बुधवार, 18 सितंबर 2019
प्रसंगवश
इन्दौर में कबाड़ के बदले मिलेगा झोला
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आगामी दो अक्टूबर से प्लास्टिक का उपयोग नहीं करने के लिए देशव्यापी अभियान शुरू कर रहे है, जिसमें सिंगल यूज प्लास्टिक के उपयोग नहीं करने का आव्हान किया है, जिस पर इन्दौर नगर निगम ने काम करना शुरू कर दिया है ।
इन्दौर शहर के चार सब्जी बाजारो में झोला बैंक केकियोस्क खोले जाएंगे । पायलेट प्रोजेक्ट के रूप मेंलगे नजर आएंगे । लेकिन आम लोग इन्हें अपने घर में निकलने वाले कबाड़ के बदले में खरीद सकेंगे । पिछले ३ सालों से अमानक पॉलिथीन, उपयोग पर शहर में स्पॉट फाइन की कार्रवाही कर रहा है, लेकिन शहर की सब्जी बाजारों में लगातार चोरी छुपे प्लास्टिक पॉलिथिन सब्जियों के साथ दी जा रही है । नगर निगम स्वयं सहायता समूह के माध्यम से कपड़े की थैलियां बनवाएगा । जिस पर नगर निगम मार्क लगा होगा, बाजार में थैली पूरी तरह से प्रतिबंधित रहेगी । यदि कोई ग्राहक दुकानदार से पॉलिथिन मांगता है तो वो उसे निगम के कियोस्क का पता बता देगा और थैली खरीदने के लिए कहेगा ।
निगमायुक्त आशीष सिंह ने बताया कि झोला बैंक शुरूआत पायलेट प्रोजेक्ट के रूप में की जा रही है । इसके लिए मालवा मिल, पाटनीपुरा, कुशवाहा नगर और निरंजनपुर सब्जी मण्डी का चुना गया है । सभी चार मंडियों के व्यापारिक संगठनों के साथ पिछले दिनों बैठक बुलाई थी । झोला बैंक का संचालन मण्डी एसोसिएशन द्वारा चुना गया मण्डी कोई भी एक व्यापारी करेगा । वो सब्जी की दुकान के साथ झोला बैंक कियोस्क संचालित कर सकेगा । झोले महिलाआें के स्वयं सहायता समूह से खरीदे जाएंगे । हमारा प्रयास शहर की सभी सब्जी मण्डियों को प्लास्टिक पॉलोथिन फ्री बनाना है । फिलहाल ग्राहकों की डिमांड पर चोरी छिपे सब्जी और फल विक्रेताआें को पॉलिथिन देना पड़ती है और स्पॉट फाईन पर विक्रेताआें को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है ।
एनजीओ संचालक सनप्रति ने बताया कि झोला बैंक योजना के अन्तर्गत कियोस्क संचालित किया जाएगा इस पर मण्डी आने वाले आम नागरिक यदि अपने घर का कबाड़ प्लास्टिक बॉटल, खिलौने, रद्दी, कांच की बाटल या अन्य सामान लेकर आते हैं तो उन्हे वजन के हिसाब से रूपए दिए जाएंगे । इन रूपयों से वो चाहे तो झोला भी खरीद सकते है ।
सम्पादकीय
नौकरी छोड़ बनाया ३०० एकड़ का जंगल
एक तरफ दुनियाभर में पेड़ काटे जाने से ग्लोबल वॉर्मिग की समस्या बढ़ती जा रही है । दूसरी तरफ मणिपुर के मोइरांगथेम लोइया ने अकेले ही ३०० एकड़ का जंगल तैयार कर डाला है । लोइया पिछले १८ सालों से पेड़ लगा रहे है, उन्हें संरक्षित कर रहे हैं । मेडिकल रिप्रेजेटेटिव का काम करने वाले लोइया १७ साल पहले ही अपनी नौकरी छोड़ चुके है और अब सिर्फ वन संरक्षण का ही काम करते है ।
वृक्ष प्रेमी ४५ वर्षीय माइरांगथेम लोइया इफाल वेस्ट के उरीपोक खैदेम के निवासी है । उन्होंने पुनशिलोक नाम के जंगल को फिर से जिंदा कर दिया है । बचपन में लोइया इन जंगलों में जाया करते थे । सन २००० में कॉलेज खत्म करने के बाद जब वह जंगल में गए तो हरे-भरे जंगलों की जगह उजड़े वन पाकर हैरान रह गए । जंगल तैयार करने के लिए लोइया ने २००२ में जमीन की तलाश शुरू कर दी । एक स्थानीय व्यक्ति लोइया को मारू लांगोल हिल रेंज ले गया । इस स्थान पर एक भी पेड़ नहीं था ।
अब इस जंगल में बांस की लगभग २५ प्रजातियां पाई जाती है । अब पुनशिलोक जंगल ३०० एकड़ का हो गया है । यहां जीव और पौधों की बहुत सारी प्रजातियां पाई जाती है । यहां २५० अलग-अलग तरह के पौधों में कई आयुर्वेदिक औषधियां भी पाई जाती है । इसके अलावा सांप, भालू, तेन्दुआ, साही और कई वन्य जानवर भी पाए जाते है । जानवरों के अलावा पुनशिलोक जंगल पक्षियों का भी घर है ।
अपना घर चलाने के लिए लोइया अपने भाई के मेडिकल स्टोर पर फार्मासिस्ट का काम करते है । वह आर्गेनिक खेती भी करते है । हजारों पेड़ लगा चुके लोइया अभी और पौधे लगाकर जंगल तैयार करना चाहते है । वह कहते है मैं खुद को पेंटर मानता हॅू । दूसरे कलाकार कलर, ब्रश और केनवास का इस्तेमाल करते है । मैने पहाड़ियों को अपना कैनवास बनाया और उन पर पौधे लगाए, जिनपर फूल खिलते है जो मनोहारी दृश्य पैदा करते है ।
सामयिक
जारी है मौसम की भविष्यवाणी के प्रयास
नरेन्द्र देवांगन
इटली के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र में चार इंजनों वाला एक टर्बाइन चालित विमान उड़ान भर रहा था । विमान ने १५२४ मीटर की ऊंचाई से गोता लगाया । इससे पहले कि वह फिर से अपनी सही अवस्था में आए, विमान सिर्फ ९० सेकण्ड में २१३ मीटर की ऊंचाई तक आ चुका था । कुछ ही मिनटों में वह स्विट्जरलैंड के सेंट गाटहार्ड दर्रे में ऊपर-नीचे होता हुआ अपने पूर्व निश्चित लक्ष्य की ओर उड़ान भर रहा था । वह चारों ओर से बहुत ही खराब मौसम से घिर चुका था ।
विमान में सवार युरोप और अमरीका के १२ वायुमंडलीय वैज्ञानिकों में से किसी के भी चेहरे पर परेशानी का भाव नहीं था। उनके लिए यह कष्टकारी उड़ान उनके मिशन का एक हिस्सा थी। एल्पाइन एक्स-पेरिमेंट (एलपेक्स) के अंतर्गत उड़ान भर रहे इस विमान का उद्देश्य यह अध्ययन करना था कि पर्वतमालाएं एक बड़े क्षेत्र के मौसम को किस तरह प्रभावित करती हैं। इस कार्य के लिए विमान में पूरी प्रयोगशाला थी जिसमें वायु गति मापने से ले कर बादलों में पानी की मात्रा आदि सभी चीजेंदर्ज करने के लिए कम्प्यूटर व अनेक सूक्ष्म यंत्र लगे हुए थे जो उन कारणों का पता लगा रहे थे जिनसे आल्प्स के मौसम से तेज हवाएं पैदा होती हैं और दक्षिण फ्रांस से होती हुई इटली के एड्रियाटिक सागर तट पर पहुंच कर तबाही मचाती हैं।
किसी भी वैज्ञानिक चुनौती की अपेक्षा मौसम की भविष्यवाणी करना अधिक रहस्यमय है। खेती-बाड़ी, परिवहन, जहाजरानी, उड्डयन और यहां तक कि सैर-सपाटे के लिए भी मौसम की पूर्व जानकारी होना महत्वपूर्ण है। अनुमान है कि अकेले पश्चिमी युरोप के लिए ही मौसम की ७ दिन की पूर्ण विश्वसनीय भविष्यवाणी करने से हर साल करोड़ों डॉलर कक फर्क पड़ जाता है।
मनुष्य सदियों से मौसम की भविष्यवाणी करने का प्रयास कर रहा है। युरोप के कुछ देशों में तो वर्षा और तापमान के ३०० वर्ष पुराने रिकार्ड मिले हैं। परन्तु पुराने समय के मौसम वैज्ञानिक बड़े-बड़े यंत्रों और गणना करने की उच्च् क्षमता के बिना अपने अनुभवों के आधार पर ही भविष्यवाणियां किया करते थे।
लगभग ६० वर्ष पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक एल. एफ. रिचर्डसन ने यह प्रमाणित किया कि भौतिकी के नियमों पर आधारित गणित के समीकरणों की सहायता से मौसम की भविष्यवाणी की जा सकती है। परंतु रिचर्डसन ने एक छोटे से इलाके के मौसम की ६ घंटे पहले भविष्यवाणी करने का जो प्रयास किया, उसकी गणना करने में उन्हें कई सप्ताह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी । अपने इस प्रयास के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पूरे विश्व के मौसम की निरंतर भविष्यवाणी करने के लिए ६४,००० व्यक्तियों को गणना करने वाली साधारण मशीनों पर लगातार काम करते रहना होगा।
१९५० में गणितज्ञ जान फॉन नॉइमान और उनके सहयोगियों ने इस समस्या को कम्प्यूटर की मदद से हल किया। आज के सशक्त और तेज कम्प्यूटर तो इस विधि के मुख्य आधार हैं। लेकिन उन्नत तकनीकों ने मौसम के पूर्वानुमान को अत्यधिक खर्चीला बना दिया है। दुनिया की समस्त मौसम विज्ञान सेवाओं को चलाने की सालाना लागत दो अरब डॉलर से अधिक है।
आफनबाक (पश्चिमी -जर्मनी) स्थित प्रेक्षणशाला में पूरी कमान कम्प्यूटरों के हाथ में है। यहां विश्व के ९००० से अधिक केन्द्रों से वायु की दिशा, आद्रता और वायु दाब के बारे में सूचनाएं एकत्र कर कम्प्यूटर में डाली जाती हैं। कभी-कभी तो हजारों किलोमीटर दूर दर्ज किए गए आंकड़े भी घंटे भर के अंदर कम्प्यूटर में भर दिए जाते हैं। जेनेवा स्थित विश्व मौसम विज्ञान संगठन विभिन्न देशों से तथा विमान चालकों, व्यापारिक जहाजों और मौसम उपग्रहों से प्राप्त मौसम के सैकड़ों नक्शे जारी करता है। युरोप का मौसम उपग्रह मेटियोसैट-२ भूमध्य रेखा के ऊपर ३६,००० कि.मी. की ऊंचाई से हर आधे घंटे बाद वायुमंडल के चित्र भेजता है ।
उपग्रहों द्वारा मौसम के बारे में एकत्रित की गई जानकारी हमें अंकों के रूप में प्राप्त् होती है। इन अंकों में वायुमंडल की निश्चित समय की परिस्थितियों का पूर्ण विवरण होता है। इस विवरण से कम्प्यूटर पूरे वायुमंडल का एक काल्पनिक चित्र तैयार करता है। इस चित्र में विभिन्न स्थान बिंदुओं की सहायता से दर्शाए जाते हैं। इस मानचित्र को गणित समीकरणों की बहुत ही जटिल प्रणाली में फिट किया जाता है। इसी से यह पता चलता है कि प्रत्येक बिंदु पर मौसम में कैसा-कैसा परिवर्तन होगा ।
ऐसा माना जाता है कि इंग्लैंड के रीडिंग शहर में स्थित युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ईसीएमडब्लूएफ) मौसम की भविष्यवाणी करने वाला सर्वश्रेष्ठ केंद्र है। इस केंद्र में लगा शक्तिशाली कम्प्यूटर प्रति दिन लगभग ८ करोड़ सूचनाएं प्राप्त करता है तथा प्रति सेकण्ड एक साथ ५ करोड़ क्रियाएं कर सकता है ।
मध्यम दूरी के मौसम की भविष्यवाणी करना किसी भी अकेले देश के तकनीकी और वित्तीय साधनों के बस के बाहर है, अत: यह केन्द्र स्थापित किया गया । केन्द्र के निदेशक के अनुसार, बादलों के लिए राष्ट्रों की सीमाओं का कोई महत्व नहीं है। अब ५-६ दिन तक के मौसम की सही भविष्यवाणी की जा सकती है। पहले केवल २-३ दिन की भविष्यवाणी सही होती थी। मौसम के बारे में दो-तीन दिन पहले की सूचना भी बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। नवंबर में जब इटली के दक्षिणी भाग में भूकंप आया तो ईसीएमडब्लूएफ ने आने वाले सप्ताह के दौरान ठंडे मौसम और तेज तूफान आने की बिलकुल सही भविष्यवाणी की थी। स्थानीय अधिकारी सचेत हो गए कि ढाई लाख बेघर भूकंप पीड़ितों के लिए गरम कपड़ों और शरण स्थलों की आवश्यकता होगी ।
ईसीएमडब्लूएफ तथा अन्य सभी राष्ट्रीय केन्द्रोंद्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले कम्प्यूटर मॉडलों की बराबर सूक्ष्म ट्यूनिंग की जाती है ताकि वे सटीक काम करें। कई मौसम कार्यालयों में और भी सूक्ष्म ग्रिड लगाए गए हैं ताकि छोटे-छोटे क्षेत्रों के बारे में भविष्यवाणी की जा सके । कहते हैं कि १९८२ में मध्य फ्रांस में तबाही मचाने वाले बर्फीले तूफान के बारे में पहले से भविष्यवाणी नहीं की जा सकी थी क्योंकि वह इलाका ग्रिड के हिसाब से बहुत ही छोटा था । इसके बाद फ्रांस में सूक्ष्म ग्रिड इस्तेमाल किया जाने लगा जो बहुत कम दूरी पर स्थित बिन्दुआें को भी अलग-अलग दर्शा सकता है। मौसम वैज्ञानिकों का लक्ष्य इन मॉडलों को और अधिक सटीक बनाना तथा पूर्वानुमान लगाने की सीमा को १० दिन तक बढ़ाना है।
वैज्ञानिक मौसम की भवि-ष्यवाणी के दूसरे पहलुओं पर भी काम करने लगे हैं। जैसे बहुत ही कम अवधि यानी कुछ ही घंटों के मौसम की जानकारी देना। इसे नाऊका-स्टिंग यानी तत्काल पूर्वानुमान कहते हैं। अलबत्ता, अल्प अवधि की ये भविष्यवाणियां पूरी तरह पक्की नहीं होतीं। जैसे ब्रिटेन का मौसम कार्यालय आसमान साफ रहने या कहीं-कहीं वर्षा होने की भविष्यवाणी तो कर सकता है परंतु ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि छिटपुट वर्षा कहां होगी तथा कहां ज्यादा होगी।
इन प्रश्नोंकेउत्तर नाऊका-स्टग द्वारा दिए जा सकते हैं। राडार और उपग्रहों से प्राप्त् संकेतों के जरिए स्थानीय मौसम के बारे में ६ घंटे पहले भविष्यवाणी की जा सकती है। आंकिक मॉडल से मौसम सम्बंधी जानकारी जहां हमें केवल वायुमंडल के तापमान, नमी और हवा की दिशा के रूप में मिलती है, वहां राडार की आंखें वर्षा को भी देख सकती हैं तथा कुछ किलोमीटर तक उसकी स्थिति दर्शा सकती है। उपग्रहों से प्राप्त् इंफ्रारेड चित्रों और राडार की मदद से मौसम वैज्ञानिक बिजली गिरने अथवा जल प्लावन जैसी छोटी-मोटी घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इसके अलावा कम्प्यूटरों द्वारा यह भी मालूम कर सकते हैं कि वर्षा तूफान का रुख किधर होगा तथा उसकी तीव्रता में क्या-क्या परिवर्तन आ सकते हैं।
बहुत ही छोटे क्षेत्रोंके मौसम का अध्ययन दक्षिण फ्रांस के तूलूज स्थित न्यू मेटियोरलॉजिकल नेशनल सेंटर में भी किया जाता है। इस केंद्र में अनुसंधानकर्ता जिस स्केल मॉडल की सहायता से परीक्षण करते हैं, वह स्थानीय क्षेत्रों की रूपरेखा का आंकिक मॉडल न हो कर भौतिक मॉडल है। १० मीटर लंबे और ३ मीटर चौड़े इन मॉडलों को पानी के एक बड़े टैंक में रखा जाता है। इसके बाद पानी में हलचल पैदा की जाती है ताकि मॉडल के ऊपर और आसपास से पानी ठीक उसी तरह गुज़रे जिस तरह वास्तविक पर्वतों और घाटियों में से हवा गुज़रती है। अनुसंधानकर्ता लेसर किरणों की सहायता से पानी के वेग और हलचल को माप कर उसके आधार पर स्थानीय मौसम का एक विस्तृत मानचित्र तैयार कर लेते हैं।
हमारा भूमण्डल
ओजोन परत पर एक और हमला
एस. अनंतनारायणन
हमारे वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद ओजोन परत, सूरज से आने वाले पराबैंगनी विकिरण से पृथ्वी की रक्षा करती है। इस सुरक्षा कवच पर खतरा पैदा हुआ था, लेकिन मॉन्ट्रियल संधि के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई की बदौलत इसे बचा लिया गया । संधि में इस बात को पहचाना गया था कि कुछ मानव निर्मित रसायन, मुख्य रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन, ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस संधि ने इन पदार्थों के उपयोग और वायुमंडल में इनके उत्सर्जन में कटौती करने के लिए एक वैश्विक अभियान को गति दी थी ।
क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उपयोग के मामले में मुख्य रूप से एयरोसोल स्प्रे, औद्योगिक विलायकों और शीतलक तरल पदार्थों को दोषी माना गया और इस अभियान का केन्द्रीय मुद्दा उन्हें हटाना था। क्लोरोफॉर्म जैसे कुछ अन्य पदार्थ भी ओजोन परत को प्रभावित करते हैं, लेकिन ये बहुत तेजी से विघटित हो जाते हैं, इसलिए इन्हें संधि में शामिल नहीं किया गया था । यह संधि काफी सफल रही और उम्मीद की गई थी कि अंटार्कटिक के ऊपर बन रहा ओजोन छिद्र २०५० तक खत्म हो जाएगा ।
एमआईटी, कैलिफोर्निया और ब्रिस्टल विश्ववद्यालयों, दक्षिण कोरिया के क्यंुगपुक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के दी क्लाइमेट साइंस सेंटर और एक्सेटर के दी मेट ऑफिसके वैज्ञानिकों के एक समूह ने नेचर जियोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र में बताया है कि क्लोरोफॉर्म जैसे पदार्थों के स्तर में वृद्धि जारी है और इसके चलते ओजोन छिद्र में हो रहे सुधार की गति धीमी पड़ सकती है।
ओजोन गैस ऑक्सीजन का ही एक रूप है जो वायुमंडल में काफी ऊंचाई पर बनती है। गैस की यह परत सूरज से आने वाली पराबैंगनी किरणों को सोखकर पृथ्वी की रक्षा करती है। ऑक्सीजन के परमाणु में बाहरी इलेक्ट्रॉन शेल अधूरा होता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन का परमाणु अन्य परमाणुओं के साथ संयोजन करता है। ऑक्सीजन का अणु दो ऑक्सीजन परमाणुओं से मिलकर बनता है। ये दो परमाणु बाहरी शेल के इलेक्ट्रॉन को साझा करके एक स्थिर इकाई बनाते हैं। वायुमंडल की ऊपरी परतों में पराबैंगनी प्रकाश के ऊर्जावान फोटोन ऑक्सीजन अणुओं को घटक परमाणुआेंमें विभक्त कर देते हैं।
एक अकेला परमाणु उच्च् ऊर्जा स्तर पर होता है और स्थिरता के लिए उसे बंधन बनाने की आवश्यकता होती है। वे अन्य ऑक्सीजन अणुओं के साथ बंधन बनाकर ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं वाला ओजोन का अणु बनाते हैं। ओजोन अणु फिर पराबैंगनी प्रकाश को अवशोषित करते हैं और एक अकेला ऑक्सीजन परमाणु मुक्त करते हैं, जो फिर से ऑक्सीजन अणुओं के साथ गठबंधन करके ओजोन बनाते हैं। और यह प्रक्रिया ऐसे ही चलती रहती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक अकेले परमाणुआें की संख्या कम नहीं हो जाती । ऐसा तब होता है, जब दो अकेले परमाणु ऑक्सीजन का अणु बना लेते हैं।
इस प्रकार से ओजोन निर्माण और विघटन की एक प्रक्रिया चलती है। यह शुरू होती है पराबैंगनी प्रकाश द्वारा ऑक्सीजन अणुओं के विभाजन के साथ। इस क्रिया में उत्पन्न अकेले ऑक्सीजन परमाणु ऑक्सीजन के अणुओं के साथ गठबंधन करके ओजोन का निर्माण करते हैं। ओजोन में से एक बार फिर ऑक्सीजन परमाणु मुक्त होते हैं और ये ऑक्सीजन परमाणु आपस में जुड़कर ऑक्सीजन बना लेते हैं। इस तरह वायुमंडल में ऊंचाई पर ओजोन की मात्रा का एक संतुलन बना रहता है। यह ओजोन पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके और उसे पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से दूर रखने की प्रक्रिया जारी रखती है। सतह पर पराबैंगनी विकिरण जितना कम होगा उतना मनुष्योंऔर अन्य जन्तुआें के लिए बेहतर है।
लेकिन ओजोन की इस संतुलित सुकूनदायक स्थिति में परिवर्तन तब आता है जब ओजोन को ऑक्सीजन में तोड़ने वाले पदार्थ ऊपरी वायुमंडल में पहुंच जाते हैं। इनमें से सबसे प्रमुख हैं पानी के अणु का ऋणावेशित जक हिस्सा, नाइट्रिक ऑक्साइड का छज हिस्सा, मुक्त क्लोरीन या ब्रोमीन परमाणु । ये पदार्थ ओजोन से अतिरिक्त ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचने में सक्षम होते हैं और फिर ये ऑक्सीजन परमाणुओं को अन्य यौगिक बनाने के लिए छोड़ते हैं। इसके बाद ये पदार्थ अन्य ओजोन अणुओं से ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचते हैं और लंबे समय तक ऐसा करते रहते हैं। ऊंचाई पर इनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्लोरीन है और एक क्लोरीन परमाणु १,००,००० ओजोन अणुओं के साथ प्रतिक्रिया करते हुए दो साल तक सक्रिय रहता है।
ओजोन का विघटन करने वाले पदार्थों को वायुमंडल में भेजने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाएं बहुत कम हैं। लेकिन फिर भी १९७० के दशक के के बाद से ऊंचाइयों पर ओजनो परत में गंभीर क्षति देखी गई है। इसका कारण विभिन्न क्लोरोफ्लोरोकार्बन यौगिकों का वायुमंडल में छोड़ा जाना पहचाना गया था जिनका उपयोग उस समय उद्योगों में बढ़ने लगा था । ये यौगिक वाष्पशील होते हैं और वायुमंडल की ऊंचाइयों तक पहुंच जाते हैं और क्लोरीन के एकल परमाणु मुक्त करते हैं। ये क्लोरीन परमाणु ओजोन परत पर कहर बरपाते हैं।
पराबैंगनी विकिरण को सोखने वाली ओजोन परत हजारों सालों से ही मौजूद रही है और जीवन का विकास ओजोन की मौजूदगी में ही हुआ है । हो सकता है कि थोड़ा पराबैंगनी विकिरण जीवन की उत्पत्ति के लिए एक पूर्व शर्त रहा हो । लेकिन अब ओजोन की कमी और पराबैंगनी विकिरण में वृद्धि के गंभीर स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभाव हैं जिसका एक उदहारण त्वचा कैंसर की घटनाओं में वृद्धि में देखा जा सकता है। अंटार्कटिक के ऊपर के वायुमंडल में ओजोन में भारी कमी यानी ओजोन छिद का पता लगने के परिणामस्वरूप मॉन्ट्रियल संधि अस्तित्व में आई और यह अनुमान लगाया गया कि सीएफसी उपयोग पर रोक लगाई जाए तो २०३० तक त्वचा कैंसर के २० लाख मामलों को रोका जा सकेगा ।
जैसा कि हमने बताया, सीएफसी को ओजोन क्षति का मुख्य कारण माना गया था और इसलिए संधि में क्लोरोफॉर्म जैसे अन्य कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया । ऐसा माना गया था कि वे अत्यंत अल्पजीवी पदार्थ (या वीएसएलएस) हैं और यह भी माना गया था कि ये मुख्य रूप से प्राकृतिक स्त्रोतों से उत्पन्न होते हैं। फिर भी, नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार समताप मंडल में वीएस-एलएस का स्तर बढ़ता जा रहा है।
अध्ययन के अनुसार दक्षिण धु्रव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म का स्तर १९२० में ३.७ खरबवां हिस्सा था जो बढ़ते-बढ़ते १९९० में ६.५ खरबवें हिस्से तक पहुंचा और फिर इसमें गिरावट देखने को मिली। इसी अवधि में उत्तर धु्रव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म ५.७ खरबवें भाग से बढ़कर १७ खरबवें भाग तक बढ़ने के बाद इसमें कमी आई । गिरावट का यह रुझान २०१० तक अलग-अलग अवलोकन स्टेशनों पर जारी रहा । लेकिन एक बार फिर यह बढ़ना शुरू हो गया। २०१५ तक के आकड़ों के अनुसार यह वृद्धि मुख्य रूप से उत्तरी गोलार्ध में हुई है। शोध पत्र के अनुसार इससे पता चलता है कि वायुमण्डल में प्रवेश करने वाले क्लोरोफॉर्म का मुख्य स्त्रोत उत्तरी गोलार्ध में है।
आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमे-रिका और युरोप के पश्चिमी तट के स्टेशनों के अनुसार २००७-२०१५ के दौरान निकटवर्ती स्त्रोतों से उत्सर्जन के कारण क्लोरोफॉर्म स्तर में वृद्धि अधिक नहीं थी। दूसरी ओर, २०१०-२०१५ के दौरान जापान और दक्षिण कोरिया के स्टेशनों पर काफी वृद्धि दर्ज की गई थी ।
इस परिदृश्य का आकलन करने के लिए, शोधकर्ताओं ने संभावित स्त्रोतों से प्रेक्षण स्थलों तक क्लोरोफॉर्म के स्थानांतरण का पता करने के लिए मॉडल का उपयोग किया। इस अध्ययन से पता चला कि २०१० के बाद से पूर्वी चीन से उत्सर्जन में तेजी से वृद्धि हुई है, जबकि जापान और दक्षिण कोरिया दूसरे स्थान पर हैं। अन्य पूर्वी एशियाई देशों से कोई महत्वपूर्ण वृद्धि देखने को नहीं मिली है। चीन में वृद्धि ऐसे क्षेत्रों में है जहां घनी आबादी के साथ-साथ औद्योगीकरण के कारण
क्लोरोफॉर्म गैस का उत्सर्जन करने वाले कारखाने हैं। शोध पत्र के अनुसार हवा में क्लोरोफॉर्म का एक बड़ा हिस्सा उद्योगों से आता है और क्लोरोफॉर्म के स्तर में वृद्धि मानव निर्मित है।
विशेष लेख
दुनिया के फेफडो में फैलती कालिख
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित
धरती पर मौजूद प्राकृतिक संसाधन किसी न किसी वजह से खत्म हो रहे हैं। यह मानव अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी है । यदि इन प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए कदम नहीं उठाए गए तो इसके परिणाम गंभीर होंगे ।
इन दिनो दुनिया का फेफड़ा कहे जाने वाले अमेजन के जंगल में लगी आग इस चिंता को और भी बढ़ा रही हैं। धरती पर मौजूद ये कुछ ऐसे प्राकृतिक स्त्रोत हैं जो पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखते हैं, यदि किसी वजह से इन प्राकृतिक स्त्रोतों को ही नुकसान पहुंचता है तो उसके परिणामो का अंदाजा लगाना मुश्किल होगा।
इस साल कुछ माह पहले ही वैज्ञानिकों ने चेताया था कि हिमालय में ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने का सिलसिला चल रहा है। साल २०५० तक यहां के ६५० ग्लेशियरों के पिघल जाने का अनुमान है। दूसरी ओर पिछले कुछ वर्षो मे अमेजन के जंगल में आग लगने की अनेक घटनाएँ हो चुकी है, यहां पर आग लगने से दुनियाभर के वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चिंतित है ।
नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च (इनपे) ने अपने सेटेलाइट आंकड़ों में दिखाया है कि २०१८ के मुकाबले इस दरम्यान आग की घटनाओं में ८५ फीसद की वृद्धि हुई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इस साल के शुरूआती ८ माह में ब्राजील के जंगलों में आग की ७५,००० घटनाएं हो चुकी है। साल २०१३ के बाद ये रिकॉर्ड है। साल २०१८ में आग की कुल ३९,७५९ घटनाएं हुई थीं। अमेजन की बात करें तो यहाँ जुलाई से अक्टूबर के बीच शुष्क मौसम में आग की घटनाएं होना आम बात है। यहां प्राकृतिक कारणों से भी आग लगती है, किसान और लकडी काटने वाले भी कई बार आग लगाते हैं। जो बाद में भयानक रुप ले लेती है।
विश्व मे जैवविविधता की दृष्टि से अमेजन के वर्षा वन अद्वितीय हैं । यहाँ २५ लाख कीट प्रजातियों के लिए घर है, पौधों के हजारों, और कुछ २,००० पक्षियों और स्तन-धारियों के ४०,००० प्रजातियों के पौधे, २२०० मछलियों, १,२९४ पक्षियों, ४२७ स्तनधारी, ४२८ उभयचर, सरीसृप और ३७८ वैज्ञानिक रूप से इस क्षेत्र में वर्गीकृत किया गया है।
दरअसल अमेजन के जंगल मे आग के पीछे का मुख्य कारण भौतिक विकास की अंधी दौड़ हैं । एक अनुमान के अनुसार पिछले पाँच दशको में अमेजन के जंगलों का १७ प्रतिशत इलाका नष्ट हो चुका है । इसका मुख्य कारण जंगल भूमि पर खेती और खनन का बढ़ता लोभ है। दरअसल एक सोचे समझे खेल के तहत अमेजन को नुकसान पहुंचाया जा रहा है ।
पर्यावरणविदों का अनुमान है खेती योग्य भूमि बढाकर निर्यात को बढावा देने के चक्कर में अमेजन के जंगलों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। जंगलों को जलाकर खेती योग्य भूमि का विकास किया जा रहा है। खेती योग्य जमीन बढ़ाने के लिए अमेजन के जंगलों में आग लगवायी जा रही है। पिछले कुछ वर्षो से ब्राजील में जंगल का वाणिज्यिक दोहन निरंतर बढ़ रहा है।
ब्राजील के राष्ट्रीय अंतरीक्ष अनुसंधान संस्थान के आंकड़े के अनुसार जनवरी २०१९ के बाद ब्राजील के इलाके मे आमेजन जंगल के अंदर ३ हजार वर्ग किलोमीटर का जंगल क्षेत्र आग के कारण नष्ट हो गया । पर्यावरण एजेंसियों के आंकड़ै बताते है कि पहले भी जंगल में मानवजनित आग लगायी जाती रही है । २०१३ में ब्राजील के आमेजन जंगल में ३९५८४ आग लगने की घटना हुई थी । २०१४ में आग लगने की ६२६९१ घटना सामने आयी । २०१५ में ५७५४५, २०१६ में ७६१८५, २०१७ में ५७८७० और २०१८ में ४५०८६ आग लगने की घटना आमेजन के जंगलों में हुई । लेकिन जायर बोलसोनारो के कार्यकाल में आग लगने का रिकार्ड टूट गया। २०१९ में जनवरी से जुलाई तक ८०६२६ आग लगने की घटना ब्राजील क्षेत्र के आमेजन जंगलों में घट चुकी है। अगर पिछले साल के आग की घटनाओं से इस साल की आग की घटनाओं की तुलना की जाए तो इसमें ८४ प्रतिशत की वृदि दर्ज की गई है।
विकास दर प्राप्त् करने की हर देश की अंधी दौड़ में अगर जंगल लगातार नष्ट हुए तो आने वाली पीढ़ीयों को प्राणवायु का संकट हो जाएगा । जैसे इस समय पेयजल का व्यापार पूरी दुनिया में हो रहा है वैसे भविष्य में आम आदमी को जीने के लिए जरूरी आक्सीजन का नया उद्योग खड़ा हो जाएगा ।
अमेजन के जंगल का महत्व इसी से समझ सकते है कि ५५ लाख वर्ग किलोमीटर में फैला अमेजन का विस्तार लैटिन अमेरिका के ९ देशों ब्राजील, बोलविया, पेरू, इक्वाडोर, कोलंबिया, वेनजुएला, सुरीनाम, फ्रेंच गुइआना और गुयाना तक है। अमेजन जंगल के इलाके से बड़ी नदियां गुजरती है।
अमेजन क्षेत्र में ३ करोड़ लोगों का निवास है। अमेजन में निवास करने वाले लोगों में २० लाख लोग स्थानीय ४०० देशज समुदाय से भी संबंधित है। इस इलाके में जानवरों की लगभग २००० प्रजातियों का निवास है । पूरी पृथ्वी की जैवविविधता का १० प्रतिशत आमेजन के जंगल में मौजूद है। अमेजन का जंगल पूरे वैश्विक वातावरण में २० प्रतिशत आक्सीजन का उत्पादन करता है। अगर सही शब्दों मे कहा जाए तो आमेजन के जंगल जलवायु परिवर्तन के प्रतिरोधक है। इसलिए मानव सभ्यता को बचाए रखने के लिए इस आमेजन को बचाए रखना जरूरी है। जलवायु परिवर्तन के प्रतिरोधक के रुप में अमेजन क्यों महत्वपूर्ण है, इसे संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के एक अध्ययन से समझा जा सकता है। अकादमी के अध्धयन के मुताबिक आमेजन के जंगल ९० से १४० साल तक का मानव उत्पादिक कार्बन डाइ-ऑक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता रखता है।
धरती का फेफड़ा कहे जाने वाले अमेजन के जंगलों में लगी आग पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है । इस आग को लेकर ब्राजील के राष्ट्रपति जैर बोल्सोनारो आलोचकों के निशाने पर हैं । दूसरी तरफ उनका कहना है कि आग को जबरन मुद्दा बनाया जा रहा है ताकि ब्राजील के आर्थिक विकास की गति को बाधित किया जा सके । यह हैरानी वाली बात है कि इस जंगल में इसी वर्ष ७२ हजार से अधिक आग लगने की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इनमें इस जंगल में लगी छोटी व बड़ी सभी तरह की आग को शामिल किया गया है। इसके अलावा इनमें इंसानों की गलती और प्राकृतिक तौर पर लगी आग भी शामिल हैं।
आम तौर पर शुष्क मौसम में जंगल में आग लगने की घटनाएं होती हैं। कई बार जान-बूझकर भी जंगलों में आग लगाई जाती है ताकि उस जमीन का प्रयोग खेती के लिए किया जा सके । ब्राजील के आईएनपीई का कहना है कि आग लगने की घटनाओं में वृद्धि अस्वाभाविक परिस्थितियों के कारण हो रही है। सामान्य मौसम में औसत से थोड़ी ही कम बारिश होने के बाद भी आग लगने की घटना हुई है।
अमेजन जीव पारिस्थितिकी के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है । पृथ्वी के ३० फीसदी से अधिक पेड़-पौधों और कीटों का निवास स्थान है। अमेजन में विश्व का १० फीसदी बायोमास (जीव ईंधन) है। इस कारण इन जंगलों में बड़ी मात्रा में पूरे विश्व का कॉर्बन रहता है। जंगल में लगी आग के कारण बड़े पैमाने पर जंगल से कॉर्बन उत्सर्जित होगा और यह ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ने का भी कारण है। अमेजन के जंगलों में ३९ हजार करोड़ पेड़ हैं और १६,००० से अधिक जीव प्रजातियां मौजूद हैं।
अमेजन की आग से सिर्फ ब्राजील के ही राज्यज प्रभावित नहीं हो रहे हैं बल्कि पेरू के सीमावर्ती राज्य भी इसकी मार झेल रहे हैं। ब्राजील के माटो ग्रासो और पारा में भी आग लगने की घटनाएं बढ़ी हैं। रिपोट्र्स की मानें तो यहां पर खेती के लिए धडल्ले से जंगलों को काटा जा रहा है। ऐसा करने वालों में यहां का स्थानीय लकड़ी माफिया भी शामिल है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि अमेजन के जंगल में आग प्राकृतिक तौर पर कम बल्कि षड़यंत्र के तौर पर ज्यादा लग रही है। इस बात को कहने का आधार मौसम है ।
जानकार मानते हैं कि अमेजन के जंगल में गर्मियों में आग लगना सामान्य घटना हो सकती है लेकिन यदि इसके अलावा इस तरह की भीषण आग लगती है तो इसकी वजह या तो मानवीय भूल हो सकती है या फिर षड़यंत्र । अगर इन मानवीय भूलों को नहीं सुधारा गया तो इसका खामियाजा आने वाली पीढ़ीयाँ भुगतेंगी ।
वातावरण
हवाई यातायात से बिगड़ता पर्यावरण
डॉ. ओ.पी. जोशी
एक जमाने में अमीरों के मंहगे परिवहन का सुविधाजनक साधन माना जाने वाला हवाई यातायात अब अनेक शहरों, व्यक्तियों के लिए आम बात हो गया है ।
बढ़ते हवाई यातायात में विभिन्न प्रकार के वायुयानों के उत्सर्जन से वायुमंडल में विभिन्न ऊंचाईयों पर एवं हवाई अड्डों के आसपास के क्षेत्रों में पर्यावरण बिगड़ रहा है। पर्यावरण वैज्ञानिकोंको डर है कि इस बढ़ते हवाई यातायात से आकाश में भी जाम की स्थिति पैदा न हो जाए ! अंतरराष्ट्रीय तथा घरेलू एयर लाइंस से जुड़ी कंपनियां अपने-अपने विमानों की संख्या लगातार बढ़ा रही हैं एवं निजी कंपनियां छोटे-छोटे शहरों में भी वायु सेवा देने हेतु प्रयासरत हैं। सरकार ने 'उड़ान` योजना प्रारंभ की है जिसके तहत उन क्षेत्रों को जोड़ा जायेगा जहां हवाई सम्पर्क कम या नहीं हैं। इसके साथ ही सुरक्षा हेतु एवं बढ़ते आतंकवाद के विरूद्ध विभिन्न देशों की वायु सेनाएं भी अपनी गतिविधियां बढ़ा रही हैं। एक अध्ययन के अनुसार भारतीय आकाश में वायुयानों की गतिविधियां १५ प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ रही हैं। हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक हवाई यात्राओं में लगभग ४० प्रतिशत की वृद्धि हुई है । विमानों के उड़ने, उतरने एवं अपने गंतव्य स्थान तक का सफर तय करने के दौरान उत्सर्जन से वायु मंडल के विभिन्न स्तर तथा हवाई अड्डों के आसपास के क्षेत्र प्रदूषित होते पाये गये हैं।
विमानों के इंजन की स्थिति तथा ईंधन (एयर टर्बाइन फ्यूल) की दहन-स्थिति के अनुसार, जो पदार्थ उत्सर्जित होते हैं, उनमें कार्बन डाय एवं मोनो-ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन्स, सल्फर डाय-ऑक्साइड, नाइट्रोजनऑक्साइडस, जलवाष्प, सीसा (लेड) तथा कार्बन के कण प्रमुख होते हैं। कार्बन मोनो-ऑक्साइड ऑक्सीजन के सम्पर्क से कार्बन डाय-ऑक्साइड में बदल जाती है जो एक प्रमुख 'ग्रीन-हाऊस गैस` है। 'लिपास्टो` नामक एक संस्था ने कुछ वर्ष पूर्व प्रारम्भिक तौर पर प्रति हवाई यात्री द्वारा पैदा कार्बन डाय-ऑक्साइड की गणना की थी ।
इस गणना के अनुसार घरेलू, कम दूरी की उड़ानों (लगभग ४६० किलोमीटर से कम) में २५७ ग्राम कार्बन डाय-ऑक्साइड प्रति यात्री उत्सर्जित होती है। बहुत लम्बी दूरी की अंर्तराष्ट्रीय उड़ानों में यह मात्रा घटकर ११५ ग्राम हो जाती है। यूरोपीय संघ में बढ़ते हवाई यातायात से १९९० से २००६ के मध्य प्रमुख 'ग्रीन-हाऊस गैस` कार्बन डाय-ऑक्साइड का उत्सर्जन ८० से ८५ प्रतिशत तक बढ़ा था। वर्ष २०१३ में जारी एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में हवाई सफर से प्रतिवर्ष लगभग दस लाख टन कार्बन डाय-ऑक्साइड पैदा होती है। वायुमंडल में बहुत ऊंचाई पर ठण्डे वातावरण में विमानों से निकली गर्म गैसों पर वहां उपस्थित जलवाष्प एकत्रित होकर (संघनित होकर) धुंए की एक बादल जैसी लकीर खींचती है जो हमें जमीन से भी दिखायी देती है ।
सेटेलाईट से प्राप्त् चित्र दर्शाते हैं कि भारी हवाई यातायात के क्षेत्रों में ये बादल जैसी लकीरें तेजी से काफी अधिक संख्या में निर्मित होकर लम्बे समय तकबनी रहती हैं। ये लकीरें दिन के समय सूर्य के प्रकाश की ऊष्मा या गर्मी को परावर्तित कर देती हैं, परंतु रात्रि के समय पृथ्वी (भूतल) से पैदा गर्मी को रोककर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में सहायता देती है। इंग्लैण्ड के कुछ विश्वविद्यालयों द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार ब्रिटेन के वार्षिक हवाई यातायात में रात्रि-कालीन उड़ानें केवल २२ प्रतिशत हैं, परंतु बादल जैसी लकीरों से पैदा गर्मी का योगदान ६० से ८० प्रतिशत तक होता है।
बढ़ते हवाई यातायात से हवाई अड्डों पर तथा इसके आसपास के क्षेत्रों में वायु एवं शोर प्रदूषण बढ़ जाता है। वायुयानों के उतरते तथा उड़ते समय प्रदूषित गैसों का उत्सर्जन चार गुना बढ़ जाता है। जेटयान से उत्सर्जित गैसों में बेंजापायरोन की उपस्थिति भी देखी गयी है जो कैंसर को जन्म देता है। घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय विमान तलों पर ज्यादा यातायात या मौसम की खराबी के कारण कई विमानों को उतरने की अनुमति नहीं दी जाती तो उन्हें इंतजार में आकाश में चक्कर लगाना पड़ते हैं जिससे विमान तल तथा आसपास की वायु की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। विमान तल पर यात्रियों को लेने एवं छोड़ने आये वाहनों से भी इस क्षेत्र में वायु एवं शोर प्रदूषण बढ़ जाता है। एयर टै्रफिक के समय कुछ देर के लिए शोर प्रदूषण का स्तर १०० डेसीबल तक पहुंच जाता है।
वैसे यह सुखद है कि हवाई यातायात से पैदा वायु प्रदूषण एवं शोर प्रदूषण पर ध्यान देकर अब रोकथाम के प्रयास प्रारंभ किये गये हैं। देश के 'नागर विमानन महानिदेशालय` (डीजीसीए) ने भारतीय विमानतलों पर विमानों के उड़ने एवं उतरने के समय पैदा शोर में कमी लाने के लिए सिविल एविएशन नियमों में अक्टूबर २०१७ से संशोधन किया है। यह संशोधन 'अंतर्राष्ट्रीय सिविल एविएशन आर्गेनाइजेशन` तथा 'एविएशन एनवायरनमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी` के सुझावों पर आधारित है। इसके साथ ही जनवरी २०१९ से भारतीय विमान सेवा कम्पनियों की अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के दौरान कार्बन डाय-ऑक्साइड के उत्सर्जन का रिकार्ड देने हेतु कहा है। '
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण` (एनजीटी) ने नागरिक उड्डयन मंत्रालय को वर्ष २०१७ में दिल्ली के 'इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे` पर शोर प्रदूषण कम करने का आदेश दिया था। आदेश के पालन में हवाई अड्डे के रनवे २९/११ पर शोर अवरोधक दीवार बनायी गई है जो लगभग एक किमी लम्बी तथा ५ फीट ऊंची है। इस दीवार को 'आयआयटी-दिल्ली` ने डिजाईन किया है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित पर्यावरण के सम्मेलनों में इस समस्या पर विचार-विमर्श कर हवाई यातायात के संदर्भ में पर्यावरण हितैषी नीतियां बनाकर उन पर अमल करने के प्रयासों पर जोर दिया जाना चाहिये। ग्लोबल वार्मिंग से जुड़े 'क्योटो-प्रोटोकोल` में भी इसे जगह दी जानी चाहिये।
प्रदेश चर्चा
उत्तराखंड : चारधाम रोड़ का संकट
सुरेश भाई
विशालकाय बांधों के बाद बेहद संवेदनशील पहाड़ों के साथ अब एक नया खेल शुरु हो रहा है-चार धाम के लिए चौड़ी सड़क के निर्माण का ।
आधुनिक विकास के नाम पर किए जा रहे इस कारनामे के लिए लाखों पेड़ों, संवेदनशील पहाड़ों, नदियों के प्राकृतिक रास्तों और पीढ़ियों से बसे आम लोगों की बलि दी जाएगी। मैदानी क्षेत्रों और पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील हिमालय इसकी कीमत कैसे चुकाएगा ?
पहाड़ से मैदान तक बाढ़ व भूस्खलन का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। पहाड़ों पर मिट्टी व पत्थरों को थामकर रखने वाली वनस्पति व पेड़-पौधे हर वर्ष आग में जल जाते हैं और नतीजे में भूस्खलन होता है। छोटे-बड़े भूकम्पों ने भी उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर जैसे इलाकों के पहाड़ों में दरारें पैदा कर रखी हैं, जिसमें बारिश का पानी एकत्रित होकर 'पनगोलों` के रूप में धरती को फाड़कर हर बार आपदा की स्थिति पैदा करता है।
पिछले माह तक केरल, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उतर-पूर्व, हिमाचल, बिहार आदि राज्यों में बाढ़ में फंसे लाखों लोगों में मरने वालों की संख्या ३०० के पार हो गई थी । पिछल्े दिनों उत्तराखण्ड के मोरी विकासखंड में भारी बारिश के चलते डेढ़ दर्जन लोग भूस्खलन की चपेट में आकर मरे हैं। इस दुखद घटना के प्रभावितों को राहत पहुँचाने गए एक हेलिकॉप्टर में तीन लोग मारे गए । लोगों की खेती-बाड़ी, मकान, रास्ते मलवे के ढेर में तब्दील हो गये हैं। यहां से होकर बहने वाली हिमाचल की पावर नदी और यमुना की सहायक टौंस नदी में आये जलप्रलय ने आगे हरियाणा में यमुना पर बने हथिनी कुंड बैराज में पानी बढ़ने से लगभग आठ लाख क्यूसेक पानी अकस्मात छोड़ा गया, जिससे गंगा-यमुना के मैदानी क्षेत्र और दिल्ली के लोगों को जानलेवा बाढ़ का सामना करना पड़ा। यह घटना हर वर्ष हो रही हैं। देश के मैदानी राज्यों में बाढ़ की वजह बांध और बैराजों से छोड़ा जा रहा पानी भी है।
साफ जाहिर है कि नदियों की बर्बादी हो रही हैं। जल-निकासी के रास्तों पर सीमेंट की बहुमंजिली इमारतें बन गई हैं। कुल मिलाकर वर्तमान जीवन शैली और अनियंत्रित विकास के अंधानुकरण ने जहां एक ओर जलप्रलय की स्थिति पैदा की हैं, वहीं साल के कई महिनों तक जल की भारी कमी भी लोग झेल रहे हैं। पहाड़ों में भी इसके कई उदाहरण हैं । छोटे आकार की घाटियों और चोटियों को नजरअंदाज करके चार धाम के लिये बनाई जा रही १८ मीटर चौड़ी सड़क बरसात के इस मौसम में मुसीबत बन गई है।
'केन्द्रीय सड़क एवं राजमार्ग मंत्री` नितिन गडकरी पहाड़ों में जिस हरित निर्माण तकनीक के आधार पर सड़कों के चौडीकरण का दावा कर रहे हैं, उसके विपरीत केदारनाथ, यमनोत्री, गंगोत्री, बद्रीनाथ जाने वाली मोटर सड़क के चौडीकरण के निर्माण से निकल रहा मलवा सीधे भागीरथी, अलकनंदा, यमुना, मंदाकिनी में उडेला जा रहा हैं। कहीं-कहीं दिखाने के लिए डंपिंग-यार्ड बनाए गए हैं, लेकिन उनकी क्षमता पूरे मलवे को समेटने की नहीं है। गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बडेथी, धरासू और अन्य कई स्थानों पर डंपिंग-यार्डों की चिंताजनक स्थिति है। खतरनाक क्षेत्रों (डेन्जर जोन्स) के सुधार पर करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद भी भूस्खलन बढ़ता ही जा रहा है।
स्थानीय मीडिया और प्रशासन की सतर्कता के बाद भी सड़क चौडीकरण का मलवा नदियों में जाने से नहीं रोका जा सका है। इसके कारण टिहरी बाँध के जलाशय में बड़ी मात्रा में रेत जमा होती जा रही है। दूसरी ओर बाँध के चारों ओर भूस्खलन दिखाई दे रहा है। यहां बसे हुए गांवों के अस्तित्व पर संकट बना हुआ है। यमुना के मायके में स्थित औजरी-डाबरकोट भूस्खलन यमनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर पिछले २-३ वर्षों से लगातार जारी है।
सच्चई यह है कि संवेदनशील पहाड़ों में भूस्खलन रोकने के लिए निर्माण की वैज्ञानिक तकनीक पर कभी सोचा ही नहीं गया है। यहां निर्माण शुरू होते ही संवेदनशील जगहों पर बड़ी जेसीबी मशीनों से खुदाई शुरू हो जाती है। इसके चलते पहाड़ों की ढालदार कटिंग करने की बजाय जल्दी काम पूरा करने के चक्कर में वे खड़े में काट दिए जाते हैं जो आगे जाकर पूरे पहाड़ को ही टूटने के लिए मजबूर कर देते हैं। इसी कारण वर्ष २०१८ तक चार-धाम की सड़कों पर केवल तीन दर्जन खतरनाक क्षेत्र (डेंजर जोन्स) बढ़कर अब दुगने से अधिक हो गए हैं।
ऋषिकेश-चंबा-धरासू राष्ट्रीय राज मार्ग पर सड़क चौड़ीकरण से नरेन्द्र नगर बाईपास, हिंडोलाखाल, फकोट, आगराखाल, ताछला, उपरी खाडी, ढिक्यारा, डाबरी, कोटी गाड, किरगणी आदि स्थानों पर खतरनाक क्षेत्र (डेंजर जोन्स) बन गये हैं। पिछले दिनों यहां पर पहाड़ से पत्थर गिरने से चार कावडियों ने अपनी जान गंवाई है। इसी तरह बद्रीनाथ के पास लामबगड में यात्री बस पर चट्टान गिरने से छह लोगों की मौत हुई है। यहां कई स्थानों पर लोगों के व्यावसायिक होटल, घर, खेती बर्बाद हो गई है । इसी तरह बद्रीनाथ मार्ग पर कालेश्वर भंकुडा, देवली बगड, सोनला, पुरसाडी, मैठाणा, चमोलीचाडा, पातालगंगा, गुलाबकोटी भी 'डेंजर जांेन` का रूप ले रहे हैं। सिरोह बगड, लामबगड जैसे बड़े भूस्खलन पूर्व में सड़क निर्माण के दौरान किये गये विस्फोटों से सक्रिय थे, अब वे जानलेवा बन गये हैं। रूद्र प्रयाग-गौरीकुंड राष्ट्रीय राजमार्ग पर बांसवाडा समेत दर्जनों स्थानों पर भूस्खलन सक्रिय हैं।
चार धाम सड़क चौडीकरण जिसे 'ऑल-वेदर रोड` के नाम से ख्याति तो मिली है, लेकिन इसको 'डेंजर झोन` से मुक्ति नहीं मिली तो यह सभी मौसमों का सामना कैसे करेगी ? यहां 'डेजर जोन` बनने का एक और भी कारण हैं कि मौजूदा सड़क के दोनों ओर हजारों हरे पेड़ों को काटा गया है और भविष्य में भी हजारों दुर्लभ प्रजाति के पेड़ काटे जाने प्रस्तावित हैं। प्रख्यात पर्यावरणविद् चंडीप्रसाद भट्ट, गांधीवादी राधा बहन, भूगर्भवेत्ता पद्मभूषण खडग सिंह बाल्दिया जैसे गणमान्यों ने भूगर्भीय दृष्टि से संवेदनशील इस जोन-४-५ में चौडी सड़क के निर्माण के दौरान पर्यावरण के नुकसान के प्रति केन्द्र सरकार को अगाह किया था। पहाड़ी राज्यों में निश्चित ही दुर्गम स्थानों को पार करने के लिए सड़क की आवश्यकता है, लेकिन सड़कों का निर्माण पहाडों की बर्बादी का कारण नहीं बनना चाहिए ।
उच्च् अदालतें भी इस विषय पर सचेत करती रहती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त २०१९ के तीसरे सप्ताह में 'सिटिजन फॉर ग्रीन दून` की एक याचिका पर ऑलवेदर रोड में पर्यावरण मानकों के अध्ययन के लिए एक उच्चधिकार समिति बनाने का आदेश दिया है। इसी तरह का एक आदेश वर्ष २०१३ की केदारनाथ आपदा के कारणों के अध्ययन के लिये एक विशेषज्ञ समिति को बनाकर भी दिया गया था । इस समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिये बहुत उत्साह भी दिखाया गया था, लेकिन जब सही वक्त पर इसे क्रियान्वयन किया जाना था तब उससे किनाराकसी कर ली गई ।
अब इसे केवल जलवायु परिवर्तन कहकर मनुष्य की कारगुजारियों से पल्ला झाडा जा रहा है। ऐसे उदाहरणों से लगता है प्रकृति के रौद्र रूप का सामना करने के लिये कोई तैयारी ही नहीं की जा रही।
पर्यावरण परिक्रमा
बंजर जमीन की बदलेगी सूरत
देश में बंजर जमीन के संबंध मेंकेन्द्र सरकार ने बड़ा ऐलान किया है । वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर का कहना है कि केन्द्र सरकार अगले १० वर्षो में ५० लाख हेक्टेयर बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने का काम करेगी ।
इसके साथ ही उन्होंने बताया कि संयुक्त राष्ट्र सीसीडी कॉप १४ की बैठक सितम्बर के महीने में होने वाली है । इस बैठक में अलग-अलग देशों के वैज्ञानिक आधुनिक तकनीकों के बारे में भी बताएंगे । केन्द्र सरकार बंजर जमीन के संबंध मेंयूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन के समझौता भी करेगी । सरकार नई दिल्ली डेक्लरेशन के बताए गए कायदों केहिसाब से आगे बढ़ेगी जिसमें देहरादून स्थित फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में सेन्टर आफ एक्सीलेंस का गठन होगा ।
एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में करीब १.६० करोड़ हेक्टेयर जमीन बंजर है । इस जमीन को खेती के योग्य बनाने के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारेंआपस में मिलकर काम करेगी । यूएनसी-सीडी कॉप १४ में दुनिया के करीब २०० देश हिस्सा लेंगे । उन्होंने कहा कि ब्राजील के रियोड डी जेनेरियो के बाद इस तरह की बड़ी बैठक का प्रयास किया जा रहा है । भारत २०२१ तक यूएनसीसीडी का अगुवाई करेगा । ग्रेटर नोएडा में प्रस्तावित इस बैठक में करीब १०० देशों के मंत्री भी शामिल होगे । इसके साथ ही करीब तीन हजार डेलीगेट्स भी हिस्सा लेगें । इस बैठक को इसलिए भी अहम बताया जा रहा क्योंकि भारत में छोटे और सीमांत किसानों की तादाद ज्यादा है । अगर बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने का अभियान कामयाब हुआ तो न केवल किसानों की आय में इजाफा होगा बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था को और रफ्तार मिलेगी ।
गैंडों को बचाए रखने के लिए बाढ़ जरूरी
पिछले कई साल की तरह इस साल भी असम में विनाशकारी बाढ़ में विश्व प्रसिद्ध कांजीरंगा नेशनल पार्क के २०० से अधिक जंगली जानवरों की जानें गई है । इनमें विलुप्त् हो रही प्रजाति के एक सींग वाले २० गैंडों के साथ १०० हॉग डियर और कुछ अन्य प्रजातियां शामिल हैं । बाढ़ के बीच एक रॉयल बंगाल टाइगर सबसे ज्यादा चर्चा मे रहा, जो बाढ़ से बचने के लिए पास के एक घर में जाकर बैठ गया था । इससे साफ पता चल रहा था कि पार्क के जानवर किस कदर बाढ़ से प्रभावित थे । कई लोगों का मानना है कि बाढ़ से नेशनल पार्क को बचाने की कोशिशें नहीं की गई । पर विशेषज्ञों का मानना है कि बाढ़ नहीं आती, तो पार्क में विशेष रूप से गैंडे और भैंसे जैसे अन्य जानवरों का अस्तित्व ही नहीं होता।
काजीरंगा नेशनल पार्क के डायरेक्टर पी शिवकुमार ने बताया कि पार्क में ग्रासलैंड ईको-सिस्टम है, इसके बने रहने पर ही शाकाहारी जानवर बच सकते है । ब्रह्मापुत्र की बाढ़ हर साल जमीन को साफ कर कुछ विलुप्त् होती प्रजातियोंको जीवनदान दे जाती है । पोषक तत्व से भरपूर यह जमीन चरने वाले पशुआें को चारा देती है । ऊंची-ऊंची घास शिकारी जानवरों को छुपकर शिकार करने का सहारा भी बनती है ।
हर साल बढ़ा जलीय स्त्रोतों में बड़ी संख्या में पोषक तत्व भर देती है । इससे पानी में रहने वाली कई प्रजातियां सुरक्षित हो जाती है । इन्हीं स्त्रोतों में हजारों किमी से प्रवासी पक्षी भी आते है ।
वाइल्ड लाइफ बायोलॉ-जिस्ट और पार्क में वन्यजीव पुनर्वास और संरक्षण केन्द्र के प्रमुख डॉ. रथिन बर्मन का कहनाहै कि बाढ़ यहां के ईको सिस्टम की रीढ़ है । बाढ़ अच्छी है, बशर्ते है कि बाढ़ के समय हाइलैड्स पर जानवरों को सुरक्षित रख सकें । लेकिन ब्रह्मपुत्र के ऊपरी हिस्से में बन रहे बांध से समस्या हो सकती है, इससे कुछ ही समय में काजीरंगा के निचले हिस्से को खतरा हो सकता है ।
बाढ़ से इस साल नेशनल पार्क का ९० प्रतिशत हिस्सा डूब गया था । पार्क में २४१४ गैंडे है, १०८० हाथी, ११० बाघ और ९०७ स्वैम्प डियर है । पार्क में १४० हाइलैंड्स हैं, जहां बाढ़ के दौरान जानवर शरण लेते है । इस साल पार्क का ९० प्रतिशत हिस्सा डूब गया था । इससे जानवरों ने हाइलैंड्स मेें शरण ली थी ।
प्लास्टिक के विरूद्ध अभियान
देश में आगामी २ अक्टूबर से भारत में प्लास्टिक के खिलाफ अभियान चलाया जाएगा । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन की बात में इस आशय की घोषणा की । भारत में हर रोज करीब २६ हजार टन प्लास्टिक इस्तेमाल हो रहा है । इस प्लास्टिक से पदार्थ निकलकर चुपचाप हमारी सांस और पीने की पानी तक में घुलता रहता है और हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है । न केवल मानव, बल्कि धरती के दूसरे प्राणी और पेड़-पौधें भी इससे प्रभावित होते है । प्लास्टिक से कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी तक हो सकती है । प्लास्ट इंडिया फाउंडेशन के अनुसार अभी जितनी प्लास्टिक की खपत हो रही है २०२० तक वह डेढ़ गुना तक हो सकती है । जाहिर है कि जब इतनी प्लास्टिक ही हम सहन नहीं कर पा रहे है तो आगे जाकर क्या होगा ? इसीलिए प्लास्टिक के खिलाफ अभियान चलाने का फैसला किया गया है ।
प्लास्टिक की कुछ वस्तुएं हमारे जीवन में उपयोगी है, लेकिन एक समय के लिए इस्तेमाल होना वाला प्लास्टिक कई घातक बीमारियोंको जन्म दे रहा है, जिससे लड़ने के लिए खरबों रूपए खर्च करने पड़ रहे है । न्यूर्याक स्टेट यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में खुलासा किया है कि बोतलबंद पानी में जैसे ही सूर्य की किरणें पहुंचती है, प्लास्टिक के माइक्रोकण पानी में मिल जाते है । वैज्ञानिकों का कहना है कि प्लास्टिक की बोतलों में ठंडे पदार्थ रखना उतना खतरनाक नहीं हैं, लेकिन आज कल शहरों में चाय की दुकान वाले प्लास्टिक की पन्नी में गर्म चाय ग्राहकों को पैक करके दे देते है । इतना ही नहीं प्लास्टिक के कप में गर्म चाय-कॉफी और सूप जैसे पदार्थ भी सर्व किए जा रहे है । यह सब स्वास्थ्य के लिए घातक है । डॉक्टर्स भी चेतावनी दे चुके है कि प्लास्टिक के कप और ग्लास की खपत बढ़ती जा रही है । मिट्टी के कुल्हड़ का उपयोग धीरे-धीरे कम होता जा रहा था, लेकिन अब लोगों का ध्यान वापस कुल्हड़ की तरफ आने लगा है । कई पर्यावरण प्रेमी तो मिट्टी के बर्तनों में पकाया खाना पसंद करने लगे है ।
यह बात सही है कि प्लास्टिक सस्ता है और सुगमता से उपलब्ध है, लेकिन प्लास्टिक के कचरेका निपटारा एक चुनौती बन गया है । यहां-वहां उड़ता प्लास्टिक का कचरा न केवल गांवोंऔर नगरों को बल्कि वनों और समुद्र को भी नुकसान पहुंचा रहा है । कई राज्यों ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने की पहल की है, लेकिन प्लास्टिक को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता । दुर्भाग्य की बात है कि स्थानीय उत्पादक से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां तक छोटे-छोटे पाउच में गुटखा, शैम्पू, तेल आदि पदार्थ बेचने लगे है । उपयोग के बाद खाली पाउच हवा मेंयहां-वहां उडते रहते हैं और नालियों को चोक करते रहते है ।
नगर पालिकाआें, नगर निगमों आदि के लिए ऐसे कचरे का प्रबंध चुनौती बन गया है । पर्यटन केन्द्रों में तो यह चुनौती और भी अधिक है । वक्त आ गया है कि समस्या से निपटने के लिए पुरानी तकनीकों पर ही लौटा जाए । जैसे कुल्हड़ और पलाश के पत्तों से बने पत्तल दोनों का प्रयोग । कुछ दशक पहले तक रेल यात्री अपने साथ अपना धातु का ग्लास लेकर यात्रा करते थे और जरूरत पड़ने पर उसी में चाय या पानी पी लेते थे, लेकिन धीरे-धीरे यात्रियों की सुविधा के नाम पर खाद्य पदार्थो की बिक्री बढ़ने लगी ।
आमआदमी के मन मेंयह सवाल आना स्वाभाविक है कि अगर प्लास्टिक इतना बड़ा खतरा है, जिसकी चिंता प्रधानमंत्री तक को है और इस खतरे के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया जा रहा है, तो आखिर ऐसे प्लास्टिक के सामान का उत्पादन ही क्योंकरने दिया जा रहा है ? तम्बाखू और सिगरेट की तरह ही प्लास्टिक के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है, लेकिन प्लास्टिक के उत्पादन पर कोई रोक नहीं है । जैसे तम्बाखू और सिगरेट के उत्पादन पर रोक नहीं है, लेकिन चेतावनियां बार-बार दी जा रही है । अगर उत्पादन ही बंद कर दिया जाए तो, समस्या से निपटा जा सकता है, लेकिन इसके लिए सरकार को संकल्पित होकर कार्य करना होगा ।
अब शगुन बताएगा स्कूलोंके सारे गुण
भारत सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने स्कूलोंसे जुड़ी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए शगुन नाम से एक एकीकृत आनलाईन पोर्टल लॉन्च किया है । इस पोर्टल से देशभर के सभी १५ लाख स्कूलों, ९० लाख से ज्यादा शिक्षकों और करीब २५ करोड़ छात्रों को जोड़ा गया है । इनमें निजी और सरकारी स्कूलों सहित स्कूली शिक्षा से जुड़े संस्थाआें को शामिल किया गया है ।
मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने पिछले दिनों स्कूली शिक्षा पर निगरानी रखने के लिए इस एकीकृत पोर्टल को लांच किया । इस पोर्टल में शिकायत और सुझाव का भी विकल्प रखा गया है, जिसके जरिए कोई भी छात्र, अभिभावक या कोई अन्य व्यक्ति अपनी शिकायत का सुझाव दे सकेंगे । शगुन के जरिये स्कूली शिक्षा से जुडी करबी दो लाख वेबसाइटों को एक साथ जोड़ा गया है ।
वानिकी जगत
जंगल बसाए जा सकते हैं
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
औद्योगिक विकास और उपभोक्ता मांग के कारण बढ़ता वैश्विक तापमान दुनिया भर में तबाही मचा रहा है। विश्व में तापमान बढ़ता जा रहा है, दक्षिण चीन और पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ कहर बरपा रही है, बे-मौसम बारिश हो रही है, और विडंबना देखिए कि बारिश के मौसम में देर से और मामूली बारिश हो रही है।
इस तरह के जलवायु परिवर्तन को थामने का एक उपाय है तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों, खासकर कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को कम करना। बढ़ते वैश्विक तापमान को सीमित करने के प्रयास में दुनिया के कई देश एकजुट हुए हैं। कोशिश यह है कि साल २०५० तक तापमान वृद्धि १.५ डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो।
कार्बन डाईऑक्साइड कम करने का एक प्रमुख तरीका है पेड़-पौधों की संख्या और वन क्षेत्र बढ़ाना । पेड़-पौधे हवा से कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, और सूर्य के प्रकाश और पानी का उपयोग कर (हमारे लिए) भोजन और ऑक्सीजन बनाते हैं। पेड़ों से प्राप्त् लकडी का उपयोग हम इमारतें और फर्नीचर बनाने में करते हैं। संस्कृत में कल्पतरू की कल्पना की गई है - इच्छा पूरी करने वाला पेड़ ।
फिर भी हम इन्हें मार (काट) रहे हैं: पूरे विश्व में दशकों से लगातार वनों की कटाई हो रही है जिससे मौसम, पौधों, जानवरों, सूक्ष्मजीवों का जीवन और जंगलों में रहने वाले मनुष्योंकी आजीविका प्रभावित हो रही है। पृथ्वी का कुल भू-क्षेत्र ५२ अरब हैक्टर है,इसका ३१ प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र रहा है। व्यावसायिक उद्देश्य से दक्षिणी अमेरिका के अमेजन वन का बड़ा हिस्सा काटा जा रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई से पश्चिमी अमेजन क्षेत्र के पेरू और बोलीविया बुरी तरह प्रभावित हैं। यही हाल मेक्सिको और उसके पड़ोसी क्षेत्र मेसोअमेरिका का है। रूस, जिसका लगभग ४५ प्रतिशत भू-क्षेत्र वन है, भी पेड़ों की कटाई कर रहा है। बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई ने ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दिया है।
खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार वन का मतलब है कम से कम ०.५ हैक्टर में फैला ऐसा भू-क्षेत्र जिसके कम से कम १० प्रतिशत हिस्से में पेड़ हों, और जिस पर कृषि सम्बन्धी गतिविधिया मानव बसाहट ना हो। इस परिभाषा की मदद से स्विस और फ्रांसिसी पर्यावरणविदों के समूह ने ४.४ अरब हैक्टर में छाए वृक्षाच्छादन का विश्लेषण किया जो मौजूदा जलवायु में संभव है। उन्होंने पाया कि यदि मौजूदा पेड़ और कृषि सम्बंधित क्षेत्र और शहरी क्षेत्रों को हटा दें तो भी ०.९ अरब हैक्टर से अधिक भूमि वृक्षारोपण के लिए उपलब्ध है। नवीनतम तरीकों से किया गया यह अध्ययन साइंस पत्रिका के ५ जुलाई के अंक में प्रकाशित हुआ है। यानी विश्व स्तर पर वनीकरण करके जलवायु परिवर्तन धीमा करने की संभावना मौजूद है। शोधकर्ताओं के अनुसार ५० प्रतिशत से अधिक वनीकरण की संभावना ६ देशों - रूस, ब्राजील, चीन, यूएसए, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह भूमि निजी है या सार्वजनिक, लेकिन उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि १ अरब हैक्टर में वनीकरण (१० प्रतिशत से अधिक वनाच्छादन के साथ) संभव है।
खुशी की बात यह है कि कई देशों के कुछ समूह और सरकारों ने वृक्षारोपण की ओर रुख किया है। इनमें खास तौर से फिलीपाइन्स और भारत की कई राज्य सरकारें (फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट और डाउन टू अर्थ के विश्लेषण के अनुसार) शामिल हैं।
भारत का भू-क्षेत्र ३२,८७,५६९ वर्ग किलोमीटर है, जिसका २१.५४ प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। वर्ष २०१५ से २०१८ के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग ६७७८ वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। सबसे अधिक वन क्षेत्र मध्यप्रदेश में है, इसके बाद छत्तीसगढ़, उड़ीसा और अरुणाचल प्रदेश आते हैं। दूसरी ओर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में सबसे कम वन क्षेत्र है।
आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और उड़ीसा ने अपने वनों में वृक्षाच्छादन को थोड़ा बढ़ाया है (१० प्रतिशत से कम) । कुछ निजी समूह जैसे लुधियाना का गुरू नानक सेक्रेड फॉरेस्ट, रायपुर के मध्य स्थित दी मिडिल ऑफ द टाउन फॉरेस्ट, शुभेन्दु शर्मा का अफॉरेस्ट समूह उल्लेखनीय गैर-सरकारी पहल हैं। आप भी इस तरह के कुछ और समूह के बारे में जानते ही होंगे। (और, हम शतायु सालुमरदा तिमक्का को कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने लगभग ३८५ बरगद और ८००० अन्य वृक्ष लगाए, या उत्तराखंड के चिपको आंदोलन से जुड़े सुन्दरलाल बहुगुणा को?) ।
लेकिन वनीकरण की सबसे उम्दा मिसाल है फिलीपाइन्स । फिलीपाइन्स ७१०० द्वीपों का समूह है जिसका कुल भू-क्षेत्र लगभग तीन लाख वर्ग किलोमीटर है और आबादी लगभग १० करोड़ ४० लाख । १९०० में फिलीपाइन्स में लगभग ६५ प्रतिशत वन क्षेत्र था। इसके बाद बड़े पैमाने पर लगातार हुई कटाई से १९८७ में यह वन क्षेत्र घटकर सिर्फ २१ प्रतिशत रह गया। तब वहां की सरकार स्वयं वनीकरण करने के लिए प्रतिबद्ध हुई । नतीजतन वर्ष २०१० में वन क्षेत्र बढ़कर २६ प्रतिशत हो गया। और अब वहां की सरकार ने एक और उल्लेखनीय कार्यक्रम चलाया है जिसमें प्राथमिक, हाईस्कूल और कॉलेज के प्रत्येक छात्र को उत्तीर्ण होने के पहले १० पेड़ लगाना अनिवार्य है। कहां और कौन-से पौधे लगाने हैं, इसके बारे में छात्रों का मार्गदर्शन किया जाता है । इस प्रस्ताव के प्रवर्तक गैरी एलेजैनो का इस बात पर जोर था कि शिक्षा प्रणाली युवाओं में प्राकृतिक संसाधनों के नैतिक और किफायती उपयोग के प्रति जागरूकता पैदा करने का माध्यम बननी चाहिए ताकि सामाजिक रूप से जिम्मेदार और जागरूक नागरिकों का निर्माण हो सके ।
यह हमारे भारतीय छात्रों के लिए एक बेहतरीन मिसाल है। मैंने सिफारिश की है कि इस मॉडल को राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०१९ में जोड़ा जाए, ताकि हमारे युवा फिलीपाइन्स के इस प्रयोग से सीखें और अपनाएं ।
सामाजिक पर्यावरण
पेड़ लगाना भी राष्ट्रवाद है
पवन नागर
लगातार बढ़ती आबादी के दबाव और येन-केन-प्रकारेण जीडीपी को बढ़ाते जाने की अंधी महत्वाकांक्षा वाले वर्तमान दौर में हर किसी पर औद्योगिक क्रांति का भूत सवार है और इसीलिए जंगलों और पहाड़ों को काटकर बड़े-बड़े कारखाने लगाए जा रहे हैं, बड़े-बड़े बाँध बनाए जा रहे हैं, खनिज निकाले जा रहे हैं, टाऊनशिप बनाई जा रही हैं। बहुत से राज्यों से आए दिन खबरें आती रहती हैं कि किस तरह जंगल माफिया, खनिज माफिया, भू-माफिया तथा रेत माफिया मिलकर जंगल, नदी, पहाड़ और खेतों को तबाह करने में जुटे हुए हैं ।
हरे-भरे वृक्षों को बेरहमी से काटने वाले हम मनुष्यों को यह भी होश नहीं है कि यही पेड़-पौधे वातावरण में ऑक्सीजन के एक मात्र उत्पादक हैं, इन्हीं की वजह से बारिश होती है और इन्हीं की वजह से मिट्टी में नमी बरकरार रहती है। हमारी सारी धन-दौलत मिलकर भी वह वातावरण पैदा नहीं कर सकती जो हमारे जिंदा रहने के लिए जरूरी है और जो केवल और केवल पेड़-पौधे हमारे लिए निर्मित करते हैं- बदले में बिना कुछ मांगे । जो काम ये पेड़-पौधे करते हैं वह आधुनिकतम वैज्ञानिक तकनीक से भी संभव नहीं है।
यदि इसी प्रकार हम अपने जंगलों व पहाड़ों को नष्ट करते रहे और पर्यावरण में प्रदूषण फैलाते रहे, तो दिनों-दिन धरती का तापमान बढ़ता जाएगा और मौसम-चक्र प्रभावित होगा । कहीं जरूरत से ज्यादा गर्मी पड़ेगी तो कहीं जरूरत से ज्यादा ठण्ड । कहीं बेलगाम बाढ़ें आएँगी तो कहीं भीषण सूखा पड़ेगा । उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, केरल सरीखे विभिन्न राज्यों की त्रासदियाँ इसी तरह की चेतावनियाँ हैं और इस सबका प्रतिकूल प्रभाव फसलों के उत्पादन पर भी पड़ेगा, फलस्वरूप खाद्य-संकट पैदा होगा। यदि प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का हमारा लालच और विकास की अंधी महत्वाकांक्षा इसी तरह बेलगाम बढ़ते रहे तो बहुत जल्द सब कुछ तबाह हो जाएगा ।
पहले के समय में किसान अपने खेतों की मेढ़ों पर बबूल, सागौन, नीम, साल इत्यादि के पेड़ लगाया करते थे क्योंकि वे जानते थे ये पेड़ न केवल मिट्टी के कटाव को रोकते हैं बल्कि मिट्टी में नमी का अपेक्षित स्तर भी बनाए रखते हैं। नहरों के किनारे सीताफल, आम, कटहल, जाम, जामुन इत्यादि फलदार वृक्ष लगाए जाते थे, क्योंकि प्रकृति से जुड़ाव रखने वाला पहले का किसान जानता था कि इन वृक्षों पर रहने वाले पक्षी कीड़ों को खाकर मुफ्त में उसकी फसल की रक्षा करते हैं और उसे कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं पड़ती ।
अब हम भूल रहे हैं कि हमारे आसपास मौजूद हरियाली हमारे लिए एक मजबूत सुरक्षा-कवच का काम करती है और हमें हर तरह के प्रदूषण तथा उनसे पैदा होने वाली असाध्य बीमारियों से बचाती है । जब तक पेड़ हैं, तब तक हम निश्चिंत हैं। एक पेड़ अपनी पूरी जिंदगी में हजारों मनुष्यों तथा अन्य जीव-जंतुओं को जीवन देता है, लेकिन हम चंद रुपयों के लालच में उसे काट डालने से बाज नहीं आ रहे।
यदि हर मनुष्य, हर किसान और हर परिवार यह निश्चय कर ले कि वह अपने जीवनकाल में कम-से-कम एक पेड़ अवश्य लगाएगा और उसका पालन-पोषण करेगा, तो कुछ ही वर्षों में यह पूरी भारत भूमि पुन: हरी-भरी और समृद्ध हो सकती है। सोचिए, यदि एक किसान परिवार अपने खेत में चार पेड़ (परिवार के प्रत्येक सदस्य के हिसाब से) भी लगा ले और उसके गाँव में यदि कुल २०० परिवार हों, तो उस क्षेत्र में कम-से-कम ८०० पेड़ लहलहाते नजर आएँगे। कितना हरा-भरा और सुरम्य हो उठेगा, वहाँ का वातावरण ! प्रकृति हर वर्ष वर्षा ऋतु में हमें एक अवसर देती है कि हम अपने आसपास उपलब्ध जगह में पेड़-पौधे लगाकर वातावरण को अनुकूल बनाने में योगदान कर सकें । हमें इस मौके को अवश्य भुनाना चाहिए और अपने घर या आस-पड़ौस में कोई उपयुक्त स्थान देखकर वृक्षारोपण अवश्य करना चाहिए । भारत देश में जगह की कमी नहीं है। कमी है केवल अच्छी, सच्ची सोच की और मानदारी से प्रयास करने की ।
सरकारों के पास किसी भी नियम या अभियान को अमल में लाने के सारे संसाधन उपलब्ध हैं इसलिए केन्द्रीय और राज्य सरकारों के लिए एक सुझाव है कि वे हर राष्ट्रीय और सामुदायिक त्यौहारों पर हर साल पेड लगाने का अभियान चलाएं । यदि इस सुझाव पर सही तरीके से अमल किया जाये तो हिंदुस्तान में इतने पेड़ लग जायेंगे कि कभी सरकार के जिम्मेदारों ने कल्पना भी नहीं की होगी, मसलन १५ अगस्त को हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं जिसे पूरे देश में बड़े ही जोश, उत्साह और धूम-धाम से मनाया जाता है। ऐसे पर्व को मनाने में सब सरकारें खूब खर्चा करती हैं । यह उत्सव सभी स्कूलों के साथ-साथ सभी सरकारी दफ्तरों और पूरे देश में जोश से मनाया जाता है ।
इसमें हर उम्र, वर्ग के लोग शामिल होंगे और बढ़-चढ़कर हिस्सा लेंगे। 'स्वतंत्रता दिवस` सावन महीने में आता है और सावन के महीने में वर्षा भी खूब होती है, सरकार को इसी मौके को भुनाना है और एक अभियान `आजादी भी और हरियाली भी` छेड़ देना है। आजादी के महापर्व को सुबह के समय 'स्वतंत्रता दिवस` मनाने के बाद दिनभर सभी पेड़ लगाएं । इस दिन पूरे देश में वैसे भी अवकाश रहता है और यदि पेड़ लगाने को भी राष्ट्रीयता के साथ जोड़ दिया जाए तो भारत को हरा-भरा होने में देर नहीं लगेगी । पेड़ लगाना भी एक तरह का राष्ट्रवाद ही है जो राष्ट्र की तरक् की से जुडा है।
सोचिये, हर १५ अगस्त को पूरे भारत में हरियाली अभियान से कितने ही पेड़ों की संख्या बढ़ती जाएगी। लगभग हर नागरिक और सरकार की इसमें भागीदारी होगी । इसे अमल में लाना भी बहुत ही आसान होगा। इस प्रकार हम राष्ट्र निर्माण में तो सहयोग देंगे ही साथ-ही-साथ प्रकृति की सुरक्षा में भी योगदान दे पायेंगे। इससे वन क्षेत्र को बढ़ा सकते हैं और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को भी कम कर सकते हैं। अधिक पेड़ होने से तापमान भी कम हो जायेगा और सभी राज्यों में वन क्षेत्र बढ़ेगा तो कहीं ज्यादा, कहीं कम बारिश की परेशानी भी खत्म हो जाएगी ।
ज्ञान विज्ञान
इंसान भी बदल सकेंगे गिरगिट की तरह रंग
ब्रिटेन के वैज्ञानिकोंने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है । उन्होंने गिरगिट के रंग बदलने की अद्भुत क्षमता को इंसानों के लिए विकसित किया है । कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताआेंने एक ऐसी कृत्रिम त्वचा बनाई है, जो प्रकाश के संपर्क में आने पर गिरगिट की तरह अपना रंग बदल सकती है ।
उनका दावा है कि भविष्य में इस तकनीक को और उन्नत बनाकर सैनिकों को दुश्मनों के आघात से बचाया जा सकता है, क्योंकि यह सामग्री छद्म आवरण बनाकर दुश्मनों को भ्रमित कर सकती है ।
इस त्वचा को बनाने के लिए शोधकर्ताआें ने सोने के महीन कणों को पॉलीमर सेल से कोट किया । इसके बाद पानी की बूंदों के संपर्क मेंलाकर इसे एक पतली ऑयल शीट में पैक कर दिया गया । जब वातावरण में गर्मी बढ़ती है और इसे प्रकाश के संपर्क मेंलाया जाता है तो सोने के महीन कण फैलकर आपस में मिलते हैं और पानी को बाहर निकाल देते हैं । इस दौरान इसका रंग लाल हो जाता हैं । वातावरण ठंडा होने पर ये कण फिर सिकुड़ने लगते है, जिससे इसका रंग गहरा नीला हो जाता है ।
शोधकर्ताआें ने कहा कि प्रकृति में दो जीव, गिरगिट और कटल्फिश (समुद्रीफेनी)में ऐसी क्षमता होती है कि ये आसानी से अपने शरीर का रंग बदल कर शिकारी जीवों को भ्रम में डालकर खुद की जान बचाते हैं ।
भारत सल्फर डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता
भारत, दुनिया में मानवजनित सल्फर डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता है, जो कोयला जलाने से उत्पन्न होता है और वायु प्रदूषण में इसकी हिस्सेदारी बहुत अधिक होती है । एक अध्ययन में यह दावा किया गया ।
पर्यावरण संरक्षण से जुड़े एनजीओ ग्रीनपीस द्वारा पिछले दिनों जारी किए गए नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के आंकड़ो के एक विश्लेषण के अनुसार, ओएमआई (ओजोन मॉनिटरिंग इंस्ट्रूमेंट) उपग्रह द्वारा पता लगाए गए दुनिया के सभी मानवजनित सल्फर डाइऑक्साइड (एसओ२) उत्सर्जन के हॉटस्पॉट की तुलना में भारत में १५ प्रतिशत अधिक है । भारत में प्रमुख एसओ२ उत्सर्जन के हॉटस्पॉट मध्यप्रदेश के सिंगरौली, तमिलनाडु के नेवेली और चेन्नई, ओडिशा के तालचेर और झारसुगुड़ा, छत्तीसगढ़ के कोरबा, गुजरात के कच्छ, तेलगांना के रामागुंडम और महाराष्ट्र में चंद्रपुर और कोराडी हैं । विश्लेषण के अनुसार, भारत में अधिकतर संयंत्रों में वायु प्रदूषण कम करने के लिए फ्लु-गैस डिसल्फराइजेशन तकनीक का अभाव है । नासा के आंकड़ों में दुनिया भर के अन्य हॉटस्पॉटों पर भी प्रकाश डाला गया है । रूस का नोरिल्स्क स्मेल्टर कॉम्प्लेक्स दुनिया में एसओ२ उत्सर्जन का सबसे बड़ा हॉटस्पॉट है, जिसके बाद दक्षिण अफ्रीका के म्पुमलांगा प्रांत का क्रिएल और ईरान का जागरोज हैं । विश्व रैकिंग के अनुसार, एसओ२ का उत्सर्जन करने में भारत शीर्ष स्थान पर इसलिए है क्योंकि यहां एसओ२ उत्सर्जन के सबसे अधिक हॉटस्पॉट हैं ।
पर्यावरण विशेषज्ञों ने कोयला बिजली संयंत्रों सख्त कार्यवाई का आह्वान किया है । उनका कहना है कि इन संयंत्रों को देश में प्रदूषण फैलाते रहने और आपात स्थिति पैदा करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए । ग्रीनपीस की एक वरिष्ठ अभियान संचालक पुजारिनी सेन ने कहा, हम एक वायु प्रदूषण आपातकाल का सामना कर रहे हैं और अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि दिल्ली और देशभर में बिजली संयंत्र प्रदूषण की सीमा के दायरे में आने के निर्देश का पालन विस्तारित समय सीमा के भीतर करेगे । रिपोर्ट में कहा गया कि वायु प्रदूषण में एसओ २ उत्सर्जन का महत्वपूर्ण योगदान है ।
पेड़ भोजन-पानी में साझेदारी करते हैं
न्यूजीलैण्ड से मिले एक समाचार के मुताबिक पेड़ एक-दूसरे के साथ पोषण और पानी जैसे संसाधन मिल-बांटकर इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, शोधकर्ताओं को न्यूजीलैण्ड के नॉर्थ आईलैण्ड के वाइटाकेरे जंगल में एक पेड़ का ठूंठ मिला । उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उस ठूंठ में न तो कोई शाखा थी और न ही पत्तियां मगर वह जीवित था ।
उपरोक्त कौरी पेड़ का ठूंठ पारिस्थिकीविद सेबेस्टियन ल्यूजिं-गर और मार्टिन बाडेर की नजरों में संयोगवश ही आया था। वे देखना चाहते थे कि क्या यह ठूंठ आसपास के पड़ोसियों के दम पर जिन्दा है। वैसे वैज्ञानिक बरसों से यह सोचते आए हैं कि कई पेड़ों के ठूंठ अपने पड़ोसियों के दम पर ही बरसों तक जीवित बने रहते हैं मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं था।
शोधकर्ताओं केलिए यह उक्त विचार की जांच का अच्छा मौका था । एक बात तो उन्होंने यह देखी कि इस ठूंठ में रस का प्रवाह हो रहा था जिसकी अपेक्षा आप किसी मृत पेड़ में नहीं करते। जब उन्होंने उस ठूंठ और आसपास के पेड़ों में पानी के प्रवाह का मापन किया तो पाया कि इनमें कुछ तालमेल है । इससे लगा कि संभवत: आसपास के पेड़ों ने इस ठूंठ को जीवनरक्षकप्रमाणी पर रखा हुआ है । यह आश्चर्य की बात तो थी ही, मगर साथ ही इसने एक सवाल को जन्म दिया - आखिर आसपास के पेड़ ऐसा क्यों कर रहे हैं?
यह ठूंठ तो अब उस जंगल की पारिस्थितिकी का हिस्सा नहीं है, कोई भूमिका नहीं निभाता है, तो पड़ोसियों को क्या पड़ी है कि अपने संसाधन इसके साथ साझा करें।
ल्यूजिंगर के दल का ख्याल है कि इस ठूंठ का जड़-तंत्र आस-पास के पेड़ों के साथ जुड़ गया है। पेड़ों में ऐसा होता है, यह बात तो पहले से पता थी । ऐसे जुड़े हुए जड़-तंत्र से पेड़ पानी व अन्य पोषक तत्वों का लेन-देन कर सकते हैं और पूरे समुदाय को एक स्थि-रता हासिल होती है।
जीवित पेड़ों के बीच इस तरह की साझेदारी से पूरे समुदाय को फायदा होता है मगर एक ठूंठ के साथ साझेदारी से क्या फायदा । शोधकर्ताओं का मत है कि इस ठूंठ का यह जुड़ाव उस समय बना होगा जब वह जीवित पेड़ था। पेड़ के मर जाने के बाद भी वह जुड़ाव कायम है और ठूंठ को पानी मिल रहा है। है ना जीवन बीमा का मामला - जीवन में भी, जीवन के बाद भी ।
विमान से निकली सफेद लकीर और ग्लोबल वार्मिंग
धरती के तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में योगदान के लिए उड्डयन उद्योग को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है, खास तौर से विमानों से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड के कारण । लेकिन हालिया शोध बताते हैं कि उड़ते विमान के पीछे जो एक लंबी सफेद लकीर नजर आती है, वह भी तापमान को बढ़ाने में खासी भूमिका निभाती है ।
अक्सर ऊंचाई पर उड़ान भरने के दौरान या कई अन्य परिस्थितियों में विमान ऐसी लकीर छोड़ते हैं। जिस ऊंचाई पर ये विमान उड़ते हैं वहां की हवा ठंडी और विरल होती है। जब इंजन में से कार्बन के कण निकलते हैं तो बाहर की ठंडी हवा में उपस्थित वाष्प इन कणों पर संघनित हो जाती है। यह एक किस्म का बादल होता है जो लकीर के रूप में नजर आता है।
इसे संघनन लकीर कहते हैं। ये बादल कुछ मिनटों से लेकर कई घंटों तक टिके रह सकते हैं। ये बादल इतने झीने होते हैं कि सूर्य के प्रकाश को परावर्तित तो नहीं कर पाते किन्तु इनमें मौजूद बर्फ के कण ऊष्मा को कैद कर लेते हैं। इसकी वजह से तापमान में वृद्धि होती है । इस शोध के मुताबिक साल २०५० तक संघनन लकीरों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि तीन गुना हो जाएगी ।
साल २०११ में हुए एक शोध केमुताबिक विमान-जनित बादलों का कुल प्रभाव, विमानोंद्वारा छोड़ी गई कार्बन डाईऑक्साईड की तुलना में तापमान वृद्धि में अधिक योगदान देता है। अनुमान यह है कि २०५० तक उड़ानों की संख्या चौगुनी हो जाएगी और परिणाम स्वरूप तापमान में और अधिक बढ़ोतरी होगी ।
उक्त अध्ययन में शामिल जर्मन एयरो-स्पेस सेंटर की उलरिके बुर्खार्ट जानना चाहती थीं कि भविष्य में ये विमान-जनित बादल जलवायु को किस तरह प्रभावित करेंगे। इसके लिए उन्होंने अपने साथियों के साथ एक बिलकुल नया पर्यावरण मॉडल बनाया जिसमें विमान-जनित बादलों को सामान्य बादलों से अलग श्रेणी में रखा गया था।
प्राणी जगत
हंगुल : महत्वपूर्ण लुप्त्प्राय हिरण
डॉ. दीपक कोहली
हंगुल हिरण लाल हिरणों की लुप्तप्राय प्रजातियों में से एक है, जो कश्मीर की दाचीगाम सेंचुरी लुप्तप्राय हंगुल या कश्मीरी हिरण को आश्रय देती है। कश्मीरी हिरण के अलावा अन्य वन्यजीवों में तेंदुआ, कॉमन पाम सिवेट, जैकल, रेड फॉक्स, येलो-थ्रोटेड मार्टेन और हिमालयन वेसल शामिल हैं। हंगुल जम्मू कश्मीर का राजकीय पशु हैं।
यूरोपियन लाल हिरण की तरह दिखने वाले हंगुल हिरण की दुम यूरोपियन हिरण से छोटी होती है, और इनका शरीर यूरोपियन हिरण की तरह लाल नहीं होता बल्कि गहरे भूरे रंग का होता है। हंगुल कश्मीरी शब्द हंगल से आता है, जिसका अर्थ है गहरे, भूरे रंग का । पहली बार हंगुल अल्फ्रेड वाग्नेर द्वारा १८४४ में पहचाना गया था। ऐसा माना जाता हैं हंगुल बुखारा मध्य एशिया के रस्ते होते हुए कश्मीर में आया था । यह भारत में लाल हिरण की एक ही प्रजाति मौजूद है।
साल २०१७ हंगुल गणना के अनुसार दाचीगम राष्ट्रीय उद्यान में १८२ हंगुल बचे थे। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्ज़र्वेशन फॉर नेचर द्वारा हंगुल को `महत्वपूर्ण लुप्तप्राय प्रजाति` घोषित किया गया था। साल १९४७ में हंगुल की कुल संख्या २००० के आसपास थी लेकिन १९७० तक आते-आते हंगुल की संख्या में भारी गिरावट आई, क्योंकि प्रदेश में शिकार परमिट का बड़ा दुरुपयोग हंगुल के अवैध शिकार के लिए किया गया । १९८० में ३४० हंगुल बचे । १९९० में बढ़ गए उग्रवाद की वजह से इस साल कोई गणना नहीं हो पायी, हालांकि १९९० के दशक मेंउग्रवादियों ने लोगों को शिकार करने के लिए जंगलों में जाने से रोक दिया, फिर भी दाचीगम के निचले हिस्से में हंगुल के शिकार का रुझान जारी रहा । गणना के मुताबिक हंगुल की संख्या २००७ में १९७ , २००९ में २३४ , २०११ में २१८ २०१५ में १८६ और २०१७ में कुल १८२ रह गई ।
वर्ष २००८ में हंगुल की घटती संख्या को देखते हुए नेशनल ज़ू अथॉरिटी ऑफ इंडिया की तरफ से दाचीगम नेशनल पार्क में एक ब्रीडिंग सेंटर बनाने की घोषणा हुई । उस समय हंगुल की संख्या १९७ थी, लेकिन परियोजना ने पांच साल तक उड़ान नहीं भरी क्योंकि विभाग यह हवाला देता रहा कि वो हंगुल को पकड़ नहीं पा रहा है। २०१६ में राज्य सरकार ने दोबारा केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय से संपर्क किया और २५.७२ करोड़ रुपये की अतिरिक्त सहायता मांगी जिससे राज्य में हंगुल के लिए ब्रीडिंग सेंटर और वहाँ पर विशेषज्ञों को नियुक्त किया जा सके । लेकिन प्रस्ताव को मंत्रालय ने खारिज कर दिया ।
जम्मू-कश्मीर में हंगुल की संख्या कम होती जा रही हैं, इनकी संख्या में कमी आने के बहुत कारण हैं। हंगुल एक शर्मीले हिरण की प्रजाति है । उनको अपने आसपास घास खाते समय किसी भी प्रकार की बाधा नहीं पसंद । गर्मियों के समय में हंगुल दाचीगम के निचले जगह पर आ जाते हैं, जहां पर भेड़ और बकरियों के बड़े झुण्ड भी घास खाते रहते हैं, हंगुल को अपनी जगह पर किसी और प्राणी या इंसान का होना या भोजन को लेकर प्रतिस्पर्धा बिल्कुल नहीं पसंद। दाचीगम राष्ट्रीय उद्यान विशेषकर हंगुल के लिए निवास स्थान के रूप में था लेकिन अब हंगुल को अपनी जगहों और संसाधनों के लिए नये और पुराने बाशिंदों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले राज्य सरकार के पशुपालन विभाग के भेड़ फार्म हंगुल के आवाजाही में सबसे बड़ी परेशानी हैं।
भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव और सीमा संघर्ष भी हंगुल के जीवित रहने के लिए दुविधा बनता जा रहा है। भारतीय सेना के चलने वाले सर्च ऑपरेशन अक्सर गश्त दलों के साथ कुत्तों का होना और कुत्तो के द्वारा हंगुल को उनके स्थानों से खदेड़कर उनको इंसानी बस्तियों की तरफ धकलेना भी एक कारण है। २०१७ में सीआरपीएफ ने दाचीगम के निचले हिस्सों में अपनी उपस्थिति बढ़ा दी थी जिससे वो प्रदेश में कानून व्यवस्था और अच्छी कर सके लेकिन पार्क के अंदर सेना की चाक चौबंद व्यवस्था का प्रभाव हंगुल के आवाजाही पर पड़ा ।
हंगुल के प्रजनन के आकड़े भी चिंता भरे हैं। सरकारी रिकाड्र्स के मुताबिक मादा-नर अनुपात अब प्रति १०० मादाओं पर १५-१७ नर है, जो २००४ में २३ नर प्रति १०० से भी घट गयी है। कैप्चर मायोपथी, एक तरह का जटिल रोग है जो जानवर को पकड़ने और इंसानो के संचालन से जुड़ा है। यह बीमारी हंगुल के बीच काफी पायी गयी हैं। लिंग अनुपात यह दिखता हैं कि हंगुल की संख्या भारी मुश्किल में है।
वाइल्डलाइफ डिपार्टमेंट ऑफ कश्मीर ने हाल ही में सिंध फारेस्टरिजर्व कि तरफ हंगुल के नए आवाजाही रूट पर कुछ चौकियाँ बनायी हैं जिससे हंगुल गर्मियों में जब निचली जगह पर भोजन की तलाश में आये तो उनके संचालन में किसी तरह की बाधा न आये और शोधकर्ता हंगुल का अध्ययन कर सकें । वाइल्डलाइफ डिपार्टमेंट ने यह भी प्रस्तावित किया हैं कि मोटर गाड़ियों कि आवाजाही भी उस समय स्थगित कर दी जाये जब हंगुल उस जगह से गुजर रहे हों।
विभाग ने सरकार को लिखा हैं कि वो सुरक्षादलों , जिसमें भारतीय सेना और सीआरपीएफ भी शामिल है, खोजी कुत्तों का इस्तेमाल उन कॉरिडोर्स पर कम कर दे जिन कॉरिडोर्स को हंगुल द्वारा इस्तेमाल किया जाता हैं। यह बहुत ही गंभीर समस्या है क्योंकि खोजी कुते हंगुल के लिए समस्या बनते जा रहे हैं।
हंगुल १० वर्षों तक जीवित रहता है । प्रमुख शाकाहारी जानवर होने के कारण यह घास के मैदान की चराई को सुनिश्चित करता है। एक हंगुल, तेंदुए की भूख को पांच से दस दिनों तक दूर कर सकता है, जिससे जानवरों और इंसानों के बीच टकराव कम होगा। वन रक्षक बताते हैं कि कश्मीर में बढ़ रही हिंसा भी एक गहरा प्रभाव हंगुल के व्यवहार और आबादी पर डाल रहा है। हंगुल आने - जाने के लिए और आजादी देनी होगी। इनके संरक्षित जगहों पर किसी प्रकार की इंसानी अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। हंगुल को प्रकृति के ऊपर छोड़ देना चाहिए, इनकी संख्या अपने आप बढ़ जाएगी।
जन जीवन
अन्न और जल की बर्बादी हम कब रोकेगे ?
निर्मल कुमार शर्मा
मानव जीवन (लगभग सभी जीव जगत) के लिए भी के सांसों के स्पंदन और जीने के लिए सबसे जरुरी और मूलभूत तीन आवश्यक चीजें क्रमश: हवा ,पानी और भोजन है ।
आधुनिक सभ्यता और विकास के साथ-साथ क्रमश: प्रथम दो चीजें मानवकृत कृत्योंसे प्रदूषित और विनष्ट होती जा रहीं हैं । औद्योगिक क्रांति के बाद ये दोनों चीजें प्रदूषण की अधिकतम सीमा तकप्रदूषित होती चली गईं हैं । मानव प्रजाति सहित समस्त जैवमण्डल के लिए सबसे अत्यावश्यक उसको सांस लेने के लिए प्राण का आधार ऑक्सीजन है। यह बात बहुत पहले ही वैज्ञानिक तथ्यों से यह सिद्ध हो चुका है कि यह ऑक्सीजन वायुमण्डल में उसके लगभग पाँचवे हिस्से के बराबर है ।
पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार अब तक मानव प्रजाति ने जंगलों,पेड़ों आदि का इतना विध्वंस किया है कि, प्रकृति के लिए वाता-वरण में सभी जीवों को जीने के लिए अत्यावश्यक ऑक्सीजन की मात्रा सम्पूर्ण वायुमंडल में १/५ भाग रहने का संतुलन गड़बड़ होने लगा है, इसलिए अभी हाल ही में पर्यावरण वैज्ञानिकों ने इस ऑक्सीजन असंतुलन पर चिंतित होकर, गहन शोधकर इस दुनिया को आगाह करते हुए यह सलाह दी है किपेड़ो, वनों और जंगलों की अब तक इतनी अपूरणीय क्षति हो चुकी है कि उसकी क्षतिपूर्ति हेतु कम से कम अपने देश भारत के क्षेत्रफल के लगभग तीन गुने क्षेत्रफल की धरती पर सघन जंगल लगाने की 'शीघ्र 'और ईमानदार कोशिश की सख्त जरूरत है । वर्तमान में वास्तविकता यह है कि यहाँ वृक्षारोपण के नाम पर पेड़ लगाने का उपक्रम होता है, उसमें मात्र १० प्रतिशत ही बड़े पेड़ बन पाते हैं, परन्तु दूसरी तरफ कथित आधुनिक विकास और सड़क चौड़ीकरण के नाम पर उससे १० गुने वृक्षों को काट डाला जाता है ।
इसी प्रकर समस्त जैवमण्डल की दूसरी सबसे बड़ी जरूरत मीठा पीने योग्य पानी है ,जो इस पृथ्वी पर विद्यमान पानी के सम्पूर्ण भंडार में पीने योग्य पानी की मात्रा केवल एक प्रतिशत ही है, वह भी मानवोचित कुकृत्यों से इस कदर तेजी से प्रदूषित और दोहित किया जा रहा है कि उसके सबसे बड़े स्त्रोत ऊँचे पहाड़ों पर व उत्तरी व दक्षिणी धु्रव पर लाखों साल से बर्फ के रूप में जमें बर्फ के लाखों ग्लेशियरों के अस्तित्व पर ही गंभीर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, जो दुनियाभर की हजारों नदियों के भी उद्गम स्त्रोत हैं इसलिए निकट भविष्य के कुछ सालों में विश्व की हजारों नदियों के सूख जाने या विलुप्त् हो जाने का गंभीर खतरा मंडरा रहा है ।
इसके अतिरिक्त पेय जल का सबसे बड़े स्त्रोत वर्षा का पानी है, वर्षा के पानी के संचयक, इस देश के लाखों ग े, जोहड़, ताल-तलैया, बावड़ी, कुंआ , पोखर , झील आदि भी कथित आधुनिक विकास और मानव के लालच और हवश के फलस्वरूप अतिक्रमण की भेंट चढ़कर अपना अस्तित्व गंवा चुके हैं, जिससे जिस दर से भूगर्भीय जल का अकूत दोहन किया जा रहा है, उसके हजारवें हिस्से के बराबर भी वर्षा का जल पृथ्वी के भूगर्भीय जल को समृद्ध नहीं कर पा रहा है े जल की रिचार्जिंग नहीं हो रही है, इसके फलस्वरूप भारत सहित दुनियाभर के अधिकांश देशों में पेयजल के अभाव में गंभीर स्थिति बनती जा रही है । पिछले साल दक्षिण अफ्रीका की राजधानी कैपटाउन और पिछले दिनों चेन्नई में पानी के अकाल की घटना इसकी गवाह है ।
इसी प्रकार मानव प्रजाति सहित समस्त जैवमण्डल के जीवों के भोजन के लिए मांसाहारी प्राणियों को छोड़कर ,वैसे मांसाहारी प्राणी भी उन शाकाहारी जन्तुओं पर ही निर्भर हैं जो शाकाहारी भोजन करते है, अन्न की अत्यन्त आवश्यकता है । दु:खद है भारत सहित दुनियाभर में विभिन्न कारणों से, कहीं जानबूझकर, कहीं नासमझी और कहीं मूर्खता से भारत जैसे देश में भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था से उत्पादित अन्न, सब्जियों और, फलों आदि का लगभग आधा भाग नष्ट हो जाने को अभिषप्त है ,जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार विश्व में हर आठवा व्यक्ति रात में खाना न मिलने से भूखा सो जाने को मजबूर होता है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन के द स्टेट ऑफ फूड इनसिक्योरिटी इन वर्ल्ड की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया में अपने अन्न के बम्पर उत्पादन के बावजूद भी राजनैतिक व प्रशासनिक लापरवाही उपेक्षा और कुव्यवस्था से सबसे ज्यादे भूखमरी के शिकार भारतीय लोग ही हैं ।
अभी हाल ही में भारत सरकार के वर्तमान ग्रामीण विकास मंत्री स्वयं राज्यसभा में यह लिखित में स्वीकार कर चुके हैं कि वैश्विक भूख सूचकांक में भारत युद्ध और आतंकवाद से जर्जर अफगानिस्तान और पाकिस्तान तथा दुनिया के अत्यंत गरीब माने जाने वाले अफ्रीका के सहारा देशों से भी, दयनीय स्थिति में है ,वह दुनिया के कुल ११९ देशों की सूची में १०३ वें पायदान पर है ।
वर्तमान में सत्तारूढ़ दल की सरकार के ही एक सांसद ने भी राज्यसभा में लिखित में यह जानकारी देते हुए देश को बताया है कि हम भारत के लोग एक साल में इतना अन्न ,फल ,सब्जियां या खाद्य पदार्थों को बर्बाद कर देते हैं, जितना इंग्लैंड के लोग एक साल खाते हैं या आस्ट्रेलिया महाद्वीप का कुल अन्न उत्पादन है । उन्होंने आगे बताया कि एक तरफ हम, हमारे समाज और हमारी सरकारों की लापरवाही असंवेदनशीलता और कुव्यवस्था की वजह से इतने अन्न की बर्बादी होती है, दूसरी तरफ हमारे देश में ही रूस की आबादी से थोड़े कम १९ करोड़ लोग रात में भोजन न मिलने से भूखे ही सो जाते है।
क्या हम भारतीय लोग अपने देश की वायु की शुद्धता के लिए,अब तक हुए भारतीय वनों के विनाश की क्षतिपूर्ति के लिए कम से कम मध्यप्रदेश के क्षेत्रफल के बराबर भूमि पर, वर्षा के ऋतु मेंईमानदारी से पौधारोपण करके उन्हें बड़ा होने तक पुत्रवत् पालनकर बड़ा करें । कम से कम हरेक भारतीय परिवार एक पेड़ लगाकर ,उसे बड़ा करे,का प्रण लेकर तत्परता और देशहित तथा समाजहित में इस पुनीत और पावन कर्तव्य का निर्वहन करें।
इसी प्रकार जल की शुद्धता और संचयन के लिए अपनी प्राणतुल्य नदियों के अस्तित्व को बचाने के लिए कारों, टैक्सियों का उपयोग यथासंभव कम से कम उपयोग करके सार्वजनिक परिवहन सेवाओं यथा सीएनजी बसों, ट्रामों, मेट्रो, ट्रेनों आदि का अधिकाधिक उपयोग करें ताकि कार्बनडाईऑक्साइड और अन्य हानिकारक गैसों के उत्सर्जन से होनेवाली ग्लोबल वार्मिंग कम होने से नदियों के उद्गम स्थल गलेशियरों का पिघलना कम हो ।
तीर्थयात्रा के नाम पर हिमालय में चौड़ीसड़क बनाने के नाम पर वहाँ लाखों पुराने वृक्षों को निर्ममतापूर्वक काटने का सिलसिले पर भी विराम लगना ही चाहिए । प्रश्न ये है कि जब हमारी नदियाँ बचेंगी तभी हम बचेंगे तभी तो हम तीर्थयात्रा भी करेगे । इसके अतिरिक्तअपनी माँतुल्य व जीवनदायिनी नदियों में फैक्ट्रियों से केमिकल युक्त विषाक्त पानी और शहरों के मलमूत्रादि युक्त सीवर का पानी परिशोधित करके ही हर हाल में डाला जाय । हमें यूरोप के लोगों से प्रेरणा लेनी चाहिए जहां कई देशों से प्रवाहित होकर जाने वाली राईन नदी को आज एकदम स्वच्छ और उसके मूलस्वरूप में प्रवाहित करके समूचे विश्व को एक नमूने के तौर पर प्रामाणित करके दिखा दिया है, कि अगर ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से काम किया जाय तो कोई भी काम असंभव नहीं है ।
यूरोप के लोग हम लोगों जैसे नहीं हैं जो एक तरफ नदियों में सीवर की गंदगी डालते रहें और दूसरी तरफ प्रतिदिन शाम को दिखावे के लिए भव्य आरती दिखाने का पाखण्ड और फूहड़तापूर्ण कृत्य करते हो ।
इसके अतिरिक्त हमें अन्न के एक -एक दाने और खाद्य पदार्थों की सुरक्षा और उसे सहेजने को हम हमारा समाज और हमारी सरकारें कृतसंकल्पित हों, ताकि इस देश में अन्न का एक दाना और खाद्य पदार्थों एक अंश भी विनष्ट न हो ताकि भारत का एक भी व्यक्ति रात में भूखा न सोए । यहाँ प्राय: सरकारों के कर्णधार अपनी सारी उर्जा और शक्ति केवल सत्ता में रहने के लिए जोड़-तोड़ करने में लगा देते हैं, इस कार्य के अतिरिक्त भी उनका काम 'जनता के हित और उक्त जनकल्याणकारी पुनीत कार्य करने की भी है, केवल सत्ता में बने रहकर जनकल्याण के कार्यों से विमुख होकर सत्ता पर ज्यादा दिन शासन करने का कोई औचित्य और सार्थकता ही नहीं है । यह बात हमारे सत्ता के कर्णधारों को संजीदगी से सोचनी ही चाहिए ।
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