दृष्टिकोण
वन, हमारे अस्तित्व के आधार
चंडीप्रसाद भट्ट
यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है जब पर्वतीय और आदिवासी क्षेत्रों तथा जनजातीय समाजों में प्राकृतिक संसाधनों के युक्तिकरण उपयोग को अपने जीवन का सबसे बड़ा और मजबूत आधार मानने की समृद्ध परम्परा थी ।
भारत के पर्वतीय और आदिवासी क्षेत्रों तथा जनजातीय समाजों की आबादी अधिकाशत: उन राज्यों और क्षेत्रों में पड़ती है जो वनों और खनिजो के कारण देश की समृद्धि का बहुत बड़ा आधार है । लेकिन इन संसाधनों के उपयोग में ग्रामीण समाज बहुत सचेत और संवेदनशील रहते थे । इस बात को देश के विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है ।
उत्तराखंड में जंगल की सुरक्षा और रख-रखाव व अतिक्रमण करने वालों को दंडित तथा उसके उत्पादों के वितरण करने के अधिकार से सम्पन्न गांव की अपनी पंचायत जैसी व्यवस्था थी । मेघालय एवं मणिपुर के जंगल, आंध्रप्रदेश के जंगल का संरक्षण स्थानीय लोग करते हैं ।
इसी प्रकार महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले में वन संरक्षण- संवर्धन एवं उपयोग का आदर्श देखने को मिलता है । वनों के उपर लोगों के परंपरागत अधिकार एवं कर्तव्य के साथ जो समृद्ध परम्पराएं एवं व्यवहार है, उसके पूर्व की जो जानकारी मिली है उसको समझना भी आवश्यक है । अंग्रेजों के आने से पूर्व हमारे देश में छोटे-बड़े रजवाड़े थे । उस काल में जंगल मुख्य रूप से तीन प्रकार के थे । पहले रजवाड़ों एवं जमींदारों के अधीन जंगल थे तो आम लोगों के लिए वर्जित थे । ये मुख्यत: राजाआें के शिकारगाह होते थे । दूसरे प्रकार के गांव के अपने कास्तकारी के जंगल थे जो अलग-अलग गांवों की सीमा के अंदर उनकी आवश्यकता की पूर्ति के साथ ही वनोपज पर आधारित ग्रामोघोग की कच्ची सामग्री उपलब्ध कराते थे । तीसरे देववन थे । देववन वे थे जिन्हें लोगों ने देवताआें को अर्पित कर दिया था । ग्रामवासी इन वनों में किसी भी प्रकार की उपज नहीं लेते थे ।
अंग्रेजों के आधिपत्य में सन् १८५५ से वनों को नियंत्रण में लेने की कार्रवाई हुई । सन् १८६५ में पहला वन कानून बना, जो अलग-अलग चरणों में कठोर होता गया । इसके कारण जंगलों पर अवलंबित लोगों को वनों से अलग-थलग कर देने का सिलसिला शुरू हो गया । अंग्रेजों ने भारत के जैविक उत्पादों के दोहन के साथ ही वनों को उजाड़ने का कार्य भी शुरू किया । उत्तर-पूर्वी भारत मंे बिना मुआवजा दिए आदिवासियों को बेदखल किया गया । उनकी जमीनों पर चाय बागान बनाए गए । इन बागानों में काम करने वाले श्रमिकों को जो मजदूरी दी जाती थी, उसको देखते हुए उन श्रमिकों को गुलाम कहना सही होगा । आजादी के बाद बड़े बांध, विद्युत परियोजनाआें, कारखानों और खदानों के लिए मोटर सड़कों के जाल से एक ओर जमीन तो दूसरी ओर जंगलों का बेतहाशा विनाश हुआ ।
इसके साथ ही इन पर अवलंबित लोगों को उजाड़ने का काम भी जारी रहा, जो कि वर्तमान मंे भी जारी है । हमारे देश में कागज उद्योग ने देश के जंगलों को निर्ममता के साथ उजाड़ा है । इसी प्रकार हिमालयी राज्यों में जैसे-जैसे अंतवर्ती क्षेत्रों में मोटर सड़कों का जाल बिछा, उसके आस-पास के जंगलों का भी बेतहाशा विनाश हुआ । देखते ही देखते कई वन क्षेत्र वीरान हो गए । इस कारण एक ओर भू-क्षरण, भूस्खलन से नदियां बौखलाई, लोगों की तबाही हुई, वहीं दूसरी ओर लोगों की रोजाना की जरूरतों के लिए जो वन उपज प्राप्त् होती थी, उस पर नियंत्रण बढ़ता गया ।
इसी के कारण सन १९७० के बाद मध्य हिमालय की अलकनंदा घाटी में लोगों के जंगलात द्वारा परंपरागत अधिकारों पर अतिक्रमण कर आपत्ति उठाते हुए चिपको आंदोलन शुरू कर उत्तरप्रदेश सरकार की वन नीति को कटघरे में खड़ा किया था । एक बात यह भी समझनी चाहिए कि वनस्पति उपज में काष्ठ के अलावा वनौषधि, बांस, लीसा आदि बड़े कारखानों का सस्ते भाव में दिया गया और उनको दोहन की खुली छूट दी गई । कह सकते है कि प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी का मुख्य आधार अमीर है ।
अमीरों के समूहों ने अपने कारखानों की भूख मिटाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का जितना ज्यादा उपयोग किया, उतना ही ज्यादा दुष्प्रभाव उन पर परम्परा से आश्रित लोगों पर बढ़ता चला गया । इस प्रकार दूसरी बात तो समझ में आई, वह यह कि प्राकृतिक संसाधनों के विनाश का सबसे बुरा असर गरीब लोगों पर पड़ रहा है ।
मुझे पिछले वर्षो में देश में सामाजिक कार्यो में रत संस्थाआें और मित्रों के साथ गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, सतलज, गोदावरी, इन्द्रावती, तुंगभद्रा-सिलेरू, पश्चिमी घाट-पूर्वी घाट, पुरलियां (अयोध्या पहाड़) की लगातार यात्राआें का अनुभव है कि अपने देश में गरीबी दूर करना इसलिए असंभव लग रहा है क्योंकि अपने पर्यावरण एवं वनों की ठीक से व्यवस्था नहीं कर पा रहे है ।
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