विशेष रिपोर्ट
विलुिप्त् की ओर कदम बढ़ाता खरमोर
कालुराम शर्मा/जितेश भोल्के
पिछले दिनोंहमें खरमोर पक्षी की दिलचस्प उछाल देखने का अवसर झाबुआ जिले के रायपुरिया गांव से सटे घास के मैदान में मिला ।
इसे अस्सी के दशक में सालिम अली की पहल पर रतलाम जिले के सैलाना में खरमोर अभयारण घोषित किया जा चुका है । मानसून के साथ घास ऊंची होने लगती है और देसी मुर्गे के आकार के इन पक्षियों का आना प्रारंभ होता है । मानसून की विदाई के साथ ही ये यहां से विदा ले लेते है । बताया जाता ह कि खरमोर की तादाद पिछले दशकों में बेहद घटी है
सन १९८३ में धार जिले के सरदारपुर में वन विभाग की ओर से ३४८.१२ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को खरमोर संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है । इसी दौरान रतलाम जिले के सैलाना में३२० एकड़ में फैली घांसबीड को खरमोर अभयारण्य घोषित किया गया । सैलाना का यह क्षेत्र पूर्व में सैलाना रियासत का शिकारगाह हुआ करता था । जब यह नया-नया अभयारण्य बना था तब बीएनएचएस के तत्वावधान में रवि शंकरन ने यहां आकर खरमोर के व्यवहार का अध्ययन किया था । उन्होंने खरमोर को बचाने के लिए जो उपाय सुझाए उनमें शामिल थे कि खरमोर के एकांतवास को बरकरार रखा जाए, खरमोर के प्राकृतवास का संरक्षण किया जाए ।
खरमोर भारत के मैदानी भागों में बहुतायत से पाया जाता था किन्तु आजादी के बाद इसकी संख्या में काफी कमी आई है । खरमोर एक स्थानीय प्रवासी पक्षी है जो बरसात के दिनों में ऐसे स्थानों पर पहुंच जाता है जहं ऊंची-ऊंची घास के मैदान हो । दरअसल, खरमोर की प्रजनन स्थली होते है ये घास के मैदान ।
खरमोर (लेसर फ्लोरिकन) ओटीडीडी परिवार का सबसे छोटा सदस्य है । इस परिवार में ग्रेट इण्डियन बस्टर्ड, बंगाल फ्लोरिकन, हौबारा वगैरह आते है । हौबारा तो बचा नहीं और बाकी के तीनों भी विलुिप्त् की कगार पर है । इस परिवार के सारे सदस्य साधारणत: उड़ते नहीं है । जब प्रवास करना होता है या भारी खतरा होता है तभी ऊंचाई पर लंबी दूरी के लिए उड़ते है ।
खरमोर को भारतीय वन्यजीव संरक्षण कानून १९७२ के तहत अनुसूची - १ में रखा गया है । इसे आईयूसीएन रेड लिस्ट २०११ के तहत विलुप्त्शील प्रजाति की बिरादरी में रखा गया है । पर्यावरण एवं वन मंत्रालय २००९ से इसी विशेष प्राथमिक प्रजाति मानता है । खरमोर की घटती संख्या को देखते हुए पर्यावरण एवं वन विभाग ने बीएनएचएस व वन्य जीव संस्थान के सहयोग से दिशा निर्देश तैयार किए है ।
प्रजनन काल में खरमोर की उपस्थिति का पता उनकी प्रणय निवेदन की प्रक्रियासे चलता है । इस दौरान नर खरमोर आकर्षक रूप धारण कर लेता है, उसकी गर्दन और छाती के पंख सफेद परों में ढंक जाते है । माथे पर एक कलंगी होती है जो हवा में लहराती है । मटमेले रंग की चितकबरी मादा साल भर एक सरीखी रहती है । प्रजनन काल में नर कॉफी सक्रिय हो जाता है और मादा को लुभाने के लिए आसमान में ऊंची-ऊंची उछाल मारता है । सुन्दर सुराहीदार गर्दन और लंबी टांगों वाले खरमोर की उछाल देखते ही बनती है । घास जितनी ऊंची होती है उससे ऊंची छलांग खरमोर लगाता है । कमजोर मानसून में घास अधिक ऊंची न होने के चलते खरमोर की छलांग भी प्रभावित होती है । इन हालातों में खरमोर यहां पहुंचते भी नहींे है ।
खरमोर काफी शर्मिला और एकांतप्रिय पक्षी है । इसे मानवीय हस्तक्षेप बिलकुल पंसद नहीं है । जब हम मोरझरिया में खरमोर का अवलोकन कर रहे थे तब जरा सी भी इंसानी आहट को वे भांप जाते और उछलना बंद कर घास में छिपने की कोशिश करते थे ।
उल्लेख मिलता है कि खरमोर भारत में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण तक पाए जाते थे । पहले खरमोर का प्रमुख प्रजनन स्थान नासिक, अहमदनगर, शोलापुर, पूर्वी हरियाणा और काठियावाड़ में था । लेकिन वर्तमान में खरमोर के प्रजनन स्थल गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिमी मध्यप्रदेश हैं । शंकरन द्वारा १९९९ तथा भारद्वाज और उनके साथियों द्वारा अगस्त २०१० में गुजरात, राजस्थान व मध्यप्रदेश में एक सर्वे किया गया था । कुल ९१ घास के मैदान का सर्वे किया गया । वर्ष २०१० के सर्वे में २४ मैदानों में खरमोर की उपस्थिति का पता लगा । यहां ८४ खरमोर देखे गए जिनमें से ८३ नर और एक मादा थी । २०१० में खरमोर की तादाद १९९९ के मुकाबले ६५ फीसदी कम थी ।
महाराष्ट्र के विदर्भ में यवतमाल जिले में १९८२ में तथा २०१० में अकोला जिले में खरमोर के मिलने की पुष्टि हुई है । इसी प्रकार से २०-२५ खरमोरों की पुष्टि वाशिम जिले में हुई है । गुजरात में दाहोद, भावनगर, अमरेली, सुरेन्द्र नगर और कच्छ जिलों में खरमोर पाए जाने की पृष्टि हुई है । राजस्थान में अजमेर, भीलवाड़ा, टोंक, पाली और प्रतापगढ़ जिलों में खरमोर देखे गए है । आंध्रप्रदेश में खरमोर रोलपाडू वन्यजीव अभयारण्य और बंगालपन्नी में देखे गए है ।
उल्लेखनीय है कि सरदारपुर खरमोर अभयारण्य में इस मानसून में एक भी खरमोर ने दस्तक नहीं दी । सैलाना अभयारण्य में लगभग एक दर्जन खरमोर दिखाई दिए है जो पिछले सालों की तुलना में कम है । झाबुआ जिले के रायपुरिया से सटे मोरझरिया में इस साल तीन खरमोर देखे गए है । पिछले सालों का आकांड़ा देखे तो सैलाना में २००५ में २६, २००६ में २८, २००७ में २७, २००८ में ३०, २००९ में ३२, २०१० में २३ और २०११ में १८ और २०१५ में १५ खरमोर दिखाई दिए थे ।
हाल ही में बीएनएचएस के छह सदस्यीय दल ने सरदारपुर, झाबुआ जिले के पेटलावद व सैलाना के घास के मैदानों व गांवों का अध्ययन प्रारंभ किया है जो यह समझने की कोशिश करेगा कि आखिर खरमोर की संख्या घटने के कारण क्या है । जिला वन अधिकारी राजेश खरे के मुताबिक मोरझरिया घास के मैदान की तार फैसिंग की जा चुकी है । वहां पर नाकेदार और चौकीदारों की नियुक्ति भी की गई है जो खरमोर की गतिविधियों पर नजर रखते है ।
हाल ही में हम लेखकद्वय ने मोरझरिया गांव से सटे घास के मैदान का दौरा किया जहां तीन नर खरमोर दिखाई दिए ।
मोरझरिया के घांस के मैदान मेंचौकीदारी कर रहे आदिवासी बीजल बताते है कि यहां पर पिछले साल भी खरमोर देखे गए हैं । वे उसी वास्तविक स्थिति भांपने का हुनर रखते हैं । उन्होंने हमें हाथ के इशारे से बताया कि किस जगह पर खरमोर बैठे हैं । और कुछ ही देर में उस स्थान से खरमोर ने उछाल भरी । बीजल ने बताया कि खरमोर की मौजूदगी का पता उसके दुश्मन से भी लगता है । शिकरा नामक पक्षी खरमोर का दुश्मन है । खरमोर जहां होता है उसके आसपास शिकरा तेजी से मंडराता है और उसे परेशान करने की कोशिश करता है । उन्होंने बताया कि अभी जहां शिकरा मंडरा रहा है, खरमोर वहीं कहीं घास में दुबका हुआ होगा ।
खरमोर को बचाने के लिए वन विभाग की ओर से जो प्रयास किए जो रहे है उनमें से एक है इनाम योजना । इनाम योजना के तहत अगर किसी को खरमोर दिखता है तो उसकी खबर देने वाले को एक हजार रूपये और अगर खरमोर किसी के खेत में अंडा देता है और उसकी खबर वन विभाग का दी जाती है तो खेत मालिक को पांच हजार रूपये देने की घोषणा की गई है । जिन किसानों के खेतों में खरमोर अंडे देते है उस फसल की भरपाई भी वन विभाग की ओर से की जाती रही है । दरअसल, खरमोर घास के मैदानों से सटे हुए सोयाबीन, मूंग-उड़द, मूंगफली इत्यादि के खेतों में चले जाते है और सुरक्षित स्थान पाकर वहां अंडे दे देते है ।
खरमोर को संरक्षित करने का मामला प्राकृतवास की सुरक्षा से जुड़ा है । सैलाना में खरमोर अभयारण्य से लगे हुए इलाके में पवन चक्कियां लगाई गई है । आशंका जताई जा रही है कि इन पवन चक्कियों की आवाज से खरमोर की जीवनचर्या प्रभावित होती है । ये मसले है जिन पर अध्ययन करने की जरूरत है ।
खरमोर झाड़ियों और झुरमुटदार सूखे घास के मैदान में बहुतायत से और कभी-कभार बाजरेे, कपास इत्यादि की फसल वाले खेतों में देखे गए है । ऊंचे और घने पेड़ों वाले इलाकों या पहाड़ी, दलदल, घने जंगल, रेगिस्तान और बंजर जमीन पर नहीं पाए जाते । खरमोर उस घास के मैदान मे रहना पसंद करते है जहां पशुआें की दखलंदाजी न हो और घास क ी ऊंचाई एक मीटर से अधिक न हो । उत्तर पश्चिम भारत में घास के मैदानो में जो घास पाई जाती वह छोटे-छोटे चकत्तों में दूर-दूर उगती है । खरमोर इसी घास में अंडे देता है ।
शंकरन का यह अवलोकन है कि जिन सालों में बरसात अधिक होती है और घास के मैदान ऊंची घास से ढंक जाते है तो खरमोर छोटे घास वाली वनस्पति के खेत में चले जाते है और जब खरमोर प्रजनन न कर रहे हो, तो ये छोटे पेड़ों और पशुआें के चरने वाले मैदान व कंटीली बेर की झाड़ियों में विचरण करते रहते है ।
खरमोर के प्रजनन व्यवहार का सबसे दिलकश नर की उछाल ही उसके लिए खतरा साबित हुई है । शिकारी इस ताक में रहते है कि कब खरमोर उछले और उसे बंदूक से मार गिराया जाए । विवरण मिलते है कि खरमोर को उस समय मार गिराया जाता था जब प्रणय निवेदन के लिए या दूसरे नर खरमोर को अपनी मौजूदगी का पता देने के लिए वे घास में उछलते थे । उछलते वक्त नर खरमोर मेंढक के टर्राने सी अवाजा निकालता है जो शांत घांस के इलाके में ३०० से ४०० मीटर की दूरी तक सुनी जा सकती है । यह देखा गया है कि एक दिन भर में नर ६०० बार तक उछाल भरता है ।
खरमोर एक स्थानीय प्रवासी है । हालांकि इसके प्रवास का रहस्य बेहतरी से अभी तक नहीं समझा जा सका है । अप्रजनन काल में ये रहस्यमय ढंग से अपना रंग बदल लेते है । ये मानसून के दिनों में देश के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में घास के मैदानों में प्रजनन करते हैं और फिर दक्षिण-पूर्वी भागों की ओर चले जाते है । अपने अप्रजनन काल में ये क्या करते हैं, कैसे रहते हैं इसके बारे में बहुत कुछ जानना-समझना अभी भी शेष है ।
पिछले कुछ वर्षो में खरमोर की संख्या में काफी कमी आई है । १८७० में इनकी वैश्विक संख्या लगभग ४३७४ थी जो १९८९ में ६० फीसदी घटकर लगभग १६७२ रह गई । हालांकि एक सर्वे १९९४ में किया गया था जिससे पता चलता है कि अच्छी बरसात के चलते इनकी संख्या में फिर से बढ़ोत्तरी हुई जो बढ़कर २२०६ हो गई । इसी प्रकार से खरमोर की संख्या की बढ़ोत्तरी के पैटर्न को देखते हुए १९९९ में खरमोर की संख्या ३५३० तक पहुंचने की उम्मीद जताई जा रही थी मगर ऐसा हो न सका । वर्तमान में विश्व स्तर पर खरमोर शायद २५०० के अंदर ही सिमटकर रह गए हैं । खरमोर उन ५० पक्षियों की श्रेणी में शुमार है जो खतराग्रस्त है । जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून का पैटर्न प्रभावित हुआ है जिसका असर खरमोर के प्रजनन पर हो रहा है ।
हमारे यहां घास मैदानों को जंगल जैसी प्रतिष्ठा हासिल नहीं है और इन्हें अनुपजाऊ जमीन के रूप में ही देखा जाता है । इस वजह से घास के मैदानों पर हर तरह के विकास की योजनाआंे को मढ़ दिया जाता है । मसलन अगर वृक्षारोपण करना हो तो इन्हीं घास के मैदानों को क्षतिपूर्ति के रूप में चुना जाता है । जब विकास के नाम पर जंगल कटते हैं तो इन्हीं घास के मैदानों को बंजर मानकर इन पर वृक्षारोपण करके खरमोर के कुदरती आवासों को नेस्तनाबूत किया जाता रहा है ।
इनके अलावा खरमोर का शिकार, फसलों में कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल, घास के मैदानों में पशु चराई के बढ़ते दबाव, घास के मैदानों पर अतिक्रमण आदि ऐसे कारण है जिनके चलते घास के मैदानों का बुरा हाल हुआ है । इन कारणों ने खरमोर के प्रजनन आवास को बर्बाद हो रहे है, जो खरमोर के भविष्य का धूंधला कर रहे है ।
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