वन्य जीव
आधुनिक विकास और वन्य जीव
निर्मल कुमार शर्मा
'बाघ' का नाम सुनते ही एक आम भारतीय का सिर गर्व से उठ जाता है । भारतीय वन्य प्राणिजगत का यह सबसे बड़ा, ताकतवर ,विलक्षण और अत्यन्त सुन्दर प्राणी होता है ।
पहले भारत का राïीय पशु सिंह था ,परन्तु बाद में उसकी जगह अपनी विशिï गुणों शक्ति और अपने आन-बान-शान के प्रतीक बाघ के विलक्षण गुणों से से प्रभावित होकर भारतीय आम जन के विचार-विमर्श के बाद भारतीय बाघ को "राïीय पशु" के सम्मान से नवाजा गया । भारतीय समाचार पत्रों में अक्सर भारतीय अस्मिता और आन-बान-शान के प्रतीक, बाघों के मृत्यु के बहुत ही दिल दहलाने वाले आंकड़े प्रकाशित होते रहते हैं । इस दर से बाघ मरेंगे ( या मारे जायेंगे) तो भविष्य में बाघ कैसे बचेंगे ? बाघों के मरने के प्रमुख कारणों में उनकी वृद्धावस्था, बीमारी, बिजली का करंट,आपसी संघर्ष , रेल-सड़क दुर्घटना और तस्करों द्वारा उनकी हड्डियों और खाल को उƒ दाम पर बेचने के लिए स्थानीय ग्रामीणों को लालच देकर जहर देकर मरवाना प्रमुख कारण है ।
बाघों के इस चिन्ताजनक स्थिति के लिए ,बढ़ते शहरीकरण के कारण असली जंगल की जगह कंक्रीट के जंगल लेते जा रहे हैं । दूसरे शब्दों में कथित जबरन विकास ने जंगलों और जंगली जानवरों दोनों को लीलना शुरू कर दिया है ।
राïीय बाघ सर्वेक्षण प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार भारत में, बाघों के मरने की सबसे ज्यादे घटनाएं मध्य प्रदेश में हुई हैं । अकेbे मध्य प्रदेश में पिछले पाँच वर्षों में 89 बाघों की मौत हुई है । पूरे देश में 2009 से अब तक अक्टूबर 2017 तक कुb मरने वाले बाघों की संख्या 606 है । पिछले नौ सालों में सर्वाधिक बाघों के मरने वाला वर्ष "2016" रहा है । 2016 में 120 बाघों की विभिन्न कारणों से मौत हुई है । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि ,पिछले 100 सालों में दुनिया में बाघों की कुल संख्या में लगभग 96 प्रतिशत की कमी आ चुकी है । एक अनुमान के अनुसार सौ साल पहले दुनिया में एक लाख से ज्यादा बाघ थे, जो ताजा गणना में 3890 रह गए हैं । 2008 की गणना में देश में केवb 1,411 बाघ बचे थे । वल्र्ड वाइल्ड लाइफ संस्था के अनुसार सन 2022 तक बाघ भारतीय जंगलों से सदा के लिए विbुá हो जायेंगे वैसै बाघों की आठ प्रजातियों प्रजातियों में से तीन सदा के लिए विbुá हो चुके है ।
इतनी बड़ी संख्या में बाघों का मरना, अत्यंत दुख की बात है । हमारे जंगलों में बाघों की "उपस्थिति" वहाँ की "वानस्पतिक" और "जैव विविधता" को "संरक्षित" और "सम्पन्न" बनाता है । बाघों को संरक्षित करने के लिए "राïीय बाघ अभयारण्य" बनाने का क्या औचित्य रह जायेगा ? जब इतनी बड़ी संख्या में बाघों की मृत्यु होगी ... ? बाघ पारिस्थितिकीय पिरामिड तथा आहार श्रृंखbा में शीर्षस्थ प्राणी है । बाघों के विbुáी से जंगलों की यह जैव आहार श्रृंखbा तहस-नहस हो जायेगी । एक मादा बाघिन एक बार में दो या तीन शावकों को जन्म देती है । ये शावक लगभग तीन या चार वर्षों में पूर्ण वयस्क बनते हैंऔर तभी अपनी माँ से सीखकर स्वतंत्र रूप से शिकार करने में सक्षम हो पाते हैं । उसके बाद ही लगभग चार-पांच साल के बाद अपने पूर्व जन्में बƒों के आत्मनिर्भर होने के बाद ही मादा बाघिन दूसरे बच्चों को जन्म देती है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बाघों की प्रजनन क्षमता बहुत कम है । उपर्युक्त लिखित बाघों के मृत्युदर के आँकडे उनके भविष्य के लिए बहुत ही "डरानेवाला" है, क्योंकि उनके "मृत्यु की दर" उनके "जन्म दर' से बहुत ज्यादा है । अगर यही स्थिति रही तो भारत के अति सुन्दर "चीतों" की तरह ,जिन्हें यहाँ के "राजे-रजवाड़े-महाराजे" अपनी "विलासितापूर्ण' जिन्दगी में खेल-खेल में , अपनी शौक के लिए होड़ लगाकर निर्मम "हत्या का रिकॉर्ड" बनाकर भारत से ही इस सुन्दर प्रजाति को दुखद विbुá कर दिये , वैसी ही हालत भविष्य में हमारे "राïीय गौरव बाघों" के साथ न घटित हो जाय ?
इसके लिये हमें, हमारे समाज और हमारी सरकारों , सभी को समय पूर्व सचेत और जागरूक हो जाना चाहिए और बाघों के मरने के कारणों का ध्यानपूर्वक अध्ययन कर उनका निराकरण करने का ठोस उपाय, उनके विbुá होने से पूर्व ही कर लेना चाहिए, नहीं तो, बगैर बाघों के बाघ अभयारण्य और भारत देश रह जायेगा...। पुराने जमाने में राजा-महाराजा अपने शौक में और खेल-खेल में हिरनों ,बाघों, तेदुओं ,चीतों आदि का इतना व्यापक स्तर पर शिकार (संहार) किये कि भारतवर्ष से उन कई अØzत और भारत के आन-बान और शान के प्रतीक "उन जीवों" का सामूहिक विलोपन हो गया (जिनमें भारत का प्रसिद्ध "चीता" भी है ,जिसे पिछली सदी में ही मारकर पूर्णतः खतम कर दिया गया)।
पुराने जमाने के "महाराजा" शिकार करके उस मरे हुए जीव के सिर पर पैर रखकर अपनी बंदूक के साथ फोटो खिंचवाने और अपने आलीशान महलों के डाइंगरूम में उस "नीरीह" जीव के खाल में भुस भरवाकर सजाने में अपनी "शान" समझते थे । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि ,पिछbेे 100 सालों में दुनिया में बाघों की कुb संख्या में लगभग 96 प्रतिशत की कमी आ चुकी है । एक अनुमान के अनुसार सौ साल पहले दुनिया में एक लाख से ज्यादा बाघ थे , जो ताजा गणना में 3890 रह गए हैं । 2008 की गणना में देश में केवb 1,411 बाघ बचे थे ।
हमें कुख्यात बाघ तस्कर ,संसार चन्द, के बारे में एक दुखद किस्सा याद आता है ,जो पिछले दशकोंं में सरिस्का और रणथंभौर जैसे टाइगर रिजर्व से अनगिनत बाघों को मारकर उनके खाल, मांस और हड्डियों को तस्करी से लाखों-करोड़ों रूपये कमाया । उससे जब इतनी संख्या में बाघों को पकड़ने और उन्हें मारकर बेचने का फार्मूला पूछा गया ,तब वह बताया था, कि , " वह यह काम वन्य प्रांत में स्थित गरीब लोगों को कुछ पैसे देकर यह काम बड़ी आसानी से करा लेता है ।
गांव के भूखों मरते लोग मात्र कुछ हजार रूपये में करोड़ों रूपये मूल्य के बाघ को जहर देकर मारकर, उसके टुकड़े–टुकड़े कर ,उसके खाल, मांस, हड्डियों को लेकर हमारे घर पहुँचा जाते हैं । हम तो जंगल में जाते भी नहीं ।" ये है बाघों के विbुáी का मुख्य कारण और भारत की शासन व्यवस्था का एक विद्रzप चेहरा ! एक आकलन के अनुसार भारत में हर हफ्ते दो बाघों का शिकार किया जाता है मतलब हर साल 100 से ज्यादा बाघ मारे जाते हैं और अवैध तस्करी की जाती है, जिसके फलस्वरूप भारतीय जंगलों में अब केवb 4 हजार से कम बाघ बचे हैं ।
अगर यही हाल रहा तो भारत में कुछ ही वर्षों में यहाँ के सारे वन्य प्राणी , जिसमें बाघ, तेदुआ , चीतल , सांभर आदि-आदि सभी जीव-जन्तुओं को, यहाँ के तस्कर ,चोर और ये शौकिया अभिनेता दुखद अन्त कर देंगे और वे प्रकृति की अनुपम,अØzत कृतियाँ (जीव-जन्तु) सदा के लिए इतिहास के क्रूर काल में समा जायेंगे और हमारी भावी पीढ़ियां उनके "रेखाचित्र" ही अपनी किताबों में देखेंगी । हम मानव प्रजाति अपने स्वार्थ ,अपनी सुख-सुविधा में इतने अंधे हो गये हैं कि इस पृथ्वी के अन्य सभी बाशिदों के जीवन से, उनके भूखे-प्यासे रहने से,उनके घर उजाड़ने से हमें कोई मतलब नहीं है ! जबकि यह पथ्वी एक माँ के रूप में अपने सभी संतानों को रहने, खाने, पानी पीने का समुचित इंतजाम की है ।
जो भी प्राणी इस पृथ्वी पर जन्म लिया है,अगर उसके हिस्से को न्यायिक ढंग से उसे बंटवारा किया जाय, तो इस पृथ्वी के सबसे नन्हें प्राणी चींटी से लेकर उससे खरबों गुना बड़े स्थलचर हाथी से लेकर इस पृथ्वी की अब तक की सबसे विशाल स्तनपायी समुद्री ब्bू हवेb तक को भरपेट भोजन और घर मिल जायेगा । परन्तु बहुत-बहुत अफसोस है कि इस पृथ्वी पर कुछ सालों पूर्व अवतरित "मनुष्य नामक प्रजाति" ने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर इस पृथ्वी पर उपस्थित सम्पूर्ण जैव मंडल, पर्यावरण , नदियों , समुद्रों, पहाड़ों, पठारों , जंगलों , रेगिस्तानों, स्तेपियों , लाखों सालों से बर्फ से जमें उत्तरी और दक्षिणी धु्रव के बर्फ के पहाड़ों और उनमें बसे पृथ्वी के सबसे समृद्ध जैवमंडल (जलचर और थलचर) जीवों तक को तबाह करने पर तुbा हुआ है ।
मनुष्य प्रजाति को आज भले ही समझ में न आ रहा हो, परन्तु आज मनुष्य प्रजाति इस पृथ्वी, पर्यावरण और प्रकृति का जो भयावह दोहन कर रहा है, उसका कुफb का स्वाद बहुत ही भयंकरतम रूप में उसे स्वंय भी, कुछ सालों बाद भविष्य में चुकाना ही पड़ेगा....। आज मनुष्यजनित कुकृत्यों और कुकर्मोे की वजह से प्रति दो दिन में औसतन इस दुनिया की एक जीव-जन्तु ,पक्षी या वानस्पतिक जगत की कोई न कोई प्रजाति सदा के लिए विbुá हो रही है ।
प्रकृति और पर्यावरण के बेशुमार दोहन से हुई बिपरीत मौसम की मार से,भयंकर वायु, जb, नदी प्रदूषण से संभव है एक-आध शतक वर्षों में "मनुष्य प्रजाति" खुद ही विbुáी की कगार पर खड़ी हो जाय ! एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले पचास वर्षों में मानवजनित कुकृत्योंकी वजह से इस पृथ्वी के 58% जीव सदा के लिए विbुá हो गये हैं, नï हो गये हैं । अभी राजस्थान सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस सालों में राजस्थान में मनुष्यजनित नदियों, जंगलों, भूगर्भीय जल , पहाड़ों आदि-आदि के भयंकर दोहन से वहाँ के वन्य जीव आवास, भूख और प्यास से, मनुष्यों द्वारा मारे जाने, वाहनों, रेलों से टकराने-कुचbने-कटने स, प्यास हेतु कुंए में गिर जाने से 8130 जानवर (आठ हजार एक सौ तीस ) जानवर घायल हो गये ,जिसमें से 79% यानि 6427 जानवर (छः हजार चार सौ सत्ताइस जानवर ) मर गये ..। हिरन जैसे निरीह, कमजोर और भोले प्राणी जंगलों के प्राकृतिक जbóोतोंसूख जाने की वजह से प्यासे और भूखे होने की स्थिति में, पालतू और जंगली कुत्तोंद्वारा बड़ी संख्या में मारे जा रहे हैं ।
इसी प्रकार वन्य प्रान्तर के लगातार सिकुडतेजाने से तेंदुए ,बाघ और भालू जैसे हिंसक प्राणी खाने की तलाश में मानव बस्तियों की तरफ आ जाते हैं, और पिछले सालों में ये जानवर भी सैकड़ों की तादाद में मनुष्यों द्वारा निर्दयतापूर्वक मार दिए गये..।
यह इस पृथ्वी के सभी प्राणियों के लिए बहुत ही दुःखद है ...। पृथ्वी सभी जीव-जन्तुओं की माँ सदृश्य है ,मनुष्य को जितना अधिकार इस पृथ्वी पर रहने को है, उतना ही अधिकार इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले प्रत्येक जीव का है । अतः एक रास्ता ऐसा ढूंढा जाना चाहिए कि , इस धरती पर मनुष्य भी रहें और इसके साथ, सभी जीव-जन्तु भी ।
अगर आज मनुष्यों के स्वार्थ की बलि इस धरती के सारे जीव-जन्तु चढ़ रहे हैं, विbुá हो रहे हैं तो निश्चित रूप से मनुष्य भी अपने भविष्य के "सामूहिक विलोपन" का रास्ता प्रशस्त कर रहा है ।
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