शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

प्रदेश चर्चा
म.प्र. : व्यर्थ का विस्थापन
                                कुमार संभव श्रीवास्तव

    पहले एशियाई शेर और उसके बाद चीता । शेर गुजरात नहीं दे रहा और चीते के आगमन पर सर्वोच्च् न्यायालय ने रोक लगा दी है । लेकिन पालपुर कुनो के सहरिया आदिवासियों को सत्रह बरस पहले जंगलों से बेदखल कर दिया था । आज शेर के साथी यानि सहरिया नारकीय जीवन बिताने को बाध्य हैं ।
    मध्यप्रदेश के खजूरी गांव के रंगू को कैमरे से डर लगता है । उसका यह डर उसके निजी अनुभव से उपजा है । वर्ष २००० में उसके परिवार को अन्य १६५० लोगों के साथ श्योपुर जिले में स्थित पालपुर कुनो वन्यजीव अभयारण्य से बाहर निकाल दिया गया था । उन दिनों को याद करते हुए रंगू बताता है एक दिन सरकारी अधिकारी हमारी तस्वीर खींचने आए । जब हमने इसका कारण पूछा तो उन्होनें हंसते हुए कहा तुम्हें काला पानी भेजा जा रहा है । हमने सोचा कि वे मजाक कर रहे हैं । लेकिन बाद में उन्होनें हमें जंगल से बेदखल कर दिया । जंगल के बाहर बिताए पिछले बारह वर्ष किसी जेल से भी बद्तर है । रंगू सहरिया जनजाति का सदस्य है जिसका अर्थ है शेर का साथी । सहरिया देश की सर्वाधिक जोखिम में पड़े ७५ जनजातीय समूहों में से एक है ।
    सन् १९९९ से २००२ के मध्य  कुनो के अंदर स्थित भलीभांति सिंचित और उपजाऊ व निचली भूमियोंवाले चौबीस गांवों को बिना उचित मुआवजे के असिंचित एवं पथरीली पहाड़ी भूमि पर स्थानान्तरित कर दिया गया । इसकी वजह यह थी कि सन् १९९५ में केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने एक सरंक्षण परियोजना के अन्तर्गत गुजरात के गिर राष्ट्रीय पार्क में पाए जाने वाले एशियाई शेरों   को वहां से कहीं और बसाने के लिए केवल कुनो को ही उपयुक्त पाया । इस बात को सत्रह वर्ष बीत गए हैं । लेकिन वहां अब तक शेर नहीं लाए गए है । इसकी वजह है कि गुजरात ने अपने इस गर्व को किसी और के साथ बांटने से इंकार कर दिया है । जैसे ही  गुजरात की रजामंदी की उम्मीद धूमिल पड़ती गई, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने तय किया कि अब भारत में विलुप्त् हो चुके चीतों की प्रजाति को वह नामीबिया से लाकर कुनो बसाएगा । लेकिन यह योजना भी आैंधे मुंह गिर पड़ी ।
    किसी को राहत नहीं ? - मुआवजा पैकेज के तहत प्रत्येक परिवार को दो हेक्टेयर कृषि भूमि एवं भवन निर्माण के लिए ३६००० रूपए दिए    गए । जिन लोगों के पास दो हेक्टेयर से ज्यादा जमीन के कागजात थे, उन्हें अतिरिक्त भूमि हेतु नकद मुआवजा विस्थापन के नौ वर्ष पश्चात दिया      गया । अनेक वनवासी बिना सरकारी रिकॉर्ड के खेती कर रहे हैं । उन्हें भूमि के बदले मुआवजा नहीं दिया गया । लघु वनोपज से होने वाली आमदनी का भी मुआवजा इन्हें प्राप्त् नहीं हुआ । आमदनी का अन्य स्त्रोत न होने से अनेक सहरियाआें ने रोजदारी पर मजदूरी करना प्रारंभ कर दिया ।
    चाक गांव के सुजानसिंह को वर्ष १९९१ में बेदखल किया गया  था । उसके १० में से ४ बेटे आज प्रवासी मजदूर हैं । उनका कहना है हमें दी गई भूमि बहुत उपजाऊ नहीं थी । एक फिट खोदने पर नीचे चट्टाने मिलती हैं । इससे मिलने वाली उपज से मेरे परिवार का पोषण नहीं होता था । अधिकारियों ने विस्थापित गांवों के खेतों में सिंचाई के लिए कुआं खोदने हेतु वित्तीय सहायता का प्रस्ताव दिया । रंगू और दो अन्य लोगों ने कुआं भी खोदा । लेकिन इसमें पानी नहीं आया । इसके बाद उसने एक और कुंआ खोदना शुरू किया लेकिन धन के अभाव मेंवह उसे पूरा नहीं कर पाया । उसका प्रश्न है मैं मजदूर का खर्च नहीं उठा सकता और यदि मैं कुंआ खोदूंगा तो मेरे परिवार के लिए कौन कमाएगा ?
    दिल्ली स्थित अम्बेडकर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ह्यूमन इकॉलोजी (मानव पारिस्थितिकी अध्ययन केन्द्र) की अस्मिता काबरा द्वारा वर्ष २००९ में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि कुनो के गांवोंसे विस्थापित १० व्यक्तियों में से ८ गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे  हैं । गैर सरकारी संगठन संरक्षण के सैयद मेराजुद्दीन का कहना है इसकी मुख्य वजह है लघु वन उत्पादों तक उनकी पहुंच का प्रतिबंधित होना । काबरा का अध्ययन बताता है कि घटता कृषि उत्पादन, जंगली मांस, फलों और सब्जियों तक पहुंच बाधित होने से सहरियाआें पर बीमारी का प्रकोप भी बढ़ गया है । बाहर किए जाने के शुरूआती वर्षो में अनेक व्यक्तियों की मृत्यु की बात सामने आई थी ।
    उद्देश्य से भटकाव - पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने एशियाई शेरों को दूसरी जगह बसाने की की पहल भारतीय वन्यजीव संस्थान की उस अनुशंसा के आधार पर की थी, जिसमें कहा गया था कि गिर के उपलब्ध सीमित स्थान की वजह से आंतरिक प्रजनन (ईन ब्रीडिेंग) बढ़ेगा और शेरों में महामारी फैलने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी । अध्ययन के पश्चात् संस्थान ने शेरों के दूसरे रहवास के रूप में कुनों को चुना । इस कार्य में सफलता हेतु संस्थान ने यह अनुशंसा भी कि, अभयारण्य मं स्थित गांवों को कोर क्षेत्र से बाहर कर दिया जाए ।
    सुश्री काबरा के अनुसार अनुशंसाएं बिना किसी विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन के एवं बिना इस कानूनी अनुशंसा को ध्यान में रखे कि सहअस्तित्व की संभावनाएं तलाशी जाएं, की गई थी । जब गुजरात से कुछ शेर देने की बात की गई तो राज्य ने इस गर्वोक्ति के साथ  ऐसा करने से इंकार कर दिया कि उसने अपने प्रयत्नों से शेरों की जनसंख्या जो कि सन् १९८५ में १९१ थी को वर्ष २०१० में ४०० पर ला दिया है । सन् २००६ में दिल्ली स्थित गैर सरकारी संगठन बायोडायवरसिटी कंजरवेशन ट्रस्ट ने सर्वोच्च् न्यायालय में दायर जनहित याचिका के माध्यम से गुजरात सरकार को इस संबंध में दिशानिर्देश देने की अपील दायर की । यह मामला अभी भी न्यायालय में लंबित है ।
    शेरों के हस्तान्तरण परियोजना की स्थिति को देखते हुए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने चीता को कुनो में लाने के लिए ३०० करोड़ रूपये का निवेश करने का निश्चय किया । चीता सन् १९५२ में भारत से विलुप्त् हो गया था । वन्यजीव संस्थान जिसने इस परियोजना की व्यवहार्यता का अध्ययन किया है, का कहना है कि एक बार कुनों में चीता के आ जाने से शेरों को भी यहां आना बाधाकारक नहीं होगा । वर्ष २०१२ में हुई एक सुनवाई में गुजरात ने तर्क दिया कि कुनो मेंशेर इसलिए नहीं लाना चाहिए क्योंकि मंत्रालय की प्राथमिकता अभयारण्य में चीता लाने की है । लेकिन न्यायालय ने इस मामले में नियुक्त अपने सलाहकार पी.एस. नरसिम्हा के आवेदन पर चीता परियोजना के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी ।
    यह तय करने के लिए तो संघर्ष चलता ही रहेगा कि किस प्रजाति को कब यहां लाया जाना है, लेकिन वन विभाग सहरियाआें को कुनो के नजदीक बसने की अनुमति न देने पर दृढ़ है । नयागांव को वर्ष २००१ में बेदखल किया गया था । दो वर्ष पश्चात् नयागांव से निकाले गए ४० परिवार पुन: अभयारण्य में आ गए । क्योंकि प्रयत्नों के बावजूद उन्हें दिए गए खेतों में फसल नहीं हो पा रही थी । छ: माह के भीतर अधिकारियों ने इस वायदे के साथ उन्हें पुन: बेदखल कर दिया कि वे उनके खेतों को उपजाऊ बनाएंगे ।
    विभाग के बेमन से किये जा रहे प्रयासों को देखते हुए ये परिवार पुन: वर्ष २००५ में अभयारण्य में वापस आने को बाध्य हो गए । विभाग द्वारा जबरदस्त दबाव बनाए जाने के बाद इस वर्ष अप्रैल में उन्हें पुन: बेदखल होना पड़ा ।
    श्री बारेवाल कहते है जिला कलेक्टर ने खेतों की बाउंड्रीवाल, तीन हैंडपम्प एवं मकान बनाने के लिए २५००० रूपए देने का वायदा किया था । बाद में उन्होंने धमकी दी कि यदि हम वहां से नहीं हटेंगे तो हमारी झोपड़ियां जला दी जाएगी ।
    गांववासी अब कच्च्े मकान में रहते है और प्रत्येक को मकान बनाने के लिए  दस हजार एवं गांव को मात्र एक हैंडपम्प मिला है ।
    श्री बारेवाल का कहना है हमारे पास आय का कोई और साधन नहीं है । हमने जो कुछ कुनो के अंदर कमाया था उसी पर जिंदा हैं । वहीं कलेक्टर डी.बी. पाटिल का दावा है कि विस्थापित परिवार अभयारण्य के बाहर ज्यादा प्रसन्न है । उनका कहना है हम लोग गांव के भीतर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना के अन्तर्गत काफी काम करा रहे हैं। हो सकता है हमारे प्रयत्नों के बावजूद कुछ परिवारों की जमीनों से पैदावार नहीं निकल पा रही हो । अगर वे पास आते हैं तो हम उनकी भूमि बदल देंगे ।
    सहरियाआें की दुर्गति यही समाप्त् नहीं होती । राज्य ने अब कुनोके नजदीक स्थित नदी पर सिंचाई योजना प्रस्तावित कर दी है । अगर यह पारित हो गई तो १० गांवों की १२२० हेक्टेयर भूमि डूब में आ जाएगी । इसका अर्थ है १० में से ४ गांवो को पुन: विस्थापन की पीड़ा से गुजरना होगा ।

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