प्राणी जगत
हंगुल : महत्वपूर्ण लुप्त्प्राय हिरण
डॉ. दीपक कोहली
हंगुल हिरण लाल हिरणों की लुप्तप्राय प्रजातियों में से एक है, जो कश्मीर की दाचीगाम सेंचुरी लुप्तप्राय हंगुल या कश्मीरी हिरण को आश्रय देती है। कश्मीरी हिरण के अलावा अन्य वन्यजीवों में तेंदुआ, कॉमन पाम सिवेट, जैकल, रेड फॉक्स, येलो-थ्रोटेड मार्टेन और हिमालयन वेसल शामिल हैं। हंगुल जम्मू कश्मीर का राजकीय पशु हैं।
यूरोपियन लाल हिरण की तरह दिखने वाले हंगुल हिरण की दुम यूरोपियन हिरण से छोटी होती है, और इनका शरीर यूरोपियन हिरण की तरह लाल नहीं होता बल्कि गहरे भूरे रंग का होता है। हंगुल कश्मीरी शब्द हंगल से आता है, जिसका अर्थ है गहरे, भूरे रंग का । पहली बार हंगुल अल्फ्रेड वाग्नेर द्वारा १८४४ में पहचाना गया था। ऐसा माना जाता हैं हंगुल बुखारा मध्य एशिया के रस्ते होते हुए कश्मीर में आया था । यह भारत में लाल हिरण की एक ही प्रजाति मौजूद है।
साल २०१७ हंगुल गणना के अनुसार दाचीगम राष्ट्रीय उद्यान में १८२ हंगुल बचे थे। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्ज़र्वेशन फॉर नेचर द्वारा हंगुल को `महत्वपूर्ण लुप्तप्राय प्रजाति` घोषित किया गया था। साल १९४७ में हंगुल की कुल संख्या २००० के आसपास थी लेकिन १९७० तक आते-आते हंगुल की संख्या में भारी गिरावट आई, क्योंकि प्रदेश में शिकार परमिट का बड़ा दुरुपयोग हंगुल के अवैध शिकार के लिए किया गया । १९८० में ३४० हंगुल बचे । १९९० में बढ़ गए उग्रवाद की वजह से इस साल कोई गणना नहीं हो पायी, हालांकि १९९० के दशक मेंउग्रवादियों ने लोगों को शिकार करने के लिए जंगलों में जाने से रोक दिया, फिर भी दाचीगम के निचले हिस्से में हंगुल के शिकार का रुझान जारी रहा । गणना के मुताबिक हंगुल की संख्या २००७ में १९७ , २००९ में २३४ , २०११ में २१८ २०१५ में १८६ और २०१७ में कुल १८२ रह गई ।
वर्ष २००८ में हंगुल की घटती संख्या को देखते हुए नेशनल ज़ू अथॉरिटी ऑफ इंडिया की तरफ से दाचीगम नेशनल पार्क में एक ब्रीडिंग सेंटर बनाने की घोषणा हुई । उस समय हंगुल की संख्या १९७ थी, लेकिन परियोजना ने पांच साल तक उड़ान नहीं भरी क्योंकि विभाग यह हवाला देता रहा कि वो हंगुल को पकड़ नहीं पा रहा है। २०१६ में राज्य सरकार ने दोबारा केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय से संपर्क किया और २५.७२ करोड़ रुपये की अतिरिक्त सहायता मांगी जिससे राज्य में हंगुल के लिए ब्रीडिंग सेंटर और वहाँ पर विशेषज्ञों को नियुक्त किया जा सके । लेकिन प्रस्ताव को मंत्रालय ने खारिज कर दिया ।
जम्मू-कश्मीर में हंगुल की संख्या कम होती जा रही हैं, इनकी संख्या में कमी आने के बहुत कारण हैं। हंगुल एक शर्मीले हिरण की प्रजाति है । उनको अपने आसपास घास खाते समय किसी भी प्रकार की बाधा नहीं पसंद । गर्मियों के समय में हंगुल दाचीगम के निचले जगह पर आ जाते हैं, जहां पर भेड़ और बकरियों के बड़े झुण्ड भी घास खाते रहते हैं, हंगुल को अपनी जगह पर किसी और प्राणी या इंसान का होना या भोजन को लेकर प्रतिस्पर्धा बिल्कुल नहीं पसंद। दाचीगम राष्ट्रीय उद्यान विशेषकर हंगुल के लिए निवास स्थान के रूप में था लेकिन अब हंगुल को अपनी जगहों और संसाधनों के लिए नये और पुराने बाशिंदों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले राज्य सरकार के पशुपालन विभाग के भेड़ फार्म हंगुल के आवाजाही में सबसे बड़ी परेशानी हैं।
भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव और सीमा संघर्ष भी हंगुल के जीवित रहने के लिए दुविधा बनता जा रहा है। भारतीय सेना के चलने वाले सर्च ऑपरेशन अक्सर गश्त दलों के साथ कुत्तों का होना और कुत्तो के द्वारा हंगुल को उनके स्थानों से खदेड़कर उनको इंसानी बस्तियों की तरफ धकलेना भी एक कारण है। २०१७ में सीआरपीएफ ने दाचीगम के निचले हिस्सों में अपनी उपस्थिति बढ़ा दी थी जिससे वो प्रदेश में कानून व्यवस्था और अच्छी कर सके लेकिन पार्क के अंदर सेना की चाक चौबंद व्यवस्था का प्रभाव हंगुल के आवाजाही पर पड़ा ।
हंगुल के प्रजनन के आकड़े भी चिंता भरे हैं। सरकारी रिकाड्र्स के मुताबिक मादा-नर अनुपात अब प्रति १०० मादाओं पर १५-१७ नर है, जो २००४ में २३ नर प्रति १०० से भी घट गयी है। कैप्चर मायोपथी, एक तरह का जटिल रोग है जो जानवर को पकड़ने और इंसानो के संचालन से जुड़ा है। यह बीमारी हंगुल के बीच काफी पायी गयी हैं। लिंग अनुपात यह दिखता हैं कि हंगुल की संख्या भारी मुश्किल में है।
वाइल्डलाइफ डिपार्टमेंट ऑफ कश्मीर ने हाल ही में सिंध फारेस्टरिजर्व कि तरफ हंगुल के नए आवाजाही रूट पर कुछ चौकियाँ बनायी हैं जिससे हंगुल गर्मियों में जब निचली जगह पर भोजन की तलाश में आये तो उनके संचालन में किसी तरह की बाधा न आये और शोधकर्ता हंगुल का अध्ययन कर सकें । वाइल्डलाइफ डिपार्टमेंट ने यह भी प्रस्तावित किया हैं कि मोटर गाड़ियों कि आवाजाही भी उस समय स्थगित कर दी जाये जब हंगुल उस जगह से गुजर रहे हों।
विभाग ने सरकार को लिखा हैं कि वो सुरक्षादलों , जिसमें भारतीय सेना और सीआरपीएफ भी शामिल है, खोजी कुत्तों का इस्तेमाल उन कॉरिडोर्स पर कम कर दे जिन कॉरिडोर्स को हंगुल द्वारा इस्तेमाल किया जाता हैं। यह बहुत ही गंभीर समस्या है क्योंकि खोजी कुते हंगुल के लिए समस्या बनते जा रहे हैं।
हंगुल १० वर्षों तक जीवित रहता है । प्रमुख शाकाहारी जानवर होने के कारण यह घास के मैदान की चराई को सुनिश्चित करता है। एक हंगुल, तेंदुए की भूख को पांच से दस दिनों तक दूर कर सकता है, जिससे जानवरों और इंसानों के बीच टकराव कम होगा। वन रक्षक बताते हैं कि कश्मीर में बढ़ रही हिंसा भी एक गहरा प्रभाव हंगुल के व्यवहार और आबादी पर डाल रहा है। हंगुल आने - जाने के लिए और आजादी देनी होगी। इनके संरक्षित जगहों पर किसी प्रकार की इंसानी अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। हंगुल को प्रकृति के ऊपर छोड़ देना चाहिए, इनकी संख्या अपने आप बढ़ जाएगी।
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