मंगलवार, 11 सितंबर 2012



शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

प्रसंगवश
खरमोर : मालवा के  खास मेहमान
 बरसात में चार माह के समय में मध्यप्रदेश में सरदारपुर और सैलाना में खरमोर खास मेहमान होते है । हर बार की तरह इस वर्ष भी प्रवासी पक्षी खरमोर ने सैलाना मेें डेरा डाल लिया है । ये पक्षी बरसों से सैलाना के खरमोर अभ्यारण्य में हनीमून के लिए आते हैं और अपना परिवार बढ़ाकर बरसात समािप्त् के बाद यहां से चले जाते हैं । ये पक्षी हजारों किमी दूर दक्षिण भारत के रास्ते मालवाचंल में चार माह व्यतीत करने आते है ।
    प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ डॉ. सलीम अली इन शर्मिले पक्षियों को खोजते हुए सन् १९८३ में सैलाना आए थे । सन् १९८३ में पहली डॉ. अली ने जब खरमोर पक्षी को दूरबीन से देखा था तो खुशी से उछल पड़े थे । बाद में उनके अनुरोध पर ही सैलाना के शिकारवाड़ी क्षेत्र को सरकार ने खरमोर अभ्यारण्य घोषित कर खरमोर को संरक्षण देने के प्रयास शुरू किये  । वन परिक्षेत्राधिकारी प्रदीप कछावा ने बताया कि प्रतिवर्ष जुलाई से अक्टूबर तक का समय यहां बीताकर खरमोर वापस लौट जाते है । 












खरमोर को मालवा क्षेत्र प्रजनन के लिए उपयुक्त लगता है । खरमोर नर की अपेक्षा मादा का कद छोटा होता है । मादा को रिझाने का भी नर का अजीब तरीका है । नर खरमोर एक दिन में ३०० से ४०० बार जमीन से लगभग एक मीटर ऊपर उछल-उछल कर मादा खरमोर को आकर्षित करता है । करीब पौने दो माह बाद मादा अंडे देती  है  और सवा महीने में अंडे से बच्च निकलता है । श्री कछावा के अनुसार खरमोर की जानकारी देने, उनके अंड़ों को संभालने, सहेजने वाले किसानों को वन विभाग द्वारा नकद पुरस्कार भी दिया जाता है । खरमोर शर्मिला पक्षी है । जरा-सी आहट से वे घास के अंदर छुप जाते हैं । इस वर्ष २६ खरमोर आए हैं । इनमें १६ नर और १० मादा खरमोर है ।
    सैलाना में आने वाले खरमोर पक्षी की संख्या - वर्ष २००१ में १४, वर्ष २००२ में ०९, वर्ष २००३ में १५, वर्ष २००४ में ०७, वर्ष २००५ में २६, वर्ष २००६ में २८, वर्ष २००७ में २७, वर्ष २००८ में ३८, वर्ष २००९ में ३२, वर्ष २०१० में २४, वर्ष २०११ में २० एवं वर्ष २०१२ में २६ पक्षी दिखाई दिए ।
संपादकीय 
विदेशी बैकों पर नजर रखने के लिए कानून

भारत सहित दुनिया के कई देशोंमें बैकिंग सिस्टम की कमजोरियों का फायदा उठाकर आतंकी तत्व अवैध धन का इस्तेमाल दहशत फैलाने के काम में कर रहे है ।
    केन्द्र सरकार देश में काम कर रहे विदेशी बैंकों व वित्तीय संस्थाआें पर नकेल कसने की तैयारी में है । मकसद है कालेधन के अवैध प्रवाह को रोकना ताकि आतंकी नेटवर्क या अन्य देश विरोधी गतिविधियोंमें इस धन का इस्तेमाल न किया जा सके ।सरकार की उच्च् स्तरीय कमेटी ने सिफारिश की है कि देश में काम कर रहे विदेशी बैंक, वित्तीय संस्थाएं व फंड स्थानांतरित करने वाली एजेंसियां संस्थानों में ग्लोबल ट्रांजेक्शन की जानकारी सरकार को महुैया कराएं । इसके लिए सरकार से कानून बनाने को कहा गया है । इस बाबत् नियमावली तैयार करने व अनुबंध आधार पर लाइसेसिंग व्यवस्था बनाकर इस पर अमल करने की सिफारिश भी सरकार से की गई है । समिति का तर्क है कि कई देशोंने इस तरह के इंतजाम किए है । उनके यहां काम कर रही संस्थाआें को वित्तीय लेनदेन का ब्यौरा सरकार को देना होता है ।
    अपनी सिफारिश में उच्च् स्तरीय समिति ने कहा है कि भारत की फाइनेशियल इंटेलीजेंस यूनिट (एफआईयू) को कानून के जरिए ताकत दी जाए जिससे वह सभी तरह के इंटरनेशनल फंड स्थानांंतरण की रिपोर्ट हासिल कर सके । एफआईयू आस्ट्रेलिया और एफआईयू कनाडा को इस तरह की रिपोर्ट देना अनिवार्य है । समिति चाहती है कि संदिग्ध लेन-देन के बारे मेंजानकारी देने कोताही बरतने पर जिम्मेदारी तय हो ।
    कुछ लोग मानते है कि सरकार के पास पहले से बहुत से कानून है । नए कानून के बजाए पहले से मौजूद कानूनों पर कायदे से अमल करने की जरूरत है । एक और कानून बनाने के बजाए हमें पहले से मौजूदा नियम कानूनों का क्रियान्यन दुरूस्त करने पर ध्यान देना चाहिए ।
सामयिक
भाषा पर विकास का संकट
                                         प्रमोद भार्गव

    भारत सहित विश्वभर में भाषाई विविधता समाप्त् होती जा रही है । पहनावे के बाद अब भाषा पर आया संकट अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है । कहा जाता है कि भाषा अपनी संस्कृति भी साथ लाती हेै । अंग्रेजी से हमारे साक्षात्कार से यह सिद्ध भी हो चुका    है ।
    अंग्रेजी वर्चस्व के चलते भारत समेत दुनिया की अनेक मातृभाषाएं  अस्तित्व के संकट से जुझ रही हैं । भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है क्योंकि यहां कि १९६ भाषाएं विलुिप्त् के कगार पर है । भारत के बाद अमेरिका की स्थिति चिंताजनक है, जहां की १९२ भाषाएं दम तोड़ रही हैं । दुनिया में कुल ६९०० भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से २५०० विलुिप्त् के कगार पर हैं ।बेलगाम अंग्रेजी इसी तरह से पैर पसारती रही तो एक दशक के भीतर करीब ढाई हजार भाषाएं पूरी तरह समाप्त् हो जाएंगी । भारत और अमेरिका के बाद इंडोनेशियाकी १४७ भाषाआें को जानने वाले खत्म हो जाएंगे । दुनिया भर में १९९ भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों से भी कम है ।
    कैरेम भी एक भाषा है जिसे उक्रेन में मात्र छह लोग बोलते हैं । इसी तरह ओकलाहामा में विचिता भी एक ऐसी भाषा है जिसे देश में मात्र दस लोग बोल पाते हैं । इंडोनेशिया की लेंगिलू बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं । १७८ भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या १५० से भी कम है । भाषाआें को संरक्षण देने की दृष्टि से ही १९९० के दशक में हर साल अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की गई थी, लेकिन दो दशक बीत जाने के भाषाआें के बचाने के कोई सार्थक उपाय सामने नहींआ पाए ।    
    कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती है तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता में कमी और उससे मिलने वाले रोजगारमूलक कार्योंा में भी कमी आने लगती है । क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें हैं । इन्हें मुख्यधारा में लाने के  बहाने, हम अन्हें तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं । कोई भी भाषा कितने ही छोटे क्षेत्र में एवं कम से कम लोगों द्वारा बोली जाने के बावजूद  उसमें पारंपरिक ज्ञान के असीम खजाने की उम्मीद रहती है । ऐसी भाषाआें का उपयोग जब मातृभाषा के रूप में नहीं रह जाता है तो वे विलुप्त् होने लगती     हैं ।  धरती पर बोली जाने वाली ऐसी सात हजार से भी ज्यादा भाषाएं हैं जो सन् २१०० तक विलुप्त् हो सकती हैं ।
    हर पखवाड़े भारत समेत दुनिया में एक भाषा मर रही है । इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व अन्य जनजातीय भाषाएं है, जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त् हो रही हैं । ये भाषाएं बहुत उन्नत हैं और पारंपरिक ज्ञान का कोष हैं । भारत में ऐसे हालात सामने भी आने लगे है कि किसी एक इंसान की मौत के साथ उसकी भाषा का भी अंतिम संस्कार हो जाए । गणतंत्र दिवस २६ जनवरी २०१० के दिन अंडमान द्वीप समूह की ८५ वर्षीया बोआ के निधन के साथ ही एक महान अंडमानी भाषा बो भी हमेशा के लिए विलुप्त् हो गई । इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वे अंतिम इंसान थी । इसके पूर्व नवम्बर २००९ में एक और महिला बोरो की मौत के साथ खोरा भाषा का अस्तित्व समाप्त् हो गया । इन भाषाआेंऔर लोगों का वजूद खत्म होने का प्रमुख कारण इन्हें जबरन मुख्यधारा से जोड़ने का छलावा है । ऐसे हालातों के चलते ही अनेक आदिम भाषाएं विलुिप्त् के कगार पर हैं ।
    अंडमान-निकोबार द्वीप की भाषाआें पर अनुसंधान करने वाली जवाहरलाल नहेरू विश्वविद्यालय की प्राध्यापक अन्विता अब्बी का मानना है कि अंडमान के आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के जो प्रयास किए गए हैं उनके दुष्प्रभाव से अंडमान द्वीप क्षेत्र में जो १० भाषाएं प्रचलन में थी, पर साफ नजर आते हैं । धीरे-धीरे ये सिमट कर ग्रेट अंडमानी भाषा बन     गई । यह चार भाषाआें के समूह के समन्वय से बनी ।
    भारत सरकार ने उन भाषाआें के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें १० हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते है । २००१ की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी १२२ भाषाएं और २३४ मातृभाषाएं हैं । भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या १० हजार से कम है, उन्हें गिनती में शामिल हीं नहीं किया गया ।
    चिेंता का विषय यह है कि ऐसे क्या कारण और परिस्थितियां रही की बो और खोरा भाषाआें की जानकार दो महिलाएं ही बची रह पाई । ये अपनी पीढ़ियों को उत्तराधिकार में अपनी मातृभाषाएं क्यों नहीं दे पाई । दरअसल इन प्रजातियों की यही दो महिलाएं अंतिम वारिस थीं । अंग्र्रेजों ने जब भारत में फिरंगी हुकूमत कायम की तो उसका विस्तार अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों तक भी किया । अंग्रेजों की दखल और आधुनिक विकास की अवधारणा के चलते इन प्रजातियों को भी जबरन मुख्यधारा में लाए जाने के प्रयास का सिलसिला शुरू किया गया । इस समय तक इन समुद्री द्वीपों में करीब १० जनजातियों के पांच हजार से भी ज्यादा लोग प्रकृति की गोद में नैसर्गिक जीवन व्यतीत कर रहे थे ।
    बाहरी लोगों का जब क्षेत्र में आने का सिलसिला निरन्तर जारी रहा तो ये आदिवासी विभिन्न जानलेवा बीमारियों की गिरफ्त में आने लगे । नतीजतन गिनती के केवल ५२ लोग जीवित बच पाए । ये लोग जेरू तथा अन्य भाषाएं बोलते थे । बोआ ऐसी स्त्री थी जो अपनी मातृभाषा बो के साथ मामूली अंडमानी हिन्दी भी बोल लेती थी । लेकिन अपनी भाषा बोल लेने वाला कोई संगी-साथी न होने के कारण ताजिंगदगी उसने गंूगी बने रहने का अभिशाप झेला । भाषा व मानव विज्ञानी ऐसा मानते हैं कि ये लोग ६५ हजार साल पहले सुदूर अफ्रीका से चलकर अंडमान में बसे थे ।
    नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी एंड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजेज के अनुसार हरेक पखवाड़े एक भाषा की मौत हो रही है । पूरी दुनिया में कुल सत्ताइस सौ भाषाएं संकटग्रस्त हैं। इन भाषाआें में असम की १७ भाषाएं शामिल हैं । यूनेस्कों द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी, मिसिंग, कछारी, बेइटे, तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं है ।
    इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है । नई पीढ़ी के सरोकार असमिया, हिन्दी और  अंग्रेजी तक सिमट गए हैं । इसके बावजूद २८ हजार लोग देवरी भाषी मिसिंगभाषी साढ़े पांच लाख और बेइटे भाषी करीब १९ हजार लोग अभी भी है । इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाआें के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं । घरों में, बाजार में व रोजगार में इन भाषाआें का प्रचलन कम होते जाने के कारण नई पीढ़ी इन भाषाआें को सीख पढ़ नहीं रही हैं ।
    भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं । व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेजी रोजगारमूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है । इन कारणों से उत्तरोत्तर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेजी अपनाने को विवश है ।
    प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाआें में हीन भावना भी पनप रही है । इसलिए जब तक भाषा संबंधी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता तब तक भाषाआें की विलुिप्त् पर अंकुश लगाना मुश्किल है । अपनी सांस्कृतिक धरोहरों और स्थानीय ज्ञान-परंपराआें को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम भाषाआें और उनके जानकारों की वंश परम्परा को भी अक्षुण्ण बनाए रखने की चिंता करें ।
हमारा भूमण्डल
चारे से जहरीली होती सभ्यता
                             डॉ. ईवा सिरनाथ सिंगजी

    अनादिकाल से पशुधन कृषि अवशेष या अधिशेष पर निर्भर रहा है । आधुनिक खेती ने चारे का संकट पैदा कर दिया है, जिसकी किसी न किसी तरह भरपाई हो रही है । वहीं दूसरी तरफ सोयाबीन जैसी फसलें कमोवेश पशुआहार के लिए लगाई जा रही है । लेकिन जी.एम. फसलों का चारा भी जहरीला है । जी.एम. फसलों को कृषि का भविष्य बताने वालों से पूछना चाहिए कि क्या वे बिना पशुधन के मानव सभ्यता की कल्पना कर सकते हैं ?
    महाकाय बायोटेक कंपनी सिजेंटा पर वर्ष २००७ में जर्मनी में एक दीवानी न्यायालय में अंतिम निर्णय पर पहुंचे मुकदमे में इस बिना पर आपराधिक कार्यवाही की गई थी क्योंकि उसने इस बात से इंकार किया था कि उसे इस बात की जानकारी है कि जैव संवर्द्धित (जीएम) बी.टी. मक्का से पशुआें की मृत्यु हो सकती है । सिजेंटा की बी.टी. १७६, मक्का में बेक्ट्रिम से निकाला गया कीटनाशक बी.टी. टॉक्सीन (जहर) (क्राय१ ए.बी.) पाया जाता है, जो कि बेसिलियस थुरूजेनिसस (बी.टी.) जो कि एक विशिष्ट खरपतवार निरोधी है । यूरोपीय यूनियन ने वर्ष २००८ से बी.टी. १७६ को लगाना बंद कर दिया है । लेकिन इसी तरह की अन्य किस्में जिसमें मीठे मक्का की बी.टी. ११ शामिल है, का मनुष्य एवं जानवरों के खाने के लिए उत्पादन किया जा रहा    है । ये आरोप एक जर्मन किसान ग्लोक्नेर ने न्याय पाने की आस में लगाए थे, जिसके डेरी फार्म में पशुआें द्वारा बी.टी. १७६ खाए जाने पर उनकी रहस्यमयी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई थी ।
    यह मक्का उसके खेत में एक अधिकृत मैदानी परीक्षण के हिस्से के रूप में सन् १९९७ से २००२ तक पैदा की गई थी । वर्ष २००० तक उसकी गायों को पूर्णत: बी.टी. १७६ ही खिलाया गया इसके तुरन्त बाद बीमारी उभरी । सिजेंटा ने उसकी पांच गायों की मृत्यु दूध में आई कमी एवं दवाईयों की कीमत के बदले आंशिक मुआवजे के रूप में ४० हजार युरो का भुगतान किया था । सिजेंटा ने यह मानने से इंकार कर दिया कि इसका कारण जी.एम. मक्का है और यह दावा भी किया था कि उसे नुकसान की कोई जानकारी नहीं है । अंतत: न्यायालय में यह मामला रद्द हो गया और ग्लोक्नेर हजारों यूरो के कर्ज में डूब गया लेकिन ग्लोक्नेर के यहां गायें मरती रहीं और गंभीर बीमारी की वजह से कईयों ने दूध देना बंद कर दिया । अंतत: उसने मजबूरन होकर सन् २००२ से जी.एम. मक्का खिलाना बंद कर   दिया । इस संबंध में पूर्ण अनुसंधान हेतु उसने राबर्ट कोच संस्थान एवं सिजेंटा के  द्वार खटखटाए । लेकिन केवल एक गाय का परीक्षण हुआ और संबंधित जानकारी अभी तक सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैं । मृत्यु को लेकर कोई स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया ।
    लेकिन सन् २००९ में किसान को पता चला कि सिजेंटा द्वारा वर्ष १९९६ में चारे को लेकर किए गए एक अध्ययन में दो दिनों में चार गायों के मरने की बात सामने आई थी । लेकिन इस परीक्षण को बची में तत्काल रोक दिया गया । लेकिन अब ग्लोक्नेर ने एक जर्मन समूह बंडिस एक्शन जेंकलाज एवं कृषक कार्यकर्ता अर्स हांस के साथ सिजेंटा पर यह आरोप लगाते हुए कि उसने अमेरिका में हुए परीक्षणों से संबंधित जानकारी छिपाई है, उसे आपराधिक न्यायालय में ला खड़ा   किया । गौरतलब है कि इससे कंपनी इस किसान के डेरी फार्म में नष्ट हुई ६५ गायों के लिए जिम्मेदार ठहरायी जा सकती है ।
    सिजेंटा पर अमेरिकी परीक्षण के दौरान जानवरों की मृत्यु एवं ग्लेक्नार के डेरी फार्म पर हुई पशुआें की मृत्यु यानि अनपेक्षित घटना के संबंध में मुकदमा चलाया जा सकता   है । इन सबसे गंभीर बात यह है कि सिजेंटा के जर्मनी प्रमुख ह्ांस थियो जाइमन पर न्यायाधीश एवं ग्लाक्नेर से मूल दीवानी मुकदमें में अमेरिकी अध्ययन की जानकारी छिपाने का आरोप भी लगाया गया है ।
    केवल ग्लाक्नेर की गायों तक सीमित नहीं है - बी.टी., जी.एम. खाद्य से मौतों का यह काई बिरला मामला नहीं है । भारत में जहां कपास की फसल कट जाने के बाद पशुधन को खतों में चरने के लिए  छुट्टा छोड़ दिए जाने की परम्परा है, वहां मध्य भारत में बी.टी. कपास लगाने वाले अनेक गांवों में हजारों पशुआें के मारे जाने की बात सामने आई है । गडरियों का अपना मत एवं पोस्टमार्टम के बाद प्रयोगशाला मेंकिए गए विश्लेषण बताते हैं कि इन पशुआें में असामान्य लिवर, बढ़ा हुआ पित्ताशय और अंतड़ियों में काले धब्बे पाए गए थे । गडरियों का कहना है कि चरने के दो-तीन दिन के भीतर ही भेड़े सुस्त/अवसाद ग्रस्त हो गई एवं उन्होनें नाक से बहाव निकलने के साथ खांसना शुरू कर दिया और उनके मुंह मेंलाल घाव हो गए, उनमें धब्बे दिखाई देने लगे और काले दस्त भी होने लगे तथा कई बार उन्हें लाल पेशाब भी हुई ।
    इन खेतों में चरने के पांच से सात दिन के भीतर उनकी मृत्यु हो    गई । छोटे मेंमनों से लेकर डेढ़-दो वर्ष की वयस्क भेड़ों पर इसका प्रभाव पड़ा । यह बात भी सामने आई कि एक प्रभावित भेड़ का मांस खाने से एक गड़रिये को भी उल्टी दस्त होने लगे । पशु चिकित्सकों का कहना है कि यह जहर बी.टी. का हो सकता है लेकिन इसे इसलिए सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि खेतों में अन्य कीटनाशकों का भी प्रयोग होता है । इसलिये गडरियों को सलाह दी गई कि वे अब अपनी भेड़ों को बी.टी. कपास के खेतों में चरने न दें ।
    फिलिपींस में बी.टी. मक्का के खेतों के आसपास रहने वाले ग्रामीणों में भी मृत्यु के मामले सामने आए हैं साथ ही इसी तरह की बीमारियां जैसे बुखार, सांस, अतड़ियों एवं त्वचा की समस्याएं भी उजागर हुई है । वर्ष २००३ में पांच मौतों की बात सामने आई एवं इसके बाद ३८ व्यक्तियों के खून की जांच       से यह सिद्ध हुआ कि उन सभी की क्राय-१ ए.बी. जैसे जहर के विरूद्ध प्रतिरोधकता समाप्त् हो गई है । जैसा कि ऐसे मामलों में अक्सर होता है सरकारी अधिकारियों के डर एवं अस्वीकार्यता की वजह से इस मामले में आगे कोई जांच नहीं हो पाई ।
    मृत्यु का कारण अज्ञात - अधिकारी अभी भी ग्लक्नार की गायों की मृत्यु का कोई कारण नहीं बता पा रहे हैं । बायोटेक उद्योग का यह दावा है कि बी.टी. जहर पेट में तुरन्त घुल जाता है और यह केवल लक्षित कीट प्रजाति पर ही प्रभावशाली रहता है । हाल ही में कनाडा में  हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि वहां परीक्षण की गई ८० प्रतिशत महिलाआें एवं उनके अजन्में बच्चें के खून में यह जहर मौजूद है । इसकी वजह यह है कि लम्बे समय से मौजूद मिट्टी बेक्टेरियम में प्राकृतिक रूप से विद्यमान बी.टी. जहर इस्तेमाल किया जाता रहा है । वहीं दूसरी ओर बी.टी. फसलों में मौजूद बी.टी. प्रोटीन में दीर्घावधि तक के जहरीलेपन एवं स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों का आकलन ही नहीं किया गया है ।
    प्राकृतिक रूप से उत्पादित जहर और जी.एम. संवर्द्धित जहर में अंतर यह है कि प्राकृतिक उत्पादित जहर फसलों से अपने आप घुल जाता है जबकि जी.एम. संवर्द्धित फसलों में तो यह जी.एम. फसल का ही हिस्सा हो जाता है । स्वतंत्र अध्ययन बताते हैं जी.एम. खाद्यों का स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों का नकारना न केवल हठीलापन है बल्कि मूर्खता भी है ।
    नब्बे के दशक से हो रहे वैज्ञानिक अध्ययन बताते है कि इसमें इस्तेमाल होने वाले जहर का चूहों पर हैजा के विषाणुआें जैसा ही प्रभाव हुआ है । बी.टी. कपास के खेतों में कार्य कर रहे लोगों को लगातार एलर्जी की शिकायत बनी रहती है और उन्हें कई बार अस्पताल में भी भर्ती करना पड़ता है । इतना ही नहीं क्राय-१ ए.बी. के परिणामस्वरूप चूहों में दस्त की शिकायत में सामने आई है । प्रयोगशाला के जानवरों पर बी.टी. मक्का के परीक्षण से इनके खून के प्रोटीन एवं लिवर में असामान्यता की बात सामने आई है । हाल ही में मानव किडनी सेल पर    क्राय-१ ए.बी. के परीक्षण के दौरान इसकी कम खुराक के बावजूद सेल नष्ट होने के प्रमाण मिले हैं।
    आवश्यकता इस बात की है कि नए जी.एम. उत्पादों की सुरक्षा आकलन का परीक्षण उसी उद्योग द्वारा न हो, जो कि इन्हें बाजार में उतारना चाहता है । हितों के टकराव से बचा जाना चाहिए क्योंकि इससे अस्पष्ट आंकड़े ही सामने आएंगे । लेकिन आवश्यकता यह है कि सही आकलन हो क्योंकि यह हमारे कृषि उद्योग, पशुधन कल्याण के साथ ही साथ मानव स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण  है ।
विशेष लेख
काफी -आधुनिकता का पेय
ईश्वरचन्द्र शुक्ल/वीरेन्द्र कुमार

    आजकल अभिजात्य वर्ग के लोग काफी पीना अधिक पंसद करते हैं । अनेक प्रकार के स्वाद की काफी का चलन है, देश मेें विशेष अवसरों पर काफी ही पिलाई जाती है । इसका स्वाद जब आप पहली बार पियेंगे तो रूचिकर नहीं लगेगा । लेकिन आदत डालने पर स्वादिष्ट लगता है । विदेशों में काफी पीना स्वास्थ्यकर माना जाता हैं वहाँ पर अधिक से अधिक पचास मिली. सान्द्र काफी चीनी तथा दूध रहित ही पंसद की जाती है ।
    काफी पाउडर जो हम प्रयोग करते हैं उसे एक पौधे की फलियों के बीज से प्राप्त् किया जाता है । इसका नाम काफी एरेबिका, काफी रोबस्टा तथा काफी लिबेरिका है । लिबेरिका की गुणवत्ता कुछ कम होती है । पौधे के लाल पके हुए बेरी में दो फलियाँ होती हैं, जिन्हें काफी बनाने में प्रयोग किया जाता है । इस फली के बीज म्यूसिलेज, पल्प तथा झिल्ली से ढके होते हैं । अलग की गयी फलियाँ हल्के नीले रंग की होती हैं जिसे हरी काफी कहा जाता है । इसका स्वाद अरूचिकर होता है तथा सुगन्ध की कमी होती है । भूनने के बाद इन बीजों में एक विशिष्ट सुगन्ध पैदा होती है जो कि कई भौतिक तथा रासायनिक परिवर्तनों के कारण होती  है । हरी काफी की फलियों के आकार तथा बनावट में अन्तर होता है तथा इन्हें हाथ से ही कई श्रेणियों में बांटा जाता    है ।
    काफी को चिकोरी के साथ मिलाया जाता है जिसकी मात्रा पचास प्रतिशत तक हो सकती है । चिकोरी एक प्रकार का पावडर है जो कि चिकोरियम इन्टायबस की जड़ से प्राप्त् किया जाता है । इससे काफी की सान्द्रता कम होती है तथा काफी पेय में तीखापन और सुगन्ध पैदा होती है । घुलनशील काफी या त्वरित काफी एक ठोस पदार्थ है जिसे काफी के अति सान्द्र घोल से निर्वात छिड़काव सुखाने की एक विधि द्वारा प्राप्त् किया जाता है । यह काफी पानी में अतिशीघ्र घुलनशील होती है । काफी पेय की गुणवत्ता इसकी सुगन्ध, रंग, तीखापन तथा उत्तेजनात्मक प्रभाव से आंकी जाती है । काफी के दुष्प्रभावों को रोकने हेतु इसकी हरी फलियों से घोलक निष्कर्षण द्वारा कैफीन को निकाला जा सकता है । इसके लिये डायक्लोरो मीथेन का प्रयोग किया जाता है । काफी पेय का स्वाद तथा विशेषता के लिए कई शब्द प्रयोग किये जाते है । मानक पेय का मीठा, खट्टा, फलों वाला, फलों के छिलके वाला स्वाद भी होता है जो कि अनुपयुक्त फलियों के प्रयोग के कारण होता है । मोहक सुगन्ध से भरपूर शराब जैसा सूखी घास वाला स्वाद या सुगन्ध युक्त सामान्य माना जाता है ।
    काफी में कैफीन तथा ट्रायगोनेलीन मुख्य एल्कोलायड पाये जाते हैं । भूनने के बाद कैफीन एक अम्ल के साथ निष्कर्षित हो सकती है । हरी फलियों में यह मुख्यत: क्लोरोजेनिक अम्ल के साथ रहता है । काफी पेय का तीखापन टैनिन तथा कैफीन के कारण होता है । उबालने पर ये पानी में निष्कर्षित हो जाते है तथा तीखापन प्रदान करते हैं । भूनने पर फलियों में सुगन्ध पैदा होती है जो कि विभिन्न प्रकार के वाष्पशील पदार्थो जो कि एक साथ बन जाते हैं के कारण होती है, इन्हें कैफीनाल कहते हैं । ये मुख्यत: गंधक युक्त यौगिकों से भरपूर होते हैं । भूनने पर सुक्रोज (गन्ने की शक्कर) अपघटित हो जाती है जिससे पेय में रंग आता है । ट्रायगोनेलीन अपघटित होकर पायरिडीन तथा निकोटिनिक अम्ल बनाता है । काफी का उत्तेजक प्रभाव कैफीन के कारण होता है ।
    क्लोरोजेनिक अम्ल ही मुख्यत: कार्बनिक अम्ल हरी फलियों में होता है इसके साथ ही नगण्य मात्रा में सिट्रिक तथा मौलिक अम्ल होते हैं । इसकी मात्रा भूनते समय कम हो जाती है । इसके अपघटन से ही सुगन्ध पैदा होती है । काफी की मधुर गंध कैफियोल समूह के पदार्थो के कारण होती है । इसमें मुख्यत: एसिटल्डिहाइड, एसीटोन, डायएसिटिल, वैलेरेल्डिहाइड तथा अन्य पदार्थो जिनकी संख्या लगभग तीन सौ होती है उपस्थित होते हैं । ये मुख्यत: एल्कोहॉल, ईथर एल्डिहाइड, कीटोन, डायकीटोन, एस्टर, फीनॉल तथा गंधक और फ्यूरॉन की प्रकृति के होते हैं ।
    फलियों से काफी के निर्माण की प्रक्रिया भी बड़ी लम्बी होती है । सर्वप्रथम फलियों को साफ किया जाता है तथा पल्प एवं आवरण को हटाया जाता है । यह प्रक्रिया प्राकृतिक ढंग से की जाती है । फलियों को पेड़ पर सूखने दिया जाता है या फिर मशीन में डालकर धोया जाता है । प्राकृतिक रूप से प्राप्त् फलियों को संतोस कहा जाता है । पल्प सहित फलियों के आकार के अनुसार विभाजित किया जाता है तथा किण्वन पात्र से प्रवाहित किया जाता है । किण्वन म्यूसिलेज पर्त को हटाता है । फलियों को पानी भरे पात्र में दो-तीन दिन तक रखा जाता है जिससे कि क्रिया पूर्ण हो सके ।
    म्यूसिलेज रहित फलियों को धूप या हीटर के माध्यम से सुखाया जाता है । नमी के आधार पर फलियोंका रंग बदलता है जिसमें लगभग ३० प्रतिशत सफेद से काली, १२ प्रतिशत भूरी हरी तथा १० प्रतिशत भूरी नीली हो जाती   है । आवश्यकता से अधिक सूखापन पीला रंग कर देता है । इस प्रकार प्राप्त् फलियाँ समान रूप से नीली, नीली भूरी या हरे भूरे रंग की होती है । ये बड़ी तथा गोलाकार होती हैं यदि एक भी फली चेरी से मिल जाती है या दोनों को एक साथ मिला देते है तो गुणवत्ता वाली काफी मिलती है ।
    भूनने के प्रक्रिया मेंफलियों को शीघ्रता से १८० डिग्री सेन्टीग्रेट पर भूना जाता है, जिससे नमी तथा भार कम हो जाता है । भूनने के बाद फलियाँ गहरे भूरे रंग की हो जाती है तथा केन्द्र में एक सफेद रंग का दाग रहता है । भूनने के तरीके पर स्वाद निर्भर होता है । भूनने का सामान्य समय पाँच से पन्द्रह मिनट होता है । भूनने का स्तर केवल आँखों से देखकर तय किया जाता है ।
    काफी का व्यापार हरी फलियों के रूपमें किया जाता है । तैयार की गई फलियाँ यदि ठीक से रखी जाय तो ये वर्षो तक अच्छी बनी रह सकती है । अधिक ताप तथा नमी फलियों को बरबाद कर देती है । भुनी हुई फलियों का रासायनिक संघटन प्रति १०० ग्राम में निम्नवत होता है - कैलोरी ५२.५ किलोग्राम, प्रोटीन १.९ ग्राम, वसा १.७ ग्राम, शर्करा ७.२ ग्राम, कैल्सियम ०.०५ ग्राम, फास्फोरस ०.०५ मिलीग्राम, लौह तत्व रस ०.१ मिलीग्राम, विटामिन-ए ७७ आई. यूनिट, थायमीन ०.०२ मिलीग्राम, निकोटिनिक अम्ल ०.०९ मिलीग्राम, विटामिन-सी ०.८७ मिलीग्राम, विटामिन रीबोफ्लेविन ०.०९ मिलीग्राम, सुक्रोज ०.४३ मिलीग्राम, नमी ०.३-५.६ ग्राम, कुल राख ३.४-४.९ ग्राम, जल में घुलनशील राख ३-३.६ ग्राम, घुलनशील राख की क्षारकता १.९-३.२ ग्राम, अम्ल में अघुलनशील राख ००.०० ग्राम, रेशे १०.५-१५.३ ग्राम, कैफीन ०.९-१.८ ग्राम, शुष्क पदार्थ २३-३३ ग्राम, ईथर घुलनशील पदार्थ ८-१४.२ ग्राम, डेक्सट्रोज १.२४ ग्राम तथा क्लोरजेनिक अम्ल ४.७४ ग्राम है ।
    काफी दो प्रकार की होती है । हरित या बिना भुनी काफी जो कि कैफिया ऐरेबिका के बीज होते है जिनमें प्राय: कोई अशुद्धि नहीं रहती । दूसरी भुनी हुई काफी होती है जो कि पूर्णत: साफ की हुई हरित काफी है जिसे गहरे भूरे रंग आने तक भूना गया होता है तथा जिसमें इसकी विशिष्ट गंध होती  है । जिसमें कोई भी अप्राकृतिक रंग, सुगन्ध, बाह्य पदार्थ, चमकदार पदार्थ न हो तथा पूर्णत: शुष्क तथा ताजी हो तथा अन्य कोई अरूचिकर गंध न हो । इसमें निम्नवत मानक होने चाहिए ।
१.    एक नमूने की सम्पूर्ण राख जिसे १०० डिग्री सेन्टीग्रेट पर सुखाया गया हो पक्षियों के पर जैसी सफेद या हल्की नीली सफेद हो तथा कुल मात्रा ३ प्रतिशत से कम तथा ७ प्रतिशत से अधिक न हो । इसका कम से कम ६.५ प्रतिशत उबलते हुये आसुत पानी में घुल जाना चाहिए । इसी प्रकार तनु हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में अघुलनशील राख भी ०.१ प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिये ।
२.    घुलनशील राख की क्षारकता सूखी काफी के प्रतिग्राम में ३.५ मिली से कम ४.५ मिली से अधिक ०.१एन अम्ल के बराबर नहीं होनी चाहिए ।
३.    मानक विधि से मापने पर कैफीन की मात्रा १ प्रतिशत से कम नहीं होनी चाहिए ।
४.    २ ग्राम नमूने की जो कि १०० डिग्री सेन्टीग्रेट पर सुखाया गया हो तथा १०० मिली आसुत जल में एक घंटे उबाला गया हो के घोल में २६ प्रतिशत से कम तथा ३५ प्रतिशत से अधिक न हो ।
    चिकोरी पावडर चिकोरियमिन टायबसलिन पौधे को जडों को साफ करके तथा भूनकर बनाया जाता है । इसमें ग्लूकोज या सुक्रोज तथा खाने योग्य वसा जो कि २० प्रतिशत भार से अधिक न हो मिला सकते है । इसे रंग, स्वाद तथा सुगन्ध से रहित होना   चाहिए । काफी चिकोरी का मिश्रण शुद्ध काफी पावडर है इसे फ्रेंच काफी का नाम दिया जा सकता है ।
    घुलनशील काफी पावडर का तात्पर्य ऐसी काफी से है जो कि ताजी भुनी हुई शुद्ध काफी फलियों से प्राप्त की जाती है । यह अत्यन्त महीन पावडर है जिसका रंग, स्वाद तथा सुगन्ध विशिष्ट काफी की तरह होता है । इसमें कोई भी मिलावट जैसे चिकोरी या अन्य पदार्थ मिला हुआ नहीं होना चाहिए । इसका मानक निम्नवत होना चाहिए । नमी ३.५ प्रतिशत से अधिक कुल राख १५ प्रतिशत से अधिक न हो, कैफीन की मात्रा २.८ प्रतिशत से कम न हो उबलते हुए पानी में यह आसानी से ३० सेकेण्ड में घुलनशील हो तथा ठण्डे पानी में १६-१८ डिग्री सेन्टीग्रेट पर कुछ देर हिलाने पर ३ मिनट में घुल जाये । त्वरित काफी-चिकोरी मिश्रण का निर्माण भुनी हुई पिसी काफी तथा चिकोरी द्वारा होता है । यह भी समरस पावडर होता है जिससे काफी-चिकोरी का स्वाद रंग तथा सुगन्ध विशिष्ट चिकोरी-काफी का होता है ।
    इसे अशुद्धियों से रहित होना चाहिए तथा कोइंर् भी अन्य पदार्थ मिला न हो, नियमत: पैकेट के ऊपर काफी-चिकोरी का प्रतिशत अंकित होना चाहिए इसके भी निम्न मानक होने चाहिए । नमी भार के ५ प्रतिशत से अधिक न हो, कुल राख भार के ७ प्रतिशत से कम तथा १० प्रतिशत से अधिक नहीं होने चाहिये तथा शुष्क कैफीन भार के १.४ प्रतिशत से कम नहीं होनी चाहिए । पैकेट में ऊपर त्वरित काफी चिकोरी का मिश्रण का प्रतिशत अंकित होना चाहिए ।     जैसा कि प्रत्येक खाद्य पदार्थ में हो रहा है काफी भी मिलावट से अछूती नहीं है । इसमें मुख्यत: भूसी का पावडर, प्रयोग की हुई काफी, भूरा रंग, चिकोरी बिना बताये हुए, भुने हुए खजूर, इमली के बीज का पावडर आदि मिलाये जाते  हैं ।    
    काफी पीने के आदत बनानी पड़ती है । यदि आप पहली बार काफी का सेवन करेंगे तो आपको पंसद नहीं आयेगी लेकिन आदत पड़ने पर वही स्वाद अच्छा लगने लगता है । कुछ लोग काफी को बिना शक्कर तथा दूध के प्रयोग करते हैं लेकिन कुछ लोग अधिक दूध के साथ पीना पंसद करते हैं । इतना ही नहीं ठण्डी काफी का भी प्रचलन अधिक है । विशेष अवसरों पर काफी घोल में झाग पैदा करके पिलाई जाती   है । अधिक गर्म काफी पीने से गले का कैंसर होने की संभावना रहती है । अत: उबलते हुए पानी से बनी काफी को कुछ देर रखकर ही पीना चाहिए । कभी भी भोजन के बाद काफी नहीं पीना चाहिए क्योंकि इससे भोजन में उपस्थित लौह तत्व का अवशोषण शरीर में नहीं हो पाता है ।
जीवन शैली
हम दरख्त वापस नहीं ला सकते
                                  डॉ. ओ.पी. जोशी

    हमारे देश में महानगरों, नगरों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े राजनेताआें की यात्राआें एवं राजनैतिक दलों की रैलियों, सभाआें या स्थापना दिवस आदि मनाने हेतु निर्दयतापूर्वक वृक्ष काटे जाते रहे  हैं । आजादी के बाद की ६४-६५ वर्षोंा की समयावधि का आंकलन किया जाए तो हमें ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जब यात्राआें, रैलियों एवं जनसभाआें के लिए हरियाली का हरण किया गया ।
    श्रीमती इंदिरा गांधी लम्बे समय तक प्रधानमंत्री रहीं, जबकि राजीव गांधी कम समय के लिए रहे, परंतु इनकी यात्राआें के समय देश में कई स्थानों पर पेड़ काटे गये, विशेषकर हेलिपेड बनाने हेतु । उस समय मीडिया इतना सशक्त नहीं था एवं नही पर्यावरण के प्रति इतनी जागरूकता थी, अत: पेड़ों के कटनेके समाचार स्थानीय समाचारपत्रों के अंदर के पन्नोंपर दबकर रह जाते थे ।
    वर्ष १९९६ में तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा की मेवात (हरियाणा) यात्रा के समय ३०० हरे भरे पेड़ों को काटकर हेलिपेड बनाया गया था । इनमें से ज्यादातर नीम एवं शीशम के पेड़ थे, जिन्हें वाई. एम. डिग्री कॉलेज के विद्यार्थियोंने बड़े परिश्रम से बड़ा किया था । इस घटना की जानकारी जब वहां के मुख्यमंत्री बंसीलाल को लगी तो उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा था कि वें स्वयं इस क्षेत्र में कई बार हेलिकॉप्टर से यात्रा कर चुके हैं परंतु पेड़ कभी नहीं काटे गए क्योंकि वहां हेलिकॉप्टर उतारने की व्यवस्था पहले से ही मौजूद है । उन्होंने राज्य सरकार से दोषियों को सजा देने हेतु कहा । चंडीगढ़ पर्यावरण सुरक्षा समिति ने इस संबंध में पंजाब व हरियाणा उच्च् न्यायालय में जनहित याचिका भी लगाई थी । इन सभी के क्या परिणाम निकले, पता नहीं चल पाया ।
    वर्ष २००२ के नवम्बर माह में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की हिमाचल प्रदेश की यात्रा के समय भी व्यवस्था एवं सुरक्षा हेतु सैकड़ों पेड़ काटे गये थे । पेड़ों के कटने की घटना समाचार पत्रों एवं टी.वी. चेनल्स पर आने से इसका भारी विरोध हुआ । विरोध को देखते हुए सरकारी विभागों ने इस पर लीपापोती की एवं बताया कि बेकार वृक्ष ही काटे गये थे । अब सरकारी विभागों को कौन समझाये कि वृक्ष जीवनपर्यन्त कभी बेकार नहीं होते हैं ?
    नवम्बर २००४ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. कलाम की दक्षिण भारत की यात्रा के समय एर्नाकुलम के मेरीन ड्राइव क्षेत्र में गुलमोहर के कई पेड़ काटे गये थे । कई पर्यावरण एवं वृक्ष प्रेमियों ने इससे नाराज होकर डॉ. कलाम को संदेश भेजकर दुख   जताया । डॉ. कलाम ने इसे बहुत ही संवेदनशीलता से   लिया । यात्रा के बाद राष्ट्रपति भवन से उनके प्रेस सचिव पी.एस. नायर ने स्थानीय प्रशासन को पत्र लिखकर काटे गये वृक्षों के बदले दस गुना नये पेड़  लगाने के निर्देश दिये ।
    दिसम्बर २००७ में भी तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल की तीन दिवसीय अंडमान निकोबार को पारिवारिक यात्रा हेतु भी सैकड़ों वृक्षों की बलि चढ़ाई गयी     थी । हेलिपेड निर्माण व अन्य कार्यो हेतु हेवलाक, वांडूर एवं पोर्टब्लेयर स्थानों पर ४०० से ज्यादा पेड़ काटे गये थे । झारखंड राज्य की दूसरी वर्षगांठ मनाने हेतु नवम्बर २००२ में सभास्थल क्षेत्र में लगे ऐसे २००० पेड़ काट दिये गये जो वन विभाग द्वारा १०-१२ वर्ष पूर्व लगाये गये थे । उत्तर प्रदेश में इसी वर्ष अम्बेडकर रैली के आयोजन हेतु ३००० पेड़ काटे गये थे एवं सर्वोच्च् न्यायालय की अधिकार प्राप्त् समिति से इसकी शिकायत भी की गई थी ।
    ये तो ऐसी कुछ घटनाएं है, जो अधिक वृक्षों के काटे जाने से मीडिया में आई एवं जिन्होनें लोगों का ध्यान आकर्षित किया । परन्तु राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की यात्राआें, रैलियों एवं सभाआें से देश के अन्य शहरों एवं ग्रामीण इलाकों में कितने वृक्ष काटे गये, इसकी कोई जानकारी नहीं है । जुलाई २०१० में तत्कालीन केन्द्रीय वन व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने निजी हेलिपेड बनाने पर जो रोक लगाई थी, उसका पालन राजनेताआें की यात्रा के समय भी किया जाना चाहिए ।
    केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा गृह विभाग को राजनेताआें की यात्रा, रैलियां एवं सभा स्थल आदि पर हरियाली को सुरक्षित बनाये रखने हेतु नियम, कानून बनाकर उन पर अमल करवाना चाहिये । राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के अपने कार्यालयों से यात्रा संबंधित जो दिशा-निर्देश दिये जाते हैं उसी में पेड़ों को बचाने के निर्देश भी दिये जाने  चाहिये । जरूरी यह है कि यात्रा के रास्तों से पेड़ काटने के बजाय यात्राआें के रास्ते बदले दिए जाएं । यात्राएं, सभा व रैलियां तो महज कुछ घंटों या कुछ दिनों में समाप्त् हो जाती हैं परन्तु इनके लिए  वर्षो पुराने वृक्षों को काटना किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं     है ।
    राजनेताआें एवं दल के प्रमुख लोगों को मुगल बादशाह औरंगजेब की पेड़ों के प्रति प्रेम दर्शाने वाली घटना से प्रेरणा लेना चाहिए । औरंगजेब के शासनकाल मेंएक बार समाचार आया कि एक मस्जिद गिर गयी है । बादशाह ने तुरन्त पूछा कि मस्जिद के पास जो दरख्त (वृक्ष) थे वे सही सलामत हैं या नहीं ? समाचार देने वाले ने कहा कि जहांपनाह दरख्त तो महफूज (सुरक्षित) हैं । बादशाह ने खुदा का शुक्रियाअदा किया । बादशाह के एक वजीर ने सकुचाते हुए पूछा कि हुजूर दरख्तों में ऐसा क्या है ? बादशाह ने जवाब दिया कि मस्जिद तो हम तुरन्त दोबारा बनवा सकते हैं मगर इतने पुराने दरख्तों को अपनी सारी उम्र्र लगाकर भी वापस नहीं ला सकते है । 
प्रदेश चर्चा
म.प्र. : व्यर्थ का विस्थापन
                                कुमार संभव श्रीवास्तव

    पहले एशियाई शेर और उसके बाद चीता । शेर गुजरात नहीं दे रहा और चीते के आगमन पर सर्वोच्च् न्यायालय ने रोक लगा दी है । लेकिन पालपुर कुनो के सहरिया आदिवासियों को सत्रह बरस पहले जंगलों से बेदखल कर दिया था । आज शेर के साथी यानि सहरिया नारकीय जीवन बिताने को बाध्य हैं ।
    मध्यप्रदेश के खजूरी गांव के रंगू को कैमरे से डर लगता है । उसका यह डर उसके निजी अनुभव से उपजा है । वर्ष २००० में उसके परिवार को अन्य १६५० लोगों के साथ श्योपुर जिले में स्थित पालपुर कुनो वन्यजीव अभयारण्य से बाहर निकाल दिया गया था । उन दिनों को याद करते हुए रंगू बताता है एक दिन सरकारी अधिकारी हमारी तस्वीर खींचने आए । जब हमने इसका कारण पूछा तो उन्होनें हंसते हुए कहा तुम्हें काला पानी भेजा जा रहा है । हमने सोचा कि वे मजाक कर रहे हैं । लेकिन बाद में उन्होनें हमें जंगल से बेदखल कर दिया । जंगल के बाहर बिताए पिछले बारह वर्ष किसी जेल से भी बद्तर है । रंगू सहरिया जनजाति का सदस्य है जिसका अर्थ है शेर का साथी । सहरिया देश की सर्वाधिक जोखिम में पड़े ७५ जनजातीय समूहों में से एक है ।
    सन् १९९९ से २००२ के मध्य  कुनो के अंदर स्थित भलीभांति सिंचित और उपजाऊ व निचली भूमियोंवाले चौबीस गांवों को बिना उचित मुआवजे के असिंचित एवं पथरीली पहाड़ी भूमि पर स्थानान्तरित कर दिया गया । इसकी वजह यह थी कि सन् १९९५ में केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने एक सरंक्षण परियोजना के अन्तर्गत गुजरात के गिर राष्ट्रीय पार्क में पाए जाने वाले एशियाई शेरों   को वहां से कहीं और बसाने के लिए केवल कुनो को ही उपयुक्त पाया । इस बात को सत्रह वर्ष बीत गए हैं । लेकिन वहां अब तक शेर नहीं लाए गए है । इसकी वजह है कि गुजरात ने अपने इस गर्व को किसी और के साथ बांटने से इंकार कर दिया है । जैसे ही  गुजरात की रजामंदी की उम्मीद धूमिल पड़ती गई, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने तय किया कि अब भारत में विलुप्त् हो चुके चीतों की प्रजाति को वह नामीबिया से लाकर कुनो बसाएगा । लेकिन यह योजना भी आैंधे मुंह गिर पड़ी ।
    किसी को राहत नहीं ? - मुआवजा पैकेज के तहत प्रत्येक परिवार को दो हेक्टेयर कृषि भूमि एवं भवन निर्माण के लिए ३६००० रूपए दिए    गए । जिन लोगों के पास दो हेक्टेयर से ज्यादा जमीन के कागजात थे, उन्हें अतिरिक्त भूमि हेतु नकद मुआवजा विस्थापन के नौ वर्ष पश्चात दिया      गया । अनेक वनवासी बिना सरकारी रिकॉर्ड के खेती कर रहे हैं । उन्हें भूमि के बदले मुआवजा नहीं दिया गया । लघु वनोपज से होने वाली आमदनी का भी मुआवजा इन्हें प्राप्त् नहीं हुआ । आमदनी का अन्य स्त्रोत न होने से अनेक सहरियाआें ने रोजदारी पर मजदूरी करना प्रारंभ कर दिया ।
    चाक गांव के सुजानसिंह को वर्ष १९९१ में बेदखल किया गया  था । उसके १० में से ४ बेटे आज प्रवासी मजदूर हैं । उनका कहना है हमें दी गई भूमि बहुत उपजाऊ नहीं थी । एक फिट खोदने पर नीचे चट्टाने मिलती हैं । इससे मिलने वाली उपज से मेरे परिवार का पोषण नहीं होता था । अधिकारियों ने विस्थापित गांवों के खेतों में सिंचाई के लिए कुआं खोदने हेतु वित्तीय सहायता का प्रस्ताव दिया । रंगू और दो अन्य लोगों ने कुआं भी खोदा । लेकिन इसमें पानी नहीं आया । इसके बाद उसने एक और कुंआ खोदना शुरू किया लेकिन धन के अभाव मेंवह उसे पूरा नहीं कर पाया । उसका प्रश्न है मैं मजदूर का खर्च नहीं उठा सकता और यदि मैं कुंआ खोदूंगा तो मेरे परिवार के लिए कौन कमाएगा ?
    दिल्ली स्थित अम्बेडकर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ह्यूमन इकॉलोजी (मानव पारिस्थितिकी अध्ययन केन्द्र) की अस्मिता काबरा द्वारा वर्ष २००९ में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि कुनो के गांवोंसे विस्थापित १० व्यक्तियों में से ८ गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे  हैं । गैर सरकारी संगठन संरक्षण के सैयद मेराजुद्दीन का कहना है इसकी मुख्य वजह है लघु वन उत्पादों तक उनकी पहुंच का प्रतिबंधित होना । काबरा का अध्ययन बताता है कि घटता कृषि उत्पादन, जंगली मांस, फलों और सब्जियों तक पहुंच बाधित होने से सहरियाआें पर बीमारी का प्रकोप भी बढ़ गया है । बाहर किए जाने के शुरूआती वर्षो में अनेक व्यक्तियों की मृत्यु की बात सामने आई थी ।
    उद्देश्य से भटकाव - पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने एशियाई शेरों को दूसरी जगह बसाने की की पहल भारतीय वन्यजीव संस्थान की उस अनुशंसा के आधार पर की थी, जिसमें कहा गया था कि गिर के उपलब्ध सीमित स्थान की वजह से आंतरिक प्रजनन (ईन ब्रीडिेंग) बढ़ेगा और शेरों में महामारी फैलने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी । अध्ययन के पश्चात् संस्थान ने शेरों के दूसरे रहवास के रूप में कुनों को चुना । इस कार्य में सफलता हेतु संस्थान ने यह अनुशंसा भी कि, अभयारण्य मं स्थित गांवों को कोर क्षेत्र से बाहर कर दिया जाए ।
    सुश्री काबरा के अनुसार अनुशंसाएं बिना किसी विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन के एवं बिना इस कानूनी अनुशंसा को ध्यान में रखे कि सहअस्तित्व की संभावनाएं तलाशी जाएं, की गई थी । जब गुजरात से कुछ शेर देने की बात की गई तो राज्य ने इस गर्वोक्ति के साथ  ऐसा करने से इंकार कर दिया कि उसने अपने प्रयत्नों से शेरों की जनसंख्या जो कि सन् १९८५ में १९१ थी को वर्ष २०१० में ४०० पर ला दिया है । सन् २००६ में दिल्ली स्थित गैर सरकारी संगठन बायोडायवरसिटी कंजरवेशन ट्रस्ट ने सर्वोच्च् न्यायालय में दायर जनहित याचिका के माध्यम से गुजरात सरकार को इस संबंध में दिशानिर्देश देने की अपील दायर की । यह मामला अभी भी न्यायालय में लंबित है ।
    शेरों के हस्तान्तरण परियोजना की स्थिति को देखते हुए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने चीता को कुनो में लाने के लिए ३०० करोड़ रूपये का निवेश करने का निश्चय किया । चीता सन् १९५२ में भारत से विलुप्त् हो गया था । वन्यजीव संस्थान जिसने इस परियोजना की व्यवहार्यता का अध्ययन किया है, का कहना है कि एक बार कुनों में चीता के आ जाने से शेरों को भी यहां आना बाधाकारक नहीं होगा । वर्ष २०१२ में हुई एक सुनवाई में गुजरात ने तर्क दिया कि कुनो मेंशेर इसलिए नहीं लाना चाहिए क्योंकि मंत्रालय की प्राथमिकता अभयारण्य में चीता लाने की है । लेकिन न्यायालय ने इस मामले में नियुक्त अपने सलाहकार पी.एस. नरसिम्हा के आवेदन पर चीता परियोजना के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी ।
    यह तय करने के लिए तो संघर्ष चलता ही रहेगा कि किस प्रजाति को कब यहां लाया जाना है, लेकिन वन विभाग सहरियाआें को कुनो के नजदीक बसने की अनुमति न देने पर दृढ़ है । नयागांव को वर्ष २००१ में बेदखल किया गया था । दो वर्ष पश्चात् नयागांव से निकाले गए ४० परिवार पुन: अभयारण्य में आ गए । क्योंकि प्रयत्नों के बावजूद उन्हें दिए गए खेतों में फसल नहीं हो पा रही थी । छ: माह के भीतर अधिकारियों ने इस वायदे के साथ उन्हें पुन: बेदखल कर दिया कि वे उनके खेतों को उपजाऊ बनाएंगे ।
    विभाग के बेमन से किये जा रहे प्रयासों को देखते हुए ये परिवार पुन: वर्ष २००५ में अभयारण्य में वापस आने को बाध्य हो गए । विभाग द्वारा जबरदस्त दबाव बनाए जाने के बाद इस वर्ष अप्रैल में उन्हें पुन: बेदखल होना पड़ा ।
    श्री बारेवाल कहते है जिला कलेक्टर ने खेतों की बाउंड्रीवाल, तीन हैंडपम्प एवं मकान बनाने के लिए २५००० रूपए देने का वायदा किया था । बाद में उन्होंने धमकी दी कि यदि हम वहां से नहीं हटेंगे तो हमारी झोपड़ियां जला दी जाएगी ।
    गांववासी अब कच्च्े मकान में रहते है और प्रत्येक को मकान बनाने के लिए  दस हजार एवं गांव को मात्र एक हैंडपम्प मिला है ।
    श्री बारेवाल का कहना है हमारे पास आय का कोई और साधन नहीं है । हमने जो कुछ कुनो के अंदर कमाया था उसी पर जिंदा हैं । वहीं कलेक्टर डी.बी. पाटिल का दावा है कि विस्थापित परिवार अभयारण्य के बाहर ज्यादा प्रसन्न है । उनका कहना है हम लोग गांव के भीतर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना के अन्तर्गत काफी काम करा रहे हैं। हो सकता है हमारे प्रयत्नों के बावजूद कुछ परिवारों की जमीनों से पैदावार नहीं निकल पा रही हो । अगर वे पास आते हैं तो हम उनकी भूमि बदल देंगे ।
    सहरियाआें की दुर्गति यही समाप्त् नहीं होती । राज्य ने अब कुनोके नजदीक स्थित नदी पर सिंचाई योजना प्रस्तावित कर दी है । अगर यह पारित हो गई तो १० गांवों की १२२० हेक्टेयर भूमि डूब में आ जाएगी । इसका अर्थ है १० में से ४ गांवो को पुन: विस्थापन की पीड़ा से गुजरना होगा ।
पर्यावरण परिक्रमा
चांद पर पहला कदम रखने वाले आर्मस्ट्रांग नहीं रहे

    चांद पर कदम रखने वाले प्रथम मानव के रूप में इतिहास रचने वाले अमेरिका के पूर्व अंतरिक्ष यात्री नील एल्डेन आर्मस्ट्रांग का २५ अगस्त को ८२ वर्ष की उम्र में निधन हो गया ।
    चांद फतह करने वाले इस महामानव की चक्रीय धमनी में थक्का जमने की शिकायत के बाद इसके उपचार के लिए इसी माह उनकी दिल की बाईपास सर्जरी हुई थी । वह अमेरिकी अंतरिक्ष शोध एजेंसी नासा के अपोलो ११ मिशन के कमांडर के तौर पर २० जुलाई १९६९ को चांद पर पहुंचे थे । चांद पर कदम रखने के बाद आर्मस्ट्रांग ने कहा था यह एक मानव का छोटा कदम भले हो पर मानव जाति के लिए एक बड़ी छंलाग है ।
    जिस समय वह चांद की सतह पर उतरे थे उनके ह्दय मेंप्रति मिनट १५० तक की धड़कन रिकार्ड की गई थी जो सामान्य स्थितियों के मुकाबले लगभग दो गुना थी लेकिन कई वर्षो बाद जब उनसे पूछा गया कि चांद पर अपने कदमों के निशान हजारों वर्षो तक  अक्षुण्ण रह पाने के बारे में सोचकर वह क्या महसूस करते हैं, उन्होनें कहा मुझे इस तरह की उम्मीद है कि कोई वहां जाएगा और पुराने इतिहास का सफाया कर देगा ।
    चांद फतह की यह यात्रा आर्मस्ट्रांग की आखिरी अंतरिक्ष यात्रा थी । इसके बाद अमेरिकी अंतरिक्ष शोध एजेंसी नासा ने उन्हें डेस्क ड्यूटी पर तैनात कर दिया था तब उन्हें नासा में उन्नत शोध एवं तकनीकी कार्यालय में विमानिकी विभाग का प्रभारी सहायक प्रशासक नियुक्त किया गया था । उन्होनें एक वर्ष बाद ही नासा की नौकरी छोड़ दी और सिनसिवाटी विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग के प्रोफेसर बन गए । हालांकि नासा छोड़ने के बाद उनका जीवन बेहद एकाकी होता चला गया और वह हाल तक सिनसिनाटी इलाके में ही केवल अपनी पत्नी कैरोल के साथ रह रहे थे ।
    आर्मस्ट्रांग का बचपन ओहियों में बीता था । शुरू से ही उड़ान और विमानन क्षेत्र में उनकी रूचि थी । उन्होंने किशोरावस्था में ही पायलट लायसेंस हासिल कर लिया था । वह कोरियाई युद्ध के समय काम्बैट विमान मिशन में उड़ान भरने के बाद १९६२ में टेस्ट पायलट बने और नासा के अंतरिक्ष विज्ञानी कार्यक्रम से जुड़ गए थे । आर्मस्ट्रांग की कामयाबी को याद करते हुए चांद के एक क्रेटर का नामकरण उनके नाम पर किया गया है । यह क्रेटर आर्मस्ट्रांग के चांद पर उतरने के स्थान से लगभग ४८ कि.मी. की दूरी पर स्थित है । चांद पर फतह करने वाले इस जांबाज पायलट  को २००५ में यह जानकार काफी हैरानी हुई और गुस्सा भी आया था कि उनकी हजामत बनाने वाले नाई ने उनके बालोंका संकलन नीलाम कर ३००० डालर कमा लिए थे । आर्मस्ट्रांग की आपत्ति के बावजूद खरीदार ने वे बाल लोटाने से इंकार कर दिया । उसका कहना था कि वह अब्राहम लिंकन, नेपोलियन, मर्लिन मुनरो, अल्बर्ट आइस्ट्रीम और ऐली अन्य हस्तियों के बाल जमाकर संग्रहालय खोलेगा ।

नेशनल पार्क होंगे स्पेशल टाइगर फोर्स के हवाले
    केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने मध्यप्रदेश के तीन टाइगर रिजर्व पार्क कान्हा, बांधवगढ़ तथा पेंच के प्रबंधन की जिम्मेदारी स्पेशल टाइगर फोर्स के हवाले करने का निर्णय लिया है । केन्द्र सरकार ने यह व्यवस्था पहले कर्नाटक के बांदीपुर टाइगर रिजर्व में लागू की थी और यहां मिली सफलता को देखते हुए यह कदम उठाया है । स्पेशल टाइगर फोर्स देश के १३ टाइगर रिजर्व पार्को में भी लागू की गई है और इसके लिए पैसा केन्द्र सरकार एसटीपीएफ के अन्तर्गत फं ड से देगी ।
    प्रदेश में कान्हा, बांधवगढ़, पेंच, पन्ना तथा सतपुड़ा टाइगर रिजर्व पार्क है, लेकिन कान्हा में पिछले काफी समय से बांधों की संख्या कम होती जा रही थी । पिछले पांच वर्षो में प्रदेश में ५९ बाघों तथा ५८ तेंदुआें की अवैध शिकार अथवा प्राकृतिक रूप से मौते हुई हैं । केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा २१ अगस्त को जारी आदेश में उप्र के दुधवा पार्क, ऊत्तराखंड के कोरविट, राजस्थान के रणथम्बौर टाइगर रिजर्व, एमपी के पेंच, कान्हा तथा बांधवगढ़, अरूणाचल के पक्के, कर्नाटक के बांदीपुर, महाराष्ट्र के पेच तथा तधुवा अंधेरी, तमिलनाडु के मुडुमलाई, असम के काजीरंगा तथा उड़ीसा के सिमिलीपाल नेशनल पार्क के प्रबंधन की जिम्मेदारी स्पेशल टाइगर फोर्स को सौंपी गई है ।
    इस संबंध में राज्यों से भी अभिमत नहीं लिया गया है । केन्द्र द्वारा २१ अगस्त को जारी आदेश की भनक अभी राज्य में फारेस्ट के आला अफसरों को भी नहीं है । वैसे केन्द्र टाइगर रिजर्व क्षेत्रों में होने वाले विकास, बाघों की सुरक्षा तथा प्रबंधन पर पूरा खर्च उठाती है, फिर भी इसमें लगातार लापरवाही बरती जा रही है ।
    मध्यप्रदेश में राज्य सरकार ने कान्हा, सतपुड़ा, बांधवगढ़ तथा पेंच आदि नेशनल पार्को की सुरक्षा मिलेट्ररी के रिटायर सैनिकों को सौंपी है, परन्तु यह भी बाघों की सुरक्षा करने में असफल साबित हुए है ।

पन्ना टाइगर रिजर्व में सुरंग बनाएगा रेलवे

    मध्यप्रदेश में पन्ना टाइगर रिजर्व के जंगली जानवर बहुप्रतीक्षित रेल परियोजना में बड़ी बाधा बनकर सामने आए हैं । खजुराहो-ललितपुर सिंगरौली रेल परियोजना के लिए पन्ना टाइगर रिजर्व के अंदर से रेल लाइन डालने को पश्चिम मध्य रेल को केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति नहीं मिलने के बाद, रेल प्रशासन फॅारेस्ट के बीच से खुले में रेल लाइन ले जाने की बजाय १० किलोमीटर लंबे टनल (सुरंग) बनाने पर भी विचार कर रहा है । उधर  रेल बजट में वित्तीय वर्ष २०१२-१३ के लिए ६० करोड़ रूपए की राशि इस प्रोजेक्ट को मंजूर की गई है ।
    पमरे प्रशासन ने इस पन्ना जिले में राष्ट्रीय अभ्यारण्य के बीच से रेल लाइन बिछाने की अनुमति मांगी हुई है, लेकिन इसे पिछले ३ सालों से केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने ठंडे बस्ते में डाला हुआ है । जिस कारण इस परियोजना का महत्वपूर्ण भाग खजुराहो-पन्ना-देवेन्द्रनगर-नागौद-सतना के बीच १२५ किलोमीटर का काम अटका हुआ है ।
    रेलवे ने वैकल्पिक उपायों के तहत रिजर्व फॉरेस्ट के बीचों-बीच १० किलोमीटर लंबा टनल बनाने पर भी विचार कर रहा है । यदि टनल का प्रस्ताव मंजूर हो जाता है तो रेल लाइन टनल के अंदर से ले जाई जा सकती है, जिससे वन्य जीवों पर भी कोई प्रभाव नहीं होगा और ७५ किलोमीटर का चक्कर भी बच जाएगा, लेकिन इतना जरूर है कि जंगल के बीच पहाड़ों के अंदर से टनल बिछाने के  काम में रेलवे को कई सौ करोड़ रूपए खर्च करना पड़ेगे । अब देखना यह है कि रेलवे के किस वैकल्पिक उपायों को मंजूरी मिल पाती है ।

प्रत्येक घर को स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति
    केन्द्र सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रोंमें स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिये राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम (एनआरडीडब्ल्यूपी) चलाया जा रहा है । इसके अन्तर्गत ग्रामीण आबादी को पर्याप्त् मात्रा में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के उनके प्रयासों में मदद करने के लिये राज्यों को वित्तीय तथा तकनीकी सहायता दी जाती है । वर्ष २०१२-१३ में राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के लिये १०,५०० करोड़ रूपये का बजटीय आवंटन दिया गया है । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भारत सरकार ने आंशिक रूप से कवर की गई बसावटों और गुणवत्ता प्रभावित बसावटों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने को प्राथमिकता दी है । इसके अलावा पेयजल कार्यक्रम का ५ प्रतिशत आवंटन पेयजल में रासायनिक संदूषण की समस्याआें का सामना कर रहे राज्यों अथवा जापानी इन्सेफेलाइटिस और एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम प्रभावित उच्च् प्राथमिकता जिलों के लिये निर्धारित किया है ।
    १२ वीं पंचवर्षीय योजना अवधि में पाइप से जलापूर्ति पर मुख्य ध्यान दिया जायेगा ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में पाइप से जल आपूर्ति को प्रोत्साहन दिया जा सके । भारत सरकार भी ग्रामीण बसावटों को कवर करने तथा परिवारों को निरन्तर आधार स्वच्छ तथा पर्याप्त् पेयजल उपलब्ध कराने के उपाय कर रही है । उल्लेखनीय है कि जनगणना २०११ के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रोंमें पेयजल लाने के लिये २२.१० प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को आधे किलोमीटर से अधिक पैदल चलना पड़ता है जबकि शहरी क्षेत्रों के ८.१ प्रतिशत परिवारों को पेयजल लाने के लिये १०० मीटर से अधिक पैदल चलना पड़ता है ।
विरासत
पहाड़ और पानी
                         डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
    पहाड़ और पानी का बड़ा ही अटूट रिश्ता है । हिमालयी पहाड़ों की देह से फूट-फूटकर पानी रिसता है । जल प्रपात और झरने पानी की रबानी है । गिरिवर सघन वन और पानी की प्रेम कहानी है । पर्वत ही तो पर्जन्यों को पास बुलाते हैं । शीत ऋतु में गिरि शिखरों पर हिम तुहिन सजाते है ।
    नि:संदेह पहाड़ के पाद से जो पानी बूँद-बूँद कर रिसता है वह पहाड़ के वन प्रांतरों में औषधि पूर्ण होकर निकलता है क्योंकि वह जड़ी बुटियों तथा खनिजों के सम्पर्क मेंआकर अमृत तुल्य हो जाता है । पर्वत ही तो अपने शीर्ष हिम मुकुट सजाता है । पहाड़ों के पत्थरों की कठोरता के मध्य जल रूप में मृदुलता छिपी रहती है । पहाड़ों की अचलता में जल का प्रवाह रहता है । पानी चट्टानी रंघ्रों में बूँद-बूँद कर बहता है । पेड़ और पहाड़ ही़़ ऋतुआें के निर्धारक है । किसी कवि ने कहा है -
    पर्वत-पर्वत पेड़ है, पेड़-पेड़ पर पात ।
    पात-पात पर है लिखें, शीत-ग्रीष्म बरसता ।।
    पेड़ और पानी के बिना पहाड़ भी आकर्षण विहीन रहता है । पर्वत की पीर पिघलती है तो पानी बनकर बहती है । पहाड़ों से नि:सृत जल जब ऊँचे शिलाखण्डों से तीव्रता के साथ अधोवादियो में संगीत सा गंुजायमान होता है । झरने प्रपात का जल सरिता बनाता है जो कि पत्थरों के बीच से होकर, जलचरों को साथ लेकर घाटी से उतर कर मैदान भाग में आती है । इसीलिए नदी को परिभाषित करते हुए कहा गया है किसी पर्वत आवृत झील से निकलकर बहने वाला प्राकृतिक प्रवाह जो वर्ष पर्यन्त रहता है नदी कहलाता है । नदियां ही नदीश अर्थात् समुद की पोषक है । जलचक्र में पर्वत, नदियों, सागर, बादल सभी को समन्वित भूमिका है । सूर्य ताप और पवन वेग का योगदान है ।
    पहाड़ों के अचल रहने की विवशता एवं विकलता को पर्वत पुत्रियॉ-नदियों ही दूर करती हैं नदियाँ ही पहाड़ों के मध्य नैसर्गिक आकर्षण, स्वयं प्रवहमान होकर देती है । प्रसिद्ध गांधीवादी काका कालेलकर ने कहा था नदी को देखते ही मन में विचार आता है कि यह कहाँ से आती और कहों को जाती है । .... आदि और अंत को ढूंढने की सनातन खोज हमें शायद नदी से ही मिली होगी । .... पानी के प्रवाह या विस्तार में जो जीवन लीला प्रकट होती है उसके प्रभाव जैसा कोई प्राकृतिक अनुभव नहीं । पहाड़ चाहे कितना उत्रुंग या गगन भेदी क्यों न हो जब तक उसके विशाल वक्ष को चीरकर कोई जलधारा नहीं निकलती, तब तक उसकी भव्यता कोरी, सूनी और अलोनी ही मालूम होती है ।
    पहाड़ी सौन्दर्यता, भव्यता एवं सजलता को समादृत करना ही हमारा अभीष्ट है । ऊँचे नीचे पहाडों के बीच से गुजरती हुई फूलों की घाटियों के मध्य बहती पहाड़ी सरिता जिसे स्थानीय बोलबाल में रोखड़ या गधेरे कहा जाता है की कल-कल ध्वनि, जीव जन्तुआें का भी ध्यान अपनी और बरबस ही खींच लेती है । वह सरिता के समीप आते है । जल में अठखेलियों करते हैं और उत्सव मनाते है । पहाडी सरिताआें एवं झरनों के जल में रहने वाली मछलियों में तेज बहाव को सहने की अपार क्षमता होती है और उनमें ऐसी संरचनाए भी विकसित होती है जो उन्हें उस परिस्थति में रहने के अनुकूल बनाती है ।
    पहाड़ों को जल स्तम्भ कहा जाता है विशेष रूप से हिमालय के संदर्भ में यह विशेषण प्रयुक्त होता है । हिमालय की अस्तित्व मानता से ही दक्षिण एशिया समृद्ध हुआ    है । हिमालय ही ४० प्रतिशत जलराशि का दाता है । यह माना जाता है कि हिमालय पर्वत ३३००० वर्ग किलोमीटर में फैला है । इसका १७ प्रतिशत भाग हिमाच्छादित है । हिमालीय क्षेत्र में लगभग १५००० हिमनद है इनमें से कुछ हिमनद ६० किलोमीटर से अधिक और कुछ ३ से ५ किलो मीटर तक लम्बे हैं। वस्तुत: यही हिमनद ही तो हिमालय की जल समृद्धि के आधार है ।
    हिमनदीप जल वर्ष पर्यन्त रिसरिस कर कठोर पर्वतों को भी आन्तरिक रूप से सरस रखता है । पहाड़ों पर उगी हुई वनस्पतियाँ तथा वन-वनिताएँ जल को रोकने में मदद करती है । जिससे जलग्रहण क्षेत्र बनते हैं । गंगोत्री में गोमुख से ऊपर देवदार तथा भोजवन साक्षात शिवरूप में जल को शिरोधार्य करते हैं । उत्तरी भारत की अधिकांश नदियों का उद्गम स्त्रोत हिमालय के हिमनद ही है । सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रहृापुत्र एवं अनेक सहायक नदियाँ हिमवान हिमालय से नि:स्तृत शैलसुताएं हैं । देवियों का ही जल रूप में अवतरण हुआ है ।
    हमारे पहाड़ जल प्राचीर से सदा समृद्ध रहे हैं इससे पहले पहाड़ों पर जल की समस्या नहीं थी किन्तु ज्यों ज्यों बढ़ती आबादी के कारण मानवीय बस्तियों का विस्तार हुआ और अतिशय काकीटीय निर्माण कार्य हुआ जल स्त्रोत सूखने लगे, झरने अवरूद्ध हो गये जल देवता मानो कु्रद्ध हो गये । पर्जन्य प्रिय पेड़ कटे तो वर्षा भी अनियमित हो गई । अब तो पहाड़ों पर लोग मंहगा पानी खरीदकर जीवन यापन कर रहें हैं इसीलिए पहाड़ों से पलायन जारी है । पर्वत उपत्यकाआें की नैसर्गिक सुषमा से मोहभंग जारी है ।
    प्राकृतिक समुदाय एवं पारिस्थितिक तंत्र डगमगा रहे है । क्योंकि हमारी वर्तमान नीतियाँ दोहन एवं दमन पर आधारित है । जल जंगल और जमीन के सहअस्तित्व पर हमने आघात किया है । हमें हिमालयी पारिस्थिति की परवाह करनी ही चाहिए । भूस्खलन, त्वरित जल प्लायन, बादल फटना, भूगर्भीय कंपन पहाड़ ही तो झलते हैं । जल प्रवाह भी प्रकाशित होता   है । भारतीय उपमहाद्वीपीय संरचना की सुरक्षा के लिए पहाड़ों का संरक्षण जरूरी है ।
    पहाड़ ही तो नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र एवं जलागम बनाते हैं । पहाड़ों के ऊपरहिमनद ही तो नदी में परिवर्तित हो जाते हैं । जल ग्रहण क्षेत्र वह भू-भाग होता है जहाँ सभी ओर से जल एकत्रित होकर पहाड़ों के मध्य बनी जलागम में जमा होता है । ग्लोबल वॉर्मिग के कारण जलवायु परिवर्तन एवं तापमान में वृद्धि के कारण अब पर्याप्त् हिमपात नहीं होता है । हिम का कणीकरण नहीं हो पाता । वैश्विक तापन के कारण हिमनद पीछे हट रहे हैं । एक आकंलन के अनुसार वर्ष २०३० तक गोमुख का ग्लेशियर पूर्णतय: लुप्त् हो जायेगा । तब पतित पावनी गंगा केवल पहाड़ी नालों से पोषिता होकर रह जायेगी । ऐसी विषम परिस्थिति में हमें पहाड़ और पानी के रिश्ते को नये सिरे से समझना   चाहिए ।
    प्रश्न उठता है कि क्या हम सदानीरा नदियों का केवलबरसाती पानी ढोने वाली नदियों बना दें । सदानीर नदियों को हम पल-पल सुखा रहे हैं । जाने अनजाने पहाड़ की आत्मा को दुखा रहे हैं । जल, जल रहा है और हम मुस्करा रहे   है । जब तक हम जल की वेदना को नहीं समझेगे जल के प्रति आत्मीय नहीं हो सकेंगे । हमें जल संवेदना को समझने के लिए परस्पर संवाद बनाना ही होगा । हमें जल बर्बाद करने वाले लोगों को समझाना ही होगा । हिमालयी क्षेत्र के जल स्त्रोंतो का विकास जरूरी है । ताकि बदलती हुई जलवायु में भी जलापूर्ति सुचारू रह सके और हमारी प्रकृति को ऋत्विक त्रृजुता बनी रह  सके । किसी कवि ने कहा है -
    यह इच्छा है, नदी और नालोंका वेटा धरूँगा ।
    गाता हुआ गीत मस्ती के पर्वत से उतरूँगा ।।
    सृष्टि ने अनेक बार सृजन एवं ध्वंस को सहा है । भू संरचनाएं बदलती रही हैं । आज भी हिमालय पर्वत ऊपर उठ रहा है और शिशु पर्वत कहलाता है । सृजन है तो क्षरण भी जारी है । पहाड़ी भूस्खलन आपदा हमारी है । पहाड़ों पर अतिक्रमण हुआ है । नदियों के किनारे रिहायशी भवन तथा अतिथि गृहों का निर्माण पर्यटन के विस्तार के कारण पहाड़ों पर अधिक हुआ है । विकास के प्रतिमान गढ़ने के कारण जल के बाँध भी बने । नदियों में प्रवाह कम हुआ है किन्तु वर्षाकाल में सामान्यत: नदियाँ उफनती है तो अपने हक की जमीन के भवनों को जमींदोज करने में नहीं हिचकिचाती ।
    आज जहॉ पर्वतराज हिमालय स्थित है वहाँ टेथिस नामक महासागर था जो भारत और म्यांमार (बर्मा) की वर्तमान सीमा से लेकर पश्चिम एशिया के विशाल क्षेत्र मेंविस्तृत था (वर्तमान भूमध्य सागर टेथिस का ही अवशेष है) । इस महासागर के उत्तर मेंअंगारालेंड तथा दक्षिण में गोड़वाना लैण्ड नामक स्थल खण्ड थे । इन दोनों स्थलाकृतियों से नि:सृत नदियाँ प्रतिवर्ष भारी मात्रा में अवसाद (गाद) बहाकर लाई जिससे टेथिस सागर भारत गया । कालान्तर में भूगर्भीय परिवर्तन हुए तथा दोनों स्थलखण्ड कठोर होकर एक दूसरे की ओर विस्थापित हुए जिससे टेथिस की अवसाद हिमालय के रूप मेंऊपर उठती गई दोनों स्थल खण्डों का विस्थापन अभी भी जारी है और आज भी हिमालय ऊपर उठ रहा है ।
    हिमालयी पहाड़ों में बाँज (ओक) के वृक्ष वनोंका विशेष महत्व रहा है । हरित क्षेत्र के बाँज के वृक्षोंमें धरती की कोख में मिट्टी की मोटी-मोटी परतें जमा करने की अपार क्षमता होती है तथा जल अवशोषण का अद्भूत गुण होता है जिससे पर्वत श्रृखंलाआें पर बाँज बनाती रहती है अर्थात बाँज वनों की अधिकता रहती है और ऐसे पहाड़ों पर जल स्त्रोत अधिक पाये जाते हैं । इन्हीं जल स्त्रोंतों से प्रस्फुटित जल बुलबुलों के रूप में फूटताहुआ पहाड़ी धरती पर बहता है । यही जल लोहे की परनालियों अथवा प्लास्टिक के पाइपों की सहायता से सीमेंट की बनी होजियों में एकत्रित किया जाता है जहॉ से आम लोग उपयोग हेतु प्राप्त् करते  हैं । पहाडी यात्रा में अक्सर होजियों के जल निकास मार्ग पर शेर या हाथी की मुखाकृति दिखलाई दे जाती है । प्राकृतिक रूप से औषधी गुणों से  युक्त यह जल बड़ा ही स्वास्थ्यवर्धक होता है ।
    उत्तराखण्ड में जल को विष्णु भगवान के प्रतीक के रूप मेंपूजा जाता है क्योंकि जल में ही हरि नारायण का वास है । जल की निर्बाध आपूर्तिहेतु जल स्त्रोत पर पत्थरों की चिनाई करके सीढ़ी दार कुण्ड बनाये जाते है जिन्हें नौला कहा जाता है । नौले के अन्दर गवाक्ष (आले) में विष्णु एवं विष्णु प्रिया (लक्ष्मी देवी) की अनगढ़ प्रतिमाएं रखी जाती है । नाले को सदैव स्वच्छ रखा जाता है । नौले के अन्दर बरतन धोना, कपड़े धोना तथा स्नान करना वर्जित रहता है । नौले को केवल जल प्रािप्त् हेतु एवं मांगलिक कार्य हेतु प्रयुक्त किया जाता है । नौले पर आकर महिलाएं पूजा अर्चना एवं प्रदक्षिणा करती है । जल पूजन के बड़े श्रेयस संस्कारों को निर्वाह होता है पहाड़ों पर । पहाड़ी सरिताआें पर जल संग्रह एवं उसके उपयोग पर आधारित घराट की बहुउद्देशीय व्यवस्था भी रहती है। यह घराट लघु उद्योग के रूप में मान्यता प्राप्त् है तथा अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक है ।
    हिमालय पर्वत ही मानसूनी हवाआें के मार्ग में बाधा बनकर वर्षण को प्रेरित करता है  यह हवाएं चाहे बंगाल की खाड़ी से उठी हो चाहे अरब सागर से उठी हो, दोनों ही स्थितियों में हिमालय हमारा सहायक है । यदि हिमालय नहीं होता तो विशाल भू-भाग शुष्क मरूस्थल होता । हिमालय से निकली नदियों ने ही हमें जल समृद्ध हरियाले मैदान दिये है । हिमालय का हम पर उपकार है क्या हम भी पहाड़, पेड़ और पानी से अपना सहकार निभा रहे है ? यह विचारणीय प्रश्न है ।
स्वास्थ्य
स्वास्थ्य कानून से टकराते प्रतिष्ठान
                                                    सोनल माथरू

    भारत में अनियंत्रित स्वास्थ्य सेवाआें पर नकेल कसने को सरकारी प्रयासों की खिलाफत करते निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता यह भूल जाते हैं कि भारत में करीब ४ करोड़ नागरिक प्रतिवर्ष महंगी स्वास्थ्य सेवाआें की वजह से गरीबी रेखा से नीचे जा रहे हैं । निजी क्षेत्र की अनाप-शनाप लाभ कमाने की प्रवृत्ति यहां भी अपना असर दिखा रही है और लोग घर बार बेचकर अपने सगे संबंधियों का उपचार करवा रहे हैं । आवश्यकता महज निजी स्वास्थ्य क्षेत्र पर नकेल कसने की नहीं बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें को बेहतर एवं सर्वसुलभ बनाने की है ।
    केन्द्र द्वारा चिकित्सा शिक्षा के नियमन संबंधी प्रयासों के प्रति अप्रसन्नता दर्शाने के पश्चात् अब चिकित्सकों ने बिना किसी जवाबदेही के फलते-फूलते चिकित्सकीय संस्थानों के नियमन के लिए उठाए जा रहे सरकारी प्रयासों के खिलाफ कमर कस ली है । देश मेंचिकित्सकों की सबसे बड़ी संस्था इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन (आई.एम.ए.) अनेक राज्य सरकारों को धमकी दे रही है कि यदि उन्होनें रोग नियमन स्थापना (पंजीयन एवं नियमन) अधिनियम, २०१० जो कि एक केन्द्रीय कानून है, को लागू किया तो वह उनके खिलाफ मुकदमा दायर कर देगी ।
    संघीय स्वास्थ्य विभाग एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताआें का कहना है कि आईएमए का विरोध आधारहीन है । कोलकता स्थित संस्था पीपुल फॉर बेटर ट्रीटमेंट जो कि चिकित्सकों द्वारा की गई चिकित्सकीय लापरवाही के खिलाफ कार्य करती है, के कुणाल साहा का कहना है आई.एम.ए. तो केवल चिकित्सकों के हितों के लिए ही कार्य करती है । कुछ चिकित्सक इस कानून का इसलिए विरोध कर रहे है क्योंकि उन्हें दिखाई दे रहा है कि इसके लागू होने से उनके हितोंको चोट पहुंचेगी ।
    मार्च में बनाए गए इस कानून का लक्ष्य है कि सभी निजी एवं सरकारी अस्पतालों, क्लिनिक, जांच प्रयोगशाला को एक ही नियामक इकाई नेशनल काउंसिल फॉर क्लिनिकल इस्टेबलिशमेंट के अन्तर्गत लाकर सभी को गुणवत्तापूर्ण उपचार सुनिश्चित करवाना । इसका प्रमुख लक्ष्य है कि चिकित्सा प्रणाली में विद्यमान लागत पर अंकुश लगाना और आपातकालीन सेवाएं सुनिश्चित करना ।
    चूंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय है ऐसे में राज्यों को इसे लागू करने के लिए प्रस्ताव पारित करना होगा । अभी तक सिक्किम, मिजोरम, अरूणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान एवं झारखंड ने इसे अपना लिया है । अन्य अधिकांश राज्यों में आई.एम.ए. सरकारों को रोक रहा है । जबकि तमिलनाडु आई.एम.ए. वहां की सरकार को इस अधिनियम को न अपनाने हेतु मना चुकी है । आई.एम.ए. की पंजाब एवं दिल्ली शाखाआें ने धमकी दी है कि यदि उन्होनंें इसे अपनाया तो वह न्यायालय में जाएगी ।
    आई.एम.ए. जो कि २६ जून के देशव्यापी विरोध कर चुकी है की मुख्य चिंता यह है कि इस कानून की वजह से अधिकांश एकल चिकित्सक क्लिनिक बंद हो जाएंगी । आई.एम.ए. चेन्नई के सचिव जयलाल का कहना है निजी चिकित्सक ग्रामीण क्षेत्रोंमें भी मरीजों को सेवा देते हैं । वे इस कानून में दिए गए उच्च् मापदण्डों को पूरा नहीं कर सकते । यह कानून केवल कॉरपोरेट अस्पतालों को ही बढ़ावा देता है । दिल्ली स्थित जी.एम. मोदी हॉस्पिटल के निदेशक (प्रशासन) विनय लाजरस का कहना है कि कानून में दिए गए मानकों का पालन करना बड़े अस्पतालों के लिए समस्या नहीं है क्योंकि वे उपचार संबंधी दिशानिर्देशों का कठोरता से पालन करते हैं । हालांकि वे यह स्वीकारते है कि मल्टी स्पेशलिटी अस्पताल (अत्यन्त विशेषज्ञता वाले चिकित्सालयों) को अपनी उपचार संबंधी लागत को नियंत्रित करने में कठिनाई हो सकती है ।
    चिंता की एक अन्य वजह इसकी आकस्मिकता संबंधी धारा है, जिसके अन्तर्गत सभी चिकित्सकीय संस्थानों के लिए आकस्मिकता की स्थिति में मरीज का उपचार अनिवार्य कर दिया गया है, भले ही वह इसके बदले भुगतान कर सकता हो या नहीं । सरकार का कहना है कि यह धारा दुर्घटना में घायल अनेक मरीजों एवं गर्भवती महिलाआें का जीवन बचाने में सहायक सिद्ध होगी । वही आई.एम.ए. दिल्ली के हरीश गुप्त का कहना है कि एक स्त्री रोग विशेषज्ञ दिल का दौरा पड़े मरीज को किस प्रकार से आकस्मिक चिकित्सा सेवा प्रदान कर सकती / सकता है ? यदि प्रत्येक क्लिनिक पर आकस्मिक चिकित्सा उपकरण स्थापित करना अनिवार्य हो जाता है तो खर्चो में अत्यधिक वृद्धि हो जाएगी ।
    विरोध के बावजूद संघीय स्वास्थ्य मंत्रालय कानून को लागू करने को तत्पर है । वह चिकित्सा की विभिनन धाराआें के माध्यम से उपचार के दिशानिर्देश तैयार कर रहा है । इन दिशानिर्देशों में प्रत्येक चिकित्सकीय प्रक्रिया की मूल्य श्रेणी भी बताई   जाएगी । कोई भी चिकित्सक या अस्पताल इन दिशानिर्देशों में तयशुदा से ज्यादा भुगतान नहीं ले सकता है । स्वास्थ्य मंत्रालय के सह सचिव ए.के. पांड़ा का कहना है कि इस वर्ष के अंत तक दिशानिर्देश तैयार हो जाएंगे और अगले वर्ष से इन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के साथ जोड़ दिया जाएगा । देश में कोई भी नहीं जानता कि स्वास्थ्य संस्थान किस प्रकार से उपचार करते हैं और किस आधार पर वे अनाप-शनाप शुल्क लेते हैं ।
    यदि कोई चिकित्सक क्लिनिक स्थापित करना चाहता है तो उसे महज नगरपालिका अधिकारियों को सूचना देना होती है । वही मंत्रालय के उपसचिव वी.पी. सिंह का कहना है हालांकि बारह राज्यों में स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों में पंजीकरण संबंधी कानून तो मौजूद हैं लेकिन वे पुराने पड़ चुके हैंऔर शायद ही कहीं उनका क्रियान्वयन हुआ है । यह आश्वासन देते हुए कि कोई भी क्लिनिक बंद नहीं होगी, उनका कहना है पहले दो वर्ष हमारा ध्यान राज्य एवं जिला स्तरीय परिषदों के माध्यम से आंकड़ों के एकत्रीकरण पर रहेगा । अंतत: उन्हें राष्ट्रीय परिषद् द्वारा तय किए गए मानकों का पालन करना ही होगा ।
ज्ञान विज्ञान
मंगल पर एलियंस की मौजूदगी रहस्य बरकरार
    एलियंस की मौजूदगी को लेकर अभी तक रहस्य ही बना हुआ है । अब मंगल ग्रह पर एलियंस की मौजूद होने की बात कही जा रही है। नासा के क्यूरियोसिटी रोवर को मंगल के आकाश में एक अजीब सी सफेद रोशनी नाचती हुई दिखी है । इसके अलावा क्यूरियोसिटी द्वारा भेजी गई तस्वीरों में आकश में दिखने वाले चार धब्बे भी दिखाई पड़े हैं । उड़नतश्तरियों (यूएफओ) को पहचानने वाले लोगों को दावा है कि ये धब्बे दरअसल एलियन्स (दूसरे ग्रह के वासी) के अंतरिक्षयान है, जो अंतरिक्ष में मानव की गतिविधियों पर नजर रख रहे हैं ।

 
नासा के क्यूरियोसिटी द्वारा मंगल की सतह से भेजी गई ये तस्वीरें फिलहाल एक पहेली बनी हुई हैं । हालांकि नासा और फोटोग्राफी के विशेषज्ञों का कहना है कि यह और कुछ नहीं कैमरे के लेंस पर लगे कुछ दाग ही हैं । हालांकि, नासा ने इन संदिग्ध दृश्यों पर कोई टिप्पणी नहीं की है । क्यूरियोसिटी  द्वारा भेजी गई तस्वीरों में इन संदिग्ध धब्बों की पहचान यूट्यूब के यूजर स्टीफन हैनर्ड ने की । हैनर्ड एलियन डिस्कलोजर यूके नामक समूह के सदस्य हैं । नासा की बेबसाईट पर ये तस्वीरें सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है । हैनर्ड ने इस रोशनी का रहस्य सुलझाने के लिए तस्वीरों पर कई फिल्टरों को इस्तेमाल किया । हैनर्ड के अनुसार मंगल पर गए क्यूरियोसिटी ने जो तस्वीरें भेजी हैं, उनमें से इन चार धब्बों को पहचानना बहुत मुश्किल    है । फिलहाल ये तय किया जा रहा है कि यह कोई अज्ञात उड़नतश्तरी है, मिट्टी के कण हैं या फिर कुछ और ? 

मस्तिष्क से रक्त के थक्के निकालेगा उपकरण
    वैज्ञानिकों ने एक ऐसे उपकरण की खोज की है, जो मस्तिष्क में जमे रक्त के थक्के को हटा सकेगा । इसकी खोज के साथ ही मस्तिष्काघात (स्ट्रोक) के इलाज में एक नया दौर शुरू हो सकेगा ।
    ब्रिटिश जनरल द लेनसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के लॉस एंजेलिस स्ट्रोक सेन्टर के निदेशक तथा डेविड गेफेन स्कूल ऑफ मेडिसिन में न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर जेफरी एल. सावरे के नेतृत्व में इसकी खोज की गई है । सोलिटेर फ्लो रिजर्वेशन डिवाइस नामक इस उपकरण को क्लीनिकल परीक्षण में भी आशा से ज्यादा सफल पाया गया   है ।


पूरी तरह नई पीढ़ी के इस उपकरण की सहायता से मस्तिष्क की अवरूद्ध रक्तवाहिनियों में से थक्के कोपूरी तरह हटाया जाना संभव होगा । इसे एक पतली कैथेट्र ट्यूब की सहायता से अवरूद्ध रक्तवाहिनी में प्रवेश कराया जाता है । इस उपकरण की डिजाइन इस प्रकार की है कि यह रक्तवाहिनी में प्रवेश के बाद स्वत: अपना आकार बढ़ा लेता है । आकार बढ़ाने के दौरान यह थक्के पर दबाव डालता है तथा उसे जकड़ लेता है । जब उपकरण को रक्तवाहिनी से बाहर निकाला जाता है, तो इसकी जकड़ में आया थक्का भी बाहर निकल आता है तथा रक्तवाहिनी खुल जाती है । इस प्रक्रिया में ६१ प्रतिशत मरीजों के मस्तिष्क में रक्तस्त्राव भी नहीं हुआ । साथ ही स्ट्रोक होने के तीन महीनें बाद भी इसके उपयोग से थक्का हटाने में सफलता मिली है । सोलिटेर को अमेरिका के फूड एवं ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से भी मान्यता मिल चुकी है । वैज्ञानिकों का कहना है कि यह उपकरण इस्किमिक स्ट्रोक जैसी बीमरियों के इलाज को बदलकर रख देगा । इस्किमिक स्ट्रोक मस्तिष्क की रक्तवाहिनी के अवरूद्ध होने के कारण होता है ।

बच्च्े के जन्म के बाद माँकी याददाश्त में तेजी

    बच्च्े के जन्म के बाद महिलाआें की याददाश्त पहले से ज्यादा तेज हो जाती है । एक अध्ययन में खुलासा किया गया है कि माँ बनने के बाद महिलाआें की समझने व याद करने की शक्ति उन महिलाआें से ज्यादा बेहतर हो जाती है, जिनके बच्च्े नहीं है ।
    मियामी की कार्लोस अल्बिजु यूनिवर्सिटी की अनुसंधानकर्ता मेलिसा सैंटियागो के अनुसार अभी तक आम धारणा थी कि माँ बनने के बाद  महिलाआें की याददाश्त तथा सोचने-समझने की शक्ति में कमी आती है, परन्तु इस अध्ययन ने यह तथ्य झूठला दिया है ।

 
    अध्ययन के लिए पहली बार माँ बनी ३५ ऐसी महिलाआें को चुना गया, जिनके बच्चें की उम्र १० से २४ माह के  बीच थी । साथ ही ३५ ऐसी महिलाआें को भी शामिल किया गया, जो कभी माँ नहीं बनी । इन्हें एक कागज १० सेकण्ड तक दिखाया गया, जिस पर ६ प्रतीक चिन्ह बने हुए थे । इसके बाद इनसेकहा गया कि याददाश्त के आधार पर देखे गए प्रतीकों की तस्वीर बनाएँ । यह प्रयोग कई बार दोहराया गया । पहली बार में मां बनी महिलायें समान रहीं, परन्तु दूसरी व तीसरी बार प्रयोग में माँआें का प्रदर्शन बेहतर रहा । इसके बाद महिलाआें को विभिन्न प्रतीक चिन्हों को एक साथ दिखाकर चित्र बनाने को कहा    गया । इस प्रयोग में भी माँआें का प्रदर्शन दूसरे समूह की महिलाआें से बेहतर रहा ।
    गर्भावस्था के दौरान विभिन्न हार्मोनों में परिवर्तन के कारण महिला का मस्तिष्क करीब पांच प्रतिशत तक सिकुड़ जाता है । प्रसूति के बाद छ: महीनों में मस्तिष्क पुन: अपने आकार में वापस आता है । ताजा अध्ययन में पता चलता है कि अपने आकार में वापस आने के दौरान मस्तिष्क अपने आप को इस प्रकार समायोजित   करता है, जिससे याददाश्त सुधर जाती है ।

क्लिनिकल ट्रायल में भारत अव्वल

    भारत में दवाआें के परीक्षण के दौरान मौतों की अधिक संख्या पर चिंता के बीच ताजा आंकड़ों से यह बात सामने आई है कि दुनिया में हो रहे क्लिनिकल ट्रायल का १.५ प्रतिशत भारत में हो रहे हैं ।
    पिछले चार वर्षो से क्लिनिकल ट्रायल के दौरान औसतन देश में प्रति सप्तह १० लोगों की मौत हो रही है । वर्ष २००८ से २०११ के बीच भारत में क्लिनिकल ट्रायल के दौरान २०३१ लोगों की मौत की खबर है । इसके कारण सरकार को क्लिनिकल ट्रायल की अनुमति देने की व्यवस्था की समीक्षा के लिए समिति का गठन करना पड़ा है ।



    विश्व विघालय संगठन के आंकड़ों के मुताबिक, नई औषधियों की क्षमता का पता लगाने के लिए मनुष्यों पर अब तक १७६.६४१ क्लिनिकल ट्रायल  हो चुका है । इनमें से २७७० परीक्षण भारत में हुए है । दुनिया में हुए कुल औषध परीक्षण का १.५ प्रतिशत भारत में हुआ है । इसके कारण होने वाली मृत्युदर लगातार उच्च् बनी हुई है । २००८ में इसके कारण २८८ लोगों की मौत हुई जबकि २००९ में ६३७ लोगों, २०१० में ६६८ लोगों और २०११ में ४३८ लोगों की मौत हुई ।
    स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन से प्राप्त् आंकड़ों से क्लिनिकल ट्रायल के बारे में जो विश्लेषण सामने आया है वह स्तब्ध करने वाला है । क्लिनिकल ट्रायल  के कारण करीब एक व्यक्ति रोज मारा जाता है ।
    देश में पर्याप्त् कानूनी प्रावधान नहीं होने की वजह से बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन मौंतों के लिए मामूली सी रकम मुआवजे के रूप में देकर छुटकारा पा रही है ।    
कविता
ये पहाड़ियाँ
डॉ. सत्यानंद बड़ोनी

ये पहाड़ियाँ
ये वादियाँ
कर रही अठखेलियाँ
ये हिमतुंग श्रेणियां पसार रही हैं पादुका,
आशीर्वाद दे रहा
अरण्य
हिला के पातिका
स्वप्निल बुग्याल से
कुसुमित ये घाटियाँ
स्वच्छ, शीतल, मन्द बयार
वितरित करती स्वच्छता
निर्मल सुस्वादु जल
प्राण पखेरू सींचता,
अनिवर्चनीय देवभूमि
ऋषि मुनियों की तपस्थली
दृश्य निहार कर यहाँ
गगन पुलकित है जहाँ,
शांत, सौम्य यह धरा
सकल जगत की शिक्षिका
भटकें यदि हम कभी
हिमराज की हमें ताड़ना,
ऊँचाईयों का अहसास नित करा
हिमराज हमें पुकारता
देखें नीचे जब कभी
हिमराज हमें फटकारता
यहे पहाड़ियाँ ये वादियाँ
सामाजिक पर्यावरण 
नशे से संक्रमित अर्थव्यवस्था
                                                    भारत डोगरा

    डेढ़ हजार की आबादी वाला एक गांव शराब, तंबाखु व गुटखे जैसे नशों पर प्रतिवर्ष तकरीबन ५४ लाख रूपये खर्च करता है । इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत के ग्रामीण परिवेश में रहने वाली करीब ९० करोड़ आबादी इन मदों पर कितना खर्च करती है । सौभाग्यवश अभी महिलाएं इन व्यसनों से अधिक प्रभावित नहीं हैं । महिलाआें द्वारा शराब दुकान का विरोध करने के बाद उत्तराखंड सरकार द्वारा मोबाइल वेन के माध्यम से शराब बिक्री को वैधानिक बना देना, शासन की मंशा को बेनकाब कर रहा   है ।
    दूर-दूर गांवों में भी शराब व गुटखे का चलन तेजी से बढ़ रहा है व इनके कारण इन गांवों में अनेक अन्य समस्याएं भी उग्र रूप ले रहीं है । दूसरी ओर सभी प्रकार के नशों को नियंत्रित करने से गांवों में सुधार कार्यो के लिए काफी आर्थिक मदद मिल सकती है ।
    हाल ही में दक्षिण राजस्थान में गांव में कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताआें की एक कार्यशाला में यह अनुमान लगाने का प्रयास किया गया कि गुटखे, बीड़ी, सिगरेट व शराब के बढ़ते चलन की कितनी जबरदस्त कीमत हमारे गांवों को चुकानी पड़ रही है । विस्तृत चर्चा के दौरान चौंकाने वाले परिणाम सामने आए । ध्यान रहे कि यह चर्चा नशे से बहुत अधिक प्रभावित किसी विशेष गांव के संदर्भ में नहीं की गई थी, अपितु एक औसत गांव के संदर्भ मेंकी गई थी जिसकी कुल जनसंख्या मात्र डेढ़ हजार के आसपास है ।
    सामाजिक कार्यकर्ताआें ने बताया कि गुटखे का चलन तेजी से बढ़ा है व महिलाआें व किशोरों तक भी यहां इसका उपयोग पहुंच गया है । अनुमान लगाया गया कि गांव के लगभग चार सौ व्यक्ति गुटखे का सेवन करते हैं । गुटखे पर प्रति व्यक्ति प्रति दिन का अनुमानित खर्च दस रूपए बताया गया । इस हिसाब से एक दिन में पूरे गांव में ४००० रूपए गुटखे पर खर्च होते हैं व एक वर्ष में लगभग १४ लाख रूपए इस पर खर्च होते है ।
    शराब के बारे में अनुमान लगाया गया कि एक दिन में औसतन लगभग २०० बोतलों की खपत होती   है । ४० रूपये प्रति बोतल के हिसाब से गांव में एक दिन में लगभग ८००० रूपए शराब पर खर्च होते हैं । इस तरह पूरे वर्ष में इस गांव में लगभग २८ लाख रूपए शराब पर खर्च अनुमान लगाया गया है । इसी तरह सिगरेट, बीड़ी व तंबाखू (गुटखे के अतिरिक्त) के बारे में अनुमान लगाया गया कि इस पर एक वर्ष में १२ लाख रूपए खर्च होते है ।
    यह तो वह खर्च है जो सीधे-सीधे शराब (२८ लाख रूपए), गुटखे (१४ लाख रूपए) व बीड़ी-सिगरेट- तंबाखू (१२ लाख रूपए) पर खर्च होता है यानि कुल लगभग ५४ लाख     रूपए । पर केवल यही खर्च नहीं है क्योंकि इनके सेवन से जो बीमारियाँ होती हैं, उस पर भी तो खर्च करना पड़ता है । शराब पीने के बाद कई बार तोड़-फोड़ की घटनाएं होती है, लड़ाई-झगड़े होते हैं, बात पुलिस कचहरी तक भी पहुंचती है । शराब पीने वाले कई परिवारों पर कर्ज हो जाता है व उसका ब्याज भी चुकाना पड़ता है । यदि इस तरह के खर्च को भी जोड़ लिया तो एक ही गांव में एक वर्ष में लगभग ६० से ६५ लाख रूपए तो विभिन्न तरह के नशों पर खर्च हो जाते हैं । इसमें अभी किसी नशीली दवा पर खर्च नहीं जोड़ा गया है हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो यह प्रवृत्ति भी कई गांवों को तहस-नहस कर रही है ।
    इस चर्चा में भाग लेने वाले कई भागीदारों ने कहा कि आंकड़े थोड़े बहुत ऊपर-नीचे हो सकते है । विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग अनुमान प्रस्तुत कर सकते हैं, पर कुल मिलाकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि १५०० की आबादी वाले एक गांव में ६५ लाख रूपए नहीं तो इससे कुछ कम विभिन्न तरह के नशों व इनसे हो रही बर्बादी पर औसतन खर्च हो ही रहे है ।
    चर्चा में कुछ कार्यकर्ताआें ने बताया कि हाल ही में राजस्थान सरकार ने गुटखे पर जो प्रतिबंध लगाया है उससे इसकी खपत भविष्य में चाहे रूक जाए पर अभी तो यह ब्लैक में बिकने लगा है यानि १ रूपए का गुटखा ३ रूपए में बिक रहा है ।
    एक चौंका देने वाला आंकड़ा यह भी है व इस चर्चा में ऐसा कहा भी गया कि यदि एक बड़ा अभियान चला कर इस खर्च में आधी भी कमी कर दी जाए तो प्रतिवर्ष २५ से ३० लाख रूपए संतुलित भोजन व बेहतर स्वास्थ्य के लिए उपलब्ध हो जाएगें ।
    यदि गांववासी यह तय कर लें कि नशे को छोड़ने से जो पैसा बचाएंगे उसका मात्र १० प्रतिशत गांव के सुधार कार्यो के किसी कोष में जमा करवाएंगे तो प्रतिवर्ष गांव की भलाई के लिए ५ से ६ लाख रूपए उपलब्ध हो सकते है, जिससे खाद्यान्न बैंक, स्वरोजगार के विभिन्न उपाय जैसे    कई सार्थक कार्य आरंभ किए जा सकते है ।
    पर दुख की बात यह है कि सरकार ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहित करने के स्थान पर गांव-गांव में शराब  के ठेके खोलने को तेजी से बढ़ावा दे रही है । हाल के वर्षो में गांवों में या उनके आसपास शराब की दुकानों या ठेकों में बहुत तेजी से वृद्धि आई है । शराब की खपत बढ़ाने में इसकी बड़ी भूमिका है । कुछ समय पहले जब उत्तराखंड में कुछ महिलाआें ने आंदोलन कर ऐसे कुछ ठेकों को हटाया तो मोबाइल वेन भेजकर शराब की बिक्री की जाने लगी । शिकायत करने पर अधिकारियों ने मोबाईल वेन में शराब बेचने पर रोक लगाने में इंकार कर  दिया । इस तरह सरकारी संरक्षण में गांव-गांव में शराब बेचने का एक नया रास्ता खुल गया ।
    अब समय आ गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा अभियान चला कर सरकार को नशा समर्थक नीतियां अपनाने से रोका जाए तथा साथ ही गांव-गांव में नशा विरोधी समितियों का गठन कर गांवों को नशामुक्त बनाने के प्रयास किए      जाएं ।
पर्यावरण समाचार
घरों में मोबाइल टावर के खिलाफ  कार्रवाई

    मोबाइल टावर लगान वाली कंपनियों को अब इस बात का ख्याल रखना होगा कि उनके टावर के आसपास कोई मकान न हो । मोबाइल कंपनियों को भी ज्यादा विकिरण पैदा करने वाले हैडसेट का निर्माण बंद करना होगा । केन्द्र सरकार ने मोबाइल टावरों से प्रसारित होने वाले विकिरण और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके असर के मद्देनजर पिछले  दिनों कड़े दिशा-निर्देश जारी कर दिए । लागू होने वाले इन दिशा-निर्देशों का असर मोबाइल नेटवर्क पर भी पड़ सकता  है ।
    संचार, सूचना व प्रौघोगिकी मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि तकनीक को आगे बढ़ाने का मतलब यह नहीं कि आम जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ हो । नए दिशा-निर्देशों के मुताबिक कंपनियों को ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि मोबाइल टावरों से होने वाले विकिरण में ९० फीसदी तक कमी आ सके । इनकी निगरानी टेलीकॉम इन्फोर्समेंट  रिसोर्स एंड मॉनीटरिंग (टीईआरएम) संस्था करेगी । नीतियों का पालन नहीं करने वाली कंपनियों के खिलाफ भारी आर्थिक जुर्माना लगाने का प्रावधान किया गया है । दिशा-निर्देशों के मुताबिक ज्यादा विकिरण करने वाले मोबाइल हैडसेटों का निर्माण ३१ अगस्त २०१३ तक बंद करने की बात कही गई है । कंपनियों को हैंडसेटों से होने वाले विकिरण की जानकारी प्रमुखता से प्रदर्शित करने को कहा गया है ।
    नए दिशा-निर्देश में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि टावरों पर लगे एंटीना के सामने कोई घर नहीं होना चाहिए । अगर छत के ऊपर टावर लगाया गया है तो उसमें एक से ज्यादा एंटीना नहीं होने चाहिए । दो एंटीना वाले टावरों से निकटतम मकान की दूरी ३५ मीटर तय की गई है । अगर १२ एंटीना वाला टावर है तो उसमें ७५ मीटर की दूरी पर ही मकान होने की बात कही गई है ।