बुधवार, 20 जून 2018

दृष्टिकोण
पर्यावरण संरक्षण चाहिए, विनाश नहीं
सुन्दरलाल बहुगुणा
विकास के पहले सतत् शब्द जोड़ना कुछ अटपटा सा लगता है । इसकी आवश्यकता इसलिए पड़ी कि मूल पूंजी को खाकर आर्थिक वृद्धि को विकास माना जाने लगा है । यह पश्चिम की भोगवादी सभ्यता की देन है ।
इसकी प्रकृति की ओर से देखने की दृष्टि है - जल, जगत और जमीन को एक संसाधन मात्र मानना । मनुष्य जब प्रकृति का स्वामी बन जाता है तो वह उसके साथ कसाई जैसा व्यवहार करने लग जाता है । पश्चिम की सभ्यता की ये उपलब्धियां और उसके आधार पर दुनिया पर उसका आर्थिक साम्राज्य उन देशों के लिए भी अनुकरणीय बन गया जिनकी लूट-खसोट से वे वैभवशाली बने ।
प्रकृति के भण्डार सीमित है और यदि उनका दोहन पुन:र्जनन की क्षमता से अधिक मात्रा मेंकिया जाए तो ये भण्डार खाली हो जाएंगे । जल, जंगल और जमीन का एक-दूसरे के घनिष्ट संबंध है । भोगवादी सभ्यता जंगलों को उद्योग व निर्माण सामग्री का भण्डार मानती है । उधर वृद्धि वाले विकास ने वनों के स्वरुप में परिवर्तन कर उन्हें इमारती लकड़ी और औद्योगिक कच्च्े माल की खानो में परिवर्तित कर दिया ।
वास्तव में वन तो जिंदा प्राणियों का एक समुदाय है जिसमें पेड़, पौधे, लताएं, कन्द मूल, पशु पक्षी और कई जीवधारी शामिल है । इनका अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है । औद्योगिक सभ्यता ने इस समुदाय को नष्ट कर दिया, वन लुप्त् हो गए । इसका प्रभाव जल स्त्रोतों पर पड़ा । वन वर्षा की बूंदों की मार अपने हरित कवच के उपर झेलकर एक ओर तो मिट्टी का कटाव रोकते है और उसका संरक्षण करते है । पत्तियों को सड़ाकर नई मिट्टी का निर्माण करते है और दूसरी ओर स्पंज की तरह पानी को चूसकर जड़ों में पहुंचाते है, वहीं पानी का शुद्धिकरण और संचय करते है कि फिर धीरे-धीरे इस पानी को छोड़कर नदियों के प्रवाह को सुस्थिर रखते हैं ।
वास्तव में विकास के दो मूलभूत लक्षण है । पहला जो कुछ हमें प्राप्त् है उससे अधिक नहीं तो कम से कम उतना हमारी संतानों को इस प्रकार उपलब्ध होना चाहिए जिससे वे सुख, शांति और संतोष का उपयोग कर सके । बाहुल्य वाले विकास में सुख और शांति का स्त्रोत अधिकाधिक भोग की वस्तुआें का होना माना जाता है । इसलिए विकास की परिभाषा यह है कि विकास वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति और समाज स्थायी सुख, शांति और संतोष का उपयोग करते है । वहां प्राकृतिक संसाधनों को क्षरण नहीं होता बल्कि उनकी वृद्धि होती रहती है ।
दूसरा, जिससे एक व्यक्ति या समूह का लाभ होता है, उसे दूसरों की क्षति न हो, विकास के कारण समाज में असंतुलन पैदा नहीं होना चाहिए । असंतुलन असंतोष की जननी है । इस असंतोष को दबाने के लिए अभिजात्य वर्ग पशुबल-दण्डशक्ति का सहारा लेता है । इससे जमी हुई हिंसा जो समाज में व्याप्त् रहती है, मौका मिलते ही प्रकट होती है, सारी व्यवस्था को नष्ट कर, उससे भी अधिक प्रचण्ड हिंसा के आधार पर नई व्यवस्था कायम हो जाती है ।
विकास के आधार प्राकृतिक संसाधन होते है । यद्यपि हम विकास के क्षेत्र मेंकई लंबी छलांग लगा चुके है । हमने पृथ्वी का कोना-कोना छान लिया है । किसी भी कोने के संसाधन सर्वत्र उपलब्ध हो सकते है । जीवन के लिए आवश्यक वस्तुआेंके उत्पदान की वृद्धि के नए-नए तौर तरीके भी निकाल लिए है, लेकिन भोग विलासिता का यही अंत नहीं हुआ । दूसरे ग्रहों में संसाधनों की खोज में जाने का सिलसिला जारी है । हमारे अपने उपग्रह में संसाधनों का प्रबंध और दोहन इस प्रकार हुआ है कि दूसरे जीवधारियों के जीवन के आधार ही समाप्त् हो गए है । अन्य जीवधारियोंऔर वनस्पतियों की कई प्रजातियां लुप्त् हो गई है । विकास का सबसे बुरा शिकार वन हुए है ।
लगभग तीस साल पहले यूनेस्को कूरियर में एक व्यंग चित्र में इसका दर्शन कराया गया । एक बौना आदमी एक विशाल वृक्ष को अपनी बगल में दबाकर बेतहाशा भाग रहा था किसी ने रास्ते मे उसे रोककर पूछा `कहा जा रहे हो ?' उसने दौड़ते-दौड़ते उत्तर दिया - पहले मै इस पेड़ को किसी सुरक्षित जगह रख आउं, तब बात करुंगा । प्रति प्रश्न हुआ, इस पेड़ के लिए क्या खतरा है ? उसने कहा देखते नहीं, सीमेंट की सड़क मेरा पीछा कर रही है । सीमेंट की सड़क आधुनिक विकास की प्रतीक है जहां-जहां सड़क जाती है वहां से प्रकृति लुप्त् हो जाती है । हम यह भूल गए है कि हमारी बनाई हुई कृत्रिम दुनिया में जिंदा रहने के लिए मूलभूत साधन प्राणवायु देने वाले वन और वृक्ष, जल और जमीन लुप्त् होते जा रहे है । तो क्या यह अन्य कई जीवधारियों की तरह मानव प्रजाति के लुप्त् होने की शुरुआत है ?
वास्तव में प्राकृतिक स्थिति में मनुष्य जितना शक्तिशाली था, वह आज उतना शक्तिशाली नही रह गया है । उसने अवश्य ही अपने लिए कृत्रिम संसाधनों का एक दृढ़ कवच बना लिया है लेकिन उसकी स्वयं की प्रतिरोध की शक्ति क्षीण हो गई है । भौतिक विकास की दृष्टि से जो समाज आगे बढ़े है उनमें इस चेतना का उदय हुआ है कि हमारी जिंदा रहने के लिए प्रकृति का अंधाधुंध शोषण और दोहन बल्कि उसका संरक्षण होना चाहिए ।
सवाल यह उठता है कि किन-किन संसाधनो का संरक्षण ? और फिर संरक्षण और उपभोग की सीमाएं क्या-क्या हों? संरक्षण के लिए आज की भोगवादी सभ्यता को प्राथमिकताआें बाहुल्य के स्थान पर सादगी और संयम को सर्वोच्च् प्राथमिकता देनी होगी । सौभाग्य से भारतीय संस्कृति में सादगी और संयम को पालन करने वाले ही समाज में पूज्य और सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते है । महात्मा गांधी ने भारतीय संस्कृति के इस संदर्भ को स्वयं अपने आचरण द्वारा पुन: जीवित कर सारी दुनिया को राह बता दी । उन्होनें कहा `प्रकृतिके पास हर एक की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त् है लेकिन किसी एक के भी लोभ लालच को संतुष्ट करने के लिए कुछ नहीं है ।' उन्होनें सच्च्े धार्मिक जीवन के लिए एकादश व्रतों को नियमित प्रार्थना का अंग बनाया ।
निश्चित रुप से कई वस्तुएं ऐसी होगी जिनके बिना हमारा काम नही चल सकता इसके विकल्प ढूंढने होंगे । उर्जा इनमें से एक है । आप पर्यावरण प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण तापीय और आणविक उर्जा है । उर्जा के विकल्प भारत जैसे जनसंख्या बाहुल्य वाले देश में प्राथमिकता के आधार पर मानव, पशु , बायो, सौर पवन, भूमिगत ताप और बहते प्रवाह से जल विद्युत होने चाहिए । ये अक्षय स्त्रोत भी है, जबकि ताप और परमाण उर्जा के लिए कच्च माल सीमित मात्रा में होने के कारण ये स्थायी स्त्रोत नहीं हो सकते ।
सही विकास की असली कसौटी तो यह है कि जीवन के लिए अनिवार्य प्राण, वायु, जल, भोजन, वस्त्र, आवास और पशुआें को चारा एक ही स्थान पर उपलब्ध होना चाहिए । इसका समाधान वनीकरण वृक्ष खेती है । वृक्ष प्राणवायु के अजस्त्र स्त्रोत और कार्बनडाई ऑक्साइड का प्रदूषण करने वाले है । वे बादलों को आकर्षित कर वर्षा लेते है । वर्षा के पानी का अपनी जड़ो में संचित कर नदी-नालों में बहाते है, पत्तियों को सड़ाकर तथा जड़ों से चट्टानों को तोड़कर मिट्टी बनाने के कारखाने का काम करते है ।
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