गुरुवार, 3 जुलाई 2008

आवरण



बुधवार, 2 जुलाई 2008

सम्पादकीय

नदियों के अस्तित्व पर मंडराता खतरा
नदियां हमारे देश में प्राचीन सभ्यता और लोक संस्कृतियों के विकास की वाहक रही है । यह प्रकृति की अनमोल रचना होने से कई विशिष्टताआें के साथ जनजीवन में रची बसी हुई है । लेकिन अब ये नदियां अपने संघर्ष के दौर से गुजर रही हैं, आज बढ़ते उपभोक्तावाद के कारण नदियों का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा है । हमारी भारतीय संस्कृति में गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र और नर्मदा आज भी धार्मिक आस्था की केन्द्र हैं, जहां बड़े तपस्वी, ऋषि मुनि, योगी, धर्मात्मा और श्रृद्धालुआें को इनके तटों पर आसानी से देखा जा सकता है । किन्तु पिछली एक शताब्दी से मानव ने प्रकृति की इस सुरम्य रचना का अविवेकपूर्ण ढंग से दोहन कर लालची प्रवृत्ति के चलते वह इसे अपनी स्वार्थसिद्धी का माध्यम मानता आ रहा है, उसने नदियों के जल को रोका है, जिसमें चाहे बड़े-बड़े बांध बनाना हो, नदियों की धाराएं मोड़ना और विद्युत उत्पादन करना आदि कृत्यों से इन पवित्र नदियों के स्वरूप पर ग्रहण लगता दिखाई दे रहा है । कहा जाता है कि मानवीय दखल से नदियों का ८३ प्रतिशत बहाव प्रभावित होता है । प्रकृति और नदियों के साथ छेड़खानी के कारण मछलियों और जलीय जीवों के जीवन पर भी असर पड़ रहा हैं । तेजी से बढ़ते उद्योग, रासायनिक खेती, शहरी गंदगी, अतिक्रमण और जलग्रहण क्षेत्रों में जंगलों के कटने से नदियां सिकुड़ती जा रही है । इसी का परिणाम है कि नदियों का जल अब मनुष्य और जलीयजीवों के लिए रोगजन्य साबित हो रहा है । जिससे पर्यावरण अब विनाश के मुहाने पर पहुंचता जा रहा है । विश्व प्रकृति निधि द्वारा दुनियाभर की २२५ नदियों पर लगभग २००० शोधकर्ताआें की रिपोर्ट में नदियों पर मंडराते गंभीरत खतरों की चेतावनी दी गई हैं । भारत में नदी संरक्षण के नाम पर ५१६६ करोड़ की योजना को मंजूरी मिलने के बाद भी परिणाम संतोषजनक नहीं है । नदियों को लेकर बना केन्द्रीय प्राधिकरण भी पिछले बीस वर्षो से दो ही बैठकें कर पाया है । तापमान की बढ़ोत्तरी, हिमखंडो के पिघलने व अवर्षा के चलते सूखे की स्थिति ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है । शहरीकरण और औद्योगिकरण के चलते अतिक्रमण नदियों की गोद में पसरता जा रहा है, जिससे नदियां सिकुड़ती लगी है । वर्तमान समय में जिस तरह भू-जल स्तर में गिरावट आ रही है, उससे आने वाले समय में जलसंकट के साथ खाद्यान्न संकट भी गहरा सकता है । क्योंकि जब पानी का संकट होगा तो खेतों की सिंचाई कैसे होगी, लोग पानी के अभाव में क्या करेंगे, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । अगर समय रहते नदियों के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब हमें इस स्थिति का सामना करना पड़ सकता है । मानवीय प्रवृत्तियों और स्वार्थ के वशीभूत हमने नदियों को बीमार, अपाहिज और लाचार बना दिया है । अब ऐसी स्थिति में नदियों के किनारे जमीन और जलग्रहण क्षेत्रों को कैसे बचाया जाए ? कैसे अकाल मौत का शिकार हो रही नदियों को पुर्नजीवित किया जाए ? नदियों का घटता जलस्तर कैसे बढ़ाया जाए ऐसे कई प्रश्न है जिन पर आज गंभीरता से विचार करने की जरूरत है ।

प्रसंगवश

इलाज करेगी एक विषैली गैस
कार्बन मोनोऑक्साइड का नाम तो आपने सुना ही होगा । यह गैस शरीर में पहुंच जाए, तो जानलेवा हो सकती है । खून में कार्बन मोनोऑक्साइड पहुंच जाए, तो यह ऑक्सीजन का स्थान ले लेती है, तब खून शरीर के अंगोंको ऑक्सीजन नहीं पहुंचा पाता। मगर अब कुछ वैज्ञानिक कह रहे हैं कि यही कार्बन मोनोऑक्साइड कुछ रोगों में दवा का काम कर सकती है । हाल में किए गए कुछ प्रयासों से पता चला है कि फेफड़ों के रोग (क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव रोग) से ग्रस्त लोगों को कार्बन मोनोऑक्साइड देने पर उनकी हालत में सुधार होता है । इसके अलावा ऐसे भी संकेत मिले हैं कि यह गैस जीर्ण सूजन के मामलों में भी उपयोगी हो सकती है । जंतुआें पर किए गए प्रयोग दर्शाते हैं कि थोड़ी मात्रा में कार्बन मोनोऑक्साइड सूजन कम कर सकती है और ऊतकों को ऑक्सीजन से होने वाले नुकसान से बचा सकती है । वैसे यह बात काफी समय से पता रही है कि जब ऊतकों में सूजन होती है तो खून में ऑक्सीजन रोधी पदार्थ उत्पन्न होते हैं और इसी प्रक्रिया में कार्बन मोनोऑक्साइड भी बनती है । पहले यह सोचा जाता था कि यह उस प्रक्रिया का एक फालतू गौण उत्पाद है । मगर अब लगता है कि यही गैस सूजन को कम करने का काम कर सकती है । कुछ शोधकर्ता कार्बन मोनोऑक्साइड की जांच गठिया व दमा जैसे रोगों के संदर्भ में भी कर रहे हैं । ये ऐसे जीर्ण रोग हैं जिनमें ऊतकों में लगातार सूजन बनी रहती है । कुछ अन्य शोधकर्ता गुर्दा प्रत्यारोपण में भी कार्बन मोनोऑक्साइड की भूमिका पर प्रयोग कर रहे हैं । आम तौर पर प्रत्यारोपण से पहले गुर्दा ऑक्सीजन विहीन परिस्थिति में रखा जाता है । जब इसे प्राप्त्कर्ता के रक्त संचार से जोड़ते हैं, तो ऑक्सीजन इसे नुकसान पहुंचा सकती है । शोधकर्ता जानना चाहते हैं कि क्या कार्बन मोनोऑक्साइड इस क्षति को रोक सकती है । तो इस विषैली गैस के कई चिकित्सकीय उपयोग सामने आने की उम्मीद है, और शायद जल्दी ही सिलेंडरों में कार्बन मोनोऑक्साइड मिलने भी लगे । मगर कुछ अन्य शोधकर्ता ऐसे पदार्थो की खोज कर रहे हैं जिनके सेवन के बाद शरीर में धीरे-धीरे कार्बन मोनोऑक्साइड निकलती रहेगी ताकि उसे सूंघने की जरूरत नहीं पड़ेगी ।***

१ वन महोत्सव पर विशेष

प्राचीन साहित्य में पेड़ पौधे
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
भारतीय संस्कृतिवृक्ष पूजक संस्कृति है । हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा प्राचीन काल से रही है । जहां तक वृक्षों के महत्व का प्रश्न है भारतीय प्राचीन ग्रंथ इनकी महिमा से भरे पड़े हैं । वृक्षों के प्रति ऐसा प्रेम शायद ही किसी देश की संस्कृति में हो जहां वृक्ष को मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया जाता है। हमारी वैदिक संस्कृति में पौधारोपण एवं वृक्ष संरक्षण की सुदीर्घ परम्परा रही है । पौधारोपण कब, कहा और कैसे किया जाये, इसके लाभ और वृक्ष काटे जाने से होने वाली हानि का विस्तारपूर्वक वर्णन हमारे सभी धर्मो के ग्रंथों में मिलता है । हमारे प्राचीन साहित्य में सभी ग्रंथों में वन सुरक्षा और वन संवर्धन पर जोर दिया गया है । भारतीय संस्कृति में वृक्षों को भी देवता माना गया है । हमारे प्राचीन ग्रंथकारों की धारणा थी कि संसार में ऐसी कोई वनस्पति नहीं हैं जो अभैषज्य हो, इसलिये हरेक वृक्ष वन्दनीय है । पेड़ पौधों के प्रति ऐसे अप्रतिम अनुराग की दूसरों देशों में कल्पना भी नहीं की जा सकती है, जो कभी हमारे सामाजिक जीवन के दैनिक क्रियाकलापों का हिस्सा था । हमारे ऋषि मुनियों ने वनों में हरियाली के बीच रहकर गंभीर चिंतन- मनन कर अनेक ग्रंथों का निर्माण किया । वेदों से लेकर सभी प्राचीन ग्रंथों में वृक्ष महिमा में अनेक प्रसंग है, जो आज भी हमें प्रेरणा देते हैं । इसमें से कुछ प्रसंगों का यहाँ उल्लेख किया गया है -किन्नररोगरक्षांसि देवगन्धर्वमानवा: ।तथा ऋषिगणाश्चैव महीरूहान् ।।महाभारत अनु. पर्व ५८/२९ अर्थ - किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मनुष्य और ऋषियों के समुदाय ये सभी वृक्षो का आश्रय लेते हैं।अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।सुजनस्येव धन्या महीरूहा येभ्योनिराशा यान्ति नार्थिन: ।।भागवत १०-२२-३३ अर्थ - समस्त प्राणियों को जीवन प्रदान करने वाले इन वृक्षों का जन्म कितना उत्तम है सज्जनों जैसे कितने धन्य हैं वे, जिनके पास से कोई याचक निराश नहीं लौटता है !छायामन्यस्म कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वं ममातये ।फलान्यसि परार्थाय वृक्षा: सस्तपुरूषाइव ।।विक्रम चरितम् ६५ अर्थ - वृक्ष तो सज्जनों जैसे परोपकारी होते हैं । स्वयं धूप में खड़े हुए भी वे दूसरों को छाया देते हैं । इनके फल भी दूसरों के उपयोग के लिए ही होते हैं।इन्धनार्थ यदानीतं अग्निहोमं तदुच्येत ।छाया विश्राम पथिकै : पक्षिणां निलयेन च ।।पत्रमूल त्वगादिमिर्य औषर्ध तु देहिनाम् ।उष कुर्वन्ति वृक्षस्य पंचयज्ञ: स उच्यते ।।वराह पुराण, १६२-४१-४२ अर्थ - वृक्षों के पाँच महा उपकार उनके महायज्ञ हैं । वे गृहस्थों को इंर्धन, पथिकों को छाया एवं विश्राम-स्थल, पक्षियों को नीड़, पत्तो-जड़ों तथा छालों से समस्त जीवों को औषधि देकर उनका उपकार करते हैं ।पत्रपुष्पफलच्छायामूलवल्कलदारूभि: ।गन्धनिर्यासभस्मास्थितोक्मै: कामान् वितन्वते ।।श्रीमद्भागवत, स्कन्ध दशम्, अ.२२,श्लो. ३४ अर्थ - वृक्ष अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुर और कोंपलों से भी प्राणियों की कामना पूर्ण करते हैं।पश्यैतान् महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।वातवर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति न: ।।श्रीमद्भागवत, स्कन्ध दशम्, अ.२२, श्लो. ३७ अर्थ - देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं ! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही है । ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला सब कुछ सहते हैं, फिर भी ये हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं ।अतीतानागतान् सर्वान् पितृवंशांस्तु तारयेत् ।कान्तारे वृक्षरोपी यस्तस्माद् वृक्षांस्तु रोपयेत् ।।शिवपुराण उमा संहिता -११/७ अर्थ - जो वीरान एवं दुर्गम स्थानों पर वृक्ष लगाते हैं, वे अपनी बीती व आने वाली सम्पूर्ण पीढ़ियों को तार देते हैं ।दशकूपसमो वापी, दशवापीसमो हृद: ।दशहृदसमो पुत्र:, दशपुत्रसमो द्रुम: ।।मत्स्यपुराण -५१२ अर्थ - दस कुआेंके बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र तथा दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है ।धन्ते भरं कुसुमपत्र फलवनीनां, धर्मव्यथां वहति शीत भवांरूजं वा ।यो देहम् पर्यति वान्य सुखस्य हेतो:,तस्मै वदान्य गुरवे तरवे नमस्ते ।।भामिनी विलास ८६ अर्थ - हे तरूवर ! आप फूलों, पत्तों और फलों का भार वहन करते हैं, लोगों की धूप की पीड़ा हरते हैं और उनके ठंड के कष्ट मिटाते हैं । इस तरह दूसरों के सुख के लिये आप अपना तन समर्पित कर देते हैं । इन्हीं गुणों से आप उदार पुरूषों के गुरू हैं । अत: हे तरूवर! आपको मेरा नमस्कार है ।***

३ विशेष लेख

अश्वत्थ वृक्ष की गुत्थी
डॉ. किशोर पंवार
पीपल का पेड़ काफी बड़ा होता है । मूल रुप से यह भारतीय पेड़ है जो जंगलो में प्राकृतिक रुप से पाया जाता है। वहीं मंदिरों और दरगाहो के अहाते में विशेष रुप से लगाया जाता है । यह एक पतझड़ी किस्म का वृक्ष है जिसकी सारी पुरानी पत्तियां फरवरी-मार्च में झड़ जाती है और पूरा पेड़ ऐसा लगता है कि शुष्क हवाआें के प्रभाव से सूख गाया हो। परंतु मार्च खत्म होते - होते नई कोपलें फूटती है और नई लाल-तांबई रंग की चमकदार पत्तियां शाखाआें पर अपना डेरा डाल लेती है । लगभग इसी समय इस पर अंजीर और गूलर जैसे फल लगते हैं जिन्हें पीपली कहते हैं। ये फल मई-जून तक पकते हैं। इस समय पीपली खाने वाले तरह-तरह के जीव-जंतुओ का डेरा जम जाता है । पेड़ पर सुबह-शाम बुल-बुल, मैना व कोयलों का जमघट लगा रहता है । गिलहरियां भी इधर-उधर कूदती-फांदती रहती है । बरगद की तरह पीपल के बीज भी पक्षियों की विष्ठा से निकलकर अंकुरित होते हैं और यही कारण है कि ये अक्सर पुराने भवन व पेड़ो की शाखाआें पर उगे नज़र आते है । जहां इन पक्षियों की बीट गिरती है ये बीज वहीं उग आते है । दूसरे बड़े पेड़ो की शाखाआें पर उगे पीपल के ऐसे पेड़ो को उपरिरोही कहते हैं। पीपली का एक ऐसा ही बड़ा पेड़ मैंने आम के पेड़ पर उगा देखा है । उस पेड़ से सटकर धीरे-धीरे इनकी जड़ें नीचे उतरती हैं और फिर ज़मीन से इनका संपर्क हो जाता है । कई बार आधार पेड़ मर जाता है । पीपल की पत्तियां बड़ी, हृदयाकार, चिकनी एवं चमकदार होती हैं। इनका डंठल बड़ा होता है और पत्तियों का सिरा भी बहुत लंबा, पतला, फीतेनुमा होता है । नई कोपलें चांदनी रात में ऐसे चमकती हैं जैसे हज़ारो दीपक जला दिए गए हों । पत्तियां लटकने वाली होती है और ज़रा-सी हवा चलने पर ही झूमने लगती है । इसकी पत्तियों को देखकर ही कहा गया है -बिन बोलाए मूरख बोलेबिन बयार के पीपल डोले । इसके पत्तो की फीते नोंके जब एक-दूसरे से आपस में टकराती हैं, तो ऐसा लगता है कि बारिश की बूंदे गिर रही है । कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि ये पत्तियां भगवान बुद्ध के उपदेशो को दोहरा रही हैं । उल्लेखनीय है कि पीपल ही वह वृक्ष है जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त् हुआ था जिसका प्राचीन नाम उरुवेला था । इस बोधि वृक्ष को बौद्ध जगत में बड़ा सम्मान प्राप्त् है । सातवीं शताब्दी में भारत आए चीनी धर्माचार्य ह्यू-एन-त्सांग ने अपने यात्रा वृतांत में इस बोधि वृक्ष के बारे में लिखा है ``इस अश्वत्थ वृक्ष के पत्ते पतझड़ और गर्मियों में भी नही झड़ते । केवल बुद्ध निर्वाण के दिन ही इसके पत्ते झड़ते हैं और दूसरे ही दिन इसमें नई कोपले फूट पड़ती है ।'' दरअसल बुद्ध पूर्णिमा मई में आती है और तब तक इसमें नई कोपलें फूट जाती है । सम्राट अशोक ने इस वृक्ष की रक्षा के लिए चारों और इंर्टो की दीवार बनवा दी थी । अशोक की पुत्री संघमित्रा २८८ ईसा पूर्व जब बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए श्रीलंका गई थी तब वे इसी बोधि वृक्ष की एक शाखा अपने साथ ले गई थी । इसे अनुराधापुर में समारोह पूर्वक रोपा गाया था । वह शाखा आज भी वहां विशाल वृक्ष के रुप में विद्यमान है । कई विद्वानों की धारणा है कि पीपल का ही दूसरा नाम अश्वत्थ है, भारतीय संस्कृति में पीपल को असाधारण पवित्र स्थान प्राप्त् है । वैदिक काल के पूर्व से ही पीपल को पवित्र और पूजनीय माना गया है । इसमें अनेक देवताआें का वास है, ऐसी श्रद्धा प्राचीन काल से भारतीय जन मानस में है। यही कारण है कि पीपल के वृक्ष को काटना पाप समझा जाता है । जहां एक और पीपल में अनेक देवताआें का वास माना गया है वहीं दूसरी तरफ यह धारणा भी है कि पीपल का वृक्ष तरह-तरह की आत्माआें का डेरा है । यह मृतकों की आत्माआें की प्यास बुझाता है। इसीलिए वर्ष के कुछ विशेष दिनों में पीपल को पानी से सींचते हैं, दुध चढ़ाते हैं । कुछ लोग यह भी मानते है कि पीपल के पेड़ पर अनेक तरह के भूत और अनिष्टकारी आत्माएं निवास करती है । कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि इस पेड़ पर देवताआें का वास हो या भूतोें का डेरा, इसे काटना उचित नहीं । यही संदेश समाज के बुद्धिमान लोगों ने समाज के सामान्य लोगोंतक पहुंचाया है । हमारा पवित्र पीपल ही थाईलैंड का `फो' भी है। थाई लोग भी इसकी पूजा करते हैं । इन्ही मान्यताआें के कारण ये पेड़ बचे हुए है । इसे ही `ट्री आफ लाईफ' भी कहा गया है । श्री कृष्ण ने गीता के दसवें अध्याय में अपने विभूति योग का वर्णन किया है वहां भी पीपल का जिक्र आया है । उन्होंने कहा है -अश्वत्थ: सर्व वृक्षाणाम अर्थात वृक्षों में मैं अश्वत्थ अर्थात पीपल हँू । गीता के पन्द्रहवें अध्याय में उन्होंने विश्व को अश्वत्थ वृक्ष की उपमा दी है :उर्ध्वमूलमध: शाखमश्वथं प्राहुरव्ययम । छंदांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्। वे कहते हैं, यह संसार रूपी वृक्ष बड़ा विचित्र है । इसकी जड़े ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर गमन करने वाली हैं । विद्वान लोग जिस संसार रूपी पीपल को अविनाशी कहते हैं, जिसके पत्ते वेद कहे गए हैं, उस संसार रूपी वृक्ष को जो पुरूष समूल जानता है वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है । सवाल यह है कि क्या पीपल ही वह पेड़ है जिसका वर्णन श्री कृष्ण ने गीता में अश्वत्थ नाम से किया है । पीपल की जड़ें ऊपर की ओर नहीं होती । शाखाएं भी ऊपर की ओर ही वृद्धि करती हैं । पीपल अविनाशी भी नहीं है । इससे ज्यादा उम्र वाले वृक्ष हिन्दुस्तान में मिलते हैं, बरगद उनमें से एक हैं । पीपल की तुलना में बरगद की आयु ज्यादा होती है ।पन्द्रहवें अध्याय श्लोक तीन देखें -न रूपमस्येह तथोपलभ्यतेनान्तो न चार्दिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।अश्वत्थमेनं सुविरूठमूल मसङ शस्त्रेण दृढेन छित्वा ।। इस संसार रूपी वृक्ष का स्वरूप जैसा शास्त्रों में कहा गया है वैसा पीपल का नहीं होता । अश्वत्थ अनादि है अनंत है, अश्वत्थ सुविरूठमूल यानी मजबूत गहरी जड़ों वाला वृक्ष है । और इसका रूप विचित्र है । पीपल भारत का सबसे ज्यादा जाना पहचाना पेड़ है । यह हर शहर, हर कस्बे और गांव की चौपाल पर लगा मिलता है । तो फिर श्री कृष्ण ने यह क्यों कहा कि यह यहां नहीं मिलता । और पीपल की जड़ें ज्यादा गहरी भी नहीं जाती । आंधी तूफान में इसके पेड़ उखड़ जाते हैं । डॉ. एच. सांतापाड ने अपनी पुस्तक `कामन ट्री' में लिखा है कि पीपल ऐसी जगहों के लिए उपयुक्त नहीं है जहां भूमिगत जल काफी ऊपर हो, जैसे कोलकाता, मुंबई वगैरह । ऐसी जगहों पर इसकी जड़ें ज्यादा गहरी नहीं जातीं और जरा सी मानसूनी हवाएं चलने पर पेड़ उखड़ जाते हैं । यानी यह मजबूत जड़ों वाला नहीं हैं । पीपल तो दिखता भी अच्छा है यानी इसकी स्थिति, रूप रंग सभी अच्छा है परंतु गीता में जिस संसार रूपी अश्वत्थ का वर्णन श्री कृष्ण ने किया है वह तो ऐसा नहीं है । पीपल न तो उम्रदराज है, न ऊर्ध्वमूल है, न दृढ़मूल, न ही विचित्र रूपवाला । तो कहीं अश्वत्थ कोई और पेड़ तो नहीं है । विवेचना से तो लगता है कि पीपल अश्वत्थ नहीं हो सकता । तो फिर कौन हो सकता है कृष्ण का अश्वत्थ । इतना तो यह तय है कि पीपल एक सुंदर पर्णपाती किस्म का, गर्मियों में छाया, चारा व फल प्रदान करने वाला जीवनदायी भारतीय मूल का पेड़ है, जिसके नीचे गौतम तपस्या कर गौतम बुद्ध हुए और पीपल का पेड़ बोधि वृक्ष कहलाया । इसे भारत ही नहीं श्रीलंका, चीन, जापान, नेपाल, जहां-जहां हिंदू व बौद्ध अनुयायी रहते हैं वहां-वहां पूजा जाता है । गीता का उक्त वर्णन हमारे देशी पीपल पर लागू नही होता जिसे अश्वत्थ मान लिया गया है । और पीपल की जड़ों को काटने की बात (अश्वत्मेनं सुविरूढ़मूल, मसंग शस्त्रेण दृढ़ेन धित्वा) गले नहीं उतरत। जो पेड़ भारतीय संस्कृति में अनादिकाल से पवित्र और पूजनीय हो उसे उपमा के रूप में भी काटना उचित जान नहीं पड़ता। वर्णन के मुताबिक अश्वत्थ पीपल नहीं हो सकता । तो फिर कौन-सा पेड़ इस परिभाषा पर खरा उतरता है । इसका उत्तर प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी के.एम. वैद के एक बहुत पुराने लेख में मिलता है, जो अपने जमाने की प्रसिद्ध साप्तहिक पत्रिका `धर्मयुग' में छपा था । उनके अनुसार अश्वत्थ भारतीय नहीं, अफ्रीकी मूल का पेड़ बाओबाब है । अफ्रीका में दुनिया का सबसे बड़ा, विचित्र आकृति का बहुत फैला हुआ वृक्ष मिलता है जिसे संसार का अत्यधिक विलक्षण पेड़ कहा गया है । यह उस जगह का वृक्ष है जहां मनुष्य का जन्म हुआ था। कहते हैं ब्रह्मा ने दुनिया बनाने के बाद सेमल के नीचे आराम किया था । उल्लेखनीय है कि सेमल व बाओबाब के पेड़ शल्मली द्वीप (अफ्रीका) में प्राकृतिक रूप से उगते हैं । (यह लगभग सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य की उत्पत्ति अफ्रीका में हुई थी ।) ये दोनों पेड़ बोम्बेकेसी कुल के हैं । जिस तरह हमारे पीपल को पूजा जाता है ठीक उसी तरह अफ्रीका में बाओबाब को पूजा जाता है । बाओबाब को हम गोरख इमली के नाम से जानते हैं। पूजा उसकी होती है जो उपयोगी हो, मनोकामना पूरी करता हो, जिससे जीवन की आवश्यकताएं पूरी हो । बाओबाब से यह सब कुछ होता है । सूूखे में जहां कई किलोमीटर तक कोई वनस्पति नजर नहीं आती, वहां बाओबाब ही दिखते हैं । यह पतझड़ी वृक्ष है जो सूखे के सालों में कोई पत्ती धारण नहीं करता । इसका तना अति विशाल होता है, जिसका घेरा २० से ३० मीटर तक होता है । मोटे तने के नीचे से ही विशालकाय लंबी-लंबी शाखाएं निकलती है जो ३० मीटर तक क्षैतिज में फैलकर फिर नीचे की ओर आने लगती हैं । तना भूरे रंग की स्पंजी छाल से ढका रहता है, जो बारिश का ढेर सारा पानी सोख लेती है । इस पर साल में चार-पांच महीने ही पत्तियां रहती हैं । इसकी ऊपरी पतली- पतली शाखाएं जड़नुमा दिखाई देती हैं । ऐसी अवस्था में यह बिल्कुल ऊर्ध्वमूल लगता है । बारिश के समय पर बड़ी-बड़ी संयुक्त हस्ताकार पत्तियां लगती हैं जिन पर मुख्य रूप से पांच पत्रक होते हैं, पांच वेदों की तरह । भागवत पुराण में पांच वेद कहे गए हैं । ये पेड़ दीर्घजीवी हैं । अनादि, अनंत । कुछ पेड़ों की आयु ३००० से ४००० साल तक होती है । पीपल की आयु सैकड़ों वर्ष ही होती है । इसकी तुलना में ये अश्वत्थ अर्थात कभी मरने वाले ही हुए । इनकी जड़ें जमीन में कई मीटर गहरी जाती हैं ये जड़ें ही उसकी संप्रतिष्ठा है । यह वृक्ष आंधी-तूफान में भी नहीं उखड़ता । माइकेल एंडसन ने एक अफ्रीकी बाओबाब की जड़ों की गहराई ३५ मीटर तक देखी है । माइकेल एंडसन के नाम पर ही बाओबाब को एंडसोनिया डिजिटेटा नाम दिया गया है । गीता में कृष्ण ने जिस वृक्ष में अपनी विभूति बतलाई है, अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम कहा है, उसमें सुंदर सुगंधित फल न हों ऐसा कैसे हो सकता है । पीपल के फूल तो इतने छोटे होते हैं कि दिखाई ही नहीं देते और फल भी बहुत छोटे चने के फूल बड़े विलक्षण अद्भुत एवं सुंदर हैं । खिलने पर लंबाई-चौड़ाई १५ से.मी. पंखुड़ियां बड़ी-बड़ी मखमली सफेद । पुंकेसर का गुच्छा हल्का जामुनी रंगत लिए हुए होता है । ये सुंदर फूल दिन में नहीं, रात में खिलते है । यानी अश्वत्थ में सब कुछ विचित्र है, विलक्षण है, अुद्भुत है । इसके फल भी तुम्बी जैसे होते हैं । इसका छिलका कड़क और गहरा सुनहरी भूरा व रोएंदार होता है । इसके अंदर ढेर सारा खट्टा-सा गूदा भरा होता है जिसे क्रीम ऑफ टाइटर कहते हैं । पुराने जमाने में इसके फलों के खोल चांदी के सिक्के भरने के काम में आते थे अत: इसका एक नाम ज्यूडास बैग भी है । इस अश्वत्थ यानी बाओबाब के पत्तों और फलों को चित्रण एलोरा की गुफा नंबर ३२ में भी हुआ है । जहां इंद्रसभा का चित्रण हैं जिसमें पीछे की ओर एक वृक्ष दिखाया गया है । चित्र में फलों को तोड़ते हुए एक बंदर भी दिखाया गया है । ये चित्र अफ्रीका के बाओबाब से मिलते-जुलते हैं, पत्तियां भी फल भी । उल्लेखनीय है कि बाओबाब का एक नाम मंकीज़ ब्रेड भी है । यह बंदरों का प्रिय फल है । इन सब बातों से तो यही लगता है कि गीता में कृष्ण जिस अश्वत्थ की बात करते हैं वह पीपल नहीं, अफ्रीकी मूल का बाओबाब ही है क्योंकि अश्वत्थ के सारे गुणधर्म इसी से मेल खाते हैं । कृष्ण ने जिसे अपनी विभूति कहा हो वह कोई साधारण पेड़ कैसे हो सकता है । सवाल यह भी है कि तथाकथित समुद्र मंथन में जो कल्प वृक्ष निकला था कहीं वह यही बाओबाब तो नहीं था । वर्तमान में बाओबाब के पेड़ कोलकाता, लखनऊ , चेन्नै, उज्जैन, इंदौर, महू, और राजस्थान में पाए जाते हैं। कहा जाता है कि मुस्लिम शासक और समुद्री व्यापारी इसे अपने साथ भारत लाए थे और उन्होने की इसे भारत में फैलाया था । शायद यही कारण है कि जहां-जहां मुगलों का शासन रहा वहां और समुद्री किनारों पर यह पेड़ आम तौर पर पाया जाता है । ***

५ वातावरण

और कितने भोपाल ?
सुश्री रावलीन कौर
सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्व. कमलेश्वर के उपन्यास का शीर्षक `और कितने पाकिस्तान' उस मानसिकता को उधेड़ता था जिसने पाकिस्तान का निर्माण किया है । भोपाल गैस त्रासदी भी एक ऐसी मानसिकता की द्योतक है जिसका एकमात्र लक्ष्य लाभ अर्जित करना है । विशेषज्ञों द्वारा यह माना जा रहा है कि हाल ही में गुजरात के भरूच में रासायनिक अपशिष्ट भंडार में लगी आग भोपाल गैस त्रासदी से भयावह रूप ले सकती थी । भरूच एन्वायरो इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (बी.इ.आय.एल.), अंकलेश्वर (गुजरात) जिसमें कीटनाशक क्षेत्र के महाकाय यूनाइटेड फास्फोरस की बड़ी हिस्सेदारी है, में गत ३ अप्रैल को लगी आग ने सिद्ध कर दिया है कि खतरनाक रासायनिक अपशिष्ट प्रबंधन के मामले में हमारा रवैया भोपाल गैस त्रासदी से भी सबक नहीं ले पाया है । भस्मक की प्रतिदिन उपचार क्षमता के विरूद्ध उस दिन यहां कुल १२,८०० टन खतरनाक रासायनिक तरल और अपशिष्ट तेल का भंडारण था जिसमें से २५० टन अपशिष्ट खतरनाक जहरीले कीटनाशकों का था । वह तो किस्मत अच्छी थी कि आग लगने के दस मिनट में ही हवा ने रूख बदल लिया वर्ना आग का फैलाव वहां स्थित अन्य कारखानों और गांवों में भी हो जाता और इसके फलस्वरूप होने वाले हादसे का आकार भोपाल त्रासदी से काफी बड़ा होता । आग पर भले ही २४ घंटे में काबू पा लिया गया हो लेकिन `डाउन टू अर्थ' की पड़ताल ने गया कि आसपास के गांवो के निवासियों में जहरीली गैस का असर आँखों और नाक की जलन, सांस की तकलीफ और कुछ मामलों में तो त्वचा पर चकत्ते और ज्वर के रूप में अब भी मौजूद है । आग के कारणोंका ठीक से खुलासा तो नहीं हुआ है किंतु गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और स्थानीय प्रशासन के प्रारंभिक आकलन के अनुसार यहां उपचार, भंडारण और अपशिष्ट प्रबंध सेवा (टीएसडीएफ) के कार्य में पर्यावरण और सुरक्षा नियमों की गंभीर अनदेखी की गई थी । टीएसडीएफ यूनियन कार्बाइड, भोपाल के अपशिष्ट उपचार का दस लाख डॉलर का ठेका भी हासिल करने का प्रयास कर रही है । औद्योगिक स्वास्थ्य एवं सुरक्षा विभाग ने गुजरात कारखाना अधिनियम १९४८ के अंतर्गत बीइआयएल के विरूद्ध खतरनाक अपशिष्ट भंडारण के लिए दो शेडस की अनुमति के विरूद्ध सात शेडस बनाने का प्रकरण दर्ज किया है । प्रसंगवश यही वह सातवां शेड था जहां दुर्घटना हुई । मामले में और छानबीन जारी है । दुर्घटनास्थल, जहां पीपो में अपशिष्ट भंडारण किया जाता है से पहली बार शाम ५.३० बजे काला धुंआ उठता देखा गया था जिसकी सूचना प्रबंधन को तुरंत दी गई थी फिर भी महज दो किलोमीटर दूर स्थित आपदा सुरक्षा और प्रबंधन केन्द्र को इसकी सूचना ६ बजे मिल पाई । बीइआयएल से एक किलोमीटर दूर स्थित जिताली गांव के निवासियों ने पीपे हवा में उड़ते देखे लेकिन पंचायत भवन में कंपनी द्वारा स्थापित खतरे की सूचना देने वाला अलार्म नहीं बजा । बाद में जांच में पता लगा कि मूल प्रणाली को तार द्वारा जोड़ा ही नहीं गया था । अपने मोबाईल पर खींची दुर्घटना की तस्वीरें दिखाते हुए जिताली के रहवासी निलेश पटेल ने डाउन टू अर्थ को बताया कि जल्द ही अंधेरा छाने लगा एवं हवा इतनी कसैली हो गई थी कि सांस लेना मुश्किल हो रहा था । जिताली के पास के दो गांव सारंगपुर और ढढाल इनाम को भी खाली करने के आदेश दे दिए गए थे । चारों तरफ राख ही दिखाई दे रही थी । लोगों के घर की छत पर पत्थरों जैसी भारी वस्तुएं आ गिरी थीं वे सुबह तक जल रही थीं और उनमें से दुर्गन्ध निकल रही थी । हवा के रूख की ओर होने की वजह से जिताली सर्वाधिक प्रभावित रहा। अंकलेश्वर स्थित आपदा सुरक्षा एवं प्रबंधन केन्द्र के अग्नि एवं सुरक्षा प्रबंधक मनोज कोटड़िया का कहना था कि बीस किलोमीटर की गति से चलती हवा की वजह से धुंआ ठहर नहीं पाया और खाली जमीन की ओर इसके रूख की वजह से चारों ओर पड़े पीपों में आग नहीं लग पाई वर्ना बड़ा हादसा हो जाता । ढढाल इनाम में शाम को मदरसे से लौटते बच्चें ने जब धमाके की आवाज सुनी तो वे उत्सुकतावश उसी ओर भागे और धुएं की चपेट में आ गए । प्रदूषण के असर की जांच के लिए हवा में मौजूद जहरीली गैसों की पहचान आवश्यक होती है किंतु बीइआयएल अभी तक जलने वाले रसायनों के नामों का खुलासा नहीं कर पाया है । जबकि प्रबंधन केन्द्र के लिए अपेन यहां उपचार के लिए अपने वाले अपशिष्ट के प्रकार का रिकॉर्ड रखना और लेने से पहले उसकी जांच कर तस्दीक कर लेना कानूनन आवश्यक है । दुर्घटना के अगले दिन गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हवा की जांच के लिए जिताली, बीइआयएल और एवेंटिस नामक दवा फैक्ट्री में मशीनें लगा दी थी। अधिकारियों ने बताया कि स्थिति आमतौर पर नियंत्रण में है । लेकिन जब उनका ध्यान डायोक्सिन, फ्यूरॉन और अन्य अत्यंत खतरनाक रसायनों के नमूने एकत्र न करने की ओर आकृष्ट किया गया तो गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पर्यावरण यंत्री आर.जी. शाह का जवाब था `इसका क्या फायदा ? हमारे देश में किसी भी प्रयोगशाला ने इनकी जांच की व्यवस्था ही नहीं है ।' हाँ धातुकणों के नमूने जरूर ४ अप्रैल को मुम्बई स्थित नेटेल इण्डिया लेब को भेज दिए हैं । डाउन टू अर्थ ने जब ८ अप्रैल की शाम को नेटेल से सम्पर्क किया तो पता चला कि नमूने अभी भी उन तक नहीं पहुंचे थे । यह भस्मक अपशिष्ट को बहुत ऊँचे तापमान पर जलाता है जिससे इसका जहर हवा में घुल नहीं पाता, जबकि दुर्घटना में यह काफी कम तापमान पर जला जिससे हवा दूषित होने और फलस्वरूप भूमि और जल के भी दूषित होने की निश्चित संभावना है । नियमों के मुताबिक कोई भी औद्योगिक ईकाई अपने परिसर में ९० दिनों से ज्यादा अपशिष्ट संग्रहित नहीं रख सकती है किंतु बीइआयएल ने ५० टन प्रतिदिन उपचार क्षमता के विरूद्ध १२,८२५ टन अपशिष्ट संग्रहित कर रखा था । बीइआयएल की अपशिष्ट उपचार की दर १५ रू. प्रति किलो है और वह इसे अग्रिम लेता है, इस तरह उसके यहां कुल भंडारित अपशिष्ट का उपचार मूल्य १९ करोड़ रूपया जो वह प्राप्त् कर चुका है फिर भी उसने उपचार नहीं किया है । बल्कि दुर्घटना ने तो उसे २५० टन अपशिष्ट जलाकर ३७.५० लाख रूपयों का फायदा करा दिया है । बीइआयएल अधिकारियों, पुलिस और जिला प्रशासन अधिकारियों ने आग के कारणों पर चुप्पी साथ ली । जिला आपदा दल के शीर्ष अधिकारी जिलाधिकारी द्वारा संयोजित तीन सदस्यीय समिति ने अपनी रपट ९ अप्रैल को सौंप दी जिसमें उन्होंने दुर्घटना का निश्चित कारण जान सकने में असफलता स्वीकार की और संभावित कारण अपशिष्ट और लोहे के पीपों की बीच पायरोफोरिक रासायनिक क्रिया माना । रपट में अपर्याप्त् सुरक्षा उपायों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया गया । जिसमें गैस रिसाव से आग टकराने वाले सेंसरों का कार्यरत न होना, खतरनाक रसायनों की पहचान न किया जाना, उन्हें अलग-अलग संग्रह न किया जाना, आग से बचाव के लिए समुचित उपकरण न होना आदि शामिल हैं । गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव संजीव त्यागी ने कहा कि कंपनी के विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज करवाना हमारे क्षेत्राधिकार में नही है । जबकि मामाल निश्चित रूप से लापरवाही का है और आग मानव द्वारा लगाई गई प्रतीत होती है । एक बार निश्चित कारणों का पता लगने पर हम पर्यावरण नियमों के तहत कार्यवाही करेंगे । दुर्घटनास्थल पर कुछ और जानकारियां भी मिली हैं । जैसे कंपनी की ओर से फायर हाइड्रेंट की कोई अवस्था नहीं थी । दमकल कर्मचारियों को आग बुझाने में बड़ी मशक्कत करना पड़ी । सड़क बहुत सकरी होने और गहरे धुंए के कारण दमकल पहुंचने के लिए परिसर की पिछली दीवार का एक हिस्सा तोड़ना पड़ा । स्थानीय चिकित्सक के मुताबिक अगर मजदूर अंदर फंसे होते तो स्थित और खराब होती क्योंकि बाहर निकलने के लिए वहां कोई आकस्मिक दरवाजा भी नहीं है । दुर्घटना की अगली सुबह यहां लोगों को तेल और कीचड़ से सना पाया गया । यह सब कुछ जमीन के अंदर रिसेगा। यहां के कर्मचारी भी मास्क की कमी और थकान की शिकायत करते हैं । इस तरह के उपचार स्थलों पर तो सामान्य से ज्यादा निरीक्षण और सुरक्षा उपायों की दरकार होती हैं किन्तु इस मामले में तो ठीक इसका उल्टा हो रहा है । ***

७ दृष्टिकोण

कैसे हो अंतिम संस्कार ?
डॉ. ओ.पी.जोशी/डॉ.जयश्री सिक्का
जीवन के पश्चात एक ही स्थिति निश्चित है और वह है मृत्यु । अंतिम संस्कार के विभिन्न स्वरूपों से पर्यावरण के दूषित होने की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं । भूमि की कमी और घटते जंगलों ने इस समस्या को और भी अधिक विस्तारित कर दिया है । आवश्यकता इस बात की है कि अंत्येष्टि का कोई ऐसा सर्वमान्य तरीका ढूँढा जाए जो कि प्रदूषित रहित हो । लगभग सारी दुनिया में शवों के अंतिम संस्कार की समस्या बढ़ती जा रही है । प्राकृतिक संसाधन कम हो रहे हैं एवं पर्यावरण प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है । वर्तमान में दुनिया भर में अंतिम संस्कार की दो विधियां ज्यादा प्रचलित है उनमें एक, अग्नि को समर्पित करना और दूसरी, दफनाना । कहीं-कहीं पर जल समाधि की विधि भी अपनाई जाती है । अग्नि को समर्पित करने में टनों लकड़ी खर्च होती है एवं इससे निकली गैसें एवं राख वायु एवं जल प्रदूषण की समस्या पैदा करती है । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के एक प्रारंभिक आकलन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़-दो करोड़ लोगों की मौत होती है एवं हिन्दू मान्यता प्राप्त् शवों को जलाने हेतु लगभग पांच करोड़ टन लकड़ी की आवश्यकता लगती है । सामान्यत: एक शव के अग्निदाह हेतु ३०० से ४०० किलो लकड़ी लगती है एवं बाद में ५०-६० किलो राख बचती है जिसे कहीं न कहीं जल स्त्रोत में डाली जाती है । इस प्रकार शव का अग्निदाह वन, वायुमंडल एवं जल स्त्रोत पर विपरीत प्रभाव डालता है । शवों को दफनाया जाना भी एकदम निरापद नहीं है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप से भूमि को एवं परोक्ष रूप से जल स्त्रोतों को भी प्रभावित करता है । दुनिया के ऐसे देश जहां तापमान कम रहता है वहां शव के विघटन में दो वर्षो तक का समय लग जाता है । साथ ही शवों पर डाले गए कई सुगंधित पदार्थो में आर्सेनिक का प्रतिशत आधिक होने से यह भूगर्भीय जल को भी प्रदूषित करता है। साथ ही शवों को सुरक्षित रखने हेतु लगाया गया फार्मलडिहाइड भी जल के लिए खतरनाक साबित होता है । अमेरिकी पर्यावरणविदों के अनुसार शवों के दांतों में भरी गई डेंटल फीलिंग में उपस्थित पारा भी वायु एवं जल के लिए घातक है । अंत्येष्टि से जुड़ी तमाम सारी समस्याआें को देखते हुए वैज्ञानिक, पर्यावरणविद् एवं कई सामाजिक कार्यकर्ता एवं संगठन अब ऐसे प्रयासों में लगे हैं कि अंत्येष्टि की विधि पर्यावरण हितैषी एवं रास्ती हो । इस हेतु जो प्रयास किए जा रहे हैं उनमें से ज्यादातर इस बात पर आधारित हैं कि लकड़ी की खपत घटाई जाए एवं लकड़ी के स्थान पर अन्य ऊर्जा स्त्रोतों का उपयोग जैसे सीएनजी, एलपीजी एवं सौर ऊर्जा आदि को प्रचलन में लाया जाये । अंत्येष्टि में लकड़ी बचत का शायद प्रथम प्रयास लगभग ३५-४० वर्ष पूर्व मुम्बई के कुछ श्मशानों में किया गया था । तात्कालीन सिटी इंजीनियर श्री दाभोलकर ने मजबूत एवं मोटे लोहे की छिद्रों युक्त पेटी बनवाई थी । इसमें शवदाह की तुलना में लकड़ी की मात्रा आधी ही लगती थी । कुछ वर्षो बाद नई दिल्ली स्थित ऊर्जा पर्यावरण समूह के सी.पी. कृष्णन ने भी शवदाह हेतु एक ऐसी इकाई बनाई थी जिसमें लकड़ी की आधी बचत होती थी । इसकी लागत करीब १० हजार रूपए आती थी एवं ये इकाईयां शासकीय सहायता से हिमाचल प्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान एवं गुजरात के कुछ शहरों के श्मशानों में स्थापित की गई थी । इसी प्रकार लकड़ी बचाने का एक प्रयास ४-५ वर्ष पूर्व एक स्वयंसेवी संस्था मोक्षदा के संस्थापक अध्यक्ष एवं पेशे से सिविल इंजीनियर वी.के. अग्रवाल ने किया । शवदाह की इस पद्धति को मोखदा ही कहा गया । इस पद्धति में अष्टधातु का बना एक आयताकार छिद्र युक्त प्लेटफार्म होता है जो जमीन से लगभग एक डेढ़ फिट ऊँचा होता है । एक दिन में एक प्लेटफार्म पर पांच शवदाह संभव है । गंगा शुद्धिकरण योजना के तहत इस पद्धति का पहला प्लेटफार्म १९९२ में गंगा तट पर हरिद्वार के पास कनखल में लगाया गया था । बाद में छह राज्यों में ४० स्थानों पर ये प्लेटफार्म लगाए गए थे । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने इस पद्धति को वैश्विक पर्यावरण सुधार कार्यक्रम में मान्य किया था । शवदाह में लकड़ी की बचत के साथ-साथ ऊर्जा के अन्य स्त्रोत जैसे विद्युत, सीएनजी, एलपीजी एंव सौर ऊर्जा के उपयोग पर भी सोचा गया एवं कुछ विधियां स्थापित भी की गई । शवदाह हेतु विद्युत चलित भटि्टयां देश के ज्यादातर नगरों एवं महानगरों के श्मशानों में लगाई गई । लंबी चिमनियों से निकले प्रदूषणकारी पदार्थ के कारण आसपास के क्षेत्र में दमा एवं श्वसन संबंधित रोग बढ़ने एवं मृतक के प्रति आस्था एवं देशभर में फैले विद्युत संकट के कारण यह पद्धति अभी भी उपेक्षित ही है । दिल्ली में सीएनजी की सुलभ उपलब्धता के कारण इसका प्रयोग शवहाद में किए जाने का प्रथम प्रयास निगम बोध घाट पर किया गया । यहां सीएनजी से संचालित ६ भटि्टयां लगाई गइंर् । विद्युत की तुलना में यह तीन गुना सस्ता है । निगम बोधघाट के बाद बेलारोड़ एवं पंजाबी बाग स्थित श्मशानों पर भी चार-चार सीएनजी की भटि्टयां लगाई गई थी । सूरत में तो शवदाह में सीएनजी का प्रयोग वर्षो से किया जा रहा है । सीएनजी का प्रयोग सफल होते देख एलपीजी के प्रयोग पर भी सोचा गया एवं मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर शहर के रामबाग श्मशान में एक वर्ष पूर्व एलपीजी चलित भट्टी शवदाह हेतु लगाई गई । इसमें एक शव के संस्कार में एक सिलेंडर की गैस लग जाती है । यहीं पर सन् २००३ से विदेशी तकनीक पर आधारित डीजल चलित भट्टी में शवदाह की व्यवस्था की गई थी । शवदाह हेतु सौर ऊर्जा के उपयोग पर प्रयास तो किए जा रहे हैं परंतु इनके उपकरण काफी महंगे हैं । काफी वर्षो पूर्व जवाहरलाल नेहरू वि.वि. नई दिल्ली के पर्यावरण विभाग में कार्यरत डॉ. जी.सी. पांडे ने सौर ऊर्जा से शवदाह की अवधारणा रखी थी । सन् १९९९ में गुजरात के बलसाड़ में विश्व का प्रथम सौर ऊर्जा आधारित शवदाह गृह बनाने की घोषण की गई थी । इस शवदाह गृह में ५० वर्गमीटर के कांच एवं स्टील से बनी सोलर डिश से सूर्य की किरणें परिवर्तित कर शव पेटी पर डालने की व्यवस्था की गई थी । शव के अग्निदाह से होने वाली पर्यावरण की हानियों को ध्यान में रखकर स्वर्गीय बाबा आमटे ने आनंदवन में अपने शव को दफनाकर उस पर वृक्ष लगाने की पद्धति १९७६ से अपनाई थी । सन् १९९९ में सेवाग्राम आश्रम में शांतिवन की स्थापना के साथ ही इसी के समान अंतिम संस्कार की वृक्ष जीवन क्रियाकर्म पद्धति प्रारंभ की गई जहां अभी तक ३० से अधिक लोगों का अंतिम संस्कार इससे किया जा चुका है । म.प्र. के प्रमुख सर्वोदयी कार्यकर्ता मणींद्र कुमार इसके कट्टर समर्थक हैं एवं उन्होंने इस पर एक छोटी पुस्तक मृत्यु से जीवन की ओर लिखी है। केचुआें से खाद बनाने वाले पुणे के प्रसिद्ध डॉ. उदय भवालकर केचुआें की ही मदद से अंत्येष्टि का प्रयास कर रहे हैं। कुछ वर्षो पूर्व लॉस एेंजिल्स में पर्यावरण मुद्दों पर आयोजित एक सम्मेलन में यह सुझाव रखा गया था कि शवों को एकत्र कर पृथ्वी सतह से २० हजार कि.मी. ऊपर अंतरिक्ष में फेंक दिया जाए जहां वे गुरूत्वाकर्षण के अभाव मेंघूमते रहेंगे । कुछ वैज्ञानिकोंने यह भी सुझाया था कि शरीर में ८०-९० प्रतिशत पानी होता है । अत: किसी सस्ती विधि से शव का निर्जलीकरण किया जावे एवं बाद में अंतिम संस्कार किया जावे तो काफी ऊर्जा बच सकती है । कुल मिलाकर यह माना जा सकता है कि शवदाह की कोई एक पद्धति सर्वमान्य नहीं हो सकती क्योंकि संसाधनों की उपलब्धता एवं आर्थिक स्तर में भिन्नताएं हैं । सस्ती एवं पर्यावरण हितैषी विधि ही भविष्य में मान्य की जावेगी । अमेरिका में तो अब लोग अपनी आर्थिक स्थिति अनुसार दफन की पूर्व योजना बना रहे हैं । एवरेस्ट नामक कम्पनी जो अमेरिका में पहली बार इस प्रकार का कार्य करेगी उसे अभी तक ६५ हजार आर्डर प्राप्त् हो चुके हैं । ***

८ प्रदेश चर्चा

उत्तराखंड : सम्पदा ही विपदा
वीरेन्द्र पैन्यूली
पर्वतीय क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत ही सोच समझकर प्रयोग किया जाना चाहिए । यहां के प्राकृतिक संसाधनों का अनाचार भरा प्रयोग कर मैदानी इलाकों के शहरी क्षेत्र तो अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं परंतु इस प्रक्रिया में पहाड़ों की पूरी अर्थव्यवस्था को समाप्त् कर रहे हैं । जब पर्वतीय क्षेत्र कटे-कटे थे, आवागमन व संचार की दुरूहता थी तो स्थानीय संसाधनों पर निर्भरता ही आर्थिक विकास का पैमाना थी । इससे देशज ज्ञान भी पनपता थी । परंतु आज किसी भी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के संदर्भ पूर्ववत नहीं रहे हैं । सभी क्षेत्रों में बदलाव आ रहे हैं। परिवेश में, पर्यावरण में, इच्छाआे में, जरूरतों में, नैतिक मूल्यों में एवं विज्ञान टेक्नॉलॉजी की क्षमताआें में बदलाव आए हैं। अत: अब आर्थिक आत्मनिर्भरता की बहस भी बदले परिवेश में ही की जानी है। आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने की खोज व इच्छा मनुष्य में अनंत काल से विद्यमान रही है । कोई देश या व्यक्ति यह नहीं चाहेगा कि उसे किसी के सामने हाथ फैलाना पड़े । इससे उसके सामने हित में निर्णयों को लेने की स्वतंत्रता पर असर पड़ता है । यह उन संस्कृतियों के लिए तो बहुत ही विवशता भरी स्थितियां हैं जो अपनी अलग पहचान बनाना चाहती हैं । उदाहरण के लिए उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उत्तराखंडी पहचान बनाना भी राज्य पाने की लड़ाई का एक मकसद था । ऐसी उग्र इच्छाआें के बीच जब खाने, बोलने, सुनने, पहनने का ही संकट हो तो कम से कम पहचान की बात करने वाले पूरे देश में फैले समूहों को आर्थिक आत्मनिर्भरता की बात गंभीरता से करना होगी । अधिकांशत: ऐसे समूह अब तक पहुंच के बाहर रहे हैं और तथाकथित विकास की मुख्य धारा से भी दूर रहकर प्राकृतिक संसाधन के प्रचुर क्षेत्रों में ही स्थापित रहने की कोशिश कर रहे हैं । किंतुयोजनाआें ने अधिकांश ऐस क्षेत्रों को उन स्थितियों में पहुंचा दिया है जहां उनकी कार्य प्रणाली व वित्त आधारित सोच ने भी परियोजना आधारित विकास को मॉडल मानते हुए अपने क्षेत्रीय जल, जमीन, जंगल, खेती को बचाने व बढ़ाने के लिए भी बाहर के धन की आवश्यकता प्रतिपादित कर दी है । नि:संदेह जंगल, जल, जमीन जिसमें खनिज व जैविक सम्पदा भी है विकास की मूलभूत पंूंजी रही हैं । अब तक क्षेत्रीय निवासी उसी के आधार पर अपनी आर्थिक विकास की बात सोचते थे किंतु अब वे उनमें कमी आती देख रहे है । अत: जब मूल पूंजी मे ही कमी होने लग जाए तो फिर ऐसा आर्थिक विकास जो उसी पूंजी पर आधारित है वह भी प्रभावित होगा । श्रम भी पूंजीका एक महत्वपूर्ण स्रोत है । परंतु जब रोजगार के साधन ही सीमित हों, श्रम को कहीं मौका ही न मिले व उचित मूल्य भी न मिले तो उपरोक्त आधारों पर आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं पाई जा सकती । सम्पूर्ण हिमालयी उत्तराखंड श्रेत्र की भूगर्भीय कारणों से अस्थिर है । भूकम्पकीय व अन्य भूगर्भीय हलचलें जारी है । हिमालय अभी भी अपना संतुलन बना रहा है । भूस्खलन, भूकम्प व जलस्त्रोतो में परिवर्तन मानवजनित करणों से ही नहीं पर्यावरणीय कारणो से भी हो सकते हेै । ऐसे में विकास की परियोजनाआें के लिए यहां की विशिष्टाताआें एवं संवेदनताआें को देखते हुए विशेष पर्वतीय तकनीक की भी अवश्यकता है । सड़कें जो आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण घटक मानी गई हैं के लिए तो पहाड़ो मे पर्वतीय जोखिम अभियांत्रिकी का उपयोग शुरु भी हो गया है । पर्वतीय क्षेत्रों में आर्थिक विकास के लिए वैकल्पिक ऊर्जा व परिवहन की आवश्यकता है । इससे एक लाभ यह भी होगा कि पर्यावरण और विकास के जिस द्वन्द्व में ये क्षेत्र फंसे उनसे बाहर निकल सकेंगे । सवाल यही उठता है कि प्रासंगिक विज्ञान व तकनीक व विकास के लिए उत्तराखंड व ऐसे ही अन्य पिछड़े क्षेत्रों में धन कहां से आएगा? यदि आर्थिक विकास के दौरान ही इन क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया गया तो इनकी प्राकृतिक सम्पदा ही विपदा बन जाएगी । जमीन ही ढहते हुए भूस्खलनों के साथ घरों को तबाह कर देगी । कटते, जलते जंगल ही मौसम में परिवर्तन ले आएंगे । जल, जंगल, जमीन का ऐसा संबंध विकसित करना होगा कि इन क्षेत्रों में आपदाएं न आएं । आपदा प्रबंधन, वैश्विक स्तर पर भी संवेदनशील क्षेत्रों में एक आवश्यक विधा मानी जा रही है । कई बार हम समझते हैं कि हम विकास को कार्यान्वित कर रहे हैं किन्तु प्रत्युत्तर में इससे विनाश हो जाता है और खेती, जल स्त्रोतों से, वनों से, मवेशियों व शरीर से पूरी उत्पादकता प्राप्त् नहीं हो पाती है । इसके फलस्वरूप आर्थिक विकास का भयावह व अमानवीय चेहरा भी उभर आता है । पूरे विश्व में ऐसे अनेक उदाहरण है जब आर्थिक विकास तो होता है किंतु रोजगार व अन्य मानवोचित सेवाआें में गिरावट आती है । इसी के साथ प्रजातंत्र व आर्थिक आत्मनिर्भरता के संबंधों पर विशेष ध्यान देना होगा । खासकर ग्रामीण पिछड़े क्षेत्रों और पंचायती राज के अंतर्गत जहां उन्हें विकेन्द्रित नियोजित अनुशासित विकास को स्वयं के ही संसाधनों को जुटाकर या बढ़ाकर करने की न केवल सीख दी जाती है बल्कि उनसे इसकी अपेक्षा भी जाती है। पिछड़े व पहाड़ी क्षेत्रों में पंचायतों के पास ग्राम सभाआें में ही आय बढ़ाने के साधन, चुनावी प्रजातांत्रिक विवशताआें के बीच लोकप्रिय नहीं हुए । अत: आर्थिक आत्मनिर्भरता के आयाम में पंचायती राज की मजबूती के लिए यह जरूरी है कि जगह-जगह संसाधन विकास केन्द्र भी स्थापित हों । जब बाजार की बात आती है तो आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए यह भी जरूरी है कि राज्यों के पिछड़े क्षेत्रों के उत्पादों की खपत का बाजार हमेशा बाहर ही न ढूंढा जाए बल्कि इन क्षेत्रों के भीतर भी इन्हें बनाया जाये, इससे बाहरी अस्थिरता कम प्रभावित करेगी । स्थानीय आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ाते समय स्थानीयजन के मनोविज्ञान, परम्परा व परिवेश का भी स्वाभाविक ध्यान रखना होगा । मार्टिन लूथर किंग के ये शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं कि `सारी प्रगति बहुत ही संवेदनशील संतुलन में रहती है और एक समस्या का निदान हमें दूसरी समस्या से सामना करवा देता है ।' फलस्वरूप इलाज मर्ज से ज्यादा खराब हो जाता है। आर्थिक विकास या आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने के उपायोें को इन्हीं संदर्भो में भी देखना होगा । आर्थिक आत्मनिर्भरता के कुछ प्रतीक भी चुनौती के रूप में स्वीकार करने होंगे । जैसे आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी ने चरखा का प्रतीक लिया था । अत: यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि आर्थिक विकास हम किन आधारों व किन संसाधनों व किस वातावरण में कर रहे हैं। जैसे स्थाई सतत विकास की बात की जाती है वैसे ही आर्थिक आत्मनिर्भरता के विकास में भी सततता लाने का प्रयास होना चाहिए । आर्थिक आत्मनिर्भरता क्षणिक नहीं होनी चाहिए । घर जलाकर रोशनी करना अंधकार से लड़ने का बेहतर तरीका नहीं है । पिछड़े क्षेत्रों में आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने के लिए कई तरह के उद्योगों की बात की जाती है । संबंधित क्षेत्रों में ऐसे प्रतिमानों के आदर्श स्थापित करने की जरूरत है जिन्हें क्षेत्रीय जन वास्तव में स्वीकार कर सकें । अत: खर्चो पर नियंत्रण भी आवश्यक है । महंगे तरीकों से आर्थिक आत्मनिर्भरता पाने की बहुत ज्यादा संभावनाएँ नहीं है । पूंजी को लेकर कई सवाल उठते हैं । जैसे यह पिछड़े क्षेत्रों में कैसे आएगी ? ज्यादा पूंजी कैसे पैदा होगी ? प्राकृतिक संसाधनों की भरपाई कैसे होगी व उनका बेकार जाना कैसे कम होगा और वह किस प्रकार नागरिकता के मूल्यों को मजबूती प्रदान करेगी ? यही वे प्रमुख प्रश्न है जिनका उत्तर खोजना क्षेत्रीय आत्मनिर्भर आर्थिक विकास के लिए अत्यंत जरूरी है ।***

९ पर्यावरण परिक्रमा

म.प्र. में पेड़ों की २०० प्रजातियों पर संकट
मध्यप्रदेश में पौधों की लगभग २०० प्रजातियाँ संकट में है । म.प्र. जैव विविधता बोर्ड ने इन प्रजातियों को रेट (दुर्लभ, लुप्त् और खतरनाक स्थिति वाली प्रजातियाँ) की श्रेणी में रखा है । ये प्रजातियाँ केंद्रीय, चंबल, विंध्य एवं मालवा क्षेत्र की है । जैव विविधता बोर्ड के अनुसार इन प्रजातियों को उनके क्षेत्र के अनुसार बाँटा गया है । इसमें केंद्रीय पर्यावरणवीय क्षेत्र में लगभग २९ पेड़ों की प्रजातियाँ ऐसी हैं, जो दुर्लभ है और उनके लुप्त् होने का खतरा है । इनमें काली रत्ती, अंकोल शतावरी, काली हल्दी, रतालू, मेरोफली, दूधी, गिलोय, बैरझारी, अडूसा, ईश्वरमूल, आल, बीजासाल, केवरी आदि हैं । ग्वालियर एवं चंबल क्षेत्र में बच, कालमेघ, गुड़सार, डाबरा, सर्पगंधा, ईश्वरमूल, झलितरी, केमचफली, दममाबूटी आदि विलुिप्त् की कगार पर हैं । विंध्य क्षेत्र में काली हल्दी एवं तेलियाकंद समािप्त् की ओर हैं । ड्रोसेरा, निलगुड़ी कंद की ३० प्रजातियाँ और बच, ब्राह्मणी, सोमवली की ४८ प्रजातियाँ खतरनाक स्थिति में है वहीं दंती, गुरमार, गिलोय की १०२ प्रजातियाँ संवेदनशील हैं । अनंतमूल, निशोथ की ४२ प्रजातियों पर कभी भी संकट आ सकता है । मालवा क्षेत्र में दुर्लभ पेड़ों, जो खतरनाक स्थिति में हैं, उनकी २८ प्रजातियाँ है । इनमें गोरख ईमली, मोरार फली, कबीट, सोन पतरी, जंगली सुरन, जंगली तंबाकू, आम्बा हल्दी, शिवलिंगी, सर्पगंधा, धवाई, हंसराज, केवड़ा, खसघास आदि ऐसी प्रजातियाँ है, जो दुर्लभ होती जा रही हैं और यदि इन्हें नहीं संभाला तो ये लुप्त् हो जाएँगी ।
ग्लोबल वार्मिंग से भड़केगी अमेरिका में आग
विशेषज्ञों का कहना है कि २१वीं सदी में ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव के चलते अमेरिकी जंगलों में लगने वाली आग का प्रकोप बढ़ेगा और इस प्रकार की घटनाआें में तेजी आएगी । न्यू साइंटिस्ट पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार जिस प्रकार महासागरों का तापमान बढ़ रहा है उससे वातावरण में और अधिक तापमान की बढ़ोतरी होना निश्चित है । इसका सबसे अधिक असर अमेरिका जैसे देशों पर पड़ेगा जो दो तरफ से समुद्र से घिरे हैं और जिनके पास लंबी कोस्टलाइन है । ऐसे में अमेरिका के जंगलों में लगने वाली आग इस सदी में और भी भयानक रूप धारण करेगी, इस बात की आशंका बढ़ जाती है । इस बारे में यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर फोरेस्ट सर्विस इन एथेन्स, जार्जिया के योंगियांग ल्यू कहते हैं कि अगर प्रशांत महासागर गर्म होगा तो हम उससे भला कैसे बच सकते हैं । उसकी गर्मी हमारे देश में लपटों का सा प्रभाव पैदा करेगी । श्री ल्यू का कहना है कि उत्तर प्रशांत महासागर में गर्म होने से मौसम का चक्र परिवर्तित होगा और वो कम दबाव वाला क्षेत्र बनाएगा । इससे जेट स्ट्रीम सरक्युलेशन कनाडा की तरफ जाएगा और गर्मी का पाश अमेरिका पर कसा जाएगा। इस सरक्युलेशन से सूखी और गर्म हवाआें का चक्र पूर्वीऔर पश्चिमी क्षेत्र को घेरेगा । श्री ल्यू ने इस अध्ययन को करने के लिए १९८० से २००२ तक के मौसम संबंधी समस्त आंकड़े इकट्ठे किए हैं और दावा किया है कि पूर्वी प्रशांत क्षेत्र २०८० तक ०.६ डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाएगा । श्री ल्यू का यह भी दावा है कि अगर यह स्थिति निर्मित हो जाती है तो इससे अमेरिका के २० लाख हैक्टेयर जंगली क्षेत्र में आग लगने का खतरा पैदा हो जाएगा जिससे होने वाले नुकसान का सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है ।
सौ वर्षो से कार्य कर रहा है इंर्धन रहित पंप
आज जब पूरी दुनिया इंर्धन की समस्या से जूझ रही है तब कलपेट्टा (केरल) में लगा ब्रिटिशकालीन एक इंर्धन रहित हाइड्रॉलिक पंप सबके लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ है । यह पंप पिछली एक शताब्दी से बिना रूके और बिना इंर्धन की खपत के पानी की ईमानदारी से आपूर्ति कर रहा है । केरल मेंनीलगिरी पहाड़ियों की तराई वाले क्षेत्र में बसे चोलाड़ी के एक झरने में यह पंप लगा हुआ है और लगातार काँच जैसा साफ पानी लोगों को उपलब्ध करा रहा है। यह पंप जमीन से लगभग ६०० फीट ऊपर एक बंगले में लगा हुआ है जो किसी तत्कालीन ब्रिटिश नागरिक द्वारा बनवाया गया था और उसकी रियासत का हिस्सा था । उस ब्रिटिश ने यह पंप अपनी सहूलियत के लिए लगवाया था । इस पंप पर लगी तांबे की प्लेट पर पंप को बनाने वाली कपंनी का भी नाम है । इस प्लेट पर जॉन ब्लेक इंजीनियर्स, एकरिंगटन, लैंकेस्टर, इंग्लैण्ड लिखा हुआ है । अब इस बंगले का मालिकाना हक हैरीसन मलयालम प्लांटेशन के पास है। इस कंपनी के प्रबंधक जितेन्द्र झा इस बारे में बताते हैं कि इस रियासत के मालिक ब्रिटिश नागरिक वेंटवर्थ थे और उन्होंने इस पंप को ब्रिटेन से १९वीं शताब्दीं के अंत में यहाँ बुलवाया था । पंप की देखरेख कर रहे मैकेनिक मरीमुथु के अनुसार अभी तक पंप को चुस्त-दुस्त रखने के लिए सिर्फ कुछ नट-बोल्ट ही बदले गए हैं जो मामूली सी बात थी । आज तक इस पंप में कोई बड़ी खराबी नहीं आई है। इस पंपर के बारे में मुथु बताते हैं कि यह ऊँचे झरने से पानी खींचकर एक आठ इंच पाइप के माध्यम से १०० मीटर दूर एक टैंक में पहुँचाता है । टैंक से फिर एक छ: इंच मोटे पाइप के जरिए इसका पानी १.५ किमी दूर स्थित बंगले में पहुँचता है । इस पंप में चार सिलेंडर लगे हुए हैं जो पानी के दबाव और रफ्तार को नियंत्रित कर उसे निर्धारित स्थान तक पहुँचाते हैं । इसमें कोई बिजली या इंर्धन की जरूरत नहीं पड़ती । यह पंप पूरी तरह से पर्यावरण मित्र साबित हो रहा है ।
गंदी बस्तियों की जिंदगी का अध्ययन कराया जाएगा
भारत सरकार देश के स्लम इलाकों में रहने वाले लोगों की जिंदगी का गहन अध्ययन कराने की तैयारी में है। इस अध्ययन के दौरान झुग्गियों में रहने वाले करीब ६८ करोड़ लोगों की जिंदगी कैसे कट रही है और उन्हें किन समस्याआें से जूझना पड़ता है, इन सवालों का उत्तर ढूंढने की कोशिश की जाएगी । नेशनल सैंपल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) के महानिदेशक पी.के. राय के अनुसार इस राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण से गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों की जिंदगी के विभिन्न पहलुआें से अवगत होने का मौका मिलेगा । हमें इन लोगों की सामाजिक आर्थिक स्थिति और उनके मूल स्थान की जानकारी भी होगी । उन्होंने कहा कि इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष के आधार पर इन लोगों की स्थिति में सुधार की रणनीति बनाने में आसानी होगी । श्री राय ने कहा, ``शहरीकरण की बढ़ती रफ्तार के साथ ही बड़े पैमाने पर लोग बड़े और द्वितीय स्तर के शहरों की ओर पलायन करने लगे हैं । इनमें से अधिकांश लोग स्लम इलाकों में रहते हैं। उनके रहन-सहन का अध्ययन कर सुधारात्मक कदम उठाए जाने की जरूरत है ।'' योजना आयोग के आकलन के मुताबिक वर्ष २००१ में देश के स्लम इलाकों में करीब ६ करोड़ लोग रह रहे थे । अगले पांच वर्षो में उनके लिए २५ करोड़ घरों की जरूरत पड़ेगी । श्री राय ने कहा ``आवासीय सुविधाआें की कमी हमारे लिए चिंता का विषय है । देश में बेघरों की संख्या भी बड़ी है ।'' एक साल तक चलने वाला यह सर्वेक्षण १ जुलाई से शुरू होने वाला है । इसकी रिपोर्ट अक्टूबर २००९ में जारी होगी ।
अरावली पवर्त की चट्टानों पर शोध होगा
हिमालय से भी प्राचीन अरावली पर्वतमाला की चट्टानों की आयु गणना और उनके अंतर संबंधों के बारे में केंद्र सरकार के वित्तीय सहयोग से अनुसंधान कार्य किया जाएगा । यह जानकारी देते हुए राज. में श्री डूंगर कॉलेज बीकानेर के भू-विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. सतीश कौशिक ने बताया कि केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने इसके लिए ५७ लाख रूपए की राशि मंजूर की है । इस राशि से कई विशेष उपकरण भी खरीदे जाएँगे । डॉ. कौशिक ने बताया कि अध्यापन और शोध कार्य के प्रोत्साहन के लिए प्राप्त् अनुदान राशि से विशेष उपकरण भी खरीदे जाएँगे । जिनकी मदद से महाविद्यालय में चल रहे अनुसंधान कार्य को बढ़ावा दिया जाएगा । डॉ. कौशिक के अनुसार अत्याधुनिक और स्वचलित थिन सेक्शन इकाई से चट्टानों की .०३ मिमी मोटाई की स्लाइड बनाकर माइक्रोस्कोप से चट्टानों का गहन अध्ययन एवं शोध किया जाएगा। इससे अरावली विंध्याचल पर्वत की विभिन्न चट्टानों की काल गणना को लेकर शोधकर्ताआें में उत्पन्न अंतरविरोध को सुलझाने में भी मदद मिलेगी । इसके साथ-साथ चट्टानों की मजबूती, गुणवत्ता और उनके विश्लेषण तथा खनिजों की पहचान एवं उनमें निहित तत्वों का पता लगाने संबंधी कार्य भी किए जा सकेंगे । इस शोध अध्ययन में पश्चिमी राजस्थान के मालानी क्षेत्र में उपलब्ध चट्टानों के शोध को प्राथमिकता दी जाएगी ।***

११ ज्ञान विज्ञान

सिंथेटिक बॉयोलॉजी से `जैविक आतंक'

लंदन में नाटिंघम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने चेताया है कि सिंथेटिक बॉयोलॉजी के फायदों को देखते हुए यह संभावना बढ़ गई है कि आंतकवादी इसका प्रयोग पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के लिए कर सकते हैं । उल्लेखनीय है कि सिंथेटिक बॉयोलॉजी एक ऐसी तकनीक है जिससे कृत्रिम जीवन पैदा किया जा सकता है । इसमें कृत्रिम इंजीनियरिंग अंगों का उपयोग किया जाता है । विवि के बॉयोटेक्नोलॉजी एंड बॉयोलॉजिकल साइंसेज काउंसिल ने अध्ययन कर पता लगाया है कि ऐसी तकनीक समाज के लिए अहितकारी हो सकती है अगर वह गलत हाथों में चली जाए । इस तकनीक से जैविक आतंकवाद इस तरह से संभव है कि अगर मानव को ऐसे अंगों का सामना करना पड़े जो उसके लिए मुफीद नहीं हैं तो वह निश्चित ही तकलीफ में पड़ सकता है । इस रिपोर्ट को लिखने वाले वैज्ञानिक एंड्रयू बामर और प्रो. पॉल मार्टिन ने कहा कि हमें डर है कि आतंकी कहीं इस तकनीक को गैरेज बॉयोलॉजी न बनाकर रख दें । इसका मतलब है कि कहीं इस त्तकनीक से संबंधित प्रयोग घरों में न होने लगें जो बहुत ही अनिष्टकारी है । इस रिपोर्ट जिसका शीर्षक है - सिंथेटिक बॉयोलॉजी: सोशल एंड इथिकल चेंजेज में यह चिंता भी जताई गई है कि कहीं कृत्रिम अंगो को वातावरण में खुला नहीं छोड़ दिया जाए, क्योंकि ऐसी हालत में भी वह घातक ही साबित होंगे । अध्ययन के स्त्रोत रहे नार्टिघम विवि ने अंदेशा जताया है कि किसी भी प्रकार की जैविक मशीनें अगर वातावरण में खुली छोड़ी जाती हैं तो वो निश्चित ही उसे नुकसान पहुँचा सकती है और यह किसी आतंकवादी घटना से कम बात नहीं है । वैज्ञानिकों ने कहा है कि अगर ऐसा होता है तो यह भगवान के साथ खिलवाड़ करने जैसा ही है, क्योंकि इसका नतीजा फिर कुछ भी हो सकता है । उन्होंने इस तकनीक को बेहद सुरक्षित बनाए जाने की बात कही ।
मुश्किल में है गांगेय डॉल्फिन

असम सरकार द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी की डॉल्फिन को संकटग्रस्त प्राणी घोषित किए जाने के बावजूद वहाँ इनके लुप्त् होने का खतरा बढ़ रहा है । डॉल्फिन से निकलने वाले स्वास्थ्यवर्धक तेल के लिए होने वाला उनका शिकार, दुर्घटनावश मृत्यु और हैबिटाट के खत्म होने से प्रदेश में उनकी संख्या सिकुड़कर २५० रह गई है । अब असम सरकार ने इन्हें बचाने के लिए एक अन्य तरीका खोज निकाला है । असम से होकर बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी और उसके बेसिनों में मीठे पानी यानी नदी जल की डॉल्फिनें पाई जाती है । भारत में डॉल्फिन की इस प्रजाति को `गांगेय डॉल्फिन' कहा जाता है । इनका यह नाम प्रसिद्ध नदीं गंगा में पाए जाने के कारण पड़ा है । वैसे डॉल्फिन की यह प्रजाति उत्तर भारत तथा उत्तर पूर्व की कई सारी नदियों में पाई जाती है । असम में इन्हें `शिहू' कहा जाता है । इस महत्वपूर्ण जलचर को बचाने के लिए राज्य की तरूण गगोई सरकार ने इस डॉल्फिन को `एक्वेटिक स्टेट एनिमल' (प्रादेशिक जलचर प्राणी) घोषित किया है । सरकार का सोचना है कि उसके इस कदम से इस अदभुत प्राणी के अवैध शिकार पर लगाम लगेगी । अब सरकार कह रही है कि वह नदियों के उन क्षेत्रों को जहाँ ये डॉल्फिन पाई जाती है, संरक्षित करेगी ताकि उनकी संख्या में इजाफा हो सके । डॉल्फिन की संख्या कम होने की मुख्य वजह शिकार ही है जिस पर अभी तक काबू नहीं पाया जा सका है । वैसे कई बार यह मछली अनचाहे मछुआरों के जाल में फँस जाती है जबकि मछुआरे उसे पकड़ना नहीं चाहते हैं । लेकिन इस चूक से भी आखिर डॉल्फिन को तो जान से हाथ धोना ही पड़ता है । डॉल्फिन फाउंडेशन के सुजीत बैरागी लंबे समय से डॉल्फिन को बचाने के लिए अभियान चला रहे हैं । उनकी माँग हैं कि इस जीव की जब तक अच्छे तरीके से मॉनीटरिंग नहीं होती तब तक इसे बचाए रखना मुश्किल है इसलिए सरकार को इसकी मॉनिटरिंग के व्यापक इंतजाम करने चाहिए ।
अम्लीय पानी से होगा समुद्री जीवों को नुकसान

वैज्ञानिकों ने दुनिया को चेताया है कि सन् २१०० तक दुनिया के महासागर ज्यादा अम्लीय हो जाएँगे और उससे समुद्रों में पाया जाने वाला कोरल इको सिस्टम नष्ट हो जाएगा । ये तथ्य वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक नए अध्ययन में सामने आए है । `न्यू साइंटिस्ट' में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार संसार के महासागरों की संरचना में परिवर्तन आ रहा है । इटली के समुद्री तट से उथले मेडिटेरियन समुद्री पानी की जाँच के बाद पाया गया कि इस पानी का अम्लीकरण हो रहा है । यह अम्लीकरण मुख्य रूप से समुद्र में कार्बनडाइ ऑक्साइड के घुलने की वजह से हुआ है । इसी कारण समुद्री पानी का पीएच पहले के मुकाबले कम हो रहा है। सन् १९०० मेंजहाँ यह पीएच ८.२ था, वहीं सन् २१०० में इसके ७.८ होने की संभावना है । अध्ययन के अनुसार जब पानी का अम्लीयकरण बढ़ेगा तो पानी में रहने वाले खोल वाले जीव जंतु संकट में आ जाएँगे, क्योंकि इससे उनके खोल धीरे-धीरे समुद्र में घुलने लगेंगे । ब्रिटेन के प्लेमाउथ विश्वविद्यालय के जेसन हॉल-स्पेंसर ने इस विषय पर प्रयोग के लिए दक्षिणी इटली के इशचिया द्वीप को चुना, जहाँ प्राकृतिक तौर पर समुद्री कार्बन -डाइआक्साइड घुल रही थी । उन्होंने सबसे पहले गहरे समुद्री पानी का पीएच मापा जो ८.२ था और इसके बाद उस तटीय क्षेत्र के पानी का पीएच मापा जो गिरकर ७.४ तक आ गया था । उस क्षेत्र में कोरेलीन एलगी, मूंगा चट्टानें और प्रवाल भित्तियाँ पानी में चूर-चूर हो रही थीं । श्री स्पेंसर के अनुसार अम्लीय पानी में जीवन जीना एक मुश्किल काम है, खासतौर से खोल वाले नाजुक जीवों के लिए । वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसे पानी में कठोर खोल वाले जीव ही जीवन जी सकते हैं लेकिन उनको ऐसी जगह लाकर बसाया कैसे जा सकता है ? वर्तमान में इस पानी में जो जीव रह रहे हैं, उनके खोल तो इतने नर्म हैं कि आप अपने अँगूठे से भी उनके खोल को दबा सकते हैं ।

और अब बारिश का बैक्टीरिया

क्या बारिश बैक्टीरिया के कारण होती है ? लगता है कि ऐसा ही है । दरअसल लग तो यह रहा है कि बारिश वह तरीका है जिससे बैक्टीरिया वापिस धरती पर पहुंचते हैं । यह निष्कर्ष निकला है दुनियाभर में गिरने वाली बर्फ के विश्लेषण से । इन नमूनों की जांच से पता चला है कि बारिश के बैक्टीरिया दुनिया भर में पाए जाते हैं । दरअसल हवा में जब जल वाष्प की मात्रा बढ़ जाती है, तो वह संघनित होकर पानी या बर्फ के रूप में गिरती है। मगर संसाधन के लिए जरूरी होता है कि हवा में कुछ कण मौजूद हो, जिनके आसपास जल वाष्प के कण इकट्ठे हो सकें । इसीलिए कृत्रिम बारिश लाने के लिए सिल्वर आयोडाइड या शुष्क बर्फ के कण हवा में बिखराएं जाते हैं । यह भी काफी समय से पता है कि हवा में तैरते बैक्टीरिया भी इस तरह की भूमिका निभा सकते हैं । लुइसियाना राज्य विश्वविद्यालय के ब्रेन्ट क्राइसनर का मत है कि यह बरसाती भूमिका वे बैक्टीरिया निभाते हैं जिनकी बाहरी सतह पर कुछ खास किस्म के प्रोटीन होते हैं -इन्हें बर्फ संग्राहक प्रोटीन कहते हैं। मसलन, स्यूडोमोनास सिरिंजे नामक बैक्टीरिया की बाहरी सतह पर एक प्रोटीन होता है जो पानी के अणुआें को इस तरह बांधने में मदद करता है कि वे बर्फ के क्रिस्टल जैसे बन जाते हैं । जब ये क्रिस्टल भारी होकर गिरते हैं तो वर्षा होती है । श्री क्राइसनर और उनके साथियों ने पाया है कि हिमपात के बाद इकट्ठी की गई बर्फ में अधिकांश बर्फ संग्राहक प्रोटीन जैविक स्त्रोतों से आए थे । यदि उनका विचार सही है तो इन बैक्टीरिया अथवा ऐसे प्रोटीन्स का उपयोग कृत्रिम बारिश करवाने में किया जा सकेगा । जैसे स्यूडोमोनास जैसे बैक्टीरिया वनस्पति पर बसते हैं । सूखे की परिस्थिति से निपटने के लिए क्षेत्र में ऐसे पौधे लगाए जा सकते हैं, जिस पर ये बैक्टीरिया पलते हैं । बहरहाल, ऐसी संभावनाआे को साकार करने से पहले काफी अनुसंधान की जरूरत होगी । ***

१२ कविता

आंगणे रो दरखत
छोगसिंह राजपुरोहित `पथिक'
आंगणे रो दरखत बूढ़ो व्है गयो,
पानड़ा खिर गया अर ठूंठ रेह गयो,
पण थे इणने काटो मत,
आ थारी ओळखाण है
फूलीया फळीया परवार री निसाण है ।
एक दिन ओ दरखतकांची कूंळी कूपल थी,
आंगणा री तुलसी
अर ओखद री जड़ी बूटी थी
घणा लाड़ कोड़ा सू उच्छैर्यो,
हालरीयो गायो थो,
काजळ, टीकी अर गोरबन्द
सघला रो टोटको ताण्यो थो,
रातां री नींद बिगाड़ी,
भूखा रैय इणने धंपायो,
तद ओ दरखत बण्यो
टेम रे सागे फूल फळ लागा,
डाला फूटा रूवाळा जागा,
बेलड़ीया लिपटी,
तितलिया फरूकी,
भंवरा री गंुजन,
गिरजड़ा री धमकार,
सावण री रिमझिम,
काळजो धूजावतो मावठो,
बळती लू री रणकार,
इण सघला रे पाछै,
मन मोवणो बसंत आयो,
फरज निभायोअर आसरो बण्यो,
सबरो आम
किणिरो नी खास
पण अबै अवस्था पाकी
गौरी चामड़ी व्है गी खाकी
बंद ढीला अर जड़ा कमजोर
कुदरत रे आगे चाले नी जोर ।
इण रूखड़ा को मरम
नि:स्वार्थ साधना बिन नी जाण सके
गैरी छाया रो महेत्तव
लू में पतीयोड़ा पथिक जाण सके,
जीवता माईतां रो कोई महेत्तव नी,
माईता रो महेत्तव तो
बिन माईत रे बाळ री
सूनी आख्यां ईज बता सके
पण चेतजा मानखा
थारी अर दरखत री सरखामणी एक है
तू चाल फिर सकेअर ओ अडिग है
ओ हळ हालरीयो वळो बणैला,
म्यांळ बण कणी रो भार झेलेला,
ओ आसी खूंटा रे काम
थू सोवेला खूंटी ताण
पण कुदरत सू मत जाजे उब
जुवानी में मत जाजे डूब
आगे पाछे रो ध्यान कर
थारो कांई होवेला जतन कर
काया रो मद
अर माया रो घमण्ड
दौन्यू उतर जावेला
`पथिक' थूं याद राख,
रूखड़ा अर माईत सरीखा है
भले बूढ़ा व्है जावे तो
गरड़ा गहरणा सरीखा है । ***

१३ पर्यावरण समाचार

उत्तरी ध्रुव पर भारतीय अनुसंधान केन्द्र
भारत ने उत्तरी ध्रुव पर अपना स्थायी अनुसंधान केन्द्र स्थापित किया, जो वैज्ञानिकों को धरती के सबसे स्वच्छ वातावरणों में से एक में जलवायु परिवर्तन सहित बहुत से अन्य विषयों पर अध्ययन करने के योग्य बनाएगा । स्पिट्सबर्जन के पश्चिमी तट नी एलेसुंड में अनुसंधान केन्द्र हिमाद्री का उद्घाटन पृथ्वी विज्ञान मंत्री कपिल सिब्बल ने किया । स्पिटसबर्जन नार्वे के स्वैलवार्ड द्वीप समूहों में सबसे बड़ा द्वीप है । उत्तरी ध्रुव से १२०० किलोमीटर की दूरी पर स्थित नी एलेसुंड सुदूर उत्तर स्थित अंतरराष्ट्रीय अनुसंधान गांव है, जिसका प्रबंधन नार्वे सरकार की कंपनी किंग्सवे द्वारा किया जाता है । नी एलेसुंड में पिछले ११ महीने में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा चलाए गए दो अभियानों के बाद इस अनुसंधान केंद्र की स्थापना हुई है । राष्ट्रीय ध्रुव एवं सागर अनुसंधान केन्द्र गोवा के निदेशक रसिक रवींद्र के नेतृत्व में ध्रुव संबंधी अभियान गत वर्ष अगस्त में शुरू किया गया था । इसके बाद बरकतुल्ला विश्व विद्यालय भोपाल के प्रोफेसर एके ग्वाल के नेतृत्व में सात वैज्ञानिक की एक और टीम इस काम में शामिल हुई । उत्तरी ध्रुव पर अनुसंधान केन्द्र स्थापित किए जाने से तीन दशक पहले भारत ने अंटार्कटिका की दक्षिण गंगोत्री में स्थायी अध्ययन केंद्र स्थापित किया था । स्वैलवार्ड तक भारत की पहुंच नार्वे के साथ हुई एक संधि की वजह से है । इस क्षेत्र के संप्रभु अधिकार नार्वे के पास हैं । नी एलेसुंड में अनुसंधान केन्द्र स्थापित करने वाला भारत विश्व का ११वां देश है । इस जगह अनुसंधान केन्द्र रखने वालों में नार्वे, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जापान, दक्षिण कोरिया, चीन, नीदरलैंड्स और स्वीडन शामिल हैं । ६३ हजार वर्ग किलोमीटर में फैले नी एलेसुंड का दो तिहाई हिस्सा हमेशा बर्फ से ढंका रहता है । भारत का अंटार्कटिका में मैत्री नाम का एक संचालन केंद्र भी है और इस साल के अंत में दूसरे केंद्र की स्थापना करने की प्रक्रिया चल रही हैं ।
प्राचीनतम बीज के उगने का कीर्तिमान
एक पुराना बीज राजा हेरोड की ऐशगाह के मलवे से मिला । इसे बोकर देखा गया और आश्चर्य की बात यह कि यह उगा, पत्तियाँ फूटीं और एक लहलहाता पौधा खड़ा हो गया । आश्चर्य की बात यह है कि हेरोड के जमाने का बीज २००० वर्ष बाद भी जीवित है। हेरोड राजवंश ईसा के समकालीन है जिसने फिलिस्तीन पर राज किया और इसके ९ सदस्यों का उल्लेख न्यू टेस्टामेंट में है । मृत सागर से लगे जूडीयन मरूस्थल में एक पहाड़ी पर बने २०४४ वर्ष पुराने मसादा महल के कचरे में यह पाम का बीज पड़ा मिला था । तीन वर्ष पहले इसका हार्मोन उर्वरकों से उपचार कर बोया गया और यह उग आया। इसके पौधे को मैथूसेला वृक्ष नाम दिया है क्योंकि यह बाइबल के सबसे बूढ़े पात्र का नाम है । पाम खजूर प्राचीन जूड़िया का महत्वपूर्ण निर्यात था । इसके चित्र सिक्कों पर बने मिलते हैं और मृत सागर में गैलिली के सागर तक इसके बगीचे लगाए जाते थे । ***