शुक्रवार, 17 नवंबर 2017


प्रसंगवश
पर्याप्त् खाघान्न के बावजूद विश्व में बढ़ती भुखमरी 
हाल में राष्ट्र संघ की रिपोर्ट में बताया गया है कि खाद्यान्न की कमी न होने के बावजूद भुखमरी फिर से बढ़ रही है । राष्ट्र संघ के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार विश्व स्तर पर लगभग ८१.५ करोड़ लोग यानी विश्व आबादी का ११ प्रतिशत हिस्सा भुखमरी का शिकार है । १५ वर्षो में पहली बार भुखमरी में यह वृद्धि देखी गई है । 
वैश्विक समुदाय की व्यापक पहल के कारण विश्व में सन १९९० और २०१५ के बीच कुपोषित लोगों की संख्या आधी रह गई थी । सन २०१५ में राष्ट्र संघ सदस्यों ने टिकाऊ विकास लक्ष्यों को अपनाया था जिनका उद्देश्य २०३० तक भुखमरी को खत्म कर देना था । 
लगातार समाचारों में आने वाली खबरें गवाह है कि पिछले कुछ वर्षो से हमारा ग्रह प्राकृतिक आपदाआें से पटा रहा है जिसके कारण शरणार्थियों की संख्या और हिंसा बढ़ी है और जीवन दूभर होने लगा है । ये आपदाएं गरीबों, शरणार्थियों और युद्ध ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों की भोजन तक पहुंच को मुश्किल बना देती है । छोटे किसानों और पशु पालकों को अपनी फसलों, पशुआें और जमीन के बारे मे निर्णय करने के लिए जरूरी सेवाएं बाजार और ऋण आसानी से उपलब्ध नहीं है । सरकारी और वैश्विक विकल्प सीमित है और जातीय, लिंग और शैक्षिक बाधाएं इनके आड़े आती हैं । नतीजा यह होता है कि कई बार संकट की स्थिति में वे सुरक्षित या टिकाऊ खाद्य उत्पादन नहीं कर पाते है । 
पूरे विश्व में सामाजिक और राजनैतिक उथल-पुथल चरम सीमा पर है । सन् २०१० से राज्यों के बीच संघर्ष में ६० प्रतिशत वृद्धि हुई है और आंतरिक सशस्त्र संघर्ष में १२५ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । रिपोर्ट के अनुसार भोजन की दृष्टि से असुरक्षित ५० प्रतिशत लोग हिंसाग्रस्त इलाकों में रहते हैं । इसी प्रकार से तीन चौथाई कुपोषित बच्च्े संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में रहते है । और इन्हीं क्षेत्रों में लगातार तूफान, सूखा और बाढ़ की स्थिति भी देखी गई है जिसका बड़ा कारण वैश्विक जलवायु परिवर्तन है । ऐसी परिस्थितियों से पार पाने के लिए खाद्य सुरक्षा को मजबूत करना होगा । 
सम्पादकीय 
वैज्ञानिक के लिए प्रकाशन की सीमा का सुझाव 
पिछले दिनों वैज्ञानिक प्रकाशन को लेकर सुझाव सामने आया है कि प्रत्येक वैज्ञानिक के लिए शोध पत्रों की एक अधिकतम सीमा तय कर दी जानी चाहिए और इसके साथ ही प्रत्येक वैज्ञानिक के लिए आजीवन शब्दों की कुल संख्या भी निश्चित होनी चाहिए । 
कहा जाता है कि आजकल शोध पत्र प्रकाशित करने का उद्देश्य बदल चुका है । पहले ये शोध पत्र ज्ञान को साझा करने के लिए प्रकाशित किए जाते थे, मगर आज कई शोध पत्र सिर्फ प्रकाशनों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रकाशित किए जाते हैं - कुछ लोगों ने इसे प्रकाशन - मुद्रा की संज्ञा दी है । कई शोधकर्ता शोध पत्रों में अपने नाम छपवाने की कीमत अदा कर देते है तो कई शोध पत्रिकाएं शोध पत्र छापने की कीमत वसूलती है । 
यह भी देखा गया है कि शोधकर्ता शोध पत्र का प्रकाशन सुनिश्चित करने के लिए सनसनीखेज मगर संदिग्ध परिणामों का सहारा भी लेते हैं । इसके चलते शोध में गहनता की कमी आ जाती है और कई किस्म के गोरखधंधे शुरू हो जाते है । इन्हीं सब समस्याआें के मद्देनजर ऑस्ट्रेलिया के एक लेखक माइकल मैकगिर ने सुझाव दिया है कि हर वैज्ञानिक के लिए शब्द सीमा निर्धारित होनी चाहिए । जरा कल्पना कीजिए कि हर वैज्ञानिक को शुरू से ही मालूम होगा कि वह अपने पूरे कैरियर में कितने शब्द प्रकाशित कर सकेगा या कर सकेगी । मैकगिर का विचार है कि जब शब्द सीमा निश्चित होगी तो वैज्ञानिक अपने शोध में ज्यादा सावधान रहेंगे और एकदम जरूरी व महत्वपूर्ण होने पर ही प्रकाशन करेगे । 
अलबत्ता, इस सुझाव के अन्य पहलू है जो हानिकारक हो सकते    है । विज्ञान में अपने परिणामों को प्रकाशित करने में अत्यधिक सावधानी शायद नवाचारी विचारों को सामने आने से रोकेगी । वैज्ञानिक लोग वही परिणाम प्रकाशित करेगे जिन्हेें सकारात्मक माना जाता है इसलिये सुझाव की व्यावहारिकता को भी देखना होगा । 
सामयिक
टिहरी बांध के दावो और वादों का हिसाब 
विमल भाई

टिहरी बांध से जो लाभ मिलने की बात थी वे अब त भी नहीं मिल पाए । पर्यावरण की शर्ते भी पूरी नहीं हो पायी । ऐसे में प्रश्न उठता है कि सरकारें पुराने बने हुए बांधों का हिसाब-किताब दें और ये बताये कि जो दावे और वादे किये गये थे उससे लोगोंे का जीवन स्तर कितना ऊँचा उठ  पाया ? क्या पहाड़ के लोग अपनी संस्कृति को पुनर्वास स्थल पर बसा पाए हैं ?
उत्तराखंड के टिहरी बांध से विस्थापितों के पुनर्वास की कहानी बहुत लंबी है । टिहरी बांध प्रभावित क्षेत्र में बहुत लोगों की आजीविका नदी व जंगल पर आधारित थी, उनका नदी व जंगल से एक रिश्ता था । एक समाज और संस्कृति का बिखराव विकास की इस परियोजना से देखने को मिला है । टिहरी बांध के  निर्माण के वक्त जो दावे किये गए थे उतनी बिजली आज तक पैदा नहीं हो पाई है । टिहरी बांध से जो लाभ मिलने की बात थी वे भी नहीं मिल पाए । टिहरी बांध में दस पुल डूबे थे, १२ साल बांध को चालू हुए हो गए । 
अभी तक  जो बदले में पुल बनने थे वे सभी नहीं बन पाए । लोगों को आर-पार आने जाने में बहुत परेशानी होती है। कुछ किलोमीटर का रास्ता अब दिन भर का हो गया । फिर बांध बनने के  बाद सरकारी आँकड़ों के अनुसार झील के आस-पास के लगभग ४० आंशिक प्रभावित गांव नीचे धसक रहे हैं । अब धीरे-धीरे नुकसान झेल रहे हैं। उनकी अब कोई सुनवाई   नहीं । बांध के सामने ही मदन नेगी गांव में मकान लगभग ७ साल पहले घसक गए थे किन्तु आज तक उनका मुआवजा नहीं मिल पाया है । 
पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने भूकंप की संभावना को देखते हुए अप्रैल १९९६ के उपवास में टिहरी बांध की पुन: समीक्षा की पुरजोर मांग की थी । बांध के भूकंपीय खतरे के संदर्भ में पुनर्विचार के लिए जो समिति गठित की गई थी, केन्द्र की देवेगौड़ा सरकार ने पुनर्वास के लिए भी डॉ. हनुमंता राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया । डॉ. हनुमंता राव समिति ने जो सुझाव दिए सरकार ने उसके १० प्रतिशत सुझावों को ही माना, जिसमें से अब तक १० प्रतिशत भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाये। १९९८ में इन सुझावों को पुनर्वास नीति में जोड़ा गया, किन्तु इसके बाद भी पुनर्वास का काम बहुत धीमी गति से ही चला । वास्तविकता तो यह थी कि टिहरी बांध के वक्त कोई पुनर्वास नीति बनी ही नहीं थी । सन् १९७८ से ही लोगों का विस्थापन शुरू हो गया था। बहुगुणाजी के धरना, प्रदर्शनों व लंबे उपवास के बाद पुनर्वास नीति बननी शुरू  हुई । और अंतत: १९९५ में पहली पुनर्वास नीति बन पाई । 
वहीं आज उत्तराखंड के  कुमाऊं  क्षेत्र में प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के  मामले में देखें तो आज पंचेश्वर बांध व रुपालीगाड बांध परियोजनाओं में कानूनों का पालन नहीं हो रहा है । सन् २०१४ से पहले कई कानून बने हैंं, उनमें पर्यावरण जनसुनवाई कानून, सामाजिक आकलन जन सुनवाइयों कानून, वन अधिकार २००६ कानून । पंचेश्वर के बांधों की पुनर्वास नीति भी गलत आंकडों के आधार पर बनाई गई । 
टिहरी में भी डूब क्षेत्र के  काफी गलत सर्वे किए गए थे । टिहरी बांध चालू होने के बाद सर्वोच्च् न्यायालय के आदेश पर हुए सर्वे में १००० नये विस्थापित सामने आये । जिनमें से आधे तो आज भी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हंै। याद रहे कि टिहरी बांध की गौरव गाथा गाकर बांध कंपनी टिहरी जलविद्युत निगम, (टीएचडीसी) उसे और भी कई नये बांधों के  ठेके मिल गये । किन्तु पथरी भाग १, २, ३ व ४ हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले टिहरी बांध विस्थापितों के मामले ३५ वर्षों से लंबित है । यहां लगभग ४० गांवांे के  लोगांे को पुनर्वासित किया गया है। यहां ७० प्रतिशत विस्थापितों को भूमिधर अधिकार भी नहीं मिल पाया है । मुफ्त बिजली, पीने और सिंचाई का पानी, यातायात, स्वास्थ्य, बैंक, डाकघर, राशन की दुकान, पंचायत घर, मंदिर, पित कुटटी, सड़क, गुल, नालियां आदि भी व्यवस्थित नहीं बन सकी है। 
ज्यादातर ग्रामीण पुनर्वास स्थलों पर जैसे सुमननगर और शिवालिक नगर में बहुत कम लोग बचे हैं । सुमननगर में पानी की समस्या है, जबकि टिहरी बांध से दिल्ली की ओर जा रही नहर ५०० मीटर दूर है। शिवालिक नगर के विस्थापितों ने अपनी सारी जमीनें बेच दी है चूँकि मूलभूत सुविधाएं नहीं थी। यहां रहने वाले प्रभावित वापस चले गए । यानि समाज पूरी तरह से बिखर गया । 
पंचेश्वर बांध क्षेत्र में वैसी ही स्थिति जौलजीवी और झूलाघाट बाजारों की है। यहाँ के बाजार स्थानीय गांवों के ग्राहकों से ज्यादा नेपाल से आने-जाने वाले ग्राहकों से ज्यादा चलते हैं। मगर सामाजिक आकलन रिपोर्ट में इनका कोई जिक्र नहीं है। 
शहरी विस्थापन के लिये, जो टिहरी शहर बसाया गया, वहां पर भी ४० प्रतिशत ही पुरानी टिहरी शहर के लोग है। शहरी पुनर्वास की स्थिति देखें तो यहां भी प्रभावितों ने ग्रामीण विस्थापितों की ही तरह किसी तरीके से बसाने की कोशिश की है। दस साल बाद जमीन मिली । अब मुआवजे तो खत्म हो गए थे। टिहरी शहर के मुआवजे की सूची देखें तो ५ रूपये से लेकर ३५ रूपये तक भी मकानों के मुआवजे मिले थे। आज यह कहा जा सकता है कि मुआवजा बहुत अच्छा दे रहे हैं, लाखों रूपये दे रहे हैं । 
मगर देखना तो यह है कि क्या उसमें नई जगह पर मकान बन पायेगा ? फिर सरकार अगर जमीन देने की बात करती है तो क्या सबके लिए उतनी जमीन उपलब्ध है ? परिवार किसको माना ? जिसके  नाम जमीन है । यानि प्राय: वृद्ध लोगों को । जाहिर सी बात है कि आकड़े बहुत कम दिखेंगे । जैसा टिहरी में हुआ, यहाँ पर भी वही बात है । 
पंचेश्वर में तो सर्वे बिलकुल ही गलत है । टिहरी बांध में प्रभावितांे को जमीन देना बहुत ही मुश्किल हो गया था । सरकार ने अपने हिसाब से बार-बार नीतियां बदली । जैसे ऋषिकेश के पशुलोक क्षेत्र में ११०० एकड़ जमीन को शहर के पास माना गया और पुनर्वास नीति में दो एकड़ होने के बावजूद आधा एकड़ जमीन स्वीकार करने के लिये लोगों को मजबूर किया गया । क्योंकि बांध सामने था और लोगों को मजबूरी   थी । इसलिये उन्हें लगा जो मिले वही ले लेना चाहिए । 
सरकारी अधिकारियों व बांध कंपनी की मिली भगत से गांव-गांव के अंदर दलाल खड़े हो गए थे । लोगों ने रिश्वत दे कर, दया आधार पर, किसी तरीके से मुआवजे लिये । मतलब अपनी जो जमीन, सम्पत्ति पीढ़ियों से जो संचित की हुई है, वो डूब रही है और उसके बदले में जो मिल रहा है, वे लेने के लोगों को आपसी लड़ना-झगड़ना, धरना-प्रदर्शन करना पड़ा । भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ा । उसके बाद भी सभी टिहरी बांध प्रभावितों को समुचित मुआवजा मिल पाया हो, ऐसा भी नहीं हो   पाया । हजारों प्रकरण विभिन्न अदालतों में चल रहे है । 
ज्ञातव्य है कि अभी भी राज्य सरकार ने टिहरी बांध कंपनी को टिहरी बांध पूरा भरने की इजाजत नहीं दी है। यह भी तथ्य है कि सुन्दरलाल बहुगुणा के आंदोलन और दवाब से पर्यावरण व पुनर्वास की शर्तें मजबूत हो पायी और लोगों का पुनर्वास संभव हो पाया । पंचेश्वर के बांधों के आंशिक डूब के गांवांे में भी धसकने की स्थिति आएगी । अब पंचेश्वर के बांधों के संदर्भ में सरकार कह सकती है कि पहले ही पुनर्वास की जनसुनवाईयंा हो रही है । 
यदि सरकार सब सुनिश्चित कर भी दें तो जमीन कहाँ है     उतनी ? क्या वो जमीन खेती लायक है ? खेती कैसी हो पायेगी ? क्या वो जमीन बसने लायक है ? भूमिधर अधिकार कब मिलेगा ? मूलभूत सुविधाएं कब तक होंगी ? ऐसे तमाम प्रश्न इसमें उलझे पड़े होते हैं । लेकिन क्या इस विस्थापन के बाद सुकून को वह स्थिति आएगी ? राज्य में अन्य बड़े बांधों को आगे बढ़ाने वाली उत्तराखंड व केन्द्र सरकारों का दायित्व नहीं बनता कि वे पुराने बांधों के विस्थापितों व उनकी समस्याओं का तत्काल निदान करे, बजाय उनको अपने हाल पर छोड़ने पर लाचार होने के लिए ।
हमारा भूमण्डल
बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण 
प्रो. कृष्ण कुमार द्विवेदी

वर्तमान समय में प्लास्टिक प्रदूषण एक गंभीर विश्वव्यापी समस्या बन गई है । संपूर्ण देश-धरती में प्रत्येक वर्ष अरबों की संख्या में प्लास्टिक थैलियाँ फेंक दी जाती  है । 
चतुर्थिक बिखरे यही प्लास्टिक थैलियाँ नालियों, नालों में जाकर उनके प्रवाह को अवरूद्ध करती है, आगे बहकर यह अंतत: नदियों एवं सागरों में पहुँच जाती है । यह चूंकि प्राकृतिक रूप से विघटित नहीं होती इसलिए नदियों, सागरों आदि के जीवन और पर्यावरण को बुरी तरह से प्रभावित करती है । प्लास्टिक प्रदूषण के कारण आज वैश्विक स्तर पर लाखोंकी संख्या में पशु पक्षी मारे जा रहे हैं जो पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से अत्यधिक चिंतनीय पहलु है । 
 आज विश्व का प्रत्यक देश प्लास्टिक से उत्पन्न प्रदूषण की अत्यन्त विनाशकारी समस्याआें से जूझ रहा है । हमारे देश में तो प्लास्टिक प्रदूषण से विशेषकर नगरीय पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हुआ है ।नगरों में प्लास्टिक थैलियों को खाकर भारी संख्या में गाये, भैंसे व अन्य पशु पक्षी मारे जा रहे है । 
प्लास्टिक नैसर्गिक रूप से विघटित होने वाला पदार्थ नहीं होने के कारण एक बार निर्मित हो जाने के बाद यह प्रकृति में स्थाई तौर पर बना रहता है तथा प्रकृति में इसे नष्ट कर सकने वाले किसी सक्षम सूक्ष्म जीवाणु के अभाव के कारण यह कभी भी नष्ट नहीं हो पाता  इसलिए  गंभीर पारिस्थितिकी संतुलन उत्पन्न होता है और सम्पूर्ण वातावरण प्रदूषित हो जाता है । यह जल में भी अघुलनशील होने के कारण नष्ट नहीं होता और भारी जल प्रदूषण बढ़ाता है तथा वृहद स्तर पर जल प्रवाह को बाधित करता है जिससे ऐसे दूषित जल में मक्खियाँ, मच्छर एवं जहरीले कीट पैदा होते हैं जिससे मलेरिया, डेंगू जैसे रोग फैलते हैं । 
प्लास्टिक पैकिंग से खाघ सामग्री भोजन एवं औषधियों के पैक किये जाने से इनके साथ प्लास्टिक रासायनिक प्रक्रिया करके उन्हेंदूषित और खराब कर देता है । इनके उपयोग से मानव जीवों को जान का खतरा उत्पन्न हो जाता है तथा भयानक बीमारियों से ग्रसित कर देता है । प्लास्टिक को जलाये जाने से निकलने वाली विषाक्त गैसों के परिणाम स्वरूप गंभीर वायु प्रदूषण फैलता है जिससे कैंसर, शारीरिक विकास में अवरोध होना एवं जघन्य रोग उत्पन्न हो जाते है । प्लास्टिक को गढ्ढों में गाड़ दिये जाने से पर्यावरण को हानि पहुंचती है, मिट्टी और भूमिगत जल विषाक्त होने लगता है और धीरे-धीरे पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ने लगता है । प्लास्टिक उद्योग में कार्य करने वाले श्रमिकों के स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है विशेषकर फेफड़े, किडनी और स्नायुतंत्र प्रभावित होते है ।
अत्यन्त गंभीर तथ्य है कि वर्तमान समय में सम्पूर्ण पृथ्वी पर लगभग १५०० लाख टन प्लास्टिक एकत्रित हो चुका है जो पर्यावरण को लगातार क्षति पहुंचा रहा है । आज वैश्विक स्तर पर प्रतिव्यक्ति प्लास्टिक का उपयोग जहां १८ किलोग्राम है वहीं इसका रिसायक्लिंग मात्र १५.२ प्रतिशत ही है । प्लास्टिक की रिसायक्लिंग को भी सुरक्षित नहीं माना गया है । रिसायक्लिंग प्लास्टिक से ओर अधिक प्रदूषण फैलता है । सामान्यतौर पर प्लास्टिक पर प्रतिबंध करके उसका सर्वोत्तम विकल्प प्राकृतिक रूप से विघटित होने वाली थैलियाँ होते है जो ३ से ६ महीनोंमें अपने आप ही नष्ट होने लगती है । 
विशेष लेख
विज्ञान की सामाजिकता 
सुन्दर सरूकाय

विज्ञान निहित रूप से और मूलत: सामाजिक है । हालांकि जीवन में आज भी एक तनहा वैज्ञानिक, एक प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व की छवि हावी है किन्तु यह छवि आधुनिक वैज्ञानिक कामकाज में सही नहीं बैठती है । 
विज्ञान का कामकाज अब निहित रूप से इतना सामाजिक हो चला है कि व्यक्तियों के स्तर पर ही नहीं बल्कि संस्थाआें और राष्ट्रों के स्तर पर भी विज्ञान को एक सहयोगी गतिविधि के रूप में देखा जाता है । अब ना केवल सह-लेखकों द्वारा लिखे गए शोध पत्र एक सामान्य सी बात हो गई है बल्कि प्रत्येक शोध-पत्र में सह-लेखकों की संख्या बढ़ती ही जा रही है । कुछ शोध पत्र तो १-१ हजार से ज्यादा सह-लेखकों वाले भी है । 
प्रकृति को अपने अध्ययन का विषय मानने की जिद के चलते विज्ञान के अंदर सामाजिक तत्व के महत्व को अक्सर अनदेखा किया जाता है । विज्ञान की व्यापक समझ के तहत विज्ञान-अध्ययनों, खास तौर से विज्ञान के समाज शास्त्र की भी उपेक्षा हुई है ।  इन अध्ययनों ने बार-बार विज्ञान के विमर्श और कामकाज दोनों की सामाजिक प्रकृति को उजागर किया है । 
विज्ञान की गाथाआें में अक्सर विज्ञान करने की व्यक्ति की क्षमता पर इतना जोर दिया जाता है कि सामाजिक तत्व ओझल हो जाता है । इन गाथाआंे में व्यक्तियों कीे सृजन क्षमता को अत्यधिक महत्व दिया जाता है और समाज मात्र एक सहायक की भूमिका अदा करता है । किन्तु यह दृष्टिकोण वैज्ञानिक गतिविधियों की सामाजिकता को सही तरीके से नहीं पकड पाया है । 
विज्ञान में सामाजिक तत्व का पहला एहसास संस्थाआें से इनके जुड़ाव में नजर आता है । आधुनिक विज्ञान, हम आज जिस तरह से उसे काम करते देखते हैं, वह न सिर्फ (विश्वविद्यालयों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाआें में) नवीन ज्ञान के निर्माण का ऋणी है बल्कि १६६० मे स्थापित रॉयल सोसायटी जैसी संस्थाआें, विभिन्न राष्ट्रीय अकादमियों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का भी आभारी है । इन संस्थाआें का एक प्रमुख काम था कि विज्ञान को अपने संरक्षकों तथा समाज के लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना । 
यह तो शुरू से ही माना गया था कि विज्ञान को जन सामान्य के बीच संप्रेषित और प्रदर्शित  प्रयोगों के सार्वजनिक प्रदर्शन करने की एक व्यापक संस्कृति थी ताकि लोग कुछ धनराशि देकर प्रयोगों का प्रदर्शन देख सके । विज्ञान पर जोर देने के शुरूआती प्रयास इस बात  को लेकर बहुत सचेत थे कि विज्ञान को सार्वजनिक बनाया जाए और उसका महत्व समाज को दिखाया जाए । 
अलबत्ता, विज्ञान की सामाजिकता से मेरा आशय विज्ञान के इस पहलू से नहींहै । विज्ञान के शुरूआती सार्वजनिक प्रदर्शनों में भी वैज्ञानिक व्यक्तिगत रूप से महत्वपूर्ण शख्सियत हुआ करते थे । विज्ञान का विकास न्यूटन जैसी व्यक्तिगत हस्तियों के आसपास ही हुआ । संस्थाआें को ऐसे स्थानों के रूप में देखा गया जहां व्यक्ति निर्बाध रूप से विज्ञान के काम कर सके । विज्ञान के प्रति आकर्षण उस समय भी   कुछ असाधारण व्यक्तित्व की  कल्पना से जुड़ा था जो विज्ञान के महान नए विचारों की रचना करते थे । 
हालांकि तब भी यह स्पष्ट था कि विज्ञान के महान विचार व्यक्तियों और संस्थाआें के सामाजिक नेटवर्क, और दुनिया भर में काम कर रहे वैज्ञानिकों की साझा सामाजिक परिपाटी से ही उपजते है ।  दरअसल पिछले दो शताब्दियों में विज्ञान के अलावा किसी अन्य मानवीय गतिविधि में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की ऐसी मिसाल पेश नहीं हुई है । यहां तक कि विश्व युद्धों के दौरान भी वैज्ञानिक उन अवधारणाआें पर काम कर रहे थे जिनको युद्धरत देशों के वैज्ञानिक साथियों ने विकसित किया था । 
उदाहरण के लिए ब्रिटिश प्रायोगिक व सैद्धांतिक वैज्ञानिकों द्वारा क्वांटम और सापेक्षता के सिद्धांत पर जर्मन सहयोगियों के साथ काम से विज्ञान की सामाजिक परिपाटी के महत्व को पता चलता है जो राजनैतिक बंटवारे से ऊपर उठ सकती है । आज भी कई वैज्ञानिक ऐसे देशों के वैज्ञानिकों की मदद कर रहे हैं जिनके बीच राजनैतिक धु्रवीकरण व्याप्त् है । एक तरह से देखे तो यह एक विडंबना है क्यों कि यही वैज्ञानिक अस्त्र-शस्त्र की तकनीक की खोज में भी सबसे आगे हे है और उनके देश उनकी घनघोर सुरक्षा करते है । 
यद्यपि विज्ञान की सामाजिकता, इन संस्थाआें के जरिए स्थापित किए जाने पर निर्भर है किन्तु इसके आगे भी जाती है । वैज्ञानिक कार्य प्रणाली ही नहीं बल्कि, वैज्ञानिक ज्ञान भी मूलभूत रूप से सामाजिक है तो स्वयं वैज्ञानिक ज्ञान की सामाजिक प्रकृति को कैसे समझा जाए ? अव्वल तो वैज्ञानिक ज्ञान का उत्पादन सामाजिक रूप से होता है । यहां तक कि सैद्धांतिक कार्य भी एक सामाजिक उत्पादन है जिसकी शुरूआत वैज्ञानिकों द्वारा प्रयुक्त भाषा, अवधारणआें और सिद्धांतांं   की साझा सामाजिक समझ से होती है । 
वैज्ञानिक ज्ञान की संभावना ही इस बात पर निर्भर करती है कि सामाजिकता का अधिकतम इस्तेमाल कैसे किए जाए । शोध पत्रिकाआें, प्रकाशनों और उद्वरित करने की संस्कृति आज के विज्ञान के बहुत जरूरी अंग हैं और ये अलग-अलग तरीके हैं जिनके माध्यम से सामाजिकता वैज्ञानिक ज्ञान के उत्पादन का एक अंतरंग हिस्स बन जाती है । 
कम से कम दो मूलभूत कारण हैं जिनकी वजह से विज्ञान की हमारी समझ में सामाजिकता को अहमियत प्राप्त् नहीं हो पाती ।  पहला कारण यह है कि रचनात्मकता और स्वायत्तता का प्रमुख अभिकर्ता व्यक्ति को ही माना जाता है । और दूसरा कारण यह विश्वास है कि प्राकृतिक का दायरा मूलत: सामाजिक के दायरे से अलग है । विज्ञान प्राथमिक रूप से प्राकृतिक दुनिया के सत्य की खोज करता है, यह दावा प्राकृतिक को सामाजिक से ज्यादा महत्व देता है । अलबत्ता, व्यक्ति के महत्व और प्राकृतिक के अर्थ दोनोंसे संबंधित इन विश्वासों को चुनौतियां मिली है। विज्ञान के अन्दर सामाजिक के सवाल पर एक अलग दृष्टिकोण भी है जो विज्ञान-टेक्नॉलाजी और समाज के परस्पर संबंधों को लेकर ब्रूनो लाटोर और अन्य के कार्य से उभरा है । इन दृष्टिकोणों में एक महत्वपूर्ण समझ यह है कि प्राकृतिक और सामाजिक के बीच, इंसान और गैर इंसान के बीच विभेद तर्को के आगे टिक नहीं पाता है । 
भूगोल विशेषज्ञ तो यह लगातार इंगित करते रहे हैं कि प्रकृति में कुछ भी प्राकृतिक नहीं   है । प्राकृतिक और प्राकृतिक के निर्माण का विचार ही सामाजिक यप से निर्मित हुआ है । प्रकृति की परिभाषा वास्तव में बहुत फिसलन भरी है और विभिन्न प्राकृतिक विज्ञानों में अलग-अलग है तो प्राकृति के बारे में वैज्ञानिक सत्य के दावों को अधिक से अधिक इसी रूप में देखा जा सकता है कि वे प्राकृतिक के समाजीकृत स्वरूप के सत्य है । 
इसको एक अलग ढंग से भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक विषय स्वयं अपने लिए विमर्श के विषय रचता है । इन्हींपर उसका अध्ययन केन्द्रित होता है । विज्ञान के केन्द्र में प्रकृति है, लेकिन विज्ञान का प्रत्येक विषय प्रकृति को लेकर स्वतंत्र राय बनाना है । वास्तव में प्रकृति के बारे में विभिन्न विषयों को यह विशिष्ट नजरिया ही अलग-अलग्र करता है, लगभग उतना ही जितना कि विधि जैसे अन्य तत्व करते हैं । भौतिकी के लिए प्रकृति कुछ नियमोंसे भरपूर है और इसीलिए भौतिकी के लिए प्रकृति की परिभाषा में प्रकृति के नियम एक बहुत जरूरी तत्व है । 
लेकिन प्रकृति के नियमों की सार्थकता को लेकर बहुत सारे आधारभूत प्रश्न है । क्या ये नियम प्रकृति को परिचालित करते है ? क्या ये नियम प्रकृति के उद्देश्यों को परिचालित करते है ? यदि ऐसा है तो कैसे ? या ये केवल प्रकृति की कुछ प्रक्रियाआें के बारे में बातचीत करने के तरीके है ? जीव विज्ञान के लिए प्रकृति का विचार वैसा नहीं होगा जैसा भौतिकी के लिए है और     जीव विज्ञान में प्रकृति को लेकर भौतिकी के समान कोई नियम नहीं है । 
कहने का मतलब यह है कि हालांकि हम भौतिकी और जीव विज्ञान दोनों में एक ही शब्द प्रकृति का इस्तेमाल करते हैं, किन्तु दोनों विषयों में इसके अर्थ सर्वथा अलग-अलग होते हैं । इसी तरह से रसायन विज्ञान में प्रकृति का अर्थ भौतिकी के प्रकृति के अर्थ से अलग है हालांकि रसायन शास्त्र में बहुत सारी भौतिकी भी मिलती है । दरअसल, रसायन शास्त्र को भौतिकी का एक सीमित रूप बताने का विरोध बहुत हद तक प्रकृति के भिन्न अर्थ की वजह से भी है । 
यह सही है कि विज्ञान में सामाजिक को केन्द्र बिन्दु बनाने वाले दृष्टिकोणों के आलोचक भी हैं तो भी इस नजरिए से सोचना उपयोगी होगा क्योंकि यह प्राकृतिक और सामाजिक के बीच के भेद को तोड़ता है । यह तर्क महत्वपूर्ण है कि वस्तुए भी क्रिया करती है और यह वैज्ञानिक वस्तुआें के कार्यो और प्रकृति पर टिका है । असल में, विज्ञान टेक्नॉलाजी समाज के परस्पर संबंधों के अध्ययन उस तर्क में अग्रणी रहे है जो उस पारंपरिक मत को अस्वीकार करता है कि वैज्ञानिक और टेक्नॉलाजिकल तत्वों से स्वतंत्र सामाजिक का कोई अस्तित्व है । 
उनकी दलील है कि आधुनिक समाज का निर्माण जितना व्यक्तियों की अंतक्रियाआें से होता है उतना ही विज्ञान और तकनीक की वस्तुआें द्वारा भी होता है, और हम सामाजिक को मात्र इस रूप में परिभाषित नहीं कर सकते है कि वह केवल कुछ लोगों को समूह है, उसमें हमें विज्ञान व टेक्नॉलाजी की रचनाआें को भी शामिल करना  होगा । तो समाज केवल लोगों का समूह नहीं है, बल्कि सारे जीवों और वस्तुआें का मिला-जुला रूप है । दुसरे शब्दों में, वैज्ञानिक वस्तुआें का खुद अपना भी सामाजिक जीवन होता है, जैसा कि किसी वैज्ञानिक का अपना सामाजिक जीवन होता है । 
इस तरह विज्ञान की सामाजिक प्रकृति को स्पष्ट रूप से स्वीकारने के कई परिणाम है । प्रकृति के इस विशिष्ट नजरिए का आव्हान अक्सर विज्ञान को विभिन्न नैतिक चुनौतियों से सुरक्षित रखने के लिए किया जाता है । इस तर्क का उपयाग नैतिक सवालों को विज्ञान के दायरे से बाहर रखने के लिए किया जाता है कि विज्ञान तो केवल प्राकृतिक विश्व के सत्य की खोज करता     है, और इंसान (और समाज)    इसमें सिर्फ एजेंट की भूमिका निभाते हैं । 
वैज्ञानिक ज्ञान और वैज्ञानिक कामकाज में सामाजिक तत्व पर जोर क्यों दिया जाए ? विज्ञान के लम्बे इतिहास में और विज्ञान को जिस ढंग से जनता के बीच प्रस्तुत किया जाता है, उसमें समाज के केन्द्रीय महत्व को अक्सर ओझल कर दिया जाता  है । विज्ञान को प्रकृति के विशिष्ट नजरिए पर केन्द्रित करके विज्ञान को नैतिकता और जवाबदेही के प्रश्नों से सुरक्षा मिल जाती हैं यदि विज्ञान को सिर्फ दुनिया के बारे में जानकारी उत्पन्न करने की गतिविधि के रूप में देखा जाए तो वैज्ञानिक इस जानकारी को खोजने की जिम्मेदारी से बच सकते है । 
तर्क यह दिया जाता है कि दुनिया के बारे में जो सत्य विज्ञान खोजता है उसके लिए विज्ञान को जवाबदेह नहीं ठहराया जाना चाहिए क्योंकि इस ज्ञान से जुड़ी समस्याआें के लिए तो लोग जिम्मेदार हैं । 
उदाहरण के तौर पर कहा जाता है कि चाकू उपयोगी भी हो सकता है और हानिकारक भी । इसके आधार पर यह दावा किया जाता है कि विज्ञान तो मूल्य-निरपेक्ष है । इस उदाहरण मे थोड़ी खेाट है चाकू मूल रूप से एक सामाजिक वस्तु है, और यह सामाजिक दुनिया में उसके द्वारा निर्धारित अर्थो में काम करता है जिसमें उसके उपयोगी और हानिकारक दोनों ही पहलू शामिल होते है । 
सामाजिक होने का अर्थ है कि समाज से संबंधित अन्य तत्वों से भी संबंध रहेगा । इसलिए सामाजिक होने का मतलब ही है कि समाज के अन्य तत्वों के प्रति जवाबदेही । विज्ञान में नैतिकता का विचार विज्ञान की मूलभूत सामाजिकता को स्वीकार करने से ही आया है । 
यह नैतिक दृष्टिकोण कहता है कि विज्ञान केवलप्राकृतिक विश्व के प्रति नहीं, बल्कि उस समुदाय के प्रति भी जवाबदेह है जिसके अन्तर्गत विज्ञान के क्रियाकलाप होते हैं । समाज के अन्य घटकों के प्रति संवेदनशील होने की जवाबदेही का मतलब है कि जीने और जानने के अन्य तौर-तरीके के प्रति भी संवेदनशीलता होना । 
कृषि जगत
किसान आयोग बनाये जाने की जरूत 
विजय जड़धारी 

किसानों के संकट के लिए राष्ट्रीय कृषि नीति एवं हरित क्रांति ज्यादा जिम्मेदार है । पूर्ववर्ती सरकारों ने खेती के विकास के नाम पर किसानों के शोषण के बीज बोए तो तात्कालिक सरकार उन्हें पाल पोस रही है । दुर्भाग्य की बात है कि देश की संसद भी इस मुद्दे पर मौन है । सरकारों को उपज बढ़ाने की जरूर चिंता रही किंतु उत्पादक किसान की नहीं ।
सन् २०१७ महात्मा गांधी के नील की खेती के विरूद्ध चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष है । आजाद भारत में इस वक्त किसानों का स्वर्णकाल होना चाहिए था किंतु आज किसान नई खेती की गुलामी से त्रस्त होकर आत्महत्या करने और सड़कों पर आंदोलन के लिए मजबूर है । 
सरकार की इस सीधी मार से विपक्ष और मीडिया जागा है, किंतु सरकार एवं कृषि व्यवसाय में लगी देशी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मिली छूट की अदृश्य किंतु घातक मार से १९९५ से अब तक ३ लाख १८ हजार से अधिक पीड़ित किसान आत्महत्या कर चुके हैं । लाखों किसान खेती छोड़कर पलायन कर चुके हैं। किसान की नई पीढ़ी खेती छोड़े, इस तरह की स्थिति और शिक्षा प्रणाली बनी है ।
हरित क्रांति के दुष्परिणामों से सबक लेकर किसान, बुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक जीएम बीजों के विरूद्ध आंदोलन चला रहे हैं। इस समय उनकी बात सुनी जानी थी किंतु सरकार की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल समिति ने जीएम सरसों को मंजूरी देकर उनके जले घावों पर नमक छिड़कने का काम किया है। भूतपूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने तो बीटी बैंगन पर जन सुनवाई कर इस तकनीकी पर रोक लगा दी थी, अभी गेंद पर्यावरण मंत्रालय के पाले में है। यदि जीएम सरसों को मंजूरी मिलती है तो यह भारतीय खेती, स्वास्थ्य और पर्यावरण के सर्वनाश का कारण बनेगा । सरकार की उपेक्षा से पीड़ित किसानों की दुर्दशा पर सर्वोच्च् न्यायालय की दखल के बाद किसानों में नई आशा का संचार हुआ है ।
  खेती किसान की जीवन पद्धति और संस्कृति रही है । आजादी से पहले व कुछ दिन बाद तक किसान पैसे से भले ही गरीब थे किंतु विविधतायुक्त  खेती, फसलों, खानपान, अच्छा स्वास्थ्य, पशुधन, हल-बैल, देसी बीज, गोबर की खाद व सामूहिक श्रम आदि के  मामले में अमीर और आत्मनिर्भर थे। बिना लागत की खेती थी, कोई भी किसान खेती के संसाधनों के लिए कर्जदार नहीं था । १९७० के दशक में सरकार एवं वैज्ञानिकों द्वारा हरित क्रांति के नाम पर अमरीका से लाए गए बीज व रासायनिक खाद के मिनी किट मुफ्त में बांटे गए, नए बीजों से बढ़ी उपज का चमत्कार देखकर किसान फूले नहीं समाए, लेकिन कुछ ही दिनों बाद फसलों पर बीमारी आने लगी तो कीटनाशक जहरों को दवा के रूप में प्रचारित किया और नये बीजों के  साथ नए खरपतवार आए तो पीछे से खरपतवारनाशी व बैलों की जगह ट्रेक्टर आए । 
जब घर के बीज लुप्त हो गए तो मुफ्त का खेल भी    खत्म । अब सभी संसाधन खरीदकर लेने पड़े । घर की खेती अमरीकी बीज कंपनी मोंसेंटों के जाल में फंसकर पराई हो गई । खेती की लागत बढ़ने से किसान की गांठ  का पैसा खत्म हुआ तो किसान पहले साहूकारों के जाल में फंसा फिर सरकार ने बैंकिंग सुविधा देकर किसान क्रेडिट कार्ड के मार्फत और आसानी से कर्ज उपलब्ध करवाया । किसान विविधता की खेती छोड़कर एकल नगदी फसलें उगाकर आमदनी बढ़ाने का प्रयास करने लगे किंतु वही आमदनी अठन्नी खर्चा रूपया वाली कहावत सच निकली । कृषि उपज से मंडियों के व्यापारी मालामाल बने तो बीज, खाद, कीटनाशक और ट्रेक्टर खरीद से देसी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कारोबार अरबों में पहुँच गया, जहरयुक्त खानपान से किसान एवं उपभोक्ता खतरनाक बीमारियों के जाल में फंसे तो दवा उद्योग चरम पर पहुंचा । किसान इतनी कंगाली में पहुँचा कि आज १२ लाख ६० हजार करोड़ रूपए का कर्ज बैंकों एवं साहूकारों का किसानों पर है ।
किसानों पर सिर्फ कर्ज की मार ही नहीं है, ऊपर से आधुनिक विकास से उत्पन्न जलवायु और मौसम परिवर्तन की मार भी है। असमय अतिवृष्टि बाढ़, सूखा व ओलावृष्टि आदि ने किसान की कमर तोड़ दी है। पहाड़ों में तो आजकल बादल बम बनकर कब कहाँ किस पहाड़ी पर बमबारी कर गाँव खेती उजाड़ देते हैं, पता नहीं । सरकार इसे दैवीय आपदा कहती है, किंतु इससे उत्पन्न क्षति की पूर्ति कभी भी नहीं होती, मौसम की मार से यदि कुछ बच भी गया तो जंगली जानवरों की मार भी कम घातक नहीं है । दिन को बंदरों की टोलियाँ तो रात को सुअर और नीलगायों के झुंड लहलहाती फसलों को चौपट कर देते हैं ।
केंद्र सरकार २०२२ तक किसानों की आय दोगुना करने की बात करती है किंतु इसका गणित आज तक नहीं समझाया गया, किस तरह किसानों के साथ यह कैसा अन्याय है कि सोने, चांदी, उद्योगों से उत्पन्न वस्तुओं के दाम, कर्मचारी व अधिकारियों व हमारे जनप्रतिनिधियों आदि के वेतन, भत्ता और पेंशन सैकड़ों-हजारों गुना बढ़े हैं। वहीं किसान की उपज के दाम दस-बीस गुना से भी अधिक नहीं बढ़े । 
किसानों को इसलिए भी दबाया जाता है कि किसान आंदोलन, ट्रेड यूनियन की तरह संगठित नहीं है किंतु इस बार का किसान आंदोलन नए दौर में है। प्रधानमंत्री फसल बीमा की खूब चर्चा होती है किंतु इसकी असफलता का नमूना देखिए हेंवलघाटी टिहरी गढ़वाल के  सब्जी उत्पादक किसानों ने १५० की प्रीमियम देकर जनरल इंश्योरेंस कंपनी से बीमा करवाया, फसल खराब होने पर कंपनी ने ७० रूपए का चेक दिया, जिसका ३५ रूपए कलेक्शन चार्ज बैंक ने ले लिया, किसान को क्या मिला, कुछ किसानों ने दुखी होकर ये चेक प्रधानमंत्री को भेज दिये । 
उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र की सरकारों ने अपने किसानों के आंशिक कर्जे माफ किए हैं । उत्तराखंड में चुनावी वायदा करने के बावजूद भी किसानों के कर्ज माफ नहीं किए । फलस्वरूप कर्ज के बोझ तले नगदी फसल उगाने वाले दो किसानों ने पहली बार आत्महत्या कर ली । हालांकि यहाँ अधिकतर किसान बिना कर्ज-बिना लागत की बारहनाजा जैसी फसलें उगाते हैं ।
कर्जमाफी समस्याग्रस्त किसान का अधिकार है किंतु इसका लाभ भी किसान को नहीं, बल्कि व्यवसायिक कंपनियों को मिलता    है । २००८ में कांग्रेस सरकार ने किसानों के ७१ हजार करोड़ के कर्ज माफ किए । इसके बावजूद भी किसानों की आत्महत्याएँ अब तक जारी हैं । दरअसल, कर्ज माफी का पैसा सीधे बैंक खाते में जाता है। किसान साहूकार या प्रायवेट फायनेंस कंपनी से भी कर्ज लेते हैं, उसकी भरपाई नहीं हो पाती । किसान का एक ही फायदा है उसे कर्ज मुक्ति  का एनओसी मिल जाता है, उसे अगली फसल उगाने के बीज, खाद, कीटनाशक, ट्रेक्टर व तेल आदि चाहिए वह उसे बैंक उसकी केसीसी पर चुटकी में कर्ज दे देता है । और वह कर्ज का पैसा भी संसाधनों की खरीद और साहूकार के ब्याज में चला जाता है । किसान को धेला भी नहीं बचता । अगली फसल भगवान भरोसे है, कर्ज घटने की बजाय बढ़ता जाता है । 
किसान और खेती तब बचेगी जब खेती की जीवन पद्धति और संस्कृति की नीति वाली कृषि नीति बनेगी, बिना लागत, कम लागत, कर्ज मुक्त खेती होगी । किसान को सम्मान की नजर से देखा जाएगा । पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था-जय जवान, जय किसान । उनके बाद की सरकारों ने इस नारे को बदलकर आत्महत्या कर किसान कर दिया । 
किसानों की आत्महत्या और आज की खेती की समस्या, किसी राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं है। केंद्र सरकार व राज्य सरकारें किसानों के प्रति संवेदनशील नहीं है, इसलिए सर्वोच्च् न्यायालय के मार्गदर्शन में संवेदनशील कृषि वैज्ञानिकों, अनुभवी किसानों, न्यायविदों, समाजकर्मियों का एक किसान आयोग बनाया जाना चाहिए ।
वातावरण 
क्या पर्यावरण विरोधी है कचरे से बिजली ?
मनोज निगम

पर्यावरण मंत्रालय की जानकारी के अनुसार देश मेंप्रति वर्ष ६२० लाख टन कचरा उत्पन्न होता है, इसमें ५६ लाख टन प्लास्टिक कचरा १.७ लाख टन जैव चिकित्सा अपशिष्ट, ७९ लाख टन खतरनाक अपशिष्ट और १५ लाख टन ई-कचरा निकलता है । नगर निगम और पालिकाएं इन अपशिष्ट का केवल ७५ से ८० प्रतिशत ही एकत्र कर पाती है और २२-२८ प्रतिशत हिस्सा ही संसाधित किया जाता है । 
कचरा प्रबंधन एक देशव्यापी समस्या है, देश भर में कचरा निपटारे के कई प्रयोग किए जा रहे हैं । इनमें से एक है कचरे का भस्मीकरण एवं बिजली उत्पादन । सार्वजनिक अपशिष्टों के भस्मीकरण और उससे बिजली उत्पादन के १०० प्लांट्स बनाने के नीति आयोग के प्रस्ताव को तमाम तबकोंद्वारा तीखी आलोचना मिल रही है । कहा जा रहा है कि यह योजना वायु प्रदूषण को कम करने और ऊर्जा के साफ-सुथरे स्त्रोतों की ओर बढ़ने के राष्ट्रीय प्रयासों में बाधक होगी । 
नीति आयोग की तीन सालाना (२०१७-१८ से २०१९-२०) योजनाआें पर बनाए व्यापक मसौदे के अनुसार देश की ८००० नगर पालिकाआें में प्रतिदिन उत्पन्न १,७०,००० टन कचरे के प्रबंधन का उद्देश्य है । इस कचरे से निपटने के लिए कचरे से ऊर्जा बनाना ही एकदम सही विकल्प है । योजना में इस कचरे को एक गंभीर लोक स्वास्थ्य खतरा बताया गया है । सार्वजनिक ठोस अपशिष्ट की सफाई की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए भारतीय कचरा ऊर्जा निगम की स्थापना का सुझाव दिया गया है । संयंत्रों को बनाने का काम पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत किया जाएगा । 
रिपोर्ट के अनुसार इस निगम का मुख्य दायित्व २०१९ तक बनाए जाने वाले १०० स्मार्ट शहरों में अपशिष्ट से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्र निर्माण क काम की निगरानी का होगा । योजना में कल्पना की गई है कि ये संयंत्र पर्यावरण के लिए लाभकारी होंगे और इनसे २०१८ तक ३३० मेगावाट और २०१९ तक ५११ मेगावाट बिजली का उत्पादन हो सकेगा । यहां यह जानकारी भी महत्वपूर्ण है कि कोयले पर आधारित बिजली संयंत्र साल में लगभग ५०० मेगावट बिजली का उत्पादन करता  है । 
ठोस कचरा प्रबंधन के नियमों में यह स्पष्ट है कि कचरे को घरेलू स्तर पर गीला, सूखा और घरेलू खतरनाक कचरे की तीन श्रेणियों में बांटा जाना चाहिए, यह व्यवहारिक रूप से नहीं हो पा रहा है । अधिकांश कचरे में तीनों श्रेणियों के कचरे मिल ही जाते है । अलग-अलग करने के लिए सरकारी और सामाजिक प्रयास भी करने होगे । नियम में यह भी है कि कचरे से ऊर्जा पैदा करने वाले संयंत्रों में मिश्रित कचरा नहीं जलाना चाहिए, और कचरे को निपटाने का आखरी विकल्प जमीन के भराव का होना चाहिए । 
एक अंग्रेजी अखबार के मुताबिक नीति आयोग यह बताने में असफल रहा है कि जब इन संयंत्रों में मिला-जुला अपशिष्ट जलेगा तो फिर इनसे विषैली गैसों का उत्सर्जन भी होगा और ये हवा में गैर जिम्मेदारना रूप से प्रदूषण फैलाएंगी । यदि इस विषाक्त उत्सर्जन की निगरानी का प्रभावी तंत्र न हो तो स्वास्थ्य संबंधी खतरे और भी चुनौतीपूर्ण होगे । कचरे के पृथक्करण के लिए कई सारी सामाजिक, आर्थिक व व्यवहारिक चुनौतियां तो होगी ही । 
यह जानकारी भी गौरतलब है कि हाल ही में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दिल्ली के ओखला स्थित एक संयंत्र पर पेनल्टी लगाई है क्योंकि वहां पर उत्सर्जन के मानकों का पालन नहीं किया गया । और वहां के रहवासियों ने सुप्रीम कोर्ट में इस संयंत्र को किसी अन्य जगह ले जाने के लिए जनहित याचिका दायर की  है । नीति आयोग के इस ड्राफ्ट एजेंडा  में न तो दिल्ली स्थित संयंत्रों से कोई सबक लिया है न ही कुछ शहरों में बायोमेथीनेशन के सफल परिणामों का जिक्र है ।
कई भारतीय पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अवधारणा ही दोषपूर्ण है । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मण्डल की मूल्यांकन समिति के तकनीकी विशेषज्ञ इंजीनियर अनंत त्रिवेदी के अनुसार अपशिष्टों को जलाना सबसे खराब विकल्प है । यह विश्वास करना कि अपशिष्टों से साफ-सथुरी ऊर्जा बनाई जा सकेगी भी गलत साबित होगा । 
भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलुरू के विशेषज्ञ टी.वी. रामचन्द्र का कहना है कि घरेलू कचरे में ८० प्रतिशत तक नमी वाले जैविक पदार्थ होते हैं इनका भस्मीकरण उचित नहीं है । बेहतर उपाय यह है कि इस कूड़े की खाद बनाकर या इसका किण्वन करके इससे बायोगैस बनाई जाए । 
अमन लूथरा का अध्ययन भारत में शहरीकरण और अपशिष्ट प्रबंधन का है । इनका कहना है कि भस्मीकरण की तकनीक में लगातार कम नमी और अधिक कैलोरी के अपशिष्टों की जरूरत होती है । भारतीय अपशिष्ट जलाने के लिए उपयुक्त नहीं है क्योंकि इसमें नमी की मात्रा अधिक होती है और इसको जलाने के लिए भी अधिक ऊर्जा की जरूरत होगी । सी.एस.ई. (सेंटर फार एन्वायरमेंट एजूकेशन) के अध्ययन के अनुसार भी भारतीय अपशिष्ट ८००-१००० किलो कैलोरी प्रति किलोग्राम का होता है और इसको जलाने के लिए लगभग २००० किलो कैलोारी प्रति किलोग्राम की जरूरत होगी ।
कचरे को जलाने की सिफारिश अन्य सरकारी नीतियों से भी जुदा है । हाल ही मे प्रदूषण पर भारत सरकार के श्वेत पत्र के अनुसार ठोस अपशिष्ट को ठिकाने लगाने के भस्मकीकरण जैसे थर्मल उपचार के तरीके कचरे के निम्न ऊष्मा मूल्य के कारण संभव नहीं   है । आलोचकों का कहना कि भारत के पास बिजली उत्पादन की पर्याप्त् क्षमता नहीं है । 
पर्यावरण परिक्रमा
पहली बार भारत में जुरासिक युग का सरीसृप मिला

पहली बार भारत मंे जूरासिक काल के बड़े  समुद्री सरीसृप (रेंगने वाला जीव) इचथियोसर के कंकाल का जीवाश्म मिला है । यह जीव डायनोसर के साथ पृथ्वी पर रहता  था । इचथियोसर को ग्रीक भाषा में मछली छिपकली कहा जाता है । इससे पहले इसके जीवाश्म उत्तर अमेरिका और योरप में पाए गए    हैं । दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिण अमेरिका और ऑस्ट्रेलियां में ये काफी सीमित रहे है । 
दिल्ली विश्वविद्यालय और जर्मनी के एर्लानजेन-न्यूरेमबर्ग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआें ने इचथियोसर को भारत में गुजरात के कच्छ में पाया है । यह करीब ५.५ मीटर लम्बा कंकाल है । माना जा रहा है कि यह ऑप्थलमोसोरीडे परिवार का जीव है जो करीब १६.५ करोड़ से नौ करोड़ साल पहले पृथ्वी पर रहता था । दिल्ली विश्वविद्यालय के भूगर्भशास्त्र विभाग के गंुटुपल्लीप्रसाद के मुताबिक, यह खोज केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि पहली बार भारत में इचथियोसर होने का प्रमाण मिला बल्कि यह पूर्व के गोंडवाना के इंडो-मैडगास्कन क्षेत्र में इचथियोसर के विकास और विविधता पर भी प्रकाश डालता है । 
इससे जुरासिक काल मे अन्य महाद्वीपों के साथ भारत के जैविक रूप से जुड़े होने का पता भी चलता है । शोधकर्ताआें को उम्मीद है कि इस क्षेत्र में जुरासिक काल के रीढ़ की हड्डी वाले और जीवों की खोज से दुनिया के इस हिस्से में समुद्री सरीसृपों के विकास के बारे में जानकारी मिल सकती है । 

अरबो रूपयो के फल और सब्जी की बर्बादी
ऐसोचैम और एमआरएसएस इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक देश में सालाना उत्पादित होने वाले दूध, फल व सब्जियों में से तकरीबन आधा बर्बाद हो जाता है । इस बर्बादी से हर साल देश को करीब साढ़े चार सौ अरब डॉलर का नुकसान होता है । देश में कोल्ड स्टोरेज तकनीकों और उसके संचालन के लिए प्रशिक्षित स्टाफ की कमी इस बर्बादी की मुख्य वजह है । 
देश में तकरीबन ६३०० कोल्ड स्टोरेज इकाइया हैं । इनकी कुल क्षमता ३.०१ करोड टन खाद्य पदार्थ रखने की है । यह आकड़ा देश में उत्पादित होने वाले कुल खाद्य पदार्थो का महज ११ फीसद है । इनके संचालन के लिए प्रशिक्षित कर्मियों की कमी, कोल्ड स्टोरेज की अप्रचलित तकनीके और अनियमित बिजली सप्लाई के चलते ये देश में कारगर नहीं हो रही है ।
इस बर्बादी में ६० फीसदी हिस्सेदारी उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात और पंजाब की है, लेकिन दक्षिण भारत में हालात बेहद खराब  है । यहां का मौसम उत्तर भारत की तुलना में गर्म और उमस भरा है । यही वजह है कि कोल्ड स्टोरेज यूनिट्स की कमी की वजह से यहां दुध, फल व सब्जियां ज्यादा बर्बाद होती है । 
देश में २०१४ में किराना व्यापार ५०० अरब डॉलर का था । २०२० तक इसके ८४७.९ अरब डॉलर होने की संभावना है । ऐसे में जरूरी है कि इस उद्योग में खाद्य पदार्थो को एकत्र करने स्टोर करने और एक से दूसरी जगह भेजने के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल किया जाए । तभी यह विक्रेताआें और खरीदारों के लिए किफायती  होगा । 
ऐसे खाद्य पदार्थ जो सामान्य तापमान में अधिक दिनों तक ताजे नहीं रह पाते हैं, उन्हें कई दिनों महीनों तक ताजा रखने के लिए विशालकाय  कमरों में कई डिग्री कम तापमान में स्टोर किया जाता है । इसे कोल्ड स्टोरेज कहते है । 

वर्ष २०१९ से कारो में एयरबैग्स अनिवार्य 
आगामी आने वर्ष २०१९ से बनने वाली सभी कारों में एयरबैग्स, सीट बेल्ट रिमांइडर्स, ८० किलोमीटर प्रति घंटे से अधिक स्पीड पर अलर्ट करने वाला स्पीड वॉर्निग सिस्टम, रिवर्स पार्किग अलटर्स, मैनुअल ओवरराइड सिस्टम आदि फीचर्स देना अनिवार्य हो जाएगा । सड़क एवं परिवहन मंत्रालय ने इस पर अपनी मुहर लगा दी है । फिलहाल, महंगी और लग्जरी कारों में ही सुरक्षा संबंधी उपरोक्त पैमानों का इस्तेमाल होता   है ।
सड़क परिवहन एवं राजमार्ग  मंत्री नितिन गड़करी ने भारत में होने वाले सड़क दुर्घटनाआें को कम करने के मद्देनजर यह फैसला लिया है । बता दें कि २०१६ में भारत में मरने वाले प्रति १.५ लाख लोगों में से तकरीबन ७४००० लोग सड़क हादसे में मारे गए । इनको जिंदगी ओवर स्पीडिंग की भेंट चढ़ गई । परिवहन मंत्रालय के एक सूत्र की मानें तो नई कारों में ऐसा सिस्टम फिट किया जाएगा जो कि स्पीड ८० किलोमीटर प्रति घंटा में अधिक होने पर ऑडियो अलर्ट देगा । स्पीड १०० किलोमीटर प्रति घंटा से अधिक होने पर इस अलर्ट की आवाज और भी तेज हो जाएगी । १२० किलोमीटर प्रति घंटा से अधिक स्पीड होने पर यह लगातार बजता रहेगा । 
पावर फेल्योर की स्थिति में अगर सेन्ट्रल लॉकिंग सिस्टम ने काम करना बंद किया तो मैनुअल ओरवाराइड सिस्टम से ड्रायवर और पैसेजर्स आसानी से कार के बाहर निकल सकेगे । रिवर्स पार्किग के दौरान होने वाले ऐक्सिडेंट्स को कम करने के लिए कारों में रिवर्स पार्किग अलर्ट दिया जाएगा  । कार जब रिवर्स गियर में पीछे जा रही होगी तब ड्रायवर को रियर मॉनिटंरिग रेंज के हिसाब से पता चलता रहेगा कि कोई ऑब्जेक्ट है या नहीं । परिवहन मंत्रालय के सूत्रों ने बताया है कि एयरबैग्स और रिवर्स पार्किग सेंसर्स को शहर में चलने वाले हल्के वाणिज्यिक वाहनों के लिए भी अनिवार्य किया जाएगा  । 

अब बैक्टीरिया रहित कपडे से नहीं आएगी बदबू 
बढ़ते त्वचा रोगों व एलर्जी की समस्या के बीच राहत भरी खबर है ।भारतीय युवा वैज्ञानिकों ने शत प्रतिशत स्वदेशी तकनीक से एक ऐसा नैनोफैब्रिक विकसित किया है जो त्वचा रोगों व एलर्जी से तो बचाएगा ही साथ ही शरीर में दुर्गध पैदा करने वाले बैक्टीरिया को भी मार देगा । इस फैब्रिक से बने कपड़ों में लागत मात्र १० रूपये प्रति मीटर आएगी । इलाहाबाद विश्वविघालय के भौतिक विज्ञान विभाग द्वारा किए गए इस शोध को अंतराष्ट्रीय शोध पत्रिका फ्रंटियर इन माइक्रोबोयोलॉजी ने हाल ही में प्रकाशित किया है । 
एक शोध के मुताबिक बदलती जीवनशैली, दूषित खानपान, असुरक्षित कॉस्मेटिक, शरीर में प्रतिरोधक क्षमता की कमी, औघोगिक कचरा, प्रदूषण, हवा में उड़ते औघोगिक  कचरा, प्रदूषण, हवा में उड़ते औघोगिक व ऑटोमोबाइल प्रदूषण के कारण विश्व में त्वचा रोगियों की संख्या २३ फीसदी से अधिक है । त्वचा संबंधी रोग बढ़ रहे है । खासकर ऐसे क्षेत्रों में जहां रासायनिक उद्योग व धनी बस्तियांं अधिक है । विवि के भौतिक  विज्ञानी प्रो. केएन उत्तम ने बताया कि चांदी, सोना और तांबा एंटीबैक्टीरियल धातु है । इनमें चादी सबसे अधिक प्रभावी है । हमनें  लैंब में सिल्वर डेकोरेटड नैनोफैब्रिक यानी चांदी के अति महीन कणों से युक्त कपड़ा  तैयार करने में सफलता हासिल की है । 
इसका प्रयोग घाव को सुखाने, पटि्टयों, मास्क, रूमाल, मोजे, अंत:वस्त्रों व वस्त्र निर्माण में बखूबी किया जा सकता है । इस तकनीकी के प्रयोग से बने मौजे कभी बदबू नहीं करेंगे क्योंकि नैनोफैब्रिक खतरनाक पैथोजेनिक बैक्टीरिया को भी मार सकता है । 
प्रो.केएन उत्तम और प्रो. रामगोपाल के मार्गदर्शन में शोध करने वाले शोधार्थी अभिषेक भारद्वाज ने बताया कि हमने सबसे शुद्ध मेडिकल बैडेज का इस्तेमाल किया । बैडेज (सफेद पट्टी) को डाईएथिल- डाईमेथिल अमोनियम क्लोराइड से बैक्टीरिया रहित करने के बाद इसमें एक ऐसा पदार्थ लगाया जो गोंद (बाइंडर) का कार्य करता है । इसके बाद इसमें सिल्वर नाइट्रेट लगाया । बाइंडर के कारण सिल्वर नाइट्रेट पट्टी से इस तरह चिपक जाता है कि सौ-पचास धुलाई के बाद भी वह अलग नहीं होता । 
इस तरह इस पट्टी का फैब्रिक नैनो सिल्वर पार्टिकल्स यानी चांदी के अति महीन कणों से युक्त हो जाता है । जब चेहरे या शरीर के किसी अंग की नमी का नैनो सिल्वर युक्त बैंडेज से संपर्क होता है तो इसमें युक्त चांदी के अति महीन कणों का आयनीकरण हो जाता है । इससे वे अत्यन्त सक्रिय होकर बैक्टीरिया को मारने की स्थिति में आ जाते है । 
प्रो. उत्तम बताते है कि सिल्वर कोटेड नैनोफैब्रिक्स का औघोगिक प्रयोग पर लागत और कम आ सकती है । कपड़े धुलने के बाद भी यह लंबे समय तक प्रभावी बना रहता है । खास बात यह है कि इस तकनीक से विकसित कपड़ो से किसी भी सतह को पोछ देने पर उसके बैक्टीरिया मर जाएंगे । चाहे वो हमारा हाथ ही क्यों न हो । 
बाजार में अभी कुछ नामी कंपनियां टेक्नोफैब्रिक तकनीकी से कपड़े तैयार करने का दावा करती    है । इनकी कीमत सामान्य से चार गुना अधिक होती है । 
स्वास्थ्य
आयुर्वेद में आस्था संकट का हल क्या है ?
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

आयुर्वेद चिकित्सा प्रणालियां आज की दुनिया में वैकल्पिक उपचार मानी जाती हैं । आयुर्वेद में विज्ञान, कला और दर्शन का त्रिवेणी संगम है जो व्यक्ति  को स्वस्थ जीवन जीने की जीवनशैली से परिचित कराती है। आधुनिक चिकित्सा शैली के सहारे किसी भी बीमारी से तुरंत राहत पा लेते है, लेकिन इसके पार्श्व प्रभावों को देखते हुए दुनिया भर में लोग वैकल्पिक चिकित्सा को अपना रहे  हंै । 
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने नईदिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्वेदिक संस्थान के शुभारंभ के अवसर पर आयुर्वेद शिक्षा, चिकित्सा और सामाजिक स्वास्थ्य पर बोलते हुए कहा कि आयुर्वेद के नेतृत्व में स्वास्थ्य क्रांति का वक्त आ गया    है ।
प्रधानमंत्री ने समाज की नब्ज पकड़ने वालांे की नब्ज पर हाथ रखते हुए इस महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर ध्यान दिलाया कि जो लोग आज आयुर्वेद पढ़कर निकलते है क्या सच में १०० प्रतिशत लोग इसमें आस्था रखते हैं। कई बार ऐसा होता है कि मरीज जब जल्द स्वस्थ होने पर जोर देता है, तब आयुर्वेद के कुछ चिकित्सक उन्हें एलोपैथी की दवा देने में संकोच नहीं करते हैं । आयुर्वेद की स्वीकार्यता की पहली शर्त यह है कि आयुर्वेद पढ़ने वालांे की इसमें शत-प्रतिशत आस्था हो । हमें उन क्षेत्रांे के बारे में भी सोचना होगा, जहां आयुर्वेद अधिक प्रभावी भूमिका निभा सकता है ।
मनुष्य को छोड़कर सृष्टि के सभी जीव अपना रोगोपचार बिना चिकित्सक की मदद से स्वयं ही प्राकृतिक जीवनशैली और प्रकृति प्रदत संसाधनों से कर लेते है । सभ्यता के विकास के साथ ही नए-नए रोग प्रकाश में आते गये और उनके उपचार में नए-नए तरीके भी खोजे जाते रहे । चिकित्सा शास्त्र उतना ही पुराना है जितना मानव जाति का इतिहास । जबसे मनुष्य शरीर की उत्पत्ति हुई तब से ही रोगों का जन्म हुआ और तभी से चिकित्सा के प्रयास प्रारंभ हुए। धीरे-धीरे चिकित्सा विज्ञान के  ज्ञान का विस्तार होता गया, जो विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के रूप में हमारे सामने है । कहा जाता है कि आजकल विश्व में लगभग १५० से अधिक चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलन में है ।
आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। आयुर्वेद में विज्ञान, कला और दर्शन का त्रिवेणी संगम है जो व्यक्ति को स्वस्थ जीवन जीने की जीवनशैली से परिचित कराती है। आयुर्वेद के अनुसार मानव जिस जलवायु एवं प्रकृति में पैदा होता है, उसके लिए उसी जलवायु के अनुकूल औषधि एवं आहार-विहार स्वास्थ्यप्रद रहते हैं । देश में आयुर्वेद ज्ञान का एक बड़ा भंडार प्राचीन ग्रंथांे, हस्तलिखित पांडुलिपियांे, लोककथाआंे, वनोषधियांे, जनजातीय लोकगीतों और व्यक्तिगत अनुभवों के रूप में उपलब्ध है जिसे सही तरीके से सूचीबद्ध एवं मानकीकरण करने की आवश्यकता है ।
भारत में १५ कृषि जलवायु के साथ ही विश्व की ७ प्रतिशत जैवविविधता मौजूद है। इस कारण हमारे देश की गिनती १७ बड़े जैवविविधता सम्पन्न देशांे में होती    है । देश में उपलब्ध ४७,००० पादप प्रजातियों में से ६०००-७००० औषधीय प्रजातियों का उपयोग चिकित्सा में हो रहा है । चिकित्सा क्षेत्रांे में अधिकतम वनोषधियांे का लाभ मिले ये आज के समय की आवश्यकता है ।
भारत के कई सुदूर गाँवों में आज भी स्वास्थ्य सेवा और सुविधाएं प्रदान करने की व्यवस्थाओं का अभाव है । स्वास्थ्य सेवाआंे के निजीकरण के इस दौर में सामान्य चिकित्सा सुविधाआंे के स्थान पर उच्च् तकनीक वाली पूंजी प्रधान चिकित्सा को प्राथमिकता दी जा रही है । इस कारण गाँव के गरीब लोग इस व्यवस्था से लगातार बाहर होते जा रहे हंै ।
भारत में लगभग ७० प्रतिशत दवाईयां औषधीय पौधांे से बनाई जाती है । वैश्विक बाजार की प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए औषधीय पौधांे में मौजूद क्षमता का इस्तेमाल करना होगा और इसकी वैज्ञानिक पद्धति को वैधता प्रदान करने के लिए समुचित पहल करनी होगी। आज भले ही हम आधुनिक चिकित्सा शैली के सहारे किसी भी बीमारी से तुरंत राहत पा लेते है, लेकिन इसके पार्श्व प्रभावों को देखते हुए दुनिया भर में लोग वैकल्पिक चिकित्सा को अपना रहे हंै । भारत में वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में आयुर्वेद सबसे प्रभावी पद्धति मानी जाती है । २१ वीं सदी में भी पारंपरिक इलाज के तौर पर पहचान बनाने में सफल रहे आयुर्वेद ने समाज में काफी विश्वसनीयता हासिल की है ।
देश में स्वास्थ्य पर हो रहे कुल व्यय का ८० प्रतिशत निजी क्षेत्र में जा रहा है, इसलिए हमारी स्वास्थ्य प्रणाली पर निजी क्षेत्र का भी प्रभाव रहता है । निजी क्षेत्र में अधिक मुनाफे की चाह ने ऐसी व्यवस्था के विकास पर जोर दिया है जिसमें इलाज के लिए अधिक लागत वाले उपकरण एवं तकनीकों की आवश्यकता होती है । ऐसे समय में विकल्प के रूप में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का नाम सामने आता है ।
देश में आयुर्वेद के विकास और भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए कुछ बिन्दुओं की चर्चा जरूरी     है -
  भारतीय औषधि प्रणाली के तहत सभी औषधीय पौधों के वानस्पतिक वर्गीकरण में वैज्ञानिक विवरण के साथ ही सामान्य नाम को भी शामिल करना होगा, जिससे पौधों की पहचान करने में ज्यादा आसानी होगी ।
  इलाज और दवाईयों में पूरे देश में समानता रखने के लिए मानकीकरण होना चाहिए । आयुर्वेद के क्षेत्र में दवाओं के निर्माण में गुणवत्ता नियंत्रण को लागू किया जाना चाहिए । इस सम्बन्ध में देश में हो रहे शोध कार्यों का दस्तावेजीकरण जरुरी है। आयुर्वेद विशेषज्ञों को ऐसी दवाआंे की खोज करनी होगी, जो रोगी को आपात स्थिति में तत्काल राहत प्रदान कर सके । 
  आयुर्वेद शिक्षा में सुधारों की आवश्यकता है। खासकर शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा । आयुर्वेद शिक्षा की स्तरीय पुस्तकें  हिंदी भाषा में कम उपलब्ध है यह भी एक समस्या है इसका हल निकालना होगा । 
  एक पैथी के चिकित्सक द्वारा दूसरी पैथी में इलाज करने पर रोक लगनी चाहिए जिससे आयुर्वेद क्षेत्र के चिकित्सक एलोपैथी में और एलोपैथी क्षेत्र के चिकित्सक आयुर्वेद पैथी से इलाज नहीं कर सके, इससे आयुर्वेद और एलोपैथी दोनों का सम्मान बढेग़ा ।   
आयुर्वेद को देश में ही नहीं अपितु विश्व में सम्मान मिल रहा    है । लेकिन आयुर्वेद क्षेत्र में कार्यरत चिकित्सक अपने आप को वैद्य कहलाने में हीनता महसूस करते हंै और स्वयं को डाक्टर लिखते हंै, जबकि आयुर्वेद में पुराने समय से वैद्य, वैद्यराज और राज वैद्य जैसे गरिमामय संबोधन प्रचलन में रहे   हैं । 
आज आयुर्वेद के गौरवशाली अतीत को वर्तमान में लाना है तो समाज में ऐसा वातावरण बनाना होगा जिसमें आयुर्वेद के जानकार अपने आप को वैद्य कहलाने में गौरव का अनुभव कर सके । ऐसे अनेक स्तरों पर होने वाले प्रयासों द्वारा समाज और शासन की संयुक्त शक्ति से आयुर्वेद का लाभ जन सामान्य तक पहुंचा कर देश में स्वास्थ्य क्रांति लाई जा सकती है ।
दृष्टिकोण
वन, हमारे अस्तित्व के आधार 
चंडीप्रसाद भट्ट

यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है जब पर्वतीय और आदिवासी क्षेत्रों तथा जनजातीय समाजों में प्राकृतिक  संसाधनों के युक्तिकरण उपयोग को अपने जीवन का सबसे बड़ा और मजबूत आधार मानने की समृद्ध परम्परा थी । 
भारत के पर्वतीय और आदिवासी क्षेत्रों तथा जनजातीय समाजों की आबादी अधिकाशत: उन राज्यों और क्षेत्रों में पड़ती है जो वनों और खनिजो के कारण देश की समृद्धि का बहुत बड़ा आधार है । लेकिन इन संसाधनों के उपयोग में ग्रामीण समाज बहुत सचेत और संवेदनशील रहते थे । इस बात को देश के विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है । 
उत्तराखंड में जंगल की सुरक्षा और रख-रखाव व अतिक्रमण करने वालों को दंडित तथा उसके उत्पादों के वितरण करने के अधिकार से सम्पन्न गांव की अपनी पंचायत जैसी व्यवस्था थी । मेघालय एवं मणिपुर के जंगल, आंध्रप्रदेश के जंगल का संरक्षण स्थानीय लोग करते हैं । 
इसी प्रकार महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले में वन संरक्षण- संवर्धन एवं उपयोग का आदर्श देखने को मिलता है । वनों के उपर लोगों के परंपरागत अधिकार एवं कर्तव्य के साथ जो समृद्ध परम्पराएं एवं व्यवहार है, उसके पूर्व की जो जानकारी मिली है उसको समझना भी आवश्यक है । अंग्रेजों के आने से पूर्व हमारे देश में छोटे-बड़े रजवाड़े थे । उस काल में जंगल मुख्य रूप से तीन प्रकार के थे । पहले रजवाड़ों एवं जमींदारों के अधीन जंगल थे तो आम लोगों के लिए वर्जित थे । ये मुख्यत: राजाआें के शिकारगाह होते थे । दूसरे प्रकार के गांव के अपने कास्तकारी के जंगल थे जो अलग-अलग गांवों की सीमा के अंदर उनकी आवश्यकता की पूर्ति के साथ ही वनोपज पर आधारित ग्रामोघोग की कच्ची सामग्री उपलब्ध कराते थे । तीसरे देववन थे । देववन वे थे जिन्हें लोगों ने देवताआें को अर्पित कर दिया था । ग्रामवासी इन वनों में किसी भी प्रकार की उपज नहीं लेते थे । 
अंग्रेजों के आधिपत्य में सन् १८५५ से वनों को नियंत्रण में लेने की कार्रवाई हुई । सन् १८६५ में पहला वन कानून बना, जो अलग-अलग चरणों में कठोर होता गया । इसके कारण जंगलों पर अवलंबित लोगों को वनों से अलग-थलग कर देने का सिलसिला शुरू हो गया । अंग्रेजों ने भारत के जैविक उत्पादों के दोहन के साथ ही वनों को उजाड़ने का कार्य भी शुरू किया । उत्तर-पूर्वी भारत मंे बिना मुआवजा दिए आदिवासियों को बेदखल किया   गया । उनकी जमीनों पर चाय बागान बनाए गए । इन बागानों में काम करने वाले श्रमिकों को जो मजदूरी दी जाती थी, उसको देखते हुए उन श्रमिकों को गुलाम कहना सही   होगा । आजादी के बाद बड़े बांध, विद्युत परियोजनाआें, कारखानों और खदानों के लिए मोटर सड़कों के जाल से एक ओर जमीन तो दूसरी ओर जंगलों का बेतहाशा विनाश हुआ । 
इसके साथ ही इन पर अवलंबित लोगों को उजाड़ने का काम भी जारी रहा, जो कि वर्तमान मंे भी जारी है ।  हमारे देश में कागज उद्योग ने देश के जंगलों को निर्ममता के साथ उजाड़ा है । इसी प्रकार हिमालयी राज्यों में जैसे-जैसे अंतवर्ती क्षेत्रों में मोटर सड़कों का जाल बिछा, उसके आस-पास के जंगलों का भी बेतहाशा विनाश हुआ । देखते ही देखते कई वन क्षेत्र वीरान हो गए । इस कारण एक ओर भू-क्षरण, भूस्खलन से नदियां बौखलाई, लोगों की तबाही हुई, वहीं दूसरी ओर लोगों की रोजाना की जरूरतों के लिए जो वन उपज प्राप्त् होती थी, उस पर नियंत्रण बढ़ता गया ।
इसी के कारण सन १९७० के बाद मध्य हिमालय की अलकनंदा घाटी में लोगों के जंगलात द्वारा परंपरागत अधिकारों पर अतिक्रमण कर आपत्ति उठाते हुए चिपको आंदोलन शुरू कर उत्तरप्रदेश सरकार  की वन नीति को कटघरे में खड़ा किया था । एक बात यह भी समझनी चाहिए कि वनस्पति उपज में काष्ठ के अलावा वनौषधि, बांस, लीसा आदि बड़े कारखानों का सस्ते भाव में दिया गया और उनको दोहन की खुली छूट दी गई । कह सकते है कि प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी का मुख्य आधार अमीर है । 
अमीरों के समूहों ने अपने कारखानों की भूख मिटाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का जितना ज्यादा उपयोग किया, उतना ही ज्यादा दुष्प्रभाव उन पर परम्परा से आश्रित लोगों पर बढ़ता चला गया । इस प्रकार दूसरी बात तो समझ में आई, वह यह कि प्राकृतिक संसाधनों के विनाश का सबसे बुरा असर गरीब लोगों पर पड़ रहा है । 
मुझे पिछले वर्षो में देश में सामाजिक कार्यो में रत संस्थाआें और मित्रों के साथ गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, सतलज, गोदावरी, इन्द्रावती, तुंगभद्रा-सिलेरू, पश्चिमी घाट-पूर्वी घाट, पुरलियां (अयोध्या पहाड़) की लगातार यात्राआें का अनुभव है कि अपने देश में गरीबी दूर करना इसलिए असंभव लग रहा है क्योंकि अपने पर्यावरण एवं वनों की ठीक से व्यवस्था नहीं कर पा रहे है । 
ज्ञान-विज्ञान
दिल की धड़कन आपकी पहचान है 
आजकल बायोमेट्रिक पहचान की बड़ी धूम है । उंगलियों के निशानों से आगे बढ़कर हम आंखों की पुतलियों के पैटर्न से इन्सान की पहचान करने लगे है और अब एक सम्मेलन में बताया कि प्रत्येक व्यक्ति के दिल की धड़कन भी अनूठी होती है और इसका उपयोग व्यक्ति की पहचान के लिए किया जा सकता है । 
   शोधकर्ताआें ने एक यंत्र बनाया है जिसमें कम शक्ति के डॉपलर राडार का इस्तेमाल किया गया है । यह यंत्र व्यक्ति के दिल की ज्योमिति का विश्लेषण करता है । इसके अन्तर्गत यह देखा जाता है कि दिल की आकृति कैसी है और वह फैलता व सिकुड़ता किस तरह है । इन सारी चीजों को मिलाकर जो तस्वीर उभरती है वह हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है । 
इन तकनीक का विकास करने वाले बफेली विश्वविघालय के वेनयाआें जू का कहना है कि यह तकनीक काफी भरोसेमंद है क्योंकि इसमें दो तरह के मापदंडों का इस्तेमाल किया गया है । पहला तो एक स्थिर माप है यानी दिल का आकार और दूसरा एक गतिशील माप  है । गतिशील माप के तहत दिल के धड़कने के पैटर्न का विश्लेषण किया जाता है । जू का कहना है कि यदि इस मशीन के सामने कोई दूसरा व्यक्ति बैठ जाए तो मशीन पहचान लेगी कि जो व्यक्ति बैठा है उसका दिल भिन्न है । 
चेन सॉन्ग और उनके साथियों का कहना है कि उन्होंने इस विधि की जांच १०० लोगों पर की है और इसने ९८ प्रतिशत मामलों में सही परिणाम दिए है । यह मशीन अपने काम में कुछ विकिरण का उपयोग करती है । जू का कहना है कि इस विकिरण की शक्ति स्मार्टफोन से निकलने वाले विकिरण से बहुत कम होती है और यह कदापि हानिकारक नहीं है । अभी शोधकर्ताआें का विचार है कि इसे स्मार्टफोन का हिस्सा बना दिया जाए, ताकि वह आपको पहचान   सके । 
चमगादडों का दृष्टिभ्रम
चमगादड़ देखने के लिए प्रकाश का कम, आवाजों का ज्यादा उपयोग करते है । उनमे एक यंत्र होता है जो तीखी आवाज पैदा करता है । जब यह आवाज किसी चीज से टकराकर लौटती है तो चमगादड को पता चल जाता है कि रास्ते में कोई वस्तु है । वापिस लौटने वाली आवाज का विश्लेषण करके वे यह समझ पाते हैं कि वस्तु कितनी दूरी पर है पर उसका डील-डील कैसा, वह कठोर है या मुलायम है । इसी प्रतिध्वनि-दृष्टि के चलते वे रात में भी हलचल कर सकते है । किन्तु कभी-कभी यह प्रतिध्वनि दृष्टि धोखा भी दे देती है और चमगादड़ किसी दीवार खिड़की वगैरह से जा टकराता है । 
ध्वनि पर भी परावर्तन के नियम लागू होते है । इसका मतलब है कि आवाज जिस कोण पर किसी सतह से टकराएगी उतने ही कोण से वह वापिस लौटेगी किन्तु दूसरी दिशा में । अर्थात यदि हम उस सतह पर एक लंबवत रेखा खींचे तो प्रतिध्वनि इस लंब के दूसरी ओर उतना ही कोण बनाएगी जितना आने वाली ध्वनी ने बनाया था । इसका मतलब तो यह हुआ कि यदि चमगादड़ की आवाज किसी सतह से तिरछी टकराएगी तो वापिस उस तक नहीं पहुंचेगी  । किन्तु  अधिकांश सतहें एकदम चिकनी नहीं होती । इसलिए परावर्तन के बाद ध्वनि एक ही दिशा में नहीं लौटती बल्कि फैल जाती है । इसमें से कुछ ध्वनि तो वापिस चमगादड़ तक पहुंच ही जाती है ं 
दिक्कत तब होती है जब सतह एकदम चिकनी हो । ऐसी चिकनी सतह से टकराने के बाद ध्वनि फैलती नहीं बल्कि एक ही दिशा में जाती   है । परावर्तन के नियम के अनुसार यह प्रतिध्वनि चमगादड की ओर नहीं बल्कि उससे दूर जाएगी । इसीलिए जब ध्वनि सामने एकदम चिकनी सतह (जैसे कांच) से टकराती है तो उसकी प्रतिध्वनि लौटकर चमगादड़ तक नहीं   पहुचती । उसे लगता है कि सामने मैदान साफ है और वह उड़ता चला जाता है, चिकनी सतह से टकराने के लिए । उसे तो सतह के बहुत पास पहुंचने के बाद ही पता चलता है कि सामने रूकावट है । 
इस समस्या को समझने के लिए स्टीफन ग्रीफ ने कई वर्षो पहले चिकनी आड़ी सतहों पर चमगादों के साथ कुछ प्रयोग किए थे । प्रयोग के दौरान जमीन पर चिकनी तश्तरियां रखी गई थी । देखा गया कि चमगादड़ इनमें से कुछ पीने की कोशिश कर रहे थे । आम तौर पर प्रकृति में ऐसी चिकनी आड़ी सतहें झीलों और तालाबों की होती है, इसलिए चमगादड़ ऐसी सतहों को पानी की उपस्थिति का सुराग मानते है । 
अब ग्रीफ और उनके साथियों ने इसी प्रकार के प्रयोग खड़ी चिकनी सतहों पर किए तो पाया कि चमगादड़ उड़ते उड़ते उनसे टकरा जाते है । ग्रीफ का ख्याल है कि प्रकृति में चमगादड़ों को ऐसी सतहों का अनुभव नहीं है । साइन्स में प्रकाशित शोध पत्र में ग्रीफ ने कहा है कि ऐसी खड़ी चिकनी सतहें उनके परिवेश में मानव निर्मित पर्यावरण के कारण ही आई है । उन्हें इनके खतरे से बचाने के लिए कुछ उपाय करना जरूरी है । 

गोरेपन की क्रीम में एक्टिवेटेड चारकोल हानिकारक
आजकल आपने टीवी पर देखा होगा कि गोरा बनाने वाली कुछ क्रीम्स के विज्ञापनों में जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है कि उनमें एक्टिवेटेड चारकोल है जो सारी गंदगी वगैरह को सोखकर आपका रंग साफ कर सकता है । 
इस संदर्भ में हावड़ा (पश्चिम बंगाल) स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के शोधकर्ताआेंद्वारा किया गया एक अध्ययन आंखे खोल देने वाला है । अध्ययन के मुताबिक एक्टिवेटेड माइक्रोकार्बन युक्त फेसक्रीम जिसका कई विज्ञापन सौंदर्य सामग्री की तरह प्रचार कर रहे हैं, लंबे समय तक उपयोग के बाद त्वचा को नुकसान पहुंचा सकता है । इसके असर से कैंसर भी हो सकता है । 
   एक्टिवेटेड कार्बन पावडर का लम्बे समय से उद्योग में उपयोग होता रहा है । इसका उपयोग पानी को साफ करने जैसे कामों में किया जाता है । पर गोरा करने वाली फेसक्रीम में इसका इस्तेमाल हाल ही में शुरू हुआ है । शोधकर्ताआें ने बताया कि ३ अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के लोकप्रिय ब्रांड के माइक्रोकार्बनयुक्त क्रीम के नमूनों की सूक्ष्मदर्शीय और वर्णक्रम विश्लेषण जांच में रिडयूस्ट ग्रेफीन कण पाए गए है । ये कण वास्तव में कार्बन के अत्यन्त महीन (नैनो आकार के) कण होते है । 
रिपोर्ट के मुताबिक रिडयूस्ट ग्रेफीन सामान्य तौर पर निष्क्रिय रहते है । पर हवा में उपस्थित ऑक्सीजन के संपर्क में आकर क्रियाशील हो उठते हैं । इसके परिणामस्वरूप क्रियाशील ऑक्सीजन मूलक (रिएक्टिव ऑक्सीजन स्पीशीज) बनते है । क्रियाशील ऑक्सीजन मूलक त्वचा के लिए विषैले होते है । 
इनके विषैले प्रभाव के अध्ययन के लिए एस. मैती व उनके साथी वैज्ञानिकों ने वयस्क मानव त्वचा कोशिकाआें को नैनो आकार के ग्रेफीन कणोंके विलयन के साथ २०० वॉट की रोशनी में १२ घंटे के लिए रखकर जांच की । 
विशेष रिपोर्ट 
विलुिप्त् की ओर कदम बढ़ाता खरमोर 
कालुराम शर्मा/जितेश भोल्के 

पिछले दिनोंहमें खरमोर पक्षी की दिलचस्प उछाल देखने का अवसर झाबुआ जिले के रायपुरिया गांव से सटे घास के मैदान में  मिला । 
इसे अस्सी के दशक में सालिम अली की पहल पर रतलाम जिले के सैलाना में खरमोर अभयारण घोषित किया जा चुका    है । मानसून के साथ घास ऊंची होने लगती है और देसी मुर्गे के आकार के इन पक्षियों का आना प्रारंभ होता है । मानसून की विदाई के साथ ही ये यहां से विदा ले लेते है । बताया जाता ह कि खरमोर की तादाद पिछले दशकों में बेहद घटी है 
सन १९८३ में धार जिले के सरदारपुर में वन विभाग की ओर से ३४८.१२ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को खरमोर संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है । इसी दौरान रतलाम जिले के सैलाना में३२० एकड़ में फैली घांसबीड को खरमोर अभयारण्य घोषित किया गया । सैलाना का यह क्षेत्र पूर्व में सैलाना रियासत का शिकारगाह हुआ करता था । जब यह नया-नया अभयारण्य बना था तब बीएनएचएस के तत्वावधान में रवि शंकरन ने यहां आकर खरमोर के व्यवहार का अध्ययन किया था । उन्होंने खरमोर को बचाने के लिए जो उपाय सुझाए उनमें शामिल थे कि खरमोर के एकांतवास को बरकरार रखा जाए, खरमोर के प्राकृतवास का संरक्षण किया जाए । 
खरमोर भारत के मैदानी भागों में बहुतायत से पाया जाता था किन्तु आजादी के बाद इसकी संख्या में काफी कमी आई है । खरमोर एक स्थानीय प्रवासी पक्षी है जो बरसात के दिनों में ऐसे स्थानों पर पहुंच जाता है जहं ऊंची-ऊंची घास के मैदान हो । दरअसल, खरमोर की प्रजनन स्थली होते है ये घास के मैदान । 
खरमोर (लेसर फ्लोरिकन) ओटीडीडी परिवार का सबसे छोटा सदस्य है । इस परिवार में ग्रेट इण्डियन बस्टर्ड, बंगाल फ्लोरिकन, हौबारा वगैरह आते है । हौबारा तो बचा नहीं और बाकी के तीनों भी विलुिप्त् की कगार पर है । इस परिवार के सारे सदस्य साधारणत: उड़ते नहीं है । जब प्रवास करना होता है या भारी खतरा होता है तभी ऊंचाई पर लंबी दूरी के लिए उड़ते है । 
खरमोर को भारतीय वन्यजीव संरक्षण कानून १९७२ के तहत अनुसूची - १ में रखा गया    है । इसे आईयूसीएन रेड लिस्ट २०११ के तहत विलुप्त्शील प्रजाति की बिरादरी में रखा गया है । पर्यावरण एवं वन मंत्रालय २००९ से इसी विशेष प्राथमिक प्रजाति मानता है । खरमोर की घटती संख्या को देखते हुए पर्यावरण एवं वन विभाग ने बीएनएचएस व वन्य जीव संस्थान के सहयोग से दिशा निर्देश तैयार किए  है । 
प्रजनन काल में खरमोर की उपस्थिति का पता उनकी प्रणय निवेदन की प्रक्रियासे चलता है । इस दौरान नर खरमोर आकर्षक रूप धारण कर लेता है, उसकी गर्दन और छाती के पंख सफेद परों में ढंक जाते है । माथे पर एक कलंगी होती है जो हवा में लहराती है । मटमेले रंग की चितकबरी मादा साल भर एक सरीखी रहती है । प्रजनन काल में नर कॉफी सक्रिय हो जाता है और मादा को लुभाने के लिए आसमान में ऊंची-ऊंची उछाल मारता है । सुन्दर सुराहीदार गर्दन और लंबी टांगों वाले खरमोर की उछाल देखते ही बनती  है । घास जितनी ऊंची होती है उससे ऊंची छलांग खरमोर लगाता है । कमजोर मानसून में घास अधिक ऊंची न होने के चलते खरमोर की छलांग भी प्रभावित होती है । इन हालातों में खरमोर यहां पहुंचते भी नहींे है । 
खरमोर काफी शर्मिला और एकांतप्रिय पक्षी है । इसे मानवीय हस्तक्षेप बिलकुल पंसद नहीं है । जब हम मोरझरिया में खरमोर का अवलोकन कर रहे थे तब जरा सी भी इंसानी आहट को वे भांप जाते और उछलना बंद कर घास में छिपने की कोशिश करते थे । 
उल्लेख मिलता है कि खरमोर भारत में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण तक पाए जाते थे । पहले खरमोर का प्रमुख प्रजनन स्थान नासिक, अहमदनगर, शोलापुर, पूर्वी हरियाणा और काठियावाड़ में था । लेकिन वर्तमान में खरमोर के प्रजनन स्थल गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिमी मध्यप्रदेश हैं । शंकरन द्वारा १९९९ तथा भारद्वाज और उनके साथियों द्वारा अगस्त २०१० में गुजरात, राजस्थान व मध्यप्रदेश में एक सर्वे किया गया था । कुल ९१ घास के मैदान का सर्वे किया गया  । वर्ष २०१० के सर्वे में २४ मैदानों में खरमोर की उपस्थिति का पता    लगा । यहां ८४ खरमोर देखे गए जिनमें से ८३ नर और एक मादा    थी । २०१० में खरमोर की तादाद १९९९ के मुकाबले ६५ फीसदी कम थी । 
महाराष्ट्र के विदर्भ में यवतमाल जिले में १९८२ में तथा २०१० में अकोला जिले में खरमोर के मिलने की पुष्टि हुई है । इसी प्रकार से २०-२५ खरमोरों की पुष्टि वाशिम जिले में हुई है । गुजरात में दाहोद, भावनगर, अमरेली, सुरेन्द्र नगर और कच्छ जिलों में खरमोर पाए जाने की पृष्टि हुई है । राजस्थान में अजमेर, भीलवाड़ा, टोंक, पाली और प्रतापगढ़ जिलों में खरमोर देखे गए है । आंध्रप्रदेश में खरमोर रोलपाडू वन्यजीव अभयारण्य और बंगालपन्नी में देखे गए है । 
उल्लेखनीय है कि सरदारपुर खरमोर अभयारण्य में इस मानसून में एक भी खरमोर ने दस्तक नहीं  दी । सैलाना अभयारण्य में लगभग एक दर्जन खरमोर दिखाई दिए है जो पिछले सालों की तुलना में कम है । झाबुआ जिले के रायपुरिया से सटे मोरझरिया में इस साल तीन खरमोर देखे गए है । पिछले सालों का आकांड़ा देखे तो सैलाना में २००५ में २६, २००६ में २८, २००७ में २७, २००८ में ३०, २००९ में ३२, २०१० में २३ और २०११ में १८ और २०१५ में १५ खरमोर दिखाई दिए थे । 
हाल ही में बीएनएचएस के छह सदस्यीय दल ने सरदारपुर, झाबुआ जिले के पेटलावद व सैलाना के घास के मैदानों व गांवों का अध्ययन प्रारंभ किया है जो यह समझने की कोशिश करेगा कि आखिर खरमोर की संख्या घटने के कारण क्या है । जिला वन अधिकारी राजेश खरे के मुताबिक मोरझरिया घास के मैदान की तार फैसिंग की जा चुकी है । वहां पर नाकेदार और चौकीदारों की नियुक्ति भी की गई है जो खरमोर की गतिविधियों पर नजर रखते है । 
हाल ही में हम लेखकद्वय ने मोरझरिया गांव से सटे घास के मैदान का दौरा किया जहां तीन नर खरमोर दिखाई दिए । 
मोरझरिया के घांस के मैदान मेंचौकीदारी कर रहे आदिवासी बीजल बताते है कि यहां पर पिछले साल भी खरमोर देखे गए हैं । वे उसी वास्तविक स्थिति भांपने का हुनर रखते हैं । उन्होंने हमें हाथ के इशारे से बताया कि किस जगह पर खरमोर बैठे हैं । और कुछ ही देर में उस स्थान से खरमोर ने उछाल   भरी । बीजल ने बताया कि खरमोर की मौजूदगी का पता उसके दुश्मन से भी लगता है । शिकरा नामक पक्षी खरमोर का दुश्मन है । खरमोर जहां होता है उसके आसपास शिकरा तेजी से मंडराता है और उसे परेशान करने की कोशिश करता है । उन्होंने बताया कि अभी जहां शिकरा मंडरा रहा है, खरमोर वहीं कहीं घास में दुबका हुआ होगा  ।
खरमोर को बचाने के लिए वन विभाग की ओर से जो प्रयास किए जो रहे है उनमें से एक है इनाम योजना । इनाम योजना के तहत अगर किसी को खरमोर दिखता है तो उसकी खबर देने वाले को एक हजार रूपये और अगर खरमोर किसी के खेत में अंडा देता है और उसकी खबर वन विभाग का दी जाती है तो खेत मालिक को पांच हजार रूपये देने की घोषणा की गई है । जिन किसानों के खेतों में खरमोर अंडे देते है उस फसल की भरपाई भी वन विभाग की ओर से की जाती रही    है । दरअसल, खरमोर घास के मैदानों से सटे हुए सोयाबीन, मूंग-उड़द, मूंगफली इत्यादि के खेतों में चले जाते है और सुरक्षित स्थान पाकर वहां अंडे दे देते है । 
खरमोर को संरक्षित करने का मामला प्राकृतवास की सुरक्षा से जुड़ा है । सैलाना में खरमोर अभयारण्य से लगे हुए इलाके में पवन चक्कियां लगाई गई है । आशंका जताई जा रही है कि इन पवन चक्कियों की आवाज से खरमोर की जीवनचर्या प्रभावित होती है । ये मसले है जिन पर अध्ययन करने की जरूरत है । 
खरमोर झाड़ियों और झुरमुटदार सूखे घास के मैदान में बहुतायत से और कभी-कभार बाजरेे, कपास इत्यादि की फसल वाले खेतों में देखे गए है । ऊंचे और घने पेड़ों वाले इलाकों या पहाड़ी, दलदल, घने जंगल, रेगिस्तान और बंजर जमीन पर नहीं पाए जाते । खरमोर उस घास के मैदान मे रहना पसंद करते है जहां पशुआें की दखलंदाजी न हो और घास क ी ऊंचाई एक मीटर से अधिक न हो । उत्तर पश्चिम भारत में घास के मैदानो में जो घास पाई जाती वह छोटे-छोटे चकत्तों में दूर-दूर उगती  है । खरमोर इसी घास में अंडे देता है । 
शंकरन का यह अवलोकन है कि जिन सालों में बरसात अधिक होती है और घास के मैदान ऊंची घास से ढंक जाते है तो खरमोर छोटे घास वाली वनस्पति के खेत में चले जाते है और जब खरमोर प्रजनन न कर रहे हो, तो ये छोटे पेड़ों और पशुआें के चरने वाले मैदान व कंटीली बेर की झाड़ियों में विचरण करते रहते है । 
खरमोर के प्रजनन व्यवहार का सबसे दिलकश नर की उछाल ही उसके लिए खतरा साबित हुई है । शिकारी इस ताक में रहते है कि कब खरमोर उछले और उसे बंदूक से मार गिराया जाए । विवरण मिलते है कि खरमोर को उस समय मार गिराया जाता था जब प्रणय निवेदन के लिए या दूसरे नर खरमोर को अपनी मौजूदगी का पता देने के लिए वे घास में उछलते थे । उछलते वक्त नर खरमोर मेंढक के टर्राने सी अवाजा निकालता है जो शांत घांस के इलाके में ३०० से ४०० मीटर की दूरी तक सुनी जा सकती है । यह देखा गया है कि एक दिन भर में नर ६०० बार तक उछाल भरता है । 
खरमोर एक स्थानीय प्रवासी है । हालांकि इसके प्रवास का रहस्य बेहतरी से अभी तक नहीं समझा जा सका है । अप्रजनन काल में ये रहस्यमय ढंग से अपना रंग बदल लेते है  । ये मानसून के दिनों में देश के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में घास के मैदानों में प्रजनन करते हैं और फिर दक्षिण-पूर्वी भागों की ओर चले जाते है । अपने अप्रजनन काल में ये क्या करते हैं, कैसे रहते हैं इसके बारे में बहुत कुछ जानना-समझना अभी भी शेष है । 
पिछले कुछ वर्षो में खरमोर की संख्या में काफी कमी आई है । १८७० में इनकी वैश्विक संख्या लगभग ४३७४ थी जो १९८९ में ६० फीसदी घटकर लगभग १६७२ रह गई । हालांकि एक सर्वे १९९४ में किया गया था जिससे पता चलता है कि अच्छी बरसात के चलते इनकी संख्या में फिर से बढ़ोत्तरी हुई जो बढ़कर २२०६ हो गई । इसी प्रकार से खरमोर की संख्या की बढ़ोत्तरी के पैटर्न को देखते हुए १९९९ में खरमोर की संख्या ३५३० तक पहुंचने की उम्मीद जताई जा रही   थी मगर ऐसा हो न सका । वर्तमान में विश्व स्तर पर खरमोर शायद २५०० के अंदर ही सिमटकर रह गए हैं । खरमोर उन ५० पक्षियों की श्रेणी में शुमार है जो खतराग्रस्त है । जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून का पैटर्न प्रभावित हुआ है जिसका असर खरमोर के प्रजनन पर हो रहा है । 
हमारे यहां घास मैदानों को जंगल जैसी प्रतिष्ठा हासिल नहीं है और इन्हें अनुपजाऊ जमीन के रूप में ही देखा जाता है । इस वजह से घास के मैदानों पर हर तरह के विकास की योजनाआंे को मढ़ दिया जाता है । मसलन अगर वृक्षारोपण करना हो तो इन्हीं घास के मैदानों को क्षतिपूर्ति के रूप में चुना जाता   है । जब विकास के नाम पर जंगल कटते हैं तो इन्हीं घास के मैदानों को बंजर मानकर इन पर वृक्षारोपण करके खरमोर के कुदरती आवासों को नेस्तनाबूत किया जाता रहा है । 
इनके अलावा खरमोर का शिकार, फसलों में कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल, घास के मैदानों में पशु चराई के बढ़ते दबाव, घास के मैदानों पर अतिक्रमण आदि ऐसे कारण है जिनके चलते घास के मैदानों का बुरा हाल हुआ है । इन कारणों ने खरमोर के प्रजनन आवास को बर्बाद हो रहे है, जो खरमोर के भविष्य का धूंधला कर रहे है । 
जन जीवन 
बढ़ते वायु प्रदूषण से घटता जीवनकाल 
अश्विनी शर्मा 

हमारे देश में अगर कोई किसी की हत्या में लिप्त् पाया जाये तो देर सवेर ऐसे लोगों को सजा मिल जाती है । लेकिन लोगों की प्रदूषण से होने वाली मौतों के खिलाफ कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं होता है, क्योंकि हमारे देश के तंत्र में इसे अपराध माना ही नहीं जाता है । इसी कारण प्रदूषण की इतनी समस्याएं उत्पन्न हुई है । 
जीवित रहने के लिए सांस लेना जरूरी है लेकिन देश के लोगों के लिए सांस लेना मुश्किल हो गया है, क्योंकि देश के तमाम शहरों और कस्बोंकी हालत ऐसी ही हो गई है तथा इसमें सबसे बुरी हालत राजधानी दिल्ली की है, दिल्ली के लोगों की उम्र प्रदूषण के कारण ६ वर्ष तक कम हो रही है इसीलिए दिल्ली की हवा को हत्यारी हवा भी कह सकते है । कुछ ऐसे ही हालात देश के दूसरे हिस्सों के भी है और यहां के लोगों की उम्र भी वायु प्रदूषण की वजह से ३.५ से ६ वर्ष तक कम हो रही है । 
यह हालात बेचैन करने वाले हैं । भारत दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में से एक है और वायु प्रदूषण देश के लोगों की सेहत के लिए सबसे बड़ा खतरा है । लेकिन हमारे देश के लोग इस खतरे को लेकर कितने संवेदनशील हैंयह आंकड़े बताते है । यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के द एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट द्वारा एयर  क्वालिटी इंडेक्स के आधार पर तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत डब्ल्यूएचओ के मानकों के अनुसार वायु प्रदूषण घटाने पर कार्य करें तो लोगों का जीवन औसतन ४ वर्ष बढ़ सकता है । 
इस रिपोर्ट में देश के ५० सबसे प्रदूषित जिलों के आंकड़े दिए गए है, इनमें दिल्ली के अतिरिक्त आगरा, बरेली, लखनऊ कानपुर, पटना तथा देश के अन्य बड़े शहर शामिल है । देश के राष्ट्रीय मानकों का पालन करने पर इन जिलों में रहने वाले लोगों की उम्र ३.५ वर्ष से ६ वर्ष तक बढ़ सकती है । एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स की मदद से यह ज्ञात किया जाता है कि वायु प्रदूषण कम हो जाए तो औसत के मुकाबले लोगों की उम्र कितना बढ़ सकती है । डब्ल्यूएचओ के अनुसार प्रदूषण की मात्रा बताने वाले पीएम २.५ के स्तर को ७० से २० माइक्रोग्राम पर क्यूबिक मीटर तक कम कर दिया जाए तो वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों में लगभग १५ प्रतिशत तक की कमी आ सकती    है । 
देश के राष्ट्रीय मानकों के अनुसार हमारे देश में पीएम २.५ का स्तर ४० माइक्रोग्राम पर क्यूबिक मीटर होना चाहिए और पीएम १० के लिए यह स्तर ६० माइक्रोग्राम पर क्यूबिक मीटर होना चाहिए, लेकिन भारत में पीएम २.५ के मानक डब्ल्यूएचओ के मानकों से ४ गुना ज्यादा है । जबकि पीएम १० के मानक तीन गुना ज्यादा है । हवा में मौजूद ये पीएम कण सांस द्वारा शरीर और फेफड़ों में पहुंच जाते हैं और अपने साथ जहरीले केमिकल्स को शरीर में पहुंचा देते हैं जिससे फेफड़े और ह्दय को क्षति पहुंचती है ।
सर्दियों के मौसम में तापमान में कमी आने के साथ ही इन दोनों कणों का स्तर वायुमण्डल में बढ़ता जाता है । यानी नवम्बर से फरवरी तक हालत बहुत गंभीर और खतरनाक हो जाते है । एक अमेरिकन इंस्टि्यूट की ग्लोबल एक्सपोजर टू एयर पोल्यूशन एंड इटस डिजीज बर्डन रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया की ९२ फीसदी आबादी उन इलाकों में रहती है, जहां की हवा स्वच्छ नहीं मानी जाती है । 
कविता
जो बीत गई सो बात गई 
डॉ. हरिवंश राय बच्च्न 

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे 

जो छूट गए फिर कहां मिले 
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है 
जो बीत गई सो बात गई 
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया 

मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियां
मुरझाई कितनी वल्लरियां
जो मुरझाई फिर कहां खिली 
पर बोली सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है 
जो बीत गई सो बात गई । 

जीवन में मधु का का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं 
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते है कब उठते हैं 
पर बोली टूटे प्यालों पर 
कब मंदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई ..