रविवार, 19 जनवरी 2014



प्रसंगवश 
पर्यावरण विनाश का संकेत है कोहरा
रोहित कुमार           
    हर साल की तरह इस साल भी राजधानी दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत में कोहरे का प्रकोप शुरू हो चुका है । हर वर्ष ठंड के साथ कोहरे की चादर हमारे जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है । सड़कों पर रेंगते वाहन, ट्रेनों की गति का थमना, उत्तर भारत की तरफ से आने-जाने वाली ट्रेनों का कई-कई घंटों की देरी से चलना और हवाई सेवा का ठप हो जाना तो हर साल का किस्सा है । कोहरे के अप्रत्याशित आक्रमण से सड़क दुर्घटनाआें में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है, पर हमारा शासन प्रशासन लापरवाही बना रहता है । उसके द्वारा हर बार आग लगने पर कुंआ खोदने की कहावत को चरितार्थ किया जाता है ।
    पिछले कुछ वर्षो से लगातार कोहरे का बढ़ना हमारे पारिस्थितिकीय असंतुलन की ओर भी इशारा करता है । कोहरे की मार का प्रभाव उन शहरों में अधिक होता है, जहां हवा में प्रदूषण अधिक है । जाड़ों में निर्माण कार्यो में तेजी, बढ़ते वाहन और अन्य औद्योगिक प्रदूषणों के नमी के संपर्क मेंआने से कोहरा बढ़ता है । वैज्ञानिकों शोधों से पता चला है कि जीवाश्म और जैविक ईधन की खपत बढ़ने से न केवल भारत, बल्कि पूरे ही दक्षिण एशिया में कोहरे का प्रकोप बढ़ा है । धंुध और धुएं के बादल आसमान में छाकर कई-कई दिनों तक धूप को  रोक देते हैं । अभी तो देश में इस बात का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाना बाकी है कि कोहरे का लोगों के स्वास्थ्य पर कितना प्रतिकूल असर पड़ता है, खासकर श्वास रोग से पीड़ित लोगों पर । बहरहाल, कोहरा यातायात व्यवस्था को तो पंगु कर ही देता है, सड़कों पर रेंगते वाहन अर्थव्यवस्था को भी क्षति पहुंचाते हैं । इस समस्या को गंभीरता से ही लिया जाना चाहिए ।
    ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए कि कश्मीर या अन्य पहाड़ी इलाकों को छोड़कर देश के अन्य हिस्सों में भी अभी ठंड का प्रकोप नहीं हुआ है, रात में सर्दी अवश्य तेज होती है, पर दिन में बहुत ज्यादा ठंड नहीं पड़ रही है । इसके बाद भी कोहरे का प्रकोप अगर शुरू हो गया है, तो प्रकृति का इशारा एकदम साफ है । कम सर्दी में भी कोहरे का कारण यह है कि हम अपने पर्यावरण की रक्षा के प्रति बिल्कुल भी सतर्क नहीं है । वैसे, यह कोई पहली बार नहीं है, जब प्रकृतिने पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने का संकेत दिया है । बरसात के मौसम में थोड़ी सी बारिश के बाद ही नदियां उफनने लगती हैं। पानी कहीं कम गिरता है, तो कहीं ज्यादा । इधर, गर्मी के मौसम में भी कभी तापमान में अचानक उछाल आ जाता है तो कभी उसमें गिरावट देखी जाती है । धरती     का तापमान बढ़ता चला रहा है । ये सब पर्यावरण के बिगड़ने के ही संकेत है ।                               
सम्पादकीय
देश में प्रदूषण का बढ़ता खतरा

     वैश्विक स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण से निपटने की ठोस रणनीति न होने का ही परिणाम है कि हर वर्ष लाखों लोग गंभीर बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं, हजारों लोग काल के शिकार बन रहे है । अगर इससे निपटने की तत्काल वैश्विक रणनीति तैयार नहीं हुई तो भविष्य में बड़ी वैश्विक जनसंख्या प्रदूषण की चपेट में होगी ।
    भारत के विभिन्न शहर प्रदूषण की चपेट में हैं । उपग्रहों से लिए गए आंकड़ों के आधार पर तैयार रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के १८९ शहरों में सर्वाधिक प्रदूषण स्तर भारतीय शहरों में पाया गया है । २०१० में आई केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार कोलकाता और दिल्ली देश में सबसे प्रदूषित हवा वाले शहर है । आंकड़ों के अनुसार भारत में २००९ से २०११ के बीच फेफड़े के कैंसर के सबसे अधिक मामले दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता में ही सामने आए हैं । सेंटर फॉर साईस एंड एनवायरमेंट का आंकलन है कि देश में २०२६ तक चौदह लाख लोग किसी ने किसी तरह के कैंसर से पीड़ित होंगे ।
    भारत समेत दुनिया में हर दिन करोड़ों मोटरवाहन सड़क पर चलते है । इनके धुंए के साथ सीसा, कार्बन मोनोक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड के कण निकलते हैं । ये दूषित कण मानव शरीर में कई तरह की बीमारियाँ पैदा करते हैं। कारखानों और विद्युत गृहों को चिमनियों तथा स्वचलित मोटरगाड़ियों में विभिन्न ईधनों का पूर्ण और अपूर्ण दहन भी प्रदूषण को बढ़ाता है । १९८४ में भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक कारखाने से विषैली गैस के रिसाव से हजारों व्यक्ति मौत के मुंह मेंचले गए और हजारों लोग अपंगता का दंश झेल रहे है ।
    वायु प्रदूषण से न केवल मानव समाज को बल्कि प्रकृति को भी भारी नुकसान पहुंच रहा है । जब भी वर्षा होती है तो वायुमण्डल में मौजूद विषैले तत्व वर्षा जल के साथ मिलकर नदियों, तालाबों, जलाशयों और मिट्टी को प्रदूषित कर देते हैं । अम्लीय वर्षा का जलीय तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । वायु प्रदूषण का दुष्प्रभाव ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासतों पर भी पड़ रहा है । पिछले दिनों देश के ३९ शहरों की १३८ ऐतिहासिक स्मारकों पर वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव का अध्ययन किया गया । कुछ स्मारकों के निकट तो यह चार गुना से भी अधिक पाया गया । सर्वाधिक प्रदूषण स्तर दिल्ली के लालकिला के आसपास है ।
सामयिक
भारतीय औद्योगिक विकास का इतिहास
डॉ. कश्मीर उप्पल

    भारत के औद्योगिक विकास के  ऐतिहासिक क्रम को समझने की प्रक्रिया में यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रिटिश शासक भारतीय औद्योगिक प्रगति की ओट में अपने देश और वहां के उद्योगपतियों का ही हित चाहते थे । दूसरे विश्वयुद्ध ने इस प्रक्रिया को और गति दी । वैसे प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही हमारे यहां औद्योगिकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी ।
    विदेशी सरकार की नीतियों के फलस्वरूप भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था शीघ्र ही नष्ट होने लगी थी । भारत में १८०० और १८२५ के के बीच केवल चार अकाल पड़े थे और १८७५ से १९०० के बीच बाईस अकाल पड़े । अंग्रेजी शासन के पूर्व एक शताब्दी में भारत में औसतन तीन अकाल पड़ते थे अर्थात तकरीबन ३३ वर्षों में एक अकाल अंग्रेज इतिहासकार विलियम डिग्बी लिखते हैं कि ''मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमने कुछ किया हो या न किया हो, ये २२ अकाल हमारे शासन के  परिणाम ही हैं ।``
     भारत में अंग्रेजों ने आर्थिक विकास के नाम पर उन आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देना शुरु किया था जो ब्रिटेन के हित में थीं । सन् १८८० के अकाल-आयोग (फेमिन-कमीशन) ने भी देश की बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारण राज्य को औद्योगिक गतिविधियों के संवर्द्धन का सुझाव दिया था । ब्रिटिश सरकार ने न तो स्वयं भारत के औद्योगिक विकास का प्रयत्न किया और न ही प्रांतीय सरकारों को इसकी अनुमति दी । मैसूर राज्य द्वारा उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योग स्थापित किए गए थे परन्तु ब्रिटिश व्यापारियों के विरोध करने पर अनेक भारतीय उद्योगों की अनुमति रद्द कर दी गई । 
    रुसी लेखक ग.क. शिरोकोव ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'भारत का औद्योगीकरण` मंे लिखा है कि ''प्रथम विश्वयुद्ध (१९१४ से १९१८) के अनुभव से यह सिद्ध हो गया कि भारत में एक निश्चित औद्योगिक क्षमता की स्थापना किए बिना इंग्लैंड न तो उसे अपना उपनिवेश बनाए रख सकेगा और न एशिया में उसकी स्थिति उतनी मजबूत रह पाएगी ।`` इन नई परिस्थितियों में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों की औद्योगिक नीति में बहुत परिवर्तन हुए ।
    प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत के वायसराय ने भारत के  औद्योगीकरण की आवश्यकता को स्वीकार किया और १९१९ के सुधार कानून (रिफार्म एक्ट) के द्वारा प्रांतीय सरकारों को अपने औद्योगिक विकास की स्वायत्ता प्रदान की गई । १९२०-२१ के गांधीजी के असहयोग आन्दोलन के बाद राष्ट्रीय भावना जन-जन में व्याप्त हो गई थी । १९१७ में रुस की क्रान्ति के बाद भारतीय स्वतंत्रता-आन्दोलन में इस बात पर चर्चा होने लगी थी कि स्वतंत्र भारत का आर्थिक ढांचा कैसा हो ? सन् १९३१ में कराची मंे सरदार पटेल की अध्यक्षता में कांगे्रस का अधिवेशन हुआ था । इसमंे मौलिक अधिकार प्रस्ताव स्वीकृत हुआ जिसमें भारत के आर्थिक पुनर्निर्माण पर स्पष्ट विचार व्यक्त किया गया था ।
    सन् १९३७ मंे कांग्रेस कई प्रांतों में सत्ता में आई । कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस ने देश के आर्थिक विकास पर चर्चा करने के लिए प्रान्तीय मंत्रीमण्डल के  उद्योग मंत्रियों की एक बैठक बुलाई । इसमंे भारत के औद्योगीकरण के  लिए एक विस्तृत राष्ट्रीय योजना बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया । प्रांतीय उद्योगमंत्रियों की अनुशंसा पर जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता मंे एक राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया गया । इस समिति ने २९ उपसमितियां ८ वर्गोंं में विभाजित कर बनाई । इन उपसमितियों में राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री और देश के प्रमुख व्यावसायी शामिल थे । इन उपसमितियों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक पक्ष का अपने विशेष संदर्भ में अध्ययन कर रिपोर्ट देनी थी । इस समिति ने उद्योगों को आधारभूत, लोक-उपयोगिता और सुरक्षा वर्ग मंे विभाजित किया था । इसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध (१९३९-१९४५) शुरु हो जाने से देश मंे राजनैतिक और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों मंे परिवर्तन हो गया और भारत के आर्थिक विकास का यह प्रयत्न यहीं रुक गया । ३१ अक्टूबर १९४० को जवाहरलाल नेहरु को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें जेल मंे भारत के आर्थिक विकास की योजना पर काम करने की अनुमति नहीं दी गई ।
    द्वितीय विश्वयुद्ध का एक पक्ष ब्रिटेन भी था । अत: भारत युद्ध की आवश्यक वस्तुओं का पूर्तिकर्ता बन गया था । ब्रिटिश सरकार ने सन् १९४४ में भारत मंे नियोजन एवं विकास नामक एक नया विभाग गठित किया । सन् १९४५ में वायसराय लार्ड बावेल ने नई औद्योगिक नीति की घोषणा की । यहां यह उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों ने भारत में रेलों का जाल बिछाकर भारत के विकास मंे महत्वपूर्ण योगदान दिया था । वास्तव में भारत में रेल उद्योग का विकास इंग्लैंड मंे एकत्रित अतिरिक्त पूंजी के  विनियोजन का एक अच्छा साधन था । ब्रिटेन के  मैनचेस्टर और ग्लासगो के औद्योगिक केन्द्रों के व्यवसायियों ने सरकार पर जोर डाला था कि भारत में जल्द रेलमार्ग बनाये जायें ।
    इस विषय पर डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है कि 'यह कहना गलत है कि इंग्लैंड ने भारत को रेल उद्योग दिया है वरन् भारत ने इंंग्लैंड को रेल उद्योग दिया है ।`` इस रेल निर्माण का मूल्य चुकता करने के लिए प्रतिवर्ष लगभग १ करोड़ पौंड का कच्च माल और वस्तुएं इंग्लैंड जाती थीं । इंग्लैंड की एक मजबूरी यह  भी थी कि उसे अभी तक अमेरिका से मिलने वाली कपास की आपूर्ति बन्द हो गई थी । रेलों के लिए ही बंगाल और बिहार में कोयला खनन उद्योग स्थापित हुआ ।
    इस तरह १९४७ तक भारत विश्व का एक अर्द्धविकसित देश बना रहा । देश की आजादी के ६६ वर्ष और ११ पंचवर्षीय योजनाओं के पूर्ण हो जाने के बाद भी देश की ७० प्रतिशत आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा का अधिकार देने की बाध्यता का क्या अर्थ है ? शेक्सपियर की तर्ज पर क्या हम कह सकते हैं कि, ``विकास में क्या रखा है ?`` आजादी के पहले डाकतार, टेलीफोन, रेडियो, रेल, चाय, काफी, कपास, शक्कर कपड़ा जैसे कृषि, उद्योग और व्यापार के औपनिवेशिक साधन विकसित हुए थे । आजादी के बाद संचार क्रान्ति, टेलीविजन, कम्प्यूटर, मेट्रो ट्रेन, कार, वायुयान, पांच सितारा होटल, टूजी-थ्रीजी संचार और आधुनिक युद्धक प्रणाली देश को मिली है । ऐसा ही और बहुत कुछ भी हमें मिला है । लेकिन सोचना होगा कि इस सबमें आम आदमी के  हिस्से क्या आया है ?
हमारा भूमण्डल
जलवायु पर नया समझौता
मोर्टिन खोर

    पोलैंड के वारसा शहर में पिछले दिनों समाप्त हुए संयुक्त राष्ट्र संघ जलवायु सम्मेलन के अंत में देशों के बीच हुए गहन विचार-विमर्श के पश्चात समुद्री तूफानों, बाढ़, अकाल और जलवायु परिवर्तन के अन्य प्रभावों से पीड़ितों के लिए नई प्रणाली बनाए जाने पर सहमति बन गई      है ।
    इस ऐतिहासिक फैसले ने मौसम संबंधी अतिवादी घटनाओं और शनै:-शनै: होने वाली खतरनाक घटनाओं से प्रभावित देशों को मदद करने के  प्रयासों के लिए अंतरराष्ट्रीय समन्वय हेतु नया मार्ग खोल दिया  है । इस सम्मेलन के प्रारंभ होने के ठीक पहले फिलीपींस के शहरों में आए समुद्री तूफान की वजह से हुई ५००० मौतों और विनाश की धुंधली पृष्ठभूमि ने इसमें भागीदारी करने वालों को ``हानि और विध्वंस`` से निपटने की प्रणाली बनाने में मदद की थी ।
     इस नई प्रणाली से उम्मीद की गई है कि वह देशों को तकनीकी सहयोग उपलब्ध कराकर संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन के साथ ही अन्य संगठनों के भीतर बेहतर समन्वय का प्रयास करेगी । सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह जलवायु परिवर्तन प्रभावों से संबंधित हानि एवं विध्वंस से निपटने में धन इकट्ठा करने, तकनीक एवं क्षमता निर्माण गतिविधियों में भी मदद करेगी । अभी भी आधिकारिक संयुक्त राष्ट्र मानवीय एवं विध्वंस सम्मेलन अपनी संबंधित एजेंसियों के साथ ही साथ स्वयंसेवी समूहों जैसे रेडक्रॉस, मेडिसिन सेंस फ्रंटियर्स एवं आक्सफेम जब भी कोई विध्वंस जैसे फिलिपींस का समुद्री तूफान, २००४ की एशियाई सुनामी या हैती में   भूकंप आता है तो सकिय हो जाते  हैं ।
    धन भी उसी समय इकट्ठा किया जाता है जब ऐसी घटना घटित होती है और ऐसे कार्य में काफी समय भी लगता है । इतना ही नहीं प्रभावित देश तब तक इतने बर्बाद हो चुके होते हैं या पहले से ही गरीब रहते हैं कि वे त्वरित प्रतिक्रिया भी नहीं दे     पाते ।
    बात फिलीपींस के समुद्री तूफान की हो या एशिया में आई सुनामी की, पीड़ितों को भोजन, स्वास्थ्य सेवाएं और रहने का स्थान उपलब्ध करवाने में कई दिन लग  गए । इतना ही नहीं तहस-नहस हुए घरों, शहरों और खेतों के पुननिर्माण में भी बरसों-बरस लग जाते हैं । हानि एवं नुकसान प्रणाली का अर्थ है संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन जो कि जलवायु परिवर्तन से निपटने वाली विश्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई है के भीतर व्याप्त सांगठानिक एवं वित्तीय खाईयों को पाटना । संयुक्त राष्ट्र का जलवायु परिवर्तन पर ढांचागत सम्मेलन वर्तमान में उत्सर्जन को कम करने या जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने की तैयारियों जैसे समुद्री किनारों पर दीवारों का निर्माण एवं ड्रेनेज प्रणाली के लिए धन उपलब्ध करवाता रहा  है ।
    लेकिन अभी तक इसे देशों को हानि एवं विध्वंस से निपटने में मदद करने संबंधी स्पष्ट अधिकार प्राप्त नहीं है । इस नई प्रणाली से संगठनों में नई ऊर्जा का संचार होगा और वे सम्मेलन एवं अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर बेहतर राहत पहुंचा पाएंगे । हाल के वर्षों में प्राकृतिक विध्वंसों से होने वाला नुकसान ३०० से ४०० अरब डॉलर तक पहुंच गया है, जो कि एक दशक पूर्व २०० अरब डॉलर था ।
    सभागृह में प्रतिभागी तब खुशी से झूम उठे जब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से होने वाली हानि व नुकसान से संबंधित ``वारसा अंतरराष्ट्रीय प्रणाली`` के गठन की घोषणा अंतिम समय में हुई बातचीत के माध्यम से संभव हो पाई । इस निर्णय ने दो सप्ताह से जारी सम्मेलन पर छाई निराशा को दूर कर दिया । इसके अलावा यहां से दो अन्य अच्छी खबरें भी मिलीं । पहला वन संबंधित गतिविधियों से होने वाले उत्सर्जन में कमी (इसे आर.ई.डी.डी. प्लस के  नाम से भी जाना जाता है) और दूसरी विकसित देशों से उन राष्ट्रो के लिए १० करोड़ डॉलर की मदद उन राष्ट्रों के लिए लेना जिनके संसाधन कार्बन मूल्यों में आई असाधारण कमी से एकाएक कम हो गए हैं ।
    वहीं विषाद की मुख्य वजह है आर्थिक मोर्चे पर उन्नति का न होना । यानि किस तरह विकासशील देशों द्वारा जलवायु संंबंधी कार्य हाथ में लेने हेतु पूर्व में तयशुदा प्रति वर्ष २०० अरब डॉलर की रकम सन् २०२० तक इकट्ठा कर पाने की मुहिम चल पाएगी । अभी तक तो नाम मात्र का धन इकट्ठा हुआ है और सन् २०२० तक इस लक्ष्य को पाने की कोई रणनीति भी नहीं बनाई है । इन दो हफ्तों में काफी सारी ऊर्जा उस विमर्श पर केंद्रित रही कि आगामी दो वर्षों (डरबन मंच) तक वार्ताओं को किस प्रकार आगे ले जाया जा सके, जिससे दिसंबर २०१५ में जलवायु परिवर्तन पर एक नया समझौता हो पाए ।
    कुछ अमीर देश विकसित व विकासशील देशों के मध्य उत्सर्जन के अंतर को लेकर अपने वायदों को तोड़ने पर उतारु हैं । वहीं दूसरी ओर अनेक विकासशील देश विकसित देशों (जिनके ऊपर उच्च् वैधानिक प्रतिबद्धता है।) और विकासशील देशों की बढ़ती कार्यवाही (जिसे वित्त एवं तकनीक के माध्यम से मदद पहुंचाई जानी है) पर राजी न हो पाने की असमर्थता के चलते डरबन मंच कमोवेश धराशायी होने की कगार पर पहुंच गया था । आखिरी क्षणों में राष्ट्र एक तटस्थ शब्द पर तैयार हुए कि किस तरह सभी देश भविष्य में विमर्श को जारी रखने में अपना योगदान (बजाए प्रतिबद्धता के) देते रहेंगे ।
    विभिन्न देशों के मध्य अब लड़ाई इस बात पर है कि वे अगले वर्ष होने वाली गंभीर चर्चाओं में किस प्रकार उत्सर्जन समाप्त करने और अनुकूलन गतिविधियों में `योगदान` करेंगे और इस हेतु वित्त एवं तकनीक जुटा पाएंगे ।
गणतंत्र दिवस पर विशेष
कानून क्या तोड़ने के लिए बनते हैं?
दिनेश कोठारी

    भारत में कारपोरेट जगत की मनमानी लगातार बढ़ती जा रही है । कानूनों के लचीलापन और खर्चीली न्याय व्यवस्था की वजह से भी इन्हें मनमानी की छूट मिल जाती है । सहमति आदेश ऐसी ही एक प्रक्रिया है, जिसमें बिना गलती माने या नकारे कोई भी कंपनी हर्जाना शुल्क देकर बच सकती है ।
    आधुनिक युग के कानून बनाने वालों ने यह सोचकर इस कार्य को हाथ में नहीं लिया होगा कि समाज में आर्थिक स्तर के हिसाब से कानूनों का निर्माण होगा । लेकिन बदलते समय और पूंजी के लगातार हावी हो जाने से उपरोक्त आशंका कमोवेश सही सिद्ध होती दिख रही  है । इसका एक ताजातरीन उदाहरण है, कारपोरेट विश्व के निहितार्थ भारतीय प्रतिभूति नियामक बोर्ड (सेबी) को प्रदत्त एक विशेषाधिकार जिसे सहमति आदेश या कंसेंट   ऑर्डर कहा जाता है । इसमें कई   तरह के  मामलों में, खासकर निवेशकों के  साथ की गई धोखाधड़ी का नियमितिकरण का प्रावधान   है । 
     अब इसे उदाहरण से समझते हैं । साधारण कानून यानि भारतीय दंड संहिता में प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति  के  विरुद्ध यदि चोरी का आरोप लगता है तो सबसे पहले उससे चोरी के  माल की बरामदगी की जाती है । उसके बाद दंड संहिता के अंतर्गत उस पर आपराधिक मुकदमा चलता है और सिद्ध होने पर उसे अदालत कारागार की सजा सुनाती   है । गौरतलब है इस पूरे मामले में आपसी समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होती ।
    अब सेबी को प्रदत्त सहमति आदेश या कंसेंट आर्डर की बात करते हैं । सन् २००७ में सेबी ने एक प्रपत्र जारी किया, जिसके अनुसार कई मामलों में सेबी को यह अधिकार (संसद द्वारा) दिया गया कि वह निवेशकों के साथ हुई आर्थिक अनियमितताओं एवं धोखाधड़ी जिसमें कारपोरेट के किसी भी कृत्य से निवेशकों को आर्थिक नुकसान पहुंचा हो पर वह दोषी पक्ष से समझौता कर सकता है ।
    सहमति आदेश इसी तरह का समझौता है, जिसमें अपराध करने वाला व नियामक आपसी सहमति से `सहमति के पेटे` बिना अपना अपराध स्वीकार किए या उसे नकारे वह रकम सेबी के पास जमा कर देते हैं, जो कि उसने उसे उपलब्ध सूचना के दुरुपयोग से अर्जित की थी । इसमें वह रकम भी शामिल होती है जो कि उसने उसे अवैध रूप से प्राप्त सूचना (इनसाइड इन्फार्मेशन) के आधार पर अर्जित की होती है । इसे बहुत अच्छे से अमेरिका में गोल्डमेन साश और रजत गुप्ता के बीच हुए सूचना (इनसाइड ट्रेडिंग) और अन्य सौदों के लेनदेन से समझा जा सकता है । गौरतलब है कि मामले में रजत गुप्ता को २ वर्ष की सजा हुई है ।
    भारत में इस दुरुपयोग का मामला रिलायंस की कंपनियों, रिलायंस इंडस्ट्री में रिलायंस पेट्रोलियम के विलय का है । रिलायंस इंडस्ट्री की रिलायंस पेट्रोलियम में ४.१० प्रतिशत की हिस्सेदारी थी । चूंकि रिलायंस समूह में उच्च् पदों पर बैठे प्रबंधकों को उपरोक्त दोनों कंपनियों की विलय के अनुपात की पूर्व सूचना थी ऐसे में इस सूचना का लाभ उठाते हुए, रिलायंस इंडस्ट्री ने रिलायंस पेट्रोलियम में अपनी सारी हिस्सेदारी जो कि करीब ४,१०० करोड़ से ज्यादा की थी, को वायदा    बाजार में बेच दिया । इसके बाद विलय की आधिकारिक घोषणा की  गई ।
    घोषणा के बाद उपरोक्त शेयर वायदा बाजार से खरीदकर नकद बाजार में बेच दिए गए । इसी को आधार बनाकर इसी समूह की १३ अन्य कंपनियों ने भी रिलायंस पेट्रोलियम के शेयर वायदा बाजार में बेचकर अथाह मुनाफा कमाया ।   अब इसे सामान्य भाषा में समझते हैं, विलय के पहले रिलायंस पेट्रोलियम एक स्वायत्त इकाई थी । जैसे ही विलय की घोषणा होती है वैसे ही उसके शेयर का भाव मूल कंपनी यानि रिलायंस इंडस्ट्री से विलय के अनुपात में जुड़ गया । जिस दिन विलय की सार्वजनिक घोषणा हुई उस दिन इसके प्रति शेयर के दाम में एकाएक कमी आई थी । क्योंकि यह विलय रिलायंस पेट्रोलियम के निवेशकों के पक्ष में न होकर रिलायंस इंडस्ट्री के पक्ष में था ।
    यहां इस बात का पता लगाया जाना जरूरी है जब उपरोक्त विलय हुई कंपनी के शेयरों का लेनदेन हो रहा था, उसी दौरान इस समूह की अन्य कंपनियों ने शेयर बाजार में कितना लेनदेन किया और उससे कितनी विशाल मात्रा में लाभ कमाया । यह राशि कई हजार करोड़ तक पहुंच सकती है । इस बीच सेबी के निगरानी तंत्र को कहीं दाल में काला नजर आया और उसने इसकी विस्तृत जांच प्रारंभ कर दी । इससे हड़बड़ाकर रिलायंस इंडस्ट्री ने कारपोरेट जगत को प्राप्त `कानूनी ब्रह्मास्त्र` कंसेंट आर्डर का प्रयोग किया  और सेबी से माफी पाने के लिए अपना पहला प्रस्ताव दिया । आश्चर्य की बात यह है कि इसमें हर्जाना शुल्क स्वरूप मात्र ३ करोड़ रु. देने की पेशकश की गई थी । सेबी ने इसे अस्वीकार कर दिया ।
    तदुपरांत रिलायंस ने `दरियादिली` दिखाते हुए अपने इस प्रस्ताव को १० करोड़ रु. तक बढ़ा दिया । सेबी ने इस पर भी अपनी असहमति जताई तथा इसी दौरान २५ मई २०१२ को उसने एक नया आदेश जारी किया जिसमें उसने इनसाईड ट्रेडिंग (आंतरिक व्यापार) एवं कुछ अन्य अनियमितताओं को समझौते या कंसेट आर्डर के दायरे से बाहर कर दिया । लेकिन इसके बावजूद रिलायंस अभी भी समझौते हेतु दबाव बना रहा है । इसी क्रम में रिलायंस ने सेट (सिक्योरिटी अपीलेट ट्रिब्यूनल यानि प्रतिभूति अपील न्यायाधिकरण) में अपील दायर कर दी । जिस पर सेट ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा `न्याय के हित में सेबी को अपने आदेश पर पुनर्विचार करना     चाहिए ।`
    गौरतलब है यदि पदानुक्रम में देखें तो सेट सेबी से ज्यादा अधिकार प्राप्त संस्थान है और     यह एक अपीलेट प्राधिकारी है । उसके यहां से इस प्रकार की अनुशंसा का  आना, स्थितियों को जटिल बना रहा है । लेकिन उपरोक्त अनुरोध के बावजूद सेबी ने पीछे हटने से मना कर दिया और गेंद अब पुन: सेट के पाले       में  है । इस संदर्भ में सेट में        दो बार कार्यवाही आगे बढ़ चुकी     है ।
    भारत में गैर आपराधिक कानूनों को पिछली तिथि से लागू करने की कानूनी व्यवस्था मौजूद    है । इस मामले पर लगातार अनिर्णय की स्थिति बनी रहना कहीं न कहीं यह शंका पैदा करता है कि प्रभाव का दुरुपयोग तो नहीं किया    जाएगा । जब यह आदेश जारी हो चुका है कि इनसाइड ट्रेडिंग अब पूरी तरह से गैरकानूनी है, ऐसे में बजाए रिलायंस की अपील को रद्द करने के लगातार सुनवाई की तारीखें बढ़ाते जाना भी शंकास्पद है ।
    पिछले दो दशकों में हर्षद मेहता और केतन पारिख जैसे लोगों की कारगुजारियों से शेयर बाजार `गुलजार` हो चुका है । ऐसे में सेबी द्वारा निवेशकों के  हित में उठाए गए कदम को ठीक से लागू न करना क्या उनके साथ वादा खिलाफी नहीं है ?
    यहां यह उल्लेख भी समीचीन होगा कि पूर्व में अनिल धीरुभाई अंबानी समूह की एक कंपनी जिसने अपने विस्तार के लिए विदेशों से धन प्राप्त किया था ने इस राशि का उपयोग अपनी ही एक संचार कंपनी के शेयरों के भाव में हेरफेर के लिए किया था । इस मामले में सहमति आदेश की आड़ में वे मात्र ५० करोड़ रु. का हर्जाना शुल्क भरकर मुक्त हो गए थे ।
    पिछले कुछ वर्षों से हम भारतीय कारपोरेट जगत द्वारा आर्थिक व अन्य नीतियों में किए जा रहे सीधे हस्तक्षेप को साफ देख रहे हैं। इनसाइड  ट्रेडिंग के खिलाफ समय पर कार्रवाई न होना निवेशकों को विचलित करेगा । वैसे भी इस मामले को सेबी के सामने आए ५ वर्ष हो चुके हैं और इसका अभी तक अधर में लटका रहना, भविष्य की धुंधली तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है ।
दृष्टिकोण
प्राकृतिक घटनाये कारण एवं निदान
शम्भुप्रसाद भट्ट स्नेहिल
    भूमण्डलीय अध्ययन करने पर यह  ज्ञात होता है कि यह पृथ्वी जो कि अण्डाकार रूप में विद्यमान है, प्रारम्भ में सूर्य के प्रकाश पुन्ज से निकला हुआ, एक आग का गोला थी । जो करोड़ों वर्षांे के पश्चात् शनै:-शनै:  ठण्डा होकर प्राकृतिक वनस्पतियों से आच्छादित होने लगी ।
    इससे धरातल में नमी का प्रभाव बढ़ने लगा तथा जल स्रोतों का विकास हुआ, जीवधारियों के अनुकूल प्रकृति का प्रवाह होने से इसमें प्राणी की उत्पत्ति हुई । आवश्यकतानुसार अनुकूल वातावरण आदि की उपलब्धता से प्राणी का चरम विकास प्रारम्भ हुआ ।
    मानव प्रारम्भ से ही बुद्धि जीवी एवं विकासोन्मुखी रहा है । जिस कारण वह अन्य प्राणियों एवं वनस्पतियों को स्व-अधीन कर उनका अपनी आवश्यकतानुसार उपभोग करता रहा और साथ-साथ उन्हें संरक्षण भी प्रदान करता रहा है। बुद्धिजीवी होने के फलस्वरूप मानव हर एक अनावश्यक वस्तु, प्राणी व स्थान को अपने ज्ञान से जरूरतों के अनुकूल बनाता गया । इससे प्रकृति का पुरूष अर्थात् मानव के साथ अटूट संबंध बनने लगा, जिससे ये एक दूसरे के पूरक अर्थात् पर्याय बनते गये ।
     मानव द्वारा प्रकृति का दोहन एवं संरक्षण जब तक नियन्त्रण एवं सन्तुलन की क्रिया के आधार पर किया जाता रहा, तब तक प्रकृति की अनुकूलता निरन्तर बनी रही अर्थात् समय की मांग के आधार पर वर्षा, धूप, गर्मी और हवा होने से प्रकृति में उत्पादकता का प्रभाव आवश्यकता के अनुरूप बना रहा । लेकिन वर्तमान जो कि सम्मुख खड़ा है, विगत कुछ वर्षों पूर्व से अनुचित दोहन एवं आवश्यकता से अधिक मानवीय महत्वाकांक्षा के कारण विकास के नाम पर प्राकृतिक वस्तुओं/प्राणियों का उपयोग करने का फल व प्रकृति से स्वार्थपरता तक ही सम्बन्ध रखने की प्रवृत्ति और उसका बेरुखापन इन सबका परिणाम आज प्राकृतिक एवं दैवीय आपदा एवं समस्यायें सम्मुख आती दिखाई दे रही हैं ।
    सामान्य जीवन यापन के बजाय मानव में बहुत शौकीया एवं अय्याशी किस्म के जीवन यापन करने की महत्वाकांक्षा उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर अग्रसर होती चली जा रही है, जहां सामान्य दो कमरों के हल्के वजनी भवनों में काम चलाया जा सकता, आज वहां बहुमंजिली भवनों का विकास किये जाने से पृथ्वी के किसी अधिक भार क्षमता वाले स्थान से मिट्टी, रेत, पत्थर आदि उठाकर कम भार क्षमता वाले स्थान पर स्थानान्तरित करके प्राकृतिक सन्तुलन को बिगाड़ने की कोशिश किये जाने से कम क्षमता वाले स्थान में डालने व ज्यादा भार प्रवाहित होने से पृथ्वी में हलचल की स्थिति पैदा होने लगी है, जिसे पृथ्वी की सन्तुलन एवं नियन्त्रण की क्रिया कहते हैं । ऐसी स्थिति में उस भू-भाग में हल्का झटका लगने से भूचाल या भूकम्प का प्रभाव बढ़ने लगता है ।
    हिमालयी क्षेत्र के अन्तर्गत धरातलीय हलचल का कारण यह भी है कि कुछ वर्षों से विकास के नाम पर निर्मित कल-कारखानों, यातायात आदि के साधनों से निकलने वाले भयानक गैस के प्रभाव एवं वन व सिविल क्षेत्रों में लगने वाली आग लपटों से प्रवाहित धुएं से वायुमण्डल धूमिल होता जा रहा है । इससे उसकी स्वच्छ वायु प्रदान करने की क्षमता का ह्रास होता जा रहा है, जिससे पृथ्वी के तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही है । तापमान की वृद्धि के कारण कुछ वर्षों से पहाड़ी क्षेत्रों के साथ हिमालय में भी हिमपात की औसतन मात्रा में कमी देखी जा रही है और विभिन्न गैसों के प्रभाव से हिम पिघलने की दर बढ़ गई है ।
    जिससे हिमालय में भी स्थिरता की स्थिति विचलित हो रही है, हिम पिघलने से लगातार नीचले क्षेत्र को नदी पानी के रूप में प्रवाहित होने से अपरदन की क्रिया निरन्तर जारी है । हिम क्षेत्र हल्का होने व यहां से अनाच्छादित होने वाले धरातलीय पत्थरों, रेत, मिट्टी आदि अन्यत्र स्थान में जाने से हिमालयी क्षेत्र हल्का होने से ऊपर की ओर उठता हुआ महसूस किया जा रहा है, जबकि अन्य क्षेत्र नीचे की ओर धंसते जा रहे हैं । ऐसी स्थिति में किसी भी समय प्राकृतिक संतुलन के पुनर्स्थापन के लिए पृथ्वी के भू-भाग पर झटका लगने से भूकम्प आ जाने की प्रबल सम्भावना बन जाती है ।
    पृथ्वी सूर्य से निकला एक प्रकाशपंुज अर्थात् आग का गोला था, जिसका क्षेत्र स्थलीय व जलीय दो भागों में विभाजित होकर उत्तरी एवं दक्षिणी धु्रव के नाम से जाना जाने लगा । इसका स्थलीय क्षेत्र दो भूखण्डों में विभाजित था, जिनको अंगारालैण्ड व गोण्डवानालैण्ड कहकर पुकारा जाने लगा । दोनों के मध्य टैथीस नामक एक विशाल सागर था, जिसमें उत्तर व दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्रों से नदियां करोड़ों वर्षों तक अनवरत प्रवाहित होकर भूखण्डों का आच्छादन करती हुई, जमीनी अवसाद/मलवादि को टैथीस सागर में समाती रही । जिससे टैथीस सागर में भराव होने लगा, इसमें वनस्पतियों, प्राणियों व अन्योन्य चीजोंें का अंश जमा होते रहने से हल्की कच्ची वस्तुओं के कारण सागर तल से पानी का बहाव विपरीत दिशा अर्थात् धु्रवीय क्षेत्रों की ओर होने   लगा । वह पर्वत के रूप में तल से ऊपर उठने लगा और (ध्रुवीय क्षेत्र) नदी प्रवाह क्षेत्र धंसने लगा ।
    यही कारण है कि हिमालय के गर्भ में समाये विभिन्न अंश के सड़ने गलने से तरल पदार्थ रूप में खनिज तेल बनकर खाड़ी क्षेत्रों (अरब देशों) में ढ़लान होने से वहां बहाव होने के कारण उस क्षेत्र में आज भी अत्यधिक तेल भण्डार मिलते हैं, जो क्षेत्र की आर्थिकी का अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग है । वर्तमान में हिमालयी क्षेत्र से अधिकतर नदियां उद्गमित होकर सागरों की ओर बहती चली जा रही है । आज इन्हीें नदी प्रवाह क्षेत्रों के प्रभाव से कृषि उत्पादकता में काफी  सुधार दिखाई दे रहा है । शतत् रूप से इनकी अनुकूलता बनी रहे, इसके लिए इनका उचित संरक्षण बनाये रखना आवश्यक  होगा।
    अफ्रीका महाद्वीप व यूरेशिया के मध्य भूमध्य सागर है, जिसमें कई नदियां समाती हैं और कई उत्पन्न होकर महासागरों की ओर प्रवाहित होती हैं। विभिन्न महाद्वीपों की स्थलाकृत्तियों को देखते हुए यह स्पष्ट  ज्ञात हो जाता है कि ये सभी महाद्वीप पूर्वकाल में एक दूसरे से जुड़े हुए थे, तदनन्तर समय के अन्तराल से बाद में भूगर्भीय स्थिति एवं प्राकृतिक संतुलन आदि विभिन्न कारणों से यह वृहद् भू-भाग विभाजित होकर पृथक्-पृथक् छ: महाद्वीपों के रूप में अस्तित्व में आया । प्रत्येक विभाजित भू-खण्ड के स्थलीय भाग के मध्य महासागर, सागर, झील आदि अवस्थित है । इससे स्पष्ट होता है कि इस स्थलीय भाग के गर्भ में जल का आधिक्य  है । जब भी भू-खण्ड विखण्डित/स्खलित होता है, उससे भूतल के  नीचे (गर्भ) से जमीन के ऊपर को पानी का निकास प्रारम्भ हो जाता है, जो कि आन्तरिक गाढ़े (लावा) पदार्थों के विभिन्न छिद्रों से छन-छनकर शुद्ध जल के रूप में तालाबों व विभिन्न जल स्त्रोतों के माध्यम से धरातल पर प्रवाहित होकर अस्तित्व में आता है ।
    पृथ्वी के धरातल में पूर्वकाल से ही प्राकृतिक वस्तुओं का अथाह भण्डार भरा-पड़ा है, इन वस्तुओं को अदूरदर्शी, महत्वाकांक्षी मानव आज समय, परिस्थिति व वस्तु तदनुसार न होने पर भी अपने अनुकूल बनाने की कोशिश करके अपना प्रयास सफल समझ रहा है । मानवीय प्राणी पूर्वकाल से ही जनसंख्या एवं भार की दृष्टि से समानान्तर रहा है, लेकिन उसमें भावनाओं एवं विचारों के शुभ-अशुभ का अन्तर अवश्य है । जहां सद्विचारों, उच्च् विचारों का अनावश्यक दबाव कम होता है, वहीं भावनाओं की निकृष्टता व दुर्विचारों के दबाव में भार की अधिकता बढ़ जाती है । जिस कारण अच्छाइयों को बनाये रखने के लिए प्रकृति के  संचालक परमेश्वर को अन्याय के भार वहन करने से हो रही अव्यवस्था के फलस्वरूप प्रकृति के पुनर्स्थापन की आवश्यकता पड़ती है ।
    जिसमें प्राणियों के दुर्विचारों के प्रतिफल हेतु समय-समय पर सचेत रहने, सतर्कता आदि प्रयास के तहत घटनाओं का प्रादुर्भाव होता है । इसमें जन-धन एवं भू-आकृतियों का विघटन होकर विध्वंशात्मक क्रिया गतिशील होती है, क्योंकि धरातल में समाये अनेकानेक खनिज पदार्थों के  अनवरत दोहन होने से उसका ईंधन आदि आपूर्ति में प्रयुक्त किये जाने पर वह धुंए के रूप में प्रवाहित होने लगता है, जिससे धरातलीय भार कम होकर धुएं के कारण वायुमंडल में अनुपयोगी गैसों का भार बढ़ जाता है, इससे प्रकृति (ब्रह्माण्ड) के  संचालन में अनावश्यक विघ्न पैदा हो जाता है ।
    पृथ्वी के किसी क्षेत्र में भू-खण्ड विखण्डित होकर दरार पड़ने से भूगर्भीय गर्मी/गैस के कारण उस दरार से इल्का धुंआ जैसा बाहर आता दिखाई देता है, यह आन्तरिक शक्तियों से प्रवाहित भाप है । भूकम्प, भूस्खलन आदि अनेकों प्रकार की आपदाओं का पूर्वानुमान स्पष्टत: वर्तमान में विज्ञान के विकास का चरमोत्कर्ष होने पर भी आज पूर्णत: सम्भव नहीं हो पाया है, लेकिन वैज्ञानिकोंद्वारा किसी भी प्राकृतिक घटना के होने से पूर्व उसका पूर्वाभास  ज्ञात करने की तकनीक का विकास निरन्तर जारी है ।
    इससे यह ज्ञात होता है कि प्रकृति के सम्मुख आज की आधुनिकता पूर्णत: सफल तो नहीं है, परन्तु दैवीय एवं आकस्मिक आपदाओं-घटनाओं से निपटने हेतु आवश्यक व महत्वपूर्ण साधन तो उपलब्ध हैं ही । आस्तिकता एवं नास्तिकता और धार्मिकता एवं वैज्ञानिकता आदि किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाय तो प्राणियों के प्रति बेदर्दपन, बेतहाशा उत्पीड़न, विदोहन एवं आपसी आत्मीयता व प्रेम व्यवहार के गिरते ग्राफ व बढ़ती ईर्ष्यालु एवं उत्पीड़नात्मक प्रवृति के साथ स्वार्थपरता तक ही सम्पर्क/सम्बन्ध स्थापन स्वभाव के कारण प्रकृति के  महाकाल अर्थात् उसके संचालक परमेश्वर का रौद्ररूप महाविनाश का संकेत दे रहा है कि यदि अभी भी इन्सान न सम्भला, तो ऐसे अन्यायी, अत्याचारी प्राणी का सम्पूर्ण विनाश अवश्यम्भावी है ।
    इसलिए आज आवश्यकता इस बात की हो चली है कि प्रकृति की किसी भी वस्तु के प्रति आत्मवत् व्यवहार करना चाहिए, तभी उनकी अनुकूलता समस्त प्राणी मात्र के लिए निरन्तर बनी रह सकती है ।
    आज नैतिकता का पतन जिस तीव्रता से हो रहा है, इससे यह आभास होता है कि भविष्य में मानव अपने अस्तित्व की रक्षा में सम्भवत: पंगु हो जायेगा, ऐसी स्थिति में मानवीय सद्भावना के ह्रास होने की प्रबल सम्भावना बढ़ जायेगी । किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि सभी मानव नास्तिक, अन्याय व अत्याचारी हो जायेंगे और न ही यह अतीत के उदाहरणों को देखते हुए सम्भव है । इसका प्रतिशत अवश्य बढ़ सकता है, परन्तु धर्म व आस्तिकता का स्तर शून्य नहीं हो सकता । क्योंकि धर्म तो जड़ है, जिसके सहारे संसार विद्यमान रहता है, हजारों जड़ों में से एक जड़ भी जब तक (जीवित रहे) विद्यमान रहे, तब तक धर्म का अस्तित्व बना रहता है, परन्तु अधर्म के दबाव में धर्म का प्रभाव अवश्य ही कम हो जाता है ।
    इसी प्रकार अधर्मी व पाप से प्रभावित समाज में अच्छे इन्सान के व्यक्तित्व की पहचान मिटती चली जाती है । बहुमत की आड़ में निष्क्रिय विचारकों का बोलबाला होने से उत्कृष्ट विचारकों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। धर्म विश्वास का एक उत्कृष्ठतम सद्विचार है, जो कि अच्छाई एवं सच्चई का रास्ता दिखाता है (सत्य का पथ प्रदर्शक है)। सज्जनों को अपना अस्तित्व खतरे में लगता है, ऐसी स्थिति में दुर्जनों के वर्चस्व से अच्छे इन्सानों का ईमान भी डगमगाने लगता है । जिससे क्रूरता का प्रभाव बढ़ने लगता है ।
    वर्तमान में यदि जनसंख्या का भार माना जाय तो, क्या द्वापर युग के अन्तिम चरण में हुए महाभारत युद्ध में (मारी गयी) युद्धरत्त अठ्ठारह अक्षौहिणी सेना का कुछ भी भार नहीं था ? इसके अलावा भी तो अन्य कई प्राणी उस समय अस्तित्व में रहे होंगे, परन्तु उपरोक्त अन्तर में धार्मिक भावनाओं के हा्रस से दुर्भावनाओं के भार की अधिकता का अन्तर अवश्य ही रहा है । फिर यह भी तर्क दिया जाता है कि विगत शताब्दियों में मनुष्य की शरीराकृति आज के एक हृष्ट-पुष्ट मानव से कई गुना अधिक रही है, जिसमें आज के हजार मानवों के बराबर शक्ति के साथ भार की अधिकता भी रही होगी ।
    कहा भी जाता है कि तत्कालीन यौद्धाओं में सौ-सौ हाथियों के बराबर की शक्ति थी । इस दृष्टि से आज की अरबों जनसंख्या और विगत लाखों जनसंख्या के भार में कई अन्तर तो नहीं महसूस होता है, इसमें भार वृद्धि का तर्क के सम्बन्ध में उक्त वर्णित आधार पर भावनात्मकता के अन्तर का तथ्य सही एवं सत्य महसूस होता है । इसे इस प्रकार भी स्पष्ट किया जा सकता है कि एक स्थान से सादी मिट्टी व पानी को लेकर उसे पृथक्-पृथक् तौलने पर निकला दोनों का कुल भार और फिर उन दोनों को एक साथ मिश्रण कर पुन: एकीकृत वस्तु के वजन लेने पर उसका भार पहले की अपेक्षा अधिक पाया जाता है । जबकि वस्तु वही है मात्र वस्तु की प्रकृति परिवर्तन का अन्तर है । इसमें वस्तु के घनत्व का प्रभाव बढ़ जाता है । इसी प्रकार शुद्ध सात्विकता व दुर्भावना का प्रभाव भी होता है ।
    धर्म का ह्रास होकर परम अन्याय, अत्याचार वर्तमान में ही हो रहे हैं, तो पूर्व काल (सतयुग, त्रेतायुग व द्वापर) में धर्म की स्थापना हेतु ईश्वर को मानव शरीर में क्यों अवतरित होना पड़ा ? इसका उत्तर यह दिया जा सकता है कि पाप और पुण्य का आपसी संघर्ष प्राणी के अस्तित्व में आने के समय से ही निरन्तर चला आ रहा है । कभी पुण्य का दबाव पाप के पैराग्राफ को गिरा देत, तो कभी पाप का प्रभाव पुण्य को गिराकर अपना वर्चस्व कायम कर देता है ।
    इस प्रकार यह हर काल व युग से निरन्तर चली आ रही शतत् प्रक्रिया है । यहां यह समझना आवश्यक होगा कि धार्मिकता का प्रभाव सनातन/निरन्तर विद्यमान रहता है, जबकि पाप-अधर्म, जो कि किसी भी रूप में अति भौतिक सुख प्राप्ति की आकांक्षाओं का ही पर्याय होता है, का प्रभाव त्वरित प्रवाही, लेकिन अल्पकालिक होता है । इस कारण यह सोचना ही बुद्धिमत्ता का कार्य है कि हमारे अनुकूल कौन सा मार्ग है, जिसमें कि अपने विकास के साथ-साथ सर्वजनहित भी सन्निहित हो । 
    सच्चई व ईमानदारी की राह पर चलने से सफलता लम्बे अन्तराल के पश्चात् मिलने के फलस्वरूप अधिकांश जन अल्पावधि में ही अवैधानिक रास्ते से शीघ्रातिशीघ्र सफलता प्राप्त करने की ओर आकर्षित होते चले जाते हंै । सद्मार्ग से मिलने वाली सफलता शाश्वत् व स्थायी होती है, जबकि दूसरे मार्ग अर्थात् शार्टकट मार्ग से प्राप्त होने वाली सफलता नितान्त अस्थायी होती है। आज तो सब्र की कमी हर इन्सान में दिखाई देती है, समाज में सद्विचारकों व सद्कर्मियों को तो निरन्तर दु:ख/कष्ट का ही सामना अनैतिकता के दौर में करना पड़ता है, यही नहीं उनके व्यक्तित्व को भी कोई महत्व नहीं दिया जाता है, इससे कुछ जनों को मजबूरन सद्कर्मों को त्यागना पड़ता है, सद्मार्गगामी को अपने सद्कार्यों को किसी भी परिस्थिति में नहीं त्यागना चाहिए । आज फिर भी सत्य, धर्म आदि सद्गुणों से युक्त इन्सान विश्व में विद्यमान हैं ही, जिनकी सद्भावना व सद्कर्मों के  प्रभाव से संसार का अस्तित्व शतत् बना हुआ है और जो बना ही रहेगा।
 जनजीवन
घटते गांव से गहराता खाद्य संकट
रिचर्ड महापात्र

    तेजी से बढ़ते शहरीकरण की वजह से भारत की खाद्य सुरक्षा संकट में पड़ गई है। भारत की जनगणना २०११ के अनुसार देश के ६४० जिलों में से अब मात्र १०० जिले ऐसे बचे हैं, जिनमें ग्रामीण जनसंख्या अधिक है । शहरीकरण जहां खेती की जमीनों को लील रहा है । वहीं दूसरी और बढ़ती जनसंख्या से खाद्य पदार्थों की मांग भी बढ़ती जा रही  है । साथ ही शहरी उपभोक्ताआें की खाद्य आवश्यकताओं की प्राथमिकता भी अलग है ।
    अफसोस इस बात का है कि हमारे राजनीतिक विमर्श में इस बिंदु की अनदेखी की जा रही  है । भारत में ग्रामीण शहरी विभाजन पर चर्चा आम बात है । यदि अर्थव्यवस्था के हिसाब से बात करें तो यह विभाजन राजनीतिज्ञों को अपने-अपने तर्क तैयार करने में मददगार सिद्ध होता है । पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव की घोषणा होते ही अनपेक्षित रूप से ग्रामीण शहरी विभाजन नामक इस प्रक्रिया में आखिरी दाव ने अपनी पवित्रता खो दी है । 
     सकल घरेलू उत्पाद सबसे ताकतवर राजनीतिक तर्क के रूप में उभरा है । बहुत जोर शोर से यह तर्क दिया जा रहा है कि ग्रामीण मतदाताओं की आकांक्षाएं भी शहरी मतदाताओं जैसी ही हैं ।  इससे ग्रामीण बनाम शहरी बहस ही पटरी से उतर गई है । राजनीतिक बहस इशारा कर रही है कि आर्थिक वृद्धि की अंतिम राजनीतिक पहल होगी ।
    सन् २०११ की जनगणना से सामने आया है कि जिस तेजी से भारत में शहरीकरण हो रहा है वह देश के इतिहास में सबसे तीव्र है । व्यापक ग्रामीण क्षेत्र शहरी क्षेत्रों में बदल गया, जिसके परिणाम स्वरूप यह निश्चित तौर पर माना जा सकता है कि ग्रामीण आकांक्षाओं की दिशा बदली है और वे शहरी मध्य वर्ग जैसी प्रतीत होने लगी है । भारत की जनगणना के अनुसार भारत में किसानों के बनिस्बत खेतिहर मजदूरों  की संख्या अधिक है । यह सब कुछ इस तथ्य के बावजूद है कि परिचालन या खेती योग्य भूमि में तो वृद्धि हुई है लेकिन इसी के समानांतर उत्पादन में नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई है ।
    इसी तरह की प्रवृत्ति आर्थिक रूप से कमजोर अनुसूचित जाति एवं जनजाति समूहों में भी देखी गई है । तो ऐसे में राजनीतिज्ञ ऐतिहासिक ग्रामीण-शहरी विभाजन के नाम पर मत क्यों मांग रहे हैं । इसके बजाय देखें तो सरकारी दस्तावेजों के मद्देनजर राजनीतिज्ञों को बिना किसी झिझक के दोनों समूहों के बीच की खाई को पाटने के लिए शहरीकरण को प्रोत्साहित करना चाहिए । यही वह बिंदु है जहां से अब गलती साफ नजर आने लगती है ।
    इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत परिवर्तन काल में है, लेकिन इसके बावजूद इसका शहरीकरण का सफर पूरा होने में अभी काफी वक्त लगेगा । इस संधिकाल को लेकर काफी सारे सवाल सामने आ रहे हैं । लेकिन इसका एक मूलभूत और शहरी एवं ग्रामीण दोनों के लिए समान विध्वंसक परिणाम यह है कि तेजी से हो रहा शहरीकरण किस प्रकार भारत के खाद्य उत्पादन को प्रभावित करेगा ।
    इस प्रक्रिया से खाद्य उत्पादन के लिए प्रयोग में आने वाली भूमि बड़ी मात्रा में शहरी इस्तेमाल की भेंट चढ़ जाएगी । ठ ीक इसी समय शहरीकरण की वजह से खाद्य पदार्थों खासकर दूध एवं सब्जी जैसे अधिक कीमत वाले खाद्य पदार्थों की मांग में काफी वृद्धि दर्ज की गई है । विवाद एकदम  सामान्य है, हमें खाद्यान्न उत्पादन हेतु आनुपातिक मात्रा में भूमि चाहिए । यह परिवर्तन किस प्रकार किसानों को प्रभावित करेगा या दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे ग्रामीण क्षेत्र जो एकसमय मुख्यतया बड़ी मात्रा में कृषि उत्पादन करते थे उन्हें प्रभावित करेगा ? क्या इस परिवर्तन के कोई सकारात्मक प्रभाव भी हैं ?
    यह सबकुछ किसी क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करता   है । सबसे पहले देखते हैं कि किस  प्रकार शहरीकरण, ग्रामीण क्षेत्र जो कि खाद्य उत्पादन का मुख्य क्षेत्र है को प्रभावित करता है । भारत में अधिक ग्रामीण जनसंख्या वाले ५० शीर्ष जिले अधिकांशत: भारत के पूर्वी हिस्सों एवं आंशिक तौर पर उत्तरप्रदेश और बिहार में स्थित हैं । इनमें से दो तिहाई में अति शहरीकरण हो रहा    है । इन जिलों में पारंपरिक तौर पर स्थानीय फसलें जैसे मोटे अनाज का भोजन में उपयोग होता रहा है, लेकिन शहरी आबादी बढ़ने से इनकी खान-पान की आदतों में भी परिवर्तन   आया । अब यहां सब्जियों, दूध एवं पोल्ट्री उत्पादों की मांग बढ़ गई है ।
    फसल उत्पादन चक्र में परिवर्तन कर किसानों का एक वर्ग लाभान्वित भी हुआ है । लेकिन फसल चक्र में हुए परिवर्तन के स्थानीय खाद्य उपलब्धता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं । यह बात उभर कर आ रही है कि मुख्य शहरी केन्द्रों के पिछवाड़े आने वाले ग्रामीण जिलों के फसल चक्र में आधारभूत परिवर्तन आया है । वहां किसानों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो गई है जिसने पारंपरिक फसलों से नाता तोड़ लिया है और अब वे खाद्यान्नोंके उत्पादक न होकर उसके खरीददार बन गए हैं । भोजन का अधिकार अभियान के अनेक कार्यकर्ताओं ने इंगित किया है कि हालांकि भोजन तो उपलब्ध है कि पोषण असुरक्षा पैदा हो गई  है ।
    ध्यान देने योग्य बात है बहुत तेजी से शहरीकरण की गिरफ्त में आते ये अधिकांश ग्रामीण जिले अत्यंत कुपोषित भी हैं । तेजी से शहरीकृत होते ये अधिकांश जिले भारत के वर्षा पोषित क्षेत्रों में हैं । यही वो क्षेत्र हैं जिन्हें भारत की खाद्य उत्पादन सुरक्षा हेतु चिन्हित किया गया है क्योंकि सिंचित क्षेत्र कमोवेश उत्पादन के शीर्ष पर पहुंच चुके हैं । इन जिलों में अब खाद्य उत्पादन में कमी का अर्थ है भारत की भविष्य की खाद्य उत्पादन रणनीति भी दांव पर है ।
    वर्तमान राजनीतिक विमर्श में इस खतरे की गूंज बहुत कम सुनाई दे रही है । यह इसलिए अत्यंत विरोधाभासी प्रतीत होता है क्योंकि भारत के दो तिहाई संसदीय क्षेत्र ग्रामीण हैं और ये हर हालत में इस परिवर्तन से गुजर रहे हैं । इस विद्यमान स्थिति को लेकर पहली बात यह कि या तो राजनीतिज्ञ आर्थिक वृद्धि को ग्रामीण मतदाताओं के गले उतारने की बात पर पहले ही एकमत हो चुके हैं । या वे इस परिवर्तन के समय में उनकी मदद कर पाने में असहायता महसूस कर रहे हैं । राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर संसद में हुई बहस के दौरान एक भी सदस्य ऐसा नहीं था, जिसने भारत में खाद्य सुरक्षा पर आसन्न खतरे को स्वीकार न किया हो । लेकिन किसी ने यह नहीं देखा कि यह शहरीकरण का परिणाम है । देश में केवल १०० जिले ऐसे बचे हैं, जिनमें शहरी के बजाए ग्रामीण जनसंख्या अधिक है । ये अब कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के जीवित फाजिल्स की तरह हैं । इस बात की पूरी संभावना है कि यही वे जिले हैं, जहां से भारत को भोजन मिल पाएगा । यह देखना रुचिकर होगा कि ग्रामीण शहरी विभाजन पर वर्तमान में पर चल रही राजनीतिक बहस को मतदाता किस तरह से देखते हैं ।
 लघुकथा
नीम का पेड़
राजेश घोटीकर
    सुबह उठते ही नीम के गिरे पत्तों से भरा प्रांगण देखकर उसने अपने दादाजी से कहा - कितना कचरा हो रहा है रोज के रोज । आप ये नीम का पेड़ कटवा क्यों नहीं   देते । दिन भर ये पत्ते झड़ते रहते    हैं । लान खराब कर देते हैं । चाहे कितनी सफाई करों ये पत्ते गिरते ही जाते हैं । अब रोज की भागदौड़ भरी जिन्दगी में ये नया बिना मतलब का काम........ वह आगे कुछ और कहता उसके पहले ७२ वर्षीय दादाजी ने उसे देखा, हौले से मुस्कुराकर पास रखी कुर्सी पर बैठ जाने का इशारा किया । चाय की केतली से चाय पास रखे कप में भरी और पूछा तुम पियोगे ।
    राजेश ने हामी भरी तो दादाजी ने दूसरे कप में भी चाय उड़ेली फिर शक्कर और दूध मिलाकर हिलाते हुए आगे बढ़ा दी । राजेश ने  ट्रे में रखे बिस्किट उठाकर चाय में डुबोए और खाने लगा ।
    दादाजी ने घर के बाहर बड़ा ही सुन्दर बगीचा लगा रखा है, मकान से तीन गुना बड़ा । गलियारा और आग के हिस्सा सुन्दर रंग बिरंगे फूलोंवाले पौधों, गमलों, बेलों से सजा हैं । रोज सवेरे दादाजी चाय पीकर बगीचे में टहलते हुए निरीक्षण करते हैं, साफ सफाई करते कराते हैं । पौधों को पानी लगाने में उन्हें बड़ा ही आनंद मिलता है । अभी बसंत ऋतु के दौर में पिछले दस दिनों से पत्ते झड़ रहे  हैं । पतझड़ का आगाज हुआ है और बड़ी तेजी से नीम के पत्ते झड़नेलगे हैं । राजेश आज जल्दी उठ गया है । बगीचे में लान को पत्तों से ढंका देख दादाजी से यह बात कह रहा है ।
    चाय की चुस्की लेकर दादाजी ने अपने नए डेन्चर में बिस्किट फंसा कर चबाया और कहा - राजेश, देखो नीम का यह पेड़ तब से है जब मकान बनाते वक्त तुम्हारी दादी ने इसे लगाया था । सुन्दरता के लिए तो आज भी कई पौधे है मगर गांव की चौपाल पर लगा नीम का पेड़ जिसके नीचे सारे गांव के लोग इकट्ठे होते थे । अपने सुख दु:ख की बातें किया करते थे । पंचायत के सार्वजनिक फैसले भी उसके नीचे हुआ करते थे । बचपन में झूले बांधकर हम झुला करते । दातुन से लगाकर कई दवाआें में हम उसका इस्तेमाल किया करते । वह पेड़ इस नीम में मुझे नजर आता है । तुम्हारी दादी के माइके के आंगन में लगा पेड़ इसी पेड़ में उनकी यादों में बसा था । नीम के गुणों को ध्यान में रखकर हमने अपने हाथों इसे    सींचा । कालोनी के एक मात्र हेंड  पम्प से पानी लाकर हमने इसकी परवरिश की ।
    तुम्हारी दादी और मोहल्ले की औरते इसके नीचे बैठ सब्जियां साफ करते बतियाती बैठती थी । तुम्हारे पिताजी की शादी के बाद कई रिश्तेदारों ने, हाँ तुम्हारे मामा ने भी गर्मी की छुटि्टयां इसी के नीचे बिताई हैं । नीम का शरबत भी बनाकर अपने स्वास्थ्य के लिए पिया है । नीम के पत्तों को जलाकर रात में हम मच्छर भगाते थे । इसके पत्तों की खाद में कीटनाशक मिलाने की जरूरत नहीं होती थी । अब आज घर में ट्यूबवेल है मोस्कीटो रिपिलेन्ट बिजली के इस्तेमाल से चलता है । घर वातानुकूलित हो गया है । वाटर प्यूरीफायर आ गये है तो आधुनिक जीवन शैली में तुम्हे यह अनुपयोगी जान पड़ता है ।
    अभी पतझड़ की वजह से इसके पत्ते झड़ रहे हैं जो और दस दिन झड़ेगे उसके बाद यह फिर लाल पत्तों से भर जाएगा फिर छांह देने को ये पत्ते हरे भरे ही जायेंगे । फिर फूल खिलेंगे और महक बिखरेंगे जो गर्मी का अहसास घटाने में अपनी भूमिका अदा करेंगे । निम्बोली लगेगी और जब पककर गिरने लगेगी तो वर्षा का दौर प्रारंभ होगा यानी नीम हमें मौसम का अंदाजा लगाने में मदद करेगा । मैं तुम्हारे तर्क से की पत्ते गिर रहे तो इसे काट डाला जाये से सहमत नहीं हॅूं । इस पेड़ के साथ मेरी कई यादे जुड़ी है । किसी को घर के बारे में बताते वक्त नीम का पेड़ वाला घर कह देना काफी होता है ।
    तुम्हारी दादी ने कैसे इसे टूट जाने से बचाने के लिए भरी बरसात में भीगते हुए बांस का सपोर्ट    लगाया । अब वो हमारे बीच नहीं है मगर वो इस नीम में याद बनी हुई  है । गर्मी के दौर में छत पर इसकी छांह ठंडक बनाए रखते है । इसकी मंद गंध भरी शुद्ध वायु शारीरिक स्वस्थता के लिए उपयोगी है । धरती को ठंडा रखने में, जलसंचय में इसका अपना महत्व है । आज लोग दूषित वायुपान कर बीमार है तब हमारे ऑगन में लगा पड़े हमें तो स्वास्थ्य  के लिए भरपूर ऊर्जा भी दे रहा है न ?
    कहते हैं जब कोई चीज हमारे पास नहीं होती तब उसका मोल समझ में आता है । आज यह पेड़ हमारे आँगन में है तो तुम्हारे लिए बिना मोल का है । मगर जब हमने इसे लगाया था तब दूर दूर तक खुले तपते मैदान हुआ करते थे । इस पेड़ ने हमें राहत की कई सौगात दी । जो कुछ इस पेड़ ने हमें अब तक दिया है उसका काफी बड़ा अंश हम वापस लौटा भी नहीं पायेंगे कभी ।
    चाय पीकर दादाजी बगीचे में जाने लगे तो उन्होने राजेश का हाथ थामा और साथ चलने की कवायद की । राजेश को उन्होनें पेड़ की कोटर दिखाई जिसमे तोते घोंसला बनाने के लिए आते जाते दिख रहे थे । गिलहरियों की गतिविधि दिखलाई । पेड़ पर बैठे पक्षियों से परिचित कराते हुए जीवदाय का पाठ पढ़ाया । गिर पत्तों पर चलने की खडखहाट का संगीत समझया । तुम्हारे दादाजी इस पेड़ के नीचे अपने पचास बरस बिता चुके है । यह पेड़ तो घना हो गया मगर दादाजी रिटायर होकर अनुपयोगी से है, जेब में पैसा है इसलिए कोई एतराज नहीं है । वरना मैं खुद भी तो पेड़ से झड़े इन पत्तों की तरह का ही तो हॅू ...... किसी काम का नहीं, हाथ पैर चल रहे तो बागवानी में समय काट लेता हूॅ । सुबह इसकी छांह में बगीचे को पानी पिलाना शान्ति देता है ।
    राजेश की शादी हो गई और उसके बेटे ने स्कूल जाना प्रारंभ कर दिया है । पिताजी आज किसी इंजीनियर के साथ डिस्कस कर रहे हैं । दादाजी को गुजरे आज कोई दो बरस हो गए हैं । इंजीनियर की सलाह है पेड़ हटा देने की । राजेश ने जब सुना तो वह बोला कि आप नक्क्षा बदल डालिए पेड़ नहीं कटेगा । इंजीनियर उसे जगह की कीमत समझाने लगा मगर राजेश टस से मस नहीं हो रहा था । आखिर नक्क्षा बदल कर निर्माण किया जाना तय हुआ ।
    राजेश को पिताजी ने पूछा तु तो कभी इस पेड़ हटवाने के लिए कई बार दादाजी से बातें करते थे आज तुम्हें क्या हो गया ? यह विरोधी रूख क्यों भला ?
    राजेश ने कहा - पिताजी नीम का यह पेड़ पहले मेरे लिए सिर्फ पेड़ था मगर अब यह याद बन गया है दादाजी की जिनकी मेहनत और लगन से यह बड़ा हुआ । उन्होनें मुझे इसका मोल समझाया था । तो पिताजी अनमोल बन चुके इस पेड़ को भला मैं कैसे कट जाने देता ?
विज्ञान हमारे आसपास
कितने दूर हैं टिमटिमाते तारे
एस. अनंतनारायणन

    अंधेरे में हमारी ओर कोई कार आ रही है तो हम आसानी से बता सकते हैं कि वह पास ही या बहुत दूर है । इसके लिए हम उसकी हेडलाइट की चमक का सहारा लेते हैं । हमें यह अंदाज होता है कि सामान्यतया कार की हेडलाइटस  कितनी चमकती है । यदि सामने से आ रही कार की लाइटें उसके मुकाबले कम चमक रही हैं या बहुत चमक रही हैं, तो हम अनुमान लगा सकते हैं कि वह लगभग कितनी दूरी पर है । ऐसे ही तरीके का उपयोग आकाश के तारों की दूरी का अनुमान लगाने के लिए भी किया जाता है । 
    धरती पर तो वस्तुआें की दूरी का पता लगाने का आम तरीका है ट्रायएंगुलेशन या त्रिभुवन । मनचाही वस्तु को एक दूरबीन से देखेगे - पहले एक स्थान से और फिर थोड़ा हटकर किसी दूसरे स्थान से । इन दो स्थानों के बीच १०० मीटर की दूरी हो, तो अच्छे नतीजे मिलते हैं । जब दो अलग-अलग स्थानों से एक ही वस्तु को देखेंगे तो आपको दूरबीन की दिशा में थोड़ा परिवर्तन करना होगा । इस परिवर्तन के आधार पर आप दूरस्थ वस्तु की दूरी की गणना कर सकते हैं । इसके लिए चाहें तो गणित के सूत्रों का सहारा ले या ग्राफ का ।


     इस विधि से पृथ्वी पर दूर-दूर तक दिखने वाली वस्तुआें की दूरी का अंदाज लगाया जा सकता है । करना सिर्फ इतना होगा कि दो स्थानों (जहां से वस्तु को देखा जा रहा है) के बीच की दूरी किलोमीटर में रखी जाए ।
    मगर इस विधि से आप आकाशीय पिंडों की दूरी का अनुमान नहीं लगा सकते । कारण यह है कि पृथ्वी पर दो अवलोकन स्थलों के बीच हम जो अधिकतम दूरी हासिल कर सकते हैं वह है पृथ्वी का     व्यास । उनके मुकाबले ये पिंड हमसे बहुत दूर हैं । मगर इन दो स्थानों के बीच की दूरी को बढ़ाने का एक तरीका है - हम जानते ही हैं कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही हैं । यदि हम ६ माह के अंतराल पर किसी पिंड को देखे तो दरअसल हम उसे ३० करोड़ किलोमीटर दूर स्थित स्थानों से देख रहे हैं ।
    इतना फासला पर्याप्त् होता है और इस विधि से हम सौर मण्डल के पिंडो के अलावा १०० प्रकाश वर्ष दूर स्थित कई तारों की दूरियां भी पता कर सकते हैं । मगर उससे दूर की वस्तुआें के लिए यह विधि काम नहीं करेगी और हमें किसी परोक्ष विधि की जरूरत होगी । यह विधि ऐसी होनी चाहिए जो प्रेक्षण स्थलों के बीच की दूरी पर निर्भर न हो ।
    इसी मोड़ पर कार की हेडलाइट वाला उदाहरण प्रासंगिक हो जाता है । यदि ब्रह्मांड के तारों की वास्तविकता चमक हमें पता हो, तो हम पृथ्वी से दिखने वाली उनकी आभासी चमक के आधार पर यह बता सकते है कि कोई तारा हमसे कितनी दूरी पर है । हम जानते हैं कि किसी वस्तु की आभासी चमक दूरी के वर्ग के अनुपात में घटती है । मगर यह कैसे पता चले कि किसी तारे की वास्तविक दीिप्त् कितनी      है ?
    सौभाग्यवश, तारों का एक ऐसा वर्ग है, जिनकी वास्तविक दीिप्त् का पता लगाया जा सकता है । ये तारे परिवर्तनशील तारे या वेरिएबल स्टार्स कहलाते हैं । पिछली सदी के शुरूआती दशक में हार्वर्ड कॉलेज प्रयोगशाला में एक सहायक हेनरीटा लीविट ने देखा कि आकाश में मेगालिनिक क्लाउड नामक तारा-समूह में तारों की दीिप्त् में निश्चित अंतराल पर उतार-चढ़ाव होते हैं । इससे भी अचरज की बात यह थी कि जिन तारों में उतार-चढ़ाव की गति सबसे ज्यादा थी, वे पृथ्वी से सर्वाधिक दीप्त्मिान भी दिखते थे । चूंकि ये सारे तारे पृथ्वी से लगभग बराबर दूरी पर ही थे, लीविट यह गणना करने में सफल रही कि दीिप्त् में उतार-चढ़ाव की गति किसी तारे की वास्तविक दीिप्त् का सटीक द्योतक है ।
    निकटवर्ती परिवर्तनशील तारों के और अध्ययन के दीिप्त् मेंउतार-चढ़ाव की रफ्तार और वास्तविक दीिप्त् के बीच के इस संबंध को स्थापित करने में मदद की । इन निकटवर्ती तारों की दूरी अन्य विधियों से भी पता की गई थी और इस वजह से हम इनकी वास्तविक दीिप्त् की गणना कर सकते थे । ऐसे परितर्वन तारों में सर्वप्रथम थे सेफाइडस । इनका यह नाम डेल्टा सेफाई तारे के नाम पर रखा गया था । डेल्टा सेफाई की खोज १७८४ में की गई थी । इनके विस्तृत अध्ययन के बाद दूरस्थ तारों की दूरी नापने की यह विधि स्थापित हो गई ।
    दीिप्त् में उतार-चढ़ाव तारों के वातावरण में हीलियम की उपस्थिति की वजह से होता है । हीलियम के परमाणु या हीलियम के ऐसे परमाणु जिनमें से एक इलेक्ट्रॉन बाहर निकल गया हो, तारों के ईद-गिर्द एक पारदर्शी गैस आवरण बनाते हैं । मगर यदि तारों के अंदर चल रही क्रियाआें की वजह से उसका तापमान बढ़े और बढ़े हुए तापमान की वजह से हीलियम के परमाणु में से एक और इलेक्ट्रॉन निकल जाए, तो हीलियम गैस अपारदर्शी हो जाती है । तारे के अंदर की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती, तारा गर्म हो जाता है मगर साथ ही अपेक्षाकृत मद्धिम भी पड़ जाता है ।
    जब तारा गर्म होता है, तो फैलता है और फैलने की वजह से उसका तापमान कम होने लगता है । तापमान कम होने पर तारे के  आसपास की गैस का संघटन बदल जाता है क्योंकि दो इलेक्ट्रॉन विहीन हीलियम के परमाणु फिर से एक इलेक्ट्रॉन पकड़ लेते हैं । तब वातावरण एक बार फिर पारदर्शी हो जाता है और तारे की दीिप्त् बढ़ जाती है । अब गर्मी बाहर निकलने लगती है और तारा ठंडा मगर चमकीला होने लगता है । मगर एक हद तक ठंडा होने के बाद यह फिर से सिकुडने लगता है और वही चक्र फिर से शुरू हो जाता है । दीिप्त् में उतार-चढ़ाव का क्रम चलता रहता है ।
    इस तरह के परिवर्तनशील तारे कई किस्म के होते हैं । इनमें उतार-चढ़ाव की दर और दीिप्त् के बीच संबंध अलग-अलग हो सकते हैं । परिवर्तन तारों का एक महत्वपूर्ण समूह टाइप १ सुपरनोवा है । ये तारे इस स्थिति में किसी श्वेत वामन (व्हाइट ड्वार्फ) में विस्फोट की वजह से पहुंचते है । श्वते वामन ऐसे तारे को कहते है जो किसी ऐसे छोटे तारे का अवशेष हो जिसका ईधन चुक गया है । यदि किसी बड़े तारे का ईधन चुक जाए तो वह भी सिकुड़ता हे और ब्लैक होल या न्यूट्रॉन तारे में बदल जाता है । मगर यदि तारा बहुत बड़ा न रहा हो, तो वह इतना नहीं सिकुड़ता और श्वेत वामन में तबदील होता है ।
    अलबत्ता, श्वेत वामन तारे भी आसपास उपस्थित पदार्थ को अपने में समाकर या किसी दूसेर वामन तारे में विलीन होकर अपना द्रव्यमान बढ़ा सकते है । ऐसा होने पर नए सिरे से विस्फोट होता है जिसे सुपरनोवा कहते हैं । इनमें जो अधिकतम दीिप्त् उत्पन्न होती है उसमें काफी एकरूपता होती हे । इन तारों को टाइप १ सुपरनोवा कहते हैं । इनकी अधिकतम दीिप्त् में एकरूपता की वजह से ये ब्रह्मांडीय सर्वेक्षणों में मानक मोमबत्ती की भूमिका अदा करते हैं । ये सेफाइड्स से मुकाबले कहीं अधिक दीप्त्मिान होते हैं और काफी बड़ी दूरी के लिए मानक का काम कर सकते हैं ।
    ऐसी परोक्ष मापन विधियों का उपयोग करने में एक दिक्कत यह है कि हम पक्का नहीं कह सकते कि उतार-चढ़ाव की रफ्तार और दीिप्त् के बीच का संबंध बहुत बड़ी दूरियों पर भी लागू होता था । और क्या यही संबंध काफी सुदूर अतीत में भी लागू होता था । इसलिए सेफाइड्स के निर्माण की क्रियाविधि को समझने में काफी रूचि रही है । टाइप १ सुपरनोवा में तो रूचि और भी गहरी रही है ।
    जर्मन के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के रूडिजर पाकमोर व उनके साथियों ने बताया है कि वे श्वेत वामन तारों के विलीनीकरण के जरिए सुपरनोवा निर्माण की प्रक्रिया के मॉडल की दिक्कतों को दूर कर पाए हैं ।
    हेनरीटा स्वान लीविट ने १८९३ में हार्वर्ड कॉलेज प्रयोगशाला में काम करना शुरू किया था । उन्हें दूरबीन से प्राप्त् फोटोग्राफ्स पर छवियां गिननी होती थी । उस समय महिलाआें को दूरबीन पर काम करने की इजाजत नहीं थी ।
पर्यावरण परिक्रमा
छग में मछलियों की दो प्रजाति लुप्त्
    छत्तीसगढ़ में पर्यावरण परिवर्तन का असर मछलियों की प्रजातियों पर पड़ रहा है । यही वजह है कि राज्य के धमतरी जिले में स्थिति रविशंकर जलाशय (गंगरेल बांध) में पाई जाने वाली ४५ प्रजातियां की मछलियां में से दो का अस्तित्व खत्म हो गया है ।
    गंगरेल बांध में अच्छे बाजार मूल्य वाली चोतल (नोटोपटेरस) एवं कुबड़ी (माइसटस आर) प्रजाति की मछलियां २००५ से दिखाई नहीं दे रही है । मत्स्य विभाग के लिए यह गंभीर चिंता का विषय बन गया है । बताया जाता है कि मछलियों की दोनों प्रजातियां अब सिर्फ तांडुला बांध में ही मौजूद है ।
    महानदी जलाशय परियोजना के अन्तर्गत गंगरेल, दुधावा माड़मसिल्ली, सोंढूर बांध के संग्रहीत जल में मछलियों की ४५ प्रजातियां पाई जाती है । जलवायु में बदलाव एवं आखेट से यहां की मछलियां खतरे में है । वैज्ञानिकों की चेतावनी को  मत्स्य विभाग ने गंभीरता से नहीं लिया तो भविष्य में और भी संकट आ सकता है । खत्म हुई इन दोनों प्रजातियों की मछलियों का बाजार मूल्य काफी बेहतर था । वर्ष २००५ के सर्वेक्षण में इन मछलियों की मौजूदगी नहीं पाई गई । सूबे के धमतरी जिले में पदस्थ सहायक मत्स्य अधिकारी एस.के. साहू ने बातया कि चीतल और कुबडी प्रजाति की मछलियों के खत्म होने के पीछे पानी का प्रदूषण, वातावरण में बदलावा, तापमान का प्रभाव एवं जाल चलाने का तरीका प्रमुख कारक है ।  उन्होनें बताया कि महानदी में मछली पकड़ने के लिए छोटे जाल का उपयोग नहीं करना चाहिए । इससे मछलियों के अंडे एवं स्पॉन खत्म हो जाते हैं ।
    प्रजनन काल में आखेट करने से मछलियों का प्राकृतिक आवास भी प्रभावित होता है । वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व में २१ हजार ७२३ प्रजाति की मछलियां पाई जाती है । इसमें से ८४११ मीठे पानी में व ११७५० समुद्री जल में पाई जाती है । भारत में मछली की २५०० प्रजातियां पाई जाती है । मीठे पानी में ९३० और समुद्री जल में १५७० प्रजाति पल रही है । छत्तीसगढ़ में मछली की १०७ प्रजातियां पाई जाती है । रविशंकर जलाशय में ४५ प्रजाति की मछलियां है ।
    इनमें प्रमुख रूप से कतला, मृगाल, रोहा, बाटा, कुरसा, कालपीस, बोराई, चिलघटी, कोतरा, कोतरी, रांगी, सरांगी, जरहीकोतरी, डरई, सिंघार, टेंगना, बाम बांबी, पढ़ीना आदि शामिल हैं । बहरहाल, मछलियों की विलुिप्त् ने सिर्फ  जीवों के लिए बल्कि यह मानव के लिए भी बदलते पर्यावरण के खतरे का संकेत है ।
ताज को बीमार कर रही दीवानों की सांसें
    मोहब्बत के बेमिसाल स्मारक ताजमहल के लिए दुनियाभर में फैले उसके दीवाने खतरा बनने लगे हैं । दुनिया से सात अजूबों में शामिल इस स्मारक की तरफ सैलानियों की बढ़ते कदमों से इसका संगमरमरी बदन घिस रहा है । दीवानों की सांसों ने ताज का दम फुला दिया है । एक साल से स्मारक की मजबूती को परख रहे नेशनल एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के अध्ययन में यह स्पष्ट हो गया है । इसके अलावा कुछ दूसरी गैसों से भी नुकसान हो रहा है ।
    विश्वख्यात स्मारक ताज में सैलानियों की संख्या हर साल बढ़ रही है । सप्तहांत और छुटि्टयों में तो एक दिन में ४० हजार तक प्रवेश टिकटों की बिक्री होती है । पन्द्रह साल तक की उम्र वालों के लिए टिकट प्रावधान नहीं होता है । ऐसे में इन्हें मिला लिया जाए तो करीब ६० हजार पर्यटक रोज वहां पहुंचते हैं । इस बढ़ती आमद से स्मारक को नुकसान पहुंच रहा है । दूसरी तरफ यमुना में पानी की कमी और प्रदूषण और जहर घोल रहे हैं । ऐसे में स्मारक को खतरा होने के सवाल उठ रहे हैं । बीते साल सर्वे ऑफ इण्डिया की रिपोर्ट में भी ताज की मीनारों में झुकाव की बात सामने आई थी । इसके बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने नीरी को ताज का स्थायित्व परखने और धारण क्षमता (एक दिन में कितने सैलानी ताज में प्रवेश कर सकते हैं) तय करने के लिए सर्वे का जिम्मा सौंपा है  ।
    नीरी वर्ष २०११ से इसके लिए अध्ययन कर रही है। अधिकारिक सूत्रों के मुताबिक बीते सप्तह एएसआई मुख्यालय में अधिकारियों ने नीरी के विशेषज्ञों के संग बैठक की । इसमें नीरी ने अध्ययन के दौरान सामने आए तथ्यों का प्रजेंटेशन दिया । सूत्रों ने बताया कि नीरी के अध्ययन में सामने आया है कि ताज पर सैलानियों की सांसों (कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने) से स्मारक को नुकसान हो रहा है । इसके अलावा कई अन्य गैसे भी स्मारक की सेहत के लिए ठीक नहीं हैं । नीरी अपनी अंतरिम रिपोर्ट जनवरी में एएसआई को सौपने जा रही है । इसमें गैसों से स्मारक को नुकसान की विस्तृत जानकारी दी जाएगी ।
    सूत्रोंके मुताबिक नीरी फिलहाल गैसों के प्रभाव की ही रिपोर्ट सौंपने जा रही है । पर्यटकों की संख्या, वजन और चलने से स्मारक पर पड़ रहे भौतिक प्रभाव और एक ही आमद निर्धारित करने को सर्वे अभी चलेगा । इसकी रिपोर्ट बाद में दी जाएगी ।
    नीरी द्वारा स्मारक के वातावरण में धूल और अन्य हानिकारक गैसों का आकलन किया जा रहा है । उपकरण लगाकर २४ घण्टे हवा में मौजूद धूल कणों, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड के साथ हर प्रकार की गैसों की मात्रा के आंकड़े ले रहे हैं । इसमें यह भी देखा जा रहा है कि किस मौसम में कौन से तत्व ताज को कितना प्रभावित कर रहे हैं ?
देश में सिर्फ २०० ही बचे हैं ग्रेट इंडियन बस्टार्ड
    महाराष्ट्र सरकार अब ग्रेट इंडियन बस्टार्ड की रेडियो टैगिंग करने जा रही है । टाइगर की तरह । क्योंकि अब उनकी संख्या टाइगर से भी कम रह गई है । पूरे देश में केवल २००१ इनमें से महाराष्ट्र में बीस ही बची हैं । इसीलिए रेडियो टैगिंग के साथ सरकार उनका कृत्रिम प्रजनन भी कराएगी ।
    यह चिड़िया सिर्फ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में पाई जाती है । १९६९ में उनकी संख्या १२६० थी । आज इस प्रजाति की सबसे ज्यादा १०० चिड़ियां राजस्थान में बची है । बाकी गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और उत्तरप्रदेश में है । उनकी संख्या में तेजी से आई कमी की वजह शिकार नहीं बल्कि रहने लायक जगहों में आई कमी है । इसी वजह से वे प्रजनन नहीं कर पा रही हैं । उन्हें सूनसान और सूखे घास के मैदान पंसद है । लेकिन ज्यादा कटाई, अतिक्रमण की वजह से ये मैदान घट रहे हैं । इन्हीं कारणों से वे प्रजनन कम कर रही हैं । साधारणतया वे अप्रैल से सितम्बर के बीच एक ही अंडा देती है । कई राज्यों से आई खबरों के मुताबिक पिछले चार साल के दौरान वहां एक भी चिड़िया ने अंडा नहीं दिया ।
चिकित्सा क्षेत्र में नयी कामयाबी
    अमरीकी वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होनें मानव क्लोनिंग विधि का इस्तेमाल कर एक शुरूआती भ्रूण तैयार किया है जिससे चिकित्सा क्षेत्र में एक बड़ी कामयाबी माना जा रहा है ।
    क्लोन किए गए भ्रूण को स्टेम सेल के स्त्रोत के तौर पर इस्तेमाल किया गया जिससे ह्दय की नई मांसपेशी, हड्डी, मस्तिष्क के ऊतक और शरीर की अन्य कोशिकाएं तैयार की जा सकती है । शोधकर्ताआें का कहना है कि स्टेम सेल्स के लिए अन्य स्त्रोत भी हो सकते है जो अधक आसान, सस्ते और कम विवादित   हो । वहीं आलोचकों ने मानवीय भ्रूणों पर प्रयोग को अनैतिक बताते हुए इस पर क्लिक करें प्रतिबंध की मांग की है । स्टेम सेल पर चिकित्सा जगत की बड़ी उम्मीद टिकी है । दरअसल नए ऊतक बनाने में सक्षम होने पर दिल के दौरे से होने वाली क्षति को ठीक किया जा सकता है या फिर क्षतिग्रस्त रीढ़ की हड्डी को दुररूत किया जा सकता है । ऐसे कुछ प्रयोग पहले से ही रहे हैं जिनमें दान किए गए भ्रूण से स्टेम सेल लेकर उनके जरिए लोगों की दृष्टि को बहाल किया जा रहा है । हालांकि दान की हुई ये कोशिकाएं मरीज के शरीर से मिलती नहीं है और इसीलिए शरीर के द्वारा उन्हें खारिज कर दिया जाता है ।
    क्लोनिंग से ये समस्या दूर हो जाती है । १९९६ में जब क्लोनिंग के जरिए पहले स्तनधारी जीव के रूप में डॉली का जन्म हुआ तभी से सोमेटिक सेल नयूक्ल्यिर ट्रांसफर एक जानी मानी तकनीक है और इसका इस्तेमाल भी होता है । एक वयस्क की त्वचा कोशिकाएं लेकर आनुवांशिक सूचना के साथ उसे दानदाता के ऐसे अंडाणा में रखा गया, जिससे उसके डीएनए को अलग कर दिया गया था । इसके बाद बिजली का इस्तेमाल कर अंडाणु को एक भ्रूण में विकसित होने के लिए प्रेरित किया गया ।
जीवन शैली
भारत में पवित्र वन
अन्वेषा बोरठाकुर

    लंबे अरसे से पवित्र उपवनों का अस्तित्व मनुष्य के हस्तक्षेप से मुक्त रहा है । इसलिए मानवशास्त्रीय,  सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय दृष्टि से इनका काफी महत्व है । भारत में अधिकांश पवित्र उपवन पूर्वोत्तर राज्यों और पश्चिमी घाट के इलाके में स्थित हैं । ये दोनों वे क्षेत्र हैं जिनकी गिनती जैव विविधता की दृष्टि से दुनिया के अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थानों में की जाती हैं । लेकिन दुर्भाग्य से आज भारत में पवित्र उपवनों की संख्या बड़ी तेजी से कम होती जा रही है । ऐसे में इनके संरक्षण के लिए समुचित योजना बनाने का समय आ गया   हैं ।
    पवित्र उपवन (सैके्रड ग्रोव्स) वनों के ऐसे टुकड़े या प्राकृतिक वानस्पतिक इलाके होते हैं जो स्थानीय लोक देवी-देवताआें या प्राचीन व वृक्ष आत्माआें को समर्तित होते हैं । ये उपवन मानव शास्त्रीय (एंथो्रपॉलॉजी), सांस्कृतिक, आर्थिक और इकॉलॉजी के नजरिए से काफी महत्वपूर्ण होते हैं । स्थानीय समुदाय अपनी धार्मिक आस्थाआें और उनसे जुड़े रीति-रिवाजों के चलते उनका संरक्षण व रक्षा करत हैं । ये उपवन कई तरह के हो सकते हैं । इनमें अनेक प्रजातियों के ढेरों वृक्ष हो सकते हैं या फिर वे कुछ पेड़ों के झुरमुट तक सामित हो सकते हैं । 
     यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनका वानस्पतिक इतिहास क्या रहा है । जे.डी. ह्यूज और एम.डी.एस. चंद्रन के अनुसार ये उपवन ऐसे लैंडस्कैप हैं, जिनमें वनस्पति, जीवन के अन्य रूप और भौगोलिक फीचर्स शामिल होते हैं तथा मानव समुदाय उनका संरक्षण इस विश्वास के साथ करता है कि उन्हें कुदरती रूप में सुरक्षित रखना दैवी शक्तियों या प्रकृति के साथ अपने सम्बंधोंका इजहार है । इस तरह के उपवन जो कुछ पेड़ों के झुरमुट से लेकर कई उकड़ में फैले वन भी हो सकते हैं, अक्सर जैव-विविधता से समृद्ध क्षेत्रों में स्थित होते हैं । भारत में ये अधिकतर पूर्वोत्तर और पश्चिमी घाट क्षेत्र में पाए जाते हैं । दुनिया में इन दोनों ही क्षेत्रों की गिनती जैन-विविधता से सम्पन्न हॉटस्पॉट्स में होती हैं ।
    भारत में स्थानीय स्तर पर ढेरों अलग-अलग समुदाय बसे हैं, जिनकी अपनी आस्थाएं और परम्पराएं हैं । इस कारण यहां एक ही बहुत ही बहुुमूल्य पारम्परिक ज्ञान का आधार रहा है । देश में अब भी प्रकृति की पूजा करने के कई रूप विद्यमान हैं और ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते आए हैं । नरकट (बेंत की जाति का एक पौधा) से लेकर अंजीर और केंकड़े से लेकर मोर व बाघ तक को आज भी कई आदिम समाजों में पूजा जाता है । पवित्र उपवनों में प्राकृतिक या लगभग प्राकृतिक वनस्पतियां होती हैं, जिनका संरक्षण स्थानीय समुदाय कुछ सामाजिक प्रतिबंधों के      जरिए करते हैं । इनमें इन समुदायों के आध्यात्मिक और पारिस्थितिक लोकाचार प्रतिबिंबित होते हैं ।
    ये पवित्र उपवन अंटार्कटिका को छोड़कर अन्य तमाम महाद्वीपों में पाए गए हैं । भारत में इस तरह के स्थलो की संख्या ३८ है जो कि अन्य देशों की तुलना में सर्वाधिक है । वैसे कुछ अन्य अध्ययन कहते हैं कि भारत में ऐसे उपवन स्थलों की संख्या कही ज्यादा है ।
    दुनिया भर के कई पारंपरिक समाजों में प्राकृतिक परिवेश के साथ मनुष्य के रिश्तों पर वर्जनाआें या प्रतिबंधों का प्रभाव रहा है । संसार की विभिन्न संस्कृतियों में ऐसे प्रतिबंधों का अस्त्तिव रहा है जिनसे पर्यावरण के साथ मनुष्य के संबंधों का संचालन/नियमन होता रहा है । ये इस बात की मिसाल हैं कि प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध सरकारी कानून और नियमों की बनिस्बत सामाजिक रिवाजों के आधार पर कहीं बेहतर ढंग से संचालित किए जा सकते हैं । माना जाता है कि किसी भी उपवन में फलने-फूलने वाली तमाम वनस्पतियां, जिनमेंझाडियां और लताएं भी शामिल हैं, वहां शासन करने वाले वन देवता की पनाह में रहती है । अधिकांश उपवनों में तो पेड़ों के ठूंठों को भी उखाड़ने की अनुमति नहीं होती ।
    स्थानीय लोगों का विश्वास है कि किसी भी प्रकार का विध्न स्थानीय देवता को नाराज कर देगा और इसका खामियाजा किसी बीमारी, प्राकृतिक आपदा या फसलांे को नुकसान होने के रूप में भुगतना पड़ेगा । उदाहरण के लिए मेघालय में रहने वाले गारो और खासी जनजाति समुदायों के पवित्र उपवनों में मानव हस्तक्षेप सर्वथा प्रतिबंधित है ।    
    जहां तक पाबंदियों का सवाल है, यह अलग-अलग उपवनों में अलग-अलग रही है । कुछ वनों में सूखी पत्तियों और गिरे हुए फलों को भी हाथ नहीं लगाया जाता, जबकि कुछ उपवनों में सूखी पत्तियों और मृत लकड़ी व पत्तियां बटोरने की अनुमति होती है । हालांकि इन दोनों ही मामलों में जीवि वृक्षों और उनकी शाखाआें को बिल्कुल भी नहीं काटा जाता । माधव गाडगिल और वी.डी. वर्तक का मानना है कि पवित्र उपवनों की धारणा सामाजिक विकास के उस दौर में उभरी जब मनुष्य शिकार और संग्रहण के चरण में थे । अगर यह सही है तो इसका मतलब है कि पवित्र उपवन सदियों से हमारे बीच रहे हैं, संभवत: छठी सदी से पहले से जब पश्चिमी घाट क्षेत्र में खेती शुरू हुई होगी । पश्चिमी घाट में समृद्ध वर्षा वनों में अद्भूत जैव-विविधता के संरक्षण का श्रेय इन्हीं पवित्र उपवनों को जाता    है ।
    ऐसा भी विश्वास रहा है कि वन देवता बहुत ही उग्र होते थे । यदि कोई गलती करता था तो नाराज वन देता उसे मौत से कम सजा नहीं देते थे । गाडगिल और वर्तक के अनुसार नाराज वन देवता के रौद्ररूप की कई कहानियां प्रचलित हैं ।
    दुर्भाग्य से आज भारत के पवित्र उपवन खतरे में हैं । उनकी संख्या, उनका आकार और उनसे जुडी जैव विविधता बड़ी तेजी से संकुचित होती जा रही है । सदियों पुराने घने पवित्र उपवन विरल जंगलों या झाड़-झंखाड़ में तब्दील होते जा रहे हैं । और ये झाड़-झंखाड़ फिर जल्दी ही ऐसी बंजर जमीनों में बदल जाते हैं, जिनका कोई पर्यावरणीय महत्व नहीं रह जाता ।
    देश के जैव विविधता से सम्पन्न इलाकों में ये पवित्र उपवन इन क्षेत्रों में पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण है । इन पवित्र उपवनों तक पहुंच और उनमें कोई बाहरी दखल सांस्कृतिक  रूप से प्रतिबंधित था । इसी वजह से इनमें उपस्थित प्राकृतिक संसाधनों के मानवीय दोहन का असर भी काफी सीमित रहा । इसी का नतीजा था कि ये पवित्र उपवन जैव विविधता के महत्वपूर्ण खजानों के रूप में विकसित हुए और वहां लम्बे समय तक जटिल एवं विविधतापूर्ण प्राकृतिक प्रक्रियाएं फलती-फूलती रहीं ।
    इन पवित्र उपवनों के विनाश के साथ ही जीव-जन्तुआें व वनस्पतियों की अत्यन्त दुर्लभ व स्थानीय प्रजातियां गायब होने लगी हैं, जो इकॉलॉजी की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । उदाहरण के लिए दक्षिण केरल के कुलतुपुझा के जंगलों में पाया जाने वाला एक पेड़ सायजीजियम ट्रेवेनकोरिकम का अस्तित्व पूरी तरह से समाप्त् हो गया है ।
    आजादी के बाद से ही पवित्र उपवनों से संबंधित पाबंदिया घटती गई हैं । अब कई उपवनों में सूख चुके पड़ों के ठूठ और सूखी पत्तियां हटाना आम हो गया है, जबकि पहले अधिकांश उपवनों में इसकी अनुमति नहीं होती थी । अब तो ऐसा भी देखने को मिल रहा है कि गांव वाले ईधन के लिए इन उपवनों पर ही निर्भर हो गए हैं । हालांकि कई उपवनों में जीवित वृक्ष काटन की मनाही है, लेकिन धीरे-धीरे इसमें भी ढील देखने को मिल रही है ।
    पवित्र उपवनों का विनाश के लिए कई कारक जिम्मेदार है । इनमें सबसे अहम है इन उपवनों से जुड़ी तथाकथित आस्था प्रणाली का कमजोर होना । स्थानीय समुदायों के युवाआें में पारम्परिक आस्था और धार्मिक अनुष्ठनों के प्रति विश्वास कम हो रहा है । कई मामलों में तो वे वन देवता या वृक्षात्मा जैसी किसी अवधारणा को भी स्वीकारने से इन्कार कर देते है । उनके लिए शिक्षित और आधुनिक होने का मतलब है पवित्र उपवनों के सांस्कृतिक, धार्मिक और पर्यावरणीय महत्व को हाशिए पर रखकर उनका दोहन मात्र आर्थिक लाभों के लिए करना । युवा पीढ़ी चाहती है कि पारम्परकि रूप से इन पवित्र उपवनों पर उसे जो अधिकार मिला है, उसके तहत इन वनों के पेड़ों की लकड़ी को बेचकर उसका पूरा आर्थिक फायदों के फेर में पवित्र उपवनों सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया       है ।
    पारम्परिक मूल्यों का खत्म होना पवित्र उपवनों के लिए एक बड़ा खतरा है । उपवनों से जुड़ी  आस्थाआें की अनुपस्थिति में इस तरह के क्षेत्रों का संरक्षण सरकारी दखल के बगैर करना बहुत ही मुश्किल कार्य है । सबसे ज्यादा खतरा तो इनाम उपवनों को है, क्योकि वहां कोई भी वन देवता निवास नहीं करता । लेकिन एक पेंच यह भी है कि अगर इन उपवनों की सुरक्षा का जिम्मा सरकार को दिया जाता है तो इसका नतीजा इन पर पारम्परिक रूप से आश्रित समुदायों को उनके अधिकारों से वंचित करने के रूप में सामने आएगा । बीते कुछ दशकों में ऐसे कई मामले आए है, जब स्थानीय लोगों के वन प्रबंधन संबंधित अधिकार सरकार ने छीने    हैं । ऐसा होने के बाद समय के साथ ये पवित्र उपवन या तो तथाकथित विकास कार्यो की भेंट चढ़े या फिर उन पर अतिक्रमण हो गया ।
    कई उपवन मंदिरोंया धार्मिक महत्व के स्थलों के नजदीक स्थित हैं । इन उपवनों पर पर्यटन और धार्मिक गतिविधियों का भी विपरीत असर पड़ रहा है ।
    इसमें काई दो राय नहीं है कि इन पवित्र उपवनों का जैविक, पर्यावरणीय, सांस्कृतिक, मानव शास्त्रीय और आर्थिक रूप से अत्यधिक महत्व है । लेकिन ये मूल्यावन संसाधन आज चौतरफा दबाव में हैं और उन्हें बचाने के लिए तत्काल कुछ उपाय करने की जरूरत है । इनके संरक्षण के लिए हर राज्य में समग्र योजनाएं बनानी होगी और उन्हें तत्काल प्रभाव से लागू भीकरना होगा ताकि वनस्पतियों और प्राणियों के इन अद्भूत खजानों को खत्म होने से बचाया जा सके ।
    इन योजनाआें के निर्माण के लिए राज्यों में पवित्र उपवनों और उनसे संबंधित जैविक सम्पदा व उनके सांस्कृतिक महत्व के बारे में जानकारी की तो जरूरत होगी ही, साथ ही यह जानना भी जरूरी होगा कि कितने प्रबंधकीय हस्तक्षेप की आवश्कता है । पवित्र उपवनों के संरक्षण के लिए सरकारी पहल अब जरूरी हो गई है ।
ज्ञान विज्ञान
दबा हुआ खजाना सपनों में नहीं, पत्तियों पर दिखता है

    पता नहीं सपने में खजाने दिखने की बात पर कितना भरोसा करना चाहिए मगर हाल ही में शोधकर्ताआें ने बताया है कि ऑस्ट्रेलिया में पाए जाने वाले युकेलिप्टस के पेड़ों की पत्तियों को देखकर बताया जा सकता है कि उनके नीचे सोना दबा हुआ है । जिस जमीन में सोना गड़ा हो, उस पर उगने वाले युकेलिप्टस की पत्तियों में सोने के लवण जमा हो जाते हैं । और ये पेड़ ४० मीटर की गहराई से भी सोने को खींचकर पत्तियों में जमा कर लेते हैं । 
     यह शोध ऑस्ट्रेलिया की विज्ञान शोध संस्था सीएसआईआरओ के मेल लिंटर्न और उनके साथियों ने किया है । पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के दो स्थानों पर लिंटर्न व उनके साथियों ने यह दर्शाया है कि पौधे अपने वाहक ऊतक की मदद से सोने को सोख लेते हैं और पत्तियों तक पहुंचा देते हैं जहां इसे जमा कर लिया जाता है । पत्तियों में सोने की सांद्रता १०० अंश प्रति दस अरब अंश (पीपीबी) तक पहुंच सकती है ।
    प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों से पता चला कि सोने के आयन पानी में घुल जाते हैं और जड़े इन्हें सोख लेती है । वैसे तो सोना पौधों के लिए विषैला होता है मगर युकेलिप्टस के पेड़ में इसे कैल्शियम ऑक्सलेट के क्रिस्टलों में कैद कर दिया जाता है जिसकी वजह से यह कोशिकाआें के कामकाज को प्रभावित नहीं कर पाता ।
    उपरोक्त परिणामों से पता चलता है कि जमीन में सोने के भण्डार खोजने में पेड़ों की मदद ली जा सकती है । लिंटर्न का तो कहना है कि यह विधि इतनी कारगर है कि हो सकता है कि कुछ कंपनियों को पहले से इसकी जानकारी हो और उन्होनें इसे छिपाया हो । खैर, इतना तो मानना ही होगा कि सपनों से तो ज्यादा विश्वसनीय होगी यह विधि ।

उम्र बताने की रासायनिक घड़ी

    उम्र बढ़ने के साथ बाल सफेद होना और झुर्रियां पड़ना तो बाहरी लक्षण भर हैं । ताजा शोध से पता चला है कि शरीर में कुछ अंदरूनी रासायनिक लक्षण भी होते हैंजो उम्र को नाप सकते हैं । ये रासायनिक चिन्ह हमारी आनुवंशिक सामग्री यानी डीएनए पर उम्र के साथ नजर आते   हैं । इन्हें शरीर का एपिजीनोम कहते  हैं । ऐसा ही एक चिन्ह है डीएनए पर मिथाइल समूहों का जुड़ना ।
    पिछले कुछ वर्षो में जीव वैज्ञानिकों ने डीएनए के उन हिस्सों का काफी अध्ययन किया है जहां उम्र बढ़ने के साथ मिथाइल समूह काफी मात्रा में जुड़ जाते हैं । इस तरह के मिथाइलीकरण का एक परिणाम यह होता है कि कुछ जीन्स काम करना बंद कर देते हैं । अब कैलिफोर्निया विश्वविघालय के जैव-सूचनाविद स्टीव हॉवर्थ ने दर्शाया है कि शरीर के विभिन्न ऊतकों में मिथाइलीकरण का स्तर किस ढंग से बदलता है । उन्होंने दर्शाया है कि मिथाइलीकरण का स्तर जन्म से लेकर १०१ वर्ष की उम्र तक उम्र का बढ़िया द्योतक है । यह खास तौर से गेर-कैंसर ऊतकों के मामले में बढ़िया काम करता है । 


     डी.एन.ए. मिथाइलीकरण के आधार पर उम्र की घड़ी विकसित करने के लिए हॉवर्थ ने डीएनए मिथाइलीकरण के ८२ सार्वजनिक डैटा सेट्स में से ८००० नमूनों की जानकारी का विश्लेषण किया । इस नमूने में ५१ विभिन्न स्वस्थ मानव ऊतक शामिल  थे । इसके अलावा उन्होंने ६००० ऐसे नमूनों का भी विश्लेषण किया जो कैंसरग्रस्त थे । इन सबमें उन्होंने मिथाइलीकरण के चिन्हों का अध्ययन किया । हॉवर्थ ने कुल ३५३ एपिजीनोम चिन्हों का उपयोग किया।
    जांच करने पर देखा गया कि मिथाइलीकरण के आधार पर तमाम ऊतकों और कोशिकाआें की उम्र का काफी अच्छा अंदाज लगाया जा सकता है - गलती एकाध साल की ही होती है । और तो और, इस विधि से गणना करने पर नवजात शिशुआें के ऊतकों की उम्र लगभग शून्य आई जबकि जन्म पूर्व ऊतकों तथा बहुसक्षम स्टेम कोशिकाआें की उम्र ऋणात्मक निकली । लगता है कि एपिजीनोम पर आधारित यह घड़ी काफी सटीकता से उम्र का हिसाब रखती है ।
    आश्चर्य की बात यह रही कि किसी भी स्त्री में स्तनों के सामान्य ऊतकों की उम्र उसी स्त्री के शेष ऊतकों से लगभग २-३ साल ज्यादा निकली । जिन महिलाआें को स्तन कैंसर था, उनमें रोगग्रस्त ऊतक के आसपास स्थित ऊतकों की उम्र शेष ऊतकों की तुलना में १२ साल तक ज्यादा पाई गई । स्टीव हॉवर्थ ने यह भी पाया कि २० कैंसरग्रस्त ऊतकोंकी उम्र स्वस्थ कोशिकाआें की अपेक्षा ३६ वर्ष तक ज्यादा थी ।
    कुल मिलाकर यह अध्ययन बुढ़ाने की प्रक्रिया को समझने के हमारे प्रयासों को आगे ले जाता है ।

सन् २०१६ में संभावित है मलेरिया का टीका

    मलेरिया टीके के विकास में हम एक कदम आगे बढ़े हैं । अफ्रीका में किए गए एक लम्बे परीक्षण के बाद यह आशा जगी है कि शायद मलेरिया के टीके को २०१५ तक मंजूरी मिल जाएगी और २०१६ में यह उपलब्ध हो जाएगा ।
    इस टीके का विकास पाथ मलेरिया वैक्सीन इनिशिएटिव के नेतृत्व में ग्लेक्सो स्मिथ क्लाइन ने किया है । टीके का नाम आरटीएसएस है और इसका परीक्षण अफ्रीका में ११ स्थानों के १५००० बच्चें पर किया गया है । इनमें से आधे बच्चें की उम्र ६-१२ सप्तह के बीच थी जबकि शेष आधे ५ से १७ माह के थे । प्रत्येक समूह में से आधे बच्चें को आटीएसएफ टीका दिया गया था जबकि शेष को एक प्लेसिबो (यानी टीके के नाम पर एक औषधि विहीन मिश्रण) दिया गया   था । इसके बाद सारे बच्चें को मलेरिया की रोकथाम के सामान्य उपाय एक समान दिए गए थे । इनमें मच्छरदानी का उपयोग शामिल था । 
 

    हाल ही में डरबन में आयोजित एक सम्मेलन में इस परीक्षण के आंकड़े प्रस्तुत किए गए । पाथ मलेरिया वैक्सीन इनिशिएटिव के उपाध्यक्ष डेविड कासलोव ने सम्मेलन में बताया कि परीक्षण के अट्ठारह महीनों के बाद पता चला है कि टीका ज्यादा उम्र के बच्चें में ज्यादा असरकारक है ।
    परीक्षण शुरू होने के एक साल बाद देखा गया कि बड़े बच्चें में मलेरिया के मामले में ५६ प्रतिशत कम और छोटे बच्चें में ३१ प्रतिशत कम हुए थे । डेढ़ साल पूरा होने पर लगता है कि टीके का असर थोड़ा कम हुआ है । डेढ़ साल की अवधि में मलेरिया के मामलों में बड़े बच्चें में ४६ प्रतिशत और छोटे बच्चें में २७ प्रतिशत की कमी देखी गई ।
    वैसे कासलोव का मत है कि समय के साथ टीके की प्रभाविता में कमी अपेक्षित थी । लगभग सारे टीकों के साथ ऐसा होता है कि समय के साथ उनका असर कम होता जाता   है । इसका मतलब यह कि मलेरिया के टीके का बूस्टर डोज देना  पड़ेगा । परीक्षण में शामिल एक-तिहाई बच्चें को बूस्टर डोज दिया भी जा चुका है और इसके परिणाम एक साल में सामने आ जाएंगे । अलबत्ता, प्रारंभिक परीक्षण के सकारात्मक नतीजों को देखते हुए ग्लेक्सो स्मिथ क्लाइन युरोप में इस टीके को स्वीकृति दिलवाने के लिए आवेदन करने पर विचार कर रही है ।
कविता
हरा रंग
उदय ठाकुर
जब मैंने पूरे मानचित्र को
हरे रंग से पोत दिया
तो देश के मसीहा बौखलाए
पढ़े लिखे भी अंधविश्वासी हो गए
एकता का स्वर उभरा
और मैं अनेकता का प्रतीक बन गया ।
एकता बोली
इतने सुन्दर देश को
एक ही रंग में रंगना
पीठ पर विदेशी हाथ का प्रभाव है ।
मैं सिर पर पहाड़ उठाना नहीं चाहता था
इसलिए मौन धारण किए बैठा रहा
मसीहाआें ने इसे पराजय मान लिया
क्योंकि अनेकता में एकता थी ।
एक दिन मसीहा के घर में हाथी चिघांड़ा
दूसरे मसीहा ने राहत की सांस ली
दूसरे दिन उस मसीहा के घर बाघ घुस आया
पहले ने सुख की साँस ली
हर्ष-विषाद का क्रम चलता रहा
एकता में अनेकता जारी रही ।
एक मसीहा ने आखिर एक दिन
मुझसे पूछ ही लिया
ये जंगली जानवर घरों में
क्यों घुस आते है ?
मैंने कहा
मैनें मानचित्र से हरा रंग धो दिया है इसलिए ।
पर्यावरण समाचार
भारत के पक्ष में रहा किशनगंगा पर फैसला

    पिछले साल भारत ने जम्मू कश्मीर में किशनगंगा जलविघुत परियोजना को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ मामले को अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अदालत में जीत लिया जिसके लिए विशेषज्ञों ने खूब मेहनत की । भारत को एक और सफलता मिली जब छह साल की देरी के बाद १९ फरवरी २०१३ को कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण के अंतिम फैसले को अधिसूचित किया गया । इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में देरी के लिए केन्द्रों को आड़े हाथ लिया था ।
    सरकार के मंत्रालयों के बीच गहरे मतभेदों के बावजूद, जल संसाधन मंत्रालय को ५५२०० करोड़ रूपए के आवंटन के साथ त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआइबीपी को जारी रखने के लिए आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति की मंजूरी मिलने में भी सफलता    मिली । भारत के लिए राहत की बात रही कि हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अदालत ने जम्मू कश्मीर में बिजली उत्पादन के लिए किशनगंगा नदी से पानी लेने के नई दिल्ली के अधिकार को बरकरार रखते हुए पाकिस्तान की आपत्तियों को खारिज कर दिया गया । मध्यस्थता अदालत ने भारत पाकिस्तान के मामले में अपने अंतिम फैसले में यह भी कहा कि भारत हर समय किशनगंगा जलविद्युत परियोजना के नीचे किशनगंगा नीलम नदी में नौ क्यूमेक (क्यूबिक मीटर प्रति सेकण्ड) पानी छोड़ेगा । अदालत ने २० दिसम्बर को अपना अंतिम निर्णय घोषित किया ।

मार्च तक पर्यावरण नियामक गठित करने का आदेश

    सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को पर्यावरण मंजूरी देने की पूरी प्रक्रिया की निगरानी के लिए एक नियामक गठित करने का निर्देश दिया है । पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को यह काम मार्च महीने तक पूरा कर लेने का कहा गया है । अदालत ने नियामक को गैर जरूरी बताने वाले सरकार के तर्क को सिरे से खारिज कर दिया । समिति ने राष्ट्रीय वन नीति के सुचारू रूप से अमल के लिए सरकार को कहा है ।