बुधवार, 20 जून 2018


प्रसंगवश
लालकिले की सफाई में २५ लाख किलो धूल मिट्टी निकली
लालकिले की छत पर २५ लाख किलो धूल-मिट्टी जमा थी । मिट्टी की २ मीटर उंची परतें जम गई थी । पिछले ५ महीने से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) इसकी सफाई में जुटा था । अब जब काम पूरा हुआ तो एएसआई ने बताया कि - लालकिले पर इतनी धूल जमा थी कि अगर अभी भी इसे हटाया नहीं जाता तो प्राचीर का ये हिस्सा धूल के बोझ से गिर सकता था । ये लालकिले के सामने का वही हिस्सा है, जहां से हर साल प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर भाषण देते है । धूल की यह परत करीब १०० साल से जमती आ रही थी, वो भी मुख्य गेट `लाहौरी गेट' की छत पर । तबसे लेकर अब तक इसे हटाने के लिए जरुरी साफ-सफाई नही कराई गई । नतीजन धूल और तमाम कूड़ा-कचरा जमते-जमते इतना ज्यादा हो गया ।
पुरातत्व विभाग का ये मरम्मत कार्यक्रम करीब एक साल चलना है । इसके तहत लालकिले के अंदर लगने वाली मार्केट का स्वरुप बेहतर किया जाएगा । यहां पीने के पानी, वाशरुम वगैरह की व्यवस्था दुरुस्त की जाएगी । इसके अलावा तमाम दिवारोंपर प्लास्टर की कई-कई परते जम गई थी, जिसकी वजह से दीवारों पर बनी मुगल काल की पेंटिंग्स दिख ही नही रही थी । प्लास्टर की इन परतों का ेधीरे-धीरे हटाया जाएगा, ताकि पेंटिंग्स को नुकसान ना हो । पूरे प्रोजेक्ट की लागत करीब ६० करोड़ रुपए तक रहेगी ।
पुरातत्व विभाग के दिल्ली सर्किल इंचार्ज एनके पाठक ने बताया - लाहौरी गेट में जमी इस मिट्टी की नमी से किले की दिवारों से अब तक २५ लाख किलो मिट्टी हटाई जा चुकी है । अब गेट पर सैंडस्टोन लगाए जाएंगे, ताकि दीवार में नमी न जाए ।
करीब १०० साल पहले अंगे्रजो ने लोहौरी गेट और दिल्ली गेट के पास मिट्टी भरकर इसे उंचा बना दिया था, ताकि दोनो गेटो से चांदनी चौक पर नजर रखी जा सके । तबसे ये मिट्टी यूं ही जमी रही । इस पर और धूल जमती रही । २ साल पहले लालकिले के दिल्ली गेट की भी मिट्टी हटाई गई थी । इसके बाद से ही लाहौरी गेट की भी मिट्टी हटाने की योजना बन रही थी । पुरातत्व विभाग ने इसके लिए गृह मंत्रालय से अनुमति मांगी थी ।
लाल किला १८५७ तक तकरीबन २०० सालोंतक मुगल सामराज्य का निवास स्थान था । मुगल शासन काल में यह मुख्य किले के रुप में था, ब्रिटीश काल में भी सरकारी कार्यक्रम इसी किले में होते थे । 
लाला किले का निर्माण १६४८ में पांचवे मुगल सम्राट शाहजहां ने अपने महल के रुप में करवाया था । लाल किला पूरी तरह से लाल पत्थरों का बना होने के कारण उसका नाम लाल किला पड़ा ।
सामयिक
कावेरी जल बंटवारे पर राजनीति क्यों ?
ललित गर्ग
दक्षिण की गंगा, अन्नपूर्णा, पावन  `कावेरी' में आखिर कब तक उबाल आता रहेगा ? कब तक राजनीतिक दल जन-जन की जीवनरेखा-जल के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेकते रहेंगे ? कब तक जीवन देने वाली पवित्र नदियों को जहर बनते देखते रहेगें ? `कावेरी 'विवाद ने कर्नाटक और तमिलनाडु को परस्पर `बैरी' बना दिया । कावेरी ने दोनों प्रांतों को जोड़ा था पर राजनीतिज्ञ इसे तोड़ रहे है ।
एक बार फिर कावेरी जल बंटवारें का मसला चर्चा में है । अदालत ने जल बंटवारे के बारे में फैसला फरवरी में ही सुना दिया था । दरअसल सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई को दौरान केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने कहा कि ड्राफ्ट कैबिनेट के सामने पेश किया गया है, लेकिन प्रधानमंत्री के  कर्नाटक चुनाव मेंव्यस्त होने के कारण वह अभी तक इसे देख नहीं पाए है । 
केंद्र सरकार के इस जवाब पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा, कर्नाटक चुनाव से हमारा कोई लेना देना नही है और न ही यह हमारी चिंता है । कर्नाटक सरकार को तत्काल तमिलनाडु के लिए पानी छोड़ना होगा । कानूनी जानकार मानते है कि इस समस्या के समाधान के कानूनी आधार तो मौजूद है लेकिन जब तक इन चारोंसंबद्ध राज्यों के बीच जल को लेकर चल रही राजनीति खत्म नहीं होती, इस मसले को सुलझाना असंभव होगा । यह दो प्रमुख राज्यों के बीच राजनीतिक वर्चस्व को लेकर भी जोर-आजमाइश का विषय बना हुआ है ।
आखिर केन्द्र सरकार को बार-बार इस ज्वलंत मसले पर सर्वोच्च अदालत की फटकार क्यों सुनना पड़ रही है ? जब अदालत ने जल बंटवारे के बारे में फैसला फरवरी में सुना दिया था और फिर केंद्र की जिम्मेदारी तय करते हुए उसे एक निगरानी तंत्र यानी कावेरी प्रबंधन बोर्ड गठित करने निर्देश दिया था तो दो बार इसकी समय-सीमा बीत जाने के बाद भी बोर्ड का गठन क्यों नही हो पाया है ? इससे तमिलनाडु में खासी नाराजगी है । वहां केन्द्र की तरफ से होती आ रही कोताही के खिलाफ पिछले दिनों काफी विरोध प्रदर्शन हुए है, हिंसा हुई है । गरमी के मौसम में, जब पानी की जरुरत बढ़ जाती है, तमिलनाडु के लोगों का रोष स्वाभाविक है । तमिलनाडु सरकार ने केंद्र के रवैए को सर्वोच्च अदालत की अवमानना करार देते हुए याचिका दायर की थी ।
अदालत ने कर्नाटक को भी खरी -खोटी सुनाई है जिसने न्यायाधिकरण के बताए फार्मूले पर तमिलनाडु को पानी मुहैया नही कराया है । केंद्र की ही तरह कर्नाटक के भी इस रवैए की वजह चुनावी है । क्या नदी जल बंटवारे के झगड़ों का समाधान चुनावी नफा-नुकसाल देख कर होगा ? हालांकि सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में तमिलनाडु के हिस्से में आने वाले पानी में थोड़ी कमी कर दी थी, बेंगलुरु और मैसूर में पेयजल संकट के मद्देनजर । लेकिन निगरानी तंत्र बन जाए तो फिर प्रस्तावित बोर्ड की जिम्मेदारी होगी कि वह पंद्रह साल के दिए गए अदालत के फैसले के अनुरुप तमिलनाडु को कावेरी का पानी मिलना सुनिश्चित करता रहे ।
अदालत में दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र से पूछा कि बोर्ड का गठन अब तक क्यों नही हो पाया है । इसके जवाब में केंद्र के महाधिवक्ता ने जो कुछ कहा उससे इस अनुमान की पुष्टि ही होती है कि अब तक बोर्ड का गठन न हो पाने की वजह चुनावी है । महाधिवक्ता ने कहा कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव की वजह से प्रधानमंत्री और केंद्र के अनेक मंत्री लगातार चुनावी दौरों में व्यस्त है, इसलिए बोर्ड का गठन नहीं हो सका । लेकिन सच तो यह है कि व्यस्तता से ज्यादा बड़ा कारण यह डर होगा कि अगर बोर्ड का गठन हो गया तो कर्नाटक चुनाव में केंद्र में सत्तारुढ़ पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है । आखिर जनता के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण चुनाव और उसके परिणाम का होना क्या दर्शाता है ?
धरती का स्वर्ग कही जाने वाली कश्मीर की घाटी, जहां `झेलम' बहती है, अलगाववाद का नारा बुलन्द हो रहा है । शस्य श्यामला, साना उगलने वाली धरती, देश की `ग्रेनरी' पंजाब में बहने वाली `सतलज' के तटों पर नशा बह रहा है । कीमती उत्पाद देने वाली और तरल शक्ति को अपने में समाये हुए असम राज्य में जहां `ब्रह्मपुत्र' बहती है वहां चीनी आतंक फैलाहुआ है ।
भारत की यज्ञोपवित, करोड़ो की पूज्या `गंगा' के तराई क्षेत्र व उत्तरप्रदेश, बिहार में साम्प्रदायिकता और हिंसा ने सिर उठा लिया है । ये नदियां शताब्दियों से भारतीय जीवन का एक प्रमुख अंग बनी हुई है । इन्हीं के तटों से ऋषियों-मुनियों की वाणी मुखरित हुई और जहां से सदैव शांति एवं प्रेम का संदेश मिलता रहा है । इसमें तो पूजा के फूल, अर्ध्य और तर्पण गिरता था वहां निर्दोषों का खून गिरता है । वहां से अलगाव एवं बिखराव के स्वर प्रस्फुटित हो रहे है ?
हमारी सभ्यता, संस्कृति एवं विविधता की एकता का संदेश इन्हींधाराआें की कलकल से मिलता रहा है । जिस जल से सभी जाति, वर्ग, धर्म क्षेत्र के लोगों के खेत सिंचित होते है । जिनमें बिना भेदभाव के करोड़ों लोग अपना तन-मन धोते है । जो जल मनुष्य ही नहीं, भेदभाव, साम्प्रदायिकता का जहर कौन घोल रहा है ?
`कावेरी' विवाद ने कर्नाटक और तमिलनाडु को परस्पर बैरी बना दिया । यह विवाद राष्ट्रीय विघटन की तरफ एक खतरनाक मोड़ ले रहा है । दोनों राज्यों के सांसदों और विधायकों से होता हुआ यह विवाद राज्यों की जनता के दिलों में कड़वाहट घोलता रहा है । कावेरी ने दोनों प्रांतों को जोड़ा था पर राजनीतिज्ञ इसे तोड़ रहे है । लाखों लोग इधर से उधर अपने-अपने घर छोड़कर चले गये है ।
हमारे राजनीतिज्ञ, जिन्हें सिर्फ वोट की प्यास है और वे अपनी इस स्वार्थ की प्यास को इस पानी से बुझाना चाहते है । कर्नाटक और तमिलनाडु का यह विवाद आज हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दे उससे पूर्व आवश्यकता है तुच्छ स्वार्थ से उपर उठकर व्यापक राष्ट्रीय हित के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये । जीवन में श्रेष्ठ वस्तुएं प्रभु ने मुफ्त दे रखी है - पानी, हवा और प्यार और आज वे ही विवादग्रस्त, दूषित और झूठी हो गई ।
राजनीतिक लाभ के लिए तमिलनाडु के हितो और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना किस दृष्टि से जायज कही जाये ? यह कैसी राष्ट्रीयता है ? यह कैसा अखण्ड भारत है ? दो या अधिक राज्यों के बीच प्राकृतिक संसाधन के बंटवारे का झगड़ा हो तो, केंद्र से उम्मीद की जा सकती है कि उसकी मध्यस्थता से समाधान निकल जाएगा । अदालत ने कर्नाटक को भी खरी खोटी सुनाई है जिसने न्यायाधिकरण के बताए फार्मूले पर तमिलनाडु को पानी मुहैया नहीं कराया है । केंद्र की तरह कर्नाटक के भी इस रवैए की वजह चुनावी है । क्या नदी जल बंटवारे के झगड़ों का समाधन चुनावी नफा-नुकसान देखकर होगा ?    ***
हमारा भूमण्डल
दवाआें की कल की दुनिया
नरेन्द्र देवांगन
बीसवीं सदी को हथियारों की सदी कहा गया है क्योंकि इसी सदी में भयानक तबाही पैदा करने वाले अस्त्रों का विकास हुआ था । चाहे वह भयंकर विनाश करने वाला परमाणु बम हो या अंतरमहाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र (आईसीबीएम) हो । यहां तक कि छोटे हथियारों में सबसे खतरनाक एके - ४७ का विकास भी इसी सदी में हुआ था । शायद इन हथियारों के विकास को ध्यान में रखते हुए ही अल्बर्ट आइंस्टाइन ने बीसवीं सदी को पागलपन के विकास की सदी कहा था ।
लेकिन पिछली सदी अगर हथियारोंके विकास की सदी थी तो इक्कीसवींसदी जैविक ज्ञान-विज्ञान की सदी है । पिछली सदी में अगर पलक झपकते ही इंसान के अस्तित्व को खत्म कर देने वाले हथियारों का विकास हुआ था तो इस सदी में इंसानी शरीर के चमत्कृत कर देने वाले गहरे रहस्योंकी खोज जारी है  फिर वह चाहे मानव जीनोम को डिकोड कर लेने (यानी पढ़ लेने) की उपलब्धि हो या मानव अंगों को प्रयोगशाला में बनाने की उपलब्धि ।
इसी क्रम में दवाआें की दुनिया में भी चौंकाने वाले बदलाव हो रहे है । भविष्य की दवाएं शरीर की मरम्मत या उसे स्वस्थ भर नहीं करेंगी, बल्कि उसे बदल ही देंगी । कुछ मिलाकर मतलब यह है कि दवाआें की दुनिया में क्रांति आने वाली है ।
आनुवंशिक बीमारियों की सूची बहुत लंबी है । इनके पनपने की एक प्रमुख वजह आनुवंशिकता होती है । डॉक्टर ऐसी बीमारियों के सामने अब तक असहाय रहे है । लेकिन भविष्य में ऐसा नहीं होगा । वैज्ञानिकों के हाथ आखिर वह कुंजी लग गई है, जिसकी तलाश में वे पिछले पांच दशकों से थे । जी हां, `मानव जीनोम' (यानी सारे जीन्स के पुंज) का रहस्य खुल जाने के बाद चिकित्सा की समूची दुनिया उलटफेर की कगार पर आ खड़ी हुई है । अब तक कई बीमारियों के मामले मेंचिकित्सक मऱ्जके लक्षण देखकर चिकित्सा करते रहे है लेकिन भविष्य ऐसा नहींहोगा ।
यू.एस. नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन जीनोम रिसर्च के निर्देशक फ्रांसिस कोलिन्स के अनुसार `अगर आप किसी बीमारी का जैनेटिक आधार समझ गए तो आप यह बात बता सकते है या जान सकते है कि इसे किस प्रोटीन ने पैदा किया है और इसे रोकने के लिए आप दवा बना सकते है ।' जबकि अभी तक ऐसा नहीं होता था । अभी तक किसी बीमारी के आधार-जीन का पता नहीं लगाया जाता था या नहीं लग पाता था । अभी तक जीन द्वारा पैदा किए गए प्रोटीन के दुष्परिणामों को रोकने का ही इलाज होता रहा है । दुष्परिणामी प्रोटीन को पैदान करने वाले जीन को नहीं छेड़ा जाता था । नतीजा यह निकलता था कि बीमारियों पर तो रोक लग जाती थी । इस वजह से एक बार ठीक होने के बाद कुछ अर्से बाद वही बीमारी दोबारा उभरने की संभावना होती थी ।
मानव आनुवंशिक सूत्र में मौजूद लगभग तीन अरब रासायनिक संकेताक्षरों को वैज्ञानिकों ने पढ़ लिया है, जिससे अब मानव शरीर में मौजूद हजारों जीन्स को पढ़ना संभव हो चुका है । जैसा कि हम सब जानते है कि मानव शरीर ४६ गुणसुत्रों के नियामक आदेशों के अनुसार संचालित होता है । वास्तव मेंइन्हीं ४६ गुणसूत्रों में उपस्थित सूचना के आधार पर ही मानव के विभिन्न उत्तक, अंग, हार्मोंास और एंजाइम बनते है । मानव जीन कुंडली के रहस्योंको पढ़ लेने के बाद अब अनुमान के सहारे चलने वाली चिकित्सा पद्धति पुरानी पड़ चुकी है । जीनोम की जानकारी हो जाने के बाद अब बिलकुल नए किस्म की दवाएं बनने लगी है ।
उदाहरण के लिए दवा बनाने वाली एक अमेरिकी कंपनी मिलेनियम फार्मास्यूटिकल्स के मुख्य वैज्ञानिक राबर्ट टेपर कैंसर रोधी दवाईयों पर अनुसंधान कर रहे है । उन्होंने कैंसरके लिए एक दवा बनाई है । इसका नाम है `स्मार्ट बम' । यह जैविक स्मार्ट बम शरीर में पहुंचकर शरीर की तमाम कैंसर प्रभावित कोशिकाआें का पलक झपकते खात्मा कर देगा जबकि स्वस्थ कोशिकाआें से टकराएगा भी नहीं । अन्य एंटीबॉडीज़की तरह एक मानव निर्मित कैंसर मिसाइल, कैंसर से क्षतिग्रस्त मानव कोशिकाआें पर हमला करके उन कोशिकाआें के ऐसे तमाम अणुआें को निकाल बाहर करेगी जो कैंसर पैदा करने में मददगार होंगे । यह कोई काल्पनिक दावा नहीं है । प्रायोगिक स्तर पर इस तरह की लगभग एक दर्जन दवाएं अमेरिकी बाज़ार में मिल रही है । ऐसा ही एक दवा है हरसेप्टिन । यह स्तन कैंसर के लगभग ३० प्रतिशत मामलोंमें कामयाब रही है ।
मानव जीनोम के डिकोडिंग के पहले तक वैज्ञानिक सिर्फ ५०० प्रोटिन्स के बारे में जानते थे और उन्ही के मुताबिक दवाआें का निर्माण होता था । लेकिन अब वैज्ञानिक ३०,००० से भी ज्यादा प्रोटीन्स के बारे मेंजान गए है । माना जा रहा है कि इस जानकारी से मनुष्य की उम्र बढ़ाने और बुढ़ापा भगाने में कामयाबी मिल सकती है ।
अब तक डॉक्टर अनुमान और लक्षणों के आधार पर दवा करते थे और कई बार एक ही रोग के लिए कई तरह की दवाएं देते थे । उदाहरण के लिए सिर्फ उच्च् रक्तचाप के लिए ही डॉक्टर तमाम दवाएं लिखते थे लेकिन अब जैविक औषधि युग में डॉक्टर चिकित्सा के लिए लक्षणों को आधार नहीं बनाएंगे, बल्कि रोगी के प्रोटीन्स के संतुलन पर ध्यान देंगे । खासकर मधुमेह और कैंसर के मामले में ऐसा ही होगा ।
लेकिन राबर्ट टेपर के मुताबिक इन छोटी-छोटी सफलताआेंको कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं माना जा सकता । असली उपलब्धि कैंसर के लिए एक ऐसी सुपर दवा का विकास करना होगा जो कि गले, गुर्देऔर छाती के कैंसर का आधार बनने वाली कोशिकाआें के उन सभी अणुआें का खात्मा कर सके, जिनकी वजह से कैंसर होता है ।
भले ही अभी यह सुपर मेडिसिन दूर ही कौड़ी लग रही है लेकिन मिलेनियम फार्मास्यूटिकल्स के डॉक्टरों ने कई ऐसे जीन्स का पता लगा लिया है जिनमें कैंसर के लिए सहायक अणु पाए जाते है । हालांकि इनमेंसे मिलेनियम के वैज्ञानिकों को अभी तक सिर्फ कुछ ही जीन्स की मरम्मत करने की कला समझ में आई है। यह जानकारी इन्होनें नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ जीन बैंक की वेबसाईट पर फ्लैश भी की है । चिकित्सा के इतिहास में यह पहला ऐसा मौका है जब वैज्ञानिक यह जान पाने के करीब पहुंच गए है कि कौन-सी दवा प्रभावी होगी, कौन सी नही, और क्यों ?
भविष्य की दवाआें के लिए जो सबसे चुनौतीपूर्ण मऱ्जहै उनमें है एड्स, कैंसर, मानसिक रोग, प्रतिरोधक क्षमता के ह्रास की बीमारी, अल्जाइमर, हृदय रोग तथा पारकिंसन आदि । कुछ साल पहले तक इन सभी मऱ्जोका नाम सुनकर चिकित्सा वैज्ञानिकों के हौसले पस्त हो जाते थे । लेकिन आज उनमें गजब का आत्मविश्वास आ गया है । हालांकि इनमें से किसी भी रोग का पूरी तरह से खात्मा करने वाली दवा अभी तक इजाद नहीं हुई है लेकिन वैज्ञानिकों को यकीन है कि जेनेटिक कोड पढ़ लेने के बाद अबइनकी दवा विकसित करना मुश्किल नहीं है ।
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विश्व पर्यावरण दिवस १
प्लास्टिक प्रदूषण और मानवता का भविष्य
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित
इस वर्ष पर्यावरण दिवस के लिए विषय रखा गया है प्लास्टिक प्रदूषण हर वर्ष वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के लिए सामान्य जन मेंलोक चेतना पैदा करने के लिए एक विषय चुना जाता है । पर्यावरण दिवस के सारे कार्यक्रम इस विषय को केंद्र में रखकर आयोजित होते है ।
आधुनिक युग में प्लास्टिक एक प्रमुख पदार्थ माना जाता है जिसका उपयोग हमारे दैनिक जीवन में अनेक प्रकार से होता है । प्लास्टिक कई कारणों से बेहतर साबित हुआ है । लकड़ी तथा कागज की तरह प्लास्टिक सड़ता नहीं है तथा लोहे की तरह इसमें जंग नहीं लगता । प्लास्टिक से निर्मित वस्तुएं यदि गिर भी जाएं तो टूटती नही है । बिजली के खतरों से बचने के लिए विद्युत उपकरण प्लास्टिक से बनाए जाते है । आवश्यकतानुसार प्लास्टिक मेंविभिन्न रासायनिक पदार्थ मिलाकर इसे मुलायम, कठोर, पारदर्शी तथा किसी भी रंग का बनाया जा सकता है ।
पिछली एक शाताब्दी की विकास यात्रा के केंद्र में रहा है, प्लास्टिक । इसका इतिहास भी कम रोचक नहीं है । प्लास्टिक का निर्माण सर्वप्रथम सन् १८६८ में संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जॉन वेसली हयात द्वारा किया गयाथा । प्लास्टिक की खोज वस्तुत एक प्रतियोगिता के कारण हुई ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में बिलियर्ड बॉल के निर्माण के लिए उस समय सामान्य तौर पर हाथी दांत का उपयोग किया जाता था । परन्तु हाथी दांत विदेशोंसे आयात करना पड़ता था । विदेशों से आयात करने में यह काफी महंगा पड़ता था और अनेक कठिनाईयों का सामना भी करना पड़ता था । इसी कारण संयुक्त राज्य अमेरिका के अनेक उद्योगपति हाथी दांत के  एक ऐसे विकल्प की खोज में थे जो सस्ता भी हो तथा आयात पर निर्भर न रहना पड़े । इसी प्रकार के वैकल्पिक पदार्थ की खोज करने के लिए १८६८ मेंएक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया । इस प्रतियोगिता में हाथी दांत के सर्वोत्तम विकल्प की खोज करने वाले को दस हजार अमेरिकी डॉलर पुरुस्कार देने की घोषणा की गई ।
जॉन वेसली हयात नामक रसायनविद ने इस प्रतियोगिता में भाग लेकर अपनी किस्मत आज़माने ाक निश्चय किया । उसने हाथी दांत के विकल्प के रुप में पाइरोक्सिलीन नामक एक सेलुलोज नाइट्रेट को आज़माने की योजना बनाई ।
इससे कुछ ही समय पूर्व इंग्लैंड के प्रसिद्ध एलेक्जेंडर पार्क्स ने पता लगाया था कि पाइरोक्सिलीन को कपूर में मिलाकर जो मिश्रण तैयार होता है, वह काफी लचीले स्वभाव को होता है तथा इसे आसानी से किसी भी आकृतिमें ढाला जा सकता है । परन्तु पार्क्स को इस दिशा में वांछित सफलता नहीं मिल पाई थी । जॉन वेसली हयात ने पार्क्स द्वारा बनाई गई विधि में कुछ संशोधन किए । उन्होनेंपार्क्स द्वारा बताए गए मिश्रण पर काफी उंचा दाब तथा तापमान आज़माया । इसके फलस्वरुप एक प्रकार का प्लास्टिक पदार्थ तैयार करने मेंसफलता प्राप्त् हुई । जो प्लास्टिक पदार्थ तैयार हुआ था, उसका नाम हयात ने सेलुलॉयड रखा था । परन्तु हयात जिस चीज़ की खोज मेंथे वह नहीं मिल पाई जिसके कारण वे दस हज़ार डॉलर का पुरस्कार प्राप्त् करने में असफल रहे ।
परन्तु इस प्रयोग से उन्हें इतना तो पता चल गया था कि इस पदार्थ को अनेक वस्तुआें के निर्माण में हाथी दांत के विकल्प के रुप मेंउपयोग किया जा सकता है । हयात द्वारा विकसित किए गए रासायनिक पदार्थ से शुरुशुरु में नकली दांत, कमीज़में कॉलर इत्यादि का निर्माण किया जाता था । कुछ समय बाद इस रासायनिक पदार्थ से फोटोग्राफिक फिल्म, स्वचलित वाहनों हेतु खिड़कियों के पर्दे तथा विंडस्क्र ीन  इत्यादि वस्तुएं बनाई जाने लगी ।
उन्नीसवीं शाताब्दी के अंतिम दशक मेंविल्हेलम फ्रिस्क तथा एडोल्फ स्पिट्लर नामक दो जर्मन रसायन वैज्ञानिको ने ब्लैक बोर्ड के निर्माण हेतु स्लेट के विकल्प ढूंढने का प्रयास शुरु किया । कई प्रयोगों के बाद उन्होने यह पता लगाने मेंसफलता प्राप्त् की कि कैसीन पर फार्मेल्डिहाइड की अभिक्रिया से जानवरों के सींग से मिलताजुलता एक प्रकार का प्लास्टिक पदार्थ प्राप्त् होता है जिसका उपयोग अनेक व्यवसायिक उत्पदान प्रारम्भ हो गया । इस पदार्थ का व्यापारिक नाम रखा गया `गैलालीथ' । गैला तथा लीथ ग्रीक भाषा के शब्द है जिनके अर्थ क्रमश: दूध तथा पत्थर होता है । इस प्रकार गैलालीथ का शाब्दिक अर्थ हुआ दुधिया पत्थर । चूंकि  कैसीन प्लास्टिक का रंग दूध की तरह उजला तथा उसकी मज़बूती पत्थर के समान थी, इसीलिए इसे गैलालीथ कहा गया । उद्योग जगत में गैलालीथ काफी उपयोगी साबित हुआ तथा इससे कई वस्तुएं बनाई जाने लगी ।
प्लास्टिक उद्योग के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले एक अन्य प्रमुख वैज्ञानिक थे बेल्जियम मूल के अमेरिकी नागरिक डॉएडोल्फ बफन, प्रसिद्ध जर्मन रसायनविद डॉ लियो बैकलैंड ।
बेयर ने सन् १८७२ में प्रयोगों से पता लगाया था कि जब अनेक प्रकार के फीनॉल तथा एल्डिहाइड अभिक्रिया करते है तो एक रालनुमा पदार्थ तैयार होता है । परन्तु बेयर द्वारा विकसित किए (रेजिनस) गए इस रालदार पदार्थ को सन् १९०९ तक किसी भी उपयोग में न लाया जा सकता था । परन्तु सन् १९०९ में फीनॉल तथा फार्मेल्डिहाइड की अभिक्रियामें कुछ परिवर्तन करके बेकलैंड एक ऐसा प्लास्टिक निर्मित करने में सफल हुए जिसका उपयोग कई उद्योगो में किया जा सकता था । बेकलैंड के नाम पर ही इस नए प्लास्टिक का नामकरण बेकेलाइट किया गया ।
इसे ताप एवं दाब के प्रभाव से ढालकर विभिन्न आकृतियां प्रदान कि जा सकती थी । घोल के रुप मेंइस पदार्थ का उपयोग लकड़ी के तख्तों, कपड़ों तथा कागज़ इत्यादि को चिपकाने के लिए एडहेसिव के तौर पर किया जा सकता था । इस प्रकार बेकेलाइट सबसे पहला व्यावासायिक कृत्रिम राल था । सन् (रेज़िन) १९०९ से अब तक अनेक नए प्रकार के प्लास्टिक गए सतत प्रयास के फलस्वरुप ही प्लास्टिक का उपयोग किया जा रहा है । आज प्लास्टिक से निर्मित वस्तुएं हमारे जीवन के हर क्षेत्र मेंअपना महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी है । आधुनिक काल को यदि प्लास्टिक युग कहा जाए तो गलत नहीं होगा ।
आज विश्व का प्रत्येक देश प्लास्टिक से उत्पन्न प्रदूषण की अत्यन्त विनाशकारी समस्याआें से जूझ रहा है । हमारे देश में तो प्लास्टिक प्रदूषण से विशेषकर नगरीय पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है । नगरों में प्लास्टिक थैलियों को खाकर भारी संख्या में पशु और पक्षी मारे जा रहे है । प्लास्टिक नैसर्गिक रुप से विघटित होने वाला पदार्थ नहीं होने के कारण एक बार निर्मित हो जाने के बाद यह प्रकृति मेंस्थाई तौर पर बना रहता है तथा प्रकृति मेंइसे नष्ट कर सकने वाले किसी सक्षम सूक्ष्म जीवाणु के अभाव के कारण यह कभी भी नष्ट नहीं हो पाता इसलिए गंभीर पारिस्थितिकी संतुलन उत्पन्न होता है और सम्पूर्ण वातावरण प्रदूषित होता है ।
प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्ति के लिए केवल सख्त कानून बनाने से काम नहींचलेगा, समाज को इसके लिए तैयार करना होगा । दैनिक जीवन की अपनी आवश्यकताआेंमें प्लास्टिक की मात्रा को धीरे-धीरे कम करके वैकल्पिक साधनोंका उपयोग होगा तो प्लास्टिक के उत्पादन, विक्रय और उपयोग तीनो में धीरे-धीरे कमी आने लगेगी ।
जहा तक प्लास्टिक के पुनर्चक्रण का सवाल है, फिलहाल तो पुनर्चक्रण का प्रतिशत बहुत कम है इसके साथ ही पुनर्चक्रण प्रक्रिया भी प्रदूषणकारी है । इसलिए मानवता के भविष्य के लिए प्लास्टिक से मुक्ति ही उचित मार्ग होगा । यह सही समय है जब इस दिशा में कदम उठाये जाये, अन्यथा देरी हो जाएगी ।
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हिमालय
पर्वतीय क्षेत्रों में जल संरक्षण की चुनौतियां
कुलभूषण उपमन्यु
हिमालयी पर्वतीय क्षेत्र, तेज ढलानों और विविधता से भरपूर भौगोलिक संरचना के कारण जल संरक्षण की दृष्टि से बहुत ही पेचीदा और चुनौती पूर्ण क्षेत्र है ।
पर्वतीय क्षेत्रों मे जल संरक्षण की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जबकि यहीं सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । तेज ढलानों और वनस्पति की कमी के चलते बारिश के पानी का भू जल मेंसंचय की चुनौती के साथ सतही जल को रोकना और प्रयोग कर पाना दूसरी बड़ी चुनौती है ।
मैदानी क्षेत्रों में तेज ढलानों और भौगोलिक विविधता इतनी अधिक होती है कि एक दो किलोमीटर के भीतर ही प्रयोग की जाने वाली तकनीकों को बदलना पड़ सकता है । पर्वतीय भूजल भंडारों की बनावट भी विविधतापूर्ण और पैचीदा होती है । इसलिए इन क्षेत्रों में जल संरक्षण कार्य भिन्न-भिन्न तरीके अपना कर ही किया जा सकता है ।
पिछले दो तीन दशकों से पर्वतीय क्षेत्रों की नदियों मे जल की मात्रा कम होती जा रही है, जो छोटे खड्डोंऔर नालों में तो स्पष्ट दृष्टि गोचर हो जाती है । पुराने कई नाले सूख गए है, कुछ सूखने के कगार पर है । सदा बहार खड्डे नाले मौसमी बनते जा रहे है जिनमें केवल बरसात में ही पानी आता है । इसलिए गर्मियां आते ही पेयजल और सिंचाई की समस्या सामने आ जाती है । पूरे गंगा और सिंध के मैदान की सिंचाई हिमालय से निकलने वाली नदियोंऔर खड्डों और नालों से ही होती है ।
ग्लेशियर कम होने के चलते और बर्फ के पीछे हटते जाने से बड़ी नदियों में जल की मात्रा कम हो रही है तो छोटे खड्डे और नाले भी सूखते जा रहे है, जिसका प्रभाव बड़ी नदियोंके जल स्तर पर पड़ना भी स्वाभाविक ही है । इस तरह यह संकट पर्वतीय और मैदानी दोनों ही क्षेत्रों के लिए एक समान चिंता का कारण बनता जा रहा है । आबादी के बढ़ने के साथ-साथ औघोगिक क्षेत्र की जलमात्र की मांग मेंभी लगातार बढ़ोत्तरी हो रहे है । इसके अंतरराष्ट्रीय स्तर तक विस्तार को भी नकारा नहीं जा सकता है । हालांकि मैदानी क्षेत्रों में जल संरक्षण के पुराने समय से ही कुछ प्रयास किए जाते रहे है । तालाब, कुएं, बावडियां आदि बना कर सतही और भूजल भरण की व्यवस्थाएं विकसित की गई है ।
आज भी उन पारंपरिक विधियोंकी प्रासंगिकता को समझकर कई संगठन जल संरक्षण कार्य के महत्व को समझ कर संरक्षण कार्य में लगे हैं, किंतुपर्वतीय क्षेत्रों में इस ओर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है । जबकि यहीं सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । तेज ढलानों और वनस्पति की कमी के चलते बारिश के पानी का भू जल में संचय की चुनौती के साथ सतही जल को रोकना और प्रयोग कर पाना दूसरी बड़ी चुनौती है । ग्लेशियर जल में होती कमी के चलते बारिश के पानी को अन्य तरीकोंसे रोकना जरुरी है ।
बड़े बांध बनाकर पानी को रोकने की अपनी सीमाएं है और इस विधि के कारण होने वाले विस्थापन और पर्यावरणीय दुष्प्रभावोंको देखते हुए इस विधि का विस्तार नहीं हो सकता । इसलिए सतही जल को भू जल में संरक्षित करने पर ही ज्यादा जोर देने की जरुरत है । ऐसा संरक्षण बड़े भूजल भंडारों को भरने के अलावा स्थानीय स्तर पर छोट छोटे भूजल भंडारों को भर कर भी हो सकता है । उत्तराखंड के उफरेखाल में स्वामी सच्च्दिानंद भारती ने स्थानीय स्तर पर छोटे नाले को पुनर्जीवित करने का सुंदर प्रयोग करके दिखाया है, किंतु कही ऐसा प्रयोगों का विस्तृत प्रयोग देखने को नही आया है ।
जलागम विकास कार्यक्रमों में जल संरक्षण एक महत्वपूर्ण पहलू था, किन्तु ऐसे कार्यक्रमोंके क्रियान्वयन के बाद कोई दिखने लायक प्रदर्शन क्षेत्र तैयार नहींहुआ । पर्वतीय क्षेत्रों में जलागम विकास के सिद्धांत पर ही जलसंरक्षण कार्य हो सकता है, चाहे आप उसे किसी भी नाम से पुकार लें । हिमरेखा से नीचे के क्षेत्रों में जलागम कार्यक्रम को गंभीरता से चलाने की जरुरत है । क्योंकि बर्फ घटने के बाद इसी क्षेत्र से संरक्षित जल से बड़ी नदियों के पानी को कुछ हद तक बनाए रखा जा सकेगा और स्थानीय जरुरतों को भी पूरा किया जा सकेगा ।
आज तक जलागम विकास कार्यक्रम विशेषज्ञतापूर्ण दृष्टि से नहीं चलाए गए । क्रियान्वयन कार्य आप चाहे जलागम समिति से करवाएं या पंचायत से, जरुरत तो विशेषज्ञता की है । क्रियान्वयन करने वाली इकाइयों को विशेषज्ञ सलाह उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी बनती है । न केवल सलाह बल्कि कार्यक्रम का नियन्त्रण भी विशेषज्ञ सलाह के अंतर्गत ही होना चाहिए । स्थानीय स्तर पर जन भागीदारी का अपना महत्व है किन्तु भागीदारी, कार्य की गुणवत्ता के साथ समझौते का कारण नहीं बननी चाहिए और न ही दीर्घकालीन जिम्मेदारी से बचने का माध्यम ही बननी चाहिए ।
पिछले अनुभवों से यह सामने आया है कि अच्छे सफल कार्य भी परियोजना समािप्त् के बाद संभाल की कमी के कारण नष्ट हो जाते है । इसलिए उपचारित जलांगम क्षेत्र को बाद में संभालने की जिम्मेदारी किसी स्थाई व्यवस्था के हवाले की जानी चाहिए जो उसके रख रखावच के लिए स्थाई तौर पर जवाब देह हो । इसके लिए एफ.आर.ए. के तहत बनाई गई वन प्रबंधन समिति, वन विभाग वन पंचायत आदि कोई व्यवस्था खड़ी की जा सकती है ।
पर्वतीय क्षेत्रों में जलागम विकास कार्यक्रमों को चलाने के लिए विशेषज्ञ विभाग बनाया जाना चाहिए जिसमेंभूविज्ञानी, वानिकी के जानकार, पर्वतीय आजीविका के जानकार, सिविल इंजीनियर और समाजशास्त्री होने चाहिए जो एक ही छत के नीचे सब तरह की वांछित विशेषज्ञता उपलब्ध करवा सकें और उनमें कोई अंतर विभागीय प्रतिस्पर्धा भी न हों । कार्यक्रम परिस्थितियों के अनुसार उपचार योजना बनाने की छूट दी जानी चाहिए ।
कागजी खानापूर्ति पर उतना ध्यान देने के बजाए पांच वर्ष की असली उपलब्धि और स्थाई प्रबंध व्यवस्था खड़ी करने पर जोर दिया जाना चाहिए । वन विभाग और नोडल विभाग का टकराव भी जलागम कार्यक्रम की उपलब्धि में न्यूनता का कारण बनता रहा है । नोडल विभाग का कार्य सामुदायिक विकास विभाग को दिया गया था किन्तु वन विभाग उन्हें अपने क्षेत्रों में वन रोपण की अनुमति ही नहीं देता रहा है । जलागम विकास के वनरोपण के लक्ष्य पूरा करने के लिए निजी भूमियोंपर वृक्षारोपण करवा कर जबरदस्ती लक्ष्य पूरे किए जाते रहे है । बिना वन भूमि को उपचारित किए पर्वतीय क्षेत्रों के जलागम विकास का अर्थ ही नही रहता क्योंकि इन क्षेत्रों में वन भूमि ६० प्रतिशत से ज्यादा है ।               ***
स्वास्थ्य
दवा उत्पादन में खमीर की भूमिका
डॉ. डी बालसुब्रमण्यन
पौधे औषधियों के समृद्ध स्त्रोत होते है । यह बात तब से ज्ञात है जब से मनुष्यों ने समुदायों के रुप में मिल जुलकर रहना शुरु किया था । वास्तव में लगता तो यह है कि चिम्पैंजी भी दवा के रुप में चुनकर विशेष पौधे खाना पसंद करते है ।
आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, आदिवासी औषधियां प्राच्य चिकित्सा और होम्योपैथी में वनस्पति आधारित यौगिकों का इस्तेमाल दवाइयों और टॉनिक के रुप में होता रहा है । कार्बनिक रसायन शास्त्र में खास तौर से प्राकृतिक उत्पाद और औषधि रसायन जैसी विशेष शाखाएं है । इस विधा में शोधकर्ता चुनिंदा पौधे इकट्ठा करते है और उनमें से विशेष अणुआें को अलग करने की कोशिश करते है । इसके बाद उनकी रसायनिक संरचनाआें को अध्ययन करके बीमारियों के खिलाफ उनकी प्रभाविता की जांच करते है । इस क्षेत्र को औषधि रसायन कहते है ।
किसी भी पौधे में हजारों अणु अलग-अलग मात्राआें में उपस्थित होते है । अक्सर जिस दवा अणु की तलाश कर रहे है वह बहुत कम मात्रा में पाया जाता है । एक मायने में यह मात्र घास के  ढेर में सुई ढूंढने जैसी समस्या नहीं है बल्कि मनचाहे यौगिक तक पहुंचने के लिए ऐसे कई ढेरो की जरुरत होती है ताकि काम करने के लिए ठीक ठाक मात्रा (कुछ ग्राम) मिल सके । इस प्रकार प्राकृतिक उत्पाद रसायन काफी चुनौतीपूर्ण क्षेत्र रहा है और सफल शोधकर्ताआें को हीरो माना जाता है और सम्मान व पुरस्कार से नवाजा जाता है । इसका एक हालिया उदाहरण चीन की महिला वैज्ञानिक डॉ. यूयू तू का है । उन्हे २०१५ में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया गया था । उन्होने दशकों के परिश्रम के बाद मलेरिया के लिए चीनी जड़ी बूटी क्विंगहाआेंसे आर्टेमिसीनीन नामक अणु को अलग किया था ।
एक बार जब प्राकृतिक उत्पाद रसायनज्ञ दवा के अणु को अलग करके उसकी रासायनिक संरचना को निर्धारित कर लेता है तब वह इस अणु को प्रयोगशाला मेंबनाने (संश्लेषण) का प्रयास करता है । अभी तक यह एक चुनौतीपूर्ण और कमरतोड काम रहा है । चूंकि अणु का आकार त्रि आयामी होता है तो इसमें परमाणुआें की जमावट काफी जटिल हो सकती है । प्रयोगशाला में इस तरह के जटिल अणुआें का निर्माण कुछ हद तक एक आर्किटेक्ट के काम के समान है जो इंट गारा जोड़कर इमारत बनाता है । इस मामले में भी हीरों को सम्मान दिया जाता है ।
ऐसे ही एक हीरो हारवर्ड के स्वर्गीय प्रोफेसररॉबर्ट वुडवर्थ थे जिन्होने दशकों तक सफलतापूर्वक कई जटिल अणुआें का संशलेषण किया था और इस काम के लिए उन्हें १९६५ में रसायन में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था । आर्किटेक्ट उपमा को आगे बढ़ाते हुए महान कार्बनिक रसायन स्वर्गीय प्रोफेसरसुब्रामण्य रंगनाथन ने एक मोनोग्राफ लिखा था जिसका शीर्षक था दी आर्ट ऑफ आर्गेनिक सिंथेसिस (कार्बनिक संश्लेषण की कला) ।
क्विंगहाओ आर्टेमिसीनीन कैसे बनता है ? पूरी प्रक्रिया एक दर्जन से ज्यादा चरणों में सम्पन्न होती है । इनमें से कई चरण एंजाइम द्वारा उत्प्रेरित होते है जो प्रोटीन अणु होते है । इनमें से प्रत्येक चरण का खुलासा कर लिया है और यह भी समझ लिया है कि पादप कोशिकाआें में इन एंजाइम को बनाने में कौन से जीन्स शामील है । दरअसल यह जीन का पूरा समूह है ।
अब इस जानकारी के दम पर और जेनेटिक्स और जेनेटिक इंजीनियरिंग में हुई प्रगति की मदद से क्या हम कार्बनिक रसायन की विधियों की बजाय जेनेटिक इंजीनियरिंग की विधियों का इस्तेमाल करके आर्टेमिसिनिन को प्रयोगशाला में बना सकते है ? और यदि हम इस जीन समूह को किसी सूक्ष्मजीव (जैसे खमीर) में प्रवीष्ट कराएं तो क्या वह आर्टेमिसिनिन बनाने लगेगा ? यदि ऐसा कर पाते है तो हमे टनों जड़ी बूटी उगाने और काटने की जरुरत नहीं पड़ेगी खमीर के विशाल कल्चर मेंकिलोग्राम के हिसाब से दवा बनाई जा सकेगी ।
आर्टेमिसिनिन बनाने के लिए किसी सूक्ष्मजीव का इस्तेमाल एक नवाचारी विचार है । यदि हमें सफलता मिलती है तो हम खमीर को एक पौधे में तबदील कर देंगे जिसका इस्तेमाल हम कम पांच सहस्त्राब्दियों से घरों और बेकरियों में करते आए है । लेकिन इसके लिए खमीर कोशिकाआें में उनके अपने जीवन के साथ साथ पौधे में उस दवा को बनाने के लिए जिम्मेदार जीन समूह भी होना चाहिए ।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे केसलिंग और एमायरिस कंपनी के डॉ. नील रेनिंगर का तर्क है कि जेनेटिक्स और जेनेटिक इंजीनियरिंग में हुई प्रगति की बदौलत अब यह विचार बड़बोलापन नही है बल्कि काम करने के लायक है । गेट्स फाउंडेशन के अनुदान से उनकी टीम ने दवा उत्पादन के लिए पौधे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पूरे जीन समूह का रासायनिक संशलेषण किया और उसे खमीर कोशिकाआेंके अनुरुप संशोधित किया और खमीर कोशिकाआें में प्रविष्ट करा दिया । उन्होने प्रयोगशाला में इस जेनेटिक रुप से परिवर्तित खमीर का कल्चर बनाया और पाया कि वह खमीर आर्टेमिसिनिन बना सकता है । इस समूह ने २०१३ तक इस विधि में काफी सुधार करके प्रति लीटर कल्चर माध्यम से २५ ग्राम एंटी मलेरिया दवा का उत्पादन किया है ।
पिछले कुछ वर्षोंा के दौरान कई अन्य दवाईयों जो प्राकृतिक रुप से पौधों और जड़ी बूटियों में मिलती है का उत्पदान खमीर की मदद से किया गया है । हाल ही में पीएनएएस पत्रिका में ली व साथियों ने अपने शोध पत्र में उन्होने बताया ह कि उन्होनें खमीर की मदद से कैंसर रोधी दवा नोस्केपाइनका उत्पदान किया है । यह कुदरती रुप से अफीम के पौधोंमें पाई जाती है ।
तिकड़म यह है कि पादप कोशिकाआें में यह अणु बनाने वाले जीन समूह की पहचान की जाए इन्हे प्रयोशाला में बनाकर खमीर में डाल दिया जाए और अनुकूल परिस्थितियां निर्मित की जाएं । तब यह पौधा रुपी खमीर उस अणु का उत्पदान करेगा । पांच हजार से अधिक वर्षोंा से जाना माना जो खमीर ब्रांड और शराब बनाने के कामआता है अब एक नई भूमिका निभाएगा ।               ***
पर्यावरण परिक्रमा
बर्फ तले दबी ३५० किमी लंबी घाटी की खोज
अंटार्कटिका के हिम पर्वतोंके नीचे छिपी पर्वत श्रृंखलाआें और ग्लेशियर के नीचे ३ गहरी घाटियों का पता लगा है । सबसे बड़ी घाटी फाउंडेशन थ्रो ३५० किलोमीटर से अधिक लंबी और ३५ किलोमीटर चौड़ी है । इसकी लंबाई लंदन से मैनचेस्टर तक की दूरी जितनी है ।
रडार से लिए गए आंकड़ों से इस स्थान का वर्णन मिला कि कै से बर्फ की चट्टानों पूर्व और पश्चिम अंटार्कटिका के बीच बहती है । दो अन्य घाटियां भी इतनी विशाल है । यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी पोलरगैप परियोजना के जरिये इसका पता चला है । शोध जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुआ है ।
शोधार्थी ने कहा कि दक्षिणी धु्रव के आसपास उपग्रह के डेटा के अंतर और वहां क्या है के बारे मेंहमारी टीम में से कोई नही जानता था । इसलिए हम पोलरगैप परियोजना के नतीजों को जारी करते हुए बेहद खुश है । शोधकर्ता ब्रिटेन के है ।

गौमती को संवारने आगे आए ४१ ग्राम प्रधान
उ.प्र. में गोमती नदी को नया जीवन मिलने वाला है । लखनऊ  की जीवनधारा गोमती नदी को संवारने में अब ४१ ग्राम प्रधान अपना सहयोग देंगे । दरअसल गोमती नदी की जलधारा को वापस लौटानें का संकल्प लेंगे । इस कार्य में डीएम व अन्य प्रशासनिक अधिकारी ग्राम प्रधानों का मार्गदर्शन करेंगे । डीएम कौशल राज शर्मा ने बताया कि गोमती नदी के तटबंध को सुंदर बनाने के लिए ग्राम प्रधानोंके अलावा सचिव, लेखपाल और गोमती के लिए कार्य कर रहे स्वयंसेवी संगठनोंके प्रतिनिधि भी मौजूद रहेंगे । डीएम के मुताबिक ग्रामीण इलाकोंमें गामती नदी के किनारे ४१ गांव है । इन गांव में गोमती नदी के किनारे सौन्दर्यीकरण के लिए पूरी योजना तैयार की गई है । इस योजना के बारे मेंग्राम प्रधानों व अन्य लोगों को विस्तार से जानकारी दी जाएगी ।
गोमती नदी में गांव का कूड़ा, गंदा पानी व कोई नाला न गिरे इसकी मॉनिटरिंग ग्राम प्रधान करेंगे । डीएम का कहना है कि इस प्रयास से गोमती नदी को साफ रखने में मदद मिलेगी । डीएम का कहना है कि जुलाई में बारिश होती है । इसलिए जुलाई से पहले हफ्ते में मनरेगा के अंतर्गत गोमती नदी तटबंध के ४१ गांवोंमें पौधारोपण किया जाएगा ।
डीएम ने बताया कि प्रत्येक गांव में लगाए गए पौधों की देखरेख की जिम्मेदारी अन्य लोगों के अलावा बच्चें को भी दी जाएगी । बच्चें को इसके लिए प्रेरित किया जाएगा । डीएम का कहना है कि इस प्रयास से बच्चों में प्रकृति के प्रति लगाव बढ़ेगा । डीएम ने बताया कि ग्रामीण इलाकों के अलावा शहरी क्षेत्र में भी जल्द पौधारोपण कार्यक्रम की शुरुआत की जाएगी ।

नदियों के प्रति नई सोच जरुरी
नदियां हमारी जीवन रेखाएं तो है ही, उनसे जनमानस की आस्था भी जुड़ी रही है । लेकिन आस्था में नदियों का बचाने की फिक्र कहां है? अब सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है, तो यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम नदियों को साफ नहीं कर सकते तो गंदा भी न करें ।
समुद्र और नदियों के तटों की सफाई के लिए सरकार ने भले देर से ही सही, दुरुस्त कदम उठाया है । केंद्र सरकार ने देश के चौबीस समुद्र तटोंऔर और २४ नदियों-झीलों की सुध ली है । इनमें तटीय राज्यों के समुद्री इलाके और इन राज्योंकी नदियों के अलावा यमुना नदी भी शामिल है । इस सफाई अभियान में १९ टीमें समुद्र तटों, नदियों और झीलों को प्लास्टिक के कचरे से निजात दिलाएंगी । सरकार को यह चिंता इसलिए भी हुई है कि भारत इस बार विश्व पर्यावरण दिवस समारोह का वैश्विक मेजबान है ।
पर्यावरण को बचाने के लिए इस साल की विषयवस्तु प्लास्टिक कचरे से मुक्ति रखी हुई है । लेकिन सवाल उठतो है कि तटों और नदियों की सफाई के लिए हम हमेशा क्यों नही सोचते रहते ? आज नदियां और समुद्र जिस तेजी से प्रदूषित होते जा रहे है वह गहरी चिंता का विषय है । इस तरह के सफाई अभियान के लिए किसी खास दिन या अवसर विशेष पर ही रस्मी तौर पर पहल करने की जरुरत क्यों महसूस की जाती है ? नदियों, झीलों व समुद्र तटों को साफ और कचरामुक्त रखने की जिम्मेदारी तो सरकारों और नागरिकों दोनों की है । पर इसके प्रति सरकारे भी उदासीन रही है और समाज भी । हालात जब गंभीर होने लगते है तो हमारी आंखे खुलती है ।
आज भारत की नदियां कितनी प्रदूषित है, यह किसी से छिपा नहीं है । ऐसे ही चिंताजनक हालात समुद्र तटों के है । अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के तटीय इलाकोंमें जितने शहर है, लगता है उनका कूड़ाघर समुद्र ही बन गए है । पिछले दो-तीन दशकों में तो हालात इतने बिगड़ गए है कि समुद्र से निकलने वाले और तट पर जमा होने वाले कचरे में ज्यादातर कचरा प्लास्टिक का पाया गया । प्लास्टिक का कचरा समुद्रों के गंदा और प्रदूषित होने की सबसे बड़ी वजह इनमें गिरने वाला औद्योगिक कचरा है ।
उत्तर प्रदेश में चलने वाली चमड़ा शोधन इकाइयां गंगा के प्रदूषण की बड़ी वजह रही है । इसी तरह नदियों के किनारे बसे शहरों का सारा अपशिष्ट नदियों में गिरता है । मूर्ति विसर्जन भी एक बड़ी समस्या है । अदालतें इस पर रोक लगा चुकी है, पर नतीजा शून्य ही रहा । गंगा की सफाई के लिए भारी-भरकम बजट रखा गया, लेकिन इस काम की रफ्तार इतनी सुस्त है कि बजट का आधा पैसा भी खर्च नही हो पाया ।
नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगा स्वच्छता मिशन कार्यक्रम के तहत अप्रैल- २०१५ से मार्च-२०१७ तक ६७ अरब रुपए की राशि आवंटित की गई थी, लेकिन गंगा सफाई के लिए इस दौरान साढ़े सोलह अरब रुपए भी खर्च नहीं हो पाए । गंगा किनारे बसे दस में से आठ शहरों में नदी जल नहाने लायक नहीं है । पैसा होने पर भी नदियों की सफाई का अभियान आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहा है ? जाहिर है, खामियां हमारे तंत्र में है, जिन्हे दूर किए जाने की आवश्यकता है ।

पर्यावरण को पर्यटन से हानि
वैज्ञानिको के शोध का यह निष्कर्ष सामने आया है कि दुनिया भर में होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा पर्यटन जिम्मेदार है । ग्रीनहाउस इमिशन में करीब १२ प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर पर्यटन की वजह से बढ़ा है । इतनी ही नहीं, लोगों के बीच छुटि्टयों में घूमने जाने का उत्साह जलवायु परिवर्तन को और धीमा कर रहा है ।
दरअसल, दुनिया भर में छुटि्टयां आते ही लोगों को घूमने की प्लानिंग और पैकिंग शुरु हो जाती है । क्या पहनना है, क्या खाना है से लेकर किन जगहों पर घूमना है तक कि एडवांस प्लानिंग लोग कर लेते है, लेकिन इन छुटि्टयों की वजह से पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है । शोध में १६० देशों में किए गए अध्ययन के अनुसार, ज्यादातर घरेलू यात्रियों द्वारा किए जा रहे पर्यटन से अमेरिका, चीन, जर्मनी और भारत में कार्बन डाइऑक्साइड का सबेस ज्यादा स्तर पाया गया । वही मालदीव, मॉरीशस, साइप्रस और सेशेल्स में अन्तराष्ट्रीय पर्यटन की वजह से कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में करीब ३० से ८० प्रतिशत के बीच बढ़त दिखी । इस रिपोर्ट के अनुसार २०१३ में भी फ्लाइट, होटल, खाने-पीने के सामान और बाकी चीज़ो के प्रोडक्शन से करीब ४.५ बिलियन के बराबर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ । इस अध्ययन प्रतिवेदन के अनुसार ट्रिलियन डॉलर की टूरिज्म इंडस्ट्री की वजह २०२५ कार्बन डाइऑक्साइड का लेवल करीब ६.५ बिलियन टन तक पहुंच जाएगा । ऑस्ट्रेलिया, ताइवान और इंडोनेशिया द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट में बताया गया कि कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ते स्तर के लिए फ्लाइट्स जिम्मेदार है ।
इस संकट से निपटने के लिए बोन में करीब २०० देशों की मीटिंग होने जा रही है, जहां २०१५ के पेरिस अग्रीमेंट के लिए एक रुल बुक बनाई जाएगी, जिसमें ग्रीनहाउस गेैसों के उत्सर्जन स्तर को कम करने से लेकर अन्य आपदाआें को कंट्रोल करने पर भी कुछ कार्ययोजनाएं शामिल की जाएगी । पर्यावरण पर पर्यटन के दुष्प्रभाव को हम योंभी समझ सकते है कि हम उन स्थानों की स्थिति पर अगर नजर डालें जहां लोग पर्यटन करने, भ्रमण करने या पिकनिक मनाने जाते है । वे पर्वत हो, नदियां हो, तालाब हो पार्क हो । हम जाते तो आनन्द पाने के लिए है लेकिन वहां प्लास्टिक या टिन के रुप मेंकितना अपशिष्ट के रुप में या तो फेंक आते है या छोड़ आते है । परिणाम यह होता है कि जहां जितने ज्यादा लोग जाते है, वह स्थान उतना ही ज्यादा गंदा हो जाता है ।

दुनिया में ३० करोड़ लोग डिप्रेशन के शिकार
दुनियाभर के लोगोंकी सेहत पर डिप्रेशन यानी अवसाद का काफी असर पड़ रहा है । दुनिया के ३० करोड़ लोग डिप्रेशन से पीड़ित है ।
सेहत के साथ ही अर्थव्यवस्था पर भी डिप्रेशन का असर पड़ रहा है । दिमागी सेहत संतुलित नहीं होने के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्था को करीब ६७ लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है । ये नतीजे विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन से निकले है । अमेरिका में तो सबसे खराब स्थिति है । यहां हर ५ में से एक व्यस्क व्यक्ति ने स्वीकार किया कि वो जिंदगी में कभी न कभी डिप्रेशन का सामना कर चुका है । वही पूरे यूरोप में भी ८ करोड़ ३० लाख लोग मानसिक असंतुलन से प्रभावित है ।
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक २००५ से २०१५ के बीच दुनिया मेंडिप्रेशन के मरीज करीब १८ % सलाना की दर से बढ़े है । इसके अलावा चिंता और बैचेनी से भी करीब २६ करोड़ लोग पीड़ित है । ये चिंता, बैचेनी ही आगे डिप्रेशन का रुप ले लेती है ।
वर्ष २०१७ के मेंटल हेल्थ अमेरिका के अध्ययन में १९ अलग-अलग इंडस्ट्रीज में काम करने वाले १७ हजार लोगों से बात की गई थी । इसमें पता चला कि नौकरी देने वाले की ओर से उन्हें कोई भी सहयोग नहीं मिलता है । इसके साथ ही उन्हें कार्यक्षेत्र पर भारी तनाव और एककीपन का भी सामना करना पड़ रहा है । दुनिया के ३३% लोग नौकरी से असंतुष्ट है । ८१% लोग काम और निजी जिंदगी के बीच संतुलन ना बन पाने की वजह से तनाव मेंहै । ब्रिटेन में तो २०१७ में ३ लाख लोगों की नौकरी दिमागी समस्याआें की वजह से गई ।

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पिछले साल ४ अरब डॉलर घटा
भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में गिरावट आई है । वर्ष २०१६ के ४४ अरब डॉलर की तुलना में २०१७ में एफडीआई घटकर ४० अरब डॉलर रह गया । सरकार के लिए यह चिंता का विषय हो सकता है । संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन की विश्व निवेश रिपोर्ट २०१८ में यह जानकारी दी गई ।  ***

कृषि जगत
स्वामीनाथन की सिफारिशें और किसानो का दर्द
विवेकानंद माथने
कृषि फसलोंको उत्पादन खर्च पर आधारित लाभकारी कीमत प्राप्त् करने के लिए देशभर के किसान दशकों से संघर्ष करते आये है । वह संघर्ष आज भी जारी है । हरित क्रांति के जनक के नाते डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन किसान की दुर्दशा के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार माने जा सकते है ।
स्वामीनाथ आयोग की रिपोर्ट किसान हित का नाटक कर कारपोरेट खेती की नींव को मजबूत करने का काम कर रही है । आयोग की सिफारिशों में कृषि उत्पदान बढ़ाने के लिये जी. एम. बीज, सिंचाई की व्यवस्था, फसल बीमा, कृषि ऋण का विस्तार, समूह खेती, यांत्रिक खेती, गोडाउन आदि महत्वपूर्ण हैं । यह सारी व्यवस्थाएं किसानों को खेती से हटाकर कार्पोरेट खेती को बढ़ावा देने के लिये की जा रही है ।
लेकिन अचानक  कुछ संगठनों द्वारा कुछ सालोंसे स्वामीनाथन आयोग (राष्ट्रीय किसाना आयोग) लागू करो की मांग शुरु हुई । सदाबहार क्रांति कहते है, प्रथम हरित क्रांति की तरह उत्पादन केंद्रित है । प्रथम हरित क्रांति का अनुभव यह बताता है कि उत्पादन वृद्धि के लिये केवल किसान ही नहींपूरे समाज को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी ।
स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार लागत पर डेढ़ गुना एमएसपी देने की सिफारिश भी एक धोखा है । इसलिये केवल जुमलों को घेरने के लिए यह मांग करना नासमझी है । खासकर तब जब पूरे देश मेंकिसानों में आक्रोश है और वह अपने अधिकार के लिए रास्ते पर उतर रहा है ।
देश मेंकृषि उत्पादन बढ़ाने की चुनौती हमेशा रही है । देश में बढ़ती आबादी के खाद्यान्न पूर्ति के लिये डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व मेंहरित क्रांति की शुरुआत की गई । खेती की देशी विधियोंके माध्यम से उत्पादन बढ़ाने का रास्ता अपनाने के बजाय उन्होंने रासायनिक खेती, संकरीत बीज और यांत्रिक खेती को बढ़ावा दिया । क्रॉप पैटर्न बदलकर एक फसली पिक पद्धति को बढ़ावा देने से जैव विविधता, फसल विविधता पर बुरा असर पड़ा । देश के बड़े हिस्से में बहुफसली खेती एक फसली खेती में परिवर्तित हो गयी । किसान को अपने खेती से पोषक आहार तत्व मिलना बंद हुआ तथा पूरे देश में रासायनिक खेती के कारण कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति घटी व भूजल स्तर मेंतेजी से गिरावट आने लगी तथा जमीन, पानी और खाद्यान्न जहरीले हुए । थाली में जहर पहुंचा ।
हरित क्रांति से कृषि उत्पादन तो बढ़ा लेकिन किसानों पर दो तरफा मार पड़ने से उनही हालत तेजी से बिगड़ती गयी । बीज, खाद, कीटनाशक, यंत्र का बढ़ता इस्तेमाल, सिंचाई, बिजली आदि के लिये किसान की बाजार पर निर्भरता बढ़ने से लागत खर्च बढ़ा । फसलों का उत्पादन बढ़ने से फसलों की कीमत कम हुई । परिणामस्वरुप लागत और आय का अंतर इस तरह कम हुआ कि खेती घाटे का सौदा बनी और किसान कर्ज के जाल मेंफंसला चला गया । इस प्रकार प्रथम हरित क्रांति किसानों की लूट करने, थाली में जहर पहुंचाने और जैवविविधता को प्रभावित करने के लिये कारण बनी । किसानों की बर्बादी में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । हरित क्रांति के जनक के नाते डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन किसान की दुर्दशा के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार माने जा सकते है ।
प्रथम हरित क्रांति का मूल उद्देश कृषि रसायनोंऔर तथाकथित उन्नत संकर बीजो के व्यापार को प्रोत्साहित करना था । जिसके द्वारा भारत में खाद, बीज, कीटनाशक और कृषि औजारों के बाजार का विस्तार किया गया । यह कहा जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समािप्त् के बाद बारुद बनाने वाली कंपनियोंने बारुद के घटक नाइट्रोजन, पोटाश और फास्फेट का वैकल्पिक इस्तेमाल करने के लिये रासायनिक खाद का उत्पादन शुरु किया । हरित क्रांति ने उत्पादन वृद्धि के नाम पर प्राकृतिक खेती करने वाले किसान को रासायनिक खेती के झांसे में लाकर रासायनिक खेती को पूरे देश में फैलाने का काम किया । कंपनियों ने सरकारी मदद से रासायनिक खाद, बीज, कीटनाशक, कृषि उपकरण किसानों को बेचकर उनकी लूट की ।
अब दूसरी हरित क्रांति के लिये यूपीए के तत्कालीन कृषि मंत्री ने कहा है कि उन्होने स्वामीनाथन आयोग की १७ मेंसे १६ सिफारिशें लागू की थी । एनडीए सरकार कह रही है कि उन्होने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट नब्बे प्रतिशत लागू की है । अर्थमंत्री ने बजट पेश करते समय कहा कि सरकार पहले से स्वामीनाथन आयोग के अनुसार लागत के डेढ़ गुना कीमत दे रही है । अब सरकार ने सी २ पर पचास प्रतिशत एमएसपी देने की घोषणा कर दी है । स्वामीनाथन स्वयं कहते है कि एनडीए सरकार उनके रिपोर्ट पर अच्छा काम कर रही है । फिर भी किसान की हालत बिगड़ती जा रही है । तब स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर सवाल उठता है ।
स्वामीनाथन आयोग को खेती की आर्थिक व्यवहारता में सुधार कर किसान की न्यूनतम शुद्ध आय निर्धारण का काम सौंपा गया था । तब वह किसानों की बिगड़ती हालात को सुधारने, उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिये वैकल्पिक योजना सरकार को पेश कर सकते थे । लेकिन यह जानते हुए भी कि एमएसपी फसलों का उत्पादन मूल्य नहीं है उन्होने एमएसपी में उत्पादन की भारित औसत लागत से ५० प्रतिशत अधिक मूल्य देने की सिफारिश की ।
स्वामीनाथन आयोग के सिफारिशों के अनुसार अनुमानित किया जा रहा है कि सी २ पर पचास प्रतिशत के आधार पर एमएसपी मेंसामान्यत: अधिकतम दो-तीन सौ रुपये तक की बढ़ोतरी हो सकती है । यह बढ़ोतरी तभी संभव है जब सरकार एमएसपी पर सभी फसल की खरीदने पर निर्बध लगाये । आज ना ही सरकार के पास ऐसी व्यवस्था है ना ही इसके लिये उन्होनेंबजट में कोई प्रावधान किया है । 
स्वामीनाथन आयोग की आर्थिक सिफारिशें पूर्णत: लागू होने पर भी किसान के मासिक आयु औसतन ३००० रुपये है । वह बढ़कर ४००० रुपये हो सकती है । अन्य मिलाकर कुल आय ६४०० रुपये से ७४०० रुपये हो सकती है जबकि सरकार कुल आय को दोगुना करने का दावा कर रही है । वेतन आयोग के अनुसार परिवार की बुनियादी आवश्यकताआेंके लिये न्यूनतम मासिक आय २१ हजार रुपये होनी चाहिये । यह स्पष्ट है कि स्वामीनाथन आयोग के आधार पर एमएसपी मेंथोड़ी बढ़ोत्तरी से किसानों को न्याय मिलना संभव नहीं है । किसानो के साथ फिर से धोखा किया जा रहा है ।
स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों में कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये जी.एम. बीज, सिंचाई की व्यवस्था, फसल बीमा, कृषि ऋण का विस्तार, समूह खेती, यांत्रिक खेती, गोडाउन आदि की सिफारिशें की गई है । यह सारी व्यवस्थाएं किसानों को खेती से हटाकर कार्पोरेट खेती को बढ़ावा देने के लिये की जा रही है । सरकार इसी रास्ते चलकर किसानो को खेती से हटाना चाहती है । वह खेती पर केवल २० प्रतिशत किसान रखना चाहती है जो पूंजी और तकनीक का इस्तेमाल कर सके । कृषि बीमा, बैंकिंग में एफडीआई, जी.एम.बीज, ठेके की खेती, ई-नाम, आधुनिक खेती पद्धति और इजराईल खेती, निर्यातोन्मुखी खेती आदि को बढ़ावा देने की तैयारी इसलिए की जा रही है ।                  ***
खास खबर
निपाह वायरस और चमगादड़
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
केरल मेंनिपाह से २४ मई तक १२ लोगों की मौत हो चुकी है । इनके अलावा १४ और लोगों में निपाह वायरस की पुष्टि हुई है । जबकि २० मामलों में इसकी जांच की जा रही है । निपाह के असर को देखते हुए केरल के आस पास के राज्योंमें केंद्र और राज्य सरकारों ने अलर्ट जारी किया है । केरल सरकार ने लोगोंसे खास तौर पर चार जिलों - कन्नूर, कोझिकोड, मलप्पुरम और वायनाड में जाने से बचने को कहा है । वहीं केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की उच्च् स्तरीय टीम ने कहा है । वहीं केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की उच्च् स्तरीय टीम ने कहा कि यह बीमारी महामारी नहीं है । सिर्फ स्थानीय स्तर पर लोग शिकार है ।
हालांकि अब तक इस बात को लेकर रहस्य बना हुआ है कि आखिर चमगादड़ स्वयं इससे प्रभावित क्यों नही होते । दरअसल फ्लाइंग फॉक्स या फ्रूट बैट्स निपाह ही नहीं, इसके जैसे ६० खतरनाक वायरस लेकर उड़ते है । १९३२ में वैज्ञानिक इस पर रिसर्च कर रहे है कि कैसे चमगादड़ जानवरों से इंसानों में होने वाली बीमारियों का माध्यम बने हुए है । दरअसल सबसे पहले इसका पता १९३० में चला था । तब रैबीज इंसानो तक वैम्पायर बैट्स के जरिए पहुंचा था । १९९६ में ऑस्ट्रेलिया में हेंड्रा वायरस फ्रूट बैट्स से इंसानों में आया । १९९८-९९ में मलेशिया में निपाह वायरस और २००३ में चीन और कुछ अन्य देशों में सार्स वायरस इंसानों में पहंुचा ।
भारत में निपाह वायरस का पहला मामला वर्ष २००१ में पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी में सामने आया था । तब ६६ लोग इसकी चपेट में आए थे । इनमें से ४५ की मौत हो गई थी । २००७ में यह फिर लौटा और इस बार सात लोगों की जान ले ली थी । अब इसने केरल में दस्तक दी है, जहां निपाह के लक्षण मिलने पर करीब २५ लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है । इनमें से दो की हालत गंभीर है । इस बीमारी के असर को देखते हुए केरल सरकार ने मलेशिया से एंटी वायरल दवा रिबाविरीन मंगवाई है । अमेरिकी कंपनियां भी निपाह की दवा पर काम कर रही है ।
निपाह एक जूनोटिक किस्म का वायरस है । यानी जानवरोंसे मनुष्यों में फैलने वाला । इसका नाम निपाह इसलिए पड़ा क्योंकि इससे प्रभावित होने के मामले पहली बार मलेशिया के ` कांपुंग सुंगई निपाह ' नामक क्षेत्र में सामने आए थे । मेडिकल भाषा में इस वायरस को एनआईवी कहा जा रहा है । यह वायरस दो तरह का है । एक एमआइवीएम - यह मलेशिया में पाया गया था । दूसरा एनआइवीबी - यह बांगलादेश में पाया गया था । एनआइवीबी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि यह तेजी से फैलता है औइ इसमें मृत्यु दर भी ज्यादा है ।
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन और अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के अनुसार निपाह में सांस लेने में परेशानी होती है और न्यूरोलॉजिकल कॉम्लिकेशन होती है । इसलिए गहन देखभाल की जरुरत होती है । वेंटिलेटर की जरुरत पड़ सकती है । अनुसंधानकर्ता इसका वैक्सीन और ड्रग डेवलप करने पर काम कर रहे है । एक ड्रग फेविप्रेवियर पर प्रयोग चल रहा है । जानवरोंपर हुए प्रयोगों में इसे निपाह की संभावित दवा माना गया है । इसे अभी इंसानो पर क्लिनिकल ट्रायल के लिए सुरक्षित नहीं पाया गया है । एक और ड्रग रिबाविरिन पर काम चल रहा है । जानवरों पर किए गए इसके प्रयोग में बहुत कम या न के बराबर असर दिखाई दिया है ।
इंसानों के शरीर में प्रवेश कर जाने के बाद निपाह वायरस कुछ दिनों तक कोई लक्ष्ण नहीं दिखाता । इसे इन्क्यूबेशन पीरियड कहते है । यह पीरियड ४ से १४ दिन तक का हो सकता है ।
हालांकि एक मामले में ४५ दिनों का इन्क्यूबेशन पीरियड होने की बात भी सामने आ चुकी है ।
वायरस के असर दिखाने के बाद व्यक्ति हल्का बुखार, सिर दर्द, मांसपेशियों में दर्द, कफ तथा थकान जैसे शुरुआती लक्षण महसूस करता है । ऐसा कोई स्पष्ट लक्षण नहीं दिखता कि निपाह वायरस की पुष्टि कर दे ।
इसके बाद इंफेक्शन की वजह से सांस लेने में दिक्कत । एन्सेफलाइटिस यानी दिमाग के टिश्यूज़में जलन व सूजन । सीज्यूर यानी दिमागी सेल्स की गतिविधियों का अचानक असामान्य हो जाना । सभी अवस्था जानलेवा साबित हो सकती है । एन्सेफलाइटिस तथा सीज्यूर नियंत्रण से बाहर हुआ तो मरीज २४ से ४८ घंटों के भीतर कोमा में जा सकता है । ***
जनजीवन
झाबुआ पावर प्लांट से नई मुसीबत
शारदा यादव
मध्यप्रदेश के सीवनी जिले के घंसौर स्थित झाबुआ पावर प्लांट वहां आस-पास रहने वाले ग्रामीणों के लिए मुसीबत का सबब बनता जा रहा है । जिसको लेकर ग्रामीण और किसान काफी परेशान है ।
मध्यप्रदेश के अन्तर्गत आने वाले ग्रामों से सम्पर्क कर एक संक्षिप्त् अध्ययन पिछले दिनों किया गया । झाबुआ पावर प्लांट की स्थापना के वक्त क्षेत्रीय लोगों की सहमति इस विचार के साथ दी गई थी कि जिस स्थान को झाबुआ पावर प्लांट बनाने हेतु चयन किया गया था, वह जगह लगभग १००० से १५०० हेक्टेयर के आस पास अनुपजाउ बंजर पथरीली भूमि वाली थी । जिसमें किसी प्रकार की कोई फसल की पैदावार नहीं होती थी । स्थानीय लोगों को महसूस हुआ कि यह जमीन हमारे कोई काम की नहीं है यदि यहां कोई कम्पनी द्वारा उघोग धंधा या पावर प्लांट लगाया जाएगा तो हमको बंजर पथरीली भूमि का अच्छा मुआवजा मिल जाएगा । क्षेत्र के लोगो को रोजगार मिलेगा जिससे पलयान रुकेगा । पावर प्लांट की स्थापना से यहां पर व्यापार, छोट उद्योग धंधों की शुरुआत होगी, जिससे क्षेत्र का विकास होगा । इस बुनियादी सोच विचार के साथ पावर प्लांट लगाने हेतु क्षेत्रीय लोगों ने अपनी सहमति प्रदान की थी ।
लेकिन पावर प्लांट लगने के बाद की स्थिति और लोगों के सोच विचार में एक विरोधाभास देखने देखने को मिल रहा है । स्थानीय लोगों ने जिस क्षेत्र को अनुपजाउ समझकर दिया था, उससे लगी हुई कृषि योग्य भूमि, जिसका कम्पनी द्वारा अब तक कोई मुआवजा नही दिया गया है, उसकी फसल कोपले, धूले से पट रहा एवं पूरी फसल नष्ट हो रही है । ग्रामीणोंद्वारा आवेदन ज्ञापन देने के बावजूद न सरकार, न कम्पनी सुनने को तैयार है । बेबस गरीब किसान मजदूरी करके अपने परिवार और बच्चेंका पालन पोषण करने को लाचार है ।
इस परियोजना के श ुरु होने से लोगोंकी सोच यह भी थी कि क्षेत्र के लोगेां को रोजगार मिलेगा, जिससे पलायन रुकेगा । लेकिन जब तक पावर प्लांट का निर्माण कार्य चला, जब तक ईट-गारा, पत्थर आदि काम पर मजदूरों को लगाया गया । पावर प्लांट निर्माण कार्य खत्म होने के बाद सबको कहा गया कि आपके लायक काम नहीं है । यहां पढ़े लिखे तकनीशियन, कम्प्यूटर जानकार लोगों का काम है । शहरी परिवेश में पढ़ लिखे लोगो द्वारा यहां आकर नौकरी की जा रही है और स्थानीय क्षेत्र के लोग मजदूरी करने बाहर जाने को मजबूर है ।
सवाल यह है कि जब तक कोई सरकारी परियोजनाएं स्थापित नहीं होती तब तक सबको रोजगार, नौकरी देने की बातें मौखिक से लेकर लिखित रुप तक की जाती रहती है । परंतु जैसे ही परियोजना बनकर तैयार होती है, फिर केवल तकनीकी लोगों को ही काम पर रखा जाता है । जबकि सरकार और कम्पनी को चाहिए कि परियोजना क्षेत्र के शिक्षित बेरोजगार युवा-युवतियों को प्रशिक्षण देकर सक्षम बनाकर रोजगार देना चाहिए ।
तीसरी बात और भी महत्वपूर्ण है कि लोगों की सोच को क्षेत्र में व्यापार धंधा करने, मुआवजा मिलने एवं प्लांट का काम चालू होते ही फर्जी बैंक, फर्जी कम्पनियां आई और क्षेत्र के लोगों के करोड़ों रुपये लेकर भाग गईर् ।
यह भी सोचा गया था कि छोटे से क्षेत्र का विकास होगा, पर देखने में आ रहा है कि विकास तो दूर की बात है, हमारे पीढ़ियों की रीति-रिवाज सांस्कृतिक खान-पान, रहन-सहन में जबर्दस्त बदलाव आने लगा है । प्लांट में बाहर के लोग काम करने आते है तो बाहरी लोगों का परिवार धीर-धीरे गांवों में आने लगा है । आस-पास के कुएं एवं हैंड पंप के पानी के स्त्रोत खत्म होने के साथ-साथ पास के गांवों में पीने के पानी एवं सिंचाई हेतु एक नया संकट खड़ा हो गया । अनावश्यक खर्च, मांस मदिरा, शराब का सेवन ज्यादातर नई पीढ़ी में देखने को मिल रहा है  ।
झाबुआ पावर प्लांट से इस क्षेत्र में कई गम्भीर खतरे आने वाले समय में देखने को मिलेंगे । इनमें आस-पास की कृषि योग्य भूमि धीरे-धीरे बंजर हो जाएगी । कृषि पर आधारित परिवार के सामने जीवन यापन का संकट हो जायेगा । वहीं लगातार कोयले का डस्ट एवं पावर प्लांट के प्रदूषण से ५-६ वर्षोंा के बाद क्षेत्र में कई गंभीर श्वास, दमा से संबंधित बीमारियां होगी । प्लांट से जो ओवर फ्लो नाला निकलता है, इस नाले के साथ डस्ट का सिल्ट एवं प्लांट से बाहर मोटर गाड़ी ट्रक की धुलाई की जाती है, यह पान प्रदूषित और मलबायुक्त होता है । यह नाला ५-६ गांवों को जोड़ते हुए नीचे लगभग १०-१५ कि.मी. दूरी पर एक बड़ी नदी टेमा पर मिलेगा । इस नाला के पानी में लोग नहाते है, पशु पानी पीते है । धीरे-धीरे इस पानी से भी स्वास्थ में कई प्रकार के प्रभाव पड़ सकते है । अपने प्लांट से निकला हुआ डस्ट सिल्ट रहेगी जो भविष्य में नाला में जमते जाएगा और नदी के स्त्रौत भी समाप्त् होने के खतरे है जिससे नीचे के कई गावं जल संकट में पड़ सकते है ।
इन सभी पर्यावरणीय प्रदूषण एवं स्वास्थ्य संबंधी खतरों को देखते हुए क्षेत्र में जन संपर्क अभियान और जन जागृति हेतु सतत कुछ न कुछ कार्यक्रम के माध्यम से लोगोंको जागृत कर सशक्त करने की जरुरत है ।***
ज्ञान विज्ञान
अंतरिक्ष की तऱ्जपर हिमालयी जुड़वां अध्ययन
पिछले वर्ष अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने एक जुड़वां अध्ययन किया था । इसके अंतर्गत दो हूबहू एक-से जुड़वां भाइयों में से एक (स्कॉट केली) ने पूरा एक साल अंतरिक्ष मेें बिताया था जबकि दूसरा भाई (मार्क केली) पृथ्वी पर ही रहा था । इस प्रयोग के शुरु में दोनों की शरीर क्रिया संबंधी कई जानकारियों के अलावा उनके डीएनए के नमूने लिए गए थे और फिर प्रयोग के अंत में नमूने लेकर उनकी तुलना की गई थी ।
अब दो-दो भाइयों की दो जोड़ियों के साथ ऐसा ही अध्ययन पर्वतारोहण के संदर्भ में भी किया जाता है । जहां दो भाई एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने की कोशिश कर रहे है, वहीं उन दोनों के जुड़वां भाई समुद्र तल पर बैठे इन्तज़ार कर रहे है । चारों भाइयों के रक्त, लार, पेशाब और मल के नमूने इकट्ठे किए जा रहे है । जहां समुद्र तल पर बैठे भाइयों के नमूने डॉक्टर वगैरह ले रहे है वही पर्वतारोही भाइयों को स्वयं अपने नमूने एकत्रित करना पड़ेंगे ।
दोनो पर्वातारोही भाइयों को पहाड़ चड़ने का काफी अनुभव है । इनमें से एक है डार्टमाउथ कॉलेज के २०-वर्षीय छात्र मैट मोनिज़ और दूसरे है पेशेवर पर्वतारोही ४९ वर्षीय विली बेनेजेस । बेनेजेस ११ मर्तबा एवरेस्ट के शिखर पर पहुंच चुके है जबकि मोनिज़ने १९ वर्ष से कम उम्र में ही ८००० मीटर की कई चोटियों पर चढ़ाई की है । दोनों इस वक्त बीच रास्ते में समुद्र तल से ७.३ किलोमीटर की उंचाई पर है ।
इस हिमालयी अध्ययन की प्रेरणा नासा के जुड़वां अध्ययन से ही मिली है । हालांकि हिमालयी अध्ययन नासा नहीं करवा रहा है । नासा के अध्ययन में पता चला था कि अंतरिक्ष में १ वर्ष रहने वाले भाई स्कॉट के हज़ारों जीन्स की अभिव्यक्ति में परिवर्तन आया था । हालांकि कुछ मीडिया रिपोर्ट में इस बात को यह कहकर प्रचारित किया गया था कि इन जीन्स में परिवर्तन हुए है किन्तु सच्चई यह थी कि जीन्स नहीं बदले थे, उनकी अभिव्यक्ति बदल गई थी । इनमें प्रतिरक्षा कार्य, डीएनए की मरम्मत, हडि्डयों के निर्माण से संबंधित जीन्स थे । और पूरे ६ महीने बाद तक ये अपनी सामान्य अवस्था में नहीं लोटे थे ।
अलबत्ता, वील कॉर्नेल विश्व-विद्यालय के जेनेटिक वैज्ञानिक क्रिस्टोफर मैसन का मत था कि जरुरी नही कि जीन्स की अभिव्यक्ति में ऐसे परिवर्तन अंतरिक्ष यात्रा की वजह से हों । ये तो मात्र तनावपूर्ण परिस्थिति में जीने की वजह से भी हो सकते है । इसी बात को जांचने के लिए उन्होने पर्वतारोहण का यह अध्ययन शुरु किया है । हालांकि एवरेस्ट अंतरिक्ष नही है, किंतु ऑक्सीजन का न्यून स्तर, बर्फीलतापमान और अलग-थलग रहने का एहसास दोनों में एक सा है ।
यह सही है कि मैट मोनिज़और केली मोनिज़हूबहू एक समान जुड़वां नहीं है जबकि विली बेनेजेस और डैमियन बेनेजेस हूबहू एक समान जूड़वा है, किंतु मैसन का विचार है कि प्रयोग के शुरु और अंत मेंइनकी तुलना से काफी कुछ पता चलेगा ।
एवरेस्ट प्रथम आधार शिविर (५३६४ मीटर) पर दोनो पर्वतारोही भाइयों ने विभिन्न नमूने एकत्रित कर लिए है । कम से कम आधार शिविर-३ तक तो वे ऑक्सीजन का उपयोग नहीं करेंगे मगर एवरेस्ट पर चढ़ाई के अंतिम चरण में वे ऑक्सीजन लेंगे । इसका मतलब है कि एवरेस्ट शिखर (८८५० मीटर) पर लिए गए उनके रक्त के नमूनोंकी सीधी-सीधी तुलना उससे पहले लिए गए नमूनों से नहीं की जा सकेगी ।
बहरहाल, वैज्ञानिक इस अध्ययन के नतीजों की प्रतीक्षा कर रहे है क्योंकि इससे हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि प्रतिकूल परिस्थितियों में मानव शरीर और उसका डीएनए कैसी प्रतिक्रिया देतो है ।

एक तिहाई आरक्षित क्षेत्र बरबाद हो रहे हैं
दुनिया भर में लगभग २ लाख आरक्षित क्षेत्र है । इन क्षेत्रों को प्रकृतिकी खातिर, वन्य जीवों की खातिर आरक्षित किया गया है । इन क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल लगभग १८० लाख वर्ग कि.मी है । किंतु एक ताजा सर्वेक्षण से पता चला है कि इसमें से ३२.८ प्रतिशत भूमि कठोर मानवजनित दबाव में है । सर्वेक्षण का नेतृत्व ऑस्ट्रेलिया के क्वीसलैंड विश्वविद्यालय के जेम्स वॉटसन ने किया है । उनका कहना है कि इसी वजह से आरक्षित क्षेत्र में वृद्धि के बावजूद जैव विविधता में लगातार कमी आ रही है ।
१९९२ में रियो डी जेनेरो में हुई जैव विविधता संधि के अंतर्गत जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उनके मुताबिक सदस्य राष्ट्रोंको २०२० तक अपनी भूमि का १७ प्रतिशत हिस्सा आरक्षित क्षेत्रों में तबदील करना है । अलबत्ता पता यह चला है कि जिन १११ राष्ट्रों ने यह लक्ष्य पूरा करने का दावा किया है उनमें से ७४ ने वास्तव में ऐसा नही किया है । इन ७४ देशों में हालत यह है कि आरक्षित क्षेत्रों में मानव अतिक्रमण के चलते प्रकृति का हयास जारी है ।
वॉटसन और उनके साथियोंने प्रत्येक आरक्षित क्षेत्र में मानव पदचिंहों की छानबीन की । इसके लिए उन्होनें प्रत्येक आरक्षित क्षेत्र को १-१ वर्ग किलोमीटर के चौखानों में बांटा और फिर यह नापा कि इंसान वहां ८ तरीकों से प्रकृति को प्रभावित करते है । जैसे सड़क निर्माण सघन खेती और पथ प्रकाश वगैरह । इसके आधार पर उन्होनें प्रत्येक चौखाने में मानव पदचिंह की गणना की । यह देखा गया कि आरक्षित क्षेत्रों में मानव पदचिंह वैश्विक औसत से आधा थे किंतु चिंताजनक बात यह है कि १९९२ के बाद से स्थिति बदतर होती गई है । वॉटसन की टीम ने पाया कि आरक्षित क्षेत्रोंकी सबसे बुरी स्थिति पश्चिमी युराप दक्षिण एशिया और अफ्रीका में है ।
अच्छी बात यह पता चली है कि ४२ प्रतिशत भूमि मानव दखलंदाजी से लगभग मुक्त है । टीम ने कुछ आदर्श स्थल भी चिंहित किए है । इन्में से एक है कंबोडिया का किओ सीमा वन्यजीव अभ्यारण्य और दूसरा है बोलिविया का मादिदी राष्ट्रीय उद्यान । टीम का कहना है कि अभ्यारण अथवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना कर देना एक बात है किं तु उसके लिए संसाधन जुटाना और उसका प्रबंधन करना ज्यादा महत्वपूर्ण है ।

शोध पत्रिकाएं अनुमोदित सूची से हटाई गइंर्
विश्वविद्यालयों और उच्च् शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों व अन्य अकादमिक कर्मियों की भर्ती व पदोन्नति के आकलन हेतु उनके द्वारा प्रकाशित शोध पत्र एक कसौटी होती है । यूजीसी ने ऐसी लगभग ३०,००० शोध पत्रिकाआें की सूची प्रकाशित की थी जिनमें प्रकाशित शोध पत्रों को इस आकलन हेतु स्वीकार किया जाता था ।
मगर अब यूजीसी ने इनमें से ४,३०५ शोध पत्रिकाआें को सूची से बाहर कर दिया है । अब इनमें प्रकाशित शोध पत्रों को आकलन में शामिल नही किया जाएगा । यह निर्णय यूजीसी की जर्नल अधिसूचना सम्बंधी स्थायी समिति ने हाल ही में लिया है । दरअसल स्थायी समिति ने कई शोध पत्रिकाआें की विश्वसनीयता को लेकर आई शिकायतों के जवाब में शोध पत्रिकाआें का मूल्यांकन किया था । इससे पहले मार्च में भारत और कनाडा के शोधकर्ताआें ने मिलकर करंट साइन्स में एक शोध पत्र प्रकाशित किया था जिसका निष्कर्ष था कि विश्वविद्यालयों द्वारा अनुशंसित कई शोध पत्रिकाएं निम्न गुणवत्ता की है ।
अकादमिक संस्थान इस सूची के आधार पर शोधकताआें और शिक्षकों का मूल्यांकन किया करते थे । यूजीसी ने इस पर्चे के प्रकाशन के बाद अप्रेल में जो समीक्षा प्रकिया शुरु की उसमें देखा गया कि सूची में सम्मिलित कई शोध पत्रिकाएं भुगतान के बदले शोध पत्र प्रकाशित करती है । इनमें से कई पत्रिकाआें में संपादकों के बारे में पर्याप्त् जानकारी नहीं दी जाती है और यह भी नही बताया जाता है कि किसी शोध पत्र के प्रकाशन से पूर्व समीक्षा की प्रक्रिया क्या है ।
करंट साइन्स में प्रकाशित शोध पत्र के लेखकों में सावित्रिबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक भूषण पटवर्धन तथा कनाडा के ओटावा हॉस्पिटल रिसर्च इंस्टीट्यूट के चिकित्सा शोधकर्ता डेविड मोहर शामिल है । समीक्षा के दौरान इन्होनें२०० तथाकथित परभक्षी शोध पत्रिकाआें में प्रकाशित लगभग २००० शोध पत्रों का विश्लेषण किया था । उन्होनें पाया कि ऐसी पत्रिकाआें में सबसे ज्यादा शोध पत्र भारत से ही छपते है (यूएसए दूसरे नंबर पर है) ।
पटवर्धन और मोहर ने विश्व-विद्यालयों द्वारा अनुशंसित १००९ शोध पत्रिकाआें के विश्लेषण में पाया कि इनमें से मात्र ११२ (११.१ प्रतिशत) ही अच्छे प्रकाशन की कसौटी पर खरे उतरते है । लगभग एक तिहाई शोध पत्रिकाआें में मूलभूत सूचनाएं तक नहीं दी गई थी - जैसे पता, वेबसाइट, पत्रिका के संपादक वगैरह । अन्य पत्रिकाआें में विषयवस्तु तथा समीक्षा प्रक्रिया को लेकर खामियां पाई गई ।
इस पर्चे के सह लेखक और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्राणि वैज्ञानिक सुभाष लखोटिया का मत है कि यूजीसी को चाहिए कि वह शोध पत्रिकाआेंकी सूची को पूरी तरह समाप्त् कर दें और मूल्यांकन के सामान्य दिशानिर्देश तैयार करें । कुछ लोगो का मत है कि इस मामले में मुख्य समस्या यह है कि अकादमिक व्यक्तियों के मूल्यांकन में शोध पत्रों की संख्या को अत्यधिक महत्व दिया जाता है । २०१३ में यूजीसी ने यह नियम बनाया था कि शोध छात्रों को शोध प्रबंध प्रस्तुत करने से पहले कम से कम दो शोध पत्र प्रकाशित करना अनिवार्य होगा । ऐसे नियमों के चलते यह दबाव बनता है कि येन केन प्रकारेण शोध पत्र प्रकाशित किए जाएं । इसलिए ऐसी संदेहास्पद शोध पत्रिकाआें की बाढ़ आ जाती है । इसके अलावा भुगतना के बदले प्रकाशन की ऑनलाइन व्यवस्था ने भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है क्योंकि यह कमाई को साधन बन गई है । लिहाज़ा इस मामले में कुछ सख्त कदम उठाना जरुरी लगता है ।                ***
पर्यावरण दिवस २
पर्यावरण के बजाय स्वयं को बचाने की जरुरत
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी
पिछले कुछ दशकों से प्रकृतिके साथ लगातार हो रहे मनुष्य के व्यवहार ने कई अनुत्तरित प्रश्न खड़े कर दिये है । धीरे-धीरे हमारे बीच से पानी गायब होता जा रहा है, क्योंकि नदियां ही विलुिप्त् के कगार में है ।
वनों के आकड़ें ठीक-ठाक नहीं है और यह सब विकास के नाम पर ही हुआ है । पर्यावरण के साथ अब ऐसा व्यवहार ज्यादा दिन नहीं चलने वाला है । शायद प्रकृति अब अपने अपमान को ज्यादा नहीं झेल सकेगी । पर्यावरण की चिन्ता को तो हम नकार ही रहे है, पर अपने जीवन को तो संकट में डालने में भी हम पीछे नहीं । इसलिये पर्यावरण दिवस का नारा पर्यावरण बचाने से बेहतर स्वयं के जीवन को बचाने वाला होना चाहिए ।
पर्यावरण पृथ्वी के आवरण का दूसरा नाम है और इसलिये पृथ्वी के हमारे शास्त्रोंमें सबसे पहले नमन किया गया है । इसका मतलब एक बेहतर पर्यावरण से भी जुड़ा है । वैसे भी हमारे कर्मकाण्ड में शुरुआत में ही पृथ्वी जल, वायु, अग्नि को देवता मानकर स्तुति की जाती है । और क्यों ना हो, क्योंकि इन्हीं से जीवन पैदा हुआ है और पलता है ।
पर्यावरण के विभिन्न तत्वों को हमेशा से भारतीय संस्कृति में पूजनीय माना गया है । भारतीय संस्कृति दर्शन में प्रकृति व उसके उत्पादों का उल्लेख जमकर किया गया है । हमारे यहां प्रभु स्तुति से भी पहले प्रकृति का पूजन किया जाता है । पृथ्वी का सृजन व उसके उपरान्त जीवन की उत्पत्ति को करोड़ों वर्ष हो चुके है और यह महान अखण्ड भू-भाग निरन्तर सेवा में लीन है । इसने कई सदियां, संस्कृति व समाज को बदलते देखा है । शायद इसलिए प्रकृति के नमन को पहला स्थान मिला है ।
पर पिछले हजारों सालों में प्रकृतिके साथ यह नहीं हुआ, जो पिछले १००-२०० वर्षोंा में हुआ है । अजीब-सी बात है कि करोड़ों वर्षोंा में प्रकृतिने लगातार अपने सन्तुलन को बनाने और बचाने के जो भी रास्ते तैयार किए हमने एक-एक करके सब धवस्त कर दिए । उदाहरण के लिये एक बड़े बांध की योजना अपने १० वर्षोंा के निर्माण के दौरान ही लाखों-करोड़ो वर्षोंा में पनपे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को स्वाहा कर देती है । नदियां मार दी जाती है । वनों को झील लील होती है । धरती को गहरे जख्म मिल जाते है ।
लाखों सालों से पली पलाई व्यवस्था तहस-नहस हो जाती है । पहाड़ डूब जाते है । नदी, झील बन जाती है । गांव गायब हो जाते है । यह तो एक उदाहरण है । आज प्रकृति के प्रतिकूल हजारों योजनाएं दुनियाभर में एक जुट इसे समाप्त् करने में तुली है । मनुष्य जिसे इसको संरक्षण देना था, वो ही इसे भक्षण करने में लगा है ।
पर्यावरण के साथ अब ऐसा व्यवहार ज्यादा दिन नहीं चलने वाला है । टुकड़ों - टुकड़ों में प्रकृति ने ये संकेत दे दिये है । तमाम तरह की आपदाआें ने हमें घेरना शुरु कर दिया है । शायद प्रकृति अब अपने अपमान को ज्यादा नहीं झेल सकेगी । क्योंकि यह समग्र प्राकृतिक संसाधनों का केन्द्र है । नदी, वन, मिट्टी एवं वायु इसके हिस्से है । प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के मायने इन सभी को खोना भी है ।
पिछले कुछ दशकोंसे प्रकृति के साथ लगातार हो रहे मनुष्य के व्यवहार ने कई अनुत्तरित प्रश्न खड़े कर दिये है । धीरे-धीरे हमारे बीच से पानी गायब होता जा रहा है, क्योंकि नदियां ही विलुिप्त् के कगार में है । वनोंके आंकड़े ठीक नही है य् भोजन में मिट्टी की जगह रसायनों ने ले ली है । और यह सब विकास के नाम पर ही हुआ है । बढ़ती आबादी की आवश्यकताएं तो नहीं नकारी जा सकती पर विलासिता के लालच ने ज्यादा खेल बिगाड़ दिया है । अंधाधुंध शहरीकरण, वाहनों की आवाजाही, औद्योगिकीकरण ने मनुष्य को श्रम रहित तो किया ही पर साथ में पर्यावरण पर अत्यधिक दबाव पैदा कर दिया । दुनिया भर की खबरें अच्छी नहीं है । पृथ्वी का पर्यावरण भारी खतरे में पड़ चुका है । हमारे पृथ्वी के साथ दुर्व्यवहार के कारण ही तापमान में वृद्धि व जलवायु परिवर्तन जैसे बवंडर व तूफान आदि गंभीर संकट खड़े हो गये है ।
अप्रैल में वर्षा व तापक्रम का वर्तमान रुप इसी का संकेत है । इन परिस्थितियोंमें मानसून भी लंगड़ा हो जाता है और वह भी तब आयेगा जब उसकी उतनी आवश्यकता नहीं होगी । और ये अपने देश में नहीं बल्कि अब चीन, जापान, इंग्लैण्ड व अमेरिका सब ही जगहों से मौसम के अजीब व्यवहार की खबर आ रही है ।
अब राष्ट्र संघ की अन्तर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन की ताजा रिपोर्ट को ही देख ले । इसका विमोचन गत वर्षोंा में याकोमा जापान में आईपीपीसी द्वारा किया गया । इसमें साफ इंगित है कि पृथ्वी के दिन बुरे होने की शुरुआत हो चुकी है । इसमें जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसानों का पूरा जिक्र है । इसके अनुसार वायुमण्डल बढ़ती कार्बन की मात्रा भूख, संसाधन, विवाद, बाढ़, पलायन जैसी बड़ी विषमताआें को जन्म देगी । इससे होने वाले नुकसान खरबों में तो होगा ही पर इसकी भरपाई भी मुश्किल से होगी, क्योंकि जिसमें मलहम लगाने की क्षमता है यानि कि प्रकृति उसे ही हम बर्बाद कर रहे है ।
देश की आजकल सबसे बड़ी चर्चाआें में बवंडर भी एक है, ऐसा नहीं है कि पहले तूफान नहीं आते रहे होंगे पर अब इनके नये रुप निश्चित रुप से डराने वाले है । ऐसा ही नहीं बल्कि इनकी आवृत्ति से लेकर गति आश्चर्यजनक रुप से तेजी से बढ़ी है । इसका सीधा सा कारण स्वीकार कर लीजिये कि ये हमारी ही गतिविधियों की देन है । हाल में उत्तर भारत के कई इलाकों मसलन उत्तर प्रदेश व राजस्थान की भारी तबाही जिसमें १०० से ज्यादा लोगों की मौत हुई और आनन फानन में सरकारों ने अलर्ट जारी करने का भी काम कर दिया । वैसे इस तूफान की खबर १० घण्टे पहले मौसम विभाग ने दी थी पर इसके दुष्परिणामोंमसलन महा खतरे का आभास विभाग नहीं दिला पाया । अब इसके लिये किसी को भी दोषी ठहराने से पहले कुछ सामूहिक मंथन की भी आवश्यकता है कि परिस्थितियां क्योंइतनी विषम होती जा रही है ।
ये तो मानना ही पड़ेगा कि सब कुछ अब वैसा नहींहै जैसा आज से ५ दशक पहले की परिस्थितियां थी । हमने दुनिया में विकास के कई तरह के नये मापदण्ड तय किये होंऔर इसे चमकाने में कोई कसर न छोड़ी हो पर अब इसके दुष्परिणाम की टुकड़े टुकड़ों में बिगड़ते पर्यावरण के रुप में हमारे सामने है । पर्यावरण अब नये सुर में हमारे बीच में है अब वो चाहे बवंडर हो, वायु प्रदूषण की आई हुई नई खबरें । अपने देश में एक नये भय के रुप में ये उपस्थित है । इन संकेतों को गम्भीरता से समझने का समय आ चुका है ।
हमारी मनमानी ज्यादा समय नहीं चलने वाली । प्रकृति किसी न किसी रुप में हमारे व्यवहार के लिये हमें दंडित तो करेगी ही । पर्यावरण की चिन्ता को तो हम नकार ही रहे है, पर अपने जीवन को तो संकट में डालने में भी हम पीछे नहीं । इसलिये पर्यावरण दिवस का नारा पर्यावरण बचाने से बेहतर स्वयं के जीवन को बचाने वाला होना चाहिए । क्योंकि हमेशा हम स्वयं के लिये ज्यादा चिंतित रहते है । और इसी का ही परिणाम है कि प्रकृति ने ऐसी ही परिस्थितियां पैदा कर दी है कि हमें अपने जीवन के लिये ही जूझना पड़े और बचने का रास्ता पर्यावरण संरक्षण के उपायों से होकर गुजरे ।
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जन्म दिवस प्रसंग
अनुपम मिश्र : साफ सुथरे समाज के पैरोकार
प्रसून लतांत
अनुपम मिश्रा अपने देश की प्रकृति, धरोहर, जीवन और लोक ज्ञान के अनूठे पैरोकार थे । वे अपने जीवन और लेखन के कारण गांधीवादी, पर्यावरणविद और श्रेष्ठ गद्य लेखक के रुप मेंशुमार किए जा रहे है । ६८ साल का सफर पूरे करने वाले अनुपम मिश्रा का जीवन साफ सूथरे समाज के लिए समर्पित रहा । कम साधनोंमें संतुष्टि रखने वाले अनुपम किसी सत्ता प्रतिष्ठान से नहीं जुड़े थे ।
अपने देश के समृद्ध अतीत को सरल सहज शैली और अनूठी भाषा में अपनी पुस्तकों, व्याख्यानों और वार्ताआें के जरिए जाहिर कर रहे थे, जो साफ माथे वाले समाज की वकालत थी । जिस लोक ज्ञान को नई सभ्यता को ओढ़ने-बिछाने वाले और शहरी संस्कृति में रचे बसे लोगों ने हाशिए पर रख दिया है, उन्हे अनुपम मिश्र ने पूरे सम्मान और विनम्रता के साथ न केवल अपनाया बल्कि पुस्तकोंके रुप मेंदेश के कोने-कोने तक पहुंचाया ।
अनुपम मिश्रा असाधारण थे पर उनकी असाधारणता किसी को फुफकारती नही थी । उनके पास जाने वाला साधारण से साधारण व्यक्ति खुद को छोटा नहीं महसूस करता था । बल्कि उनके संसर्ग मेंरहकर समृद्ध हो जाता था । हर कोई उनसे मिलकर उनके आत्मीय संसार का रहवासी हो जाता था । अनुपम मिश्र पुराने परिचितों को भूलने नहीं देते थे और नए आगंतुको को जोड़ने में कभी उदासीनता नहीं दिखाते थे । अनुपम मिश्र सरल थे, सहज थे और सादगी पसंद थे । किसी को साथ देने का उनका उत्साह अनुपम था । वे जिस किसी से मिलते, खूब खुशी से मिलते और जाते समय विदा करने अपने कार्यलय से निकल कर मुख्य द्वार तक जाते उनकी यह विनम्रता, भद्रता, उदारता और महानता हर किसी को भा जाती थी ।
अनुपम मिश्र अपनी उपलब्धियों पर कभी व्यक्तिगत दावा नहीं करते थे । अपनी लिखी पुस्तकों और व्याख्यानों के अंशो के इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाते थे बल्कि हर किसी को खुली छूट देते थे । देश और समाज के हित में हर किसी के साथ रहते थे । अनुपम मिश्र चाहे वह गांव का भोला-भाला किसान हो या शहर का कोई मामूली आदमी वे उन्हेंभी वही और उतना ही सम्मान देते थे, जो वे किसी कहे जाने वाले गणमान्य को दे सकते थे । वे अखबारों की सुर्खियों में नहीं रहते थे पर अपने सैकड़ों मित्रों के दिलों में रहते थे और आगे भी रहेंगे ।
६८ साल का सफर पूरे करने वाले अनुपम मिश्र का जीवन साफ सूथरे समाज के लिए समर्पित रहा । कम साधनों में संतुष्टि रखने वाले अनुपम मिश्र किसी सत्ता प्रतिष्ठान से नही जुड़े थे । वे गांधी मार्ग के संपादक के रुप में गांधी शांति प्रतिष्ठान में काम में जुटे रहते थे । वहीं उनसे देश भर से लोग मिलने आते थे । वे समाज कर्म और पत्रकारों के बीच एकदम जाने पहचाने हुए थे । उन्होनें अपनी उपलब्धियों का न कभी दंभ पाला और न उनसे हस्तांतरित करने के लिए किसी से मोल मांगा । उनके विराट व्यक्तित्व से न कोई असहज होता और न कोई भयभीत होता । उन्हें कई सम्मान मिले पर इसके लिए न कोई लाबिंग की और न उसके प्रचार के भूखे रहे । उनके पास जाने पर लोगों को कुछ मिले या न मिले, पर अपनेपन से कुछ बातेंजरुर मिलती, जो उनके मन में उजाला भर देती ।
सादगी बरतने वाले अनुपम मिश्र सभी को छोड़कर चले गए है । उनके होने का मतलब कुछ लोग समझते थे, लेकिन अब उनके नहीं रहने पर उनकी जरुरत हर किसी को महसूस होगी । आजादी के बाद बहुत सी बातों, परंपराओ, व्यवहारों और तौर-तरीकों को घटिया कहकर नकारा जाता रहा, पर उन्हीं में से अनुपम मिश्र ऐसी बातें खोज कर लाते रहे जो समाधान के द्वार के ताले खोलने की कुंजी साबित हुई और आगे भी होती रहेगी ।
अपने कवि पिता भवानी प्रसाद मिश्र और कृषि विज्ञानी बनवारीलालजी से प्रभावित अनुपम मिश्र के लिए गांधी, गोखले और राजेंद्र प्रसाद की प्रवृत्तियां अनुकूल थी । उन्होने वास्तव मेंइन महान पुरुषों की तरह न केवल जीया बल्कि उनके त्याग और महानता को अपने लेखन का विषय बनाया । वे अपने देश की प्रकृति, धरोहर, जीवन और लोक ज्ञान के अनुठे पैरोकार थे।                                    ***
दृष्टिकोण
पर्यावरण संरक्षण चाहिए, विनाश नहीं
सुन्दरलाल बहुगुणा
विकास के पहले सतत् शब्द जोड़ना कुछ अटपटा सा लगता है । इसकी आवश्यकता इसलिए पड़ी कि मूल पूंजी को खाकर आर्थिक वृद्धि को विकास माना जाने लगा है । यह पश्चिम की भोगवादी सभ्यता की देन है ।
इसकी प्रकृति की ओर से देखने की दृष्टि है - जल, जगत और जमीन को एक संसाधन मात्र मानना । मनुष्य जब प्रकृति का स्वामी बन जाता है तो वह उसके साथ कसाई जैसा व्यवहार करने लग जाता है । पश्चिम की सभ्यता की ये उपलब्धियां और उसके आधार पर दुनिया पर उसका आर्थिक साम्राज्य उन देशों के लिए भी अनुकरणीय बन गया जिनकी लूट-खसोट से वे वैभवशाली बने ।
प्रकृति के भण्डार सीमित है और यदि उनका दोहन पुन:र्जनन की क्षमता से अधिक मात्रा मेंकिया जाए तो ये भण्डार खाली हो जाएंगे । जल, जंगल और जमीन का एक-दूसरे के घनिष्ट संबंध है । भोगवादी सभ्यता जंगलों को उद्योग व निर्माण सामग्री का भण्डार मानती है । उधर वृद्धि वाले विकास ने वनों के स्वरुप में परिवर्तन कर उन्हें इमारती लकड़ी और औद्योगिक कच्च्े माल की खानो में परिवर्तित कर दिया ।
वास्तव में वन तो जिंदा प्राणियों का एक समुदाय है जिसमें पेड़, पौधे, लताएं, कन्द मूल, पशु पक्षी और कई जीवधारी शामिल है । इनका अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है । औद्योगिक सभ्यता ने इस समुदाय को नष्ट कर दिया, वन लुप्त् हो गए । इसका प्रभाव जल स्त्रोतों पर पड़ा । वन वर्षा की बूंदों की मार अपने हरित कवच के उपर झेलकर एक ओर तो मिट्टी का कटाव रोकते है और उसका संरक्षण करते है । पत्तियों को सड़ाकर नई मिट्टी का निर्माण करते है और दूसरी ओर स्पंज की तरह पानी को चूसकर जड़ों में पहुंचाते है, वहीं पानी का शुद्धिकरण और संचय करते है कि फिर धीरे-धीरे इस पानी को छोड़कर नदियों के प्रवाह को सुस्थिर रखते हैं ।
वास्तव में विकास के दो मूलभूत लक्षण है । पहला जो कुछ हमें प्राप्त् है उससे अधिक नहीं तो कम से कम उतना हमारी संतानों को इस प्रकार उपलब्ध होना चाहिए जिससे वे सुख, शांति और संतोष का उपयोग कर सके । बाहुल्य वाले विकास में सुख और शांति का स्त्रोत अधिकाधिक भोग की वस्तुआें का होना माना जाता है । इसलिए विकास की परिभाषा यह है कि विकास वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति और समाज स्थायी सुख, शांति और संतोष का उपयोग करते है । वहां प्राकृतिक संसाधनों को क्षरण नहीं होता बल्कि उनकी वृद्धि होती रहती है ।
दूसरा, जिससे एक व्यक्ति या समूह का लाभ होता है, उसे दूसरों की क्षति न हो, विकास के कारण समाज में असंतुलन पैदा नहीं होना चाहिए । असंतुलन असंतोष की जननी है । इस असंतोष को दबाने के लिए अभिजात्य वर्ग पशुबल-दण्डशक्ति का सहारा लेता है । इससे जमी हुई हिंसा जो समाज में व्याप्त् रहती है, मौका मिलते ही प्रकट होती है, सारी व्यवस्था को नष्ट कर, उससे भी अधिक प्रचण्ड हिंसा के आधार पर नई व्यवस्था कायम हो जाती है ।
विकास के आधार प्राकृतिक संसाधन होते है । यद्यपि हम विकास के क्षेत्र मेंकई लंबी छलांग लगा चुके है । हमने पृथ्वी का कोना-कोना छान लिया है । किसी भी कोने के संसाधन सर्वत्र उपलब्ध हो सकते है । जीवन के लिए आवश्यक वस्तुआेंके उत्पदान की वृद्धि के नए-नए तौर तरीके भी निकाल लिए है, लेकिन भोग विलासिता का यही अंत नहीं हुआ । दूसरे ग्रहों में संसाधनों की खोज में जाने का सिलसिला जारी है । हमारे अपने उपग्रह में संसाधनों का प्रबंध और दोहन इस प्रकार हुआ है कि दूसरे जीवधारियों के जीवन के आधार ही समाप्त् हो गए है । अन्य जीवधारियोंऔर वनस्पतियों की कई प्रजातियां लुप्त् हो गई है । विकास का सबसे बुरा शिकार वन हुए है ।
लगभग तीस साल पहले यूनेस्को कूरियर में एक व्यंग चित्र में इसका दर्शन कराया गया । एक बौना आदमी एक विशाल वृक्ष को अपनी बगल में दबाकर बेतहाशा भाग रहा था किसी ने रास्ते मे उसे रोककर पूछा `कहा जा रहे हो ?' उसने दौड़ते-दौड़ते उत्तर दिया - पहले मै इस पेड़ को किसी सुरक्षित जगह रख आउं, तब बात करुंगा । प्रति प्रश्न हुआ, इस पेड़ के लिए क्या खतरा है ? उसने कहा देखते नहीं, सीमेंट की सड़क मेरा पीछा कर रही है । सीमेंट की सड़क आधुनिक विकास की प्रतीक है जहां-जहां सड़क जाती है वहां से प्रकृति लुप्त् हो जाती है । हम यह भूल गए है कि हमारी बनाई हुई कृत्रिम दुनिया में जिंदा रहने के लिए मूलभूत साधन प्राणवायु देने वाले वन और वृक्ष, जल और जमीन लुप्त् होते जा रहे है । तो क्या यह अन्य कई जीवधारियों की तरह मानव प्रजाति के लुप्त् होने की शुरुआत है ?
वास्तव में प्राकृतिक स्थिति में मनुष्य जितना शक्तिशाली था, वह आज उतना शक्तिशाली नही रह गया है । उसने अवश्य ही अपने लिए कृत्रिम संसाधनों का एक दृढ़ कवच बना लिया है लेकिन उसकी स्वयं की प्रतिरोध की शक्ति क्षीण हो गई है । भौतिक विकास की दृष्टि से जो समाज आगे बढ़े है उनमें इस चेतना का उदय हुआ है कि हमारी जिंदा रहने के लिए प्रकृति का अंधाधुंध शोषण और दोहन बल्कि उसका संरक्षण होना चाहिए ।
सवाल यह उठता है कि किन-किन संसाधनो का संरक्षण ? और फिर संरक्षण और उपभोग की सीमाएं क्या-क्या हों? संरक्षण के लिए आज की भोगवादी सभ्यता को प्राथमिकताआें बाहुल्य के स्थान पर सादगी और संयम को सर्वोच्च् प्राथमिकता देनी होगी । सौभाग्य से भारतीय संस्कृति में सादगी और संयम को पालन करने वाले ही समाज में पूज्य और सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते है । महात्मा गांधी ने भारतीय संस्कृति के इस संदर्भ को स्वयं अपने आचरण द्वारा पुन: जीवित कर सारी दुनिया को राह बता दी । उन्होनें कहा `प्रकृतिके पास हर एक की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त् है लेकिन किसी एक के भी लोभ लालच को संतुष्ट करने के लिए कुछ नहीं है ।' उन्होनें सच्च्े धार्मिक जीवन के लिए एकादश व्रतों को नियमित प्रार्थना का अंग बनाया ।
निश्चित रुप से कई वस्तुएं ऐसी होगी जिनके बिना हमारा काम नही चल सकता इसके विकल्प ढूंढने होंगे । उर्जा इनमें से एक है । आप पर्यावरण प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण तापीय और आणविक उर्जा है । उर्जा के विकल्प भारत जैसे जनसंख्या बाहुल्य वाले देश में प्राथमिकता के आधार पर मानव, पशु , बायो, सौर पवन, भूमिगत ताप और बहते प्रवाह से जल विद्युत होने चाहिए । ये अक्षय स्त्रोत भी है, जबकि ताप और परमाण उर्जा के लिए कच्च माल सीमित मात्रा में होने के कारण ये स्थायी स्त्रोत नहीं हो सकते ।
सही विकास की असली कसौटी तो यह है कि जीवन के लिए अनिवार्य प्राण, वायु, जल, भोजन, वस्त्र, आवास और पशुआें को चारा एक ही स्थान पर उपलब्ध होना चाहिए । इसका समाधान वनीकरण वृक्ष खेती है । वृक्ष प्राणवायु के अजस्त्र स्त्रोत और कार्बनडाई ऑक्साइड का प्रदूषण करने वाले है । वे बादलों को आकर्षित कर वर्षा लेते है । वर्षा के पानी का अपनी जड़ो में संचित कर नदी-नालों में बहाते है, पत्तियों को सड़ाकर तथा जड़ों से चट्टानों को तोड़कर मिट्टी बनाने के कारखाने का काम करते है ।
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