सोमवार, 17 मार्च 2014

हमारा भूमण्डल
विकृतता और मौतों में समानता
एंड्रयू वास्ले

    पशुआेंको जीएम चारा खिलाने से उनमें विकृतता और असामान्यता बढ़ती जा रही है । इसी के साथ उनकी मृत्युदर भी बढ़ रही है । लेकिन हमारे वैज्ञानिकोंका एक वर्ग इसे एक नई सामान्यता की निगाह से देखता है । जीएम चारे पर निर्भर पशुओं के  माध्यम से निर्मित मानव भोजन पदार्थ भी स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक हैं । लेकिन इन महाकाय बीज कंपनियों के आगे तो जैसे सारी मानवता ही लाचार है । 
    पहली निगाह में लगेगा कि ये पारंपरिक रूप से कटा-छटा मांस है, लेकिन हॉलैंड के सुअर फार्म किसान इब पेडेरसन जब फ्रीजर से उसे निकालते हैं तो जाहिर होता है कि यह तो पूरे के  पूरे साबुत सुअर हैं । इनमें से कुछ बुरी तरह से विकृत हैंया उनमें कई तरह की असामान्यताएं दिखाई पड़ती हैं । पेडरसन का दावा है कि यह जानवरों के भोजन में दिए गए जीनांतरित (जीएम) खाघान्नों का परिणाम है । अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि यह सब कुछ जीएम सोया और विवादास्पद खरपतवारनाशक ग्लायफॉसेट के छिड़काव का परिणाम है । वह प्रतिवर्ष १३००० सुअर का उत्पादन कर उन्हें यूरोप में बेचते हैं लेकिन जानवरों में विकृतता, बीमारी, मृत्यु और निम्न उत्पादकता के बढ़ते स्तर को लेकर वह चिंतित हैं । अतएव उन्होंने पशुओं के  भोजन को जीएम से गैर जीएम किए जाने का प्रयोग आरंभ कर दिया है ।
     उनका कहना है कि इसके जबर्दस्त परिणाम सामने आए हैं । वे कहते हैं, `जब मैं जीएम चारा इस्तेमाल करता था तो मुझे पशुओं में सूजन, पेट में छाले, दस्त की अत्यधिक दर और बढ़ी मात्रा में विकृतता लिए सुअरों  के  जन्म के लक्षण दिखाई देते थे । लेकिन जब  से मैंने गैर जीएम चारा इस्तेमाल करना आरंभ किया तो कुछ ही दिनों  में मुझे इन समस्याओं से निजात मिल गई ।
    इतना ही नहीं इसमें जानवरांे के  स्वास्थ्य में सुधार होने के साथ ही मेरे लाभ में भी वृद्धि हुई । इसकी वजह थी दवाइयों का कम इस्तेमाल और अधिक उत्पादकता । इतना ही नहीं गर्भपात के  मामलों में कमी आई, एक बार में अधिक बच्चें का जन्म हुआ तथा पैदा हुए जानवरों की उम्र लंबी हुई । इससे मानव श्रम घंटों में भी कमी आई, क्योंकि कम सफाई करना पड़ती थी और बीमारियों में भी कमी आई ।
    पेडरेसन का विश्वास है कि विकृतता और अन्य समस्याओं का  आंशिक कारण जीनांतरित (जीएम) सुअर चारे में खरपतवारनाशक ग्लायफोसेट की उपस्थिति ही है। गौरतलब है कि पारंपरिक फसलों की अपेक्षा जीएम फसलों में इनका अत्यधिक प्रयोग होता है । इस तरह के  खरपतवारनाशकों को यूरोपीय संघ ने सन् १९९६ में स्वीकृति दी थी । लेकिन आयातित चारे में इनकी मात्रा तयशुदा से २०० गुना तक अधिक रहती है । इस प्रकार से यह जानवरों एवं मनुष्यों दोनों के लिए घातक हो जाती है । वे यह भी मानते हैं कि उनका कार्य किसी  वैज्ञानिक आधार पर आधारित नहीं बल्कि प्रायोगिक है, लेकिन लोगों को अब सचेत हो जाना चाहिए । क्योंकि अधिकांश लोगों को इस प्रकार की कोई जानकारी ही नहीं है ।
    पेडरसन के इस प्रयोग से हॉलैंड के कृषि जगत में हंगामा खड़ा हो गया । इससे यह बात उभरकर आई कि पूर्ववर्ती प्रतिबंधित (कृषि में) कीटनाशक डीडीटी के छिड़काव की बनिस्बत वर्तमान में होने  वाली मौतें व विकृतता कहीं अधिक हैं ।  आलोचकों ने उनके इस प्रयास को अवैधानिक बताते हुए कहा है कि यदि यह सच होता तो अन्य हजारों किसान/पशुपालक चुप क्यों बैठे  रहते ? लेकिन इसके बावजूद हॉलैड सुअर शोध केन्द्र ने तत्परता से जांच प्रारंभ कर दी है । हालांकि इसके परिणामों का प्रकाशन अभी नहीं हुआ है ।
    जीएम के खिलाफ अभियान चलाने वाले इस खोज के बारे में दावा कर रहे हैंकि तथ्यों की स्थापना बजाए प्रयोगशाला के वास्तविक खेत/फार्म पर हुई है । वैसे इस दावे का समर्थन वहां के पशु विशेषज्ञोंने भी किया है । लीइप्झ विश्वविद्यालय का कहना है कि इस बात के प्रमाण मिलेहैं कि जीएम खाद्यान्नों मनुष्य एवं पशुओं दोनों के लिए ही खतरनाक हैं । शोध बताता है कि इस तरह का खाद्यान्न डेरी के  पशुओं को जहर परोसता है और इससे पशुओं में सड़ी सब्जियों से प्राप्त होने वाले विष से सड़ा हुआ मांस जैसा आभास मिलता है । अतएव इससे `निजात` पाना आवश्यक है। इससे पहले जीएम खाद्यान्न से चूहों की मौत का मामला भी सामने आ चुका है । इस बीच जीएम खाद्यान्न को लेकर हुए अनेक विश्वसनीय अध्ययनों को जीएम बीज उत्पादक कंपनियां नकार चुकी हैं ।    
    यूरोप में प्रतिवर्ष सुअरों, मुर्गियों, गायों, डेरी पशुओं और इसी के  साथ मछलियों (खेती की गई) के  भोजन हेतु तीन लाख करोड़ टन जीएम पशु चारे का आयात किया जाता है । ब्रिटेन अनुमानत: प्रतिवर्ष १,४०,००० टन जीएम सोया और ३,००,००० टन तक जीएम मक्का का आयात पशु चारा हेतु है । अभियानकर्ताओं का कहना है कि इसका अर्थ हुआ बाजार में बिकने वाले मांस एवं  डेरी उत्पादों में से अधिकांश जीएम चारा खाने वाले पशुओं के माध्यम से ही उत्पादित होता है । प्रयोग में लाई गई अधिकांश सोया एवं मक्का दक्षिण अमेरिकी देशों ब्राजील अर्जेंटीना और पेराग्वे में उत्पादित होती है ।
    वहीं ब्रिटेन में मानव भोज्य पदार्थ में मौजूद जी.एम. पदार्थ को चिन्हित किया जाना आवश्यक  है। जबकि जीएम चारा खाए पशुओं से प्राप्त मानव भोजन जैसे मांस, मछली दूध, एवं डेयरी उत्पाद को चिन्हित करने की आवश्यकता नहीं है । इसी गफलत का फायदा उठाकर उपभोक्ताआें को परोक्ष रूप से जीएम खाद्यान्न खिलाया जा रहा है । दि सॉइल एसोसिएशन का कहना है कि इस प्रकार के आयातित खाद्यान्नों के बारे में ६७ प्रतिशत उपभोक्ताआें का मत है कि जीएम चारे से निर्मित पदार्थों को चिन्हित करना आवश्यक है ।
    वहीं फ्रांस के विशाल खुदरा श्रृंखला केरीफोर ने सन् २०१० में खाद्य पदार्थोंा को चिन्हित करने की योजना प्रारंभ की जिसके अंतर्गत ग्राहकों को जानकारी दी गई थी कि भोज्य पदार्थ उत्पादित करने में प्रयोग में आए पशुओं को जीएम चारे से पोषित नहीं किया गया है । इस तरह के ३०० उत्पाद अब इस सुपर बाजार में उपलब्ध हैं । साथ ही यह भी पाया गया है कि ६० प्रतिशत ग्राहक यह पाए जाने पर कि पशुओं को जीएम चारा खिलाया गया है, ऐसे उत्पादों को खरीदना बंद कर देते हैं । इसी तरह की योजनाएं अन्य बड़ी यूरोपीय खुदरा श्रृंखलाओं ने भी अपना ली है ।
    टेस्को, सेंसबरी, दि को. ऑप. एवं मार्क एवं स्पेंसर द्वारा यह घोषणा किए जाने से कि वे इस बात की ग्यारंटी नहीं दे सकते कि उनके द्वारा बेचे जाने वाले उत्पाद जीएम मुक्त हैं, ब्रिटेन में तनाव बढ़ गया है । इन खुदरा व्यापारियों का कहना है कि इससे उनके आपूर्तिकर्ताओं के सामने संकट खड़ा हो जाएगा । वैसे भी जीएम मुक्त उत्पाद अब दिवास्वप्न  की तरह हैं ।
    ब्रिटेन के खाद्य व्यापारियों ने पर्यावरण पत्रिका दि इकोलाजिस्ट से कहा कि जीएम को अब सफलतापूर्व किसानों पर थोप दिया गया है और अब किसानों के  पास कोई विकल्प नहीं बचा है । इतना ही नहीं यदि आयातक को जीएम चारे से दिक्कत नहीं है तो हमें परेशान होने की क्या आवश्यकता है। वैसे भी जीएम चारा काफी सस्ता पड़ता है । उधर दूसरी ओर सहकारिता समूहों का कहना है कि हम सन् २००३ से       इस बात के लिए प्रयासरत हैं किगैर जीएम उत्पादों की उपलब्धता में वृद्धि की  जाए । लेकिन यह दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है । इसकी वजह है कि गैर जीएम खाद्य पदार्थों का उत्पादन दिनों दिन घटता जा रहा है । इससे साफ जाहिर  है कि साफ व स्वच्छ खाद्य पदार्थ मिलने की संभावनाएं भी कम हो रही   हैं ।

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