शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

गांधी के १५० वे वर्ष पर विशेष 
महात्मा गांधी का न होना 
कुमार प्रशांत 
महात्मा गांधी का ३० जनवरी १९४८ को संसार से सदा के लिए विदा लेना क्या सिखाता, समझाता है ? जैसा वे खुद कहते थे कि उनका 'जीवन ही संदेश है` ।
पूूरा हिसाब लगाएं तो हिंदुत्व की गोली खाकर गिरते वक्त  बापू की उम्र थी, ७८ साल ३ माह २८ दिन । तारीख थी ३० जनवरी १९४८, समय था संध्या ५.१७ मिनट । स्थान था- नईदिल्ली का बिड़ला भवन । हिंदुत्ववादी संगठनों की तरफ से गांधीजी की हत्या करने की पांच असफल कोशिशों के बाद, जिनमें से अधिकांश में नाथूराम गोडसे को शामिल किया गया था, यह छठा प्रयास था जिसके लिए ९ गोलियां और एक बेरेट्टा एम १९३४ सेमी ऑटोमेटिक पिस्तौल खरीदी गई थी । यही पिस्तौल लेकर नाथूराम गोडसे महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में आया था । उसे निर्देश सीधा दिया गया था : भारतीय समाज पर महात्मा गांधी के बढ़ते प्रभाव को रोकने की हमारी हर कोशिश विफल होती जा रही है । अब एक ही रास्ता बचा है- उनकी शारीरिक हत्या ! 
गांधी का अपराध क्या है ? बस इतना कि हिंदुत्ववादी भारतीय समाज की जिस अवधारणा को मानते हैं, गांधी उससे किसी भी तरह सहमत नहीं हैं । वे हिंदुत्ववादियों से-और उस अर्थ में सभी तरह के धार्मिक-सामाजिक कठमुल्लों से- असहमत ही नहीं हैं बल्कि पूरी सक्रियता से अपनी असहमति जाहिर भी करते हैं, भारतीय समाज की अपनी अवधारणा को जनता के बीच रखते भी हैं।  असहमति, आजादी और लोकतंत्र का प्राण-तत्व है । असहमति के कारण किसी की जान नहीं ली जाएगी, यह वह आधार है जिस पर लोकतंत्र का भवन खड़ा होता है, लेकिन असहमति कठमुल्लों की जड़ों पर कुठाराघात करती है। करीब अस्सी साल के निहत्थे, बूढ़े गांधी पर छिपकर गोलियां बरसाते हिंदुत्ववादियों के हाथ नहीं कांपे क्योंकि उनके सपनों के समाज में असहमत की कोई जगह नहीं थी और  न है । 
यह सारा इतिहास कुछ याद यूं आ रहा है कि हम और दुनिया आज महात्मा गांधी की १५०वीं जयंती मना रही है। इतिहास वह आईना है कि जिसमें सभ्यता अपना चेहरा देखती   है । मैंउसमें गांधी को देखता हूं और खुद से पूछता हूं कि १५० साल का आदमी होता भी तो कितने काम का होता ? और यहां आलम यह है कि इस १५० साल के आदमी से ही हम सारे कामों की उम्मीद लगाए सालों से बैठे हैं । सारी दुनिया का चक्कर लगा कर हम लौटते हैं और कहते हैं कि हमें लौटना तो गांधी की तरफ ही होगा । ऐसा कहने वालों में सभी शामिल हैं - नोबल पुरस्कार प्राप्त वे दर्जन भर से ज्यादा वैज्ञानिक भी जिन्होंने संयुक्त  वक्तव्य जारी किया है कि अगर मानवता को बचना है तो उसे गांधी का रास्ता ही पकड़ना होगा, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला और ओबामा जैसे लोग भी जो कहते हैं कि न्याय की लड़ाई में वंचितों-शोषितों के पास लड़ने का एकमात्र प्रभावी नैतिक हथियार गांधी का सत्याग्रह ही है भौतिकविद् हॉकिंग्स जैसे वैज्ञानिक भी हैं जो जाते-जाते कह गये कि विकास की जिस दिशा में दुनिया ले जाई जा रही है उसमें मानव जाति का संपूर्ण विनाश हो जाएगा और तब कोई नया ही प्राणी, नये ही किसी ग्रह पर जीवन का रूप गढ़ेगा, चेग्वेवेरा जैसे गुर्रिल्ला युद्ध-सैनिक भी हैं जो राजघाट की समाधि पर सर झुकाते वक्त यह कबूल करता है कि वहां, क्यूबा में, उसकी पीढ़ी को पता ही नहीं था कि लड़ाई का यह भी एक रास्ता है, 'त्रिकाल-संध्या` लिखने वाले भवानीप्रसाद मिश्र सरीखे कवि भी हैं जो कविता में, कविता को जितना टटोलते हैं, गांधी ही उनके हाथ आता है, और ३० जनवरी मार्ग पर स्थित बिड़ला भवन में गांधी से किसी हद तक अनजान वह कोई लड़की भी है जो यह सुन-समझ कर फूट कर रो पड़ती है कि ८० साल के आदमी को हमने यूं मार डाला कि वह हमसे या हम उससे सहमत नहीं थे । बोली आंसू में डूबती आवाज में बोली थी: `यह तो पाप    हुआ !` इन लोगों या इन प्रसंगों से गांधी की महानता साबित करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। महानता व्यक्ति की होती है तो वह व्यक्ति के साथ ही चली जाती है । इतिहास के पन्ने पलटेंगे हम तो उसके हर पन्ने से चिपका एक-न-एक महान व्यक्ति मिलेगा ही । लेकिन वह उस पन्ने के बाहर कहीं नहीं मिलेगा । ३० जनवरी १९४८ को जिस नाथूराम गोडसे ने, पर्दे के पीछे छिपे कई नाथूरामों की शह पर गांधी को तीन गोलियों से धराशायी किया, सोचा तो उसने भी यही था कि वह इतिहास के एक पन्ने से गांधी को चिपका कर छोड़ देगा कि कहानी खत्म ! लेकिन ऐसा हुआ नहीं । जिस बूढ़ी, कमजोर काया को मारना था उसके लिए तो एक ही गोली काफी थी । दो नाहक ही बर्बाद की उसने । लेकिन जो मारा नहीं जा सका वह कितनी भी गोलियों से मारा नहीं जा सकता है क्योंकि वह सत्यं- शिवम-सुंदरम् की मानव जाति की वह अभीप्सा है जो न वृद्ध होती है, न मृत !
कभी वे चाहते थे कि वे १२५ साल जीएं ताकि मानव-जाति की उतनी सेवा कर सकें जितनी वे चाहते हैं। अपना शरीर उसी तरह साधा था उन्होंने । वे घात-प्रतिघात के किसी खेल में शामिल नहीं थे लेकिन गहन आवेग से भरे थे । उन्हें वह सब यहीं, इसी धरा पर, इसी जीवन में चाहिए था जिसकी साधना या खोज में साधक गुफाओं-जंगलों की खाक छानते फिरते हैं । किसी ने थोड़े व्यंग्य से और थोड़ी नाराजगी से गुफा जाने की सलाह दी थी तो उन्होंने कहा था कि जाऊं  कहां, मैं तो अपनी गुफा साथ लिये फिरता हूं । उनकी दौड़ बहुत थी और बहुत तेज थी । लोग भी और वक्त भी उनके साथ दौड़-दौड़ कर हार जाता था । अपने शरीर यंत्र पर ऐसा काबू और अपनी आवश्यकताओं पर ऐसा नियंत्रण जमाने ने देखा नहीं था । और खास यह कि उनकी यह सारी साधना निजी मुक्ति या उपलब्धि के लिए नहीं थी । वे तो वैकुंठ भी सबके साथ ही जाना चाहते थे। 
दक्षिण अफ्रीका में अपनी साधना के पंख फड़फड़ाते मोहनदास करमचंद गांधी को टॉल्सटॉय ने इसीलिए पहचाना था और अपने मित्र को लिखा था कि यह आदमी तुमुल कोलाहल के बीच बैठकर साधना की सिद्धि तक पहुंचने में लगा है और इसलिए हमें इस पर नजर रखनी चाहिए । भौतिकता के शिखर पर बैठे अमरीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा की हसरत थी कि काश वे गांधी से यह पूछ व जान सकते कि आखिर आदमी इतने कम संसाधनों में कैसे सार्थक जीवन जी सकता है । विनोबा को हिमालय की शांति और बंगाल की क्रांति का संगम साबरमती में मिला तो उनकी खोज विराम पा गई, जयप्रकाश माक्सवादी दर्शन के सारे पन्ने खंगाल कर भी जिस गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहे थे उसे गांधी ने ऐसे सुलझा दिया कि वे फिर कभी न उलझे, न ठिठके । 
लेकिन हम आज उलझे भी हैं और ठिठके भी हैं । आजादी के ७२ साल होते, न होते भारतीय समाज अपनी आंतरिक संरचना के बोझ से दबा लड़खड़ा रहा है । लोकतंत्र का ढांचा तो है लेकिन तंत्र किसी पौराणिक राक्षस की तरह सब कुछ लील जाने पर आमादा है और अनगिनत लोगों के लिए जीवन में सम्मान, समता और स्वतंत्रता की कोई सुगंध बची नहीं है। सत्ता की छीना-झपटी में सब यह भूल ही गये हैं कि वह भारतीय समाज है जिसकी पीठ पर यह धमा-चौकड़ी चल रही है । हममें से कुछ हैं जो अपनी सुविधा देख कर, कभी इसके लिए तो कभी उसके लिए तालियां बजाते हैं ।   अधिकांश हैं कि जो जीने के ऐसे दारुण संघर्ष में घिरे हैं कि जीवन की सुध ही रह गई है। हमारा समाज पागाल हो रहा है । सांप्रदायिकता, जातीयता, दरिद्रता, जहालत, आलसीपना, अशिक्षा और कुशिक्षा, गर्दन झुकाकर सब कुछ सह जाने की निरुपाता - यही सब तो था कि जिसने बैरिस्टर मोहनदास को बगावत के लिए मजबूर कर दिया था ।
गांधी : १५० गांधी के  गुणगान का अवसर नहीं है । यह गांधी को उनकी संपूर्णता में पहचानने  का और फिर हिम्मत हो तो उन्हें अंगीकार करने का वक्त है । हमने धर्मों के नाम पर, जातियों और वर्गोंाके नाम पर, खोखली रवायतों के नाम पर बहुत लड़ाइयां लड़ी हैंऔर फिर भी छूंछे-के-छूंछे ही रह गये हैं । आखिर क्या हुआ कि तमाम विकास के बाद भी ७२ सालों की आजादी के हाथ इतने खाली हैं ? इसलिए कि हम गांधी का अंतिम आदमी का जंतर भूल गये । चालाक सत्ता ने उसकी तरफ अपनी पीठ  कर दी । आजादी जब अपने सारे फलाफल के साथ अंतिम आदमी तक नहीं पहुंचती है तो वह गिरोहों के छल-कपट में बदल जाती है। अंतिम आदमी जिस आजादी की डोरी पकड़ न सके, वह आजादी कटे पतंग की तरह हवा में डोलती रहती है और उसे लूटने के लिए सारे शोहदे दौड़ लगाते रहते हैं । १५० साल के गांधी फिर से आवाज लगाते हैं : मेरा जंतर याद करो, अंतिम आदमी से जुड़ों ।  हम आजादी के 'गांधी-मंत्र` समझें और तंत्र को मजबूर करें कि वह अपनी दिशा बदले, तभी १५० साल पुराना संकल्प पूर्णता को प्राप्त होगा ।               

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