ज्ञान विज्ञान
इंसान भी बदल सकेंगे गिरगिट की तरह रंग
ब्रिटेन के वैज्ञानिकोंने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है । उन्होंने गिरगिट के रंग बदलने की अद्भुत क्षमता को इंसानों के लिए विकसित किया है । कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताआेंने एक ऐसी कृत्रिम त्वचा बनाई है, जो प्रकाश के संपर्क में आने पर गिरगिट की तरह अपना रंग बदल सकती है ।
उनका दावा है कि भविष्य में इस तकनीक को और उन्नत बनाकर सैनिकों को दुश्मनों के आघात से बचाया जा सकता है, क्योंकि यह सामग्री छद्म आवरण बनाकर दुश्मनों को भ्रमित कर सकती है ।
इस त्वचा को बनाने के लिए शोधकर्ताआें ने सोने के महीन कणों को पॉलीमर सेल से कोट किया । इसके बाद पानी की बूंदों के संपर्क मेंलाकर इसे एक पतली ऑयल शीट में पैक कर दिया गया । जब वातावरण में गर्मी बढ़ती है और इसे प्रकाश के संपर्क मेंलाया जाता है तो सोने के महीन कण फैलकर आपस में मिलते हैं और पानी को बाहर निकाल देते हैं । इस दौरान इसका रंग लाल हो जाता हैं । वातावरण ठंडा होने पर ये कण फिर सिकुड़ने लगते है, जिससे इसका रंग गहरा नीला हो जाता है ।
शोधकर्ताआें ने कहा कि प्रकृति में दो जीव, गिरगिट और कटल्फिश (समुद्रीफेनी)में ऐसी क्षमता होती है कि ये आसानी से अपने शरीर का रंग बदल कर शिकारी जीवों को भ्रम में डालकर खुद की जान बचाते हैं ।
भारत सल्फर डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता
भारत, दुनिया में मानवजनित सल्फर डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता है, जो कोयला जलाने से उत्पन्न होता है और वायु प्रदूषण में इसकी हिस्सेदारी बहुत अधिक होती है । एक अध्ययन में यह दावा किया गया ।
पर्यावरण संरक्षण से जुड़े एनजीओ ग्रीनपीस द्वारा पिछले दिनों जारी किए गए नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के आंकड़ो के एक विश्लेषण के अनुसार, ओएमआई (ओजोन मॉनिटरिंग इंस्ट्रूमेंट) उपग्रह द्वारा पता लगाए गए दुनिया के सभी मानवजनित सल्फर डाइऑक्साइड (एसओ२) उत्सर्जन के हॉटस्पॉट की तुलना में भारत में १५ प्रतिशत अधिक है । भारत में प्रमुख एसओ२ उत्सर्जन के हॉटस्पॉट मध्यप्रदेश के सिंगरौली, तमिलनाडु के नेवेली और चेन्नई, ओडिशा के तालचेर और झारसुगुड़ा, छत्तीसगढ़ के कोरबा, गुजरात के कच्छ, तेलगांना के रामागुंडम और महाराष्ट्र में चंद्रपुर और कोराडी हैं । विश्लेषण के अनुसार, भारत में अधिकतर संयंत्रों में वायु प्रदूषण कम करने के लिए फ्लु-गैस डिसल्फराइजेशन तकनीक का अभाव है । नासा के आंकड़ों में दुनिया भर के अन्य हॉटस्पॉटों पर भी प्रकाश डाला गया है । रूस का नोरिल्स्क स्मेल्टर कॉम्प्लेक्स दुनिया में एसओ२ उत्सर्जन का सबसे बड़ा हॉटस्पॉट है, जिसके बाद दक्षिण अफ्रीका के म्पुमलांगा प्रांत का क्रिएल और ईरान का जागरोज हैं । विश्व रैकिंग के अनुसार, एसओ२ का उत्सर्जन करने में भारत शीर्ष स्थान पर इसलिए है क्योंकि यहां एसओ२ उत्सर्जन के सबसे अधिक हॉटस्पॉट हैं ।
पर्यावरण विशेषज्ञों ने कोयला बिजली संयंत्रों सख्त कार्यवाई का आह्वान किया है । उनका कहना है कि इन संयंत्रों को देश में प्रदूषण फैलाते रहने और आपात स्थिति पैदा करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए । ग्रीनपीस की एक वरिष्ठ अभियान संचालक पुजारिनी सेन ने कहा, हम एक वायु प्रदूषण आपातकाल का सामना कर रहे हैं और अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि दिल्ली और देशभर में बिजली संयंत्र प्रदूषण की सीमा के दायरे में आने के निर्देश का पालन विस्तारित समय सीमा के भीतर करेगे । रिपोर्ट में कहा गया कि वायु प्रदूषण में एसओ २ उत्सर्जन का महत्वपूर्ण योगदान है ।
पेड़ भोजन-पानी में साझेदारी करते हैं
न्यूजीलैण्ड से मिले एक समाचार के मुताबिक पेड़ एक-दूसरे के साथ पोषण और पानी जैसे संसाधन मिल-बांटकर इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, शोधकर्ताओं को न्यूजीलैण्ड के नॉर्थ आईलैण्ड के वाइटाकेरे जंगल में एक पेड़ का ठूंठ मिला । उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उस ठूंठ में न तो कोई शाखा थी और न ही पत्तियां मगर वह जीवित था ।
उपरोक्त कौरी पेड़ का ठूंठ पारिस्थिकीविद सेबेस्टियन ल्यूजिं-गर और मार्टिन बाडेर की नजरों में संयोगवश ही आया था। वे देखना चाहते थे कि क्या यह ठूंठ आसपास के पड़ोसियों के दम पर जिन्दा है। वैसे वैज्ञानिक बरसों से यह सोचते आए हैं कि कई पेड़ों के ठूंठ अपने पड़ोसियों के दम पर ही बरसों तक जीवित बने रहते हैं मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं था।
शोधकर्ताओं केलिए यह उक्त विचार की जांच का अच्छा मौका था । एक बात तो उन्होंने यह देखी कि इस ठूंठ में रस का प्रवाह हो रहा था जिसकी अपेक्षा आप किसी मृत पेड़ में नहीं करते। जब उन्होंने उस ठूंठ और आसपास के पेड़ों में पानी के प्रवाह का मापन किया तो पाया कि इनमें कुछ तालमेल है । इससे लगा कि संभवत: आसपास के पेड़ों ने इस ठूंठ को जीवनरक्षकप्रमाणी पर रखा हुआ है । यह आश्चर्य की बात तो थी ही, मगर साथ ही इसने एक सवाल को जन्म दिया - आखिर आसपास के पेड़ ऐसा क्यों कर रहे हैं?
यह ठूंठ तो अब उस जंगल की पारिस्थितिकी का हिस्सा नहीं है, कोई भूमिका नहीं निभाता है, तो पड़ोसियों को क्या पड़ी है कि अपने संसाधन इसके साथ साझा करें।
ल्यूजिंगर के दल का ख्याल है कि इस ठूंठ का जड़-तंत्र आस-पास के पेड़ों के साथ जुड़ गया है। पेड़ों में ऐसा होता है, यह बात तो पहले से पता थी । ऐसे जुड़े हुए जड़-तंत्र से पेड़ पानी व अन्य पोषक तत्वों का लेन-देन कर सकते हैं और पूरे समुदाय को एक स्थि-रता हासिल होती है।
जीवित पेड़ों के बीच इस तरह की साझेदारी से पूरे समुदाय को फायदा होता है मगर एक ठूंठ के साथ साझेदारी से क्या फायदा । शोधकर्ताओं का मत है कि इस ठूंठ का यह जुड़ाव उस समय बना होगा जब वह जीवित पेड़ था। पेड़ के मर जाने के बाद भी वह जुड़ाव कायम है और ठूंठ को पानी मिल रहा है। है ना जीवन बीमा का मामला - जीवन में भी, जीवन के बाद भी ।
विमान से निकली सफेद लकीर और ग्लोबल वार्मिंग
धरती के तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में योगदान के लिए उड्डयन उद्योग को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है, खास तौर से विमानों से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड के कारण । लेकिन हालिया शोध बताते हैं कि उड़ते विमान के पीछे जो एक लंबी सफेद लकीर नजर आती है, वह भी तापमान को बढ़ाने में खासी भूमिका निभाती है ।
अक्सर ऊंचाई पर उड़ान भरने के दौरान या कई अन्य परिस्थितियों में विमान ऐसी लकीर छोड़ते हैं। जिस ऊंचाई पर ये विमान उड़ते हैं वहां की हवा ठंडी और विरल होती है। जब इंजन में से कार्बन के कण निकलते हैं तो बाहर की ठंडी हवा में उपस्थित वाष्प इन कणों पर संघनित हो जाती है। यह एक किस्म का बादल होता है जो लकीर के रूप में नजर आता है।
इसे संघनन लकीर कहते हैं। ये बादल कुछ मिनटों से लेकर कई घंटों तक टिके रह सकते हैं। ये बादल इतने झीने होते हैं कि सूर्य के प्रकाश को परावर्तित तो नहीं कर पाते किन्तु इनमें मौजूद बर्फ के कण ऊष्मा को कैद कर लेते हैं। इसकी वजह से तापमान में वृद्धि होती है । इस शोध के मुताबिक साल २०५० तक संघनन लकीरों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि तीन गुना हो जाएगी ।
साल २०११ में हुए एक शोध केमुताबिक विमान-जनित बादलों का कुल प्रभाव, विमानोंद्वारा छोड़ी गई कार्बन डाईऑक्साईड की तुलना में तापमान वृद्धि में अधिक योगदान देता है। अनुमान यह है कि २०५० तक उड़ानों की संख्या चौगुनी हो जाएगी और परिणाम स्वरूप तापमान में और अधिक बढ़ोतरी होगी ।
उक्त अध्ययन में शामिल जर्मन एयरो-स्पेस सेंटर की उलरिके बुर्खार्ट जानना चाहती थीं कि भविष्य में ये विमान-जनित बादल जलवायु को किस तरह प्रभावित करेंगे। इसके लिए उन्होंने अपने साथियों के साथ एक बिलकुल नया पर्यावरण मॉडल बनाया जिसमें विमान-जनित बादलों को सामान्य बादलों से अलग श्रेणी में रखा गया था।
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