अभी वैज्ञानिकों को सही-सही नहीं पता चला है कि आखिर दिमाग में विकास का मुख्य अवयव क्या है । वैसे दिमाग को समझने, उसका प्रतिरूपण करने और थोड़ी निष्ठुर भाषा में कहें तो उस पर कब्जा जमाने की फिराक में वैज्ञानिक हमेशा से रहे हैं ।
    करीब एक दशक पहले ब्रिटेन की मशहूर पत्रिका दी इकॉनॉमिस्ट में एक सनसनीखेज खुलास किया गया    था । यह खुलासा था कि ब्रिटेन तथा अमरीका के कुछ तंत्रिका वैज्ञानिक चुपके-चुपके मानव मस्तिष्क पर प्रयोग कर रहे हैं । ऐसे प्रयोग करने वाले एक वैज्ञानिक के हवाले से कहा गया था कि कुछ महिलाआें के मस्तिष्क में जब मामूलजी सी छेड़छाड़ की गई तो उन्हें गहरे आनन्द की अनुभूति हुई । सुनने में यह भले मामूली सी बात लगे लेकिन वास्तव में यह मामूली थी नहीं । इस मामूली सी दिखने वाली घटना के दो बड़े आयाम हैं । एक तो वही इंसानी जिज्ञासा । दुनिया में जो चीज इंसान के लिए जितनी ज्यादा चुनौती पेश करती है, इंसान उसके लिए उतना ही ललक रखने लगता है । दिमाग कुदरत की सबसे जटिल और रहस्यमयी रचना है ।
    इसलिए इंसान सबसे ज्यादा दिमाग को जानने के लिए ही रोमांचित रहता है फिर वह चाहे वैज्ञानिक ही क्यों न हो । लेकिन इसका एक आपराधिक पहलू भी है । मस्तिष्क से छेड़छाड़ का मतलब है कि दिमाग को मुट्ठी में कैद करने की कोशिश । यह खौफनाक है क्योंकि वैज्ञानिकों और समाज शास्त्रियों के समूह को आशंका है कि अगर सचमुच फेरबदल की ताकत इंसान ने हासिल कर ली या कृत्रिम दिमाग वास्तविकता बना गया तो मानवीय गुलामी का एक ऐसा दौर शुरू हो सकता है जिसकी अभी तक कल्पना भी नहीं की गई है । नि:संदेह इसके कुछ फायदे भी हो सकते हैं। मगर सच्चई यह भी है कि ऐसी तमाम खोजें इन्हीं फायदों के लिए शुरू नहीं की जाती हैं, इनका मकसद कुछ और होता है ।
    यहां भी आशंका यही है कि एक बार मस्तिष्क नियंत्रण की कुंजी का पता चल गया तो फिर यह कहना बहुत मुश्किल होगा कि उसका कौन, कैसा उपयोग करेगा । मानव शरीर पर हुए अनुसंधानों में आज तक सबसे अधिक अनुसंधान मस्तिष्क पर ही हुए है । फिर भी सच्चई यही है कि हम अब भी मस्तिष्क के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानते । भाषाआें को सीखने और समझने का मैकेनिज्म, प्रेम और नफरत की रहस्यात्मकता और सच तथा झूठ के द्वंद्व की गहनता आज भी मस्तिष्क की कुछ ऐसी अबूझ पहेलियां हैं जहां तक वैज्ञानिक या पहुंच नहीं पाए हैं और यदि पहुंच भी गए हैं तो उनके दावे विश्वास पैदा नहीं करते । वैज्ञानिकों के लिए अभी भी चेतना, भावना, स्मरण एवं तर्क शक्ति, ज्ञान का भंडार, स्वप्नों की अनोखी दुनिया, यहां तक कि मनुष्य की वास्तविक मौत जैसी बातें भी अबूझ पहेलियों की तरह ही हैं । इन तमाम अबूझ पहेलियों की खान है हमारा मस्तिष्क । यही वजह है कि चिकित्सा विज्ञान में मस्तिष्क को लेकर हमेशा आकर्षण रहा है ।
    २०वीं सदी के उतरार्ध में मस्तिष्क को लेकर पूरी दुनिया में वैज्ञानिकों का रूझान बढ़ा जो २१ वीं शताब्दी के इस दूसरे दशक में भी जारी है । यही वजह है कि आज न केवल मस्तिष्क संबंधी तमाम अनुसंधान चर्चा में है बल्कि तंत्रिका विज्ञान मस्तिष्क में हस्तक्षेप कर सकने की स्थिति में पहुंच गया लगता है ।
    डॉ. स्नाइडर ने मानव भ्रूण के मस्तिष्क में कुछ ऐसी खास कोशिकाएं ढूंढ निकाली हैं जो आने वाले समय में दिमाग की एक प्रकार की कोशिका नहीं बल्कि कई तरह की कोशिकाआें को जन्म देगी । इन अलादीनी चिराग माफिक न्यूरल स्टेम सेल को तंत्रीय कोशिका नाम दिया गया है जो वास्तव में एक तरह से स्टेम कोशिका है । अपने गहन परीक्षण के दौरान डॉ. स्नाइडर ने इस स्टेम कोशिका को प्रयोगशाला में मस्तिष्क जैसी परिस्थितियों में कई बार विकसित कर पाने में सफलता हासिल की है । हालांकि बीच में इसकी प्रगति रिपोर्ट से दुनिया अनजान रही लेकिन अब लग रहा है कि जो अनुमान कुछ साल पहले लगाए गए थे वे अब जल्द ही सफल होंगे यानी वैज्ञानिक ऐसी मस्तिष्क कोशिकाआें को विकसित कर पाने के बहुत  नजदीक पहुंच गए हैं जिन्हें वे इंसान के दिमाग में मृत कोशिकाआें का स्थान लेने के लिए इंजेक्शन द्वारा रोप सकेंगे ।
    नि:संदेह डॉ. स्नाइडर और उनके सहायकों ने इस महत्वपूर्ण खोज के संबंध में तमाम मानवीय उपयोग गिनाए हैं जो सचमुच इंसान के जीवन को बहुत खुबसूरत बना सकते हैं । लेकिन जिस तरह महान तकनीक, विचार और वस्तु की आनन-फानन में अनुकृति तैयार हो जाती है उसी तरह हर महान खोज के उपयोगी लक्ष्यों के साथ ही उसके खतरनाक प्रयोग भी चिन्हित हो जाते हैं । जब ये स्टेम कोशिकाएं बड़े पैमाने पर तैयार हो जाएंगी तो इन्हें मस्तिष्क में इंजेक्शन के माध्यम से रोपकर क्षतिग्रस्त मस्तिष्क को दुरूस्त किया जा सकेगा ।
    एक बार अगर इंसान मस्तिष्क में छेड़छाड़ करने में माहिर हो गया तो फिर इंसानियत पर इस बात का खतरा मंडराने लगेगा कि वैज्ञानिक लोगों के दिमाग को अपनी इच्छानुसार डिजाइन करने लगेंगे । हालांकि स्वस्थ कृत्रिम दिमाग के बहुत फायदे गिनाए जा सकते हैं । जैसे इससे भुलक्कड़पन रोका जा सकेगा, बिगड़े मानसिक संतुलन को नियंत्रित किया जा सकेगा । संभव है इन्हीं के दम पर कोई नया रहस्य भी उघड़े या फिर प्रयोगशाला में तैयार कोशिकाआें का इस्तेमाल किसी को जीनियस बनाने के लिए भी हो । लेकिन इसका उपयोग इसके उलट भी हो सकता है ।
    समाज शास्त्रियों को आशंका है कि एक बार दिमाग से छेड़छाड़ की कोशिका में अगर वैज्ञानिक मेधा सफल हो गई तो इसका उपयोग आतंकवादी भी कर सकते हैं । वैसे ये मजाक नहीं, सच है क्योंकि जब से वैज्ञानिकों ने दिमाग की संरचनात्मक गुत्थी को सुलझाने मेंे सफलता हासिल की है तब से आतंकवादी कई मस्तिष्क वैज्ञानिकों को अगवा कर चुके हैं और उनसे यह राज जानने की कोशिश भी कर चुके हैं कि उनका खतरनाक से खतरनाक उपयोग क्या हो सकता है । हालांकि अभी आतंकवादी ऐसा कुछ नहीं कर पाए हैं जो वे करना चाहते हैं ।
ज्ञान विज्ञान
पश्चिमी घाट के संरक्षण की मशक्कत
    भारत के पश्चिमी घाट के संरक्षण को लेकर काफी मतभेद उभरे है ं। जैन विविधता की दृष्टि से देखें तो पश्चिमी घाट का क्षेत्रफल जहां भारत के कुल क्षेत्रफल का मात्र ६ प्रतिशत है, वहींे देश के पौधों, मछलियों स्तनधारियों और पक्षियोंकी ३० प्रतिशत प्रजातियां निवास करती हैं । इसी क्षेत्र में यूनेस्को द्वारा ३९ स्थानों को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया है लेकिन इस क्षेत्र के संरक्षण और विकास को लेकर तमाम मतभेद हैं । 
     कुछ समय पहले भारत सरकार ने  पश्चिमी घाट के संरक्षण व विकास के मुद्दे पर विचार करने के लिए एक कामकाजी समूह का गठन किया था । पिछले माह नवंबर में सरकार ने घोषणा की है कि उसने कामकाजी समूह की इस सिफारिश को स्वीकार कर लिया है कि पश्चिमी घाट के  एक-तिहाई क्षेत्र को अलग-थलग कर दिया जाए और उसमें किसी भी औद्योगिक गतिविधि की अनुमति न दी जाए ।
     अपने आप में तो इस घोषणाका स्वागत किया जाना चाहिए मगर मामला इतना सरल भी नहीं है । उपरोक्त कामकाजी समूह से पहले २०१० में सरकार ने ही एक प्रतिष्ठित इकॉलॉजीवेत्ता माधव गाडगिल की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ पेनल का गठन किया था । इसे पश्चिमी घाट की इकॉलॉजी व औद्योगिक विकास से सम्बंधित समस्याआें पर विचार करने को कहा गया था । इस विशेषज्ञ पैनल ने २०११ में अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि समूचे पश्चिमी घाट को इकॉलॉजी की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाए । दरअसल रिपोर्ट में कहा गया था कि समूचे पश्चिमी घाट क्षेत्र को संवेदनशीलता के स्तर के अनुसार तीन क्षेत्रों में बांटा जाए और सबसे अधिक संवेदनशील क्षेत्र में खनन पर प्रतिबंध लगा दिया जाए ।
    तो स्पष्ट है कि कामकाजी समूह की रिपोर्ट ने विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट को दरकिनार कर दिया है ।
    अब ये दो समूह (कामकाजी समूह और विशेषज्ञ पैनल) आमने-सामने हैं । नवंबर में सरकार द्वारा एक-तिहाई क्षेत्र को संरक्षित घोषित करने के निर्णय का कई संरक्षणवादियों, किसान संगठनों के अलावा खनन व विनिर्माण  उद्योग ने विरोध किया है । मसलन, एन्विरॉनिक्स ट्रस्ट के प्रंबध निदेशक श्रीधर राममूर्ति का मत है कि गाडगिल पैनल की रिपोर्ट के बाद एक और समिति के गठन की कोई जरूरत नहींथी । पश्चिमी घाट  के संदर्भ में सर्वाधिक चिंता का विषय गोवा और कर्नाटक मे चल रहा प्रदूषणकारी अवैध लौह व मेंगनीज खनन है ।
    कामकाजी समूह के अध्यक्ष के. कस्तूरीरंगन थे जो पूर्व में इसरो के अध्यक्ष रह चुके हैं । इस समूह की रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के मात्र ३७ प्रतिशत हिस्से को इकॉलॉजी की दृष्टि से संवेदनशील माना गया है । शेष हिस्से को सांस्कृतिक भूभाग माना गया है और इसमें गांव, कृषि भूमि तथा गैर-वन प्लांटेशन  आते     हैं ।
    जहां उद्योगों ने नई रिपोर्ट को एक हद तक संतोषजनक माना है वहीं संरक्षणवादियों का कहना है कस्तूरीरंगन रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के ६३ प्रतिशत हिस्से को तो औद्योगिक गतिविधियोंके लिए खोल दिया है, जो पूरे क्षेत्र के लिए घातक होगा ।
    विशेषज्ञ पैनल के अध्यक्ष माधव गाडगिल ने एक साक्षात्कार में बताया कि कामकाजी समूह ने  अपनी रिपोर्ट में मनमाने ढंग से प्राकृतिकऔर सांस्कृतिक लैण्स्केप जैसी धारणाआें का उपयोग किया है, जिससे लगता है कि मात्र प्राकृतिक लैण्डस्केप के संरक्षण की जरूरत है जबकि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है । श्री गाडगिल ने कस्तूरीरंगन को एक खुले पत्र में कहा है कि यह तो ऐसा है कि आप पर्यावरणीय विनाश के मरूस्थल में जैव विविधता के नखलिस्तान के संरक्षण की कोशिश करें ।   


विचारोंको तोलने की मशीन

    उन्नीसवीं सदी में इटली के शरीर क्रिया वैज्ञानिक एंजेलो मोसो ने एक मशीन का निर्माण किया था जिसे वे आत्मा को तोलने की मशीन कहते थे । वैसे विचार थोड़ा बेतुका लग सकता है मगर इसने आगे चलकर मस्तिष्क की गतिविधियों को देखने की विधि का मार्ग प्रशस्त किया ।
    कुल मिलाकर यह मशीन एक बड़ी तराजू थी जिसे एक मेज का रूप दिया गया का । व्यक्ति को मेज पर लिटा दिया जाता था । उसका सिर तराजू के संतुलन बिंदु के एक ओर तथा पैर दूसरी ओर होते थे । लिटाने के बाद तराजू को एकदम संतुलित कर लिया जाता था । 
     सिद्धांत यह था कि यदि मानसिक गतिविधि के कारण ख्ून का प्रवाह मस्तिष्क की ओर बढ़ेगा तो उस तरह का वजन भी बढ़ जाएगा और मेज को मस्तिष्क की ओर झुक जाना चाहिए । मोसो का ख्याल था कि रक्त प्रवाह इस बात पर निर्भर है कि हम क्या सोच रहे हैं ।
    सन् १८९० में मोसो का शोध पत्र विलियम जेम्स की पुस्तक प्रिंसिपल्स ऑफ फिजियॉलॉजी में प्रकाशित हुआ था । मोसो का दावा था कि वास्तव में ऐसा हुआ था । जब व्यक्ति अखबार पढ़ने की कोशिश करता था तो मस्तिष्क वजनदार हो जाता था । इसका मतलब है कि खून दिमाग की ओर ज्यादा जा रहा है । मोसो ने बताया कि सबसे ज्यादा असर तो दर्शन शास्त्र की कोई मुश्किल किताब पढ़ते समय होता था । मोसो के मुताबिक शरीर के विभिन्न हिस्सोंके भार मेंउक्त परिवर्तन तंत्र में रक्त के पुनर्वितरण के फलस्वरूप होता था ।
    वैसे मोसा का यह शोध पत्र कहींेगुम रहा । हाल ही मेंइसे खोजा गया है । दरअसल उस समय माना जाता था कि रक्त प्रवाह परिवर्तन ह्रदय की क्रिया में बदलाव के कारण होते हैं । आगे चलकर यह पता चला कि दिमाग के अलग-अलग हिस्सों में हो रहे रक्त प्रवाह और उन हिस्सों में चल रही चयापचय क्रियाआें के बीच में सम्बंध है । देखा जाए तो आधुनिक फंक्शनल एमआरआई के पीछे यही सिद्धांत है । इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो मोसो का आत्मा को तोलने की मशीन में दिमाग की गतिविधियों के निरीक्षण की तकनीक की प्रारंभिक पदचाप सुनाई पड़ती है ।


प्रजातियों में बुढ़ाने की विविधता
    अलग-अलग ४६प्रजातियोंके जीवन चक्र का अध्ययन करके यह पता चला है कि सारी प्रजातियोंमें उम्र के साथ मृत्यु दर नहीं बढ़ती और न ही उनकी उर्वरता का ह्वास होता है । यह निष्कर्ष इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि जैव विकास के सिद्धंात में ऐसा माना जाता है कि विकास के साथ-साथ उम्र के साथ मृत्यु दर बढ़ती है और उर्वरता में ह्वास होता है ।
    दक्षिण डेनमार्क विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक ओवेन जोन्स द्वारा किए गए इस अध्ययन मेंप्रजातियों के बीच बुढ़ाने की प्रक्रिया में काफी विविधता देखी गई है । जोन्स का कहना है कि उनका अध्ययन इस धारणा को चुनौती देता है कि उम्र के साथ निश्चित तौर पर सेनेसेंस (बुढ़ाने) की प्रक्रियातेज होती है । 
     जोन्स व उनके साथियों ने ११ स्तनधारियों, १२ अन्य रीढ़धारी जंतुआें, १० रीढ़-विहीन जंतुआें, १२ वनस्पतियों तथा १ शैवाल के जीवन चक्रों के आंकड़े एकत्रित किए । इन आंकड़ों के आधार पर उन्होंने यह गणना की कि हरेक प्रजाति में उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर मृत्यु दर से भाग देकर एक मानक मृत्यु दर ग्राफ प्राप्त् किया ।
    इस विश्लेषण के बाद विभिन्न प्रजातियों की तुलना की गई । तुलना में जीवन की कुल अवधि और सेनेसेंस के बीच कोई सम्बंध नहीं देख गया । २४ प्रजातियां ऐसी थीं जिनमें उम्र बढ़ने पर यकायक मृत्यु दर बढ़ती है । इनमें से ११ प्रजातियों की कुल आयु काफी लंबी थी जबकि १३ प्रजातियों की कुल आयु कम थी । अन्य प्रजातियों में उम्र बढ़ने पर मृत्यु दर में उतनी यकायक वृद्धि नहीं हुई और इनमें भी दोनों तरह की प्रजातियां शामिल थीं - यानी कम आयु वाली भी और लंबी आयु वाली भी ।
    इसके बाद शोधकर्ताआें ने सारी प्रजातियों को सेनेसेंस के कम्र में तमाया । इस तरह जमाने पर स्तनधारी एक छोर पर रहे । इनमें उम्र बढ़ने के साथ मृत्यु दर तेजी से बढ़ती हैं । दूसरे छोर पर पौधे थे जिनकी मृत्यु दर बहुत कम होती है । पक्षी और रीढ़विहीन जंतु इस श्रृंखला में हर तरफ बिखरे हुए थे यानी उनमें उम्र के साथ मृत्यु दर बढ़ भी सकती है और नहीं भी बढ़ सकती है ।
    सिद्धांत  तो यह रहा है कि जिन जीवों की जीवन अवधि लंबी होती है उनमें उम्र के साथ मृत्यु दर में अचानक वृद्धि होनी चाहिए ।  इस शोध के लेखकों के अनुसार उनका विश्लेषण इस सिद्धांत को चुनौती देता है ।
जलवायु परिवर्तन
नुकसान की भरपाई कोन करेगा ?
विनिता विश्वनाथन

    पिछले महीने वारसा में हुई जलवायु परिवर्तन चर्चाआें में युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कंवेन्शन ऑन क्लाइमेट चेन्ज के १९० से ज्यादा सदस्य देशोंने भाग लिया । ११ दिन लम्बे सम्मेलन में हुई चर्चाएं मतभेद व उग्रता से परिपूर्ण थी ।
    एक मुख्य कारण यह मुद्दा था कि जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहे और होने वाले विभिन्न देशों के नुकसानों का खर्चा कौन उठाएगा । यह मुद्दा अत्यन्त विवादपूर्ण है और विश्व जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की एक विडंबना है - सबसे ज्यादा नुकसान उन लोगों/देशों का होगा जिनका जलवायु परिवर्तन में सबसे कम योगदान रहा है । और इनमें से कई देश सबसे गरीब और विकासशील देशों में से हैं ।
    ग्लोबल वार्मिग के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन को समझना आसान नहीं है । इसका एक कारण यह है कि पृथ्वी के करोड़ों सालों के इतिहास में इतनी मात्रा में और इतनी तेजी से तापमान कभी भी नहीं बढ़ा । तो हमारे सारे पूर्वानुमान ऐसी परिस्थितियों पर आधारित हैं जिनकी तुलना बीते हुए हालातों से नहीं की जा सकती है । 
    फिर भी वारसा सम्मेलन में शामिल देशों के बीच एक सहमति है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव तो होंगे, लेकिन इस बात पर मतभेद हैं ये दुष्प्रभाव किस हद तक या किस मात्रा में होगे । अगर शोधकर्ताआें और वैज्ञानिकों के सबसे भंयकर पूर्वानुमान सही निकले, तो जाहिर है कि हमें कई सारी भारी दिक्कतों का सामना करना  पड़ेगा । 
    एक समझ यह बनी है कि जलवायु परिवर्तन के कुछ दुष्प्रभाव तो तुरन्त ही देखने को मिलेंगे । कुछ लोगों का मानना है कि विश्व के कई क्षेत्रों में हो रही कुछ घटनाएं (मसलन, पहले से अधिक संख्या में और ज्यादा भंयकर आंधियां, चक्रवात, बारिश और तापमान में जबर्दस्त उतार-चढ़ाव आदि) ग्लोबल वार्मिग की वजह से ही हो रही है ।
    कुछ दुष्प्रभाव ऐसे भी है जिनका अनुमान तो लगाया गया है लेकिन वे तुरन्त नहीं, भविष्य में धीरे-धीरे दिखेंगे और विनाशकारी साबित हो सकते हैं । इनमें से एक है समुद्र तल में इजाफा । अनुमान के मुताबिक कई देशों के समुद्र तटीय इलाके पानी के नीचे चले जाएंगे और महासागर के कुछ द्वीप तो डूब ही जाएंगे, बिलकुल खत्म हो जाएंगे । यह एक बहुत ही गंभीर समस्या है क्योंकि मॉरीशस जैसे कुछ देश, जो सिर्फ छोटे द्वीप हैं, उनके पास जाने के लिए कोई अन्य जगह नहीं हैं । बांग्लादेश जैसे कुछ देश हैं जहां दुनिया के सबसे गरीब लोग रहते हैं । इन देशों की बड़ी आबादी डेल्टा क्षेत्र में रहती है । इनकी हालत पहले से बहुत बदतर हो जाएगी ।
    तो कहां जाएंगे ये सब लोग ? इनके रहन-सहन, खाने-पीने और आजीविका की जिम्मेदारी कौन लेगा ? जो नुकसान उनका होगा, उसका हर्जाना कौन भरेगा ? २०१० में कुछ द्वीप देशों, जिन पर समुद्र के बढ़ते  स्तर का सबसे ज्यादा असर होगा, ने ये मुद्दे उठाए थे । अल्पतम-विकसित देशों की गोष्ठी ने यह मांग करने में उनका साथ दिया था । अन्य देश भी इस मांग से सहमत हैं और भारत उनमें से एक है । तो इस समय शुरू हुई थी लॉस एण्ड डैमेज (नुकसान व भरपाई) पर चर्चा ।
    यह मुद्दा समायोजन से अलग है । समायोजन में वे सब चीजें शामिल हैं जिन्हें विकासशील देशों को करना है । इनमें मूलभूत सुविधाआें का विकास, खेती-बाड़ी व जमीन के उपयोग में परिवर्तन इत्यादि शामिल हैं ताकि वे आने वाले दिनों में उग्र मौसमी घटनाआें की बढ़ती आवृत्ति को झेलने के लिए तैयार हो सके । यानी उन्हें आने वाले संभावित परिदृश्य के लिए फेरबदल करना होगा और ये तैयारियां तो उन्हें खुद ही करनी होगी । समृद्ध देश उनकी सहायता करने पर सहमत हुए हैं ।
    मतभेद तो तब आता है जब नुकसान व भरपाई की बात होती है । नुकसान व भरपाई की बातें उन दुष्प्रभावों को लेकर है जिनको रोकने या कम करने के लिए कोई भी कुछ नहीं कर सकता है, न गरीब देश, न अमीर देश । इन प्रभावों को न तो रोका जा सकता है, न टाला जा सकता है । यानी यदि भविष्य में हम कार्बन डाइऑक्साइड या अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम कर दें तब भी ये दुष्प्रभाव तो होकर रहेंगे । यहां अमीर देश मदद करने से मुकर रहे हैं, जबकि ग्लोबल वार्मिग में उनका प्रति व्यक्ति योगदान सबसे ज्यादा है ।
    किसी भी मुद्दे को लेकर १९५ देशों के बीच सहमति बना पाना आसान काम नहीं होता है । बहुत सारे विमर्श और बहस के बगैर तो ऐसे कामों को अंजाम नहीं दिया जा सकता । किसी भी निर्णय के लिए एक-एक शब्द पर घंटों दिनों की बहस चल सकती है । और कुछ ऐसा ही हुआ वारसा में । वहां एक तरफ दांव पर था कुछ देशों का भविष्य, उनका अस्तित्व और दूसरी तरफ कुछ अमीर देशों का काफी सारी पैसा । जहां कुछ देश इन चर्चाआें से खाली हाथ लौटना नहीं चाह रहे थे, वहीं अमीर देश कोई भी ऐसे निर्णय में शामिल नहीं होना चाह रहे थे जिसकी वजह से आगे जाकर उनको बहुत नुकसान हो ।
    सम्मेलन के खत्म होने के २४ घंटे बाद एक बातचीत चलती रही ओर आखिर में नुकसान व भरपाई की प्रक्रिया पर थोड़ी बहुत सहमति बनी । यह तय हुआ कि उन देशों की मदद के लिए पैसों का इंतजाम तो होना चाहिए जिनको जलवायु परितर्वन के संभावित दुष्प्रभावों को सहना होगा । किन देशों को यह पैसा मिलेगा, कहां से यह पैसा आएगा, कितने पैसे दिए जाएंगे (इसका हिसाब कैसे किया जाएगा), इन सब बातों पर निर्णय २०१५ में पैरिस में होने वाली चर्चाआें में होगा और सारे देश में इन मुद्दों पर सोच-विचार कर आएंगे ।
    वारसा में दो महत्वपूर्ण बातें हुई है - १९५ देशों की सहमति है कि जलवायु परिवर्तन के कारण कुछ ऐसी घटनाएं घट सकती हैं जिनको हम टाल नहीं सकते और इसका हर्जाना उन अमीर व विकसित देशों को भरना पड़ेगा जो ग्लोबल वार्मिग के सबसे बड़े गुनहगार हैं ।
विश्व वानिकी दिवस पर विशेष
रक्षासूत्र आंदोलन अर्थात वृक्ष भ्रातृत्व
सुरेश भाई

    चिपको आंदोलन के बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश व वर्तमान उत्तराखण्ड में वृक्षों को वन विभाग की `काली नजर` से बचाने के लिए महिलाओं ने रक्षासूत्र आंदोलन के  अंतर्गत वृक्षों को भाई मानकर उनकी रक्षा का संकल्प लिया था । वर्ष १९९४ से प्रारंभ हुआ यह पवित्र कार्य अब तक न केवल लाखों वृक्ष भ्राताओं की रक्षा कर चुका है बल्कि इसके माध्यम से जल जंगल व जमीन की देखरेख की नई सोच भी विकसित हुई है ।
    वनों के विनाश को रोकने में भारत सरकार के  वर्ष १९८३ के  चिपको आंदोलन के साथ किए गए समझौते का खुला उल्लंघन कर एक हजार मीटर की ऊंचाई से वनों के कटान पर लगे प्रतिबंध को वर्ष १९९४ में यह कहकर हटा दिया था कि हरे पेड़ों के कटान से प्राप्त धन से जनता के हक-हकूकों की आपूर्ति की जायेगी । वहीं वर्ष १९८३ में चिपको आंदोलन के साथ हुए इस समझौते के  बाद सरकारी तंत्र ने वनों के संरक्षण का दायित्व स्वयं उठाना था । इसके  बावजूद भी टिहरी, उत्तरकाशी जनपदों में वर्ष १९८३ से १९९८ के दौरान गौमुख, जांगला, नेलंग, कारचा, हर्षिल,  चौंरगीखाल, हरून्ता, अडाला, मुखेम, रयाला, मोरी, भिलंग आदि कई वन क्षेत्रों में कोई भी स्थान बचा नहीं था, जहाँ पर वनों की कटाई प्रारम्भ न हुई हो ।


     वर्ष १९९४ में वनों की इस व्यावसायिक कटाई के खिलाफ ''रक्षासूत्र आन्दोलन`` प्रारम्भ हुआ । पर्यावरण संरक्षण से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वनों में जाकर कटान का अध्ययन किया था । यहाँ पर राई, कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, के साथ अनेकों प्रकार की जड़ी-बूटियाँ एवं जैव विविधता मौजूद है । इस दौरान पाया कि वन विभाग ने वन निगम के साथ मिलकर हजारों हरे पेड़ों पर छपान (निशान) कर रखा था । वन निगम जंगलांे में रातों-रात अंधाधंुध कटान करवा रहा था ।
    इस पर्यावरण दल ने इसकी सूचना आस-पास के ग्रामीणों को दी । सूचना मिलने पर गांव के लोग सजग हुए और जानने का प्रयास भी किया गया था कि वन निगम आखिर किसकी स्वीकृति से हरे पेड़ काट रहा   है । इसकी तह में जाने से पता चला कि क्षेत्र के कुछ ग्राम प्रधानों से ही वन विभाग ने यह मुहर लगवा दी थी कि उनके आस-पास के जंगलों में काफी पेड़ सूख गये हैंऔर इसके कारण गांव की महिलाएं जंगल में आना-जाना नहीं कर पा रही हैं । दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि जनप्रतिनिधि भी जंगलों को काटने का  लिए हुए थे । अतएव ग्रामीणों को पहले अपने ही जनप्रतिनिधियों से संघर्ष करना पड़ा ।
    इस प्रकार वन कटान को रोकने के संबंध में टिहरी-उत्तरकाशी के गांव थाती, खवाड़ा, भेटी, डालगांव, चौंडियाट गांव, दिखोली, सौड़, भेटियारा, कमद, ल्वार्खा, मुखेम, हर्षिल, मुखवा, उत्तरकाशी आदि कई स्थानों पर हुई बैठकों में पेड़ों पर ''रक्षासूत्र`` बांधे जाने का निर्णय लिया गया था, जिसे रक्षासूत्र आन्दोलन के रूप में जाना जाता है । रक्षासूत्र आन्दोलन की मांग थी कि जंगलों से सर्वप्रथम लोगों के हक-हकूकों की आपूर्ति होनी चाहिये । साथ ही वन कटान का सर्वाधिक दोषी वन निगम में आमूल-चूल परिवर्तन करने की मांग भी उठायी गयी थी । इसके चलते ऊँचाई  की दुर्लभ प्रजाति कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, दालचीनी, देवदार आदि की अनेकों वन प्रजातियों को बचाने का काम रक्षासूत्र आन्दोलन ने किया ।
    ऊंचाई पर स्थित वन संपदा के  कारण वर्षा नियंत्रित रहती है और नीचे घाटियों की ओर पानी के स्त्रोत निकलकर आते हैं । रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण महिलाओं का पेड़ों  से भाईयों का जैसा रिश्ता बना है । चिपको  आन्दोलन की महिला नेत्री गौरा देवी ने जंगलों को अपना मायका कहा है, उसको रक्षासूत्र आन्दोलन ने मूर्त रूप दिया है और प्रभावी रूप से वनों पर जनता के पारम्परिक अधिकारों की रक्षा का बीड़ा उठाया है । रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण भागीरथी, भिलंगना, यमुना, टौंस, धर्मगंगा, बालगंगा आदि कई नदी जलग्रहण क्षेत्रों में वन निगम द्वारा प्रस्तावित लाखों हरे पेड़ों की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया गया है ।
    रक्षासूत्र आन्दोलन ने ''ग्राम वन`` के विकास-प्रसार पर भी ध्यान दिया । इसके अन्तर्गत जहां-जहां पर लोग परम्परागत तरीके से वन बचाते आ रहे हैं और इसका दोहन भी अपनी आवश्यकतानुसार करते हैं, ऐसे कई गांवों में ग्राम वन के संरक्षण के लिये भी पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे गये । ग्राम वन का प्रबंधन, वितरण व सुरक्षा गांव आधारित चौकीदारी प्रथा से की जाती है । वन चौकीदार का जीवन निर्वाह गांव वालों पर निर्भर रहता है । इसके अंतर्गत गांव वालों की चारापत्ती, खेती, फसल सुरक्षा, जंगली जानवरों  से सुरक्षा तथा पड़ोसी गांव से भी जंगल की सुरक्षा की जाती है। इससे महिलाओं को कष्टमय जीवन से राहत मिलती है । वन संरक्षण व संवर्द्धन के साथ-साथ जल संरक्षण के काम को भी सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया गया ।
    रक्षासूत्र आंदोलन के चलते सामाजिक कार्यकर्ताआेंद्वारा गठित हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने वर्ष १९९५ से लगातार गांव-गांव में महिला संगठनों के साथ ४०० छोटे तालाब बना दिये हैं। इसके साथ ही अग्नि नियंत्रण के लिये भी स्थान-स्थान पर रक्षासूत्र आन्दोलन किया है । परन्तु जब से लोगों को हक-हकूक मिलने कम हुए हैंतब से वनों को आग से बचाये रखना भी चुनौती बनाई गई है ।
    रक्षासूत्र आन्दोलन में सैकड़ों बहनों- मन्दोदरी देवी, जेठी देवी, सुशीला पैन्यूली, सुमती नौटियाल, बंसती नेगी, मीना नौटियाल, कुंवरी कलूडा, गंगा देवी रावत, गंगा देवी चौहान, हिमला बहन, उमा देवी, विमला देवी, अनिता देवी और क्षेत्र की तमाम वे महिलायें जो दिखोली, चौदियाट गांव, खवाडा, भेटी, बूढ़ाकेदार, हर्शिल, मुखेम आदि अनेक गांवों से आती है, ने सक्रिय योगदान दिया है । रक्षासूत्र आन्दोलन की सफलता ने वनों के प्रति एक नई दृष्टि को जन्म दिया। इसके बाद उत्तराखण्ड मेंविभिन्न इलाकांे में विभिन्न मुद्दों को लेकर वनान्दोलन चलने लगे । किन्तु रक्षासूत्र आन्दोलन हर वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर वन बचाने हेतु वन सम्मेलन करवाते हैं, जिसमें प्रत्येक क्षेत्र से कार्यकर्ताआें द्वारा वन सम्बन्धी जानकारियां उपलब्ध करवाई जाती हैं ।
    आन्दोलन की खास बात यह है कि इससे जुड़े कार्यकर्त्ता अपने-अपने क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष सघन वृक्षारोपण के साथ-साथ वनों को बचाने के लिये पेडों के साथ रक्षाबन्धन करते हैं, ताकि लोगों की इन पेड़ों से आत्मीयता बढ़े और वनांे का व्यावसायिक दोहन न हो सके । रक्षासूत्र आन्दोलन द्वारा गि त ''उत्तराखण्ड `` वन अध्ययन जन समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में उन क्षेत्रों का विस्तृत ब्यौरा दिया है जहां पर पिछले १५-२० वर्षो  के  दौरान अवैध कटान किया गया है । उत्तरप्रदेश वन निगम को प्रतिवर्ष जो करोड़ों  रुपयों का लाभ मिलता था उसमें ८० प्रतिशत लाभ उत्तराखण्ड के वनों के  कटान से ही प्राप्त होता था ।
    गढ़वाल विश्वविद्यालय के  पर्वतीय शोध केन्द्र ने रक्षासूत्र की घटनाओं पर एक पुस्तक तैयार की है । नवसृजित उत्तराखण्ड  राज्य मेंजलनीति बनाने की जोरदार वकालत रक्षासूत्र आन्दोलन का दल कर चुका है । उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन की टीम ने नये राज्य की रीति-नीति के लिये राज्य व्यवस्था को जनता के सुझाव कई दस्तावेजों के माध्यम से सौंपे हैं ।
    चिपको आंदोलन के बाद रक्षासूत्र आन्दोलन पेड़ों का कटान रोकने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि जल, जंगल, जमीन की एकीकृत समझ बढ़ाने के प्रति लोगों को जागरूक भी करता आ रहा है ।
अर्थ जगत
जमीनों पर कॉरपोरेट घरानों का मालिकाना हक
डॉ. कृष्णस्वरूप आनन्दी 

    अर्थतन्त्र और राजकाज पर देशी विदेशी कॉरपोरेट घराने काफी हद तक अपनी पकड़ मजबूत कर चुके हैं । उन्होंने न केवल हर क्षेत्र में प्रभावी ढंग से अपना नियन्त्रण बढ़ा लिया है, बल्कि वे यहाँ के मानस को भी सम्मोहित, दिग्भ्रमित या प्रदूषित कर चुके हैं । वे हमारे  जलस्त्रोतों, जंगलों, भूभागों, पहाड़ों और प्राकृतिक संसाधनों  पर नजरें गड़ाये और तरह तरह के षडयन्त्र करके वे उन्हें अपने कब्जे में लेते भी जा रहे हैं। उनके दबाव में आकर सरकारें ऐसी नीतियाँ बना रही हैं और उन पर तेजी से अमल भी कर रही हैं, जिनसे जनगण की जमीनें औनेपौने दामों पर बिक रही हैं और उन्हें खरीद रहे हैं ये कॉरपोरेट महादैत्य।
    लोगों की जमीन पर सार्वजनिक उपक्रम खड़े किये गये थे, जिनका प्रमुख उद्देश्य था औद्योगीकरण के लिए देश में सुविस्तृत आधारभूत ढाँचे का निर्माण और इसके साथ ही, रोजगार सृजन ।  ईस्ट इण्डिया कम्पनी और उसके उत्तराधिकारी ब्रिटिश राज्य उपनिवेशवाद द्वारा रौंदे जाने के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था में अकूत पैमाने पर अनौद्यीकरण हुआ था । 
    स्वतन्त्रता मिलने के बाद स्थापित किये गये सार्वजनिक उपक्रमों ने देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये व्यापक औद्योगिक आधार सृजित किया। लेकिन विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और गैट/डब्ल्यूटीओ की नापाक तिकड़ी द्वारा कॉरपोरेट-नीत बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद के विस्तार के लिये थोपे गये 'वाशिंगटन कन्सेन्सस` समर्थित ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम  देशी विदेशी भीमकाय कम्पनी बहादुरों के सामने घुटने टेक चुके रीढ़विहीन व बौने नेतृत्व; तथा ब्रिटिश राज्य उपनिवेशवाद की गुलामी की विरासत ढो रही भ्रष्ट व निकम्मी नौकर शाही के चलते इन सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के सितारे गर्दिश में डूबते गये । इनके पास देश के अत्यन्त महत्वपूर्ण, स्त्रातजिक और चुनिंदा स्थानों पर बेशकीमती जमीनें हैं, जो देशी विदेशी कॉरपोरेट घरानों के निशाने पर हैं।
    हमारे स्वतन्त्रता संग्राम के  दौरान और स्वतन्त्रता मिलने के काफी बाद तक जमीन का सवाल एक व्यापक मुद्दा रहा है । चाहे सर्वोदय आन्दोलन से जुड़े समाजकर्मी या गाँधीजन रहे हों, चाहे सोशलिस्ट कार्यकर्ता रहे हों या कम्युनिस्ट कैडर व कामरेड सभी ने जमींदारी के खिलाफ आवाज बुलन्द की थी और सभी ने अपने-अपने ढंग से भूमिही़न खेतिहर मजदूरों व असली किसानों के बीच कृषि भूमि के  बँटवारे के लिए लड़ाइयाँ लड़ीं थीं । लेकिन, आज कार्यदिशा या सोच उल्टी हो गयी है । जमींदारी लौट रही है, और बड़े ही वीभत्स या खूंखार रूपों में । लेकिन, इस बार वह राजे-रजवाड़ों, नवाबों, ताल्लुकेदारों  या सामन्तों की नहीं है; बल्कि वह वैश्विक कॉरपोरेट-समूहों की है। मुट्ठीभर स्वाधीनचेता समाजकर्मियों, बुद्धिजीवियों, आन्दो-लनों और संगठनों को छोड़कर प्राय: सभी राजनीतिक दल और स्वैच्छिकगैर-सरकारी संगठन कॉरपोरेट परस्त हो गये हैं । 
    अपने संयन्त्र खड़े करने या 'सेज` विकसित करने के लिये कॉरपोरेट घरानों को जमीनें चाहिये । विकास या औद्योगीकरण को गति देने के नाम पर पहले राज्य सरकारें खुद किसानों और आदिवासियों की खेतिहर जमीनों और रिहाइशी इलाकों को जबरन अधिगृहीत करके कॉरपोरेट-समूहों को दे दिया करती थीं । लेकिन, जब किसानों, ग्रामीण जनों और आदिवासियों ने भू-अधिग्रहण और विस्थापन के विरुद्ध अपने संघर्षों को तीव्र और उग्र करना प्रारम्भ कर दिया, तब सरकारों ने औद्योगिक घरानों को यह छूट दे दी कि वे सीधे लोगों से जमीनें खरीद सकते हैं। अगर वे अपनी किसी परियोजना के  लिये ७०-८० प्रतिशत तक जमीन खरीद लेने में सफल हो जाते हैं, तो उनके लिए सरकार शेष ३० प्रतिशत जमीन का अधिग्रहण कर देगी ।
    कॉरपोरेट-समूहों को दरअसल अपने भीमकाय औद्योगिक संयन्त्रों या विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए हजारों हेक्टयेर क्षेत्रफल वाला विस्तृत भूभाग चाहिए । ज्यादातर ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं, जब एक ही स्थान पर इकट्ठी जमीन उन्हें नहीं मिल पाती हैं यानी बीच में एक रोड़ा आ जाता है । कहने का मतलब यह है कि एक ही इलाके में लगभग पास पास उन्हें ऐसे दो हिस्सों में जमीनें मिल जाती हैं कि उनके ठीक बीचो बीच पड़ने वाले भूखण्डों के  मालिक अड़ जाते हैं कि वे अपनी जमीनें किसी भी कीमत पर नहीं बेचेंगे । ऐसी स्थिति में सरकार परियोजना के लिए एकमुश्त भूभाग बनाने के नाम पर इन अड़ियल किसानों की जमीनों का जबरन अधिग्रहण करके उन्हें औद्योगिक घरानों के हवाले कर देती है । इस प्रकार तमाम सटे हुए खेतों, बागों, पुरवों, टोलों और गाँवों को मिलाकर परियोजना-स्थल तैयार हो जाता है । न जाने कितनी खेतिहर जमीनें, स्थानीय आबादियाँ और रिहाइशी बस्तियाँ कॉरपोरेट नियन्त्रित व संचालित औद्योगीकरण, केन्द्रीकरण एवं शहरीकरण की भेंट चढ़ती जा रही हैं अर्थात् उन पर आबाद हो रहे हैं । औद्योगिक संयन्त्र, व्यावसायिक, काम्प्लेक्स, हाई-टेक् सिटी, सूचना प्रौद्योगिकी पार्क, इन्फ्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर, ग्लोबल बिजनेस स्कूल, सुपर-स्पेशियल्टी हॉस्पिटल तथा स्पेशल इकोनॉमिक जोन जैसे कॉरपोरेट नगर-राज्य  ।
    अगर कॉरपोरेट घरानों द्वारा जमीनें हड़पने का यह सिलसिला इसी तरह बदस्तूर जारी रहा, तो क्या होगा ? देश की अधिकांश जमीनों पर वे काबिज हो जायेंगे । उन पर वे कायम कर लेंगे, अपनी औद्योगिक व व्यावसायिक नगरियाँ तथा उन पर बसा लेंगे ऐशमंजिलों व ऐशमहफिलों वाली अपनी मायापुरियाँ, जिनमें उन्हीं की शाहंशाही चलेगी । अपने ही देश में न जाने कितने घर परिवार, समुदाय, गाँवगिराँव, मज़दूर, किसान, कामगार, दलित जन, पिछड़े व कमज़ोर तबके और आम लोग बेगाने व खानाबदोश हो जायेंगे । इतने विराट्  पैमाने पर विस्थापन होगा, जिसकी अभी कल्पना तक नहीं की जा सकती।
    किसान के लिये खेत सिर्फ जमीन का टुकड़ा-भर नहीं है । खेती किसानी की इसी जमीन पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसका गुज़र बसर होता आया हैं ।  आजीविका के अजस्र स्त्रोत तथा धनधान्य या नवदान्य के अक्षय पात्र हैं.. ये खेतखलिहान । किसान की पुश्तैनी धरोहर उससे छीनी जा रही है - कुछ  लोभ लालच देकर, मुट ीभर पैसे उसके हाथ में फेंककर या बरगला करके औने पौने दाम पर । वन क्षेत्रों, खेतिहर भूखण्डों, सामुदायिक स्थलों, चरागाहों, स्थानीय निकायों की सार्वजनिक भू सम्पत्तीयों, तथा लोक उपक्रमों की बेशकीमती जमीनों पर तेज़ी से कॉरपोरेट घराने काबिज होते जा रहे  हैं ।
    देश में खेती किसानी घाटे का सौदा बनती गयी है । एक अध्ययन के  अनुसार ४० फीसदी से ज्यादा किसान मजबूरी में खेतीबाड़ी कर रहे हैं । अगर उन्हें रोज़गार का कहीं कोई वैकल्पिक जरिया मिल जाय, तो वे खेती किसानी को टाटा कर देंगे । देश के ऐसे चुनिंदा राज्यों में जहाँ कृषि प्रमुख व्यवसाय है और हरित क्रान्ति का सर्वाधिक लाभ जहाँ खेतिहर आबादी को मिला है; वहाँ प्रकृति-विरोधी गल़त तौर तरीकोंके  चलते फसलों के अक्सर विफल हो जाने, महँगे निवेश्य पदार्थों को भारी मात्रा में झोंकते रहने के बावजूद उत्पादकता के  लगातार घटते जाने, कृषि उपज का वाजिब मूल्य न मिल पाने, कर्ज में किसानों के बेतरह डूबते जाने तथा     बाहर से बेरोकटोक आ रही सस्ती कृषि जिंसों से घरेलू बाजारों के पटते जाने से गाँव के  गाँव बिकाऊ  हैं और आत्महत्याओं का अन्तहीन सिलसिला जारी है । कृषि क्षेत्र की यह विषम परिस्थिति कॉरपोरेट घरानों के लिये एक बहुत बड़ा वरदान या मुँहमाँगी मुराद साबित हो रही है ।
    इधर खेती किसानी पर कॉरपोरेट हमले तेज़ होते गये हैं । हमला चौतरफा है। जहाँ एक ओर बहुराष्ट्रीय एग्रीबिजनेस कॉरपोरेशनों का गिरोह इस देश की खेतीबाड़ी का काम अपने हाथों में लेना चाहता हैं अर्थात् कॉरपोरेट फार्मिंग व कॉण्ट्रैक्टुफार्मिंग के जरिये वह खेतिहर जमीनों पर काबिज होना चाहता है; और वहीं दूसरी तरफ देशी विदेशी बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट औद्योगिक घराने खेती-किसानी की जमीनों पर अपने बड़े-बड़े प्लाण्ट या प्रोजेक्ट लगा रहे हैं ।  रीयल एस्टेट (जमीन-जायदाद) के कारोबार में देशी विदेशी कॉरपोरेट भूमाफिया उतर चुके हैं । ऐसे सुविधाभोगी विशिष्ट अभिजन और धनीमानी लोग बड़े-बड़े फार्म हाउस स्थापित कर रहे हैं, जिनका कृषिकर्म से कभी कोई वास्ता नहीं रहा है । कॉलोनाइजरों, बिल्डरों तथा रीयल एस्टेट डेवलपरों का मकड़जाल देशभर में फैलता जा रहा है, जो खेती-किसानी की जमीनों को निगलते जा रहे हैं । ये सब कॉरपोरेट महादैत्यों के दुमछल्ले     हैं । 
 पर्यावरण समाचार
प्रकृति से प्रेरणा लेकर बनाई पत्तियोंजैसी सोलर पैनल
    ऊर्जा की तेजी से बढ़ती जरूरतों के लिए हर रोज नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं । इनमें सोलर पैनल एक महत्वपूर्ण और सबसे ज्यादा पंसद किया जाने वाला विकल्प हे । भारत, अमेरिका, जैसे कई देशों में सोलर पैनल का उपयोग बढ़ गया है और अब लोग भी अपने घरों में इसे बढ़ावा देने में लगे है । कई मौकों पर जगह के अनुरूप सोलर पैनल फिटिंग नहीं हो पाती है । यह समस्या ब्रकूलिन के एसएमआईटी डिजाइन ग्रुप ने खत्म कर दी है ।
    इस ग्रुप ने सोलर पैनल को छोटे आकार में और पत्तियों की तरह तैयार किया है । इसे कहीं भी आसानी से ले जा सकते   हैं । इसकी फिटिंग करना भी आसान है और चाहें तो इसे घर की बाहरी दीवारों पर डिजाइन के तौर पर भी लगा सकते हैं । पत्तियों की तरह छोटे आकार में दिखाई देने वाली यह सोलर पैनल भी बिजली बचाने का काम करेगी । इस सोलर पैनल को बनाने में ऐसी प्लास्टिक का इस्तेमाल किया गया है, जो १०० प्रतिशत रिसाइकिल की की जा सकेगी । इसके डिजाइन ग्रुप ने पैनल को पत्तियों जैसा आकार देने का कारण बताते हुए कहा, ऐसा इसलिए ताकि कोई भी व्यक्ति अपनी जरूरत के अनुसार इसका उपयोग आसानी से कर सके । जिसे जितनी जरूरत होगी, वह उतनी संख्या मे पैनल खरीद सकेगा ।
    इसे किसी भी इमारत को फ्रंट वॉल पर लगाना बेहद अच्छा और पंसदीदा उदाहरण हो सकता है । इमारत में बिजली की लागत कम आएगी और यह सुंदर भी लगेगा । ग्रुप ने कहा, शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा, जिसे यह पंसद नहीं होगी । उनका मानना है कि ऐसी चीजों की तकनीक ऐसी होनी चाहिए जो प्रत्येक व्यक्ति की पहुंच में  हो ।