शुक्रवार, 18 जनवरी 2019



प्रसंगवश
गिद्धों को बचाने के लिए कार्टून अभियान 
म.प्र. बाघ संरक्षण अभियान की तर्ज पर वन विभाग ने गिद्धों के संरक्षण का भी अभियान शुरूकिया है । विभाग कार्टून सीरिज के माध्यम से आम जनता को बता रहा है कि गिद्ध प्रकृति के लिए कितने जरूरी है और उनके संरक्षण के लिए क्या करना होगा । विभाग के मैदानी कर्मचारी अपने मित्र मण्डली सहित परिचितों को कार्टून भेज रहे है । प्रदेश में १२ जनवरी को गिद्धों की गिनती होनी है । इस दृष्टि से अभियान को महत्वपूर्ण माना जा रहा है । 
अभियान का जनमानस पर ज्यादा प्रभाव पडे, इसलिए इसे धर्म से जोड़ दिया गया है । सिवनी के वनरक्षक रोहित शुक्ला ने कार्टून में गिद्धराज जटायू और लंकापति रावण के युद्ध का चित्रण किया है । जिसमें माता सीता का हरण करके ले जा रहे लंकापति हाथ मेंखड़ग होते हुए गिद्धराज को डायक्लोफेनिक इंजेक्शन दिखा रहे हैं और गिद्धराज इसे देखकर डर गए है। यह दर्द निवारक दवाई है जिसे दूसरे जानवरों को दर्द की स्थिति में दिया जाता है । मृत जानवरों के शरीर में गिद्धों की प्रजाति को खतरे में पहुंचाने का सबसे बड़ा कारण इसी दर्द निवारक दवा को माना जाता है । यह मृत मवेशियों के जरिए गिद्धों के शरीर में जाती है जिससे उनकी मौत हो जाती है । 
रोहित शुकला ने मनुष्यों की उनसे घृणा को गिद्ध परिवार की आपसी चर्चा के माध्यम से पेश किया है । उल्लेखनीय है कि बाघ आकलन अभियान के दौरान भी विभाग ने इसी तरह का अभियान चलाया था । 
विभाग ने ऐसे आधा दर्जन कार्टून जनता के बीच पहुंचा दिए है । इनके माध्यम से जनता से गिद्धों को संरक्षण देने की अपील तो की ही जा रही है । साथ ही उनसे गिद्धों की गिनती में सहयोग करने को कहा जा रहा है । विभाग ने उन ३३ जिलों के वन अमले को इस अभियान से जोड़ा है । जिनमें गिद्धों के ८८६ ठिकाने चिन्हित किए गए है । विभाग दूसरी बार गिद्धों की गिनती कर रहा है । इससे पहले वर्ष २०१६ में प्रदेश में सात हजार से ज्यादा गिद्ध गिने हुए थे । राज्य सरकार बैतूल के और भोपाल के केरवा क्षेत्र में ब्रीडिंग सेंट र खोलकर गिद्धों का संरक्षण कर रही है । 
गिद्धों की उपस्थिति वाले सबसे ज्यादा क्षेत्र छिंदवाड़ा जिले मे है । जिले में विभाग ने ९४ स्थलों का चयन किया है । वहीं रायसने में ८० और मन्दसौर में ७८ स्थल पाए गए है । प्रदेश में गिद्धों के संरक्षण के लिए लगातार काम हो रहे है । 

सम्पादकीय
अभूतपूर्व खतरे के दौर मेंजन्तु प्रजातियां 
 विश्व मेंं रीढ़धारी जीवोंकी संख्या में वर्ष १९७० और २०१४ के बीच के ४४ वर्षों में ६० प्रतिशत की कमी हो गई। यह जानकारी देते हुए हाल ही में जारी लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट (२०१८) में बताया गया है कि कई शताब्दी पहले की दुनिया से तुलना करें तो विभिन्न जीवों की प्रजातियों के लुप्त् होने की दर १०० से १००० गुना बढ़ गई है।
हारवर्ड के जीव वैज्ञानिक एडवर्ड विल्सन ने कुछ समय पहले विभिन्न अध्ययनों के निचोड़ के आधार पर बताया था कि मनुष्य के आगमन से पहले की स्थिति से तुलना करें तो विश्व में जमीन पर रहने वाले जीवों के लुप्त् होने की गति १०० गुना बढ़ गई है। इस तरह अनेक वैज्ञानिकों के अलग-अलग अध्ययनों का परिणाम यही है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त् होने की गति बहुत बढ़ गई है और यह काफी हद तक मानव-निर्मित कारणों से हुआ है।
जीवन का आधार खिसकने की चेतावनी देने वाले अनुसंधान केंद्रों में स्टाकहोम रेसिलिएंस सेंटर का नाम बहुत चर्चित है। यहां के निदेशक जोहन रॉकस्ट्रॉम की टीम ने एक अनुसंधान पत्र लिखा है जिसमें धरती के लिए सुरक्षित सीमा रेखाएं निर्धारित करने का प्रयास किया गया है। इसके अनुसार धरती की २५ प्रतिशत प्रजातियों पर लुप्त् होने का संकट है। कुछ वर्ष पहले तक अधिकतर प्रजातियां केवल समुद्रों के बीच के टापुओं पर लुप्त् हो रही थीं, पर बीस-तीस वर्ष पहले से मुख्य भूमि पर बहुत प्रजातियां लुप्त् हो रही हैं। डॉ. गैरार्डो सेबेलोस, डॉ. पॉल एहलरिच व अन्य शीर्ष वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि यदि १०० वर्ष में प्रति १०,००० प्रजातियों में से दो प्रजातियां लुप्त् हो जाएं तो इसे सामान्य स्थिति माना जा सकता है। पर यदि वर्ष १९०० के बाद की वास्तविक स्थिति को देखें तो इस दौरान सामान्य स्थिति की अपेक्षा रीढ़धारी प्रजातियों के लुप्त् होने की गति १०० गुना तक बढ़ गई। 
अध्ययन में बताया गया है कि यह अनुमान वास्तविकता से कम ही हो सकता है। दूसरे शब्दो में, वास्तविक स्थिति इससे भी अधिक गंभीर हो सकती है। 

सामयिक
कैसे लौटाएं, सूखती नदियों का प्रवाह
कृष्ण गोपाल व्यास

पिछले कुछ सालों में एक-एक कर हमारी नदियां सूखती जा रही हैं, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में अहम भूमिका निभाने वाले विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे संस्थान इस बदहाली से लगभग बेजार हैं । 
मध्यभारत की 'जीवन रेखा` मानी जाने वाली नर्मदा को ही देखें तो अव्वल तो उस पर ताने गए बड़े बांधों ने उसे महज आठ-दस तालाबों में तब्दील कर दिया है और दूसरे, बेरहमी से उलीची जा रही रेत ने उसके भू-गर्भीय जलस्त्रोतोंको नकारा कर दिया है । किनारे के रहवासी और सरोकार रखने वाले जानते हैं कि इन कारनामों से धीरे-धीरे नर्मदा खत्म होती जा रही हैं । ऐसे में सवाल है कि नदियों की अविरलता बनाए रखने और उसे वापस लौटा पाने के उपाय क्या हैंं ? 
सूखती नदियों के प्रवाह को वापस लौटाना संभव है। कुदरत ने हमें पर्याप्त पानी की सौगात दी है। यह काम समय लेगा पर नदियों को समग्रता में समझ कर निर्विवादित रूप से किया जा सकता है । उसके लिए बहुआयामी तौर-तरीकों को अपनाना होगा । सार्थक तथा संजीदा प्रयास करना होगा और प्रवाह को टिकाऊ  बनाए रखने के लिए नदी के पानी के बन्दोबस्त (जल प्रबन्ध) में समाज की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी । यदि हमारी मौजूदा पीढ़ी ने नदियों के घटते प्रवाह की अनदेखी की तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें नदियों के विनाश और पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुँचाने वाले बेहद गैर-जिम्मेदार, लालची पूर्वजों के तौर पर याद करेंगी । जिम्मेदार पूर्वज कहलाने के लिए हमें, तत्काल प्रभाव से नदियों की बदहाली को रोकना चाहिए । नदी जल की उपलब्धता ही विकास की बुनियाद है इसलिए कहा जा सकता है कि अब यह मामला सुरक्षित तथा टिकाऊ विकास से जुड़ा है । 
वास्तव में नदी प्रकृति द्वारा निर्धारित मार्ग पर प्रति पल समृद्ध होकर बहती पानी की अविरल धारा है । उसमें प्रवाहित पानी का प्रमुख स्त्रोत वर्षा जल है । जहाँ उत्तर भारत की नदियों (यथा-गंगा, यमुना, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र इत्यादि) को वर्षा और बर्फ के पिघलने से पानी मिलता है, वहीं दक्षिण भारत की नदियाँ (यथा-कावेरी, कृष्णा, गोदावरी, नर्मदा इत्यादि) वर्षा आश्रित नदियाँ हैं । बरसात के सहयोग के बिना नदियों का अस्तित्व संभव नहीं है ।
नदी का अपना परिवार (नदी-तंत्र) होता है । अपना इलाका (कछार) होता है। बरसात में कछार पर बरसा पानी, छोटी-छोटी नदियों के मार्फत बड़ी नदी को मिलता है । वह उस पानी को समेट कर आगे बढ़ती है। सहायक नदियों से मिला पानी उसके प्रवाह को बढ़ाता है। प्रवाह वृद्धि उसे अविरल तथा स्वस्थ रखती है। वैज्ञानिकोंके अनुसार वह पृथ्वी पर संचालित प्राकृतिक जलचक्र का अभिन्न अंग है। उसकी अविरलता कछार की गंदगी को हटाती है, कछार को रहने योग्य बनाती है। कहा जा सकता है कि धरती पर जीवन की निरन्तरता के लिए नदियाँ बेहद आवश्यक हैं ।
प्रत्येक नदी में बरसात के  मौसम में बरसाती पानी प्रवाहित होता है। वर्षा ऋतु बीतने के बाद नदियों में धरती की उथली परतों से मुक्त हुआ भूजल प्रवाहित होता है। अर्थात भूजल का योगदान ही गैर-मानसूनी प्रवाह को जिन्दा रखता है । भूजल के योगदान के खत्म होते ही नदी सूख जाती है । इस आधार पर कहा जा सकता है कि नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह की बहाली के लिए भूजल की आपूर्ति अनिवार्य है । यह आपूर्ति दो ही स्थितियों में संभव होती है-सूखती नदी को कृत्रिम तरीके से पानी मिल जाए या फिर बरसात का मौसम वापस लौट आए । नदियों के प्रवाह की बहाली के ये ही दो रास्ते हैं ।
आधुनिक युग में अनेक कारणों से भारतीय नदियों की सेहत पर बहुत सारे खतरे मंडरा रहे हैं । पहला खतरा है-बरसात के बाद के प्रवाह और भूजल के अविवेकी दोहन के कारण जल की मात्रा कम होना और दूसरा खतरा है-नदियों के पानी में गंदगी, प्रदूषण की मात्रा का लगातार बढ़ना । तीसरा अप्रत्यक्ष खतरा नदियों के सुरक्षा कवच को क्षतिग्रस्त कर रहा है । यह खतरा है- नदियों की रेत का अवैज्ञानिक तरीकों से असीमित खनन । यह तीसरा खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है । तीनों खतरे मिलकर नदी की कुदरती पहचान और उसकी अस्मिता को खत्म कर रहे हैं । इन्हीं कारणों से नदी की अविरलता घट रही है। उसमें प्रदूषण बढ़ रहा है। उसकी जैवविविधता घट रही है । उसके पानी में स्वत: ही शुद्ध होने का कुदरती गुण नष्ट हो रहा है । नदियां अपनी कुदरती जिम्मेदारियों को पूरा करने में असहाय लग रही हैं ।
मौजूदा हालातों को देखते हुए कुछ लोगों को लगता है कि सीवर ट्रीटमेंट प्लांट से छोड़े जाने वाले परिशोधित पानी या 'नदी-जोड़ परियोजना` की मदद से नदियों के प्रवाह को बढ़ाया जा सकता है । यह संभव नहीं है क्योंकि सीवर ट्रीटमेंट प्लांट का उद्देश्य नदी में मिलने वाले नाले के पानी की गंदगी को शोधित, साफ करना है, वहीं 'नदी-जोड़ परियोजना` का उद्देश्य बरसाती पानी को कृत्रिम तरीकों से बनाए गए जलाशयों में जमा करना है। इनमें से किसी भी योजना का उद्देश्य नदी के प्रवाह की बहाली नहीं है । इसके अतिरिक्त  यदि सीवर ट्रीटमेंट प्लांट के समूचे उपचारित पानी को नदी में डाल भी दिया जाए तो भी नदी की अस्मिता बहाल नहीं होगी, प्रवाह बहाली नहीं होगी । इन उपायों से नदी पुनर्जीवित नहीं होगी । 
ऐसे में भी आशा की किरण मौजूद है। भारत पर बरसने वाले पानी की मात्रा के आँकड़ों को देखें तो लगता है कि देश की अधिकांश नदियों में प्रवाह बहाली संभव है । हम मौजूदा मांग के साथ तालमेल बिठाकर नदियों की प्रवाह बहाली कर सकते हैं । राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों, खड़े तथा तीखे ढ़ाल वाले पहाडी भूभागों को छोड़कर बाकी सब जगह नदियों की बहाली संभव है । आवश्यकता समस्या के निदान के तरीकों को समझने और जरूरी नजरिए को अपनाने की है, उसे क्रियान्वित करने वाले सक्षम अमले की है, सही विभाग बनाने और इरादे की है । 
आवश्यकता देश के सभी नदी-तंत्रों पर काम करने की है । उल्लेखनीय है कि नदी-तंत्र का तानाबाना वृक्ष की तरह होता है । नदी-तंत्र की सहायक नदियाँ वृक्ष की जड़ों की तरह होती हैं । वे कछार के पानी को समेट कर मुख्य नदी को सौंपती हैं । यह काम जड़ों द्वारा तने और डालियों तथा पत्तों को पानी मुहैया कराने जैसा होता है । जिस प्रकार जड़ों द्वारा जलापूर्ति के बन्द हो जाने से वृक्ष सूख जाता है ठ ीक उसी प्रकार सहायक नदियों के योगदान के समाप्त होते ही पहले वे खुद सूखती हैं और फिर मुख्य नदी में प्रवाह कम होता जाता है । धीरे-धीरे मुख्य नदी पूरी तरह सूख जाती है ।
हमारा भूमण्डल
अध्यात्म की शक्ति से शांति की खोज
आचार्य डॉ. लोकेशमुनि 
भौतिक विकास के शिखर पर पहुंचे लोगों से बातचीत से जो तथ्य सामने आया उससे यही निष्कर्ष निकला है दुनिया में सर्वत्र शक्ति की पूजा होती है। लेकिन विडम्बना यह है कि हर कोई विध्वंस को शक्ति मान रहा है, कोई धन को तो कोई अस्त्र- शस्त्र को शक्ति का साधन मान रहा है। जबकि सबसे बड़ी शक्ति अध्यात्म है। यह सत्य भारत के अध्यात्म में ही उजागर हुआ है। दुनिया में अनेक शक्ति सम्पन्न लोग अपने आपको कमजोर एवं दुर्बल अनुभव करते हैं। शक्ति का अनुभव और शक्ति का उपयोग करना यह ध्यान और साधना के द्वारा संभव हो सकता है ।
हम लोगों ने दुनिया को योग का सूत्र दिया है, ध्यान का सूत्र दिया है। ध्यान करने का मतलब है अपनी शक्ति से परिचित होना, अपनी क्षमता से परिचित होना, अपना सृजनात्मक निर्माण करना, अहिंसा की शक्ति को प्रतिस्थापित करना । जो आदमी अपने भीतर गहराई से नहीं देखता, वह अपनी शक्ति से परिचित नहीं होता । जिसे अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं होता, अपनी शक्ति को नहीं जानता, उसकी सहायता कोई भी नहीं कर सकता । अगर काम करने की उपयोगिता है और क्षमता भी है तो वह शक्ति सृजनात्मक हो जाती है । 
आज दुनिया में सुविधावाद एवं भौतिकवाद बढ़ रहा है, जितनी-जितनी जीवन में कामना, उतनी-उतनी ध्वंसात्मक शक्ति । जितना-जितना जीवन में निष्कामभाव, उतनी-उतनी सृजनात्मक शक्ति । दोनों का बराबर योग है । प्रश्न होगा कि सृजनात्मक शक्ति का विकास करें? इसका उपाय क्या है? सृजनात्मक शक्ति का विकास करने के लिए अनेक उपाय हैं । शक्ति के जागरण के अनेक साधन हो सकते हैं पर उन सब में सबसे शक्तिशाली साधन है ध्यान । हमारी बिखरी हुई चेतना, विक्षिप्त चेतना काम नहीं देती । ध्यान का मतलब होता है कि विक्षिप्त चित्त को एकाग्र बना देना, बिखरे हुए को समेट देना । डेनिस वेटली ने अच्छा कहा है-''खुशी तक पहुंचा नहीं जा सकता, उस पर कब्जा नहीं किया जा सकता, उसे अर्जित नहीं किया सकता, पहना या ग्रहण नहीं किया जा सकता- वह हर मिनट को प्यार, गरिमा और आभार के साथ जीने का आध्यात्मिक अनुभव है ।``
हम  अपने प्रति मंगलभावना करें कि मेरी सृजनात्मक-आध्या-त्मिकशक्ति जागे और मेरी ध्वंसात्मक शक्ति समाप्त् हो, यह मूर्च्छा का चक्र टूटे । 
शक्ति के दो रूप हैं-ध्व्ंासात्मक और सृजनात्मक । कोई आदमी अपनी शक्ति का उपयोग सृजन में करता है और कोई आदमी अपनी शक्ति का उपयोग ध्वंस में करता है। बहुत लोग दुनिया में ऐसे हैं जो शक्तिशाली हैं पर उनकी शक्ति का उपयोग केवल ध्वंस में होता है । वे निर्माण की बात जानते ही नहीं । वे जानते हैं -ध्वंस, ध्वंस और ध्वंस । इसी में सारी शक्ति खप जाती है। हमारी दुनिया में आतंकवादी, हिंसक एवं क्रूर लोगों की कमी नहीं है। इस दुनिया में हत्या, अपराध और विध्वंस करने वालों की कमी नहीं है । ये चोरी करने वाले, डकैती करने वाले, हत्या करने वाले, आतंक फैलाने वाले एवं युद्ध करने वाले लोग क्या शक्तिशाली नहीं है? शक्तिशाली तो हैं, बिना शक्ति के तो ये सारी बातें हो नहीं सकती । दलाई लामा ने कहा भी है कि प्रेम और करुणा आवश्यकताएं हैं, विलासिता नहीं है। उनके बिना मानवता जीवित नहीं रह सकती । 
अमेरिका के विभिन्न शहरों  के लोगों से बातचीत से जो तथ्य सामने आया उससे यही निष्कर्ष निकला है कि धन कमाने की आज बहुत सारी विद्याएं प्रचलित हैं। एक विज्ञान में ही नए-नए विषय सामने आ रहे हैं। लेकिन आत्मा को छोड़कर केवल शरीर को साधा जा रहा है, आत्मविद्या का अभाव होता जा रहा है । अध्यात्मविद्या को बिल्कुल दरकिनार कर दिया गया है। परिणाम यह कि आज का मानव अशांत है, दिग्भ्रम है, तनावग्रस्त है, कुंठित है। पश्चिमी सोच आदमी को कमाऊ बना रही है, लेकिन भीतर से खोखला भी कर रही है। उपलब्धि के  नाम पर आज एक बड़े आदमी के पास कोठी, कार, बैंक बैलेंस सब कुछ है, लेकिन शांति नहीं है। 
आदमी शांति की खोज में है। लेकिन स्थूल से सूक्ष्म में गए बिना शांति नहीं मिल सकती, उन सच्चइयों से रू-ब-रू नहीं हो सकते जो सच्चइयां हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं । सारा ज्ञान पदार्थ की खोज और उसके उपयोग में खर्च हो रहा है, आत्मा की ओर से जैसे आंख मूंद ली गई है । अमेरिकी लेखक आइजैक एसिमोव कहते हैं, 'आज जीवन का सबसे दुखद पहलू यह है कि विज्ञान जिस तेजी से जानकारी बटोरता है, समाज उस तेजी से उनकी समझ पैदा नहीं कर पाता ।`
स्वस्थ व्यक्ति, स्वस्थ समाज व्यवस्था और स्वस्थ अर्थव्यवस्था-इन तीनों का लक्ष्य रखे बिना चहुंमुखी और संतुलित विकास लगभग असंभव है। मैंने अनेक कार्यक्रमों में बार-बार इस बात को कहा है कि आज की जो अर्थव्यवस्था है वह केवलकुछ लोगों को दृष्टि में रखकर लागू की जा रही है। क्या इसका उद्देश्य इतना ही है कि कोरा भौतिक विकास हो? जब तक भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास के बीच संतुलन नहीं होगा, यह व्यवस्था विनाश का कारण बनती रहेगी । जिस तरह बिना प्राण के किसी चीज का कोई मूल्य नहीं होता। आदमी सुंदर है,स्वस्थ है, लेकिन प्राण निकल जाने के बाद वह मुर्दा हो जाता है। ठीक इसी तरह वर्तमान विकास की स्थिति है। वह आदमी को साधन-सुविधाएं उपलब्ध करा रही है, लेकिन साथ में अशांति एवं असंतुुलन भी दे रही है। 
व्यक्ति, समाज या राष्ट्र-सबकी भाांति, सुरक्षा और सुदृढ़ता का पहला साधन है आध्यात्मिक चेतना का जागरण और अहिंसा की स्थापना । अस्त्र-शस्त्रों को सुरक्षा का विश्वसनीय साधन नहीं माना जा सकता । आज कोई भी राष्ट्र अध्यात्म की दृष्टि से मजबूत नहीं है इसलिए वह बहुत शस्त्र-साधन-संपन्न होकर भी पराजित है। हमें नये विश्व का निर्माण करना है, क्योंकि लेखिका एल. एम मॉन्टगोमेरी के शब्दों में, 'क्या यह सोचना बेहतर नहीं है कि आने वाला कल, एक नया दिन है, जिसमें फिलहाल कोई गलती नहीं हुई है।    
गांधी के १५० वे वर्ष पर विशेष 
महात्मा गांधी का न होना 
कुमार प्रशांत 
महात्मा गांधी का ३० जनवरी १९४८ को संसार से सदा के लिए विदा लेना क्या सिखाता, समझाता है ? जैसा वे खुद कहते थे कि उनका 'जीवन ही संदेश है` ।
पूूरा हिसाब लगाएं तो हिंदुत्व की गोली खाकर गिरते वक्त  बापू की उम्र थी, ७८ साल ३ माह २८ दिन । तारीख थी ३० जनवरी १९४८, समय था संध्या ५.१७ मिनट । स्थान था- नईदिल्ली का बिड़ला भवन । हिंदुत्ववादी संगठनों की तरफ से गांधीजी की हत्या करने की पांच असफल कोशिशों के बाद, जिनमें से अधिकांश में नाथूराम गोडसे को शामिल किया गया था, यह छठा प्रयास था जिसके लिए ९ गोलियां और एक बेरेट्टा एम १९३४ सेमी ऑटोमेटिक पिस्तौल खरीदी गई थी । यही पिस्तौल लेकर नाथूराम गोडसे महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में आया था । उसे निर्देश सीधा दिया गया था : भारतीय समाज पर महात्मा गांधी के बढ़ते प्रभाव को रोकने की हमारी हर कोशिश विफल होती जा रही है । अब एक ही रास्ता बचा है- उनकी शारीरिक हत्या ! 
गांधी का अपराध क्या है ? बस इतना कि हिंदुत्ववादी भारतीय समाज की जिस अवधारणा को मानते हैं, गांधी उससे किसी भी तरह सहमत नहीं हैं । वे हिंदुत्ववादियों से-और उस अर्थ में सभी तरह के धार्मिक-सामाजिक कठमुल्लों से- असहमत ही नहीं हैं बल्कि पूरी सक्रियता से अपनी असहमति जाहिर भी करते हैं, भारतीय समाज की अपनी अवधारणा को जनता के बीच रखते भी हैं।  असहमति, आजादी और लोकतंत्र का प्राण-तत्व है । असहमति के कारण किसी की जान नहीं ली जाएगी, यह वह आधार है जिस पर लोकतंत्र का भवन खड़ा होता है, लेकिन असहमति कठमुल्लों की जड़ों पर कुठाराघात करती है। करीब अस्सी साल के निहत्थे, बूढ़े गांधी पर छिपकर गोलियां बरसाते हिंदुत्ववादियों के हाथ नहीं कांपे क्योंकि उनके सपनों के समाज में असहमत की कोई जगह नहीं थी और  न है । 
यह सारा इतिहास कुछ याद यूं आ रहा है कि हम और दुनिया आज महात्मा गांधी की १५०वीं जयंती मना रही है। इतिहास वह आईना है कि जिसमें सभ्यता अपना चेहरा देखती   है । मैंउसमें गांधी को देखता हूं और खुद से पूछता हूं कि १५० साल का आदमी होता भी तो कितने काम का होता ? और यहां आलम यह है कि इस १५० साल के आदमी से ही हम सारे कामों की उम्मीद लगाए सालों से बैठे हैं । सारी दुनिया का चक्कर लगा कर हम लौटते हैं और कहते हैं कि हमें लौटना तो गांधी की तरफ ही होगा । ऐसा कहने वालों में सभी शामिल हैं - नोबल पुरस्कार प्राप्त वे दर्जन भर से ज्यादा वैज्ञानिक भी जिन्होंने संयुक्त  वक्तव्य जारी किया है कि अगर मानवता को बचना है तो उसे गांधी का रास्ता ही पकड़ना होगा, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला और ओबामा जैसे लोग भी जो कहते हैं कि न्याय की लड़ाई में वंचितों-शोषितों के पास लड़ने का एकमात्र प्रभावी नैतिक हथियार गांधी का सत्याग्रह ही है भौतिकविद् हॉकिंग्स जैसे वैज्ञानिक भी हैं जो जाते-जाते कह गये कि विकास की जिस दिशा में दुनिया ले जाई जा रही है उसमें मानव जाति का संपूर्ण विनाश हो जाएगा और तब कोई नया ही प्राणी, नये ही किसी ग्रह पर जीवन का रूप गढ़ेगा, चेग्वेवेरा जैसे गुर्रिल्ला युद्ध-सैनिक भी हैं जो राजघाट की समाधि पर सर झुकाते वक्त यह कबूल करता है कि वहां, क्यूबा में, उसकी पीढ़ी को पता ही नहीं था कि लड़ाई का यह भी एक रास्ता है, 'त्रिकाल-संध्या` लिखने वाले भवानीप्रसाद मिश्र सरीखे कवि भी हैं जो कविता में, कविता को जितना टटोलते हैं, गांधी ही उनके हाथ आता है, और ३० जनवरी मार्ग पर स्थित बिड़ला भवन में गांधी से किसी हद तक अनजान वह कोई लड़की भी है जो यह सुन-समझ कर फूट कर रो पड़ती है कि ८० साल के आदमी को हमने यूं मार डाला कि वह हमसे या हम उससे सहमत नहीं थे । बोली आंसू में डूबती आवाज में बोली थी: `यह तो पाप    हुआ !` इन लोगों या इन प्रसंगों से गांधी की महानता साबित करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। महानता व्यक्ति की होती है तो वह व्यक्ति के साथ ही चली जाती है । इतिहास के पन्ने पलटेंगे हम तो उसके हर पन्ने से चिपका एक-न-एक महान व्यक्ति मिलेगा ही । लेकिन वह उस पन्ने के बाहर कहीं नहीं मिलेगा । ३० जनवरी १९४८ को जिस नाथूराम गोडसे ने, पर्दे के पीछे छिपे कई नाथूरामों की शह पर गांधी को तीन गोलियों से धराशायी किया, सोचा तो उसने भी यही था कि वह इतिहास के एक पन्ने से गांधी को चिपका कर छोड़ देगा कि कहानी खत्म ! लेकिन ऐसा हुआ नहीं । जिस बूढ़ी, कमजोर काया को मारना था उसके लिए तो एक ही गोली काफी थी । दो नाहक ही बर्बाद की उसने । लेकिन जो मारा नहीं जा सका वह कितनी भी गोलियों से मारा नहीं जा सकता है क्योंकि वह सत्यं- शिवम-सुंदरम् की मानव जाति की वह अभीप्सा है जो न वृद्ध होती है, न मृत !
कभी वे चाहते थे कि वे १२५ साल जीएं ताकि मानव-जाति की उतनी सेवा कर सकें जितनी वे चाहते हैं। अपना शरीर उसी तरह साधा था उन्होंने । वे घात-प्रतिघात के किसी खेल में शामिल नहीं थे लेकिन गहन आवेग से भरे थे । उन्हें वह सब यहीं, इसी धरा पर, इसी जीवन में चाहिए था जिसकी साधना या खोज में साधक गुफाओं-जंगलों की खाक छानते फिरते हैं । किसी ने थोड़े व्यंग्य से और थोड़ी नाराजगी से गुफा जाने की सलाह दी थी तो उन्होंने कहा था कि जाऊं  कहां, मैं तो अपनी गुफा साथ लिये फिरता हूं । उनकी दौड़ बहुत थी और बहुत तेज थी । लोग भी और वक्त भी उनके साथ दौड़-दौड़ कर हार जाता था । अपने शरीर यंत्र पर ऐसा काबू और अपनी आवश्यकताओं पर ऐसा नियंत्रण जमाने ने देखा नहीं था । और खास यह कि उनकी यह सारी साधना निजी मुक्ति या उपलब्धि के लिए नहीं थी । वे तो वैकुंठ भी सबके साथ ही जाना चाहते थे। 
दक्षिण अफ्रीका में अपनी साधना के पंख फड़फड़ाते मोहनदास करमचंद गांधी को टॉल्सटॉय ने इसीलिए पहचाना था और अपने मित्र को लिखा था कि यह आदमी तुमुल कोलाहल के बीच बैठकर साधना की सिद्धि तक पहुंचने में लगा है और इसलिए हमें इस पर नजर रखनी चाहिए । भौतिकता के शिखर पर बैठे अमरीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा की हसरत थी कि काश वे गांधी से यह पूछ व जान सकते कि आखिर आदमी इतने कम संसाधनों में कैसे सार्थक जीवन जी सकता है । विनोबा को हिमालय की शांति और बंगाल की क्रांति का संगम साबरमती में मिला तो उनकी खोज विराम पा गई, जयप्रकाश माक्सवादी दर्शन के सारे पन्ने खंगाल कर भी जिस गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहे थे उसे गांधी ने ऐसे सुलझा दिया कि वे फिर कभी न उलझे, न ठिठके । 
लेकिन हम आज उलझे भी हैं और ठिठके भी हैं । आजादी के ७२ साल होते, न होते भारतीय समाज अपनी आंतरिक संरचना के बोझ से दबा लड़खड़ा रहा है । लोकतंत्र का ढांचा तो है लेकिन तंत्र किसी पौराणिक राक्षस की तरह सब कुछ लील जाने पर आमादा है और अनगिनत लोगों के लिए जीवन में सम्मान, समता और स्वतंत्रता की कोई सुगंध बची नहीं है। सत्ता की छीना-झपटी में सब यह भूल ही गये हैं कि वह भारतीय समाज है जिसकी पीठ पर यह धमा-चौकड़ी चल रही है । हममें से कुछ हैं जो अपनी सुविधा देख कर, कभी इसके लिए तो कभी उसके लिए तालियां बजाते हैं ।   अधिकांश हैं कि जो जीने के ऐसे दारुण संघर्ष में घिरे हैं कि जीवन की सुध ही रह गई है। हमारा समाज पागाल हो रहा है । सांप्रदायिकता, जातीयता, दरिद्रता, जहालत, आलसीपना, अशिक्षा और कुशिक्षा, गर्दन झुकाकर सब कुछ सह जाने की निरुपाता - यही सब तो था कि जिसने बैरिस्टर मोहनदास को बगावत के लिए मजबूर कर दिया था ।
गांधी : १५० गांधी के  गुणगान का अवसर नहीं है । यह गांधी को उनकी संपूर्णता में पहचानने  का और फिर हिम्मत हो तो उन्हें अंगीकार करने का वक्त है । हमने धर्मों के नाम पर, जातियों और वर्गोंाके नाम पर, खोखली रवायतों के नाम पर बहुत लड़ाइयां लड़ी हैंऔर फिर भी छूंछे-के-छूंछे ही रह गये हैं । आखिर क्या हुआ कि तमाम विकास के बाद भी ७२ सालों की आजादी के हाथ इतने खाली हैं ? इसलिए कि हम गांधी का अंतिम आदमी का जंतर भूल गये । चालाक सत्ता ने उसकी तरफ अपनी पीठ  कर दी । आजादी जब अपने सारे फलाफल के साथ अंतिम आदमी तक नहीं पहुंचती है तो वह गिरोहों के छल-कपट में बदल जाती है। अंतिम आदमी जिस आजादी की डोरी पकड़ न सके, वह आजादी कटे पतंग की तरह हवा में डोलती रहती है और उसे लूटने के लिए सारे शोहदे दौड़ लगाते रहते हैं । १५० साल के गांधी फिर से आवाज लगाते हैं : मेरा जंतर याद करो, अंतिम आदमी से जुड़ों ।  हम आजादी के 'गांधी-मंत्र` समझें और तंत्र को मजबूर करें कि वह अपनी दिशा बदले, तभी १५० साल पुराना संकल्प पूर्णता को प्राप्त होगा ।               
स्वास्थ्य
डेढ़ सौ साल जी सकते हैं मनुष्य
संध्या राय चौधरी
लंबी उम्र सभी चाहते हैं । महात्मा गांधी ने १२५ साल तक जीने की कामना की थी । उनकी इस कामना के पीछे उनके अनगिनत उद्देश्य थे, जिन्हें वे जीते जी पूरा करना चाहते थे। अब औसत आयुलगातार बढ़ रही है और वैज्ञानिक भी उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने के प्रयास में जुटे हैं । विज्ञान की एक नई शाखा के तौर पर उभरा है जरा विज्ञान यानी जेरोंटोलॉजी । इसके तहत करोड़ों डॉलर खर्च कर ऐसे जीन तलाशे जा रहे हैं,जो उम्र को नियंत्रित करते हैं ।
वैज्ञानिकों ने एज-१, एज-२, क्लोफ-२ जैसे जींस का पता भी लगा लिया है। वैज्ञानिकों ने युवा और अधेड़ लोगों के लाखों जीनोम को स्कैन कर पता लगाने की कोशिश की है कि शरीर पर कब उम्र का असर दिखने लगता है। सेल्फिश जीन किताब के लेखक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड डॉकिंस कहते हैं कि २०५० तक उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने का सूत्र हमारे पास होगा । स्टेम सेल, दी ह्यूमन बॉडी शॉप और जीन थेरपी के जरिए इंसान की उम्र को १५० साल से भी अधिक बढ़ाना संभव होगा ।  एस्टेलास ग्लोबल रीजनरेटिव मेडिसिन के अमेरिकी वैज्ञानिक रॉबर्ट लेंजा भी ऐसा मानने वालों में से हैं।         
अपना देश आयुष्मान भव, चिरंजीवी भव, जीते रहो जैसे आशीर्वादों से भरा पड़ा है। पता नहीं ऐसे आशीर्वादों के कारण या किसी और कारण से औसत आयु लगातार बढ़  रही है। १९९० में दुनिया की औसत आयु ६५.३३ साल थी जो आज बढ़कर ७१.५ साल हो गई है । इस दौरान पुरूषों की औसत आयु ५.८ जबकि महिलाओं की ६.६ साल बढ़ी । जब औसत आयु बढ़ रही है तो  १०० पार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है । शतायु होना अब अपवाद नहीं है। 
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट की मानें तो भारत में १२ हजार से अधिक ऐसे लोग हैं जिनकी उम्र १०० के पार है और २०५० तक ऐसे लोगों की तादाद छह लाख तक हो जाएगी । जापान इस मोर्चे पर दुनिया का सबसे अव्वल देश है। वहां के  गांवों में दो-चार शतायु लोगों का मिलना आम बात है । जापान के सरकारी स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक २०१४ में ५८,८२० लोग १०० से अधिक उम्र वाले थे। ऐसा नहीं कि जापान पहले से ही ऐसे बूढ़ों का देश रहा है। १९६३ में जब वहां इस तरह की गणना शुरू हुई थी, केवल १५३ लोग ही ऐसे मिले थे।
दुनिया भर में बढ़ रही औसत आयु और १०० पार के बूढ़ों की तादाद साफ-साफ इशारा करती है कि जीवन प्रत्याशा के मोर्चे पर हम आगे बढ़ रहे हैं । इसका सर्वाधिक श्रेय जाता है स्वास्थ्य सुविधाओं में बढ़ोतरी और सेहत के प्रति लोगों की बढ़ती जागरूकता को । अभी अपने देश में पुरूषों की औसत उम्र ६४ और महिलाओं की ६८ वर्ष है । पिछले ४० सालों में पुरुषों और महिलाओं की औसत उम्र क्रमश: १५ व १८ साल बढ़ी है। जीवन प्रत्याशा को लेकर गौरतलब बात है कि पुरूषों की अपेक्षा महिलाएं ज्यादा साल तक जीती हैं । यह रुझान बना रहा तो २०५० तक १०० के पार जीने वालों में महिला-पुरुष अनुपात ५४:४६ का होगा । यकीनन जीने के मोर्चे पर महिलाओं की जैविक क्षमता पुरुषों से अधिक  है ।
रिटायरमेंट की उम्र के बाद ज्यादातर लोगों की शारीरिक क्षमता का ग्राफ तेजी से नीचे गिरता है। वैसे अब देखने को मिल रहा है कि रिटायरमेंट के बाद लोगों ने नए सिरे से खुद को किसी काम से जोड़ा । दरअसल रिटायर होने के बाद भी करीब २०-२५ साल का जीवन लोगों के पास होता है। इस दौरान खुद को  काम से जोड़े रखना जीवन के प्रति न्याय ही है। ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ने तो बढ़ती उम्र की सक्रियता को समझकर मई २०१४ में एक कानून पारित कर दिया जिसके मुताबिक २०३५ से रिटायरमेंट की उम्र ७०  साल हो जाएगी । वहां की सरकार बुजुर्गो को काम पर रखने के लिए प्रोत्साहन और आर्थिक लाभ देती है। भारत और चीन जैसे देश को अभी से इस दिशा में सोचना होगा, क्योंकि आज ये युवाओं के देश हैं, लेकिन २०-२५ साल के बाद ये बूढ़ों के देश होंगे । 
उम्र को बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थ पर अगर सबसे ज्यादा गंभीरता से रिसर्च हो रहा है तो वह है गेटो नामक पौधा । जापान के ओकिनावा क्षेत्र में सबसे ज्यादा शतकवीर रहते हैं ।  यही इस रिसर्च का आधार बना है। ओकिनावा के रियूक्यूस विश्वविद्यालय में कृषि विज्ञान के प्रोफेसर शिंकिची तवाडा ने दक्षिणी जापान के लोगों की अधिक उम्र का राज एक खास पौधे गेटो को बताया है। गहरे पीले-भूरे रंग के इस पौधे के  अर्क से इंसान की उम्र २० प्रतिशत तक बढ़ सकती है । तवाडा पिछले २० साल से अदरक वंश के इस पौधे पर अध्ययन कर रहे हैं । तवाडा ने कीड़ों पर एक प्रयोग में पाया कि गेटो के  अर्क की खुराक से उनकी उम्र २२ प्रतिशत बढ़ गई। बड़ी हरी पत्तियों, लाल फलों और सफेद फूलोंवाला गेटो का पौधा सदियों से ओकिनावा के लोगों के भोजन का आधार रहा है। अन्य एंटी ऑक्सीडेंट की तुलना में गेटो ज्यादा प्रभावी पाया गया । अब यह जानने की कोशिश की जा रही है कि क्या गेटो का प्रयोग दुनिया के  अन्य हिस्सों के भिन्न परिस्थितियों के लोगों पर करने पर भी इसका परिणाम पहले जैसा रहेगा । 
चीन के हैनान प्रांत के चेंगमाई गांव में दुनिया के सबसे ज्यादा बुजुर्ग रहते हैं । यहां २०० लोग ऐसे हैं जो उम्र का शतक लगा चुके हैं । यहां संतरों की खेती खूब होती है। गांव सामान्य गांवों से बड़ा है। यहां की ५,६०,०० की आबादी में २०० लोगों ने पूरी सदी देखी है। यहां तीन सुपर बुजुर्ग भी हैं । सुपर बुजुर्ग यानी ११० वर्ष से अधिक उम्र वाले । दुनिया भर में ऐसे सिर्फ ४०० लोग हैं ।  ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय मूल के पति-पत्नी ने अपनी शादी की ९०वीं सालगिरह मनाई है। उनके आठ  बच्च्े, २७ पोते-पोतियां और २३ परपोते-पोतियां हैं । 
यह बुजुर्ग जोड़ा अपने सबसे छोटे बेटे पाल व उसकी पत्नी के साथ रहता है। पाल की मानें तो उनकी इतनी लंबी उम्र का प्रमुख राज तनाव मुक्त रहना है। वे कहते हैंकि मैंने उन्हें कभी बहस करते हुए नहीं देखा है । गौर करने वाली बात है कि वे दोनों खाने-पीने की बंदिशों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते। वे हर चीज खाते हैं । बस मात्रा थोड़ी कम होती है। रेड वाइन पति-पत्नी जरूर रोजाना पीते हैं । 
औसत उम्र के मामले में सबसे अव्वल देश के तौर पर जेहन में जापान का नाम आता है। लेकिन इससे भी आगे है मोनैको । यहां की औसत आयु ८९.६३ साल है। यहां के  लोगों की सबसे खास बात यह है कि वे खानपान के प्रति लापरवाह नहीं होते और तनाव बिल्कुल नहीं पालते ।  हरी सब्जी, सूखे मेवे और रेड वाइन का सेवन यहां सबसे ज्यादा होता है।
जापान में युवा से अधिक बुजुर्ग हैं । यहां की औसत आयु ८५ के आसपास है। यहां मछली और खास तरह के कंद का सेवन बहुत ही आम  है । तेल का प्रयोग बहुत कम है। स्टीम्ड फूड प्रचलन में है। ग्रीन टी के बिना जापानियों की सुबह नहीं होती । रेड मीट, मक्खन, डेयरी उत्पाद के सेवन से बचते हैं ।  
सिंगापुर दुनिया के सबसे बड़े पर्यटन स्थलों में से है। पर्यटक वहां की चमक दमक देख दंग रह जाते हैं । वहां का खानपान और जिंदादिली और पर्यावरणीय चिंता भी ध्यान देने लायक है। वहां के लोग स्वच्छ और स्वस्थ रहने में विश्वास करते हैं ।  तनावमुक्त जीवन और अच्छे खानपान के कारण ही यहां के लोगों की औसत आयु ८४.०७ साल है । 
फ्रांस के लोग बहुत तंदुरूस्त होते हैं,औसत आयु ८१.५६ साल है । यहां के लोग कम मात्रा में रेड वाइन का सेवन करते हैंजो कथित रूप से दिल के लिए अच्छी होती है। साथ ही यहां के लोग नियमित रूप से पैदल चलते हैंऔर तनाव से दूर रहते हैं । इस फैशनपरस्त देश के लोगों की जिदादिली भी मशहूर है। इटली की तरह यहां के आहार में भी ऑलिव ऑयल का भरपूर प्रयोग होता है।          
प्रदेश चर्चा 
म.प्र. : चुटका परियोजना पर पुनर्विचार आवश्यक 
राजकुमार सिन्हा 
          बिजली एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र है । एक ओर इससे करोड़ों लोगों को रोशनी मिलती है, दूसरी ओर, खेती, धंधे, उद्योग आदि भी बिजली पर निर्भर हैं । 'इन्डियन इलेक्ट्रीसिटी एक्ट-१९४८` का उद्देश्य भी सभी को उचित दर पर सतत बिजली उपलब्ध कराना था । इस समय देश में बिजली की स्थापित उत्पादन क्षमता तीन लाख ४४ हजार मेगावाट है, जबकि उच्च्तम मांग एक लाख ६५ हजार मेगावाट। कुल बिजली उत्पादन में ताप (थर्मल) विद्युत (५७.३ प्रतिशत), जल (हाइड्रो) विद्युत (१४.५ प्रतिशत), वायु (विन्ड) ऊर्जा (९.९ प्रतिशत), गैस (७.२ प्रतिशत), सौर (सोलर) ऊर्जा (६.३ प्रतिशत), बायोमास (२.६ प्रतिशत) तथा परमाणु (एटॉमिक) बिजली (२.० प्रतिशत) की हिस्सेदारी है ।
मध्यप्रदेश में बिजली की औसत मांग ८ से ९ हजार मेगावाट है तथा रबी फसल की सिंचाई के समय उच्च्तम मांग ११ हजार ५०० मेगावाट रहती है,जबकि उपलब्धता १८ हजार ३६४ मेगावाट अर्थात प्रदेश में मांग से ज्यादा बिजली उपलब्ध है। इसके बावजूद नर्मदा नदी पर बने पहले 'रानी अवंतीबाई सागर` उर्फ 'बरगी बाँध` से विस्थापित, मंडला जिले के बरगी जलाशय के किनारे के गाँव चुटका में 'चुटका परमाणु ऊर्जा परियोजना` प्रस्तावित की गई है । देश में वर्तमान बिजली व्यवस्था व तुलनात्मक रूप से अन्य स्त्रोतों से कम दर पर बिजली की उपलब्धता इस पूरी परियोजना पर गंभीर सवाल खड़े करती है । वर्ष २००५ में अमेरिका द्वारा भारत पर लगे नाभिकीय प्रतिबंध हटाए गये थे, तब से अब तक 'अपरम्परिक ऊर्जा,` विशेषकर पवन व सौर ऊर्जा के क्षेत्र में आये भारी-भरकम बदलाव के कारण 'चुटका परियोजना` पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है । इस परियोजना को अभी तक पर्यावरणीय मंजूरी प्राप्त नहीं हुई है ।
जिस समय १४०० मेगावाट की 'चुटका परियोजना` को योजना आयोग से मंजूरी मिली थी, तब सौर ऊर्जा से बिजली पैदा करना मंहगा होता था, आज स्थिति बदल गई है। परियोजना की अनुमानित लागत १६ हजार ५५० करोड़ रुपए आंकी गई है। इस परियोजना खर्च के आधार पर एक मेगावाट बिजली उत्पादन की लागत लगभग १२ करोड़ रुपए आयेगी, जबकि सौर ऊर्जा आजकल लगभग ४ करोड़ प्रति मेगावाट में बन जाती है । सौर ऊर्जा संयंत्र दो वर्ष के अन्दर कार्य प्रारम्भ कर देता है, वहीं परमाणु बिजली घर बनाने में कम-से-कम दस वर्ष लगते हैं । दिल्ली की एक संस्था 'ऑब्जर्वर रिसर्च फाउन्डेशन` की रिपोर्ट के अनुसार विदेशी परमाणु संयंत्र से वितरण कंम्पनियों द्वारा खरीदी जाने वाली बिजली की लागत ९ से १२ रुपए प्रति यूनिट तक आयेगी, जिस पर भारत सरकार व उपकरण प्रदायकर्ता के मध्य अभी तक कोई सहमति नहीं बनी है । चालीस वर्ष तक चलने वाले परमाणु संयत्र की 'डी-कमिशनिंग` आवश्यक होगी, जिसका खर्च संयत्र के स्थापना खर्च के बराबर होगा । यदि इसका भी हिसाब लगाया जाए तो परमाणु विद्युत की लागत लगभग २० रूपये प्रति यूनिट आयेगी । ऐसी महंगी बिजली के परिप्रेक्ष्य में अन्य विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए । मध्यप्रदेश का ही एक उदाहरण है राज्य सरकार द्वारा रीवा जिले की त्यौंथर तहसील में ७५० मेगावाट की सौर विद्युत परियोजना हेतु अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धात्मक बोली के तहत मात्र दो रुपए ९७ पैसे प्रति यूनिट की दर पर बिजली खरीदने का अनुबंध अभी १७ अप्रैल २०१७ को भोपाल में ही किया गया है ।
भारत सरकार द्वारा संशोधित 'टैरिफ पॉलिसी-२०१६` के अनुसार किसी भी नये सार्वजनिक उपक्रम से विद्युत वितरण कम्पनियों को प्रतिस्पर्धात्मक बोली के आधार पर ही बिजली खरीदने की अनिवार्यता है । 'चुटका परियोजना` हेतु ऐसी किसी प्रक्रिया का प्रारम्भ 'परमाणु ऊर्जा निगम` द्वारा नहीं किया गया है । मप्र पॉवर मैनेजमेन्ट कम्पनियों द्वारा निजी विद्युत कम्पनियों से मंहगी बिजली खरीदी अनुबंध के कारण २०१४-१५ तक कुल घाटा ३० हजार २८० करोड़ रुपए तथा सितम्बर २०१५ तक कुल कर्ज ३४ हजार ७३९ करोड़ रुपए हो गया था, जिसकी भरपाई बिजली दर बढ़ाकर प्रदेश के एक करोड़ ३५ लाख उपभोक्ताआेंसे वसूली जा रही है । उत्पादन के स्थान से उपभोक्ताआें तक  पहुँचते -पहुँचते ३० फीसदी बिजली बर्बाद हो जाता है जो अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों से बहुत ज्यादा है । जितना पैसा और ध्यान परमाणु बिजली कार्यक्रम पर लगाया जा रहा है, उसका आधा भी पारेषण -वितरण में होने वाली बर्बादी को कम करने पर लगाया जाए तो यह बिजली उत्पादन बढ़ाने जैसा ही होगा। नई परियोजना को लगाने की बजाए जो परियोजना स्थापित है उसकी कुशलता बढ़ाई जाए तो वो कम खर्च में ज्यादा परिणाम देगी 
सौर ऊर्जा एक स्वच्छ व पर्यावरण हितैषी ऊर्जा स्त्रोत है जबकि परमाणु ऊर्जा तुलनात्मक दृष्टि से पूर्णत: असुरक्षित और खतरनाक है। जापान सरीखे उन्नत प्रौद्योगिकी वाले देश के फूकुशिमा में घटी परमाणु दुर्घटना के बाद जापान और जर्मनी ने परमाणु बिजली संयंत्र बंद करने का फैसला किया था । इटली ने रूस के  चेर्नोबिल शहर में हुई परमाणु दुर्घटना के बाद ही अपने परमाणु विद्युत कार्यक्रम को बंद कर दिया था । कजाकिस्तान ने १९९९ में और लिथुआनिया ने २००९ में अपने-अपने एक मात्र परमाणु रियेक्टर्स बंद कर दिए थे । विगत ३० वर्षों से अमेरिका ने अपने यहां एक भी नये परमाणु संयंत्र की स्थापना नहीं की है। दरअसल इस दौर में परमाणु बिजली उद्योग में जबरदस्त मंदी है इसलिए अमेरिका, फ्रांस और रूस आदि की परमाणु विद्युत कम्पनियाँ भारत में इसके और आर्डर पाने के लिए बेचैन है । भारत में ६ परमाणु बिजली घर बनना प्रस्तावित हैं, जिनमें से हरिपुर संयंत्र को पश्चिम बंगाल सरकार ने निरस्त कर दिया है । गुजरात के मिठीविर्दी में स्थानीय लोगों के विरोध के कारण उसे आंध्रप्रदेश के कोवाडा ले जाया गया है । 
दूसरी ओर, चुटका के संयत्र से निकलने वाले पानी का तापमान समुद्र के तापमान से ५ डिग्री सेल्सियस अधिक होगा। तापमान की यह अधिकता बरगी जलाशय और नर्मदा नदी में मौजूद जलीय जीव-जंतुओं का खात्मा करेगी । इससे नर्मदा घाटी की जैव-विविधता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा तथा निकलने वाले विकिरण युक्त जहरीले पानी से नदी भी जहरीली हो जाएगी । वर्ष १९९७ में नर्मदा किनारे के इस क्षेत्र में  ६.४ रिक्टर स्केल का विनाशकारी भूकम्प आ भी चुका है। 
पर्यावरण परिक्रमा
मध्यप्रदेश के बाघ अब ओडिशा नहीं भेजे जाएंगे 
मध्यप्रदेश के बाघ अब ओडिशा नहीं भेजेजाएंगे। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की आपत्ति के बाद केंद्रीय वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय नेबाघों के स्थानांतरण पर रोक लगा दी है । सरकार ने पिछले दिनों लोकसभा में इसकी घोषणा की। 
बाघ पुनर्स्थापन परियोजना के तहत चार और बाघ ओडिशा कोदिए जानेथे, इन्हेंबाघ विहीन होचुके वहां के सतकोसिया टाइगर रिजर्व मेंछोड़ा जाना था । इससेपहलेबाघ बाघिन के जोड़े कोवहां भेजा गया था । यह कदम कान्हा नेशनल पार्क सेसतकोसिया भेजेगए बाघ महावीर की संदिग्ध मौत के बाद उठाया गया है । 
मानव संघर्ष के कारण बाघ महावीर के साथ मध्यप्रदेश के बांधवगढ़ नेशनल पार्क सेभेजी गई बाघिन संुदरी कोबाड़े में कैद कर दिया गया था । ओडिशा के वन विभाग नेमहावीर पर हमला किए जानेकी आशंका जाहिर की थी । इसके बाद राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की टीम नेसतकोसिया का दौरा कर माना कि वहां बाघ पुनर्स्थापन के लिए उचित माहोल नहीं है । मध्यप्रदेश और ओडिशा सरकार नेजल्दबाजी में निर्णय लेकर बाघ-बाघिन का जीवन संकट में डाल दिया । इसके लिए उचित पैमानों का पालन नहीं किया गया । एनटीसीए की रिपोर्ट के आधार पर केंद्रीय वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय नेइस परियोजना कोस्थगित करनेके आदेश जारी कर दिए । 
केंद्र सरकार नेमाना कि सतकोसिया टाइगर रिजर्व में बाघ पुनर्स्थापन कोलेकर वहां के समुदाय की भागीदारी नहीं है । सांसद नागेंद्र प्रधान द्वारा लोकसभा में उठाए गए सवाल के जवाब में केंद्रीय वन व जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री डॉ. महेश शर्मा नेयह भी माना कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के परामर्श का पालन नहींकिया गया था । इसीलिए बाघों के स्थानांतरण पर रोक लगा दी गई है । 
वन्य जीव संरक्षण के लिए काम करनेवालेअजय दुबेनेकहा, एनटीसीए की आपत्ति और केंद्र के फैसलेसेहमारेरूख की पुष्टि हुई है । उन्होंनेकहा कि हम शुरू सेही सतकोसिया की असुरक्षा कोलेकर मध्यप्रदेश सेबाघ स्थानांतरित किए जानेका विरोध कर रहेथे, लेकिन मध्यप्रदेश सेराज्यसभा सदस्य और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान के दबाव में सरकार नेबाघ के जोड़े सतकोसिया भेज दिए । दुबेनेकहा, आगेबाघ नहीं भेजेजाएंगे, यह तोठीक है लेकिन महावीर और संंुदरी के साथ जोहुआ है, उनके दोषियों कोसामनेलानेतक चुप नहीं रहेंगे। 
संकट में है, राजस्थान का राज्य पक्षी 
राजस्थान का राज्य पक्षी गोडावण इस कदर संकट में हैं कि इसकी जगह राज्य पक्षी के लिए नया परिंदा खोजना पड़ सकता है । शिकार और आवास क्षेत्र उजड़नेके कारण अब इसकी संख्या महज १०० रह गई है । बचानेका प्रभावी प्रयास नहींकिया गया तोवह दिन दूर नहीं जब थार का यह सबसेखूबसूरत और शर्मीला सा पक्षी लुप्त् होजाएगा और राजस्थान कोराज्य पक्षी का दर्जा देनेके लिए किसी और पक्षी की तलाश करनी होगी ।  तीन मुख्य वन्य जीव संरक्षण संगठनों नेएक आनलाइन याचिका अभियान शुरू किया है । इसमें देश के बिजली मंत्री सेमांग की जा रही है कि जिन इलाकों में गोडावण का बसेरा है वहां सेगुजरनेवाली बिजली के उच्च् शक्ति तारों कोभूमिगत किया जाए । 
कई साल गुजरनेके बाद भी न तोहेचरी (नियंत्रित परिस्थितियों में दुर्लभ प्रजातियों का प्रजनन) बन पाई है और न ही रामदेवरा में अंडा संकलन केंद्र अस्तित्व में आ सका है । गैर सरकारी संगठनों सेमिलेबर्ड डायवर्टर बिजली कंपनियों के गोदामोंमें धूल फांक रहेहैं । सबसेवजनी पक्षियों में सेएक ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के नाम सेपुकारा जानेवाला यह परिंदा आईयूसीएन की दुनिया भर की संकटग्रस्त प्रजातियों की रेड लिस्ट में  गंभीर रूप सेसंकटग्रस्त  पक्षी के तारैर पर दर्ज है । गोडावण बचानेके लिए काम कर रहेडॉ. सुमित डूकिया के अनुसार अब ज्यादा सेज्यादा १५० गोडावण बचेहैं जिनमें १२२ राजस्थान में और २८ पड़ोसी गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंंध्र प्रदेश में हैं । गोडावण पक्षी के संरक्षण व बचाव के लिए जून २०१३ में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत नेप्रोजेक्ट ग्रेट इंडियन बस्टर्ड शुरू किया था । लेकिन इसके कुछ ही महीनेबाद ही उनकी सरकार चली गयी और मामला ठंडे बस्तेमें चला गया । 
शिकारियों के अलावा इस पक्षी कोसबसेबड़ा खतरा विशेष रूप सेराजस्थान के सीमावर्तीइलाकों में लगी विंड मिलों के पंखों और वहां सेगुजरनेवाली हाइटेंशन तारों सेहै । गोडावण की शारीरिक रचना इस तरह की होती है कि वह सीधा सामनेनहीं देख पाता । शरीर भारी होनेके कारण वह ज्यादा ऊंची उड़ान भी नहीं भर सकता । ऐसेमें बिजली की तारें उसके लिए खतरनाक साबित होरही हैं । जैसलमेर के उप वन संरक्षक (वन्य जीव) अशोक महरिया के अनुसार बीतेलगभग १८ महीनेमेंगोडावण की मौत के पांच साबित मामलों में सेचार हिट के मामलेहैं । 
विज्ञापन भ्रामक होने पर सेलिब्रिटिज पर कार्रवाई होगी 
भ्रामक विज्ञापन देनेवाली कंपनियों पर अब शिकंजाकसेगा । जोसेलिब्रिटी ऐसेविज्ञापन करेंगे, उनके खिलाफ भी कारवाई होगी । लोकसभा में लंबेसमय सेअटका उपभोक्ता संरक्षण विधेयक, २०१८ पारित होनेके साथ ही इसका रास्ता साफ होगया । 
मौजूदा व्यवस्था के तहत यदि कोई कंपनी भ्रामक विज्ञापन देनेका दोषी पाई जाती है तोऐसी स्थिति में केवल कंपनी के खिलाफ कार्रवाई होती है, लेकिन ऐसेविज्ञापनोंमें शामिल सेलिब्रिटी पर कोई कार्रवाई का प्रावधान नहीं हैं । नए कानून में सेलिब्रिटी की भी जिम्मेदारी तय की गई है । ऐसा करनेसेऐसेविज्ञापनों की तादाद कम होसकती है । 
इस विधेयक में भ्रामक विज्ञापन के साथ मिलावटखोरी पर भी लगाम लगानेके प्रावधान है । इससेग्राहकोंके हितोंकी सुरक्षा होसकेगी । यह विधेयक जनवरी, २०१८ के दौरान लोकसभा मेंपेश किया गया था । इसमें प्रावधान है कि यदि कोई कंपनी भ्रामक विज्ञापन देनेके मामलेमें दोषी पाई जाती है तोपहली बार गलती करनेपर २ साल की जेल और १० लाख रूपए का जुर्माना लगाया जाएगा । यदि दूसरी बार गलती पाई गई तो५ साल की जेल और ५० लाख रूपए के जुर्मानेका प्रावधान है । हालांकि सेलिब्रिटी जेल की सजा के दायरेमेंनहीं आएंगे, लेकिन उन पर जुर्माना लगाया   जाएगा । 
वैसेसंसद की स्थायी समिति नेभ्रामक विज्ञापनों में दिखनेवालेसेलिब्रिटिज कोभी जेल की सजा की सिफारिश की थी, लेकिन इसमें केवलजुर्मानेका प्रावधान किया गया है । 
पहलेग्राहकों कोवहां जाकर शिकायत करनी होती थी, जहां सेउसनेसामान खरीदा होता था, लेकिन अब घर सेही शिकायत की जा सकेगी । इसके अलावा विधेयक मेंमध्यस्थता का भी प्रावधान है कि यदि जिला और राज्य उपभोक्ता फोरम उपभोक्ता के हित मेंफैसला सुनातेहैं तोआरोपी कंपनी राष्ट्रीय फोरम मेंनहीं जा सकती । इस प्रावधान के कारण मामलेलंबेसमय तक लटकनेसेबच जाएंगेऔर कंपनियां ऐसेविज्ञापनोंसेदूर रहेंगी ।  
तीन भारतीय अंतरिक्ष में ७ दिन रहेगे 
पिछलेदिनों भारत सरकार नेइसरोके महत्वाकांक्षी गगनयान प्रोजेक्ट के लिए १०,००० करोड़ रूपयेकी राशि आवंटित की है । इस मिशन के तहत तीन सदस्यीय क्रू कम सेकम सात दिन के लिए अंतरिक्ष की यात्रा पर जाएगा । केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इस संबंध में बताया कि इस परियोजना पर १० हजार करोड़ रूपये की लागत आएगी । अंतरिक्ष में मानव मिशन भेजने वाला भारत दुनिया का चौथा देश होगा । 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेइसी साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर गगनयान प्रोजेक्ट का ऐलान किया था । मोदी नेकहा था कि यह मिशन २०२२ तक पूरा होगा । इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट मेंमदद के लिए भारत नेरूस और फ्रांस के साथ करार दिए हैं । इसरोनेअगलेतीन साल में ५० सेअधिक मिशन पूरेकरनेका लक्ष्य रखा है । इसी के कारण सरकार नेअंतरिक्ष गतिविधियों के बजट में वृद़्धि की है । 
गौरतलब है कि पिछलेदिनों इसरोनेएक क्रू एस्केप मॉड्यूल यानी कैप्सूल का सफलतापूर्वक परीक्षण किया, जिसेअंतरिक्ष यात्री अपनेसाथ लेजा सकेंगे। अंतरिक्ष यात्री दुर्घटना की स्थिति में कैप्सूल मेंसवार होकर पृथ्वी की कक्षा में सुरक्षित पहुंच सकतेहैं । इसरोनेइस मॉड्यूल कोखुद के दम पर विकसित किया है । 
गगनयान के यात्रियोंके चुनाव के लिए इसरोनेकाम शुरू कर दिया है । इसके लिए इसरोलोगों के मेडिकल चेकअप के साथ-साथ उनके साथ कुछ माइक्रो- बायोलॉजिकल प्रयोग कर रहा है । अंतरिक्ष मेंजानेसेपहलेहर व्यक्ति कोकई चरणों में टेस्ट पास करनेहोतेहैं । गगनयान के लिए भी इसरोएक व्यक्ति कोकम सेकम १० टेस्ट पर परखेगा । इस महत्कांक्षाी योजना पर हमारे देश के साथ ही विश्व की नजर बनी हुई है  ।           
वन्य जीव
आधुनिक विकास और वन्य जीव
निर्मल कुमार शर्मा
'बाघ' का नाम सुनते ही एक आम भारतीय का सिर गर्व से उठ जाता है । भारतीय वन्य प्राणिजगत का यह सबसे बड़ा, ताकतवर ,विलक्षण और अत्यन्त सुन्दर प्राणी होता है । 
पहले भारत का राï­ीय पशु सिंह था ,परन्तु बाद में उसकी जगह अपनी विशिï गुणों शक्ति और अपने आन-बान-शान के प्रतीक बाघ के विलक्षण गुणों से से प्रभावित होकर भारतीय आम जन के  विचार-विमर्श के बाद भारतीय बाघ को "राï­ीय पशु" के सम्मान से नवाजा  गया । भारतीय समाचार पत्रों में अक्सर भारतीय अस्मिता और आन-बान-शान के प्रतीक, बाघों के मृत्यु के बहुत ही दिल दहलाने वाले आंकड़े प्रकाशित होते रहते हैं । इस दर से बाघ मरेंगे ( या मारे जायेंगे) तो भविष्य में बाघ कैसे बचेंगे ? बाघों के मरने के प्रमुख कारणों में उनकी वृद्धावस्था, बीमारी, बिजली का करंट,आपसी संघर्ष , रेल-सड़क दुर्घटना और तस्करों द्वारा उनकी हड्डियों और खाल को उƒ दाम पर बेचने के लिए स्थानीय ग्रामीणों को लालच देकर जहर देकर मरवाना प्रमुख कारण है ।  
बाघों के इस चिन्ताजनक स्थिति के लिए ,बढ़ते शहरीकरण के कारण असली जंगल की जगह कंक्रीट के जंगल लेते जा रहे हैं । दूसरे शब्दों में कथित जबरन विकास ने जंगलों और जंगली जानवरों दोनों को लीलना शुरू कर दिया है । 
राï­ीय बाघ सर्वेक्षण प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार भारत में, बाघों के मरने की सबसे ज्यादे घटनाएं मध्य प्रदेश में हुई हैं । अकेbे मध्य प्रदेश में पिछले पाँच वर्षों में 89 बाघों की मौत हुई है । पूरे देश में 2009 से अब तक अक्टूबर 2017 तक कुb मरने वाले बाघों की संख्या 606 है । पिछले नौ सालों में सर्वाधिक बाघों के मरने वाला वर्ष "2016" रहा है । 2016 में 120 बाघों की विभिन्न कारणों से मौत हुई है । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि ,पिछले 100 सालों में दुनिया में बाघों की कुल संख्या में लगभग 96 प्रतिशत की कमी आ चुकी है । एक अनुमान के  अनुसार सौ साल पहले दुनिया में एक लाख से ज्यादा बाघ थे, जो ताजा गणना में 3890 रह गए हैं । 2008 की गणना में देश में केवb 1,411 बाघ बचे थे । वल्र्ड वाइल्ड लाइफ संस्था के अनुसार सन 2022 तक बाघ भारतीय जंगलों से सदा के लिए विbुá हो जायेंगे  वैसै बाघों की आठ प्रजातियों प्रजातियों में से तीन सदा के लिए विbुá हो चुके है ।  
इतनी बड़ी संख्या में बाघों का मरना, अत्यंत दुख की बात है । हमारे जंगलों में बाघों की "उपस्थिति" वहाँ की "वानस्पतिक" और "जैव विविधता" को "संरक्षित" और "सम्पन्न" बनाता है । बाघों को संरक्षित करने के लिए "राï­ीय बाघ अभयारण्य" बनाने का क्या औचित्य रह जायेगा ? जब   इतनी बड़ी संख्या में बाघों की मृत्यु होगी ... ? बाघ पारिस्थितिकीय पिरामिड तथा आहार श्रृंखbा में शीर्षस्थ प्राणी है । बाघों के विbुáी से जंगलों की यह जैव आहार श्रृंखbा तहस-नहस हो जायेगी । एक मादा बाघिन एक बार में दो या तीन शावकों को जन्म देती है । ये शावक लगभग तीन या चार वर्षों में पूर्ण वयस्क बनते हैंऔर तभी अपनी माँ से सीखकर स्वतंत्र रूप से शिकार करने में सक्षम हो पाते हैं । उसके बाद ही लगभग चार-पांच साल के बाद अपने पूर्व जन्में बƒों के आत्मनिर्भर होने के बाद ही मादा बाघिन दूसरे बच्चों को जन्म देती है । 
इस प्रकार हम देखते हैं कि बाघों की प्रजनन क्षमता बहुत कम है । उपर्युक्त लिखित बाघों के मृत्युदर के आँकडे उनके भविष्य के लिए बहुत ही "डरानेवाला" है, क्योंकि उनके "मृत्यु की दर" उनके "जन्म दर' से बहुत ज्यादा है । अगर यही स्थिति रही तो भारत के अति सुन्दर "चीतों" की तरह ,जिन्हें यहाँ के "राजे-रजवाड़े-महाराजे" अपनी "विलासितापूर्ण' जिन्दगी में खेल-खेल में , अपनी शौक के लिए होड़ लगाकर निर्मम "हत्या का रिकॉर्ड" बनाकर भारत से ही इस सुन्दर प्रजाति को दुखद विbुá कर दिये , वैसी ही हालत भविष्य में हमारे "राï­ीय गौरव बाघों" के साथ न घटित हो जाय ? 
इसके लिये हमें, हमारे समाज और हमारी सरकारों , सभी को समय पूर्व सचेत और जागरूक हो जाना चाहिए और बाघों के मरने के कारणों का ध्यानपूर्वक अध्ययन कर उनका निराकरण करने का ठोस उपाय, उनके विbुá होने से पूर्व ही कर लेना चाहिए, नहीं तो, बगैर बाघों के बाघ अभयारण्य और भारत देश रह जायेगा...। पुराने जमाने में राजा-महाराजा अपने शौक में और खेल-खेल में हिरनों ,बाघों, तेदुओं ,चीतों आदि का इतना व्यापक स्तर पर शिकार (संहार) किये कि भारतवर्ष से उन कई अØzत और भारत के आन-बान और शान के प्रतीक "उन जीवों" का सामूहिक विलोपन हो गया (जिनमें भारत का प्रसिद्ध "चीता" भी है ,जिसे पिछली सदी में ही मारकर पूर्णतः खतम कर दिया गया)। 
पुराने जमाने के "महाराजा" शिकार करके उस मरे हुए जीव के सिर पर पैर रखकर अपनी बंदूक के साथ फोटो खिंचवाने और अपने आलीशान महलों के ड­ाइंगरूम में उस "नीरीह" जीव के खाल में भुस भरवाकर सजाने में अपनी "शान" समझते थे । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि ,पिछbेे 100 सालों में दुनिया में बाघों की कुb संख्या में लगभग 96 प्रतिशत की कमी आ चुकी है । एक अनुमान के अनुसार सौ साल पहले दुनिया में एक लाख से ज्यादा बाघ थे , जो ताजा गणना में 3890 रह गए हैं । 2008 की गणना में देश में केवb 1,411 बाघ  बचे थे ।
        हमें कुख्यात बाघ तस्कर ,संसार चन्द, के बारे में एक दुखद किस्सा याद आता है ,जो पिछले दशकोंं में सरिस्का और रणथंभौर जैसे टाइगर रिजर्व से अनगिनत बाघों को मारकर उनके खाल, मांस और हड्डियों को तस्करी से लाखों-करोड़ों रूपये कमाया । उससे जब इतनी संख्या में बाघों को पकड़ने और उन्हें मारकर बेचने का फार्मूला पूछा गया ,तब वह बताया था, कि , " वह यह काम वन्य प्रांत में स्थित गरीब लोगों को कुछ पैसे देकर यह काम बड़ी आसानी से करा लेता है । 
गांव के भूखों मरते लोग मात्र कुछ हजार रूपये में करोड़ों रूपये मूल्य के बाघ को जहर देकर मारकर, उसके टुकड़े–टुकड़े कर ,उसके खाल, मांस, हड्डियों को लेकर हमारे घर पहुँचा जाते हैं । हम तो जंगल में जाते भी   नहीं ।" ये है बाघों के विbुáी का मुख्य कारण और भारत की शासन व्यवस्था का एक विद्रzप चेहरा ! एक आकलन के अनुसार भारत में हर हफ्ते दो बाघों का शिकार किया जाता है मतलब हर साल 100 से ज्यादा बाघ मारे जाते हैं और अवैध तस्करी की जाती है, जिसके फलस्वरूप भारतीय जंगलों में अब केवb 4 हजार से कम बाघ बचे हैं ।
       अगर यही हाल रहा तो भारत में कुछ ही वर्षों में यहाँ के सारे वन्य प्राणी , जिसमें बाघ, तेदुआ , चीतल , सांभर आदि-आदि सभी जीव-जन्तुओं को, यहाँ के तस्कर ,चोर और ये शौकिया अभिनेता दुखद अन्त कर देंगे और वे प्रकृति की अनुपम,अØzत कृतियाँ (जीव-जन्तु) सदा के लिए इतिहास के क्रूर काल में समा जायेंगे और हमारी भावी पीढ़ियां उनके "रेखाचित्र" ही अपनी किताबों में देखेंगी । हम मानव प्रजाति अपने स्वार्थ ,अपनी सुख-सुविधा में इतने अंधे हो गये हैं कि इस पृथ्वी के अन्य सभी बाशिदों के जीवन से, उनके भूखे-प्यासे रहने से,उनके घर उजाड़ने से हमें कोई मतलब नहीं   है ! जबकि यह पथ्वी एक माँ के रूप में अपने सभी संतानों को रहने, खाने, पानी पीने का समुचित इंतजाम की है । 
जो भी प्राणी इस पृथ्वी पर जन्म लिया है,अगर उसके हिस्से को न्यायिक ढंग से उसे बंटवारा किया जाय, तो इस पृथ्वी के सबसे नन्हें प्राणी चींटी से लेकर उससे खरबों गुना बड़े स्थलचर हाथी से लेकर इस पृथ्वी की अब तक की सबसे विशाल स्तनपायी समुद्री ब्bू हवेb तक को भरपेट भोजन और घर मिल जायेगा । परन्तु बहुत-बहुत अफसोस है कि इस पृथ्वी पर कुछ सालों पूर्व अवतरित "मनुष्य नामक प्रजाति" ने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर इस पृथ्वी पर उपस्थित सम्पूर्ण जैव मंडल, पर्यावरण , नदियों , समुद्रों, पहाड़ों, पठारों , जंगलों , रेगिस्तानों, स्तेपियों , लाखों सालों से बर्फ से जमें उत्तरी और दक्षिणी धु्रव के बर्फ के पहाड़ों और उनमें बसे पृथ्वी के सबसे समृद्ध जैवमंडल (जलचर और थलचर) जीवों तक को तबाह करने पर तुbा हुआ है । 
मनुष्य प्रजाति को आज भले ही समझ में न आ रहा हो, परन्तु आज मनुष्य प्रजाति इस पृथ्वी, पर्यावरण और प्रकृति का जो भयावह दोहन कर रहा है, उसका कुफb का स्वाद बहुत ही भयंकरतम रूप में उसे स्वंय भी, कुछ सालों बाद भविष्य में चुकाना ही पड़ेगा....। आज मनुष्यजनित कुकृत्यों और कुकर्मोे की वजह से प्रति दो दिन में औसतन इस दुनिया की एक जीव-जन्तु ,पक्षी या वानस्पतिक जगत की कोई न कोई प्रजाति सदा के लिए विbुá हो रही है । 
प्रकृति और पर्यावरण के बेशुमार दोहन से हुई बिपरीत मौसम की मार से,भयंकर वायु, जb, नदी प्रदूषण से संभव है एक-आध शतक वर्षों में "मनुष्य प्रजाति" खुद ही विbुáी की कगार पर खड़ी हो जाय ! एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले पचास वर्षों में मानवजनित कुकृत्योंकी वजह से इस पृथ्वी के 58%  जीव सदा के लिए विbुá हो गये हैं, नï हो गये हैं । अभी राजस्थान सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस सालों में राजस्थान में मनुष्यजनित नदियों, जंगलों, भूगर्भीय जल , पहाड़ों आदि-आदि के भयंकर दोहन से वहाँ के वन्य जीव आवास, भूख और प्यास से, मनुष्यों द्वारा मारे जाने, वाहनों, रेलों से टकराने-कुचbने-कटने स, प्यास हेतु कुंए में गिर जाने से 8130 जानवर (आठ हजार एक सौ तीस ) जानवर घायल हो गये ,जिसमें से 79% यानि 6427 जानवर (छः हजार चार सौ सत्ताइस जानवर ) मर गये ..। हिरन जैसे निरीह, कमजोर और भोले प्राणी जंगलों के प्राकृतिक जbóोतोंसूख जाने की वजह से प्यासे और भूखे होने की स्थिति में, पालतू और जंगली कुत्तोंद्वारा बड़ी संख्या में मारे जा रहे  हैं । 
इसी प्रकार वन्य प्रान्तर के  लगातार सिकुडतेजाने से तेंदुए ,बाघ और भालू जैसे हिंसक प्राणी खाने की तलाश में मानव बस्तियों की तरफ आ जाते हैं, और पिछले सालों में ये जानवर भी सैकड़ों की तादाद में मनुष्यों द्वारा निर्दयतापूर्वक मार दिए गये..।
यह इस पृथ्वी के सभी प्राणियों के लिए बहुत ही दुःखद है ...। पृथ्वी सभी जीव-जन्तुओं की माँ सदृश्य है ,मनुष्य को जितना अधिकार इस पृथ्वी पर रहने को है, उतना ही अधिकार इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले प्रत्येक जीव का है । अतः एक रास्ता ऐसा ढूंढा जाना चाहिए कि , इस धरती पर मनुष्य भी रहें और इसके साथ, सभी जीव-जन्तु भी । 
अगर आज मनुष्यों के स्वार्थ की बलि इस धरती के सारे जीव-जन्तु चढ़ रहे हैं, विbुá हो रहे हैं तो निश्चित रूप से मनुष्य भी अपने भविष्य के "सामूहिक विलोपन" का रास्ता प्रशस्त कर रहा है ।
कविता
नए साल की शुभकामनाएं
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
खेतों की मेड़ों पर धूले भरे पांव को
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गांव को
नए साल की शुभकामनाएं । 

जात्रा के गीतों को बैल की चाल को 
करघे को कोल्हू को मछुआरां के जाल को 
नए साल की शुभकामनाएं । 

इस पकती रोटी को बच्चें के शोर को 
चौंके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को 
नए साल की शुभकामनाएं । 

वीराने जंगल को तारों को रात को 
ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को 
नए साल की शुभकामनाएं । 

इस चलते आंधी में हर बिखरे बाल को
सिगरेट की लाशों पर फूलों से ख्याल को
नए साल की शुभकामनाएं । 

कोट के गुलाब और जूड़े के फूल  को 
हर नन्हीं याद को हर छोटी भूल को 
नए साल की शुभकामनाएं । 

उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे
नए साल की शुभकामनाएं ।                                
ज्ञान विज्ञान
मलेरिया परजीवी को जल्दी पकड़ने की कोशिश 
हाल ही में सैन डिएगो स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की शोधकर्ता एलिजाबेथ विनजेलर और उनकी टीम ने ऐसे रसायनों की पहचान कर ली है जो मलेरिया पर जीवी का लीवर में ही सफाया कर देंगे । 
होता यह है कि जब एक संक्रमित मच्छर मनुष्य को काटता है तो मलेरिया केलिए जिम्मेदार प्लाज्मोडियम परजीवी स्पोरोजाइट अवस्था में शरीर में प्रवेश करते हैं। लीवर में पहुंच कर ये अपनी प्रतियां बनाते और वृद्धि करते हैं । 
इसके बाद ये रक्तप्रवाह में प्रवेश करते हैं । मलेरिया के लक्षण तब ही दिखाई पड़ते हैं जब ये परजीवी रक्त प्रवाह में प्रवेश कर जाते है और संख्या में वृद्धि करने लगते हैं । आम तौर पर मलेरिया के लक्षणों से निपटने के लिए ही दवाएं दीं जाती हैं ।
लेकिन शोधकर्ता चाहते थे कि मलेरिया के परजीवी को लीवर में ही खत्म कर दिया जाए । इसके लिए शोधकर्ताओं ने लगभग ५ लाख मच्छरों से स्पोरोजाइट अवस्था में फलाजमोडियम परजीवी को अलग किया । हरेक परजीवी पर उन्होंने लुसीफरेज एंजाइम जोड़ा, जो जुगनू में चमक पैदा करने के लिए जिम्मेदार होता है, ताकि परजीवी पर नजर  रखी जा सके । 
इसके बाद हरेक परजीवी पर एक प्रकार का रसायन  डाला । और फिर उन्हें लीवर कोशिकाओं के साथ कल्चर किया । इस तरह उन्होंने लगभग ५ लाख रसायनों का अलग-अलग अध्ययन किया ।
   उन्होंने पाया कि लगभग ६,००० रसायनों ने परजीवियों की वृद्धि को कुशलतापूर्वक रोक कर दिया। जिसमें से ज्यादातर रसायनों ने लीवर कोशिकाओं को कोई गंभीर क्षति नहीं पहुंचाई । 
हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने रसायन दवा के रूप में काम आ सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन रसायनों का कोई पेटेंट नहीं लिया है ताकि अन्य लोग भी इन पर काम कर सकें ।  
मकड़ी का रेशम स्टील से ५ गुना मजबूत 
अक्सर मकड़ी का जाला देखकर या उससे टकराने पर भी हमें उसकी ताकत का अंदाजा नहीं लगता । लेकिन मकड़ी का जाला मानव के बराबर हो तो वह एक हवाई जहाज को जकड़ने की क्षमता रखता है । हाल ही में वैज्ञानिकों ने इन रेशमी तारों की मजबूती का कारण पता लगाया है। 
मकड़ी के रेशम की स्टील से भी अधिक मजबूती का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने परमाणु बल सूक्ष्मदर्शी की मदद से विषैली ब्राउन मकड़ियों के  रेशम का विश्लेषण किया। इस रेशम का उपयोग वे जमीन पर अपना जाला बनाने और अपने अंडों को संभाल कर रखने के लिए करती हैं । एसीएस मैक्रो लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने बताया है कि जाले का प्रत्येक तार मानव बाल से १००० गुना पतला है और हजारों नैनो तंतुओं से मिलकर बना है । और प्रत्येक तार का व्यास मिलीमीटर के २ करोड़ वें भाग के  बराबर है । एक छोटे से केबल की तरह, प्रत्येक रेशम फाइबर पूरी तरह से समांतर नैनो तंतुआें से बना होता है । इस फाइबर की लंबाई करीब १ माइक्रॉन होती है । यह बहुत लंबा मालूम नहीं होता लेकिन नैनोस्केल पर देखा जाए तो यह फाइबर के व्यास का कम से कम ५० गुना है । शोधकर्ताओं का ऐसा मानना है कि वे इसे और अधिक खींच सकते हैं ।  
वैसे पहले भी यह मत आए थे कि मकड़ी का रेशम नैनोफाइबर से बना है, लेकिन अब तक इस बात का कोई सबूत नहीं था। टीम का मुख्य औजार था ब्राउन रीक्ल्यूस स्पाइडर का अनूठा रेशम जिसके रेशे बेलनाकार न होकर चपटे रिबन आकार के  होते हैं । इस आकार के कारण इसे शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी लेंस के नीचे जांचना काफी आसान हो जाता है ।
यह नई खोज पिछले साल की एक खोज पर आधारित है जिसमें यह बताया गया था कि किस प्रकार ब्राउन रीक्ल्यूस स्पाइडर छल्ले बनाने की एक विशेष तकनीक से रेशम तंतुओं को मजबूत करती है । एक छोटी-सी सिलाई मशीन की बदौलत यह मकड़ी रेशम के प्रत्येक मिलीमीटर में लगभग २० छल्ले बनाती है, जो उनके चिपचिपे स्पूल को अधिक मजूबती देती है और इसे पिचकने से रोकती है ।  
शोधकर्ताओं का मत है कि भले चपटे रिबन और छल्ला तकनीक सभी मकड़ियों में नहीं पाई जाती, किन्तु  रीक्ल्यूस रेशम का अध्ययन अन्य प्रजातियों के रेशों पर शोध का एक  रास्ता हो सकता है। ऐसे अध्ययन से मेडिसिन और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नई सामग्री बनाने के रास्ते बनाए जा सकते हैं ।  
कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहे राष्ट्र
  यूएन एनवायरनमेंट प्रोग्राम द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ग्रुफ ऑफ २० के देशों ने पेरिस समझौते में निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त् उपाय नहीं किए हैं ।  रिपोर्ट में पाया गया है कि तीन साल की स्थिरता के बाद  वैश्विक कार्बन उत्सर्जन निरंतर बढ़ रहा है । इस वृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन के  खतर-नाक स्तर को रोकने के लिए निर्धारित लक्ष्य और वास्तविक स्थिति के बीच  उत्सर्जन अंतर  पैदा हुआ है।  यह २०३० में अनुमानित उत्सर्जन स्तर और ग्लोबल वार्मिंगको १.५ डिग्री से २ डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के अंतर को दर्शाता है ।
वैश्विक तापमान को २ डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए समय ज्यादा नहीं बचा है। अगर उत्सर्जन अंतर २०३० तक खत्म नहीं होता है, तो वैश्विक तापमान २ डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ जाएगा । 
वर्तमान हालत को देखते हुए रिपोर्ट ने ग्रुफ ऑफ २० देशों से आग्रह किया है कि २ डिग्री की दहलीज तक सीमित रखने के लिए पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुसार उत्सर्जन तीन गुना कम करना होगा। और यदि यह लक्ष्य १.५ डिग्री निर्धारित किया जाए तो उत्सर्जन पांच गुना कम करना होगा । 
     वर्ष २०१७ में उत्सर्जन का रिकॉर्ड स्तर ५३.५ अरब टन दर्ज किया   गया । इसको कम करने के लिए शहर, राज्य, निजी क्षेत्र और अन्य गैर-संघीय संस्थाएं जलवायु परिवर्तन पर मजबूत कदम उठाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं । रिपोर्ट के मुताबिक, २०३० तक वैश्विक तापमान के अंतर को २ डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को १९ अरब टन तक कम करने की आवश्यकता है।
सभी देशों को इसमें काम करने की आवश्यकता है लेकिन विश्व के ४ सबसे बड़े उत्सर्जक चीन, अमरीका, युरोपीय संघ और भारत को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन चार देशों का विश्व भर में होने वाले ग्रीनहाउस उत्सर्जन में ५६ प्रतिशत का योगदान  है ।   
चीन अभी भी २७ प्रतिशत के साथ अकेला सबसे बड़ा योगदानकर्ता  है । दूसरी तरफ, संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोपीय संघ वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के पांचवें भाग से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं । रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि अगर हम अभी भी तेजी से कार्य करते हैं तो क्या पेरिस समझौते के १.५ डिग्री सेल्सियस वृद्धि के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करना पाना संभव है।
यूएस संसद से सम्बंद्धहाउस एनर्जी एंड कॉमर्स कमेटी के शीर्ष डेमोक्रेट फ्रैंक पेलोन के अनुसार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का प्रशासन जलवायु परिवर्तन से निपटने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के े लिए अमेरिकी प्रयासों को कमजोर कर रहा है। पेलोन का स्पष्ट मत है कि अगर हम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रण में नहीं लाते हैं, तो आने वाले समय में और भी घातक जलवायु परिवर्तन तथा वैश्वि तपन जैसे परिणामों के  लिए तैयार रहें। 
रॉयल बोटेनिक गार्डन के वैज्ञानिकोंने खोजे विलुप्त् पौधे
पौधों पर शोध करने वाले उनका संरक्षण करने वाले लोगों ने बीते कई सालों में पौधों की कई दुर्लभ प्रजातियों की खोज की है । साल २०१८ की बात की जाए तो लंदन के रॉयल बोटेनिक गार्डन के वैज्ञानिकों ने १०० से अधिक नए पौधों की खोज की । 
राष्ट्रीय वनस्पति संग्रहालय के प्रोफेसर अइया लंबी ने सिएरा लियोन के झरने के पास एक पौधा देखा जो झरने की चट्टान से चिपका हुआ था । उन्होंने उस पौधे के नमूने को इकट्ठा किया और उसे क्यू भेजा । यहां इस पौधे को एक नई प्रजाति के रूप में पहचाना गया । इस पौधे का नाम अइया लेबी के नाम पर ली लब्बिया ग्रेंडीफ्लोरा रखा गया । अइया लेबी ने बताया, यह ा पौधा बाकी पौधों से काफी अलग है, झरने के पास मिलने वाले पौधों से अलग होने की वजह से ही मेरी नजर इस पर पड़ी ।          
विज्ञान, हमारे आसपास
बायोनिक्स : प्रकृति की तकनीकी नकल 
डॉ. दीपक कोहली

प्रकृति में पाई जाने वाली प्रणालियों एवं जैव वैज्ञानिक विधियों का अध्ययन करके एवं इनका उपयोग करके इंजीनियरी तंत्रों को डिजाइन एवं विकसित करना बायोनिक्स कहलाता है। 
जब हम बायोनिक्स के बारे में सोचते हैं तो साधारणत: ऐसी कृत्रिम बांह व टांग के बारे में सोचते हैंजो मानव शरीर में बाहर से लगाई जा सके । बायोनिक्स पद्धति के तहत जीवन की अनिवार्य जीवन प्रक्रियाओं को संवेदनशील उपकरणों से शक्ति मिलती है। ये मानव के क्षतिग्रस्त अंगों से कुछ मस्तिष्क को भेजते हैं ताकि मनुुष्य अपने कार्य कुछ हद  तकस्वयं कर  सके ।  
दुर्भाग्यवश जब किसी व्यक्ति के शरीर का कोई हिस्सा क्षतिग्रस्त हो जाए अथवा पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाए तो उसके पास क्या उपाय रह जाएगा ? हमारे पास छिपकली या स्टार फिश जैसी क्षमताएं तो हैं नहीं कि हम दोबारा बांह, टांग आदि विकसित कर सकेंत था उसे पुराने रूप में ला सकें ।   स्टेम सेल के क्षेत्र में किया जा रहा अनुसंधान इसका उपाय हो सकता है। पर अभी इस पद्धति का पर्याप्त् विकास नहीं हुआ है। तब सिर्फ फर्क कृत्रिम अंग ही आशा की किरण हो सकते हैं और यहीं पर बायोनिक्स का पदार्पण होता है।
बायोनिक्स का इतिहास प्राचीन है । मिस्त्र की पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि सिपाही अपने क्षतिग्रस्त अंगों के बदले लोहे के अंग लगा कर रणभूमि में युद्ध करने चले जाया करते थे। परंतु आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत सारी विधाओं और तकनीकों का संयोजन हो गया है; जैसे कि रोबोटिक्स, बायो-इंजीनियरिंग व गणित जिससे कृत्रिम अंगों की रचना में छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखा जा सकता है तथा वह मानव कोशिकाओं के साथ अपना कार्य कर सकता है । 
चिकित्सा और इलेक्ट्रानिकी दोनों ही क्षेत्रों में लघु रूप विद्युत अंगों, परिष्कृत सूक्ष्म चिप्स और विकसित कम्प्यूटर योजनाओं के रूप में भी निर्बल मानव शरीर को सबल मानव शरीर में परिवर्तित करने में वैज्ञानिकों ने सफलता प्राप्त् की है। इसे  बायोनिक शरीर कह सकते हैं और इसने शारीरिक अक्षमताओं वाले इंसानों के लिए कृत्रिम अंगों, कृत्रिम मांसपेशियों और दूसरे कृत्रिम अंगों द्वारा एक बेहतर जिन्दगी जीने की संभावना उत्पन्न की है।  
हारवर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका के शोधकर्ता जॉन पेजारी ने आर्गस २ रेटिनल प्रोस्थेसिस सिस्टम नाम से बायोनिक आंख विकसित की है, जो प्रकाश के मूवमेंट और उसके आकार को समझने में मदद करेगी । आर्गस २ में इलेक्ट्रोड लगे होते हैं। यह उन लोगों के लिए मददगार साबित होगा, जो पहले देख सकते थे, लेकिन बाद में किन्हीं कारणों से उनकी आंख की रोशनी चली गई। 
मस्तिष्क  के किसी हिस्से को बदलना शरीर के किसी अंग को बदलने की तरह आसान नहीं है, लेकिन भविष्य में मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना मुश्किल नहीं होगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थियोडोर बर्जर ने एक ऐसी चिप तैयार की है जो दिमाग के एक खास हिस्से (हिप्पोकैंपस) का स्थान लेगी। हिप्पोकैंपस दिमाग का वह हिस्सा होता है, जो कि अल्प समय की यादों और उनको पहचानने की समझ को नियंत्रित करता है। यह कृत्रिम दिमाग अल्जाइमर और पक्षाघात से ग्रसित लोगों के लिए वरदान होगा । इसे कुछ वैज्ञानिकों द्वारा  सुपर ब्रेन  की संज्ञा दी गई है।
किडनी फेल होने के बाद उस समस्या से निपटने के लिए सामान्यत: दो ही विकल्प अपनाए जाते हैं। एक तो किसी अन्य व्यक्ति से किडनी ली जाए या लंबे समय तक डायलिसिस पर रखा जाए। दोनों ही प्रक्रियाएं खासी जटिल हैं। जहां किडनी मिलना आसान नहीं होता, वहां डायलिसिस प्रक्रिया भी जटिल होती है। शोधकर्ताओं ने इस समस्या का हल ढूंढ लिया है। मार्टिन रॉबर्टस और डेविड ली ने ऐसी किडनी डिजाइन की है जो डायलिसिस से काफी बेहतर होगी, क्योंकि इसे २४ घंटे, सातों दिन इस्तेमाल किया जा सकेगा। यह असली किडनी की तरह काम करेगी। यह किडनी पोर्टेबल होगी और हल्की इतनी कि आपके बेल्ट आराम से फिट हो जाए । इसे बदला भी जा सकेगा । इसके छोटे आकार और ऑटोमेटिक होने के कारण इसे ऑटोमेटेड वेयरेबल आर्टिफिशियल किडनी  नाम दिया गया है।
कई कारणों से लोगों को घुटने बदलने की सलाह दी जाती है। लेकिन यह आसान काम नहीं है। वर्तमान में बायोनिक शोधकर्ताओं हैरी और वाइकेनफेल्ड ने ऐसे घुटने बनाए हैं, जो बिल्कुल असली घुटनों की तरह काम करेंगे। इन घुटनों में लगे सेंसर इस बात की जांच करेंगे और सीखेंगे कि इन्हें इस्तेमाल करने वाला कैसे चलता है और चलते वक्त वह अपने शरीर का इस्तेमाल कैसे करता है जिससे इन कृत्रिम घुटनों के सहारे चलना बेहद आसान होगा ।
बांह रहित लोग अपनी कृत्रिम बांह का इस्तेमाल बिल्कुल असली बांह की तरह अपने विचारों की शक्ति द्वारा कर सकेंगे। रिहेबिलिटेशन इंस्टीट?यूट ऑफ शिकागो के डॉ. टॉड कुकिन ने यह कारनामा संभव कर दिखाया है। उन्होंने बायोनिक बांह को दिमाग से स्वस्थ मोटर कोशिकाओं द्वारा जोड़ दिया, जिनका इस्तेमाल रोगी के बेकार हो चुके अंग के लिए किया जाता था।
कुछ वैज्ञानिक कृत्रिम पैक्रियाज बनाने में लगे हैं । कुछ ही वर्षों में ऐसे पैंक्रियाज तैयार हो जाएंगे, जो व्यक्ति के खून की मात्रा को नापने और साथ ही उसके शरीर के अनुरूप इंसुलिन की मात्रा में बदलाव करने में सक्षम होंगे। जुवेनाइल डाइबिटीज रिसर्च फांउडेशन के स्ट्ेरटेजिक रिसर्च प्रोजेक्ट के निदेशक ऑरीन कोवालस्की ने ऐसी डिवाइस तैयार की है जो वर्तमान में तकनीकों का मिश्रण है। इसमें एक इंसुलिन पंप और एक ग्लूकोज मीटर है। इसकी सहायता से डायबिटीज को नियंत्रण में लाया जा सकेगा और बल्ड शुगर के साइड इफेक्ट कम किए जा सकेंगे ।
अक्सर ऐसा होता है कि  आपके शरीर के जिस हिस्से में दर्द हो रहा होता है, उसे सही करने के लिए उस पूरे हिस्से के लिए दवाई दी जाती है। लेकिन कभी-कभी वह उस हिस्से के इंफेक्शन को पूर्ण तौर से सही कर पाने में सक्षम नहीं होती है। पेनसिलवेनिया विश्ववद्यालय, अमेरिका के  बायोइंजीनियरिंग प्रोफेसर डेनियल हैमर ने इसके लिए बेहतर तरीका खोज निकाला है। पॉलीमर से बनी कृत्रिम कोशिकाओं को सफेद रक्त कोशिकाओं से मिला दिया जाएगा । इन कृत्रिम कोशिकाओं को  सी  नाम दिया गया है। ये कृत्रिम कोशिकाएं दवाई को सीधे उस हिस्से में ले जाएंगी, जहां उसकी आवश्यकता है। यह बेहद आसान और सुरिक्षत तरीका होगा । 
इससे कैंसर सहित कई भयावह बीमारियों का मुकाबला किया जा सकेगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में शोधकर्ता डॉ. जेराल्ड लीएब अपनी टीम के साथ बायोन नामक एक ऐसी तकनीक पर कार्य कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य लकवाग्रस्त मांसपेशियों में जान फूंकना है। बायोन ऐसे विद्युत उपकरण हैं जिन्हें मानव शरीर में उसी जगह एक सुई की मदद से इंजेक्ट किया जा सकता है जहां पर इसकी जरूरत हो। इसकी शक्ति का स्त्रोत रेडियो तरंगें हैं। 
मानव मस्तिष्क एक बहुत ही जटिल यंत्र है जिसे समझने के लिए शोध चल रहे हैं। अगर किसी अपंग व्यक्ति के कुछ अंग कार्य करना बंद कर दें, परन्तु दिमाग कार्यशील रहे तो यह यंत्र उस मनुष्य को तंत्रिका संकेतों द्वारा मदद कर सकता है। ब्रेनगेट एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा एक लघु चिप दिमाग में लगा दी जाती है जो मनुष्य के विचार एक कम्प्यूटर पर भेज देती है और उन्हीं वैचारिक संकेतों द्वारा कम्प्यूटर पर ई-मेल भेजा जा सकता है और कम्प्यूटर पर गेम भी खेले जा सकते हैं, सिर्फ सोचने मात्र से ही।
शोधकर्ताओं ने सौर ऊर्जा को तरल इंर्धन में परिवर्तित करने के क्रम में सूरज की रोशनी का उपयोग करने वाली बायोनिक पत्ती का आविष्कार किया है। जीवाणु रैल्सटोनिया यूट्रोफा इस काम को अंजाम देता है और कार्बन डाईऑक्साइड के साथ-साथ हाइड्रोजन का रूपांतरण सीधे उपयोग में आने वाले तरल इंर्धन (आइसो-प्रोपेनॉल) में कर देता है। शोधकर्ताओं का यह कदम ऊर्जा से भरपूर दुनिया बनाने की दिशा में मील का पत्थर है।
बायोनिक्स पर काम करने वाले लोग जीव विज्ञानियों, इंजीनियरों, आर्किटैक्ट्स, रसायन शास्त्रियों, भौतिक विज्ञानियों से लेकर धातु विज्ञानियों के साथ मिलकर काम करते हैं। जर्मन वैज्ञानिक इस समय बीटल नाम के कीड़े के पंखों से प्रेरणा लेकर बेहद हल्की निर्माण सामग्री बना रहे हैं। प्रकृति अभी भी सबसे अच्छी इंजीनियर है। वह हडि?डयों और सींग जैसी हल्की लेकिन ठोस संरचना बनाती है और भौंरे के जैसे हल्के  पंख भी  ।
बायोनिक वैज्ञानिक प्रकृति से प्रेरणा लेकर हल्के विमान बनाने की तैयारी में लगे हैं। विक्टोरिया वॉटर लिली की पत्ती जितनी नाजुक दिखती है उतनी ही मजबूत भी होती है। उदाहरण के तौर पर, विक्टोरिया वॉटल लिली की पत्ती बड़ी आसानी से एक छोटे बच्च्े का भार उठा सकती है। इससे बड़े आकार की पत्ती व्यस्क का भार भी उठा सकती है। एरोस्पेस इंजीनियरों ने पहले त्रि-आयामी स्कैनरकी सहायता से इस पत्ती की नाजुक संरचना को स्कैन किया। फिर इस डाटा को कम्प्यूअर प्रोग्राम में डाला। 
कम्प्यूटर इसका आकलन करता है कि भार को संभालने के लिए संरचना कैसी होनी चाहिए। वॉटर लिली की पत्तियों की निचली सतह पर तना मोटा और सघन होता है। यह वह हिस्सा है जहां वाटर लिली पर ज्यादा दबाव पड़ता है। जिन हिस्सों पर कम दबाव होता है वहां तनों के बीच ज्यादा दूरी होती है और तने पतले भी होते हैं। इस सिद्धांत से प्रेरणा लेकर हल्के विमान का एयरप्लेन स्पॉयलर तैयार किया गया है। यह बेहद हल्की लेकिन बड़े काम की संरचना है जिसे किसी और तरीके से बनाना शायद संभव न होता। बायोनिक्स की तकनीक अपनाकर वैज्ञानिकों ने इसे संभव कर दिखाया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि बायोनिक्स प्रकृति की तकनीक को आम जिंदगी में अमल में लाने की विधा है। जिसके उपयोग से मानव जिदगी को और बेहतर एवं सुविधाजनक बनाया जा सकता है। 
ग्लोबल वार्मिग
जलवायु परिवर्तन से निपटने की अधूरी तैयारी
सुरेश भाई 
          मौसम परिवर्तन पर सभा, सम्मेलनों, सेमीनारों की कवायदों के बाद अब वक्त आ गया है जब एक वैश्विक नागरिक की हैसियत से हम उसके दुष्:प्रभावों से निपटने की तैयारी करें, लेकिन इसकी बजाए ठीक इसके विपरीत, हम अपनी-अपनी सीमित जरूरतों की खातिर निजी से लगाकर राष्ट्रीय दर्जे तक के हित साधने में लगे हैं। जाहिर है, आज की वैश्विक राजनीति भी इसी के लिहाज से उठ -गिर रही है। 
पांच जून १९७२ को ब्राजील की राजधानी रियो-डी-जेनेरियो में हुये पहले 'पृथ्वी सम्मेलन` (अर्थ-समीट) में पर्यावरण सुरक्षा की चिन्ताओं और औद्योगीकरण की वजह से बढ़ते कार्बन उत्सर्जन के दुष्प्रभावों पर दुनिया को अगाह किया गया था। तब से ५ जून को 'विश्व पर्यावरण दिवस` के रूप में मनाया जाता है। यही बात जब आगे बढ़ी तो १९७८ में 'संयुक्त  राष्ट्र संघ` ने 'अन्तर-सरकारी पैनल` (आईपीसीसी) का गठन करके सन १९९२ में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की । इस रिपोर्ट में कहा गया था कि बढ़ते तापमान के कारण मौसम व जलवायु परिवर्तन का प्रभाव ओजोन परत पर पड़ रहा है। 
ओजोन गैस की परत पृथ्वी से १९ से ४८ किलोमीटर ऊपर १२ से ३० मीटर मोटा एक वायुमंडलीय क्षेत्र है। कहा जाता है कि १९७० से इस परत में एक छेद बढ़ रहा है। भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने दिसम्बर १९९६ में किये गये विश्लेषणों के जरिए इसकी पुष्टि करते हुए बताया था कि अंटार्कटिका के उपर ओजोन परत पर एक बड़ा छेद हो चुका है।
दुनिया के पर्यावरण पर मंडराते इस गम्भीर खतरे को लेकर मार्च १९८५ में २० देशों के लोगों ने वियेना में सम्मेलन करके ओजोन परत के संरक्षण संबंधी संधि पर हस्ताक्षर किये थे। इसके बाद १९७७ में इसी विषय पर ३६ देशों ने हस्ताक्षर किये। संयुक्त  राष्ट्र संघ ने भी १९९५ में १६ सितम्बर का दिन 'ओजोन दिवस` के रूप में मनाने का निर्णय किया था। वर्ष १९९२ में फिर से रियो-डी-जेनेरियो में हुये 'पृथ्वी सम्मेलन` में 'ग्रीनहाउस गैस` क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) को वर्ष २००५ तक पूरी तरह समाप्त करने पर सहमति बनी थी। 'सीएफसी` का उत्सर्जन वायुमंडल में तापक्रम बढ़ाता है। 
इसके प्रभाव में कुछ समय तक अधिकांश विकसित देशों ने 'सीएफसी` का इस्तेमाल करना बंद कर दिया । विकासशील देशों ने वर्ष २०१० तक तथा विकसित देशों ने वर्ष २०१६ तक 'सीएफसी` को पूर्णत : प्रतिबंधित करके इसके विकल्प के तौर पर 'हाइड्रोफ्लोरो कार्बन` (एचएफसी) के प्रयोग का तय किया था।
इन प्रयासोंके बावजूद जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया पर कोई कारगर नियंत्रण नहीं लग पाया । अलबत्ता, इसको लेकर वैश्विक जलवायु बै कों का सिलसिला बढ़ता ही गया। दिसम्बर ११, १९९७ को 'जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र परिषद` (यूएनएफसीसी) की तीसरी कड़ी में जापान के क्योटो शहर में 'क्योटो प्रोटोकोल` के मसौदे के तहत एक संधि पर हस्ताक्षर हुये । 
यह संधि अमेरीका, आस्ट्रेलिया और यूरोपियन यूनियन के कुछ देशों के बीच लंबे वाद-विवाद के बाद १६ फरवरी २००५ को अस्तित्व में आयी। इस संधि में कहा गया कि 'ग्रीनहाउस गैसों` के  उत्सर्जन की दर घटाकर १९९५ के स्तर से ५ प्रतिशत नीचे लाई जाएगी। 
इसी बीच सितम्बर २००२ में दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में भी २०० राष्ट्रों के करीब ६० हजार प्रतिनिधियों ने १९९२ केरियो सम्मेलन में लिये गये निर्णयों की प्रगति की समीक्षा की । इसी के चलते फरवरी २००७ में पेरिस और मई २००७ में बैंकाक में हुये जलवायु सम्मेलनों में 'आइपीसीसी` ने रिपोर्ट जारी की । इस रिपोर्ट में कहा गया कि १९७० के बाद ग्रीनहाउस गैसों में ७० फीसद की बढ़ोतरी हुयी है। जाहिर है, रियो के पहले 'पृथ्वी सम्मेलन` के२ वर्ष पूर्व से ही जलवायु परिवर्तन पर चर्चा शुरू हो गई थी।
'आईपीसीसी` की रिपोर्ट में कहा गया था कि पर्यावरण के अनुकूल नई टेक्नोलॉजी तथा वैज्ञानिक तरीके अपनाये जाने चाहिये । रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिये हमारे पास पर्याप्त धन, समय, तकनीक और संसाधन उपलब्ध हैं, लेकिन ये तभी कारगर होंगे जब वैश्विक सहयोग व समझ से प्रभावी कार्य-नीति लागू हो। इस सलाह को एकजुट होकर दुनिया के राष्ट्र तब ही मान लेते तो आज तक जलवायु परिवर्तन को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता था । लेकिन इसकी बजाए दिसम्बर २००७ में बाली में १९३ देशों का एक और सम्मेलन आयोजित हुआ। इसका उदेश्य २००९ में कोपेनहेगन सम्मेलन के लिये रोड मैप तैयार करना था ।
सात से १८ दिसम्बर २००९ को कोपेनहेगन में जब यह सम्मेलन हुआ तो विकसित और विकासशील देशों के बीच में जलवायु परिवर्तन और विकास के विषय पर राजनीति भी खुलकर सामने आयी। अमीर, विकसित राष्ट्र चाहते थे कि कार्बन-डाई-आक्साइड गैस के उत्सर्जन में गरीब, विकासशील देश ही अधिक-से-अधिक कटौती करें । विकसित देशों ने इसके लिये एक-तरफा एजेंडा बनाने का प्रयास भी किया, लेकिन अन्त में निर्णय हुआ कि प्रत्येक देश स्वेच्छा से जहरीली गैसों के उत्सर्जन में २० से २५ प्रतिशत तक कमी करें ।
कोपेनहेगन सम्मेलन में जाने से पूर्व और बाद में विश्व के कई देशों ने अपने यहां 'जलवायु एक्शन प्लान` और 'जलवायु नीति` पर चर्चा की थी। भारत में भी २२ राज्यों ने अपना 'जलवायु एक्शन प्लान`  वर्ष २०१२-१३ में केन्द्र के पास जमा कर दिया था, लेकिन इसकी सच्चई यह थी कि अधिकतर प्लान तैयार करने से पहले समुदायों के सुझाव लेने के लिये जो बैकें होनी थीं, उन्हें नजर-अंदाज कर संबधित विभागों ने अपनी राय के आधार पर ही 'जलवायु एक्शन प्लान` बनाकर पेश कर दिया था । 
नतीजे में तत्कालीन केन्द्र सरकार को उत्तराखंड समेत कई राज्यों को 'जलवायु एक्शन प्लान` दुबारा जमा करने के लिये कहना पडा । इसके वाबजूद सरकारी लापरवाही के चलते इसका क्रियान्वयन अधर में पड़ा रहा।
दिसम्बर २०१५ में पेरिस में १९५ देशों ने वैश्विक तापमान को २ डिग्री से काफी नीचे रखने की प्रतिबद्वता जताई थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकसित राष्ट्रों के समक्ष जलवायु परिवर्तन से प्रभावित विकासशील देशों के वंचित समाज को न्याय दिलाने की मांग उठाई थी। उन्होने विकसित राष्ट्रों से २०२० तक प्रति वर्ष १०० अरब डॉलर उत्सर्जन में कटौती के बदले मांगे थे । अभी ६ अक्टूबर २०१८ को दक्षिण कोरिया के इंचेओ शहर में वैश्विक तापमान को २ की बजाए १.५ डिग्री तक रखने की पहल की गई है। 
कोशिश है कि २०३० तक कार्बन-डाई-आक्साइड उत्सर्जन में ४५ प्रतिशत की कमी लाई जाए, तभी २०५० तक इसको शून्य किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने कहा है कि दुनिया का तापमान डेढ डिग्री तक बढ़ गया है, जो प्राकृतिक आपदाओं के लिये पर्याप्त है। जाहिर है, जलवायु सम्मेलनों के साथ-साथ पृथ्वी का तापमान भी १ डिग्री तक बढ़ा है। अब पोलैंड में अंतर्राष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन है,लेकिन विकसित राष्ट्रों ने अंधाधुंध औद्योगीकरण के द्वारा जितना विनाश किया है, वे भविष्य में भी इस पर कटौती करने को तैयार नहीं हैं। वे विकासशील देशों को मदद के नाम पर हरियाली संरक्षण का पाठ  पढ़ाते हैं, वे हरियाली बचाने वाले समाज की आजीविका व रोजगार के लिये फिलहाल कोई मदद देने को तैयार नहीं हैं।
ऐसे में जलवायु अनुकूलन के लिये हमें जल, जंगल, जमीन का संयमित नियोजन करना होगा ताकि आजीविका के संसाधन, जलस्त्रोत, वन प्रभावित न हों और आपदा प्रबंधन के साथ बाढ़ व भूस्खलन की संभावना कम-से-कम की जाय । 
जरूरी है कि कृषि भूमि का अधिग्रहण न्यूनतम हो और विस्थापन पर अकुंश लगाने के लिये नीतियों में बदलाव किया जाए । हमें धरती को ठण्डा रखने वाले किसानों की चिन्ता करनी होगी । चिन्ताजनक है कि 'जलवायु एक्शन प्लान` के रहते हरित निर्माण तकनीक हाशिए पर चली गई है, निर्माण कार्यों का मलबा सीधे नादियों, खेतों और बस्तियों में गिराया जा रहा है। 
प्रयास हो कि सोलर एनर्जी, छोटी पन-बिजली परियोजनाएं, कुटीर उद्योग, हरित निर्माण, भूमि वितरण, ग्रामीण वस्त्रोद्योग आदि की स्थापना से रोजगार मिले। इसके लिये जरूरी है कि राज्यों द्वारा तैयार किए गए 'जलवायु एक्शन प्लान` पर एक 'राष्ट्रीय जलवायु नीति` बनायी जाय।