रविवार, 19 जनवरी 2014

पर्यावरण परिक्रमा
छग में मछलियों की दो प्रजाति लुप्त्
    छत्तीसगढ़ में पर्यावरण परिवर्तन का असर मछलियों की प्रजातियों पर पड़ रहा है । यही वजह है कि राज्य के धमतरी जिले में स्थिति रविशंकर जलाशय (गंगरेल बांध) में पाई जाने वाली ४५ प्रजातियां की मछलियां में से दो का अस्तित्व खत्म हो गया है ।
    गंगरेल बांध में अच्छे बाजार मूल्य वाली चोतल (नोटोपटेरस) एवं कुबड़ी (माइसटस आर) प्रजाति की मछलियां २००५ से दिखाई नहीं दे रही है । मत्स्य विभाग के लिए यह गंभीर चिंता का विषय बन गया है । बताया जाता है कि मछलियों की दोनों प्रजातियां अब सिर्फ तांडुला बांध में ही मौजूद है ।
    महानदी जलाशय परियोजना के अन्तर्गत गंगरेल, दुधावा माड़मसिल्ली, सोंढूर बांध के संग्रहीत जल में मछलियों की ४५ प्रजातियां पाई जाती है । जलवायु में बदलाव एवं आखेट से यहां की मछलियां खतरे में है । वैज्ञानिकों की चेतावनी को  मत्स्य विभाग ने गंभीरता से नहीं लिया तो भविष्य में और भी संकट आ सकता है । खत्म हुई इन दोनों प्रजातियों की मछलियों का बाजार मूल्य काफी बेहतर था । वर्ष २००५ के सर्वेक्षण में इन मछलियों की मौजूदगी नहीं पाई गई । सूबे के धमतरी जिले में पदस्थ सहायक मत्स्य अधिकारी एस.के. साहू ने बातया कि चीतल और कुबडी प्रजाति की मछलियों के खत्म होने के पीछे पानी का प्रदूषण, वातावरण में बदलावा, तापमान का प्रभाव एवं जाल चलाने का तरीका प्रमुख कारक है ।  उन्होनें बताया कि महानदी में मछली पकड़ने के लिए छोटे जाल का उपयोग नहीं करना चाहिए । इससे मछलियों के अंडे एवं स्पॉन खत्म हो जाते हैं ।
    प्रजनन काल में आखेट करने से मछलियों का प्राकृतिक आवास भी प्रभावित होता है । वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व में २१ हजार ७२३ प्रजाति की मछलियां पाई जाती है । इसमें से ८४११ मीठे पानी में व ११७५० समुद्री जल में पाई जाती है । भारत में मछली की २५०० प्रजातियां पाई जाती है । मीठे पानी में ९३० और समुद्री जल में १५७० प्रजाति पल रही है । छत्तीसगढ़ में मछली की १०७ प्रजातियां पाई जाती है । रविशंकर जलाशय में ४५ प्रजाति की मछलियां है ।
    इनमें प्रमुख रूप से कतला, मृगाल, रोहा, बाटा, कुरसा, कालपीस, बोराई, चिलघटी, कोतरा, कोतरी, रांगी, सरांगी, जरहीकोतरी, डरई, सिंघार, टेंगना, बाम बांबी, पढ़ीना आदि शामिल हैं । बहरहाल, मछलियों की विलुिप्त् ने सिर्फ  जीवों के लिए बल्कि यह मानव के लिए भी बदलते पर्यावरण के खतरे का संकेत है ।
ताज को बीमार कर रही दीवानों की सांसें
    मोहब्बत के बेमिसाल स्मारक ताजमहल के लिए दुनियाभर में फैले उसके दीवाने खतरा बनने लगे हैं । दुनिया से सात अजूबों में शामिल इस स्मारक की तरफ सैलानियों की बढ़ते कदमों से इसका संगमरमरी बदन घिस रहा है । दीवानों की सांसों ने ताज का दम फुला दिया है । एक साल से स्मारक की मजबूती को परख रहे नेशनल एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के अध्ययन में यह स्पष्ट हो गया है । इसके अलावा कुछ दूसरी गैसों से भी नुकसान हो रहा है ।
    विश्वख्यात स्मारक ताज में सैलानियों की संख्या हर साल बढ़ रही है । सप्तहांत और छुटि्टयों में तो एक दिन में ४० हजार तक प्रवेश टिकटों की बिक्री होती है । पन्द्रह साल तक की उम्र वालों के लिए टिकट प्रावधान नहीं होता है । ऐसे में इन्हें मिला लिया जाए तो करीब ६० हजार पर्यटक रोज वहां पहुंचते हैं । इस बढ़ती आमद से स्मारक को नुकसान पहुंच रहा है । दूसरी तरफ यमुना में पानी की कमी और प्रदूषण और जहर घोल रहे हैं । ऐसे में स्मारक को खतरा होने के सवाल उठ रहे हैं । बीते साल सर्वे ऑफ इण्डिया की रिपोर्ट में भी ताज की मीनारों में झुकाव की बात सामने आई थी । इसके बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने नीरी को ताज का स्थायित्व परखने और धारण क्षमता (एक दिन में कितने सैलानी ताज में प्रवेश कर सकते हैं) तय करने के लिए सर्वे का जिम्मा सौंपा है  ।
    नीरी वर्ष २०११ से इसके लिए अध्ययन कर रही है। अधिकारिक सूत्रों के मुताबिक बीते सप्तह एएसआई मुख्यालय में अधिकारियों ने नीरी के विशेषज्ञों के संग बैठक की । इसमें नीरी ने अध्ययन के दौरान सामने आए तथ्यों का प्रजेंटेशन दिया । सूत्रों ने बताया कि नीरी के अध्ययन में सामने आया है कि ताज पर सैलानियों की सांसों (कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने) से स्मारक को नुकसान हो रहा है । इसके अलावा कई अन्य गैसे भी स्मारक की सेहत के लिए ठीक नहीं हैं । नीरी अपनी अंतरिम रिपोर्ट जनवरी में एएसआई को सौपने जा रही है । इसमें गैसों से स्मारक को नुकसान की विस्तृत जानकारी दी जाएगी ।
    सूत्रोंके मुताबिक नीरी फिलहाल गैसों के प्रभाव की ही रिपोर्ट सौंपने जा रही है । पर्यटकों की संख्या, वजन और चलने से स्मारक पर पड़ रहे भौतिक प्रभाव और एक ही आमद निर्धारित करने को सर्वे अभी चलेगा । इसकी रिपोर्ट बाद में दी जाएगी ।
    नीरी द्वारा स्मारक के वातावरण में धूल और अन्य हानिकारक गैसों का आकलन किया जा रहा है । उपकरण लगाकर २४ घण्टे हवा में मौजूद धूल कणों, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड के साथ हर प्रकार की गैसों की मात्रा के आंकड़े ले रहे हैं । इसमें यह भी देखा जा रहा है कि किस मौसम में कौन से तत्व ताज को कितना प्रभावित कर रहे हैं ?
देश में सिर्फ २०० ही बचे हैं ग्रेट इंडियन बस्टार्ड
    महाराष्ट्र सरकार अब ग्रेट इंडियन बस्टार्ड की रेडियो टैगिंग करने जा रही है । टाइगर की तरह । क्योंकि अब उनकी संख्या टाइगर से भी कम रह गई है । पूरे देश में केवल २००१ इनमें से महाराष्ट्र में बीस ही बची हैं । इसीलिए रेडियो टैगिंग के साथ सरकार उनका कृत्रिम प्रजनन भी कराएगी ।
    यह चिड़िया सिर्फ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में पाई जाती है । १९६९ में उनकी संख्या १२६० थी । आज इस प्रजाति की सबसे ज्यादा १०० चिड़ियां राजस्थान में बची है । बाकी गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और उत्तरप्रदेश में है । उनकी संख्या में तेजी से आई कमी की वजह शिकार नहीं बल्कि रहने लायक जगहों में आई कमी है । इसी वजह से वे प्रजनन नहीं कर पा रही हैं । उन्हें सूनसान और सूखे घास के मैदान पंसद है । लेकिन ज्यादा कटाई, अतिक्रमण की वजह से ये मैदान घट रहे हैं । इन्हीं कारणों से वे प्रजनन कम कर रही हैं । साधारणतया वे अप्रैल से सितम्बर के बीच एक ही अंडा देती है । कई राज्यों से आई खबरों के मुताबिक पिछले चार साल के दौरान वहां एक भी चिड़िया ने अंडा नहीं दिया ।
चिकित्सा क्षेत्र में नयी कामयाबी
    अमरीकी वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होनें मानव क्लोनिंग विधि का इस्तेमाल कर एक शुरूआती भ्रूण तैयार किया है जिससे चिकित्सा क्षेत्र में एक बड़ी कामयाबी माना जा रहा है ।
    क्लोन किए गए भ्रूण को स्टेम सेल के स्त्रोत के तौर पर इस्तेमाल किया गया जिससे ह्दय की नई मांसपेशी, हड्डी, मस्तिष्क के ऊतक और शरीर की अन्य कोशिकाएं तैयार की जा सकती है । शोधकर्ताआें का कहना है कि स्टेम सेल्स के लिए अन्य स्त्रोत भी हो सकते है जो अधक आसान, सस्ते और कम विवादित   हो । वहीं आलोचकों ने मानवीय भ्रूणों पर प्रयोग को अनैतिक बताते हुए इस पर क्लिक करें प्रतिबंध की मांग की है । स्टेम सेल पर चिकित्सा जगत की बड़ी उम्मीद टिकी है । दरअसल नए ऊतक बनाने में सक्षम होने पर दिल के दौरे से होने वाली क्षति को ठीक किया जा सकता है या फिर क्षतिग्रस्त रीढ़ की हड्डी को दुररूत किया जा सकता है । ऐसे कुछ प्रयोग पहले से ही रहे हैं जिनमें दान किए गए भ्रूण से स्टेम सेल लेकर उनके जरिए लोगों की दृष्टि को बहाल किया जा रहा है । हालांकि दान की हुई ये कोशिकाएं मरीज के शरीर से मिलती नहीं है और इसीलिए शरीर के द्वारा उन्हें खारिज कर दिया जाता है ।
    क्लोनिंग से ये समस्या दूर हो जाती है । १९९६ में जब क्लोनिंग के जरिए पहले स्तनधारी जीव के रूप में डॉली का जन्म हुआ तभी से सोमेटिक सेल नयूक्ल्यिर ट्रांसफर एक जानी मानी तकनीक है और इसका इस्तेमाल भी होता है । एक वयस्क की त्वचा कोशिकाएं लेकर आनुवांशिक सूचना के साथ उसे दानदाता के ऐसे अंडाणा में रखा गया, जिससे उसके डीएनए को अलग कर दिया गया था । इसके बाद बिजली का इस्तेमाल कर अंडाणु को एक भ्रूण में विकसित होने के लिए प्रेरित किया गया ।

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